Powered By Blogger

शुक्रवार, 7 जून 2019

कृषि में संतुलित उर्वक उपयोग से टिकाऊ खेती संभव


             कृषि में संतुलित उर्वक उपयोग से टिकाऊ खेती संभव
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय.
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

हमारे देश की जनसँख्या 125 करोड़ का आंकड़ा बहुत समय पहले ही पार कर चुकी है. तेजी से बढ़ती हुई आबादी के लिए भरपूर भोजन की व्यवस्था करने के लिए सतत कृषि उत्पादन बढ़ाना आवश्यक ही नहीं मजबूरी हो गया है कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी के लिए हमारे सामने दो महत्वपूर्ण विकल्प हैं, पहला तो यह कि हम पैदावार बढाने के लिए कृषि योग्य भूमि में वृद्धि करें जो कि लगभग नामुमकिन है दूसरा महत्वपूर्ण विकल्प बचता है कि हम कम से कम क्षेत्रफल से अधिक से अधिक पैदावार लें  फसलों से अधिक उपज प्राप्त करना कई कारकों पर निर्भर करता है, मसलन उन्नत किस्में, सिंचाई, उर्वरक, पौध सरंक्षण आदि. उन्नत किस्मों से अधिकतम पैदावार लेने के लिए सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है जलवायु परिवर्तन के कारण सिंचाई जल की उपलब्धतता में निरंतर कमीं होती जा रही है।  अतः फसल उत्पादन बढाने में पानी के बाद उर्वरक एक महत्वपूर्ण कृषि आदान है सघन कृषि में लगातार अंधाधुंध तरीके से रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति में गिरावट आने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण में भी इजाफा हो रहा है।  अतः खद्यान्न उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उर्वरक का समुचित एवं संतुलित प्रयोग करना नितांत आवश्यक है. उर्वरक का समुचित एवं संतुलित इस्तेमाल से तात्पर्य है की फसल की आवश्यकतानुसार सभी आवश्यक पोषक तत्व समुचित मात्रा एवं उचित अनुपात में उचित समय पर मृदा में उपलब्ध करना है. पौधों के सम्पूर्ण विकास के लिए 18 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है. पौधों के लिए आवश्यक मुख्य पोषक तत्वों में  नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश का उपयोग अधिक मात्रा में तथा अन्य तत्व का उपयोग अल्प मात्रा में किया जाता है. अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने की लालसा में किसान अंधाधुंध तरीके से रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहे है जिससे प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति निर्मित हो रही है. किसान खेती में अनुमान से ही उर्वरकों का उपयोग कर रहे है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है और पर्यावरण को भी क्षति पहुँच रही है बहुतेरे कृषक खेती में उर्वरक का उपयोग तो करते है किन्तु एक या दो तत्व से संबंधित उर्वक को भूमि में मिलकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है इस प्रकार से उर्वरक देने से फसल को उस तत्व विशेष की तो प्रचुर मात्रा उपलब्ध हो जाती है परन्तु अन्य तत्वों की कमीं से मृदा के पोषक तत्वों का संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाता है उदहारण के लिए यदि हम मृदा में सिर्फ यूरिया का इस्तेमाल लम्बे समय तक करें तो मृदा में नत्रजन तो पर्याप्त मात्रा उपस्थित रहेगा किन्तु फॉस्फोरस, पोटेशियम, सल्फर आदि की कमीं हो जाती है जिससे फसल उत्पादन बढ़ने की बजे घटने लगता है. जागरूक किसान भूमि में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश से युक्त उर्वरक का उपयोग तो पर्याप्त मात्रा में करते है परन्तु फसल के लिए अन्य आवश्यक पोषक तत्वों जैसे कैल्शियम, सल्फर, मैग्नेशियम आदि की पूर्ति पर ध्यान नहीं देते है जिससे इन तत्वों की कमीं के कारण उन्हें भरपूर उत्पादन नहीं मिल पाता है खरीफ में जिन क्षेत्रों में सोयाबीन अथवा मूंगफली की खेती प्रचलन में है, वहां की मिट्टियों में सल्फर तत्व की कमीं देखी जा रही है चूँकि सोयाबीन एवं मूंगफली तिलहनी फसलें है जो मृदा से अधिक मात्रा में सल्फर तत्व का अवशोषण करती है, क्योंकि तेल निर्माण में सल्फर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है वर्तमान परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि कम लागत में अधिकतम उपज लेने के लिए क्षेत्र के अनुकूल फसल चक्र अपनाते हुए उर्वरकों का समुचित एवं संतुलित उपयोग किया जाए जिससे उर्वरक उपयोग क्षमता में बढोत्तरी हो सके।  फसलों से अधिकतम उत्पादन लेने तथा उर्वरक उपयोग क्षमता में वृद्धी के लिए अग्र प्रस्तुत विन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है:
1.उर्वरकों का चयन: किसान भाइयों को फसल की किस्म, मृदा गुण एवं उर्वरक में तत्व के मूल्य के आधार पर उर्वरकों का चयन करना चाहिए
(i)फसल की किस्म: बोई जाने वाली फसल की किस्म के आधार पर उर्वरक का चयन करना चाहिए, क्योंकि फसल विशेष किसी तत्व विशेष की उपलब्धतता से अधिक उपज देती है।  उदहारण के लिए गेंहू, धान, मक्का, गन्ना आदि फसलों को नाइट्रोजन तत्व की अधिक आवश्यकता होती है।  दलहनी फसलों को फॉस्फोरस एवं कैल्शियम, तिलहनी फसलों को पोटाश, फॉस्फोरस एवं गंधक तत्व की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है इसी प्रकार से लम्बी अवधी वाली फसलों (गन्ना,कपास आदि) को ऐसे उर्वरक देने चाहिए, जो अधिक समय तक फसल को धीरे-धीरे पोषक तत्व प्रदान करते रहे. कम अवधि वाली फसलों को शीघ्र प्राप्त होने वाले उर्वरक देना लाभकारी होता है।
(ii)मृदा गुण: हमारे देश में अनेकों प्रकार की मृदाएँ पाई जाती है जिनमे अलग-अलग तत्वों की कमीं या अधिकता पाई जाती है।  अतः मृदा का रासायनिक परीक्षण करवाकर जिस तत्व की कमीं हो, उसकी पूर्ती करना चाहिए।  अम्लीय मृदा में क्षारीय प्रभाव डालने वाले उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए जैसे अमोनियम सल्फेट. इस प्रकार से क्षारीय मृदा में अम्लीय प्रभाव वाले उर्वरकों जैसे अमोनियम नाइट्रेट आदि का प्रयोग करना चाहिए।  सल्फर की कमीं वाली मृदाओं में सुपर फॉस्फेट या सल्फर युक्त उर्वरक का इस्तेमाल करना चाहिए।
(iii)उर्वरक में तत्व इकाई मूल्य: किसी पोषक तत्व विशेष के उर्वरक के रूप में अनेक विकल्प हो सकते है।  आर्थिक दृष्टि से उस उर्वरक का उपयोग करना चाहिए जिसका इकाई मूल्य कम हो अर्थात उर्वरक में पोषक तत्व की प्रतिशत मात्रा अधिक होना चाहिए.
2.उर्वरक प्रयोग का सही समय: उर्वरक की उपयोग दक्षता बढ़ाने के लिए आवश्यक है की उर्वरक का परिस्थितयों के अनुसार सही समय पर प्रयोग किया जाए. सही समय वह होता है जब उस तत्व की पौधों को अधिक आवश्यकता होती है फॉस्फोरस एवं पोटाश की आवश्यकता पौधों को अपने प्रारंभिक काल में जड़ वृद्धि के लिए अधिक होती है अतः इन उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय आधार के रूप में देना चाहिए इसके अलावा नत्रजन एक गतिशील तत्व है भूमि में निक्षालन द्वारा इस तत्व की हानि अधिक होती है। इसलिए सम्पूर्ण आवश्यक मात्रा को खड़ी  फसल में 2-4 बार में देना लाभकारी होता है सूक्ष्म पोषक तत्वों का छिडकाव खड़ी फसल में लक्षण दिखाई देने पर करना चाहिए
3. उर्वरक की सही मात्रा: विभिन्न फसलों की उर्वरक आवश्यकता भिन्न-भिन्न होती है अतः उर्वरक की मात्रा निर्धारित करते समय फसल की किस्म, फसल चक्र, मृदा उर्वरता आदि बातें ध्यान में रखना चाहिए. मृदा परिक्षण के बाद ही उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण करना चाहिए उर्वरक का निर्धारण एक फसल पर न कर सम्पूर्ण फसल चक्र के आधार पर करना चाहिए जिससे यह स्पष्ट हो कि किस फसल को कौन से उर्वरक की कितनी मात्रा देना है।  उदहारण के लिए दलहनी फसलों के उपरान्त मृदा में नत्रजन देने की आवश्यकता कम होती है रबी फसल के बाद जब ग्रीष्म ऋतु में दलहनी फसल बोयें तो फॉस्फोरस एवं पोटाश का उपयोग न करें सिंचित धान-गेंहूँ फसल में दोनों फसलों में नत्रजन धारी उर्वरक देवें और फॉस्फोरस केवल गेंहूँ तथा पोटाश केवल धान में देना उचित होता है
4.उर्वरक प्रयोग की सही विधि: उर्वरक के उपयोग की उत्तम विधि वह है जिसमे कम खाद से अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके, साथ ही समय की बचत हो उर्वरक में उपस्थित तत्व की पानी में घुलनशीलता के आधार पर उर्वरक देने की विधि का चुनाव करना चाहिए. अचल तत्वों जैसे फॉस्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम को बुवाई के समय भूमि में मिलाना चाहिए, जिससे इन तत्वों को जड़ आसानी से ग्रहण कर सके नाइट्रोजन जैसे चल तत्वों की कुछ मात्रा बुवाई के समय कूंडों में देकर बाकी का उपयोग खड़ी फसल में करना चाहिए खड़ी फसल में उर्वरक को भूमि में न मिलाते हुए घोल के रूप में छिडकना अधिक फायदेमंद होता है. फसल में सूक्ष्म पोषक तत्वों का इस्तेमाल भी घोल के रूप में करना चाहिए सिंचाई के समय नालियों में घुलनशील उर्वरक देने से समय की बचत होती है
कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लॉग की अनुमति के बिना इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे। 

गुरुवार, 6 जून 2019

फसलों की औसत उपज के मामले में भारत फिसड्डी क्यों है ?


विकसित देशों की कृषि उत्पादकता अधिक है, तो हम क्यों नहीं ले सकते ?

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर(एग्रोनोमी)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,  
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
कृषि प्रधान देश होने के बावजूद आज भी अनेक फसलों के मामले में चीन, ब्राजील और अमेरिका जैसे बड़े कृषि उत्पादक देशों की तुलना में भारत की कृषि उपज बहुत कम है। निःसन्देश इस प्रश्न के समाधान में छिपी है हमारे कृषि प्रधान देश की प्रगति, हमारे किसानों की उन्नति और देश की विशाल आबादी को खाद्य और पोषण सुरक्षा प्रदान करने का लक्ष्य. आज दुनिया में सीमित लागत में अधिक से अधिक उपज लेने की एक होड़ से लगी है या यूँ कहें कि घटती कृषि योग्य भूमि और बढती आबादी के मद्देनजर हर राष्ट्र चिंतित है और प्रति इकाई क्षेत्रफल में सर्वाधिक कृषि उत्पादन लेने पर ध्यान दे रहा है।  ऐसे में अहम् सवाल यह उठता है की चाहे गेंहूँ हो, धान, मक्का, गन्ना, दलहन हो या फिर तिलहन, सब्जी अथवा फल, विश्व के तमाम कृषि उत्पादकों की सूची में हम अपने को नीचे के पायदानों में ही क्यों पाते है ? प्रति हेक्टेयर उत्पादन में अभी भी हम विश्व की औसत उत्पादकता से कोसों दूर क्यों है ?
दुनिया में बहुत से विकसित देश हमारी तुलना में प्रति हेक्टेयर कई गुना अधिक उपज ले रहे है, चाहे वह खाद्यान्न का क्षेत्र हो, दलहन,तिलहन, सब्जियों या फल उत्पादन का क्षेत्र हो।  हमसे सटी धरती हम से ज्यादा उपजाती है।  उदहारण के तौर पर इजिप्ट में धान की उत्पादकता 10 टन, अमेरका में 8 टन, जापान में 6.54  टन और चीन में 6.49 टन प्रति हेक्टेयर है जबकि भारत में धान की औसत उपज महज 3.38 टन प्रति हेक्टेयर ले पा रहे है।  मक्का की औसत उपज अमेरिका में 7.8 टन, ब्राजील में 5.1 टन, चीन में 6.1 टन प्रति हेक्टेयर है जबकि भारत में यह 3.04 टन प्रति हेक्टेयर ही है.  गेंहू की औसत उपज फ़्रांस में 8 टन, चीन में 5 टन है तो भारत में 3.2 टन प्रति हेक्टेयर है।  प्रशन वहीँ, अन्य देशों की उपज की तुलना में  हमारा देश और हमारे किसान क्यों फिसड्डी बने हुए है ? दरअसल हम केवल अनुसरण की बात करते है।  हमारी सोच केवल अनुसरण तक ही सीमित है. शायद इसलिए हम पिछड़े हुए है।  अमेरिका के नार्मन बोरलाग की हरित क्रांति का हम आज तक अनुसरण ही करते आये है. इसके आगे हमने सोचा ही नहीं है।  
