जलवायु
परिवर्तन एवं जल संकट में कारगर है 
एरोबिक धान
उत्पादन पद्धति
डॉ.गजेन्द्र
सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी
कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी
देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर
(छत्तीसगढ़)
भारत में
उपलब्ध कुल ताजे जल का 80 प्रतिशत हिस्सा कृषि कार्यो में इस्तेमाल किया जाता
है और इसका  60
प्रतिशत से अधिक  भाग  धान की सिंचाई के लिए प्रयुक्त किया जाता है।  जाहिर है, कि सिंचित धान की जल उपयोग दक्षता बहुत कम है, क्योंकि इसमें एक किलोग्राम धान उत्पादन करने के लिए 3000 से 5000 लीटर पानी की खपत होती है। भारत में लगभग 50 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि में धान की खेती प्रचलित है जिसमें
उपलब्ध सिंचाई जल का सर्वाधिक उपयोग होता है।  देश
में ताजे पानी की निरंतर घटती उपलब्धतता और बढती आबादी को आहार उपलब्ध कराने हेतु
पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए हमें कम से कम जल में
अधिकतम उत्पादन लेने हेतु आवश्यक कदम उठाने होंगे।  हमारे देश की 70 प्रतिशत आबादी
का मुख्य आहार चावल (धान) है और देश में
खाध्य  सुरक्षा को  कायम रखने के लिए हमें उपलब्ध प्राकृतिक
संसाधनों को क्षति पहुंचाएं बिना  धान उत्पादन
बढ़ाने के सघन प्रयास करने होंगे।  इसमें कोई शक नहीं है कि धान की
फसल की जल मांग अन्य फसलों की तुलना में सर्वाधिक है और इसलिए किसान भाई वर्षा जल
अथवा सिंचाई के माध्यम से धान के खेत को पानी से लबालब भर कर
रखते आ रहे है. परन्तु अब  जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून की अनिश्चितता,
कम हो रही वर्षा, गिरते भू-जल के कारण धान की परम्परागत खेती को खतरा पैदा हो गया
है।  यही नहीं पानी से भरे हुए खेत विनाशकारी गैसें जैसे मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड,
कार्बन डाइऑक्साइड आदि उगल रहे
है जो की ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदाई मानी जाती है।   अतः
जलवायु परिवर्तन, वर्षा जल में हो रही लगातार कमीं, खेती की लिए आवश्यक श्रमिकों
की अनुपलब्धता,  खेती की बढती लागत को
ध्यान में रखते हुए हमें धान की खेती के तौर-तरीकों में बदलाव करना होगा. अन्तराष्ट्रीय
चावल अनुसंधान संस्थान, फिलिपीन्स एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के वैज्ञानिकों
ने धान की खेती की ऐसी तकनीक विकसित की है जिसके माध्यम से कम पानी एवं सीमित लागत
में धान की भरपूर फसल ली जा सकती है।  इसे एरोबिक राइस कल्टीवेशन (वायु संचारित धान की खेती) नाम दिया गया है।  
| एरोबिक धान की फसल फोटो साभार गूगल | 
क्या एरोबिक धान (वायु संचारित) धान ?
