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मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

सेहत और पौष्टिकता में मसहूर दाल : मसूर की खेती फायदा देती

                                                                         डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                          प्रोफेसर (एग्रोनॉमी ), कृषि महाविद्यालय,
                                                       इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषकनगर,
                                                                         रायपुर (छत्तीसगढ़)                                                   
मसूर फसल का आर्थिक महत्व  
                  दलहनी वर्ग  में मसूर सबसे प्राचीनतम एवं महत्वपूर्ण फसल  है । प्रचलित दालों  में सर्वाधिक पौष्टिक होने के साथ-साथ इस दाल को खाने से पेट के विकार समाप्त हो  जाते है यानि सेहत के लिए फायदेमंद है ।  मसूर के 100 ग्राम दाने में औसतन 25 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम वसा, 60.8 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 3.2 ग्रा. रेशा, 68 मिग्रा. कैल्शियम, 7 मिग्रा. लोहा, 0.21 मिग्रा राइबोफ्लोविन, 0.51 मिग्रा. थाइमिन तथा 4.8 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है अर्थात मानव जीवन के लिए आवश्यक बहुत से खनिज लवण और विटामिन्स से यह परिपूर्ण दाल है । रोगियों के लिए मसूर की दाल अत्यन्त लाभप्रद मानी जाती है क्योकि यह अत्यंत पाचक है। दाल के अलावा मसूर  का उपयोग विविध  नमकीन और मिठाईयाँ बनाने में भी किया जाता है। इसका  हरा व सूखा चारा जानवरों के लिए स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है। दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों में गाँठे पाई जाती हैं, जिनमें उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु वायुमण्डल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन का स्थिरीकरण   भूमि में करते है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है । अतः फसल चक्र  में इसे शामिल करने से दूसरी फसलों के पोषक तत्वों की भी कुछ प्रतिपूर्ति करती है ।इसके अलावा भूमि क्षरण को रोकने के लिए मसूर को आवरण फसल  के रूप में भी उगाया जाता है।मसूर की खेती कम वर्षा और विपरीत परस्थितिओं वाली जलवायु में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है। 
           मसूर मध्य एवं उत्तर भारत के बारानी (वर्षा आश्रित ) क्षेत्रों में आसानी से उगाई जा सकती है। मध्य प्रदेश में लगभग  0.53 मिलियन हैक्टर क्षेत्र में मसूर की खेती प्रचलित है जिससे 505 किग्रा. प्रति हैक्टर औसत उपज के मान से अमूमन 0.27 मिलियन टन उत्पादन लिया जा रहा है । छत्तीसगढ़ में मसूर करीब 23.24 हजार हेक्टेयर में उगाई जा रही है।  इसकी औसत उपज 414 किग्रा. प्रति हैक्टर है जो कि राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। मसूर की उपज कम होने के प्रमुख कारण है-
1 . चयन की गई किस्मों का क्षेत्र विशेष के अनुकूल ना होना
2. उन्नत किस्मों का गुडवत्तायुक्त बीज पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध ना होना
3. मसूर की फसल में उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग करना
4. समयानुसार सिचाई , खरपतवार, कीट रोग नियंत्रण पर ध्यान ना देना



             बाजार में मसूर की बढ़ती मांग को देखते हुए इसकी औसत पैदावार बढ़ाना नितांत आवश्यक है। प्रति इकाई मसूर की उपज बढ़ाने के लिए निम्न  वैज्ञानिक तकनीक का अनुशरण करना चाहिए।
फसल के लिए उपयुक्त जलवायु
                 मसूर शरद ऋतु की फसल है जिसकी खेती रबी में की जाती है। पौधों की वृद्धि के लिए ठण्डी जलवायु परन्तु फसल पकने के समय उच्च तापक्रम की आवश्यकता होती है। मसूर की फसल वृद्धि के लिए 20 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान उपयुक्त  रहता है।  जहाँ 80 - 100 सेमी. तक वार्षिक वर्षा होती है, मसूर की खेती बिना सिंचाई के भी बारानी परिस्थिति (वर्षा नमी सरंक्षित) में की जाती है। अधिक वर्षा, अधिक गर्मी तथा पाला-कोहरा  प्रभावित क्षेत्रों  में मसूर की खेती नहीं की जाती हैं। गर्म आद्र स्थानों में इसकी उपज अच्छी नहीं आती है।
कैसी हो भूमि 
            मसूर की खेती के  लिए हलकी दोमट तथा दोमट मिट्टी अधिक उपयुक्त रहती है। उत्तरी भारत में मैदानो  की अलूवियल मिट्टी, मध्य प्रदेश में कपास की काली मिट्टी तथा दक्षिण भारत की लाल लेटेराइट मिट्टी में मसूर की खेती अच्छी प्रकार से की जा रही है । छत्तीसगढ़ की डोरसा तथा कन्हार भूमि में मसूर की खेती की जाती है। अच्छी फसल के लिए मिट्टी का पी. एच. मान 5.8 - 7.5 के बीच होना चाहिये।
खेत की तैयारी

           खरीफ फसल काटने के बाद 2 - 3 आड़ी - खड़ी जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से की जाती है जिससे मिट्टी भुरभुरी एवं नरम हो  जाए । प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाकर मिट्टी बारीक और समतल कर लेते है। भारी मटियार मिट्टी  में हलकी दोमट  की अपेक्षा अधिक जुताईयाँ करनी पड़ती है ।
उन्नत किस्मों का चयन 
              देशी किस्मो की अपेक्षा उन्नत किस्मो के प्रमाणित बीज का उपयोग करने से अन्य फसलों की तरह मसूर से भी अधिकतम उपज (20 से 25 प्रतिशत अधिक) ली जा सकती है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों  के लिए मसूर की नवीनतम अनुमोदित किस्में निम्नानुसार है-
उत्तर पश्चिम मैदानी क्षेत्र : एलएल-147, पन्त एल-406, पन्त एल-639, सपना (एलएच 84-8), एल-4076(शिवालिक), पन्त एल-4, प्रिया (डीपीएल-15), पन्त लेंटिल-5, पूसा वैभव,  डीपीएल-62
उत्तर पूर्व मैदानी क्षेत्र : डब्लूबीएल-58, पन्त एल-406, डीपीएल-63, पन्त एल-639, मलिका (के-75), केेलएस-218, एचयूएल-67
मध्य क्षेत्र : जेएलएस-1, सीहोर 74-3, मलिका (के-75), एल-4076, जवाहर लेंटिल-3, नूरी, पन्त एल-639,आई पी एल -81 

