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शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

खाद्यान्न एवं पोषण सुरक्षा के साथ-साथ किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए लाभकारी है काले चावल की खेती

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

चावल विश्व की आधी से अधिक आबादी का मुख्य भोजन है भारत में चावल की खेती 43.86 मिलियन हेक्टेयर में की जाती है, जिससे 117.47 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त होता है. दानों के आकार,बनावट, सुगंध, पकने की अवधि, उगाये जाने वाले क्षेत्र एवं रंग (सफेद, भूरा, काला एवं  लाल चावल) के अनुसार विभिन्न प्रकार के होते है चावल की रंगीन प्रजातियां सेहत के लिए अधिक लाभप्रद मानी जाती है राजसाही जमाने में चीन में काले चावल का भंडारण एवं उपभोग केवल वहां के शासक एवं रॉयल परिवार ही कर सकते थे, इसलिए काले चावल को फॉरबिड्डन चावल (Forbidden rice) कहा जाता है

चावल में मुख्य पौष्टिक तत्व उसके ऊपरी परत में होते है, जिसे मिलिंग एवं पॉलिशिंग के दौरान निकालकर राइस ब्रान आयल बनाने में इस्तेमाल किया जाता है मिलिंग के बाद प्राप्त चावल में कार्बोहाइड्रेट के अलावा बहुत कम पौष्टिक तत्व बचते है यही वजह है कि नियमित रूप से सफेद चावल का सेवन करने वाले लोग मोटापा, मधुमेह एवं अन्य रोगों से ग्रसित होते जा रहे है सेहत के लिहाज से रंगीन चावल सर्वोत्तम होते है. चीन एवं अन्य एशियन देशों के शासकों द्वारा खाए जाने वाले एवं आज सुपरफ़ूड के नाम से प्रसिद्ध काले चावल के पौष्टिक गुणों का खुलासा होने के बाद आज दुनिया में इस चावल की मांग निरंतर बढती जा रही है

काला चावल (ओराइजा सटीवा एल. इंडिका) एक विशेष प्रकार का चावल है. इसकी बाहरी परत (एल्युरोन लेयर) में एंथोसियानिन वर्णक (Cyanidin-3-glucoside, cyanidin-3-rutinoside, and peonidin-3-glucoside) अधिक मात्रा में पाया जाता है, जिनके कारण  यह काले बैंगनी रंग का होता है भारत के मणिपुर में काले चावल की खेती परंपरागत रूप से की जाती है इसे मणीपूरी भाषा में चकहवो (स्वादिष्ट चावल) कहा जाता है भारत के अन्य राज्य मसलन ओडिशा, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में भी काले चावल की खेती प्रारंभ हो गई है. बाजार में काले चावल की कीमत 150-250 रूपये प्रति किलो के भाव से बेचा जा रहा है इस लिहाज से सामान्य चावल की अपेक्षा काले चावल की खेती से आकर्षक मुनाफा अर्जित किया जा सकता है

काले चावल का इतिहास

चीन, कोरिया एवं जापान में काले चावल का उपभोग शदियों से किया जा रहा है. राजसाही के जमाने में  चीन एवं इंडोनेशिया में बगेन सम्राट की अनुमति के आम आदमी काले चावल का भण्डारण, खेती एवं उपभोग  नहीं कर सकता था सिर्फ रॉयल परिवार एवं ख़ास लोग ही इसका सेवन कर सकते थे उस समय ऐसा माना जाता था, काले चावल के सेवन से राजा दीर्धायु एवं स्वस्थ रहते थे और इसलिए काले चावल को श्रेष्ठ एवं दुर्लभ माना गया था.  एंटीऑक्सीडेंट एवं तमाम पोषक तत्वों में परिपूर्ण काले चावल को अनेक नामों जैसे फॉरबिडन राइस, किंग्स राइस, हेवन राइस आदि से जाना जाता है। पौष्टिक महत्व को देखते हुए अब काले चावल की खेती एवं उपभोग अनेक देशों में किया जाने लगा है

