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मंगलवार, 1 मार्च 2016

किसानों के सच्चे हमराही बनें कृषि विज्ञान केन्द्र

इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा संस्थागत् नवाचार-कृषि विज्ञान केंद्र
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान) 
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                 भारतीय कृषि को समोन्नत करने के उद्देश्य से विभिन्न कृषि जलवायविक क्षेत्रों में वैज्ञानिकों द्वारा गहन शोध  कार्य किये जाते है परन्तु इन शोध परिणामों/उपलबधियों का फायदा कृषि और किसानों को नहीं मिल पाता है।  वैज्ञानिक अनुसन्धान से उपजी कृषि तकनीकें खेत किसान तक पहुँचने की वजाय प्रयोगशाला अथवा प्रगति प्रतिवेदनों के पन्नों तक पहुंच कर दम तोड़ देती है और भारी भरकम धन राशि खर्च करने के वाद परिणाम शिफर रहता है। इसलिए भारत में शिक्षा आयोग (1964-65) की अनुशंषा तथा योजना आयोग की स्वीकृति के पश्चात भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा गठित डॉ मोहन सिंह मेहता कमेटी ने कृषि विज्ञानं केंद्र स्थापित करने का विचार 1973 में रखा, जिसके फलस्वरूप तमिल नाडु कृषि विश्व विद्यालय के अधीन वर्ष 1974 में प्रथम कृषि विज्ञानं केंद्र की स्थापना पांडिचेरी में की गई।
भारत की अर्थव्यस्था में कृषि के अहम योगदान को दृष्टिगत रखते हुए और कृषि विकास दर को निरंतर गति प्रदान करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने देश के अमूमन सभी जिलों में कृषि विज्ञान केंद्र स्थापित करने का वीणा उठाया है।  परिणामस्वरूप अब तक भारत के विभिन्न राज्यों में कुल 637  कृषि विज्ञानं केंद्र स्थापित हो चुके है, जिनका संचालन उपमहानिदेशक (कृषि प्रसार), भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (आई सी ए आर), पूसा,नई दिल्ली के दिशा निर्देशन में देश भर में स्थापित आठ क्षेत्रीय परियोजना निदेशालयों के माध्यम से सफलता पूर्वक किया जा रहा है।  इनमें से मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में क्रमशः 47 एवं 20 कृषि विज्ञानं केंद्र सुचारू रूप से कार्यरत है जो जोन क्रमांक 7 के प्रशासनिक नियंत्रण में आते है। आज कृषि विज्ञानं केंद्र बेहतर प्रसार मॉडल के रूप में खड़े हो कर क्षेत्रीय कृषि विकास को  नित नई   ऊँचाइयों तक पहुंचाने में अहम किरदार की भूमिका निभा रहे है। वास्तव में कृषि विज्ञान केन्द्रों  की स्थापना कृषि प्रौद्योगिकी/उत्पादों का मूल्यांकन, सुधार और प्रदर्शन की मूल भावना के तहत की गई है । इन  केन्द्रों  के समस्त तकनीकी हस्तांतरण कार्यक्रम “करके सीखों” एवं “देखकर विश्वास करो” के सिद्धांत पर संचालित किये  जाते हैं तथा प्रौद्योगिकी में निहित वास्तविक दक्षता को सीखने पर बल दिया जाता है। यह केन्द्र एक ऐसी महत्वाकांक्षी वैज्ञानिक संस्था है जहाँ किसानों एवं कृषि कार्य में संलग्न महिलाओं एवं ग्रामीण युवकों/युवतियों को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण मुख्यत: फसलोत्पादन, मृदा स्वास्थ परिक्षण, पौध सुरक्षा, गृह विज्ञान, पशुपालन, उद्यानिकी, कृषि अभियान्त्रिकी, तथा अनेक कृषि संबंधित विषयों में दिया जाता है। संस्था द्वारा किसानों के ही खेतों पर किसानों को शामिल करते हुए वैज्ञानिकों की देख-रेख में उन्नत तकनीकी का परीक्षण किया जाता है तथा कृषकों एवं विस्तार कार्यकर्ताओं के समक्ष आधुनिकतम वैज्ञानिक तकनीक का अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन किया जाता है। कृषि विज्ञान केंद्र जिला स्तर पर कार्य करने वाला एक वैज्ञानिक संस्थान है जो किसानों के बीच रहकर उनकी  खेती की दशा और दिशा सुधरने में तत्पर है।  तभी तो कृषि एवं खाद्य संघठन के एक प्रतिनिधि ने कृषि विज्ञान केन्द्रों को इक्कीसवीं सदी के सबसे बड़े संस्थागत नवाचार के रूप में माना है ,इससे कृषि विज्ञान केन्द्रों की सार्थकता का अंदाजा लगाया  जा सकता है। 
           कृषि विज्ञान केन्द्र वैज्ञानिकों, विषय वस्तु विशेषज्ञों, विस्तार कार्यकर्ताओं तथा कृषकों की संयुक्त सहभागिता से कार्य करता है। इसमें मुख्यतः  16 सदस्य होते है जिसका प्रधान कार्यक्रम समन्वयक (पी सी) होता है।  इसमें 6 वैज्ञानिकों का दल होता है जो विभिन्न विषयों के विषय वस्तु विशेषज्ञ (एस एम एस) कहलाते है। इसके अतरिक्त 3 कार्यक्रम सहायक एवं अन्य सहायक कर्मचारी पदस्थ होते है।  प्रत्येक कृषि विज्ञान केंद्र पास 50 एकड़ का फार्म होता है  जिसका उपयोग तकनीकों का प्रदर्शन, फसल कैफ़्टेरिया, डेरी फार्म, तालाब, बीज उत्पादन, उद्यान एवं अन्य प्रदर्शन इकाइयों के रूप में किया जाता है। इस केन्द्र में प्रशासनिक भवन, प्रशिक्षण हाल, कृषक भवन, मृदा परीक्षण प्रयोगशाला,पुस्तकालय, आदि सुविधाओं के साथ फसलों, सब्जियों एवं चारा की उन्नतशील तकनीकी का प्रदर्शन तकनीकी पार्क में किया जाता  है। इसके अतिरिक्त देश के अनेक कृषि विज्ञान केन्द्रों में किसानों हेतु वर्मी कम्पोस्ट उत्पादन, डेरी, मुर्गी पालन इकाई,मौनपालन,  मछली पालन,मशरूम उत्पादन  व पोषक वाटिका प्रदर्शन इकाई स्थापित है।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के अंतर्गत छत्तीसगढ़ में कार्यरत कृषि विज्ञान केंद्र