मसूर की प्रमुख उन्नत किस्मो  की विशेषताएं

नरेन्द्र मसूर-1 (एनएफएल-92): यह किस्म 120 से 130 दिन में तैयार होकर 15-20 क्विंटल  उपज देती है । रस्ट रोग प्रतिरोधी तथा उकठा रोग सहनशील किस्म है ।
पूसा - 1: यह किस्म जल्दी पकने (100 - 110 दिन) वाली है। इसकी औसत उपज 18 - 20क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है। 100 दानो का वजन 2.0 ग्राम है। यह जाति सम्पूर्ण म. प्र. के लिए उपयुक्त है।
पन्त एल-406:यह किस्म लगभग 150 दिन में तैयार होती है जिसकी उपज क्षमता 30-32क्विंटल  प्रति हैक्टर है ।रस्ट रोग प्रतिरोधी किस्म उत्तर, पूर्व एवं पस्चिम के मैदानी क्षेत्रों  के लिए उपयुक्त पाई गई है ।
टाइप - 36: यह किस्म 130 - 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसत उपज 20 से 22क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। इसके 100 दानो का वजन 1.7 ग्राम है। यह किस्म केवल सतपुड़ा क्षेत्र को छोड़कर सम्पूर्ण मध्यप्रदेश के लिए उपयुक्त है।
बी. 77: यह किस्म 115 - 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं औसत उपज 18 - 20 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर आती है। इसके 100 दानों का वजन 2.5 ग्राम है। यह किस्म सतपुड़ा क्षेत्र (सिवनी, मण्डला एवं बैतुल) के लिए उपयुक्त है।
एल. 9-12: यह किस्म देर से पकने (135 - 140 दिन) वाली है। इसकी औसत उपज 18 - 20क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है। 100 दानों का वजन 1.7 ग्राम है। यह किस्म ग्वालियर, मुरैना तथा भिंड क्षेत्र के लिये उपयुक्त है।
जे. एल. एस.-1: यह बड़े दानो वाली जाति है तथा 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है । औसतन उपज 20 - 22 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। इसके 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम है। यह किस्म सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह एवं रायसेन जिले तथा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
जे. एल. एस.-2:
यह किस्म 100 दिन मे पककर तैयार होती है एवं औसतन उपज 20 - 22क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दानला बहुत बड़ा है। 100 दानों का वजन 3.1 ग्राम है। यह म. प्र. के सीहोर, विदिशा, सागर, दमोह एवं रायसेन जिलों तथा सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
नूरी (आईपीएल-81):
यह अर्द्ध फैलने वाली तथा शीघ्र पकने (110 - 120 दिन) वाली किस्म है। इसकी औसत उपज 12 - 15क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है। 100 दानों का वजन 2.7 ग्राम है। यह किस्म छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र तथा सम्पूर्ण म. प्र. के लिए उपयुक्त है।
जे. एल. - 3: यह 100 - 110 दिनों में पककर तैयार होने वाली किस्म है जो 12 - 15क्विंटल  औसत उत्पादन देती है। यह बड़े दानो वाली (2.7 ग्रा/100 बीज) एवं उकठा निरोधी जाति है। मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
मलिका (के -75): यह 120 - 125 दिनों मे पकने वाली उकठा निरोधी किस्म है। बीज गुलाबी रंग के बड़े आकार (100 बीजों का भार 2.6 ग्राम) के होते है। औसतन 12 - 15क्विंटल /हे. तक पैदावार देती है। छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है।
सीहोर 74-3:
मध्य क्षेत्रों  के लिए उपयुक्त यह किस्म 120-125 दिन में तैयार ह¨कर 10-15क्विंटल  उपज देती है । इसका दाना बड़ा ह¨ता है तथा 100 दानों  का भार 2.8 ग्राम होता है ।
सपनाः यह किस्म 135-140 दिन में तैयार होती है तथा औसतन 21क्विंटल  उपज देती है । उत्तर पश्चिम क्षेत्रों  के लिए उपयुक्त पाई गई है । दाने बड़े होते है । रस्ट रोग प्रतिरोधी किस्म है ।
पन्त एल-234: यह किस्म 130-150 दिन में तैयार होती है तथा औसतन  उपज क्षमता 15-20 क्विंटल  प्रति हैक्टर है । उकठा व रस्ट रोग प्रतिरोधी पाई गई है ।
बीआर-25: यह किस्म 125-130 दिन में पकती है जिसकी उपज क्षमता 15-20क्विंटल  प्रति हैक्टर ह¨ती है । बिहार व मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त पाई गई है ।
पन्त एल-639: भारत के सभी मैदानी क्षेत्रों  के लिए उपयुक्त यह किस्म 130-140 दिन में पककर तैयार ह¨ती है । इसकी उपज क्षमता 18-20 क्विंटल  प्रति हैक्टर होती है । रस्ट व उकठा रोग प्रतिरोधी किस्म है जिसके दाने कम झड़ते है ।
कितना बीज
               अधिक उपज के लिए खेत में पर्याप्त पौध संख्या होना आवश्यक है। इसके लिए प्रमाणित किस्म का स्वस्थ बीज संस्तुत मात्रा में प्रयोग करना अनिवार्य है। बीज की मात्रा  जलवायु, बुआई  की विधि, बीज की अंकुरण क्षमता तथा किस्म पर निर्भर करती है । समय पर मसूर की बुआई हेतु उन्नत किस्मों का 30 - 35 कि. ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। विलम्ब से बुआई करने पर 40 किलो ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बोना चाहिए। मिश्रित फसल में प्रायः बीज दर आधी-आधी रखी जाती है ।
बिजाई से पहले करें बीजोपचार
                स्वस्थ बीजों को बुवाई के पूर्व थाइरम या बाविस्टिन 3 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारित करें। इसके उपरान्त बीजों को मसूर के राइजोबियम कल्चर तथा स्फुर घोलक जीवाणु (पीएसबी) कल्चर  प्रत्येक को  5 ग्राम  (कुल 10 ग्राम) प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर छायादार स्थान में सुखाकर बोआई सुबह या शाम को  करना चाहिए।
जरुरी है समय पर बोआई
                     मसूर की बुआई रबी में अक्टूबर से दिसम्बर तक होती है। परन्तु अधिक उपज के लिए मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर का समय उपयुक्त है। ज्यादा विलम्ब से बोआई करने पर कीट व्याधि का प्रकोप अधिक होता है। देर से बोने पर यदि भूमि में नमी कम हो तो  हल्की सिंचाई करने के पश्चात् बीज बोना चाहिए।
बोआई वैज्ञानिक तरीके से
                    अच्छी उपज के लिए केरा या पोरा विधि से कतार बोनी करना ही उत्तम पाया गया है। हल के पीछे कूँड़ में बीज डालने के बाद खेत  में पाटा चलाया जाता है। इस क्रिया से खेत समतल होने के अलावा बीज भी ढंक जाते है । पोरा विधि में देशी हल के पीछे पोरा (चोंगा) लगाकर बोनी कतार में की जाती है । इसके लिए सीड ड्रिल का भी प्रयोग किया जाने लगा है । पोरा अथवा सीड ड्रिल से बीज उचित गहराई और  समान दूरी पर गिरते है । अगेती फसल की बोआई पंक्तियोेेें मे 30 से. मी. की दूरी पर करना चाहिए। पछेती फसल की बोआई  हेतु पंक्तियो की दूरी 20 - 25 से. मी. रखते है। मसूर का बीज अपेक्षाकृता छोटा होने के कारण  इसकी उथली (3-4 सेमी.) बुआई श्रेयष्कर  होती है । आजकल शुन्य जुताई तकनीक से भी (जीरो टिल सीड ड्रिल से ) मसूर की बुआई की जा रही है जिसमे खर्च कम आता है तथा समय की वचत भी होती है। 
फसल को मिले संतलुत पोषण
              दलहनी फसल होने के कारण मसूर को पिछली फसल में दी गई खाद के अवशेषों  पर उगाया जाता है परन्तु अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए मृदा परीक्षण  के पश्चात् संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करना आवश्यक है। सिंचित अवस्था में 20 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा. फॉस्फोरस, 20 किग्रा. पोटाश तथा 20 किग्रा. सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बुवाई करते समय डालना चाहिए। असिंचित दशा  में क्रमशः 15:30:10:10 किग्रा. नत्रजन, फाॅस्फोरस,पोटाश व सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से  बुआई के समय कूड़ में  देना लाभप्रद रहता है। फाॅस्फोरस को सिंगल सुपर फाॅस्फेट के रूप में देने से प्रायः आवश्यक सल्फर तत्व की पूर्ति भी हो जाती है। जिंक की कमी वाली भूमियों में जिंक सल्फेट 25 किग्रा./हे. की दर से अन्य उर्वरकों के साथ दिया जा सकता है। उर्वरकों को बोआई के समय कतारों में बीज लगभग 5 सेमी. की दूरी पर तथा बीज की सतह से 3 - 4 सेमी. की गहराई पर देना अच्छा रहता है।
सिंचाई कितनी और कब
                मसूर में सूखा सहन करने की क्षमता होती है। सामान्य तौर पर सिंचाई नहीं की जाती है। फिर भी सिंचित क्षेत्रों में 1 - 2 सिंचाई करने से उपज में वृद्धि होती है। पहली सिंचाई शाखा निकलते समय अर्थात् बुवाई के 30 - 35 दिन बाद तथा दूसरी सिंचाई फलियों में दाना भरते  समय बुवाई के 70 - 75 दिन बाद करना चाहिए। ध्यान रखें कि पानी अधिक न होने पावे। यथा संभव स्प्रिकलर से सिंचाई करें या खेत में स्ट्रिप बनाकर हल्की सिंचाई करना लाभकारी रहता है। अधिक सिंचाइयाँ मसूर की फसल के लिए लाभकारी नहीं रहती है। खेत में जल निकास का उत्तम प्रबन्ध होना आवश्यक रहता है।
खरपतवार नियंत्रण
                मसूर की फसल में खरपतवारों द्वारा अधिक हानि  होती है । यदि समय पर खरपतवार नियंत्रण पर ध्यान नहीं दिया गया तो उपज में 30 से 35 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।  अतः मसूर बुआई से 45 - 60 दिन तक खेत खरपतवार मुक्त  रहना आवश्यक है। बुवाई के 25 - 30 दिन एक निंदाई-गुड़ाई करने से उपज में वृद्धि होती है। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए बुवाई के तुरंत  बाद परन्तु अंकुरण से पहले पेन्डीमेथालिन 30 ई.सी. का 1. 5 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से 600 -700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें या फिर  फ्लूक्लोरालिन 45 % ई सी 1. 0 किग्रा.सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से 600 -700 लीटर पानी में घोलकर बुआई से पहले खेत में सतही मिट्टी में अच्छी तरह मिलाने  के उपरांत मसूर की बोआई करें।  इन शाकनाशिओं के प्रयोग से  चौड़ी व संकरी पत्ती वाले खरपतवार नियंत्रण में रहते हैं।
फसल पद्धति
                मसूर की खेती खरीफ की फसलें (धान, ज्वार, बाजरा, मक्का, कपास आदि) लेने के बाद की जाती है। मसूर की मिश्रित खेती  जैसे सरसों+मसूर, जौ+मसूर का भी प्रचलन है। शरदकालीन गन्ने की दो कतारों के बीच मसूर की दो कतारों (1.2) बोई जाती है। इसमें मसूर को 30 सेमी. की दूरी पर बोया जाता है।
कटाई एवं मड़ाई
              मसूर की फसल 110 - 140 दिन में पक जाती है। अतः बोने के समय के अनुसार मसूर की फसल की कटाई प्रायः फरवरी-मार्च में जाती है। जब 70 -80 प्रतिशत फल्लियाँ  भूरे रंग की हो जाएं और पौधे पीले पड़ने लगे पक जायें तो फसल की कटाई करना चाहिए। कटाई हँसिये द्वारा सावधानीपूर्वक करना चाहिए जिससे फलियाँ चटकने न पायें। काटने के बाद फसल को एक सप्ताह तक खलिहान में सुखाते हैं। इसके पश्चात् दाॅय चलाकर या थ्रेशर द्वारा दाने अलग कर हवा में साफ कर लिये जाते हैं।
उपज एंव भंडारण
              मसूर की उपज बोई  गई किस्म, बोने का समय और मिट्टी में नमी की उपलब्धता पर निर्भर करती है। मौसम अनुकूल होने पर तथा उपरोक्त नवीन उत्पादन तकनीक का अनुशरण करने पर मसूर दानों  की उपज 20 - 25 क्विंटल  तथा भूसे की उपज 30 - 35 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है। भण्डारण करने से पहले दानो को अच्छी तरह सुख लेना चाहिए।  दानों में 9 - 11 प्रतिशत नमी रहने तक सुखाने के बाद उचित स्थान पर इनका भण्डारण करना चाहिए।
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शुक्रवार, 6 जून 2014

भारी पड़ सकती है पौष्टिक अनाजों (मोटे अनाज) की अवहेलना

                                                                         डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
                                                             प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
                                  इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                   प्राचीन काल में भारत की कृषि उत्पादन प्रणाली में काफी विविधता देखने को मिलती थी। गेहूं, चावल, जौ,  मक्का, ज्वार, बाजरा, कोदों, कुटकी, रागी, चना, मटर, मूँग, उड़द, अरहर, सरसों ,मूंगफली, गन्ना, कपास आदि नाना प्रकार की फसलें उगाई जाती थी। लघु-धान्य फसलों  को  मोटे अनाज कहा जाता है । दानों  के  आकार के  अनुसार मोटे अनाजों  को  दो  वर्गों में वर्गीकृत किया गया है प्रथम मुख्य मोटे अनाज जिसमें ज्वार और  बाजरा आते है।  दूसरे लघु धान्य जिसमें बहुत से छोटे दाने वाले मोटे अनाज आते है जैसे रागी (फिंगर मिलेट), कंगनी (फाॅक्स-टेल मिलेट), कोदों  (कोदो  मिलेट), चीना (प्रोसो  मिलेट), सांवा (बार्नयार्ड मिलेट) और और कुटकी (लिटिल मिलेट) । इन अनाजो  की खेती से अनेक फायदे है जिसमें इनमें सूखा सहन  करने  की अदभुत क्षमता, पकने की संक्षिप्त अवधि , कम लागत विशेषकर खाद-उर्वरको  की न्यूनतम मांग, कम मेहनत के  अलावा कीट-व्याधी प्रतिर¨धक क्षमता, प्रमुख है ।  मौसम परिवर्तन (कम होती वर्षा, तापमान में इजाफा तथा पर्यावरण प्रदुषण) के इस  दौर में इनकी खेती लाभकारी ही नहीं बल्कि आवश्यक भी है।अब स्थिति यह है कि आजादी के बाद बदली कृषि-व्यवस्था ने भारतीयों को गेहूं व चावल आदि फसलों पर निर्भर बना दिया है । इसके अलावा विश्व-व्यापारीकरण और  बाजारीकरण के बढ़ते प्रभाव से किसानों का मोटे अनाजों, दलहनों और तिलहनों की खेती से मोहभंग होता चला जा रहा है। आजादी के बाद धान और गेहूं जैसी फसलों को बढ़ावा दिया गया जिसके  परिणाम स्वरूप कुल कृषि भूमि में से मोटे अनाजों का रकबा  और  उत्पदान निरंतर घटता जा रहा है। यद्यपि मोटे अनाज के  उत्पादन  में भारत अभी भी विश्व में सिरमौर है परन्तु 1961 से 1912 के  दरम्यान इनके  क्षेत्रफल में भारी गिरावट हुई है । इसके  बावजूद कुछ मोटे अनाजों  में उन्नत किस्मों  के  प्रयोग से कुल उत्पाद में इजाफा हुआ है। मोटे अनाजों  का लगभग 50 प्रतिशत क्षेत्र सोयाबीन, मक्का, कपास, गन्ना और  सूर्यमुखी की खेती में तब्दील होता जा रहा  है। इन बहुपयोगी फसलों के क्षेत्रफल में इसी रफ़्तार से गिरावट जारी रही तो एक दिन  पुरखों की इस अमूल्य धरोहर-पौष्टिक अनाज विलुप्त भी हो सकते है और यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही देश-दुनियां को भीषण अकाल-भुखमरी की त्रासदी झेलने के लिए विबस होना पड़ेगा। पौष्टिक अनाजों के अतीत और वर्तमान का लेख जोखा सारणी में प्रस्तुत है। 