काले चावल का पोषक मान

चावल का पोषक मान भूमि की उर्वरता, जलवायु, किस्म, मिलिंग आदि कारकों पर निर्भर करता है. काले धान की किस्मों में प्रोटीन एवं फाइबर की मात्रा अन्य किस्मों की अपेक्षा अधिक पाई जाती है.  काले चावल में एवं अन्य चावल में पोषक तत्वों की मात्रा अग्र सारणी में दी गयी है. चावल की अन्य प्रजातियों की  अपेक्षा काले चावल में 6 गुना अधिक मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट, उच्च प्रोटीन, न्यूनतम फैट पाया जाता है. यह ग्लूटिन मुक्त, पाचक एवं औषधीय गुणों से युक्त होता है. काले चावल में आवश्यक अमीनो अम्ल जैसे लायसीन, ट्रिप्टोफेन, सक्रिय लिपिड, डाइटरी फाइबर, विटामिन बी-1, विटामिन-बी-2, विटामिन ई, फोलिक अम्ल एवं फिनोलिक कंपाउंड पाए जाते है. इसमें तमाम खनिज तत्व जैसे आयरन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, सेलेनियम पाए जाते है. काले चावल में कैलोरी कम होती है. यह चावल पकाने पर थोडा चिपचिपा होता है.

विभिन्न रंग के चावल में पायें जाने वाले पोषक तत्व

पौष्टिक तत्व

काला चावल

(Black rice)

लाल चावल

(Red rice)

भूरा चावल

(Brown rice)

सफेद चावल (Polished rice)

प्रोटीन (ग्राम)

9.0

7.2

8.4

6.1

वसा (ग्राम)

1.0

2.5

2.2

1.4

फाइबर (ग्राम)

0.51

0.45

0.42

0.33

आयरन (मिग्रा)

3.5

5.5

2.7

1.3

जिंक (मिग्रा)

0.0

3.3

1.7

0.5

 सेहत के लिए विशेष उपयोगी है काला चावल

काले चावल  को पकाने पर गहरा बैंगनी रंग का हो जाता है काले चावल को उबाल कर भात अथवा पुलाव  के रूप में खाया जाता है इसके अलावा इससे खीर, ब्रेड, केक, नूडल्स आदि तैयार कर खाने में इस्तेमाल किया जा सकता है  काले चावल की ऊपरी परत में एंथोसायनिन (cyanidin-3-O-glucoside and peonidin-3-O-glucoside) पाया जाता है जो शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट के रूप में कार्य करता है.  यह गंभीर संक्रमणों से (ह्रदय रोग)  सुरक्षा प्रदान करता है यह रक्त धमनियों कि रक्षा, कोलेस्ट्राल के स्तर को नियंत्रित करने, खराब कोलेस्ट्राल को घटाने एवं  कैंसर कोशिकाओं को बढ़ने से रोकने में सहायक होता है. इसमें मौजूद विटामिन ई नेत्र एवं त्वचा को स्वस्थ बनाये रखने में लाभकारी है काले चावल में कैलोरी,कार्बोहाइड्रेट एवं वसा  कम  होने की वजह से यह वजन  नियंत्रित करने में सहायक  होते है इसमें विद्यमान फायटोन्यूट्रीएन्ट विभिन्न रोगों से सुरक्षा एवं दिमाग को कार्यशील बनाये रखते है अन्य चावलों की तुलना में काले चावल में फाइबर की प्रचुरता होने की वजह से इसके सेवन से पाचन तंत्र दुरुस्त रहता है प्रोटीन और खनिज तत्वों की बहुलता के साथ-साथ यह चावल ह्रदय रोग, मधुमेह, उच्च रक्त चाप, मोटापा, किडनी, लिवर  व उदर रोग से पीड़ित व्यक्तियों के लिए फायदेमंद होते है । सफेद चावल की अपेक्षा काले चावल में प्रोटीन एवं विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाने के कारण यह खाद्यान्न सुरक्षा के साथ-साथ पोषण सुरक्षा प्रदान करने वाला खाद्यान्न है विश्व में बढते  कुपोषण और मोटापा  जैसी गंभीर समस्याओं को  कम करने के लिए काले चावल के सेवन को प्रोत्साहन दिया जाना आवश्यक है

काले चावल के अन्य उपयोग

     ब्लूबेरी की तुलना में काला चावल  एंथोसायनिन का उत्तम स्त्रोत है जल में घुलनशील होने के कारण, इसे प्राकृतिक डाई के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है खाद्य एवं कॉस्मेटिक उत्पाद में इसे एंटीएजिंग एजेंट के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है पॉलीफेनोल की प्रचुरता होने की वजह से काले चावल को पौष्टिक पेय तैयार करने में इस्तेमाल किया जा सकता है

काले चावल की खेती का भविष्य उज्जवल   

पौष्टिक गुणों से परिपूर्ण एवं सेहत के लिए फायदेमंद होने के कारण खाद्य, कॉस्मेटिक, न्यूट्रास्यूटिकल एवं फार्मास्यूटिकल क्षेत्र में काले चावल की बढती मांग  एवं कम उत्पादन के कारन बाजार में काला चावल 150 से 200 रूपये तक बेचा जा रहा है इसलिए किसानों को काले चावल की खेती काफी फायदेमंद सिद्ध हो रही हैचीन के बाद  भारत के पूर्वोत्तर राज्यों यथा असम, मणिपुर और सिक्किम में काले चावल की खेती की जाती थी। लेकिन अब इसकी खेती उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, बिहार, आदि कई राज्यों में सफलतापूर्वक की जा रही है। चंदौली का काला चावल तो अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुका है. भारत के प्रधानमंत्री के अलावा अंतरराष्ट्रीय संस्था-UNDP भी चंदौली के काले चावल कि प्रसंशा की जा चुकी है

 मणिपुरी ब्लैक राईस जिसे स्थानीय रूप से चक-हाओ कहा जाता है, को वर्ष 2020 में भौगोलिक सूचक (जीआई) टैग प्रदान किया गया है।उड़ीसा में  काले चावल को कलाबाती –कालाबैंशी  एवं छत्तीसगढ़ में करियाझिनी के नाम से जाना जाता है

काले चावल कि प्रमुख किस्में

चक हओ :  यह मणीपुर में परंपरागत  रूप से उगाई जाने वाली काले चावल की प्रजाति है. इसकी पत्तियां एवं धान के छिलके काले रंग के होते है यह शीघ्र तैयार होने वाली किस्म है

कालाभाती: यह ओडिशा में उगाई जाने वाली काले चावल की किस्म है यह 150 दिन में तैयार होने वाली किस्म है, जिसके पौधे 5 से 6.5 फीट ऊंचे बढ़ते है. इसके पौधे एवं भूसी बैंगनी  रंग तथा चावल काले रंग के होते है अधिक उत्पादन लेने एवं कंशों की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से इसके पौधों की ऊँचाई 2-3 फीट की होने पर ऊपर से कटाई-छटाई कर दी जाती है. इस किस्म से 12-15 क्विंटल प्रति एकड़ उपज प्राप्त की जा सकती है.

बुआई का समय

सामान्य चावल की भांति काले चावल को भी गर्म एवं नम जलवायु में आसानी से उगाया जा सकता है. बीजों के अंकुरण के लिए कम से कम 210 C तापक्रम की आवश्यकता होती है. फसल पकते समय वातावरण का तापमान कम होने से उपज एवं चावल की गुणवत्ता में सुधार होता है. सामान्य तौर पर जून-जुलाई में बोई गयी काले चावल की फसल जनवरी में कटाई के लिए तैयार हो जाती है.  

बीज एवं बुआई

काले चावल के स्वस्थ  बीज विश्वसनीय प्रतिष्ठानों से  ही लेना चाहिए. रोपण विधि से 12-15 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बीज पर्याप्त रहते है. बीजोपचार करने के बाद बीज को अंकुरित कर लेही विधि से भी बुवाई  की जा सकती है, बेहतर उपज के लिए नर्सरी तैयार कर 30 x 30 सेमी की दूरी पर रोपाई करना अच्छा रहता है. काले धान के पौधे अधिक ऊंचे बढ़ते है एवं इनके गिरने कि संभावना रहती है. उचित दूरी पर बुआई अथवा रोपाई करने से पौधे स्वस्थ एवं मजबूत होते है, जिससे उनके गिरने की आशंका कम रहती है.  अतः बुआई अथवा रोपाई ईष्टतम दूरी पर करना उचित होता है.  काले चावल की खेती में रासायनिकों का उपयोग सीमित किया जाता है. अधिक उपज के लिए गोबर की खाद, कम्पोस्ट एवं हरी खाद का उपयोग करने से चावल की गुणवत्ता में सुधार होता है. खरपतवार नियंत्रण हेतु आवश्यक निराई गुड़ाई करना जरुरी है.

काले चावल का उत्पादन एवं उपलब्धता बढ़ाना जरुरी

काले चावल के पौधे अधिक ऊंचे होने के कारण इसकी फसल गिरने की आशंका बनी रहती है. इसके अलावा देरी से पकने एवं उन्नत जातियों के आभाव के कारण किसान इसकी खेती की तरफ उन्मुख नहीं हो रहे है. अधिक मूल्य मिलने की वजह से कुछ राज्यों के किसान इसकी खेती कर रहे है. उत्पादन कम होने के कारण यह चावल, सफेद चावल से काफी मंहगा है, जो आम आदमी की पहुँच से बाहर है.  बढती मांग के कारण काले चावल का उत्पादन बढ़ाना जरुरी है, तभी आम आदमीं को उचित मूल्य पर यह पौष्टिक आहार उपलब्ध हो सकता है.  काले चावल की खेती  को बढ़ावा देने के लिए भारत की विभिन्न जलवायुविक परिस्थितियों में शोध करना आवश्यक है. इसकी उन्नत प्रजातियां का विकास एवं खेती की उन्नत सस्य विधियों के प्रचार प्रसार से खेती के अंतर्गत क्षेत्र एवं उत्पादन को बढाया जान चाहिए.

नोट :कृपया  लेखक/ब्लोगर की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्य पत्र-पत्रिकाओं अथवा इंटरनेट पर प्रकाशित न किया जाए. यदि इसे प्रकाशित करना ही है तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पता तथा ब्लॉग का नाम अवश्य प्रेषित करें

सोमवार, 9 जनवरी 2023

फसलों का दुश्मन-जड़ परिजीवी खरपतवार-मरगोजा (ओरोबेंकी) का नियंत्रण

 

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

मरगोजा को आग्या, भुंईफोड़ अंग्रेजी में ओरोबंकी एवं ब्रूमरेप कहते है. ओरोबेंकेसी कुल के इस खरपतवार की दो प्रजातियां मसलन ओरोबेंकी रोमोसा व ओरोबेंकी इजिप्टियाका आर्थिक रूप से अधिक हानिकारक होती है. 

मरगोजा खरपतवार की दो प्रजातियां 
यह एक जड़ परिजीवी (रूट पैरासाइट) खरपतवार है जो बहुधा सरसों  कुल (क्रूसीफेरी) एवं सोलोनेसी  कुल जैसे बैंगन, टमाटर, आलू, तम्बाकू आदि फसलों के खेत में उग कर फसल  उत्पादन को कम करता है. सरसों, तोरिया, राया आदि फसलों में ओरोबेंकी इजिप्टियाका का आक्रमण अधिक देखा गया है. मूली, गाजर आदि फसलों के साथ भी यह खरपतवार उगता है. मरगोजा द्विबीज पटरी एक वर्षीय पौधा है जो केवल बीजों द्वारा प्रसारित होता है. यह एक सीधा, पीला-भूरे पुष्पक्रम युक्त पूर्ण रूप से जड़-परिजीवी  पौधा है. इसके पौधे एवं शल्क क्लोरोफिल रहित होते है. इसके बीज बहुत ही सूक्ष्म, अंडाकार, गहरे भूरे-काले रंग के होते है. इस पेड़ की बीज उत्पादन क्षमता अत्यधिक (1-2 लाख बीज प्रति पौधा) होती है और 10-12 वर्ष तक बीज भूमि में  जीवनक्षम बने रहते है. इसमें फरवरी-मार्च में फूल आते है और एक सप्ताह बाद बीज बनने लगते है. इसके बीज उपयुक्त परपोषी पौधों से प्रदत्त रासायनिक उत्तेजक की उपस्थिति में अंकुरित होते है. मरगोजा के  पौधों में क्लोरोफिल नहीं होने के कारण, इसमें पाए जाने वाले अद्वितीय चूषकांग (हॉस्टोरिया) मेजबान पौधों की जड़ से भौतिक संबंध स्थापित (जड़ों के अंदर प्रवेश) कर उनसे ही पोषण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करते है. ये  मेजबान (होस्ट) पौधों की जड़ों से जुड़कर पोषक तत्व, पानी  अवशोषित कर फसल को कमजोर कर देते है.  बड़ी मात्रा में बीज उत्पादन,  बीजों की लंबे समय तक मृदा में  जीवन क्षम बने रहने की क्षमता, मृदा की बजाय केवल फसल पर पोषण के लिए निर्भरता तथा मेजबान के साथ अनुलग्न परिजीवी के रूप में ओरोबेंकी  का उन्मूलन बेहद मुश्किल एवं चुनौतीपूर्ण  होता है.
मरगोजा खरपतवार का ऐसे करें उन्मूलन 