कृषि विज्ञानं केन्द्रों के नाम  पता
स्थापना 
  समन्वयक  
फोन नंबर
 कृषि विज्ञान केंद्रनेवारी फार्मजिला कवर्धा (कबीरधाम )
2008


 डॉ बी पी त्रिपाठी 
07741 -299124
कृषि विज्ञान केंद्रकोरिया
2008


डॉ आर एस राजपूत
 07836-233663 
कृषि विज्ञान केंद्र, डूमर बहार, पत्थल गाँव जिला जशपुर
2007


 डॉ एस के  पैकरा 
07765-202603
कृषि विज्ञान केंद्र, सिंगारभाटा जिला कांकेर
2007


 डॉ बीरबल साहू 
07868-241467  
कृषि विज्ञान केंद्रशासकीय प्रक्षेत्रसुरगीजिला राजनांदगांव
2007


 डॉ एच एस तोमर 
07744-251529  
कृषि विज्ञान केंद्रकोरबा 
2006
 डॉ आर एन शर्मा 
07815-203010
कृषि विज्ञान केंद्र, केंद्रिय, दंतेवाड़ा
2005


डॉ नारायण साहू
 07856-244578 
कृषि विज्ञान केंद्र, बलौदाबाजार रोड, भाटापारा, जिला बलौदाबाजार

2004


 श्री समीर कुमार  ताम्रकार 
07726-223210
कृषि विज्ञान केंद्रजिला पंचायत के पास जांजगीर, जिला जांजगीर-चांपा
2004


डॉ  विजय जैन
 07817-200707 
कृषि विज्ञान केंद्र, रायगढ़
2004


डॉ एस पी सिंह
 07762 215250 
कृषि विज्ञान केंद्रधमतरी
2004


 डॉ एस एस चंद्रवंशी 
07722-219130

कृषि विज्ञान केंद्र,  त्रिमूर्ति कॉलोनी महासमुंद 
2004


डॉ एस के वर्मा 
07723-224659 
कृषि विज्ञानं केंद्र, अजिरमा फार्म, अंबिकापुर, जिला सरगुजा 
1994


डॉ आर के मिश्रा 
07774-232179 
कृषि विज्ञानं केंद्र, कुम्हरावण्ड, जगदलपुर, जिला बस्तर 
1992


डॉ जी पी आयाम 
07782-229153 
कृषि विज्ञानं केंद्र फार्म, सरकंडा फार्म, जिला बिलासपुर 
1984


डॉ के आर साहू 
07752-255024 
कृषि विज्ञानं केंद्र, जाबेर, बलरामपुर, जिला सरगुजा 
2011


डॉ के त्रिपाठी 
07831-273740 
कृषि विज्ञानं केंद्र, शासकीय कृषि फार्म , केरलापाल, जिला नारायणपुर .
2011


डॉ मनोज कुमार साहू 
07781-200060 
कृषि विज्ञानं केंद्र, कोकडी, गरियाबंद, जिला गरियाबंद 
2011


07706-241981 
कृषि विज्ञानं केंद्र, पनारपुरा , जिला बीजापुर 
2012


07853-298030 
                  
कृषि विज्ञान केन्द्रों  के मूल कर्त्तव्य 
             प्रोद्यौगिकी/तकनीकों का मूल्यांकन, सुधार  एवं प्रदर्शन के अंतर्गत कृषि विज्ञान केन्द्रों के विभिन्न क्रियाकलापों को निम्नानुसार निर्धारित किया गया है :

  •  कृषकों के प्रक्षेत्रों पर स्थानीय जलवायु के अनुकूल तकनीक का मूल्यांकन और सुधार। 
  • नव विकसित तकनीक की क्षमता को अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन द्वारा कृषकों को दिखाना। 
  • कृषकों, कृषिरत महिलाओं एवं ग्रामीण नवयुवकों के ज्ञान व दक्षता को बढ़ाने हेतु शिक्षण-प्रशिक्षण आयोजित करना। 
  • जिला स्तर पर कृषि ज्ञान एवं संसाधन केंद्र के रूप में कार्य करना। 
  • फ्रंटियर टेक्नोलॉजी के बारे में विस्तृत जागरूकता बढ़ाना। 
  • गुणवत्तापूर्ण बीज एवं पौध रोपण सामग्री को तैयार करके किसानों को उपलब्ध कराना