            पौष्टिक अनाज और लघु धान्य फसलों के क्षेत्रफल में गिरावट और गेहूं और धान के क्षेत्र और  उत्पादन में बेतहासा इजाफा हुआ है । चावल-गेंहू की खेती के  क्रम में स्थान विशेष के पारिस्थितिकीय हालात, मिट्टी की संरचना, नमी की मात्रा, भू-जल आदि की घोर उपेक्षा की गई जिसके फलस्वरूप इन फसलों की उत्पादकता स्थिर हो गई है जो की चिंता का विषय है । दूसरी ओर गेंहू-धान फसलों में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक और असन्तुलित प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता और  उत्पादकता कम होने के  साथ-साथ पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है जिसकी वजह से वायुमण्डल के तापमान में भी वृद्धि  परिलक्षित होने लगी है।  सिंचाई के लिए भू-जल का अंधाधुंध दोहन किया जा  रहा है जिससे भू-जल स्तर गिर कर पाताल में पहुंच गया जिससे गहरे जल-संकट के  आसार नजर आ रहे है। अतः अब एक ऐसी नई हरित क्रान्ति लाने की आवश्यकता है जिससे मोटे अनाजों की पैदावार में वृद्धि हो सके। इससे जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा संकट, भू-जल ह्रास, स्वास्थ्य और खाद्यान्न संकट जैसी समस्याओं को काबू में किया जा सकता है। इन फसलों को पानी, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की जरूरत कम पड़ती है जिससे मिट्टी व भू-जल स्तर पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। इसके अलावा इन फसलों को उगाने में खेतीकी लागत भी कम आती है। सूखा प्रतिरोधी होने के साथ-साथ ये फसलें कम उपजाऊ भूमि पर भी सफलता से उगाई जा सकती है। ज्वार, बाजरा, रागी, कोदो, कुटकी आदि मोटे अनाजो  की खेती मुख्यतः कम वर्षा वाले क्षेत्रों और ऊँची-नीची गैर उपजाऊ भूमिओं में की जाती है।इन विशेषताओं के बावजूद मोटे अनाज किसानों,कृषि-वैज्ञानिकों और नीति-निर्धारकों की नजर में अभी तक उपेक्षित है तो इसके पीछे प्रमुख कारण जनसाधारण में इनके प्रति गलत धारणाएं है।

पौष्टिकता में बेजोड़-सेहत के साथी  

                  पौष्टिकता और सेहत के मामले में मोटे अनाज गेहूं व चावल पर भारी पड़ते हैं। चूंकि आमजन  इन्हे मोटे अनाज के  रूप में जानते है और  सोचते है कि यह रूखा-सूखा और कम पौष्टिक अनाज  गरीब लोग खाते  है। इसके विपरीत मोटे अनाज भारत के सूखाग्रस्त इलाकों में रहने वाले करोड़ों लोगों के लिए पौष्टिकता का स्त्रोत हैं अर्थात नाजुक पारिस्थितिक तंत्र में पैदा होने वाले जवार, बाजरा, रागी और अन्य छोटे अनाज भारतीयों के भोजन की पौष्टिकता को बढ़ाते हैं.। इनमें प्रोटीन, फाइबर, कैल्शियम, लोहा, विटामिन और अन्य खनिज चावल और गेहूं की तुलना में दो गुने अधिक पाए जाते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने इन अनाजों  की पौष्टिक श्रेष्ठता रेखांकित किया है। चावल की तुलना में कंगनी (फाक्सटेल मिलैट) में 81 प्रतिशत अधिक प्रोटीन, उपवास के  दौरान खीर-हलवा के  रूप में बहुदा खाई जाने वाली सवां (लिटिल मिलेट) में 840 प्रतिशत अधिक वसा (फैट), 350 प्रतिशत रेशा (फाइबर) और 1229 प्रतिशत लोहा (आयरन) पाया जाता है।  कोदो  में 633 प्रतिशत अधिक खनिज तत्व होते है। रागी में 3340 प्रतिशत अधिक कैल्शियम और  बाजरा में 85 प्रतिशत अधिक फाॅस्फ़ोरस पाया जाता है। इन सबके  अलावा ये अनाज विटामिनों  का भी खजाना है जैसे थायमेन (फाक्सटेल मिलेट), रायबोफ्लेविन व फ़ोलिक अम्ल (बाजरा), नियासिन (कोदो मिलेट) जैसी महत्वपूर्ण विटामिन इनमें विद्यमान होती है। अत्यंत पौष्टिक होने की वजह से इन अनाजों  में बहुत से औषधीय गुण भी होते है। अनेक विकारों  में इनके सेवन की संस्तुति की जाती है। मसलन पाचन (हाजमा) में सुधार, दिल से संबंधित विकृतियों में सुधार और  मधुमेह जैसे खतरनाक रोगों के लिए इनका भोजन रामवाण साबित हो रहा है । आजकल  चिकित्सक भी इनके  सेवन की सलाह देने लगे है।
                     इतने  सारे गुणो  के  बाबजूद क्या अभी भी हम इन स्वास्थ्यवर्धक और  पौष्टिक अनाजों  को  मोटा अनाज कहा जाना उचित ठहरा सकते है ? कदाचित नहीं।   इन अनाजो  की पौष्टिकता को  हम दूसरे  सरल तरीके  से भी समझ सकते है । भोजन में  बाजरे की एक रोटी खाने से हमें शरीर के  लिए आवश्यक विटामिन-ए मिल जाती है जिसकी पूर्ति एक किग्रा गाजर खाने से हो सकती है। एक अन्डे के  बराबर प्रोटीन हमें फाक्सटेल मिलेट का भोजन करने से मिल जाती है। तीन ग्लास दूध पीने से हमारे शरीर को  जितना कैल्श्यिम मिलता है उतना एक कटोरी रागी(मड़ुआ) को  भोजन के  रूप में लेने से प्राप्त हो सकता है। चूकि गाजर, अन्डे, दूध, पत्तेदार हरी सब्जियाँ गरीबों  की पहुँच के  बाहर हैं। इसलिए पौष्टिकता के  दृष्टिकोण से मिलैट को  गरीबों  का सोना कहना अतिशयोक्ति नहीं है । ऐसे महत्वपूर्ण और पौष्टिक अनाजों का इस्तेमाल इसलिए कम होता है क्योंकि उन्हें मोटे अनाज की श्रेणी में डाल दिया गया है। आम तौर पर लोग यही मानते हैं कि ये निम्न गुणवत्ता के अनाज हैं. जबकि ये देखने में तो मोटे अनाज लगते हैं किंतु हैं बेहद पौष्टिक और  स्वादिष्ट भी। हमारे परंपरागत आहार में मोटे अनाजों का महत्वपूर्ण स्थान था किंतु गलत नामावली और भारी जनउपेक्षा की बजह से ये अनाज  धीरे-धीरे हमारी  थाली से बाहर निकलते चले गए। हमारी जीवनपद्धति से जुड़ी बहुत-सी बीमारियां इन मोटे अनाजों की अवहेलना का दुष्परिणाम हैं।  जैसे ही मोटा अनाज कहा जाता है आप सोचते हैं कि ये शायद पशुओं का भोजन है. हमें लगता है कि यह रूखा-सूखा और कम पौष्टिक अनाज है. बढिया अनाज केवल गेहूं और चावल को माना जाता है. यही हमारे जन मानस में गहराई से बैठ गया है।

बदलना होगा इनका नामकरण

               बदलते परिवेश में समय की मांग है कि पौष्टिकता से सरावोर इन मोटे अनाजों  का नाम बदल कर पौष्टिक अनाज (न्यूट्री-सीरियल) क्यो  नहीं किया जा सकता ?  जब हम बम्बई का नाम बदलकर मुम्बई, मद्रास का चैनई, कलकत्ता का कोलकाता कर सकते है तो  फिर हम पौष्टिक अनाजॉ का नया वर्गीकरण क्यो  नहीं कर सकते है ? क्यो  नहीं मोटे अनाजों  के  स्थान पर हम इन्हे पौष्टिक अनाज के  रूप में जानें ? पौष्टिक अनाजों  में दलहन जैसे चना, अरहर, मूँग आदि को भी सम्मलित करना सोने पर सुहागा होगा । वैसे भी दाल-रोटी का चोली-दामन का साथ है। इनके मिले जुले सेवन से ही हमें संतुलित आहार प्राप्त हो सकता है। इस छोटे से बदलाव से ये भूले बिसरे पौष्टिक अनाज हमारी भोजन प्रणाली और  खेती किसानी कीे मुख्य धारा में सम्मलित हो  सकते  है ।
          आज विश्व में कुपोषण की समस्या गहराती जा रही है और  भारत भी इस गंभीर समस्या से अछूता नहीं है। अतः इन पौष्टिक अनाजों को दैनिक आहार का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाने की आवश्यकता है । यद्यपि खाद्य सुरक्षा कानून में इन फसलों  का जिक्र किया गया है । परन्तु सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत इनका भी  जन वितरण होना चाहिए । भारत सरकार को  इन अनाजों के लिए लाभकारी समर्थन-मूल्य घोषित किया जाना चाहिए और राज्य सरकारों को इनकी सरकारी खरीद, भंडारण व विपणन के लिए प्रभावी नेटवर्क स्थापित करने आवश्यक कदम उठाना चाहिए । गेहूं और धान की भाँति मोटे अनाजों के अनुसंधान, विकास और  प्रसंस्करण की सुविधाएं देश भर में स्थापित की जाए। वर्ष 2025 तक लगभग 30 मिलियन टन पौष्टिक अनाजों  की आवश्यकता का अनुमान लगाया जा रहा है जिसकी पूर्ति के  लिए हमें क्षेत्र विस्तार के  साथ-साथ प्रति इकाई उत्पादकता बढ़ाने के  भी प्रयास करना चाहिए। पूरे देश में पौष्टिक एवं स्वास्थप्रद इन अनाजों  के   महत्व, उपयोगिता और इनकी खेती के  लाभों  के  बारे में जनजागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है । इन फसलों  की खेती को  बढ़ावा देने से न केवल रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का आयात व प्रयोग कम होगा, बल्कि मिट्टी, भू-जल के साथ-साथ कुपोषण की समस्या से निजात मिलेगी और  जनता  का स्वास्थ्य भी सुधरेगा। इस प्रकार बदलते मौसम चक्र, एकफसली खेती से हो रहे नुकसान  को देखते हुए पौष्टिक अनाजों की खेती भविष्य में एक उम्मीद की किरण के समान है। इससे न केवल कृषि का विकास होगा बल्कि खाद्य-सुरक्षा के साथ-साथ भारत की आम जनता को  पोषण-सुरक्षा भी हासिल हो सकेगी। 
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मंगलवार, 3 जून 2014