गाजर की जड़ (कंद) से लिपटा मरगोजा 
फसल चक्र (फसलों को हेर फेर कर) बोना, गर्मियों में गहरी जुताई, सौरकरण (सोलेराइजेशन) आदि मरगोजा नियंत्रण के प्रभावी उपाय है. रासायनिक विधि से इस हानिकारक खरपतवार के नियंत्रण हेतु खेती की तैयारी करने के बाद नम भूमि में  मृदा प्रधूमक जैसे मिथाइल ब्रोमाइड का प्रयोग करने के बाद प्लास्टिक पलवार विछाना कारगर होता है. इसके अलावा ग्लाईफोसेट (41 % एस एल) खरपतवारनाशक का दो बार छिडकाव प्रथम 25 ग्राम प्रति हेक्टेयर फसल बुआई के 25 दिन बाद  तथा दूसरा  50 ग्राम प्रति हेक्टेयर (400 लीटर पानी में घोल बनाकर) फसल बुवाई के 55-60 फसल की कतारों में  छिडकाव करने से मरगोजा का 60-80 प्रतिशत नियंत्रण हो जाता है. ध्यान रहे कि छिडकाव के समय एवं बाद में खेत में पर्याप्त नमीं का होना आवश्यक है. इसके लिए उक्त दवा छिडकाव से 2-3 दिन पूर्व या बाद में खेत में सिंचाई अवश्य कर देवें. छिडकाव सुबह के समय फसल की पत्तियों पर ओस या नमीं रहने कि स्थिति एवं फसल में फूल आते समय दवा का छिडकाव फूलों पर न गिरे अन्यथा उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है.

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रविवार, 8 जनवरी 2023

स्वाद, सुगंध एवं सेहत के लिए सर्वोत्तम फल अनानास: समृद्धि के लिए करें खेती

 

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कंपा,महासमुंद (छत्तीसगढ़)

खट्टे-मीठे स्वादिष्ट अनन्नास को संस्कृत में आपनस  अंग्रेजी में पाइनएप्पल तथा वनस्पति शास्त्र में ब्रोमेलिया कोमोसा कहते है, जो ब्रोमेलियेसी कुल का  बहुवर्षीय पौधा है। इसके छोटे तने पर 60-90 सेमी लंबे पत्तों का घेरा होता है। पत्तों के किनारे कांटेदार और सिरे पर पैने नुकीले होते है.  इसके पत्ते हरे अथवा हलके पीले-गुलाबी रंग के (प्रजाति के अनुसार) होते है। इसमें फल पत्तियों के रोसेट के केंद्र में एक डंठल पर आते है. वास्तव में अनानास एक बहुफल अर्थात इसके अनेक फलों का समूह विलय होकर एक बड़ा फल उत्पन्न होता है । इसके फल आकार में अंडाकार से बेलनाकार हो सकते है,  जिनके सिरे पर छोटी-छोटी पत्तियों का मुकुट होता है।  पके फलों का आवरण सुनहरे पीले रंग का होता है, जिनपर अनेक शल्क पाए जाते है. अनानास में जनवरी से मार्च तक फूल आते है। अनन्नास के फल में खाने योग्य भाग 66 % होता है तथा 19-20 % रस होता है।  इसके पके फल का गूदा पीले से हल्के नारंगी रंग का तथा रसीला होता है। इसके फलों में बीज नहीं बनते है।


अनानास के ताजे फलों को काटकर खाया जाता है एवं इनसे जूस, डिब्बाबंद मोरब्बा, जैम, शरबत तैयार कर सेवन किया जाता है। इसके रस में 8-15 % शर्करा तथा 0.3-0.9% अम्ल होता है। अनन्नास के फल में 86.5 % जल, 0.1 % वसा, 12 % कार्बोहाइड्रेट, 0.6 % प्रोटीन, 0.02% कैल्शियम, 0.01 % फॉस्फोरस, 0.9% आयरन के अलावा विटामिन सी एवं विटामिन ए प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। अनानास  के फल एवं रस में एक अद्भुत एन्जाईम-ब्रोमेलैन पाया जाता है, जो पाचन क्रिया में सहायक होता  है । अनानास  चोंट, खरोंच, मोच, मांसपेशी तनाव, संधिवात और गठिया  रोगियों के लिए लाभकारी  माना जाता हैं।  शल्य क्रिया के बाद की सूजन ठीक करने में भी इसका व्यवहार उपयोगी है।