धान उगाने
की एरोबिक (वायुसंचारित)पद्धति एक पर्यावरण
अनुकूल पद्धति है।  इस विधि में धान को गेंहू,
दलहन और तिलहन की भांति सूखी किन्तु सिंचित मिट्टी में उगाया जाता है।   इस प्रकार से
एरोबिक धान उत्पादन उन सभी खेतों में किया जा सकता है, जो दालों, ज्वार, बाजरा,
मक्का, गेंहूँ आदि के लिए उपयुक्त होते है।  इसमें धान फसल को मौसम और विशिष्ट जरूरतों के मुताबिक ही सिंचाई
की जाती है।  इसमें पूरी फसल अवधि तक खेत जल से असंतृप्त रखा
जाता है  अर्थात सिंचाई सिर्फ
मिट्टी को गीला रखने के लिए की जाती है न
कि खेत को पानी भरने या मिटटी को संतृप्त करने के लिए।  दूसरे शब्दों में एरोबिक धान के लिए मिट्टी को पूरे फसल काल के दौरान नॉन
सैचुरेटेड (गैर-संतृप्त) स्थिति में रखा जाता है।  खेत
मचाने (पडलिंग)  के लिए आवश्यक जल की सीधे-सीधे बचत हो जाती है।  एरोबिक धान प्रणाली में धान के खेत को वैकल्पिक रूप से
बार-बार गीला और सूखा करने से पानी की बचत के साथ-साथ खेत से ग्रीन हाउस गैस
उत्सर्जन में काफी कमी  होती है. इस
विधि से  परम्परागत पद्धतियों के समकक्ष
उपज प्राप्त होने के साथ साथ करीब 40-50 प्रतिशत जल की बचत होती है।  
वायुसंचारित (एरोबिक) धान की खेती से लाभ
     पारम्परिक मचाई, पानी भरी एंव अवायुसंचारित दशा में की जाने वाली धान की खेती के सापेक्ष
वायु संचारित धान की खेती से  अग्र लिखित
लाभ होते है –
Ø एरोबिक
धान पद्धति में सीधी बुवाई की जाती है। खेती की मचाई एंव लगातार परनी भरे रहने की
आवश्यक्ता नहीं की होती है। अमूमन 40-50% तक सिंचाई जल की
बचत होती है। 
Ø पौध
शाला प्रबंधन  एंव रोपाई की आवश्यकता नहीं
होती है । अतः समय, श्रम एवं धन की बचत होती है। 
Ø बीज
की मात्रा कम लगती है।  पानी का बहाव और अधिक पानी की वजह से पोषक तत्वों की हानि
अधिक होती है परन्तु एरोबिक धान में पोषक तत्वों का नुकशान कम होता है अतः उर्वरक
उपयोग क्षमता में वृद्धि होती है। 
Ø खेत
में पानी नहीं भरा होने से वायु आगमन में सुगमता होती है, जिससे जड़ तन्त्र का  विकास अच्छा होता है। अतः फसल गिरने की आशंका कम रहती है। 
Ø खेत
में पानी नहीं भरने से फसल में  कीट-रोग का प्रकोप कम होता है। 
Ø  इस पद्धति से खेती करने पर भूमि
की भौतिक दशा में सुधार होता है, जिससे अगली फसलों की बुवाई में आसानी होती है।  
Ø एरोबिक
धान वाले खेतों में मिट्टी को पूरी फसल अवधि के दौरान वायवीय स्थिति में बनाये रखा
जाता है, इसलिए जहरीली गैसों जैसे मीथेन आदि का उत्सर्जन कम होता है पानी भरे खेत
में नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्पादन होता है।  अतः एरोबिक धान पद्धति पर्यावरण अनुकूल
मानी जाती है। 
Ø कीचड
युक्त खेतों में नर्सरी, रोपाई, निराई-गुड़ाई आदि कार्यो के लिए लम्बे समय तक काम
करने वाले कृषकों/मजदूरों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है जबकि एरोबिक धान
पद्धति में किसान को स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं नहीं आती है। 
                                       एरोबिक धान उत्पादन पद्धति से खेती ऐसे करें  
खेत की तैयारी
धान की उगाने
की एरोबिक  (वायुसंचारित) पद्धति में खेत की तैयारी सामान्यत:
गेहूं या मक्के जैसे ही की जाती है।  सर्वप्रथम 2 या 3
जुताई कर खेत को समतल कर मिट्टी को भुरभुरा करते हैं । खेत की अंतिम जुताई के समय गोबर की खाद/फसल अवशेष आदि 5-6