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून

            डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर
                                                               प्राध्यापक (सस्यविज्ञान विभाग)
                                इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                    भारत में आसन्न जल संकट से निपटने कारगर कदम आवश्यक 

                यह निर्विवाद रूप से सत्य है की जल प्रकृति का वाहक है और यह भी  कटु सच है की  जल है तो  कल है । जब वच्चा  संसार में आता है तो उसे जल की घुट्टी ही दी जाती है। हमारी जीवन लीला जल से चलती है और अंत में अस्थियां जल में प्रवाहित कर दी जाती हैं। ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न ऊबरे, मोती, मानूस, चून’- लगभग चार सौ वर्ष पूर्व कही गई संत रहीम की यह उक्ति आज मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए ध्येय वाक्य की भांति ग्रहण करने योग्य है। मोती और चून के बिना तो फिर भी दुनिया रह सकती है, परन्तु जल के बिना यह मात्र आकाशीय पिण्ड बन कर रह जाएगी। अतः जल के बिना जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। भारतीय संस्कति में नदियों को पुण्य-सलिला माना गया है । अधिकतर सभ्यताएं नील, गंगा, सिंधु, फरात आदि नदी-घाटी में ही जन्मी और फली-फूली हैं। भारत में जल लोगों में श्रद्धा की भाव जगाता है। इसे ‘वरुण’ देवता का अवतार माना गया है, जिन्हें जल देवता के रूप में पूजा जाता है। ये जल की महत्ता  ही थी कि जन-कल्याकण के लिए भागीरथ ऋषि को गंगा धरती पर लाने के लिए कड़ी तपस्या करनी पड़ी। प्रकृति के  जिन पंचभूतों (क्षिति जल पावक गगन समीरा) से  मानव शरीर का निर्माण हुआ उनमें जल प्रमुख है। जल देवताओं के रूप में इंद्र और वरुण की सृष्टि हुई। महाभारत के भीष्म गंगा से जन्मे। गंगा हमारी आस्था, सभ्यता, संस्कृति और जीवन से जुड़ी आराध्य नदी है। भारत में आसन्न जल संकट से निपटने के  लिए प्रकृति के  अनमोल रत्न जल के  संरक्षण और उसके  संवर्धन के लिए हम सबक¨ मिलकर ईमानदान कोशिश करना होगी तभी हमारा आज और  कल सुरक्षित रह सकता है। 

                पृथ्वी के भीतर लगभग 1 अरब 40 करोड़ घन कि.मी. पानी है एक घन कि.मी. में औसतन 900 अरब लीटर पानी मौजूद है। इस अथाह जल भंडार का 97 प्रतिशत हिस्सा खारा और मात्र 3 प्रतिशत ही मीठे पानी का है जिसका तीन चैथाई भाग ग्लेशियर और बर्फीली पहाड़ियों के पिघलने से बने जल का है जो अनादिकाल से नदी, झरने आदि के रूप में पृथ्वी पर अनवरत रूप से बह रहा है। समस्त जीवों के शरीर का अधिकांश भाग पानी है । मानव शरीर का 65 प्रतिशत, हाथी के शरीर का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा पानी है यहां तक कि आलू में 80 प्रतिशत और टमाटर में 95 प्रतिशत पानी होता है। गेंहू की बुआई से लेकर उसे एक रोटी का रूप देने में लगभग 435 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है । पानी की सबसे अधिक खपत औद्योगिक इकाईयों में होती है। एक कि.ग्रा. एल्यूमीनियम बनाने में 1400 लीटर, एक टन स्टील बनाने में 270 टन और एक टन कागज बनाने में 250 मी.टन तथा एक लीटर पेट्रोल या अंग्रेजी शराब के शोधन में 10 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। दैनिक उपयोग में खर्च होने वाले पानी का 70 प्रतिशत हिस्सा वाष्प के जरिए या तो वातावरण में पहुंचता है या फिर जहां पानी गिरता है उस  क्षेत्र के पौधों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। शेष पानी नदी-नालों के जरिए समुद्र में पहुंच जाता है। गौरतलब है, वातावरण में नमी की मात्रा 85 प्रतिशत समुद्री पानी के वाष्प से होती है तथा शेष नमी पौधों आदि के वाष्पोत्सर्जन के कारण होती है। उदाहरण के लिए  मक्का की फसल प्रति हेक्टेयर क्षेत्रफल से प्रतिदिन औसतन 37,000 लीटर पानी वाष्प के  रूप में वातावरण में प्रवाहित करती है।
             भारत की जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का 1/6 हिस्सा है जबकि हमारे यहां संसाधन विश्व के लगभग 25वें भाग ही हैं। देश में जल उपलब्धता की पूर्णतः मानसून पर निर्भर करती है।। क्योंकि लगभग 75 प्रतिशत जल वर्षा के रूप में चार महीनों के अन्दर हमारे भूभाग पर पड़ता है। देश का 1/3 क्षेत्रफल सूखे तथा 1/8 भाग बाढ़ की संभावना से ग्रस्त रहता है। जनसंख्या की वृद्धि, तीव्र शहरीकरण तथा विकासात्मक जरूरतों ने भारत की जल उपलब्धता पर भारी दबाव डाला है। वर्ष 1991 में भारत में लगभग 2200 घनमीटर प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता थी, जो  वर्तमान में घटकर 1545 घनमीटर  से भी कम आंकी जा रही है। यह भी आंकलन किया गया है कि वर्ष 2025 और 2050 तक जल उपलब्धता घटकर लगभग 1340 और 1140 घनमीटर क्रमशः रह जाएगी। अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार उपरोक्त औसत 1700 घनमीटर से कम जल उपलब्धता को जल की दबाव वाली स्थिति तथा 1000 घनमीटर से कम को जल की कमी वाली स्थिति माना गया है। यह हम सबके लिए चिंता और  चिंतन का विषय है।
              अमूमन धरती की सतह का अधिकांश भाग समुद्र द्वारा आच्छादित है और पृथ्वी पर पानी का विशाल भण्डार हमें दिखता भी है। परन्तु छत्तीसगढ़ के रहवासियों  और किसानों के लिए बंगाल की खाड़ी का पानी उपलब्ध कराना क्या व्यावहारिक है ? कदाचित नहीं। हालांकि प्रकृति ने इसकी निःशुल्क व्यवस्था कर रखी है। सूर्य की गर्मी से समुद्र का पानी वाष्पीकृत होकर बादलों में पहुंचता है, जो बाद में वर्षा के रूप में शुद्ध पानी हमारे स्थान पर उलब्ध हो जाता हैं। घर पहुँच सेवा (होम डिलीवरी) की इतनी सुन्दर व्यवस्था बगैर किसी शुल्क के प्रकृति ने हमारे लिए संजोई  है। परन्तु वर्षा तो कुछ माह ही होती है, जबकि पानी हमें हर समय प्रति दिन चाहिए। जल भण्डार के लिए भी प्रकृति हमारे साथ है। परंतु मनुष्य ने अपने तात्कालिक सुख एवं स्वार्थ के लिए  प्रकृति की सुन्दर व्यवस्था को  तहस-नहस कर दिया है। जंगलों  की अंधाधुंध कटाई, ओद्योगिक अपशिष्ट व शहरी कचरे क¨ नदियों में बहा देना, हानिकारक गैसों को वायुमण्डल में फैलाना, भू-जल का अन्धाधुन्ध दोहन, गावों  व नगरों के प्राचीन तालाब-पोखरों  पर अतिक्रमण आदि ऐसे कारक है जिनसे प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा हैं।
              मंगल पर जीवन और पानी की खोज तो  की जा रही है परन्तु पृथ्वी पर पहले से मौजूद जल और  जीवन के संरक्षण-संवर्धन को लेकर उदासीनता ही दिखाई देती है । अब भी समय है सँभलने का, यदि नहीं संभले तो जल-संकट के कारण ग्रह युद्ध जैसे हालात उत्पन्न हो  सकते है और इसमें कोई दो-राय नहीं कि अगला विश्वयुद्ध गहराते जल संकट की वजह से हो सकता है । जल ही हमारा रक्षक है। यदि जल ना हो तो प्रकृति की प्रक्रियाएं बन्द हो जायेंगी । प्रकृति हमे मानसून की बारिश के रूप में पानी मुफ्त में देती है। जो चीज मुफ्त मिले, देखा गया है कि इंसान उसकी कोई कदर नहीं  करता । यही कारण है कि आज बेरहमी से पानी की बर्बादी हो रही है  और जल-संसाधनों को बचाने में कोई भी खास  दिलचस्पी लेता नजर नहीं आ रहा है। सब कुछ सरकार और सरकारी महकमें के भरोसे छोड़ दिया जाना  कहां तक उचित है । अपने  आस-पास देखें तो इसका सबूत अपने आप मिल जाएगा। मसलन सबमर्सिबल पम्प का पाइप हाथ में लेकर चमचमाती गड़ियों  यहां तक सड़क को धोते लोग आपको दिखाई दे जायेंगे । धरती के गर्भ से हर दिन लाख¨-करोड़ों लीटर पानी बेरहमी से खींचा जा रहा है लेकिन उसकी भरपाई (रिचार्ज) करने की ओर बहुत ही कम लोगों का ध्यान है । भू-गर्भ जल के अंधाधुंध दोहन को देखते हुए स्पष्टं हैं कि अगर हम न सुधरे तो आने वाला कल भयावह होगा।
               ऐसे समय में जब हम घटते जल संसाधनों तथा जल की बढ़ती मांग से जूझ रहे हैं, जल दक्षता से ही लाभ हो सकता है। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में जल संग्रहण, प्रबंधन एवं वितरण की प्राचीन परंपराओं  पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता तो संभवतः जल को लेकर त्राहिमान की स्थिति कभी नहीं उत्पन्न होती। वर्षा जल संचयन द्वारा भूगर्भ जलस्रोतों के नवीकरण में पारम्परिक जलस्रोतों की  महत्वपूर्ण भूमिका को  पुनः अमल में लाना होगा। परम्परागत जलस्रोतों के  गहरीकरण, मरम्मत और  निरन्तर रखरखाव से कम खर्च में जल उपलब्धता को  काफी हद तक बढ़ाया जा सकता हैं। भारत के विभिन्न गांवॉ -शहरों  में ऐतिहासिक धरोहर के तालाबों को  बेहतर रख-रखाव और  नवनिर्मित डबरियों  से क्षेत्र में अनुकूल जल प्रबंधन का महत्वपूर्ण आधार निर्मित किया जा सकता है । वास्तव में आज समग्रीकृत वाटरशैड विकास परियोजनाओं के अन्तर्गत जल-संग्रहण-संरक्षण में नए कार्यों के साथ पुराने जलस्रोतों को नवजीवन देने की ठोस  कार्ययोजना के  साथ-साथ जल संग्रहण व संरक्षण के लिए जनजागरुकता व सहकारिता की भावना विकसित करनी चाहिए। वर्तमान में लगभग 80 प्रतिशत जल कृषि क्षेत्र की मांग को पूरा करता है। भविष्य में उद्योगों में तथा ऊर्जा एवं पेयजल की मांग तेजी से बढ़ने के कारण अत्यावश्यक हो गया है कि जल संरक्षण के प्रयास तेजी से और योजनाबद्ध ढंग से किए जाएं। वर्ष 2011 में शूरू किये गये राष्ट्रीय जल मिशन का उद्देश्य जल संरक्षण, जल की बर्बादी में कमी लाना तथा समतापूर्ण वितरण है। जल उपयोग दक्षता में बीस प्रतिशत की वृद्धि करना भी राष्ट्रीय जल मिशन का लक्ष्य है। इसी प्राकर राष्ट्रीय जल नीति 2012 में जल संसाधनों के उपयोग में दक्षता सुधार की जरूरत को स्वीकार किया गया है । अभी तक उपलब्ध जल की मात्रा बढ़ाने पर अधिक ध्यान दिया गया, परन्तु अब जल का कुशल उपयोग तथा उसका प्रबंधन कैसे किया जाए, पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। इस प्रकार वर्तमान जल संकट से उबरने के  लिए ‘जल संसाधन विकास’ से 'समेकित जल संसाधन प्रबंधन’ की दिशा में आमूल चूल बदलाव किये जाने की महती आवश्यकता है। इसके लिए जन जागरण अभियान तथा सम्यक जल नीतियों को  धरातल पर उतारना होगा । भारत में कृषि क्षेत्र में जल की सर्वाधिक खपत है। अतः कृषि में यथोचित जल प्रबंधन हमारी समग्र जल सततता के लिए आवश्यक है। इसके  लिए जल का कुशल उपयोग, पुनर्चक्रण तथा पुनः प्रयोग की तीन-सूत्रीय कार्ययोजना को हमारे खेतों में उपयोग में लाना होगा। हमारी सिंचाई प्रणाली में बदलाव कर जल के उचित प्रयोग को भी प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। वर्षा जल सरंक्षण एवं उपलब्ध जल के किफायती उपयोग से  हम आसन्न जल संकट के असर को कम कर सकते  है। 
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सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

कृषि शिक्षा में नवाचार विषय पर कृषि स्नातको, वैज्ञानिक, कृषि उद्यमियों एवं कृषको की प्रथम राज्य स्तरीय कार्यशाला

            कृषि स्नातको, वैज्ञानिक, कृषि उद्यमियों  एवं कृषको  की प्रथम राज्य स्तरीय कार्यशाला

                                                             प्रस्तुति डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर

                                                              कार्यक्रम अधिकारी , RAWE

 

ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यक्रम (रूरल एग्रीकल्चरल वर्क एक्सपीरियंस प्रोग्राम-रावे) के  माध्यम से कृषि शिक्षा में नवाचार विषय पर कृषि स्नातकों , वैज्ञानिक, कृषि उद्यमियों  एवं कृषको  की राज्य स्तरीय कार्यशाला का आयोजन दिनांक 21 जनवरी,2014 को  स्वामी विवेकानंद सभागार, कृषि महाविद्यालय, रायपुर  में किया गया  जिसमें प्रदेश के  समस्त कृषि महाविद्यालयो  में अध्ययनरत बी.एससी.(कृषि एवं उद्वानिकी) के  छात्र-छात्राएं, कृषि वैज्ञानिक, कृषि उद्यमी एवं किसानो को  आमंत्रित किआ गया था । पहली बार आयोजित इस राज्य स्तरीय कार्यशाला में शासकीय कृषि महाविद्यालय रायपुर सहित कृषि महाविद्यालय बिलासपुर,अंबिकापुर, कबीरधाम के छात्रो ने भाग लिया। निजी कृषि महाविद्यालयो में भारतीय कृषि महाविद्यालय, दुर्ग, छत्तीसगढ़ कृषि महाविद्यालय, भिलाई, श्रीराम कृषि महाविद्यालय, राजनांदगांव, कृषि महाविद्यालय, अम्बागढ़ चौकी(राजनांदगांव), महामाया कृषि महाविद्यालय, धमतरी, कृषि महाविद्यालय, रायगढ़, कृषि महाविद्यालय, दंतेवाड़ा के अलावा गायत्री उधानिकी महाविद्यालय, धमतरी, दंतेस्वरी उधानिकी महाविद्यालय, रायपुर, उधानिकी महाविद्यालय, पेंड्रारोड के विद्यार्थियो और सम्बधित शिक्षकों ने सक्रिय रूप से भाग लिया।  इस कार्यक्रम में बी.एससी.(कृषि) एवं एम.एससी.(कृषि) के  छात्र-छात्राओ ने किसानो के खेत औरगाँव  में प्रदर्शित कृषि तकनीकी पर आधारित रोचक  प्रदर्शनी सुसज्जित की गई  । इसमें प्रमुख रूप से समन्वित फसल प्रणाली (फसलोत्पादन के साथ साथ डेरी,मछली पालन, मुर्गी पालन, मशरूम कि खेती आदि), वर्षा जल संचयन और जल ग्रहण, पौध व किस्म विकास, कीट व रोगो की पहचान और सम्भावित निदान, गृह वाटिका, मृदा स्वास्थ परिक्षण आदि के जीवंत प्रादर्श और पोस्टर प्रदर्शित किए गए जिसे अतिथिओं और प्रतिभागिओं ने खाशा पसंद किया और भावी युवा कृषि वैज्ञानिको की नवीन कृषि अवधारणा को सराहा। कार्यक्रम का शुभारंभ  माननीय डाँ.एस.के .पाटील, कुलपति इं.गां.कृ.वि.ने  समस्त अधिष्ठाता, संचालक और  विभागाध्यक्ष तथा  की उपस्थिति में किया  ।
 कृषि महाविद्यालय रायपुर एवं निदेशालय विस्तार सेवाएं के  संयुक्त तत्वाधान में आयोजित इस कार्यशाला की आयोजन समिति के  अध्यक्ष डाँ.अ¨.पी.कष्यप अधिष्ठाता कृषि संकाय एवं प्राध्यापक डाँ.जी.एस.तोमर आयोजन सचिव थे ।
ज्ञात हो  कृषि शिक्षा को  व्यवहारिक एवं रोजगार मूलक बनाने के  उद्देश्य से भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली ने देश के  सभी राज्य कृषि विश्वविद्यालयो  के  स्नातक पाठ्यक्रम में ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यक्रम (रावे) को  अनिवार्य रूप से लागू करने दिशा निर्देश जारी किये है । इसी तारतम्य में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने स्नातक शिक्षा में यह योजना संलालित कर दी है । इस महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के  तहत बी.एससी.(कृषि व उद्यानिकी) और  बी.टेक.(कृषि अभियांत्रिकीय) में अध्ययनरत अंतिम वर्ष के  छात्र-छात्राओ  को  छःमाह के  लिए गांव में रहकर किसानो  के  साथ मिलकर कार्य करना होता है तथा कृषि शोध और तकनीकी पर आधारित किसानो  के  खेत पर जीवंत प्रदर्शन, कृषक प्रशिक्षण और  कृषि सूचना केन्द्र स्थापित करना होता है । इसके  अलावा छात्र-छात्राओ  को  कृषि आधारित उद्यम केन्द्रो, अनुसंधान प्रक्षेत्रों  ओर कृषि विज्ञान केन्द्रों  के  साथ भी संलग्न किया जाता है । सभी विद्यार्थियो  को  कार्यक्रम से सम्भतित एक प्रगति प्रतिवेदन तैयार  कर  व्यवहारिक परीक्षा में उत्तीर्ण होना होता है तभी उन्हे उपाधि प्रदान की जाती है । इससे छात्र-छात्राऑ में एक उत्तम वैज्ञानिक, शिक्षक, कृषि प्रशार कार्य कर्त्ता बनने के अलावा स्वंय का रोजगार स्थापित करने अथवा स्वंय की खेती को  समोन्नत करने आत्मविश्वास बढ़ता है  मार्गदर्शन प्राप्त होता है । वर्तमान परिवेश में कृषि क्षेत्र में नित नई चिनौतियां उभर रही है, यथा कृषि में धीमी वृद्धि दर, बढ़ती जनसंख्या व स्थिर फसल उत्पादन, जलवायु परिवर्तन आदि जिनका सामना करने  ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यक्रम को  और  अधिक प्रभावी बनाने की आवश्यकता है जिसके  लिए छात्रो , वैज्ञानिको  एवं उद्यमिओ  के  मध्य विचार  विमर्ष होना चाहिए । इसी उद्धेश्य से यह एक दिवसीय कार्यशाला आयोजित की गई जिसमे अपने उदगार व्यक्त करते हुए मुख्य अतिथि डाँ एस के पाटील ने कहा कि ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव विश्व्विद्यालय का एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम है जिसके माध्यम से छात्रो को कृषि की व्याहारिक ज्ञान के अलावा गाँव किसान की वास्तविक कठिनाईओं से रूबरू होने का अवसर प्राप्त होता है जिससे वे भविष्य में खेती किसानी कि समस्याओ का निराकरण आसानी से सकते है।  इस कार्यक्रम के तहत बिभिन्न महाविद्यलाओ द्वारा किए जा रहे कार्यो कि प्रशंशा की तथा छात्रो की समस्याओ को  ध्यान से  सुना और उनके निराकरण के लिए आवश्यक पहल करने का अस्वाशन दिया। आयोजन सचिव एवं कार्यक्रम अधिकारी डॉ जी एस तोमर ने कार्यक्रम के उद्देस्य एवं भविस्य में इस कार्यक्रम को और अधिक प्रभावी बनाने अपने विचार रखे।  कार्यक्रम कि अध्यछता करते हुए डॉ ओ पी कश्यप ने बताया कि वर्त्तमान में छात्रों को भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् 700 रूपए मासिक छात्रवृति देता है जो कि बहुत कम है जिसके कारण उन्हें गाओं में रहने ठहरने में काफी असुविधा होती है, इसे बढ़ाने की जरूरत है. इस पर कुलपति जी ने सहमति जताते हुए राज्य शासन की तरफ से अतरिक्त छात्रवृति प्रदान करवाने का आस्वाशन दिया जिस पर छात्रो ने प्रसन्ता जाहिर की। छात्र-किसान और वैज्ञानिक संगोस्टी में मूल रूप से

इस कार्यक्रम की अवधारणा और प्रभावी तरीके से उसे लागू  करने पर विमर्श हुआ जिसका प्रतिवेदन भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् और राज्य शासन को भेजा जा रहा है।  कार्यक्रम में 800 प्रतिभागी उपस्थित हुए जिन्हे प्रमाणपत्र और विश्वविद्यालय का कृषि पंचांग और अन्य साहित्य वितरित किया गया.प्रदेश के जाने माने कृषि उद्यमी श्री जीतेन्द्र चंद्राकर (महासमुंद), श्री  सुरेश चंद्रवंशी (कबीरधाम), श्री आनंद ताम्रकार (दुर्ग) तथा ग्राम जरौद के प्रगतिशील कृषक बी सरपंच श्री ईश कुमार साहू  के आलावा गडमान्य नागरिक उपस्थित थे।   विगत तीन वर्षो से ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यक्रम को सफलता पूर्वक संचालित करने के लिए डॉक्टर गजेन्द्र सिंह तोमर, प्राध्यापक सस्य विज्ञानं एवं कार्यक्रम अधिकारी, कृषि महाविद्यालय, रायपुर को  प्रसस्ति प्रमाण पत्र से सम्मानित किया गया।  वरिस्ठ प्राध्यापक डा एस के टांक ने आभार प्रस्ताव रखा.

