Powered By Blogger

गुरुवार, 6 जून 2019

फसलों की औसत उपज के मामले में भारत फिसड्डी क्यों है ?


विकसित देशों की कृषि उत्पादकता अधिक है, तो हम क्यों नहीं ले सकते ?

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर(एग्रोनोमी)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,  
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
कृषि प्रधान देश होने के बावजूद आज भी अनेक फसलों के मामले में चीन, ब्राजील और अमेरिका जैसे बड़े कृषि उत्पादक देशों की तुलना में भारत की कृषि उपज बहुत कम है। निःसन्देश इस प्रश्न के समाधान में छिपी है हमारे कृषि प्रधान देश की प्रगति, हमारे किसानों की उन्नति और देश की विशाल आबादी को खाद्य और पोषण सुरक्षा प्रदान करने का लक्ष्य. आज दुनिया में सीमित लागत में अधिक से अधिक उपज लेने की एक होड़ से लगी है या यूँ कहें कि घटती कृषि योग्य भूमि और बढती आबादी के मद्देनजर हर राष्ट्र चिंतित है और प्रति इकाई क्षेत्रफल में सर्वाधिक कृषि उत्पादन लेने पर ध्यान दे रहा है।  ऐसे में अहम् सवाल यह उठता है की चाहे गेंहूँ हो, धान, मक्का, गन्ना, दलहन हो या फिर तिलहन, सब्जी अथवा फल, विश्व के तमाम कृषि उत्पादकों की सूची में हम अपने को नीचे के पायदानों में ही क्यों पाते है ? प्रति हेक्टेयर उत्पादन में अभी भी हम विश्व की औसत उत्पादकता से कोसों दूर क्यों है ?
दुनिया में बहुत से विकसित देश हमारी तुलना में प्रति हेक्टेयर कई गुना अधिक उपज ले रहे है, चाहे वह खाद्यान्न का क्षेत्र हो, दलहन,तिलहन, सब्जियों या फल उत्पादन का क्षेत्र हो।  हमसे सटी धरती हम से ज्यादा उपजाती है।  उदहारण के तौर पर इजिप्ट में धान की उत्पादकता 10 टन, अमेरका में 8 टन, जापान में 6.54  टन और चीन में 6.49 टन प्रति हेक्टेयर है जबकि भारत में धान की औसत उपज महज 3.38 टन प्रति हेक्टेयर ले पा रहे है।  मक्का की औसत उपज अमेरिका में 7.8 टन, ब्राजील में 5.1 टन, चीन में 6.1 टन प्रति हेक्टेयर है जबकि भारत में यह 3.04 टन प्रति हेक्टेयर ही है.  गेंहू की औसत उपज फ़्रांस में 8 टन, चीन में 5 टन है तो भारत में 3.2 टन प्रति हेक्टेयर है।  प्रशन वहीँ, अन्य देशों की उपज की तुलना में  हमारा देश और हमारे किसान क्यों फिसड्डी बने हुए है ? दरअसल हम केवल अनुसरण की बात करते है।  हमारी सोच केवल अनुसरण तक ही सीमित है. शायद इसलिए हम पिछड़े हुए है।  अमेरिका के नार्मन बोरलाग की हरित क्रांति का हम आज तक अनुसरण ही करते आये है. इसके आगे हमने सोचा ही नहीं है।  
हमे अपनी माटी और आबोहवा के अनुकूल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएं बिना प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कृषि तकनीकियाँ विकसित करना चाहिए, तभी हम कदम-दर-कदम साल-दर-साल देश की बढती आबादी को भरपेट भोजन मुहैया करा सकते है।  जिन ससाधनों के बलबूते दूसरे देश अधिक उत्पादन ले रहे है, उसे न केवल पा लेना बल्कि उससे भी कही अधिक उपज लेने का हमारा ध्येय होना चाहिए।  हमारा वजूद कम नहीं है।  दुनिया के गिने- चुने देशों में हम जाने जाते है।  आज हम यह कदापि नहीं कह सकते कि हममें योग्यता और कौशल की कमीं है, हमारे पास संसाधनों का अभाव है।  हकीकत तो यह है की विविध प्रकार की उर्वरा भूमि, नाना प्रकार की फसलें, जैव विविधिता, अनुकूल जलवायु, विविध मौसम, पर्याप्त वर्षा जल के अतिरिक्त परिश्रमी मानव संसाधन के मामले में हम दुनिया में श्रेष्ठ है।  यही नहीं हमारे वैज्ञानिक आज दूसरे मुल्कों को उन्नति की राह दिखा रहे है।  
निःसन्देश संभव को संभव बनाना न तो मुश्किल है और न ही नामुमकिन।  देश के विभिन्न राज्यों और राज्यों के अन्दर विभिन्न जिलों में उगाई जाने वाली विभिन्न फसलों की औसत उपज में भारी अंतर  है।  इसी प्रकार से कृषि वैज्ञानिकों द्वारा शोध प्रेक्षेत्रों में ली जा रही उपज, किसानों के खेत पर वैज्ञानिकों द्वारा तकनिकी प्रदर्शनों की उपज तथा किसान द्वारा उपजाई गई फसलों की औसत उपज में जमीन आसमान का अंतर व्याप्त है।  इसमें कोई संदेह नहीं कि सिर्फ उपज के अंतर को कम करके हम अपना कृषि उत्पादन 50 से 100 प्रतिशत तक बढ़ा सकते है।  बेशक इसके लिए हमें अपनी पुरानी पड़ गई विभिन्न फसलों की उन्नत किस्मों और उत्पादन तकनीक के अलावा सरकारी नीतियों में सुधार तथा कृषि क्षेत्र में सार्वजानिक निवेश को बढ़ाना होगा।  इन सबसे जरुरी कृषि विस्तार सेवाओं को अति आधुनिक रूप देकर उन्हें देश के सुदूर अंचल के किसानों तक इमानदारी से पहुंचाना होगा।  इसके लिए चाहिए मजबूत इक्षाशक्ति और लगन, निष्ठा और नेक इरादा, जिन्हें हमें अपने अन्दर पैदा करना है, ताकि हम देश में व्याप्त उपज के अंतर की खाई को पाटकर टिकाऊ खाद्यान्न उत्पादन की सबसे बड़ी चुनौती, सबसे पहली और बुनियादी जरुरत और देश के सबसे अहम् लक्ष्य को पाने में सफल हो सकें।  परस्पर जनसहयोग के साथ-साथ कृषि और किसान हितैषी सरकारी योजनाओं को जमीन पर उतारने का दृण संकल्प, कृषि वैज्ञानिकों की कर्मठता और किसानों का कठोर परिश्रम ही हमें हमारे असली मुकाम तक पहुंचा सकता है।        

कोई टिप्पणी नहीं: