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मंगलवार, 15 मार्च 2016

ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार और समृद्धि के लिए कारगर है सिसल की खेती



डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
 
अमेरिकन मूल का पौधा सिसल (अगेव) जिसे भारत में खेतकी तथा रामबांस कहते है। आमतौर पर सिसल को शुष्क क्षेत्रों में पशुओं और जंगली जानवरों से सुरक्षा हेतु खेत की मेड़ों पर लगाया जाता रहा है। अनेक स्थानों पर इसे शोभाकारी पौधे के रूप में भी लगाया जाता है। परन्तु अब यह एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक रेशा प्रदान करने वाली फसल के रूप में उभर रही है। इसकी पत्तियों से उच्च गुणवत्ता युक्त मजबूत और चमकीला प्राकृतिक रेशा प्राप्त होता है।  विश्व में रेशा प्रदान करने वाली प्रमुख फसलों में सिसल का छटवाँ स्थान है और पौध रेशा उत्पादन में दो प्रतिशत की हिस्सेदारी है। वर्त्तमान में हमारे देश में लगभग 12000 टन सिसल रेशे का उत्पादन होता है, जबकि 50000 टन रेशे की आवश्यकता है।  भारत को प्रति वर्ष सिसल के रेशे अन्य देशों जैसे तंज़ानिया, केनिया आदि से आयात करना पड़ता है। 
क्या है सिसल ?
        सिसल यानि सेंचुरी प्लांट  (एगेव) प्रजाति की विभिन्न किस्मों  अर्थात एगेव सीसलानाaa  एगेव कैनटला,  अमेरिकाना, एगेव एमेनियेनसीस, एगेव फोरक्रोयडेस एगेव एनगुस्टीफोलिया इत्यादि  की पत्तियों से रेशा प्राप्त होता है। सीसल (एगेव सीसलाना) एगेव वर्ग के एगेभेसी वंशज के अन्तर्गत आता है। इसकी पत्तियां 2 से 3 फिट लम्बी होती है जिनके  अग्र भाग यानि टिप पर नुकीले कांटे होते है
सिसल उत्पादन करने वाले प्रमुख देश 
      विश्व में सीसल उत्पादन करने वाले प्रमुख देश ब्राजील, चीन, तनजानियां, केनिया, मोजाम्बिक और मेडागास्कर हैं. भारत में इसकी खेती उड़ीसा, छत्तीसगढ़,  मध्य प्रदेश, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र्, बिहार और अन्य राज्यों में की जाती है।
सिसल का आर्थिक महत्त्व  
        भारत में पत्तियों से रेशा प्राप्ति वाली फसलों में सीसल अर्थात खेतकी एक अत्यधिक महत्वपूर्ण फसल है। सीसल के पौधों को उगाकर मिट्टी के कटाव को भी रोका जा सकता है। खेत के  चारों तरफ सीसल की बाड़ (फेंसिंग) लगाने से जानवरों से फसल की सुरक्षा की जा सकती है  इसका रेशा मजबूत सफ़ेद और चमकीला होता है।  इसका उपयोग समुद्री जहाज के लंगर का रस्सा और औद्योगिक कल-कारखानों में भी होता है। इसके अलावा गद्दी, चटाई, चारपाई बुनाई की रस्सी और घरेलू उपयोग में प्रयोग किया जाता है। सीसल का रेशा उत्कृष्ट किस्म के कागज बनाने में उपयोग किया जाता है। वर्तमान में इसका अनेक प्रकार की वस्तुएं बनाने में उपयोग किया जा रहा है। जैसे कि फिशिंग नेट, कुशन, ब्रश, स्ट्रेप चप्पल और फैन्सी सामग्री के रूप में लेडीज बैंग, कालीन, बेल्ट, फ्लोर  कवर, वाल कवर इत्यादि के अलावा घर को सजाने के लिए विभिनन प्रकार की सजावट की वस्तुएं बनायी जा रही हैं। सीसल के रेशे से बनायी गयी वस्तुएं अपेक्षाकृत मजबूत टिकाऊ  और सस्ती होती है। सीसल  रेशा निकलने के बाद शेष कचरे में हेकोजेनीन पाया जाता है। जिसका कारटीजोन हार्मोन बनाने में उपयोग किया जाता है।  इसके अलावा कचरे का उपयोग जैविक खाद के रूप में भी किया जाता है।
                               ऐसे करें सिसल की खेती 
उत्तम जलवायु 
         सीसल की खेती अधिकाशतः शुष्क और अर्धशुष्क जलवायु में होती है। सीसल में कुछ समय तक सूखे की अवधि को सहन करने की क्षमता होती है। आमतौर पर पौधे की बढ़वार के लिए अनुकूल वर्षा चाहिए। अच्छी फसल उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि पौध अवस्था के दिनों में वर्षा समय-समय पर हो। जहां वार्षिक वर्षो कम से कम 250 से 350  मिलीमीटर होती हो वहां इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। सीसल की अच्छी फसल बढ़वार के लिए तापमान अधिक, मौसम सूखा,तेज धूप एवं अधिक समय तक प्रकाश की आवश्यकता होती है।
खेती के लिए मृदा का चयन 
          सीसल की खेती उचित जलनिकास वाली सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है परन्तु बलुई दोमट मिट्टी अच्छी मानी गई है। इसके अलावा कंकरीली-पथरीली, ऊँची-नीची बंजर भूमियों में भी इसकी खेती की जा सकती है। ज्यादा अम्लीय और क्षारीय मिट्टिया इसकी खेती ¢ लिए उपयुक्त नहीं होती है।
खेत की तैयारी 
              खेती की तैयारी से पहले खरपतवारों  को साफ करके एक या दो बार जुताई करके खेत को समतल कर लेना चाहिए ताकि मिट्टी में वायु संचार जल धारण क्षमता बढ़ सके। मिट्टी की उपरी सतह को जहां तक संभव हो कम खोलना चाहिए। बुआई के लिए ढेलेदार मिट्टी पर्याप्त होती है।  जहां भूमि कटाव की संभावना हो वहां जुताई नहीं करनी चाहिए वहां कतारबध्द गडढे बनाकर सीसल की रोपाई करनी चाहिए।
पौध सामग्री  
       सीसल के पौधे में बहुधा बीज का विकास नहीं होता है।  इसका प्रगुणन वानस्पतिक विधि से किया जाता है। बुआई-रोपाई हेतु पौधे से उत्पन्न सकर्स और  बल्बिल्स उपयोग में लाये जाते है।  सीसल के जीवन काल के अन्त में एक लम्बे डण्डे के समान आकृति विकसित होती है जिसकी शाखाओं पर बल्बिल्स बनते हैं। एक पौधे से औसतन 500 से 2000  बल्बिस  की उत्पत्ति होती है। मध्य फरवरी से मध्य अप्रैल तक बल्बिल्स को संग्रह करके नर्सरी में बुआई कर देनी चाहिए। इसके अलावा सीसल के पौधों के मूल से प्रकन्द की उत्पत्ति होती है, जो 5 से 15 सेमी नीचे से निकलकर मिट्टी में समतल बढ़ते है और कुछ दूरी पर जाकर ऊपर की ओर उठने लगते है, जिन्हे  सकर्स के नाम से जाना जाता है। अपने जीवन काल में एक पौधा लगभग 20 से 30  सकर्स  उत्पन्न करता है। भारत में  सीसल की खेती के लिए मुख्यतः सकर्स  का अधिक प्रयोग किया जाता है।  सामान्यतौर पर एक से डेढ़  वर्ष  पुराने सकर्स को नर्सरी में पौध तैयार करना अच्छा रहता है।  बल्बिल्स से पौध तैयार करने में अधिक समय लगता है।
नर्सरी में पौधा कब और कैसे तैयार करें
  नर्सरी में सकर्स या बल्बिल्स को उगाकर अच्छे पौधे तैयार किये जा सकते हैं तथा इसकी रोपाई  अधिक भूखण्ड में की जा सकती है। जहां नर्सरी बनाई जाये वहां जल निकास का उचित प्रबंध, मिट्टी उपजाऊ, समतल और  सिंचाई की समुचित व्यवस्था आवश्यक है। नर्सरी वाले खेत की जुताई करने के बाद पाटा चलाकर मिटटी को अच्छी तरह  भुरभुरा करने की आवश्यकता होती है। गर्मी के मौसम में प्राथमिक नर्सरी में नये स्वस्थ सकर्स या बल्बिल्स को कतार में 10 सेमी तथा पौध से पौध 5 सेमी की दूरी पर रोपाई करनी चाहिए। रोपाई के पश्चात् हल्की सिंचाई की आवश्यकता होती है। पूर्णरूप से देख-रेख करने के 4-6 माह  पश्चात् इस पौध  यानि 20 से 30 सेमी ऊँचे पौधे  को प्राथमिक नर्सरी से चुनकर द्वितीय नर्सरी में उगाते है। रोपाई से  पहले  पौध की ख़राब  जड़ों और सूखी पत्तियों की छंटाई करके साफ करने के पश्चात् 50 x 25  सेंमी की दूरी पर द्वितीय नर्सरी में रोपाई  की जाती है। 