अनन्नास की व्यवसायिक खेती

अनानास की सफल खेती के लिए नम एवं गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है. खेती के लिए 15.5 डिग्री सेल्सियस से लेकर 34 डिग्री सेल्सियस तापक्रम उपयुक्त रहता है।  खेती के लिए उचित जल निकास वाली उपजाऊ भूमि उपयुक्त होती है। इसकी उन्नत किस्मों में रानी (प्रति फल औसत वजन 600 से 800 ग्राम) एवं केव (प्रति फल औसत वजन 1.5 से 3 किग्रा अधिक उपयुक्त होती है। उत्तर भारत में जून-जुलाई में इसका रोपण किया जा सकता है. अनन्नास को कल्लों, प्ररोह और मुकुटों (फल के ऊपरी भाग) से उगाया जा सकता है। सामान्य तौर पर अनानास के पौधों के  बगल से निकलने वाले सकर्स या कल्लों का उपयोग रोपण हेतु किया जाता है।  पौधों की रोपाई मेड़ो पर 60 सेमी ( पौधों के मध्य 30 सेमी) की दूरी पर करना चाहिए। एक हेक्टेयर में 44, 444 पौधे स्थापित होना चाहिए। पौध रोपण से एक माह पूर्व खेती कि अंतिम जुताई के समय  8-10 टन गोबर खाद अथवा कम्पोस्ट खेत में मिलाना चाहिए। इसके अलावा 16 ग्राम नाइट्रोजन, 4 ग्राम फॉस्फोरस एवं 12 ग्राम पोटैशियम प्रति हेक्टेयर को दो बराबर भागों में बांटकर रोपाई के 6 एवं 12 माह में पौधों के निकट डालकर गुड़ाई करना चाहिए। इसकी फसल में सिंचाई की आवश्यकता कम होती है। गीष्म ऋतु में आवश्यकतानुसार  1-2 सिंचाई देना जरुरी है। अनन्नास के पौधों में शीघ्र एवं समान पुष्पन के लिए इथ्रेल (0.04 %) एवं 2% यूरिया के घोल का छिड़काव करना लाभकारी पाया गया है। इस छिडकाव के 40 दिन बाद पौधों में पुष्पन आना प्रारंभ हो जाता है। इन रसायनों का छिडकाव नवम्बर-दिसबर में करना चाहिए।

सामान्यतौर पर इसके पौधों में फरबरी-अप्रैल में पुष्पन होता है एवं  जुलाई से अगस्त तक फल कटाई के लिए तैयार हो जाते है। पौध रोपण के 18-22 माह में फल परिपक्व होने लगते है। उत्तम प्रबंधन से प्रति हेक्टेयर 45-50 टन फल प्राप्त किये जा सकते है। एक बार रोपित फसल से तीन बार फल प्राप्त किये जा सकते है। अनन्नास के फल बाजार में 50 रूपये प्रति किलो से अधिक दर पर बिकते है।

अनन्नास की फसल से फलों के अलावा इसके पत्तों से 25 से 30 किग्रा प्रति टन सफेद चमकीला रेशा प्राप्त किया जा सकता है। इसका रेशा टिकाऊ होता है और पानी में खराब नहीं होता है। इसके रेशे (धागे) अलसी के धागों से अधिक बारीक़, मजबूत एवं चमकीले होते है। इन्हें रेशम के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। फिलिपीन्स में इसके धागों से  पीना ब्रांड के महंगे कपड़े तैयार किया जाते है। पत्तियों से रेशा निकालने के बाद बचे पदार्थ से कागज़ बनाया जा सकता है।

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बुधवार, 4 जनवरी 2023

सेहत और समुद्धि के लिए अनार उपयोगी फल

डॉ गजेन्द सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,

काँपा, महासमुंद 

 अनार को संस्कृत में रक्तपुष्पक, दाड़िम,  अंग्रेजी में पोमग्रेनेट एवं वनस्पति शास्त्र में  प्यूनिका ग्रैनेटम्  कहते है, जो प्यूनिकैसी कुल का अनेक तनों वाला झाड़ीनुमा पेड़ है. इसके पेड़ 15-20 फीट ऊंचे होते है.