कृषि विज्ञान केंद्र अपनी गतिविधिओं के माध्यम से कृषक परिवारों की सामाजिक आर्थिक परिस्थियाँ, स्थानीय जलवायु एवं बाज़ार आधारित मुद्दों को समाहित करते हुए किसानों और कृषि महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करता है जिससे तकनिकी के अंगीकरण में कठिनाइयों का सामना ना करना पड़े।
प्रक्षेत्र परीक्षण द्वारा तकनीकी मुल्यांकन एवं परिशोधन 
            कृषि विज्ञान केंद्र में कार्यरत विभिन्न विषय वस्तु विशेषज्ञों  द्वारा क्षेत्र का गहन सर्वेक्षण किया जाता है जिसके फलस्वरूप क्षेत्र में व्याप्त समस्याओं का आंकलन करते हुए उपयुक्त तकनीकों का चुनाव, उसका मूल्यांकन एवं सुधार कार्य किया जाता है ताकि क्षेत्र के किसानों एवं ग्रामीणों को सही तथा अनुकूल तकनीक उपलब्ध कराई  जा सके। राज्य कृषि विश्व विद्यालयों में किये जा रहे अनुसंधानों का परीक्षण भी केन्द्र  पर किया जाता है। 
कृषि तकनीकी प्रदर्शन 
             कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा परीक्षण में पाये गए परिणामों के आधार पर किसान के खेत पर उनकी उपस्थिति में  प्रक्षेत्र प्रदर्शन और अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन लगाये जाते है, जिससे वें तकनीक देखकर-समझकर प्रेरित हो सके इन प्रदर्शनों से अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्में , बेहतर उत्पादन तकनीकें, पौध सरंक्षण उपायों, जैविक खादों, आधुनिक कृषि उपकरणों को किसानों द्वारा अपनाने में मदद मिलती है। 
कृषक प्रशिक्षण 
                  केंद्र द्वारा किसानों, कृषिरत महिलाओं  एवं  ग्रामीण नवयुवकों  के मार्गदर्शन, उनके सतत  ज्ञान एवं दक्षता बढ़ाने हेतु वर्ष भर अल्पकालीन और दीर्धकालीन प्रशिक्षणों का आयोजन किया जाता है। इस प्रशिक्षण कार्यक्रम  में प्रसिक्षणार्थिओं के ठहरनें एवं खाने की निःशुल्क व्यवस्था भारत सरकार द्वारा की जाती है। यह प्रशिक्षण मुख्य रूप से फसल उत्पादन तकनीकों, पौध सरंक्षण, फसल कटाई उपरांत तकनीकों, मृदा परीक्षण, कृषि उपकरणों आदि विषयों पर होता है। ग्रामीण नवयुवकों एवं महिलाओं के लिए रोजगार परक विषयों जैसे सब्जी उत्पादन, फल उत्पादन, पौध रोपण सामग्री तैयार करने, नर्सरी स्थापना, ओषधीय एवं सगंध फसलों की खेती, पुष्प उत्पादन, गौ पालन, मछली पालन, भेड़-बकरी पालन, मुर्गी पालन, रेशम कीट एवं मधुमक्खी पालन, मशरूम उत्पादन, फल एवं खाद्य प्रसंस्करण, कृषि उपकरण मरम्मत एवं रखरखाव आदि विषयों पर आधारित होता है। इसके अलावा राज्य कृषि विभाग में कार्यरत कृषि अमले के ज्ञान एवं विषय की दक्षता बरकरार रखने के लिए उनके लिए नियमित रूप से  शिक्षण-प्रशिक्षण का आयोजन भी किया जाता है। 
प्रसार गतिविधियाँ  
            बेहतर एवं लाभकारी तकनीकों का वृहद प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से कृषि विज्ञानं केंद्र किसान मेला, किसान दिवस, प्रक्षेत्र भ्रमण, कृषक गोष्ठी, प्रदर्शनी,जान-जागरूकता कैंप, विशेष अभियान, कार्यशाला आदि का आयोजन किया जाता है। इन तमाम प्रसार गतिविधिओं के माधयम से सुदूर ग्रामीण अंचलों के किसानों एवं ग्रमीणों को नवोन्वेषी कृषि तकनिकी, नवीन कृषि आदानों, बेहतरीन कृषि उत्पादों से अवगत कराया जाता है ताकि वे आधुनिक कृषि तकनीकों/ प्रदर्शनों को प्रत्यक्ष रूप से देख कर प्रेरित हो और इन्हे अपने ग्राम-खेत में अपनाकर कृषि उत्पादन एवं आमदनी बढ़ानें  में सक्षम हो सकें । 
उत्तम एवं गुणवत्तायुक्त बीज और पौध सामग्री उपलब्ध कराना 
             कृषि विज्ञान केंद्र जिले के किसानों को अपने प्रक्षेत्र पर तैयार उन्नत किस्म के बीज एवं पौध रोपण सामग्री भी उपलब्ध करने में अहम भूमिका निभाते है, जिससे किसानों को नवीन किस्मों एवं तकनीकों का लाभ मिल सकें।  यही नहीं वैज्ञानिकों के मार्गदर्शन में कृषक प्रक्षेत्रों पर उन्नत किस्म बीज उत्पादन एवं पौध तैयार तैयार कराइ जाती है ताकि किसान स्वयं इन आदानों को पैदा कर इनका प्रसार कर सकें। 
कृषि विज्ञानं केन्द्रों की अन्य गतिविधियाँ  
               खेतों की मिटटी का परीक्षण, खाद्य प्रसंस्करण  आदि सेवाएं भी कृषि विज्ञान केंद्र किसानों को मुहैया कराते है। कृषि तकनीकों को खेत किसान तक पहुचने की दृष्टि से कृषि विज्ञान केंद्र कृषि साहित्य मसलन, कृषि युग पंचांग, कृषि दर्शिका, पुस्तिकाएं, पम्पलेट आदि का वितरण करता है।  इन तमाम गतिविधिओं के अलावा केंद्र सरकार एवं राज्य शासन की कृषि एवं किसान हितैषी योजनाओं के प्रचार-प्रसार और उनके क्रियान्वयन में भी तकनीकी सहायता प्रदान करते  देते है, जिससे जिले के किसानों को अपनी खेती किसानी के बहमुखी विकास में मदद मिल सकें।  किसानों द्वारा किये जा रहे विभिन्न प्रयोगो एवं नवाचारों को चिन्हित करके, उन्हें और अधिक परिस्कृत करके इनका प्रचार प्रसार करने का कार्य भी केंद्र के वैज्ञानिक करते है। इसी तारतम्य में  किसानों एवं कृषि विज्ञानं केन्द्रों को श्रेष्ठ एवं नवोन्वेषी कृषि कार्य करने प्रेरित करने के लिए भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद, नई दिल्ली द्वारा  प्रति वर्ष चयनित किसानों एवं केन्द्रों को पुरुष्कार प्रदान कर सम्मानित किया जाता  है, जो की एक अभिनव पहल है। 
अब किसान मोबाइल सलाह भी 
                 अपने सीमित संसाधनो के कारण कृषि विज्ञान केन्द्रों की जिले के सभी किसानों तक पहुंच एक दुष्कर कार्य है। सभी किसानों एवं ग्रामीणों तक अपनी पहुँच आसान बनाने के उद्देश्य से अब 'किसान सलाह मोबाइल सेवा' एक वैकल्पिक कृषि प्रसार माधयम के रूप में प्रारम्भ की गई है जो अत्यंत प्रभावी सिद्ध हो रही है। इस अभिनव पहल से कृषि विज्ञानं केन्द्रों एवं कृषि सम्बंधित  विभागों द्वारा आवश्यक सलाह-सन्देश सभी किसानों तक आसानी से कम खर्च में पहुँचाने में मदद मिल रही है। किसान मोबाइल सलाह द्वारा किसानों को मौसम की जानकारी के अलावा क्षेत्रीय परिस्थित के अनुसार उन्नत किस्में, उत्पादन तकनीक, पौध सरंक्षण उपाय , सिचाई, फसल कटाई एवं रख-रखाव और बाजार भाव जैसे विषयों पर नियमित सन्देश भेजे जाते है। इस सेवा का लाभ लेने के लिए किसानों एवं हिग्राहियों को अपने जिले के कृषि विज्ञान केंद्र में पंजीयन करवाना होता है।  अब भारत सरकार ने किसान पोर्टल के माधयम से मुफ्त सन्देश भेजने की व्यवस्था लागू की है। वास्तव में आने वाले दिनों में यह सेवा एक मजबूत संचार माध्यम के रूप में किसानों की  त्वरित सहायता करने में सक्षम होगी।  
नोट: कृपया इस लेख को लेखकों की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो लेखक और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