मुख्य खेत में रोपाई
 खेत  में निश्चित दुरी पर 30-40 सेमी गहरे गड्ढे बनाकर उसमे  जैविक खाद  को मिट्टी के साथ मिलाकर हल्का भरना चाहिए। रोपाई मानसून आरम्भ होने के साथ-साथ कर लेनी चाहिए। एक कतार में रोपाई विधि में पंक्ति से पंक्ति 2  मीटर की दूरी  तथा पौध से पौध ¢ बीच 1 मीटर की दूरी रखने पर एक हैक्टर में 5000  ©धे स्थापित हो जाते है दो कतारों के बीच खाली स्थान में आवश्यकतानुसार  फलीदार फसलों को उगाकर एक निश्चित भूखण्ड से अतिरिक्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
खाद एवं उर्वरक
     उर्वरक और खाद का प्रयोग मिट्टी की उर्वरा शक्ति ओर जलवायु के आधार पर किया जाता है। उपजाऊ जमीनों में उर्वरक देने की आवश्यकता नहीं होती है। अधिकतम रेशा उत्पादन के के लिए नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस तथा पोटाश क्रमशः60:30:60 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से समान रूप से गड्ढों में डालना चाहिए 
कटाई का समय   
      पत्तियों की कटाई, रोपाई से 2 से 3  वर्ष के बाद हंसिआ से करनी चाहिए। जब पत्तियां 60 सेमी या इससे अधिक लम्बी हो जायें और  पत्तियां मिट्टी को छूने लगें। कटाई नवम्बर से जून के प्रथम सप्ताह तक कर लेनी चाहिए। पौधो से पत्तियों की प्रथम कटाई के समय 16 पत्तियों को काटा जाता है और दूसरी कटाई के लिए 12 पत्तियों को प्रति पौधा छोड़ दिया जाता है। सीसल की पत्तियों की कटाई 3 से 6  माह के अंतराल की अपेक्षा वार्षिक कटाई लाभदायक सिध्द हुई है।
उपज एवं रेशा निष्कर्षण 
      सीसल का पौधा अपने पूरे जीवन काल अर्थात 7 से 8 वर्षो में लगभग 250 से 300  पत्तियों की उत्पत्ति करता है। एक पत्ती से सामान्यतः 20 से 30  ग्राम सूखा रेशा प्राप्त होता है। सामान्यतौर पर सीसल की पत्तियों में रेशे की मात्रा कुल हरे भाग का 4  प्रतिशत होती है। आमतौर पर सीसल की औसत उपज ढाई से चार  टन प्रति हैक्टर प्रति वर्ष प्राप्त होती है। यह पौधों की संख्या, जलवायु,  मिट्टी की उर्वरता तथा पौध प्रबंधन पर निर्भर करता है। पत्तियों की कटाई के पश्चात् डिकोरटीकेटर मशीन द्वारा रेशा निकालते है। रेशा पत्तियों की कटाई के साथ-साथ या कटाई के 48  घंटे के अन्दर निकाल लेना चाहिए। अन्यथा रेशा अच्छे किस्म का नहीं होता है। कटाई के पश्चात् पत्तियों को ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्ड गर्मी में सूर्य के प्रकाश में नही रखना चाहिए  अन्यथा रेशे की गुणवत्ता ख़राब हो सकती है। रेशा निकालने के पश्चात् इसे साफ पानी से अच्छी तरह धुलाई करके इन्हें निचोड़ने के तुरन्त बाद बांस के मचान पर रखकर सुखाया जाता है। जमीन या सड़कों पर रेशा सुखाने से रेशे गंदे हो जाते है। सूखे रेशे को खंभे से पटककर अनुपयुक्त कोशिकाओ को अलग करना चाहिए।  तत्पश्चात् रेशे को अच्छी तरह झाड-पोंछ और ब्रश करके एक या दो दिन सुखाते हैं। पूर्ण रूप से सुखाने के बाद रेशे का बंडल बनाकर बेचने के लिए बाजार भेज देते हैं।
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शुक्रवार, 11 मार्च 2016