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

सस्टेनबल सुगरकेन इनिसिएटिव(एस.एस.आई.): गन्ना उत्पादन की नवोन्वेषी तकनीक


डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

न्यूनतम लागत और अधिकतम लाभ :गन्ना उत्पादन की नवोन्वेषी तकनीक


                   ईख अर्थात गन्ना विश्व की सबसे महत्वपूर्ण औऱ  औधोयोगिक-नकदी  फसल है । भारत को  गन्ने का जन्म स्थान माना जाता है, जहां विश्व में गन्ने के  अन्तर्गत सर्वाधिक क्षेत्रफल पाया जाता है । विश्व में सर्वाधिक चीनी मिलें (660)  भारत में स्थापित है जिनसे 30 मिलियन टन चीनी उत्पादित (विश्व में दूसरा स्थान) होती है । देश में निर्मित सभी मीठाकारको  (चीनी,गुड़ व खाण्डसारी) के  लिए गन्ना ही मुख्य कच्चा माल है । गन्ना खेती की बढती लागत और  प्रति इकाई कम उत्पादन के  कारण किसानों  को बहुत सी समस्याओं  का सामना करना पड़ रहा है । भारत में गन्ने की  औसत उपज 70-85 टन प्रति हैक्टर के  इर्द-गिर्द ही आ पाती है जबकि ब्राजील  और थाइलेंड में 120 टन प्रति हैक्टर की अ©सत उपज ली जा रही है । मध्यप्रदेश और  छत्तीसगढ़ के  किसान  तो  गन्ने से औसतन 30-35 टन प्रति हैक्टर के  आस-पास उपज ले पा रहे है । गन्ने की खेती में लगने वाली आगतो (खाद,बीज,पानी और श्रम) की बढ़ती कीमते और  कम उपज ही गन्ना कृषको  की प्रमुख समस्या है। 
                   गन्ना फसल की भारी जल मांग, गिरते भूजल स्तर तथा रासायनिको के  बढ़ते उपयोग को  देखते हुए पारस्थितिक समस्यायें भी बढ़ रही है । अब समय आ गया है कि हमें प्रकृति मित्रवत खेती में कम लागत के  उन्नत तौर तरीके  अपनाने की आवश्यकता है जिससे प्राकृतिक संसाधनो का कुशल प्रबन्धन करते हुए गन्ना फसल से अधिकतम लाभ अर्जित किया जा सके । इस परिपेक्ष्य में धान का उत्पादन बढाने में हाल ही में अपनाई गई "श्री विधि" कारगर साबित हो  रही है। इसी तारतम्य में हैदराबाद स्थित इक्रीसेट व डब्लू.डब्लू.एफ. प्रोजेक्ट ने गन्ना उत्पादन की एस.एस.आई. तकनीक का विकास किया है, जिसके उत्साहजनक परिणाम प्राप्त हो रहे है।   एस.एस.आई.अर्थात सस्टेनेबल सुगरकेन इनीशियेटिव (दीर्धकालीन गन्ना उत्पादन तकनीक) गन्ना उत्पादन की वह विधि है जिसमें गन्ने से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन लेने न्यूनतम बीज और  कम पानी में भूमि व उर्वरकों  का कुशल उपयोग किया जाता है । वास्तव में यह बीज, जल और  भूमि का गहन उपयोग करने वाली गन्ना उत्पादन की नवीन वैकल्पिक विधि है । दरअसल, पर्यावरण को  क्षति पहुँचाये बिना प्रति इकाई जल, जमीन और  श्रम से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने की यह नवीन अवधारणा है, जिसके  प्रमुख सूत्र इस प्रकार हैः
1.    गन्ने की एकल कलिका वाले टुकडो का प्रयोग करते हुए पौधशाला स्थापित करना
2.    कम आयु (25-35 दिन) की पौध रोपण
3.    मुख्य खेत में पौधों  के   मध्य उचित फासला( 5 x 2 फीट) रखना
4.    मृदा में आवश्यक नमीं कायम रखना तथा खेत में जलभराव रोकना
5.    जैविक माध्यम से पोषक तत्व प्रबंधन व कीट-रोग प्रबंधन
6.    भूमि और  अन्य संसाधनो  का  प्रभावकारी उपयोग हेतु अन्तर्वर्ती फसलें लगाना ।
गन्ना की अधिक उपज देने वाली  को-86032 किस्म
                    गन्ना लगाने की पारंपरिक विधि में रोपाई हेतु 2-3 आँख वाले टुकडॉ का उपयोग किया जाता है। एस.एस.आई. विधि में स्वस्थ गन्ने से सावधानी पूर्वक एक-एक कलिकाएं निकालकर पौधशाला (कोको पिथ से भरी ट्रे) में लगाया जाता है । मुख्य खेत में 25-35 दिन की पौध रोपी जाती है । पौधशाला में एक माह में पौधों  की वृद्धि बहुत अच्छी हो  जाती है। पारंपरिक विधि में एक एकड़ से 44000  गन्ना प्राप्त करने हेतु दो  कतारों के  मध्य 45 से 75 सेमी.(1.5-2.5 फीट) की दूरी रखी जाती है और  प्रति एकड़ तीन आँख वाले 16000 टुकड़े (48000 आँखे) सीधे खेत में  रोप दी जाती है । परन्तु अंत में सिर्फ 25000 पिराई योग्य गन्ना ही प्राप्त हो  पाता है । जबकि एस.एस.आई. विधि में अधिक फासलें (कतारों  के  मध्य 5 फीट और  पौधों  के  मध्य 2 फीट) में रो पाई करने से कंसे अधिक बनते है जिससे 45000 से 55000 पिराई योग्य गन्ना प्राप्त हो  सकता है । इस प्रकार से कतारों  व पौधों  के  मध्य चौड़ा फासला रखने से न केवल कम बीज ( तीन आँख वाले 16000 टुकड़¨ं की अपेक्षा एक आँख वाले 5000 टुकड़े) लगता है बल्कि इससे प्रत्येक पौधे को हवा व प्रकाश सुगमता से उपलब्ध होता रहता है जिससे उनका समुचित विकास ह¨ता है ।
               एस.एस.आई. विधि में जल प्रबंध पर विशेष ध्यान दिया जाता है । खेत में पर्याप्त नमीं बनाये रखना लाभकारी पाया गया है । बाढ. विधि से सिंचाई करने से पानी कि अधिक मात्रा तो लगती ही है, पौधों  की बढ़वार पर भी बिपरीत प्रभाव पड़ता है । पौधशाला में पौध तैयार करना, कूड़ या एकान्तर कूड़ विधि या टपक विधि से आवश्यकतानुसार सिंचाई करने से 40 प्रतिशत तक जल की वचत संभावित है । दीर्धकाल तक अधिक उत्पादन प्राप्त करने हेतु रासायनिक उर्वरको  और  कीटनाशको  पर निर्भरता कम करने की आवश्यकता है । इसके  लिए जैविक खाद व जैव उर्वरकों  का प्रयोग किया जाना आवश्यक है । समन्वित     पोषक तत्व प्रबंधन करना अधिक लाभकारी पाया गया है  । एस.एस.आई. विधि में गन्ने की दो  कतारों के  बीच गेंहू, चना, आलू, राजमा, बरवटी, तरबूज, बैगन आदि फसलों की अन्र्तवर्ती खेती को  प्रोत्साहित किया जाता है । इससे भूमि, जल आदि संसाधनों का कुशल उपयोग होने के साथ-साथ खरपतवार भी  नियंत्रित रहते है और  किसानो  को  अतिरिक्त आमदनी भी प्राप्त हो  जाती है ।

                                                   एस.एस.आई. तकनीक  के प्रमुख चरण

1.आँख (कलिका चयन)
                        एस.एस.आई. विधि में स्वस्थ मातृ गन्ने से एकल आँख वाले टुकङों को  पौधशाला में लगाया जाता है । इस विधि में गन्ने की कतारों एवं पौधों के मध्य काफी दूरी (कतारों  के  मध्य 5 फीट और  पौधों के मध्य 2 फीट) रखी जाती है जिससे प्रति एकड़ 5000 कलिकाओ  की आवश्यकता होती है । कलिका चयन हेतु स्वस्थ 7-9 माह पुराने एसे गन्नो को छांटे जिनके  इंटरनोड की लंबाई (17-20 सेमी.) और  मोटाई अच्छी हो  । कलिका चयन के  समय ध्यान में रखें की कलिकाएं न तो  अधिक ऊपर से और  न ही नीचे की 3-4 छोटी इंटरनो ड से लें । कीट-रोग संक्रमित गन्नो  का प्रयोग बीज हेतु न करें । बीज के  लिए चयनित गन्ने से कलिका निकालने हेतु बड चिपर (औजार) का प्रयोग करना चाहिए । इससे कम समय में अधिक आँखे (150 प्रति घण्टा) सुगमता से निकल आती है । इससे आँखे क्षतिग्रस्त भी नहीं ह¨ती है । अस्वस्थ, क्षतिग्रस्त अथवा अंकुरित कलियों को निकाल कर अलग कर दें । जितनी आवश्यक हो, उतनी ही कलिका तैयार करें । खेत से लाये गये बीजू गन्नो को  छाया में रखना चाहिए । एक एकड़ के  लिए 7-9 माह के  450 से 500 गन्नो  (प्रत्येक में 10-12 कलिका हो ) की आवश्यकता होती है । एक एकड़ हेतु पौधशाला बनाने 100 प्लास्टिक ट्रे (प्रत्येक में 50 कोन होते है) में 150 किग्रा. कोको पिथ (नारियल का जूट) डालकर 5000 कलिकाओ को लगाया जाना चाहिए ।

2. बीज (कलिका) शोधन

                   कीट-रोग संक्रमण से कलिकाओ  की सुरक्षा करने के  लिए उनका उपचार करना आवश्यक होता है ।कलिका उपचार हेतु सबसे पहले एल्युमिनियम या प्लास्टिक के पात्र में 10 लीटर पानी भर कर जैविक व रासायनिक दवाएं (मैलाथियान 20 मिली, कार्बेन्डाजिम 5 ग्राम, ट्राइकोडर्मा-500 ग्राम, गौमूत्र-1 से 2 लीटर और  बुझा चूना-100 ग्राम) घोल लेते है । बीजू टुकडो को जूट के  बोरे में रखकर उक्त घोल में 10-15 मिनट डुबा एं । इसके  पश्चात इन टुकडो को  निकालकर 2-3 घण्टे छाया में सुखाने के  बाद पौधशाला में लगाना चाहिए । इस प्रकार से कलिका शोधन करने से 90 प्रतिशत तक अंकुरण होता है ।