जैविक खेती की सफलता प्रमाणित एवं गुणवत्ता युक्त जैविक खाद पर निर्भर

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं विभाग,
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)  

          भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था पूर्णतः कृषि पर निर्भर है और कृषकों की मुख्य आय का साधन खेती है। देश में तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को देखते हुए प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाना नितांत आवश्यक है। हरित क्रांति की सफलता में उन्नत किस्मों के साथ साथ उर्वरक, सिचाई एवं पौध सरंक्षण उपायों का अहम योगदान रहा है। वर्तमान परस्थितिओं में भी अधिक उत्पादन के लिये खेती में अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरको एवं कीटनाशको  का उपयोग करना पड़ता है, जिससे सामान्य व छोटे कृषको की खेती की लागत बढ़ रही है और जल, भूमि, वायु और वातावरण भी प्रदूषित हो रहा है, साथ ही खाद्य पदार्थ भी जहरीले हो रहे है। रासायनिकों के अन्धादुंध उपयोग से जलवायु एवं मृदा स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के बारें में किसानों को आगाह किया जा रहा है जिसके फलस्वरूप जैविक उर्वरकों व जैविक खाद की तरफ किसानो का रुझान बढ़ गया।  इसलिए बीते कुछ वर्षों से निरन्तर टिकाऊ खेती के सिद्धान्त पर खेती करने की सिफारिश की गई, जिसे देश के विभिन्न राज्यों के कृषि विभाग ने इस विशेष प्रकार की खेती को अपनाने के लिए, बढ़ावा दिया जिसे हम जैविक खेती के नाम से जानते है। भारत सरकार भी इस खेती को अपनाने के लिए प्रचार-प्रसार कर रही है। प्रमाणीकृत, भली भांति परीक्षित गुणवत्ता युक्त जैविक खादों के इस्तेमाल से किसानो को लाभ भी होने लगा है।
         भारत एवं विश्व के अन्य देशों के किसानों के अनुभव रहे हैं कि रासायनिक खेती को तत्काल छोड़कर जैविक खेती अपनानेवाले किसानों को पहले तीन साल तक आर्थिक रूप से घाटा हुआ था, चौथे साल ब्रेक-ईवन बिन्दु आता है तथा पांचवे साल से लाभ मिलना प्रारम्भ होता है। व्यवहार में बहुत से किसान पहले साल ही घाटा झेलने के बाद पुन: रासायनिक खेती प्रारम्भ कर देते हैं। भारत में 70 प्रतिशत छोटी जोत वाले सीमित साधनवाले किसान हैं। अब तो इन किसानों के पास पशुओं की संख्या भी तेजी से कम होती जा रही है। जैविक खेती के लिए उन्हें जैविक खाद खरीदना होता है। वैसे तो जैविक खाद निर्माताओं की संख्या की दृष्टि से देखें तो भारत में साढ़े पांच लाख जैविक खाद निर्माता हैं, जो विश्व के जैविक खाद निर्माताओं के एक तिहाई हैं।  किन्तु भारत के 99 प्रतिशत खाद उत्पादक असंगठित लघु क्षेत्र के हैं तथा इनमें से अधिकांश  बिना प्रमाणीकरण करवाए आकर्षक पैकिंग मे नित नए प्रकार के ढेरों  जैविक खाद एवं जैव उर्वरकों की धड़ल्ले से बिक्री एवं सरकारी माध्यम से आपूर्ति करते हैं। बाजार में उपलब्ध एवं विक्रय किये  जाने जैविक खाद एवं  जैव उर्वरकों के आकर्षक ब्रांडों के माध्यम भारत के भोले भाले किसानों को क्या बेचा जा रहा है, इसका कोई मापदण्ड नहीं था। इससे ना केवल किसान छले जा रहे है ठगे जा रहे है वल्कि फसलों की उपज में भी गिरावट देखने को मिल रही है। खेती अपनानेवाले जागरूक किसानों की शिकायत रहती है कि उन्हें उक्त खाद से दावा की हुई उपज की आधा उपज भी प्राप्त नहीं होती तथा भारी घाटा होता है। रासायनिक खेती छोड़कर बाजार से जैविक खाद खरीदकर जैविक खेती अपनाने वाले इन छोटे किसानों के कटु अनुभव को देखकर आसपास के ग्रामों के अन्य किसान जैविक खेती करने का इरादा त्याग देते हैं। जैविक खेती न अपनाए जाने का यह एक बड़ा कारण है ।