ग्रामीणों की रोजी-रोटी का प्रमुख जरिया बना चरोटा खरपतवार

         डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
           प्राध्यापक, सस्य विज्ञान
              इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                            
           
चकवत यानि  चरोटा एक खरपतवार के रूप में उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों, सड़क किनारे और बंजर भूमियों में बरसात के समय अपने आप उगता है।   परन्तु बीते  3-4 वर्ष से  अनुपयोगी समझे जाना  वाला  एवं स्वमेव उगने वाला यह  खरपतवार अब  आदिवासी व ग्रामीणजनों के लिए   रोजगार एवं  आमदनी का प्रमुख साधन बनता जा रहा है। यकीनन वर्षा ऋतु में बेकार पड़ी भूमियों में  हरियाली बिखेरने वाले इस द्बिबीजपत्री वार्षिक पौधे को  मैनमार,  चीन, मध्य अमेरिका के  अलावा भारत के विभिन्न राज्यों में  झारखण्ड, बिहार, ऑडीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों  में बखूबी से देखा जा सकता है।
 चकवत के पौधे का परिचय  
               चकवत  के  पौधे को  पवाड़, पवाँर, चकवड़, संस्कृत में चक्रमर्द और  अग्रेजी में सिकल सेना के  नामों  से भी जाना जाता है जिसका वानस्पतिक नाम कैसिया तोरा लिनन बेकर) है।  लेग्यूमिनेसी कुल के  इस पौधे की ऊंचाई 30-90 सेमी होती है। पत्तियां तीन जोड़ी में बनती है। इसकी पत्तियों  को  मसलने पर विशेष प्रकार की गंध आती है। पोधें में  पुष्प जोड़ी में निकलते है जो कि पीले रंग के  होते है। चक्रवत में पुष्पन अवस्था प्रायः अगस्त-सितम्बर में आती है। फलियाँ हंसिया के  आकार की 15-25 सेमी लम्बी होती है। प्रति फल्ली 25-30 बीज विकसित होते है। बीज चमकीले हल्के  कत्थई या धूसर  रंग के   होते है।
चकवत के पौधे अम्लीय भूमि से लेकर क्षारीय भूमियों (4.6 से लेकर 7.9 पीएच मान) में सुगमता से उगते है। चकवत के पौधे 640 से लेकर 4200 मिमि. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में आसानी से उगते है। इसके बीज 13 डिग्री सेग्रे. से कम  और 40 डिग्री सेग्रे. से अधिक तापक्रम पर नही उगते है।  पौध बढ़वार के लिए औसतन 25 डिग्री सेग्रे तापक्रम की आवश्यकता होती है।  प्रकाश अवधि का चकवत की  पौध वृद्धि पर प्रभाव पड़ता है।  प्रकाश अवधि 6 से 15  घंटे हो जाने पर  इसके पौधे अधिक वृद्धि करते है। एक समान प्रकाश अवधि में पौधे छोटे अकार के होते है। इसमें फल्लियाँ तभी बनती है जब इसे 8-11 घंटे  प्रकाश मिलता है।