हमे अपनी माटी और आबोहवा के अनुकूल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएं बिना प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कृषि तकनीकियाँ विकसित करना चाहिए, तभी हम कदम-दर-कदम साल-दर-साल देश की बढती आबादी को भरपेट भोजन मुहैया करा सकते है।  जिन ससाधनों के बलबूते दूसरे देश अधिक उत्पादन ले रहे है, उसे न केवल पा लेना बल्कि उससे भी कही अधिक उपज लेने का हमारा ध्येय होना चाहिए।  हमारा वजूद कम नहीं है।  दुनिया के गिने- चुने देशों में हम जाने जाते है।  आज हम यह कदापि नहीं कह सकते कि हममें योग्यता और कौशल की कमीं है, हमारे पास संसाधनों का अभाव है।  हकीकत तो यह है की विविध प्रकार की उर्वरा भूमि, नाना प्रकार की फसलें, जैव विविधिता, अनुकूल जलवायु, विविध मौसम, पर्याप्त वर्षा जल के अतिरिक्त परिश्रमी मानव संसाधन के मामले में हम दुनिया में श्रेष्ठ है।  यही नहीं हमारे वैज्ञानिक आज दूसरे मुल्कों को उन्नति की राह दिखा रहे है।  
निःसन्देश संभव को संभव बनाना न तो मुश्किल है और न ही नामुमकिन।  देश के विभिन्न राज्यों और राज्यों के अन्दर विभिन्न जिलों में उगाई जाने वाली विभिन्न फसलों की औसत उपज में भारी अंतर  है।  इसी प्रकार से कृषि वैज्ञानिकों द्वारा शोध प्रेक्षेत्रों में ली जा रही उपज, किसानों के खेत पर वैज्ञानिकों द्वारा तकनिकी प्रदर्शनों की उपज तथा किसान द्वारा उपजाई गई फसलों की औसत उपज में जमीन आसमान का अंतर व्याप्त है।  इसमें कोई संदेह नहीं कि सिर्फ उपज के अंतर को कम करके हम अपना कृषि उत्पादन 50 से 100 प्रतिशत तक बढ़ा सकते है।  बेशक इसके लिए हमें अपनी पुरानी पड़ गई विभिन्न फसलों की उन्नत किस्मों और उत्पादन तकनीक के अलावा सरकारी नीतियों में सुधार तथा कृषि क्षेत्र में सार्वजानिक निवेश को बढ़ाना होगा।  इन सबसे जरुरी कृषि विस्तार सेवाओं को अति आधुनिक रूप देकर उन्हें देश के सुदूर अंचल के किसानों तक इमानदारी से पहुंचाना होगा।  इसके लिए चाहिए मजबूत इक्षाशक्ति और लगन, निष्ठा और नेक इरादा, जिन्हें हमें अपने अन्दर पैदा करना है, ताकि हम देश में व्याप्त उपज के अंतर की खाई को पाटकर टिकाऊ खाद्यान्न उत्पादन की सबसे बड़ी चुनौती, सबसे पहली और बुनियादी जरुरत और देश के सबसे अहम् लक्ष्य को पाने में सफल हो सकें।  परस्पर जनसहयोग के साथ-साथ कृषि और किसान हितैषी सरकारी योजनाओं को जमीन पर उतारने का दृण संकल्प, कृषि वैज्ञानिकों की कर्मठता और किसानों का कठोर परिश्रम ही हमें हमारे असली मुकाम तक पहुंचा सकता है।        