3.पौधशाला तैयार करना

                  गन्ने की पौध तैयार करने के  लिए छाया-जाली (शेड नेट) का उपयोग करना उत्तम रहता है । अच्छी प्रकार से सड़ा हुआ कोकोपिथ (नारियल की जटा) लेकर प्रत्येक प्लास्टिक ट्रे के  कोन को  आधा भर दें । अब कोन में एक टुकड़े को  समतल या हल्का तिरछा रखकर कोको पिथ से हल्का ढंक दें । ध्यान रखें कि आँख की स्थिति ऊपर की तरफ रहें । सभी ट्रे भरकर इसी प्रकार से टुकडो को लगाना चाहिए । अब ट्रे को  एक दूसरे के  ऊपर जमाकर रखें (चार सेट-प्रत्येक में 25 ट्रे) तथा सबसे ऊपर एक खाली ट्रे को  उलटा कर रखें तथा पोलीथिन से प्रत्येक सेट को  बांध कर 5-8 दिन के  लिए यथावत स्थिति में छोड़ दें । दीमक से बचाव हेतु ट्रे के  चारो  तरफ भूमि में क्लोरोपायरीफास 50 ईसी (5 मिली प्रति लीटर पानी) छिड़कना चाहिए । ध्यान रखें कि ट्रे को पो लीथिन में लपेटकर छाया-जाली या कमरे के  अन्दर रखें जिससे उसमें हवा, पानी व प्रकाश प्रवेश न कर पाये । मौसम ठण्डा होने पर कमरे में कृत्रिम ताप (बल्व) की व्यवस्था करना चाहिए । उपयुक्त दशा (गर्म जलवायु) में 3-4 दिन के  अन्दर पौध में सफेद जड़ें तथा 2-3 दिन बाद तना दिखने लगता है।
            जलवायुविक परिस्थितियों के  अनुसार 5-8 दिन में सभी अंकुरित ट्रे को  पालीथिन से अलग करें और  जमीन पर विधिवत जमाकर रखें जिससे उनमें पानी व अन्य प्रबंधन कार्य आसानी से किये जा सके  । ट्रे की कोको पिथ में नमीं की स्थिति देखकर पौधों में फब्बारे की सहायता से संध्या के  समय 15 दिन तक हल्का पानी देते रहना चाहिए । तने की बढ़वार होने लगती है तथा पत्तियाँ निकलने लगती है । दो  पत्ती अवस्था पर पानी की मात्रा बढ़ा देना चाहिए ।
        पौध की छठी पत्ती अवस्था (लगभग 20 दिन की पौध) पर एकसार लंबाई के  पौधों  को छांटकर अलग-अलग ट्रे में रखें । पौध छांटने के  एक दिन पूर्व पानी देना बंद कर दें जिससे ट्रे की कोको पिथ ढीली हो  जाए । क्षतिग्रस्त या मृत पौध अलग कर दें ।

4.मुख्य खेत की तैयारी

                      खेत से पिछली फसल के अवशेष व खरपतवारों  की सफाई कर एक-दो  बार जुताई कर एक सप्ताह के  लिए खुला छोड़ देना चाहिए । खेत में 25-30 सेमी. गहरी जुताई करने से हवा पानी का आवागमन अच्छा होता है । भूपरिष्करण का कार्य हैरो  या रोटावेटर की सहायता से इस प्रकार करे जिससे खेत में फसल अवशेष व ढेले न रहें । हल्का सा ढाल रखते हुए  पाटा चला कर खेत को समतल बनाए जिससे सिंचाई व जलनिकास सुगमता से हो  सके  ।

5.जैविक खाद का प्रयोग

                  गन्ना उत्पादन की इस विधि में जैविक खाद के  प्रयोग को  बढ़ावा दिया जाता है । जैविक अर्थात कार्बनिक खादों के  प्रयोग से भूमि में पोषक तत्वों  की उपलब्धता बढने के  साथ साथ, पर्यावरण संरक्षण और  रासायनिक उर्वरको  की  उपयोग क्षमता भी बढ़ती है । अंतिम जुताई के  समय प्रति एकड़ 8-10 टन गोबर की खाद या कंपोस्ट या शक्कर कारखाने से प्राप्त प्रेसमड मिट्टी में मिलाना चाहिए । जैविक खाद की मात्रा इस प्रकार से समायोजित करें जिससे फसल को  112 किग्रा. नत्रजन प्रति एकड़ प्राप्त हो  जाए । जैविक खाद में ट्राइकोडर्मा और  स्यूडोमोनास (प्रत्येक 1 किग्रा प्रति एकड़ की दर से) मिलाने से मृदा उर्वरता में सुधार होता है जिससे उपज में बढोत्तरी होती है। हरी खाद वाली फसलें जैसे सनहेम्प या ढ़ेंचा उगाकर भी अंतिम जुताई के  समय खेत में मिलाना लाभप्रद रहता है । खेत में नालियाँ (5 फिट के  अन्तर पर) बनाने से खाद एवं सिंचाई का उपयोग कुशलता से किया जा सकता है ।

6.पौ ध रोपड़

                       पौधशाला में तैयार पौधों को  25 से 35 दिन की अवस्था पर मुख्य खेत में  रोपण कर देना चाहिए । रोपण से एक दिन पहले पौधशाला में सिंचाई बंद कर दे जिससे कोन की कोकोपिथ ढीली हो  जाए तथा कोन से पौध आसानी से निकल सके । पौध रोपण से 1-2 दिन पूर्व खेत में सिंचाई करें । खेत में पौध को  2 फिट की दूरी पर जिगजैग (जेड आकार) विधि से लगाने से पौधों को स्थान व प्रकाश अधिक मिलनेे से कंसे अधिक फूटते है । अच्छा होगा यदि पौधों  का रोपण उत्तर-दक्षिण दिशा में किया जाये । पौध रोपण  के  पश्चात खेत में हल्की सिंचाई करें । पौध स्थापित हो जाने के  उपरांत मातृ तने को  भूमि से 1 इंच ऊपर से काट देने से कंसे एक समान और  अधिक मात्रा में बनते है जिससे पिराई योग्य गन्ने अधिक संख्या में प्राप्त होते है । इस कार्य को  थोड़े से क्षेत्र में प्रयोग करके  परखें तथा अच्छे परिणाम दिखने पर बड़े पैमाने पर प्रयोग करें । जलवायु की स्थिति तथा पौध बढ़वार के  अनुसार मातृ तनों को रोपाई के  3 से 30 दिन के  अन्दर काटा जा सकता है । फंफूद संक्रमण से पौध सुरक्षित रखने के  लिए मातृ तना काटने से पूर्व सिंचाई अवश्य करें ।

7.निंदाई-गुड़ाई

                 नमीं और पोषक तत्वों के प्रभावकारी अवशोषण हेतु खेत को  खरपतवार मुक्त रखना अनिवार्य हो ता है । इसके  लिए रोपण से पहले खेत की गहरी जुताई कर बहुवर्षीय खरपतवारो को निकाल देना चाहिए । रोपाई के  30, 60 व 90 दिन बाद यांत्रिक विधियों  (कोनोवीडर) से निदाई गुड़ाई संपन्न करें । खरपतवार नियंत्रण की अन्य वैकल्पिक विधि का  प्रयोग आवश्यकतानुसार करते रहें ।

8.पलवार का प्रयोग

            गन्ने की सूखी पत्तियों  या कचरा का उपयोग पलवार के  रूप में करने से खेत के खरपतवार कम उगते है, नमीं का सरंक्षण होता है और खेत में केचुआ भी अधिक पनपते है जिससे मृदा उर्वरता, जल धारण क्षमता व वातन में सुधार होता है । अतः गन्ने की कतारों  में 1.5 टन प्रति एकड़ की दर से रोपाई के 3 दिन के  अन्दर गन्ना अवशेष विछाना लाभकारी होता है ।

9.उर्वरक प्रयोग

                     दीर्धकालीन फसल होने के कारण गन्ने को अधिक मात्रा में पोषक तत्वों कि आवश्यकता होती है।  अतः फसल बढ़वार व विकास हेतु पोषक तत्व प्रबंधन  पर ध्यान देना आवश्यक होता है । पोषक तत्वो  की सही मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण के  आधार पर किया जाना चाहिए । मृदा परीक्षण संभव न होने पर नत्रजन, स्फुर व पोटाष की क्रमशः 112, 25 व 48 किग्रा. मात्रा प्रति एकड़ की दर से दी जा सकती है । उक्त पोषक तत्वो  की पूर्ति यूरिया, सिंगल सुपर फास्फेट, म्यूरेट आफ पोटाष और  अमोनियम सल्फे ट के  माध्यम से की जा सकती है । उक्त उर्वरकोण को  2-3 किस्तों  में देना लाभप्रद रहता है । खेत की अंतिम तैयारी करते समय जैविक खादों  यथा गोबर की खाद (3-4 टन), मुर्गी खाद(1-2 टन) या प्रेसमड को मिटटी में अच्छी प्रकार मिलाना चाहिए । इसके  अलावा जैव उर्वरको  जैसे एजोस्परिलम एवं फास्फ़ो बैक्टीरिया (प्रत्येक 2 किग्रा.) को  200 किग्रा. गोबर की खाद के  साथ मिलाकर रोपाई के  30 व 60 दिन बाद मिट्टी चढ़ाते समय कतार में देने से पौधों  का विकास अच्छा होता है ।

10.जल प्रबंध

                गन्ने की फसल में बाढ़ विधि से अधिक पानी देने की अपेक्षा समय पर ईष्टतम मात्रा में पानी देना उपयुक्त रहता है । औसतन  100 टन पिराई  योग्य  गन्ना पैदा करने के  लिए वर्षा जल को  मिलाकर लगभग 1500 मिमी. जल (फसल अवधि के दौरान 60 लाख लीटर पानी प्रति एकड़) की आवश्यकता होती है । जबकि परंपरागत विधि के  अन्तर्गत बाढ़ विधि से 2000 मिमी. जल (80 लाख लीटर प्रति एकड़) सिचाई के  माध्यम से देना पड़ता है । बाढ विधि से सिंचाई करने पर पानी बर्वाद होने के  साथ-साथ फसल वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।
                  गन्ने में सिंचाई की संख्या भूमि का प्रकार, जलवायु, वर्षा की मात्रा और  फसल की आयु पर निर्भर करती है । हल्की मृदा में अधिक तथा भारी मृदाओं  में कम सिंचाई देना पड़ती है । कल्ले बनने की अवस्था (36-100 दिन) के  समय 10 दिन के  अन्तराल, फसल की अधिकतम बढ़वार (101-270 दिन) के  समय 7 दिन तथा परिपक्वता अवधि (271 से कटाई तक) 15 दिन के  अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए । सिंचाई नाली अथवा कतार छोड़ विधि से करने से 50 प्रतिशत जल की वचत होती है । बूंद-बूंद (टपक) सिंचाई विधि से 90 प्रतिशत सिंचाई दक्षता मिलती है एवं 40-50 प्रतिशत जल की वचत होती है । एस.एस.आई. विधि से गन्ना लगाने से लगभग 4-5 सिंचाईयों  की बचत होती है क्योकि गन्ने की अंकुरण अवस्था (35 दिन तक) पौधशाला में व्यतीत हो  जाती है । सीधे खेत में गन्ना  रोपने से प्रारम्भिक एक माह तक अधिक सिचाई करना होता है।