बड़े काम का है चरोटा खरपतवार
           वर्षाकाल में झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडीसा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश  आदिवासी व ग्रामीण लोग  चक्रवद की नवोदित और  मुलायम पत्तियों  तथा टहनियों का प्रयोग साग-भाजी के  रूप में करते है। इस पौधे के संम्पूर्ण भागों  यथा पत्तियाँ, तना, फूल, बीज एवं जड़ का उपयोग विविध प्रयोजनों  के  लिए किया जाता है। इसकी पत्तियां न केवल भाजी के  रूप में बल्कि कुमांयु के  कुछ क्षेत्रों  में चाय के  रूप में भी प्रयोग  की जाती है। चर्म रोगों के  लिए यह एक प्रभावकारी ओैषधि है साथ ही इसकी पत्तियों  को पुल्टिस के  रूप में घाव व फ़ोड़े पर प्रयोग किया जाता है। पोषक मान की दृष्टि से चक्रवत की हरी पत्तियों  में (प्रति 100 ग्राम खाने योग्य भाग में) 84.9 ग्राम नमी, 5 ग्राम प्रोटीन, 0.8 ग्राम वसा, 1.7 ग्राम खनिज, 2.1 ग्राम रेशा, 5.5 ग्राम कार्बोइड्रेट, 520 मिग्रा.कैल्शियम,39 मिग्रा.फाॅस्रफ़ोरस,124 मिग्रा. लोहा तथा 10152 मिग्रा.कैरोटीन के  अलावा थाइमिन, राइबोफ्लेविन,नियासिन, विटामिन सी भरपूर मात्रा में पाई जाती है।
चक्रवत के  बीज का उपयोग
              चक्रवत के बीज से प्रमुख रूप से ग्रीन टी, चॉकलेट, आइसक्रीम के अलावा विविध आयुर्वेदिक दवाइयाँ बनाने में प्रयोग किया जा रहा  है। इसके  बीज को  भूनकर काफी के  विकल्प के  रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इसके गोंद पैदा करने वाली प्रमुख फसल  ग्वार के बीज की तुलना में इसके बीजों में अधिक मात्रा में गोंद (7.65 प्रतिशत) पाया  जाता है।
चरोटा से गाजर घांस का उन्मूलन भी 
              चरोटा के बीजों से अनन्य  खाद्य पदार्थों के अलावा गोंद तो प्राप्त होता है।  जहाँ चरोटा के पौधे उगते है वहां गाजर घांस यानि पार्थिनियम (विश्व का सबसे खतरनाक और तेजी से फ़ैलने वाला खरपतवार) के पौधें नहीं उगते है। अतः गाजर घांस प्रभावित क्षेत्रों में चरोटा के बीजों का छिड़काव या खेती करने से उक्त खरपतवार से छुटकारा मिल सकता है। यही नहीं चरोटा को हरी खाद के रूप में भी उपयोग में लाया जा सकता है।  
ऐसे लेते है चरोटा की फसल
             बिना लागत और स्वमेव उपजी चरोटा की फसल भूमिहीन और गरीब किसानों और आदिवासियों के लिए एक बहुमूल्य तोहफा है। ठण्ड का मौसम आते है चरोटा की फल्लियाँ पकने लगती है। धान की कटाई पश्चात ग्रामीण स्त्री-परुष अपनी सामर्थ्य के अनुसार चरोटा के पौधों की कटाई  प्रारम्भ  कर देते है। फसल को  सुखाने के बाद सड़क पर बिछा दिया जाता है।  इसके ऊपर वाहनों के गुजरने से फल्लिओं से बीज निकल आता है, जिसकी उड़ावनी और सफाई कर बीज निकाल लिया जाता है।
बिन बोई फसल से बेहतर आमदनी 
                        बगैर  किसी लागत के स्वमेव उपजी चरोटा  की फसल को बेचने किसानों को भटकना भी नहीं पड़ता है। व्यापारी किसान के घर से ही इसे खरीद लेते है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों जैसे बस्तर संभाग के अलावा रायपुर, बिलासपुर दुर्ग और सरगुजा के ग्रामीण भी इस प्रकृति प्रदत्त फसल से खासा मुनाफा कमा रहे है। वर्तमान में चरोटा के बीज 40-50 रुपये प्रति किलो की दर से बाजार में ख़रीदा जा रहा है। चरोटा बीज के व्यापारी/आढ़तिया किसानो से इसे खरीद कर मुंबई, हैदराबाद, विशाखापटनम आदि शहरों में भेज रहे है जहां से इसका निर्यात चाइना और अन्य एशियाई देशों में किया जाता है। बहुत से ग्रामीण और आदिवासी इसके थोड़े बहुत बीज हाट-बाजार में बेच कर रोजमर्रा की वस्तुएं क्रय करते है।  चरोटा की फसल के बेहतर दाम मिलने से अब अधिक संख्या में ग्रामीणजन इस फसल को एकत्रित करने उत्साहित हो रहे है।  ग्रामीणों के साथ-साथ व्यापारियों के लिए भी चरोटा की फसल आमदनी का जरियां बन रही है। चकवत का ओषधीय एवं आर्थिक महत्व को देखते हुए अब चकवत की उन्नत खेती की संभावनाएं तलाशी जा रही है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के सस्य विज्ञानं विभाग के वैज्ञानिकों द्वारा चकवत की फसल से अधिकतम उपज और आमदनी लेने के लिए शोध कार्य प्रारम्भ किये गए है। 
    