बुधवार, 5 जून 2019

धरती पर जीवन बचाना है तो वायु प्रदूषण को हराना है


        धरती पर जीवन बचाना है, तो वायू प्रदूषण को हराना है 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्रोफ़ेसर(एग्रोनोमी)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)


विकास की अंधी दौड़ में हम प्रकृति से कितने दूर होते गए इसका हमें होश ही नहीं रहा। पहले हमने जीवन के लिए आवश्यक जल पीने लायक नहीं छोड़ा जिसके विकल्प के रूप में हमने घर में  प्यूरीफायर लगाये  और बाहर बोतलबंद पानी पीने लगे।  आज देश में पानी का संकट गहराता जा रहा है।  अब बारी है प्राण वायु की और अब हवा भी अशुद्ध हो चली है जिसके चलते कहीं-कहीं शुद्ध हवा के सिलेंडर मिलने लगे है।  जल और वायु के अभाव में आखिर हम कब तक जिन्दा रहेंगे, यह विचारणीय और चिंतनीय विषय है।  

विश्व पर्यावरण दिवस 2019 फोटो साभार गूगल
आज विश्व पर्यावरण दिवस है, जो दुनिया वालों को याद दिलाता है की उन्हें धरती के पर्यावरण को सुरक्षित रखना है।  संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के नेतृत्व में आयोजित होने वाला यह वैश्विक स्तर का अभियान है चीन की मेजबानी में आयोजित होने वाले इस वर्ष (5 जून 2019) के पर्यावरण दिवस की विषय वस्तु "वायु प्रदूषण" अर्थात वायू प्रदूषण को हराना  है । प्रदूषण  एक विश्वव्यापी पर्यावरणीय समस्या है । आज कल पर्यावरण दिवस का आयोजन महज एक रस्म अदायगी प्रतीत होता है।  बेशक इस अवसर पर सरकारी और गैर सरकारी प्रतिष्ठानों में बड़ी-बड़ी संगोष्ठियाँ, व्यख्यान आयोजित किये जाये, पेड़ लगाओं-पेड़ बचाओं के मनमोहक नारे दिए जाये, पर्यावरण सरक्षण के लोक-लुभावने बादे किये जाये, पर इस एक दिन को छोड़ शेष 364 दिन प्रकृति के प्रति हमारा अमानवीय व्यवहार इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि हम पर्यावरण के प्रति कितने उदासीन और संवेदन शून्य हैं ? आज हमारे पास शुद्ध पेयजल का अभाव है, सांस लेने के लिए शुद्ध हवा कम पड़ने लगी है। बेरहमी से जंगल उजाड़े जा रहे हैं, जल के स्रोत नष्ट किये जा रहे हैं पर्यावरण जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके बिना जीवन की कल्पना करना बहुत नामुमकिन है, फिर भी आज हम बेपरवाह अपने पर्यावरण को लगातार नुकसान पहुंचा रहे हैं। 
                             