11.मृदा दाब (मिट्टी चढ़ाना)

                    गन्ने के पौधों पर मिटटी चढ़ाना एक महत्वपूर्ण ही नहीं वल्कि आवश्यक सश्य क्रिया है, जिसमें  पौधों को  दृढ़ता प्रदान करने उसके  जड़ क्षेत्र पर मिट्टी चढ़ाई जाती है । फसल अवधि के दौरान दो  बार मिट्टी चढ़ाने (आंशिक व पूर्ण रूप से) का कार्य किया जाता है । पहली बार खड़ी फसल में उर्वरक देते समय आंशिक मिट्टी चढ़ाने (नाली के दोनों तरफ से मिट्टी लेकर) का कार्य किया जाता है जिससे नवोदित जडॉ  को  सहारा मिलने के  अलावा मृदा में उर्वरक भली भांति मिल जाता है । यह कार्य देशी हल की सहायता से भी किया जा सकता है । दूसरी बार खड़ी फसल में उर्वरक देने के  बाद (चरम कंशा निर्माण अवस्था) पूर्णरूप से मिट्टी चढ़ाने का कार्य किया जाता है । इसमें मेड़ की मिट्टी को  दोनों तरफ नालियों में डाला जाता है जिससे नालियों  की जगह मेंड़ और  मेंड़ के  स्थान पर नालियाँ बन जाती है । इस प्रकार से नवनिर्मित नालियाँ सिंचाई हेतु उपयोग में ली जाती है ।

12.डिट्रेसिंग

                 पौधों  से गैर उपयोगी और  अधिक पत्तियों को निकालने की क्रिया डिट्रेसिंग कहते है । गन्ने के  पौधों  में बहुत सी पत्तियाँ विकसित होती है । फसल बढ़वार की उत्तम परिस्थितियों  में सामान्य तने में 30-35 पत्तियाँ बनती है । परन्तु कारगर या प्रभावकारी प्रकाशसंश्लेषण हेतु ऊपर की 8-10 पत्तियाँ पर्याप्त होती है । पौधे की अधिकांश नीचे वाली पत्तियाँ प्रकाश संश्लेषण क्रिया में भाग नहीं लेती है और  अंततः सूख जाती है । परन्तु वे भूमि से पोषक  तत्व ग्रहण करने में प्रतिस्पर्धा करती है । अतः यह आवश्यक है कि पांचवे व सातवे माह में नीचे की  सूखी व हरी पत्तियों को निकाल कर दो  कतारों के  मध्य पलवार के  रूप में विछा देना चाहिए । डिट्रेसिंग करने से पौधो के बीच हवा व प्रकाश का समुचित आवागमन होता है । खेत में सफाई रहने से कीट-रोग का संक्रमण कम होता है । खेत में निंदाई-गुड़ाई जैसे सस्य कार्य सुगमता से संपन्न किये जा सकते है ।इस प्रकार गैर- ऊपयोगी व सूखी पत्तियों को  तनों से निकल कर  पलवार के  रूप में प्रयोग करने से न केवल पौधों में प्रकाश संश्लेषण और पोषक तत्वों का अवशोषण बढ़ता है वाकई मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में बढोत्तरी भी होती है ।

13.सहारा देना

               गन्नों  को  गिरने से बचाने के  लिए  उनके  तनों को  मिलाकर पत्तियों  की सहायता से बांध दिया जाता है जिसे सहारा देना कहते है । परंपरागत विधि में या तो  गन्नो  को  प्रत्येक कतार में बांधा जाता है अथवा दो  कतारॉ  के  गन्नो को  आपस में बांध दिया जाता है । एसएसआई विधि में खेत में  एक तरफ लकड़ी के  खंबे गाड़ दिये जाते है, जिनके  सहारे पौधों को  बांधा  जाता है । मुख्यरूप से मध्यम स्तर की सूखी या गैर उपयोगी पत्तियों को  मिलाकर तनों  को  आपस में बांध  दिया जाता है, जिससे उनके गिरने कि सम्भावना नही रहती है।

14.पौध संरक्षण

                 मीठा होने कि वजह से गन्ने की फसल में विभिन्न कीट-रोगों  का प्रकोप अधिक  होता  है । जैविक विधि से कीट व रोगों पर नियंत्रण पाया जाता है ।  कीट-रोग प्रतिरोधी किस्मों के  बीज का चयन करें तथा बीजोपचार कर बुवाई करें । फसल चक्र व सस्य विधियों  का अनुपालन करने से कीट-ब्याधियों  का प्रकोप कम होता  है ।

15.अंतरवर्ती खेती

                  गन्ने के  पौधें  काफी दूरी पर लगाये जाते है । अतः गन्ने की दो  कतारों  के  मध्य लोबिया, चना, आलू, मूंग, गेंहू, सरसॉ , ककड़ी, तरबूज आदि फसलें लगाई जा सकती है । अंतरवर्ती फसल से खरपतवार नियंत्रित रहते है, मृदा उर्वरता में सुधार होता है तथा अतिरिक्त आमदनी प्राप्त होती है ।

16.गन्ना कटाई

            गन्ने की कटाई सही समय पर आवश्यकतानुसार करें । एक वर्ष की फसल के पौधों में वांछित शुक्रोश  प्रतिशत 10वें माह में आने लगता है । इसके  दो  माह में गन्ना कटाई कार्य किया जा सकता है ।

नोट-कृपया इस लेख को लेखक की  बगैर अनुमति के कही भी अन्यंत्र न प्रकाशित किया जावे।

रविवार, 10 नवंबर 2013

राजनेताओं और उच्च पदस्थ अधिकारयों को भगवान श्रीराम के अनुशासन की नसीहत


                                                      सादर प्रस्तुति डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर
      भगवान श्री राम जब अयोध्या के  सिंहासन पर बैठे तो  वहां के  नागरिको  को  संबोधित करते हुए उन्होने अपने भाषण के  आरंभ में कहा-मित्रो ! मेरे राज्य की सच्ची प्रजा वह है जो  मेरा अनुशासन माने और  मेरा अनुशान मानकर मेरे अनुशासन में रहे । तो  प्रजा ने कहा “बताइये-अनुशासन का पालन हम लोग क्या करें ?  तो भगवान श्रीराघवेन्द्र कहते है-
                                                   सोई सेवक प्रियतम मम सोई । मम अनुशासन मानै जोई ।।
और मेरा अनुशासन क्या है । भगवान श्रीराम ने कहा-
                                                   जौ  अनीति कछु भाषौ भाई । तौ  मोहि बरजहु भय बिसराई ।।
             "अगर मेरे जीवन में, मेरी वाणी में, मेरे चरित्र में, कही नीति के  विरूद्ध आचरण हो  तो  आप लोग
भय छोड़ करके  मुझे रोक दीजियेगा" । भगवान श्रीराम की अनुशासन की परिभाषा कितनी अद्धभुत  है । अनुशासन में वे कहते है-"तुम बोलो ! अगर मुझमें कुछ दोष समझते हो  तो  तुम उसकी आलोचना करो ! तुम
मिर्भय हो  जाओ ! तुम्हारे अतःकरण का संचालन विवेक के  द्वारा हो, लोभ और भय के  द्वारा नहीं" !कितने सुंदर और प्रेणादायक वचन कहे है श्रीरामजी ने।
            आज हमारे देश में सभी जगह भ्रस्टाचार और कुशासन का बोलबाला है। भारत में उच्च पदों  पर सोभायमान राज नेता, अधिकारी, सचिव, कुलसचिव, कुलपति, विभाग प्रमुख इस प्रकार के  अनुशासन का थोड़ा सा भी अनु पालन करने लगें तो उनके मातहत अधिकारी-कर्मचारी पूरी ईमानदारी से राष्ट्र हित और लोकहित में अपनी  सेवाएँ देने में अपना सबकुछ अर्पण कर देंगे जिसके फलसवरूप भ्रष्टाचार पर भी लगाम कस सकता  है और तभी सही मायने में रामराज्य -स्वराज्य स्थापित हो पायेगा।  
               भगवान श्री राम से प्रार्थना  करता हूँ कि जिन के हाथो देश के बिभिन्न मंत्रालयों, बिभागो और संस्थानो की बागडोर है उन्हें इस तरह के अनुशाषन पालन की सदबुद्धि और कड़ी नशीहत प्रदान करेंगे जिससे भारत भूमि अपनी खोई हुई गरिमा पुनः प्राप्त कर सकें। 

                                                                         जय श्री राम !

शनिवार, 2 नवंबर 2013

दीपावली से जुड़े कुछ रोचक तथ्य

                                                  सभी मित्रों -शुभ चिंतकों को 

                                  दीपावली की अनंत ज्योति भरी शुभकामनाएँ 

 

                                         दीपावली से जुड़े कुछ रोचक तथ्य

    दीपावली के दिन भगवान श्री राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध करके तथा 14 वर्ष का वनवास पूर्णकर अयोध्या लौटे थे।
    द्वापुर युग में इसी दिन भगवान श्री कृष्ण की भार्या सत्यभामा ने अत्याचारी नरकासुर का वध किया था.    इसी दिन भगवान विष्णु ने श्रीनरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था.    इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए थे।
    जैन मतावलंबियों के अनुसार 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी इसी दिन है.    इसी दिन अमृतसर में १५७७ में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। 
    इसी दिन सिक्ख छठवें गुरू श्री गुरू हरगोबिन्द साहिबजी जहांगीर शासक की जेल से मुक्त हुए थे ।
    सम्राट विक्रमादित्य का राज्याभिषेक दीपावली के दिन हुआ था।
    दिवाली के  ही दिन 12 वर्ष का वनवास पूर्ण कर पाण्डव हस्तिनापुर वापस लौटे थे ।
    खरीफ ऋतु की बिदाई एवं शीतऋतु (रबी फसलॉ  की बुवाई) का शूभारंभ काल ।
    दीवाली भारत का राष्ट्रीय पर्व है और  इसे त्रिनिदाद व टोबागो, मयनमार, नेपाल, श्रीलंका, मौरीसस, ग्याना, सुरनाम, सिंगापुर, मलेशिया और  फिजी देशो  में भी धूमधाम से मनाया जाता है ।
                           पुनः सभी इष्ट मित्र जनों को हार्दिक बधाई एवं नव वर्ष की मंगल कामनाऍ। 
                                                                                                              -डॉ. गजेन्द्र