 
अनार पौष्टिक गुणों से परिपूर्ण, स्वादिष्ट, रसीला एवं मीठा फल है जिसके बारे में विश्व के तीन धर्म अर्थात हिन्दू, इस्लाम एवं ईसाई धर्म के पवित्र ग्रंथों में विवरण मिलता है. हमारे हिन्दू धर्म ग्रन्थों में अनार के पौधे में विष्णु-लक्ष्मी का वास तथा इसे उर्वरता और समृद्धि का प्रतीक माना गया है. आनर के लाल रंग के सुन्दर फूल तथा आकर्षक फल गृह वाटिका को सुशोभित करते है. एक अनार सौ बीमार कहावत से ही सिद्ध होता है, कि अनार स्वास्थ्य के लिए विशेष लाभकारी है.
खनिज एवं विटामिन की प्रचुर मात्रा होने से अनार के फल रोगियों के आहार के लिए सर्वश्रेष्ठ माने जाते है. अनार के प्रति 100 ग्राम फल में 6 ग्राम प्रोटीन, 0.1 ग्राम खनिज, 5.1 ग्राम रेशा, 14.5 मिग्रा कैल्शियम, 70 मिग्रा फॉस्फोरस, 0.3 मिग्रा आयरन, 0.1 मिग्रा राइबोफ्लेविन, 0.3 मिग्रा नियासिन, 16 मिग्रा विटामिन सी पाया जाता है. अनार के पके फल का रस मधुर तथा स्वास्थ्यवर्धक होता है. ग्रीष्मऋतू में अनार के रस का शर्बत स्फूर्तिदायक होता है.  इसके फल या जूस शरीर में खून की  कमीं को पूरा कर कमजोरी को दूर करता है. आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली में दीर्ध जीवन एवं उत्तम स्वास्थ्य के लिए अनार को औषधि माना गया है. अनार के फल सेवन करने से उदर के रोग व विकार दूर होते है तथा शरीर में रक्त शोधन कार्य अच्छी प्रकार से होता है.  अनार ह्रदय को स्वस्थ बनाये रखने एवं ब्लड सर्कुलेशन को बेहतर बनाने में सहायक होता है. यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करता है. होम्योपैथी तथा यूनानी चिकित्सा पद्धतियां भी रोग मुक्ति के लिए अनार के फल को प्रकृति का बहुमूल्य उपहार मानती है. रोगियों, बच्चो तथा वृद्धजनों के लिए इसका फल एक समुचित आहार है. फल के छिलके चूसने से खांसी में लाभ मिलता है. इसके छिलकों को पानी में उबाल कर निकाला गया रस बच्चो के उदर कृमियों को नष्ट करने में सहायक होता है. दांतों से रक्त स्त्राव होने पर सूखे फूलों का मंजन करना लाभदायक होता है. अनार के फलों से स्वादिष्ट पेय तथा जैली भी बनाई जाती है.
अनार की खेती असिंचित एवं सिंचित दशा में आसानी से की जा सकती है. इसकी व्यवसायिक खेती बहुत ही लाभदायक सिद्ध हो रही है.

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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