 उर्वरक नियंत्रण आदेश-2006 का कड़ाई से अनुपालन हो  

                   वैसे तो जैविक खाद खरीदने या बेचने की वस्तु नहीं होना चाहिए।  इसके लिए किसानो को जैविक खाद एवं जैव उर्वरक स्वयं बनाकर अपने खेत में प्रयोग करना चाहिए क्योंकि बाजार में उपलब्ध जैविक आदानों की विश्वसनियता पर अक्सर सवालिया निशान  लगते रहे है। भारत में जैविक खेती की संभावनाएं तभी उज्जवल हो सकती हैं जब सरकार जैविक खेती करने वालों को प्रमाणीकृत खाद स्वयं के संस्थानों से सब्सिडी पर उपलब्ध करवाए   इसके अलावा सरकार को पशुपालन को बढ़ावा देना चाहिए जिससे किसान जैविक खाद के लिए पूरी तरह बाजार पर आश्रित रहे। जैविक खाद एवं जैव उर्वरक के निर्माण एवं बिक्रय में हो रही अनियमतता एवं किसानों के साथ धोखाधड़ी को रोकने के लिए कृषि एवं सहकारिता विभाग, केंद्र सरकार दिल्ली ने इन खादों की गुणवत्ता सम्बंधित मानकों के निर्धारित करने के उद्देश्य से उर्वरक नियंत्रण आदेश -1985 में संसोधन करके इन आदानों को भी सम्मलित कर लिया है जिसका प्रकाशन 24 मार्च,2006 के राजपत्र में किया गया है। इस आदेश के तहत वर्मीकम्पोस्ट, सिटी कम्पोस्ट एवं जैव उर्वरकों में अज़ोटोबेक्टर, राइजोबियम, एजोस्पिरिलियम तथा पीएसबी को आदेश के दायरे में लिया गया है तथा इन खादों में उपस्थित विभिन्न तत्वों के मानकों को निर्धारित किया गया है। दुर्भाग्यवश हमारे देश में अभी भी अमानक जैविक खाद धड़ल्ले से खुले आम बाज़ार में महंगे दामों में बेचे जा रहे है जिस पर सरकार को लगाम कसना चाहिए नहीं तो किसान ठगी एवं धोखाधड़ी के शिकार होते रहेंगे। 




उर्वरक संसोधन आदेश 2006 में सम्मलित प्रमुख विन्दुओं का सार-संक्षेप 

1. जैव उर्वरक एवं कार्बनिक उर्वरकों के विनिर्माण अवं विक्रय कारोबार हेतु राज्य कृषि विभाग के सक्षम अधिकारी से  प्रमाण पत्र लेना अनिवार्य कर दिया गया है। 
2. जैविक खाद जैसे वर्मीकम्पोस्ट व सिटी कम्पोस्ट एवं जैव उर्वरक जैसे अज़ोटोबेक्टर, राइजोबियम, एजोस्पिरिलियम तथा पीएसबी का मानकीकरण निर्धारण करना। 
3. निर्धारित मानक एवं विनिर्देश के नहीं पाये जाने पर इनके विक्रय पर खण्ड 19 के तहत प्रतिबन्ध।
4. इन आदानों के बैग पर नियंत्रक द्वारा समय-समय पर दिए गए ब्योरे अंकित करने के साथ ही जैव उर्वरक या कार्बनिक उर्वरक लिखना/अंकित करना अनिवार्य कर दिया गया है.
5. इसके लिए अलग से निरीक्षक या मनोनीत नियुक्त होगा तथा पृथक रूप से नमूने लेने की प्रक्रिया तथा विश्लेषण करने की विधि का निर्धारण किया गया है। 
         भारत सरकार का राजपत्र (असाधारण) भाग-2 खंड-3, उपखण्ड-II के प्राधिकार में दिनांक 24 मार्च 2006 को प्रकाशित इस आदेश के तहत ऐसे किसी भी जैविक प्रकृति (पौधा या पशु) के एक अथवा अधिक अप्रसंस्कृत सामग्री (सामग्रियों) से बने पदार्थ है और इसमें अप्रसंस्कृत खनिज सामग्रियाँ सम्मलित हो सकती है जिन्हे सूक्ष्म जैवकीय उपघटन अपघटन पद्धत्ति के माध्यम से परवर्तित किया गया हो, को कार्बनिक उर्वरक कहा गया है, जिसके तहत कोई भी व्यक्ति :
1. उर्वरकों के किसी भी मिश्रण (ठोस या तरल) का तब तक विनिर्माण नहीं करेगा, जब तक की ऐसा मिश्रण राजपत्र में सरकार द्वारा जारी की जाने वाली अधिसूचना में निर्धारित मानकों के अनुरूप न हों। 
2. जैव उर्वरकों का विनिर्माण नहीं करेगा, जब तक की ऐसा उर्वरक अनुसूची-3 के भाग क में निर्धारित मानकों के अनुरूप न हो। 
3. किसी कार्बनिक उर्वरक का विनिर्माण नहीं करेगा जब तक की ऐसा कार्बनिक उर्वरक अनुसूची-4 के भाग क में निर्धारित मानकों के अनुरूप न हो। 
        देश में जैविक खाद एवं जैव उर्वरकों को बेचने के लिए कृषि विभाग से लाइसेंस लेना पड़ेगा क्योंकि उर्वरक नियंत्रण संसोधन आदेश-2006 देश में प्रभावी हो गया है। कृषि विभाग द्वारा आकस्मिक जांच करके जैविक खाद के नमूने लिए जा सकते है।  निर्धारित मानकों का जैविक खाद  जैव उर्वरक नहीं मिलने पर कार्यवाही होगी।  इसकी बिक्री हेतु बेग पर कार्बनिक या जैव उर्वरक लिखना होगा तथा उर्वरक नियंत्रण आदेश-2006 द्वारा तय समस्त सूचनाओं को अंकित करना अनिवार्य होगा। तदनुसार सभी खाद विनिर्माण कर्ताओं एवं विक्रेताओं के लिए  कृषि विभाग द्वारा लाइसेंस जारी करने की प्रक्रिया जारी की गई है जिसका कड़ाई से पालन सुनिश्चित करना होगा तभी हमारे किसान भाईयों को गुणवत्ता युक्त प्रमाणित जैविक खाद एवं जैव उर्वरक प्राप्त हो सकता है जिसके प्रयोग से उन्हें जैविक खेती से बांक्षित परिणाम प्राप्त हो सकते है। 
नोट: कृपया इस लेख को लेखकों की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो लेखक और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।   ऐसा न करने पर कॉपी राइट एक्ट का उल्लंघन माना जायेगा। 

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन की योजना एवं उन्नत तकनीक

डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक-सह-प्रमुख वैज्ञानिक
सस्यविज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर

            विश्व में सर्वाधिक पशुधन संख्या में सुमार होने के कारण  भारत  सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है।  देश की कुल सकल आय का लगभग 15-16 प्रतिशत आय पशुधन से प्राप्त  होती है। परन्तु हमारे देश में  प्रति पशु उत्पादकता बहुत कम है जिसका मुख्य कारण पशुधन को संतुलित आहार का उपलब्ध न होना है। भारतीय दुग्ध उत्पादन में 70 % दूध की आपूर्ति भूमिहीन किसानो से होती है।   दूध का उत्पादन तेजी से बढ़ाने के लिए पशुओं को अच्छी गुणवत्ता वाला चारा  आवश्यक है। यह सर्व विदित है की दुधारू पशुओं पर करीब 60 से 70 फीसदी खर्च सिर्फ उनकी खुराक पर होता है। आवश्यक है कि  पशुओं की खुराक उनके उत्पादन के अनुरूप उचित एंव संतुलित हो जिसमे सभी आवश्यक तत्व यथा प्रोटीन, खनिज लवण,विटामिन, वसा,कार्बोहाइड्रेट एवं जल संतुलित मात्रा में विद्यमान हो।   प्राय: पशुपालक  सूखा चारा  तथा थोड़ा बहुत दाना ही अपने दुधारू पशुओं को खिलाते हैं, जिससे पशु पालक को जितना उत्पादन मिलना चाहिए उतना नहीं मिलता।  परिणामस्वरूप अधिकांश किसानों का पशुपालन व्यवसाय से मोह भंग होता जा रहा है।
पशुधन आबादी एवं चारा फसलों का क्षेत्रफल   
                पशुओं के संतुलित आहार में हरे चारे का विशेष महत्व होता है क्योंकि हरा चारा पशुओं के लिए पोषक तत्वों का एक किफायती स्त्रोत है। भारत  का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल विश्व के संपूर्ण भू-भाग का मात्र 2 प्रतिशत है जबकि यहॉं पशुओं की संख्या विश्व की संख्या का 15 प्रतिशत है।   देश में पशुओं की संख्या अमूमन 450 मिलियन  है जिसमें प्रतिवर्ष 10 लाख पशु के हिसाब से बढ़ोत्तरी हो रही है। हमारे देश  में पशुओं के लिए आवश्यक  पौष्टिक आहार की हमेशा  से ही कमी रही है  क्योकिं  हमारे देश में लगभग 4  % भूमि में  ही चारा उत्पादन का कार्य किया जाता है। जबकि पशुधन की आबादी के हिसाब से 12 से 16 % क्षेत्रफल में चारा उगाने की आवश्यकता  है।
पशुधन के लिए चारा उत्पादन के लिए संभावित  विकल्प 
         देश में कृषि योग्य भूमि की  उपलब्धता  दिन प्रति दिन कम होती जा रही है।  सीमित भूमि एवं अन्य संसाधनो में ही  हमें खाद्यान्न, दलहन, तिलहन, गन्ना, कपास, सब्जिओं आदि फसलों की खेती करना है।  अतः  चारा फसलों के अंतर्गत उपलब्ध क्षेत्र एवं  बेकार परती पड़ी जमीनों एवं  चरागाह भूमि से चारे की उत्पादकता में सुधार पर ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है। शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पशुधन की बाहुल्यता है यहां बंजर एवं लवणीय भूमि में चारा उगा कर 90 मिलियन टन हरे चारे  की पैदावार की जा सकती है। इसके साथ ही बहुवर्षीय घास लगाकर तथा फसलों के अवशेष के प्रसंस्करण से तैयार चारा   भारत के पशुधन को उपलब्ध कराया जा सकता  है ।अतिरिक्त उत्पादित हरे चारे के संरक्षण के तरीकों को भी अमल में लाना होगा जिससे कि हरे चारे की कमी के समय पर इसकी उपलब्धता बढ़ाई जा सके। पशु पालन एवं दुग्धोत्पादन  की सफलता मुख्य रूप से उत्तम नश्ल के दुधारू पशुओं  एवं पौष्टिक चारे की उपलब्धता पर निर्भर करती है । 
प्रति इकाई चारा उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक सुझाव
1. अधिक उत्पादन क्षमता के आधार पर चारा फसलों  की उन्नत प्रजातियों  का चयन करना चाहिए  ।
2. चारा फसलों  को  उगाने के लिए उन्नत कृषि तकनीक का उपयोग करें  ।
3. चारा फसलों की उचित बढ़वार के लिए  खेत में  संतुलित पोषक तत्वों  का उपयोग आवश्यक है  ।
4. इन फसलों में भी उचित जल प्रबन्ध व पौध  संरक्षण के  उपाय  अपनाना चाहिए ।
5. सूखा सहन करने वाली चारा फसलों  एवं किस्मों  की खेती  करना चाहिए ।
6. सघन  फसल चक्रों में कम अवधी वाली चारा फसलों का समावेश करना चाहिए।
7. खाली परती अथवा बंजर भूमियों में चारा फसलों की खेती को बढ़ावा मिलें साथ ही ग्राम पंचायतों के सरंक्षण में गावों  में उपलब्ध घांस जमीनो में  आवश्यक रूप से चारागाह विकसित होना चाहिए।   

वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन कैसे करें

        सफल पशुधन व्यवसाय के लिए वर्ष भर हरा चारा उत्पादन अत्यंत आवश्यक है।  सीमित प्राकृतिक  संसाधनों का  सक्षम उपयोग  करते हुए वर्ष पर्यन्त पौष्टिक हरा चारा उत्पादन की प्रमुख विधिया है: 
1. निरन्तर हरा चारा उत्पादन की  फसल पद्धति 
            सघन डेयरी उद्योग  के लिए चारा उत्पादन की आदर्श सस्य विधि वह है जिससे कि प्रति इकाई क्षेत्र  एवं समय में अधिकतम पौष्टिक हरा चारा उत्पादन किया जा सके । इस उद्देश्य को  ध्यान में रखते हुए वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन की विधि विकसित की गई है जिसे परस्पर व्यापी (ओवर लेपिंग  क्रापिंग) फसल पद्दति कहते है । इस विधि की प्रमुख बिशेषताएं  हैः
1. अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े  में खेत को  तैयार कर बरसीम (वरदान या जवाहर बरसीम-2 किस्म ) की बुवाई करनी चाहिए । खेत  की तैयारी या बुवाई के समय ही बरसीम के लिए 20 किग्रा. नत्रजन और  80 किग्रा. फॉस्फोरस  प्रति हेक्टर की दर से देनी चाहिए।
2. प्रथम कटाई में अच्छी उपज के लिए बरसीम के बीज में द¨ किल¨ प्रति हेक्टर की दर से जापानी सरस¨ का बीज मिला कर ब¨ना चाहिए ।
3. समतल क्यारिओं  में पानी भर कर मचाकर (गंदला कर) बरसीम की बुवाई करना उत्तम पाया गया है ।
4. जब तक पौध  भूमि में अच्छी प्रकार से स्थापित न हो  जाए तब तक 2-3 बार हल्की सिंचाई 4-5 दिन के अन्तर पर करना चाहिए। इसके बाद शरद में 15 दिन तथा बसंत में 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करना चाहिए ।
5. बरसीम की पहली कटाई 45-50 दिन  पर एवं बाद की कटाईयां 25-30 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए। फरवरी के प्रथम पखवारे तक बरसीम की तीन कटाईयां ल्¨ने के बाद संकर नैपियर घास के जड़दार कल्लों  को  1-1 मीटर के अन्तर पर कतारों  में लगाना चाहिए । कतारों  में पौध  से पौध  की दूरी 30-35 सेमी. रखनी चाहिए।
6. मार्च के अन्त में बरसीम की अंतिम कटाई  के बाद नैपियर घास की कतारों  के मध्य की भूमि तैयार करके उसमें लोबिया की दो  कतारे बोना चाहिए।
7. गर्मी में 10-12 दिन के अन्तर से सिंचाई करते रहना चाहिेए।
8. जून मध्य तक लोबिया की कटाई करने के बाद नैपियर की कतारों  के बीच की भूमि तैयार करके उसमें 50 किग्रा नत्रजन, 100 किग्रा  फॉस्फोरस  एवं 40 किग्रा  पोटाश  प्रति हैक्टर की दर से देना चाहिए।
9. नैपियर की कटाई 45-50 दिन पर करनी चाहिए एवं प्रत्येक कटाई के बाद भूमि की उर्वरा शक्ति के अनुसार 40 किग्रा नत्रजन  प्रति हेक्टर की दर से देना चाहिए।
10. नवम्बर के प्रथम सप्ताह में पुनः पूर्व  की भांति बरसीम की बुवाई करनी चाहिए एवं गर्मी में लोबिया अथवा ग्वारफली की बुवाई करना चाहिए।
11. दूसरे वर्ष के आरम्भ में खाद देते समय फॉस्फोरस  की मात्रा  आधी कर देना चाहिए ।
12. तीसरे वर्ष नवम्बर में बरसीम की बुवाई से पहले  नैपियर की जड़ों  की छटाई कर देनी चाहिए जिससे बरसीम बढ़वार के लिए पर्याप्त जगह मिल सकें।
इस प्रकार इस तकनीक से प्रथम वर्ष में 2800, द्वितिय वर्ष में 2300 एवं तृतीय वर्ष में 1700 क्विंटल प्रति हेक्टर  हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार प्रतिदिन ।7.6, 6.3 4.65 क्विंटल  प्रति हेक्टर ओसत  पैदावार प्राप्त होती है जिससे 8-10 लीटर दूध देने वाले  5-6 दुधारू पशु पाले  जा सकते है ।  आवश्यकता से अधिक हरा चारा उत्पादन होने पर बचत  चारे को  साइलेज  या हे के रूप में संरक्षित कर उसका उपयोग चारा कमी के समय में किया जा सकता है।
उपरोक्त फसल चक्र में आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी किया जा सकता है जैसे संकर हाथी घास(नैपियर) के स्थान पर गिनी घास लगाई जा सकती है। बरसीम की जगह रिजका (लूर्सन) लगाया जा सकता है। लोबिया के स्थान पर ग्वार या सोयाबीन  लगा सकते है। फसलों  का चयन स्थान विशेष  की जलवायु व भूमि की किस्म के हिसाब से करना अच्छा रहता है। इसके अलावा नैपियर घास के मध्य कतारों  की दूरी भी बढ़ाई जा सकती है जिससे आधुनिक कृषि यंत्रों  का प्रयोग  आसानी से किया जा सकें । इस पद्धत्ति के प्रमुख लाभ है :
1. इस पद्धति से वर्ष पर्यन्त हरा चारा प्राप्त होता रहता है ।
2. दलहनी फसलों  के समावेश से खेत  की उर्वरा शक्ति बढ़ती  है ।
3. नैपियर (हाथी घास) आसानी से  सभी ऋतुओं में  स्थापित हो  जाती है ।
वर्ष भर हरा चारा प्राप्त करने का चारा कैलेंडर 
माह उपलब्ध हरे चारे
जनवरी बरसीम, रिजका, जई, मटर, तिवउ़ा,सरसों 
फरवरी बरसीम, रिजका, जई, मटर, नैपियर, पैरा घास
मार्च गिनीघास, रिजका, बरसीम, नैपियर,सेंजी
अप्रैल नैपियर, ज्वार, दीनानाथ घास, बाजरा, मक्का,ल¨बिया, ग्वार
मई मक्का, ज्वार, बाजरा, दीनानाथ घास, नैपियर, गिनी घास, लोबिया
ज्ून मक्का, ज्वार, बाजरा, नैपियर, गिनी घास, ग्वार
जुलाई ज्वार, मक्का, बाजरा, लोबिया, ग्वार, नैपियर, गिनी घास
अगस्त मक्का, ज्वार, बाजरा, दीनानाथ घास, नैपियर, गिनी घास, लोबिया
सितम्बर सुडान घास, मक्का, ज्वार, बाजरा,  नैपियर, गिनी घास, लोबिया
अक्टूबर सुडान घास, नैपियर, गिनी घास, पैरा घास, मक्का, ज्वार, लोबिया
नवम्बर नैपियर, सुडान घास, मक्का, ज्वार, सोयाबीन
दिसम्बर ब्रसीम, रिजका, जई, नैपियर, सरसों, शलजम
वर्ष भर हरा चारा  उत्पादन एवं उपलब्धता की समय सारिणी
चारा फसल बोने का समय चारे की उपलब्धता कटाई संख्या चारा उपज (क्विंटल/हे)
ल¨बिया मार्च से जुलाई मई से सितम्बर 1 175-200
ज्वार(बहु-कटाई) अप्रैल से जुलाई जून से अक्टूबर 2-3 500-600
म्क्का मार्च से जुलाई मई से सितम्बर 1 200-250
बजरा मई से अगस्त जून से अक्टूबर 1 200-250
मकचरी मार्च से जुलाई मई से अक्टूबर 2-3 500-600
ब्रसीम अक्टूबर से नवम्बर दिसम्बर से अप्रैल    4-5 700-1000
जई अक्टूबर से दिसम्बर जनवरी से मार्च 1-2 200-250
रिजका अक्टूबर से नवम्बर         दिसम्बर से अप्रैल 5-6 500-600
नैपियर (हाथी घास) फरवरी से सितम्बर  पूरे वर्ष 7-8 1500-2000
गिनी घास मार्च से सितम्बर पूरे वर्ष 6-7 1200-1500