                           मिट्टी पानी और बयार, जिंदा रहने के ये आधार

पृथ्वी पर उपलब्ध जल एवं शुद्ध वायु हमारे जीवन के आधार हैं।  मानव जीवन में वायु का स्थान जल से भी अधिक महत्वपूर्ण है।  हमारे  वेद में कहा गया है कि वायु अमृत है, वायु प्राणरूप में स्थित है। भोजन के बिना आदमी कुछ दिन तक जिंदा रह सकता है। पानी के बिना कुछ घंटे जिंदा रह सकता है।  परंतु, हवा के बिना वह एक पल भी जिंदा नहीं रह सकता है।  वायु प्रदूषण अर्थात हवा में ऐसे अवांछित गैसों, धूल के कणों आदि की उपस्थिति, जो लोगों तथा प्रकृति दोनों के लिए खतरे का कारण बन जाए। मानव प्रकृति का अभिन्न अंग है, परन्तु अपनी अविवेकी बुद्धि के कारण वह अपने आपको प्रकृति का अधिष्ठाता मानने की भूल करने लगा है जिसके परिणाम हमारे सामने है। वायु प्रदूषण के कारण दुनिया भर में हर साल लगभग 70 लाख लोनों की समय से पहले मृत्यु हो जाती है, जिसमें से 4 मिलियन लोगों की मृत्यु केवल एशिया प्रशांत क्षेत्र में होती है। दुनिया भर में दस में से नौ लोग विश्व स्वास्थ्य संघठन द्वारा सुरक्षित घोषित किये गए स्तरों से ख़राब और प्रदूषित हवा में सांस लेने के लिए अभिशप्त है।  भारत में भी वायु प्रदूषण मौत की बड़ी वजह बनता जा रहा है. वर्ष 2017 में ही भारत में तकरीबन 12 लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण की वजह से हुई है. अमेरिका के हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट की वायु प्रदूषण पर एक वैश्विक रिपोर्ट स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2019’ में भारत में बढ़ते वायु प्रदूषण के बारे में चेताया गया है।   इस रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण की वजह से 2017 में स्ट्रोक, मधुमेह, दिल का दौरा, फेफड़े के कैंसर या फेफड़े की पुरानी बीमारियों से पूरी दुनिया में करीब 50 लाख लोगों की मौत हुई।  इसमें सीधे तौर पर पीएम 2.5 के कारण 30 लाख लोगों की मौत हुई।  इसमें से करीब आधे लोगों की मौत भारत व चीन में हुई है. डब्लूएचओ की रिपोर्ट के कुछ अंश जान लेने आवश्यक हैं। इस रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि वायु प्रदूषण की वजह से सम्पूर्ण विश्व में हर साल लगभग 70 लाख लोगों की मौत हो जाती है। विश्व की आबादी का 91% हिस्सा आज उस वायुमंडल में रहने के लिए विवश है, जहाँ की वायु की गुणवत्ता डब्लूएचओ के मानकों के अनुसार बेहद निम्न स्तर की है। वायु मानकों के अनुसार हवा में प्रदूषण कण 80 पीएम के भीतर होने चाहिए, परन्तु भारत में शायद ही कोई शहर हो जहां सामान्य रूप से 150-200 पीएम् तक प्रदूषण न हो।  विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों की  सूची में भारत के कानपुर फरीदाबाद,नोएडा, गाजियाबाद, लखनऊ, वाराणसी,गया,पटना दिल्ली,लखनऊ आदि शहर आते है ।  वायु प्रदुषण एक ऐसा प्रदुषण है जिसके कारण दिन प्रतिदिन मानव का स्वास्थ्य खराब होता चला जा रहा है।  आज घर से बाहर निकलते ही प्रदूषित वायु का एहसास किया जा सकता है। 