टन प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलाना चाहिए हैं।
प्रजाति का चुनाव
एरोबिक
परिस्थितियों में
अधिकतम उत्पादन के लिए 
धान की सही प्रजाति का चुनाव करना सबसे महत्वपूर्ण होता है। 
एरोबिक धान
किस्मों/प्रजातियों में सूखा सहिष्णु,  कम
फसल अवधि (शीघ्र तैयार होने वाली) एवं गहरी जड़ प्रणाली जैसे लक्षण होना चाहिए। इन किस्मों को प्रकाश-असंवेदनसील
होना चाहिए एवं सीधे शुष्क बुवाई के लिए उपयुक्त होना चाहिए।  सहभागी धान, आई आर-64, एमटीयू-1010, पीएमके-3, पीएचबी-71, पीए-6444,
डीआरआरएच-3, जेकेआरएच-3333, प्रोअग्रो-6111, सत्यभामा
सीआर 101,
पूसा सुगंधा, सीआर धान-201, सीआर धान-206, रासी,डीआरआर धान-44,  दंतेस्वरी, इंदिरा बारानी धान-1, बम्लेस्वारी आदि
का चुनाव करना चाहिए। 
बुवाई का समय
एवं विधि 
धान की
सीधी बुवाई मानसून आगमन से एक सप्ताह पहले या फिर वर्षा प्रारंभ होने के साथ करने
पर धान की उपज बराबर ही मिलती है।  अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्मों की बुवाई हेतु
30 किग्रा तथा संकर धान के लिए 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है। 
यदि किसान भाई स्वयं का बीज इस्तेमाल करना चाह रहे है तो बुवाई से पूर्व बीजों
को कार्बेन्डाजिम 2
ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित कर लेना चाहिए । बुवाई हल के
पीछे पोरा या केरा विधि से 2-3 से.मी. की गहराई पर करना चाहिए।  इसके लिए सीड ड्रिल
का उपयोग भी किया जा सकता है।  उन्नत किस्मों को पंक्तियों में 20 x 10 से.मी. तथा
संकर प्रजातियों को 20 x 15 से.मी. की दूरी पर बोना चाहिए।  खेत में इष्टतम पौध
संख्या स्थापित करने के लिए एक स्थान पर 2-3 पौधे बनाये रखना आवश्यक होता है। 
पोषक तत्व का प्रबंधन
एरोबिक
धान से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए पोषक तत्वों का प्रबंधन अति आवश्यक है। 
उर्वरकों की सही एवं संतुलित मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। 
सामान्यतौर पर उन्नत किस्मों के लिए 120 किग्रा नत्रजन,50 किग्रा फॉस्फोरस तथा 50
किग्रा पोटाश तथा संकर किस्मों के लिए 150 किग्रा नत्रजन,40 किग्रा फॉस्फोरस तथा
50 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।  फॉस्फोरस एवं पोटाश की
संस्तुत मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करें। बुवाई के समय नत्रजनीय उर्वरक देने से खेत में खरपतवार अधिक पनपते है।  नाइट्रोजन की आधी मात्रा फसल की 2-3
पत्ती अवस्था के समय देना लाभप्रद होता है।  नत्रजन उर्वरक की शेष आधी मात्रा को दो
सामान भागों में बांटकर 25 % अधिकतम फसल बढ़वार (बुवाई के 45 दिन बाद) और शेष 25 %
मात्रा फसल में 50 % फूल आने पर देना चाहिए।   बुवाई
के शुरूआत अवस्था में प्रति एकड़ 4 से 5 टन सड़ी गोबर की खाद 40 से 50 किलो डीएपी, 15 से 20 किलो यूरिया, 20 किलो पोटाश एवं 8 से 10 किलो जिंक सल्फेट का उपयोग बुवाई के समय
करे शेष यूरिया की मात्रा को दो अलग-अलग अवस्था में डालें। जिन भूमियों में लौह तत्व की कमी अथवा फसल में लौह तत्व की
कमीं के लक्षण दिखते है, तो साप्ताहिक अंतराल में फेरस सल्फेट का 0.5-1.0  % का घोल बनाकर 3-4 बार पत्तियों पर छिडकाव
करना चाहिए। 
खरपतवार प्रबंधन
धान की सीधी बुवाई  करने पर खरपतवार प्रकोप अधिक होता है अर्थात एरोबिक धान प्रणाली में खरपतवार
मुख्य समस्या उत्पन्न करते है।  खरपतवार प्रबंधन पर समुचित ध्यान नहीं देने से