2. रिले  क्रापिंग पद्धति     
इस विधि के अन्तर्गत एक वर्ष में 3-4 फसलें  अर्थात एक के बाद दूसरी चारा फसलें  उगाई जाती है । इस विधि में सिंचाई, खाद-उर्वरको  की अधिक आवश्यकता एवं कृषि कार्य  की अधिकता होती है ।
रिले  क्रापिंग के प्रमुख फसल चक्र
1 . मक्का+लोबिया-मक्का+लोबिया-बरसीम+सरसों 
2 . सुडान घास+लोबिया-बरसीम+जई
3 . संकर नैपियर- रिजका
4 . मक्का+लोबिया-ज्वार+ लोबिया-बरसीम-सूडान चरी 
5 . ज्वार + लोबिया-बरसीम+जई

3. पौष्टिक चारे की अधिक उपज के लिए मिश्रित खेती 
                 आमतौर  पर किसान भाई ज्वार, मीठी सुडान, मक्का, बाजरा आदि एक दलीय चारा फसलें  उगाते है जिनसे हरा एवं सूखा चारा तो पर्याप्त मात्रा  में मिलता है । परन्तु इन चारों  में प्रोटीन  की प्रचुर मात्रा  नहीं होती है। एक दलीय चारा फसलों  की तुलना में द्वि दलीय चारा फसलें  यथा लोबिया,  ग्वार, आदि में प्रोटीन  प्रचुर मात्रा में  पाई जाती है परन्तु इनसे चारा उत्पादन कम होता है। शोध परिणामों से ज्ञात होता  है कि एक दलीय एवं द्वि  दलीय चारा फसलों को  पृथक-पृथक कतारों  में (2:2) बोने से अधिक एवं पौष्टिक चारा उपलब्ध  होता है । कतार विधि की तुलना में छिंटकवां विधि (मिश्रित खेती ) से पैदावार काफी  कम प्राप्त  होती है ।
 4. खाद्यान फसलों  के बीच रिक्त स्थानों  में चारा उत्पादन

            शोध परीक्षणों  से ज्ञात हुआ है कि अनाज  के लिए उगाई जाने वाली ज्वार मक्का या बाजरा की दो  कतारों  के मध्य रिक्त स्थान में लोबिया की एक कतार लगायी जाए और  40-45 दिन पर उसकी कटाई कर ली जाए तो ज्वार की पैदावार पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है साथ ही लगभग 100 क्विंटल  प्रति हेक्टर  लोबिया से हरा चारा प्राप्त हो जाता है ।
5. हरे चारे की सर्वाधिक कमीं के समय चारे की आपूर्ति 

              प्रायः उत्तर भारत में बरसात के पूर्व मई-जून में तथा बरसात के बाद अक्टूबर-नवम्बर में चारे की उपलब्धता में बहुत कमी ह¨ती है । चारे की इस कमी के समय क¨ लीयन पीरियड कहते है । ऐसे समय चारे की कमी को  पूरा करने के लिए आवश्यक उपाय अग्र प्रस्तुत है :
1. रबी की फसल की कटाई के बाद (मई-जून) एवं खरीफ की फसल बोने के पहलें  शीघ्र तैयार होने वाली चारे  की फसल उगाई जानी चाहिए ।
2. इस अवधि  में चारे के लिए मक्क+लोबिया, चरी+लोबिया, बाजरा व  लोबिया की मिलवां खेती  से 250-300 हरा चारा  हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है ।
3. इसी प्रकार शीघ्र तैयार होने वाली ज्वार, बाजरा या भुट्टे के लिए उगायी गयी मक्का के काटने के बाद एवं गेहूं की बुवाई के बीच भी काफी समय बचता है । इस समय शीघ्र तैयार होने वाली फसले  जैसे जापानी सरसो, शलजम आदि लगाकर हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है ।
 6. अब होगी हवा में चारे की खेती  
               हाईड्रोपोनिक्स एक ऐसी तकनीक है, जिसमें फसलों को बिना खेत में लगाए केवल पानी और पोषक तत्वों से उगाया जाता है।  इस विधि से चारा  मक्के से उगाया जाता है। इसके लिए 1.25 किलोग्राम मक्के के बीज को चार घंटे पानी में भिगोया जाता है फिर उसे 90 x 32 सेमी की ट्रे में रख दिया जाता है। एक हफ्ते में यह हरा चारा तैयार हो जाता है। ट्रे से निकालने पर यह चारा जड़, तना और पौधे वाले मैट की तरह दिखता है। एक किलोग्राम पीला मक्का  से 3.5 किलोग्राम और एक किलोग्राम सफेद मक्का  से 5.5 किलोग्राम हाइड्रोपोनिक्स हरा चारा तैयार होता है। आईसीएआर अनुसंधान परिसर हाइड्रोपोनिक्स हरा चारा के उत्पादन और इसके मानकीकरण के साथ ही किसानों को इस संबंध में तकनीकी परामर्श भी उपलब्ध करा रहा है। 
7. खरीफ एवं रबी ऋतु में के मध्य समय में हरे चारे की उपलब्धता आवश्यकता से अधिक रहती है।  ऐसे में अतरिक्त हरे चारे को साइलेज अथवा हे के रूप में सरंक्षित कर लेना चाहिए तथा चारे की कमी वाले समय इसका सदुपयोग करना चाहिए।