वायु प्रदूषण के कारण

                   आज दुनिया जिस विकास की दौड़ लगा रही है, उसी में मानव विकास भी छिपा है। विलाशिता के जाल में फंसते हुए हमने ऐसे हालात पैदा कर दिए है कि न तो ज्यादा गर्मी बर्दाश्त कर पा रहे है और न ही ज्यादा ठण्ड।  इनसे राहत पाने के लिए हमने जो साधन जुटाए रखे है, वे स्वास्थ्य के लिए और भी घातक साबित हो रहे है। मसलन एयर कंडीशनर के अधिक उपयोग ने गर्मी-शर्दी को एक नया आयाम  दे दिया। अधिक गर्मी के पीछे वायु प्रदुषण है। गर्मी से निजात पाने के लिए इतेमाल किये जा रहे ए.सी. और फ्रिज वातावरण में हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन की मात्रा बढ़ाते है जिसका पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।  एक सामान्य गाड़ी साल में लगभग 4.7 मीट्रिक टन कार्बनडाइऑक्साइड उत्सर्जित करती है। एक लीटर डीजल की खपत से 2.68 किलो कार्बन डाइ ऑक्साइड निकलती है। पेट्रोल से यह मात्रा 2.31 किलो है। बस, ट्रक, कार, बाइक, कारखानों की चिमनियों से जान लेवा धुआं निकलता हुआ देखा जा सकता है. थर्मल पॉवर प्लांट से निकलने वाली फ्लाई एश (हवा में बिखरे राख के कण) हवा को दूषित कर रहे है. मोटर वाहनों की गति रोड पर प्रदूषण को बढ़ा रही है, वहीँ बीड़ी-सिगरेट का धुआं भी हवा को प्रदूषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. लकड़ी और गोबर के उपले  जलाने से भी वातावरण प्रदूषित हो रहा है।  धान के खेत से निकलने वाली मीथेन गैस भी वातावरण को प्रदूषित कर रही है तथा ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा दे रही है।  इसके अलावा भवन निर्माण कार्य, फसल अवशेष  (पराली) व प्लास्टिक को जलाने से भी वायु प्रदूषण बढ़ा है।  हमारे देश में सालाना 630-635 मिलियन टन फसल अवशेष पैदा होता है।  कुल फसल अवशेष उत्पादन का 58%धान्य फसलों से, 17% गन्ना, 20% रेशा वाली फसलों से तथा 5 % तिलहनी फसलों से प्राप्त होता है. वैसे तो पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक मात्रा में  फसल अवशेष जला दिए जाते है परन्तु आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार,छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में भी फसल अवशेष जलाने की कुप्रथा चल पड़ी है जिससे वहां के पर्यावरण, मनुष्य एवं पशु स्वास्थ्य को भारी हानि हो रही है।  फसल अवशेष (पराली) जलाने से वैश्विक तपन (ग्लोबल वार्मिंग) बढती है तथा स्माग जैसी स्थिति पैदा हो जाती है जिससे सड़क दुर्घटनाएं बढती है. फसल अवशेष जलाने से वायु प्रदूषण बढ़ता है जिससे अस्थमा और दमा जैसी सांस से सम्बंधित रोगों के मरीजों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है।  यही नहीं हवा में सल्फर डाईऑक्साइड व नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से आँखों में जलन होने लगती है।

प्राणी मात्र की यही पुकार हरा भरा रहे यह संसार

इस वर्ष का विश्व पर्यावरण दिवस हर किसी को दुनिया भर में व्याप्त वायु प्रदूषण से निपटने का अवसर प्रदान कर रहा है।  मानव ने विकास की राह में विज्ञान के सहारे जो तरक्की हासिल की है और प्रकृति की अनदेखी की है, उसकी कीमत वो अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य से चुका रहा है। इसलिए अब अगर वो अपनी आने वाली पीढ़ियों को एक खूबसूरत दुनिया और बेहतर जीवन देना चाहता है तो अब उसे उस प्रकृति की ओर ध्यान देना होगा। अब तक तो हमने प्रकृति का केवल दोहन किया है। अब समर्पण करना होगा। जितने जंगल कटे हैं उससे अधिक बनाने होंगे, जितने पेड़ काटे उससे अधिक लगाने होंगे, जितना प्रकृति से लिया, उससे अधिक लौटना होगा। इस धरती को हम जरा सा हरा भरा करेंगे, तो वो इस वातावरण को एक बार फिर से ताजगी के एहसास के साथ सांस लेने लायक बना देगी। हम सांस लेना तो नहीं छोड़ सकते, परन्तु सभी साथ मिलकर हवा को सांस लेने योग्य बना सकते हैं।  जब तक लोग वृक्ष को धरती का श्रृंगार नहीं समझेंगे और हरियाली से प्यार नहीं करेंगे, तब तक पर्यावरण दिवस मनाना केवल औपचारिकता भर रहेगा।

कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लॉग की अनुमति के बिना इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।