50-90 प्रतिशत तक उत्पादन में कमीं हो सकती है।  अतः धान के खेत में निराई-गुड़ाई
करके खरपतवार नष्ट कर देना चाहिए।  हाथ अथवा मशीनों के जरिये खरपतवार नियंत्रण में
समय, श्रम और पूँजी अधिक लगती है।  शाकनाशियों के इस्तेमाल से कम खर्च में शीध्र
खरपतवारों पर काबू पाया जा सकता है।  खरपतवार नियंत्रण हेतु बुवाई
के तुरंत बाद पेंडामिथालीन 30 ई सी  1.5 किग्रा
सक्रिय तत्व लीटर
को 500
लीटर पानी के साथ मिलाकर
 प्रति हेक्टेयर
की दर से छिडकना चाहिए।  इसके बाद बुवाई के 15 से 20 दिन बाद (या 3-4 पत्ती अवस्था) बिसपाइरिबेक सोडियम 250
मिग्रा प्रति
हेक्टेयर की दर से  500
लीटर पानी के साथ मिलाकर छिड़काव करें।
सिंचाई प्रबंधन
धान
उत्पादन की एरोबिक पद्धति में अधिक उपज के लिए उचित जल प्रबंधन आवश्यक है. जिस प्रकार से गेहूं की
सिंचाई करते है उसी प्रकार हमें धान की सिंचाई करते रहना चाहिए। फसल की किसी भी अवस्था में खेत में पानी भरा रखने की कोई
आवश्यकता नहीं है।  सुवितरित और पर्याप्त वर्षा होने पर, सिंचाई देने की जरुरत
नहीं होती है. खेत की मिट्टी में बाल बराबर दरारें दिखने पर सिंचाई कर देना चाहिए। कृत्रिम  सिंचाई से वर्षा जल सिंचाई बेहतर होती है।  अधिक वर्षा होने की स्थिति में
खेत से जल निकासी की उचित व्यवस्था होना चाहिए।  यदि किसान
भाईयों के पास स्प्रिंकलर की उपलब्धता है तो सिंचाई स्प्रिंकलर के माध्यम से  की जा सकती है ।  खेत में पानी  भरा रहने से मृदा में हवा का प्रवेश
अवरुद्ध हो जाता है जिससे  जड़ों
का विकास रुक जाता है। मिट्टी में हवा का आवागमन होने से जड़ों का विकास अच्छा होता है और कल्लों
का फुटाव ज्यादा होता है जिससे पैदावार अच्छी प्राप्त होती है। अतः धान के खेत में पानी भरने की बजाय खेत में लगातार नमीं
बनाये रखना महत्वपूर्ण है।  इसके लिए वैकल्पिक सूखा फिर सिंचाई पद्धति सबसे कारगर
साबित हो रही है।  इससे सिंचाई जल की 40-50 प्रतिशत बचत होती है और उपज भी भरपूर
प्राप्त होती है। 
फसल की कटाई
एवं उपज 
सामान्य
तौर पर एरोबिक पद्धति से उगाये गए धान में 75-80 दिनों में पुष्पन अवस्था आती है
और 120-125 दिनों में फसल परिपक्व हो जाती है।  एक बाली में 90-95 प्रतिशत दानों के
परिपक्व होने पर फसल की कटाई करना चाहिये।  कटाई के समय दानों में 20-22 प्रतिशत
नमीं होना चाहिए।  गहाई के बाद भण्डारण से पूर्व दानों को 10-12 प्रतिशत नमीं तक
सुखा लेना चाहिए. सामान्य परिस्थितियों एवं उचित सस्य प्रबंधन के आधार पर एरोबिक
धान से 4-5 टन प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है।  
उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते है कि जलवायु परिवर्तन से उपजी समस्याओं
यथा वर्षा जल में अनिश्चितता, पर्यावरण प्रदुषण में वृद्धि, खेती में बढती लागत और
जनसँख्या वृद्धि को देखते हुए हमें धान उत्पादन को टिकाऊ बनाने और खेती की लागत कम
करने  के एरोबिक धान पद्धति को प्रोत्साहित
करना चाहिए।  इसमें कृषि एवं कृषक कल्याण से जुड़ें समस्त सरकारी विभागों के मैदानी
अधिकारीयों एवं निजी क्षेत्र के कृषि आदान कंपनियों की अहम भूमिका हो सकती है। 
जागरूक और उन्नत किसानों को तो यह पद्धति अपनाना ही  चाहिए  बल्कि आस-पास के साथी  किसानों को भी प्रेरित करना चाहिए
ताकि आने वाले वर्षों में देश की खाद्यान्न सुरक्षा कायम बनी रहें। 
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