स्वाद,सुगंध एवं सेहत के लिए उपयोगी फल स्ट्राबेरी की व्यवसायिक खेती से मालामाल

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

फ़्रांस से चलकर भारत पहुंची स्ट्राबेरी को वनस्पति शास्त्र में फ्रागरिया x अनानास के नाम से जाना जाता है जो रोजेसी कुल का पौधा है इसके खट्टे-मीठे फल स्वास्थ्य एवं आय दोनों ही दृष्टिकोण से लाभदायक है.पोषण मान के लिहाज से 100 ग्राम खाने योग्य स्ट्राबेरी में 89.9 ग्राम पानी, 0.7 ग्राम प्रोटीन, 0.5 ग्राम वसा, 8.4 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 164 मिग्रा पोटैशियम,21 मिग्रा कैल्शियम, 21 मिग्रा फॉस्फोरस, 1 मिग्रा आयरन, 1 मिग्रा सोडियम, 59 मिग्रा विटामिन सी के अलावा विटामिन ए, विटामिन बी, नियासिन भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते है इसे ताजे फल के रूप में खाने के अतिरिक्त स्ट्राबेरी से विशेष संसाधित पदार्थ जैसे जैम, जेली, डिब्बाबंद स्ट्राबेरी, कैंडी आदि  तैयार किये जा रहे है स्ट्राबेरी का उपयोग आइसक्रीम एवं अन्य पेय पदार्थ तैयार करने में भी किया जाता है स्ट्रॉबेरी में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व पाचन क्रिया में सहायक, त्वचा में नव जीवन एवं चेहरे कि चमक बढ़ाने, रक्त चाप को नियंत्रित करने में सहायक होती है प्राकृतिक एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण  विद्यमान होने के कारण यह दिमाग को तनाव मुक्त रखने में  उपयोगी हैं। विटामिन सी की अधिकता होने के कारण यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करती है


स्ट्राबेरी की खेती ऐसे करे

स्ट्राबेरी का बाजार में बहुत मांग होने के कारण इसकी व्यवसायिक खेती बहुत लाभदायक सिद्ध हो रही है स्ट्राबेरी शीत ऋतु की फसल है जिसके पौधों की उचित बढ़वार एवं फलन के लिए 20-30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है अधिक तामपान पर उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है भारत के मैदानी क्षेत्रों के लिए कैलीफोर्निया में विकसित कैमारोजा, ओसो ग्रैन्ड व चैंडलर के अलावा शीघ्र तैयार होने वाली ओफरा एवं स्वीट चार्ली उपयुक्त पाई गई है। भारत में विकसित पूसा अर्ली ड्वार्फ उत्तरी भारत के लिए अच्छी किस्म है. इसकी खेती के लिए 5.5 पी एच मान से लेकर 6.5 पी एच मान वाली बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है

मेड-नाली (रिज एंड फरो) पद्धति से  स्ट्राबेरी का रोपण करने पर पौधों का विकास अच्छा होने के साथ-साथ उत्तम गुणवत्ता  वाले अधिक फल प्राप्त होते है इसके लिए तैयार खेत में 1 मीटर चौड़ी एवं 25 सेमी. ऊंची मेंडे तैयार की जानी चाहिए दो मेंड़ों के बीच 50 सेमी का फासला रखना चाहिए इन मेंड़ों पर ड्रिप (सिंचाई हेतु) एवं मल्च (प्लास्टिक चादर) बिछाने के उपरान्त 25-30 सेमी की दूरी पर मल्च में छेद कर स्ट्राबेरी के स्वस्थ  पौधों अथवा रनर (स्ट्राबेरी के पौधों के बगल से निकलने वाले नए पौधे) का रोपण करना चाहिए इससे पौधों को संतुलित मात्रा में पानी एवं पोषक तत्व उपलब्ध होने के साथ-साथ खरपतवार प्रकोप भी नहीं होता है। एक एकड़ में लगभग 27 हजार पौधे/रनर की आवश्यकता होती है। पौध रोपण के बाद ड्रिप से सिंचाई करे एवं आवश्यकतानुसार तरल उर्वरकों का प्रयोग करें आमतौर पर जनवरी-फरवरी में फल पकने लगते है फलों की तुड़ाई सावधानी से करना चाहिए ताकि फलों को क्षति न पहुंचे. सामान्यतौर पर स्ट्राबेरी के फल फरवरी-अप्रैल तक तुड़ाई हेतु पक कर  तैयार हो जाते है. स्ट्राबेरी के 70 % फलों का रंग जब  लाल-पीला होने लगे, तुड़ाई प्रारंभ करें एक पौधे से औसतन 200-200 ग्राम फल प्राप्त किये जा सकते है तोड़ने के पश्चात फलों की शीघ्र पैकिंग कर बाजार में बेचने कि व्यवस्था कर लेना चाहिए फलों के भण्डारण के लिए कमरे का तापमान 5 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए अन्यथा फल खराब होने लगते है फलों के साथ-साथ पौध सामग्री के रूप में स्ट्राबेरी के रनर (नवीन विकसित पौधे) बेचकर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा सकता हैस्ट्राबेरी की खेती के लिए राज्य के उद्यानिकी विभाग से अनुदान भी प्राप्त किया जा सकता है


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