नोट: कृपया इस लेख को लेखकों की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो लेखक और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

पानी है अनमोल, समझो इसका मोल

गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 

जल  महिमा 
                   जल प्रकृति का वाहक है। जल है तो  कल है । जब जीव संसार में आता है तो उसे जल की घुट्टी ही दी जाती है। मनुष्य की जीवन लीला जल से चलती है और अंत में अस्थियां जल में प्रवाहित कर दी जाती हैं। महाकवि तुलसीदास ने जल की महत्ता को रेखांकित करते हुए रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में कहा कि 'जल बिनु रसकि होई संसारा। लगभग चार सौ वर्ष पूर्व कही गई संत रहीम की यह उक्ति  ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न ऊबरे, मोती, मानूस, चून’- आज अखिल विश्व के अस्तित्व के लिए ध्येय वाक्य की भांति ग्रहण करने योग्य है। मोती और चून के बिना तो फिर भी यह दुनियां  रह सकती है, परन्तु जल के बिना यह मात्र आकाशीय पिण्ड बन कर रह जाएगी। अतः जल के बिना जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। भारतीय संस्कति में नदियों को पुण्य-सलिला माना गया है । अधिकतर मानव  सभ्यताएं नील, गंगा, सिंधु, फरात आदि नदी-घाटी में ही जन्मी और फली-फूली हैं। भारत में जल लोगों में श्रद्धा का  भाव जगाता है।प्रकृति के  जिन पंचभूतों (क्षिति जल पावक गगन समीरा) से  मानव शरीर का निर्माण हुआ उनमें जल प्रमुख है। जल देवताओं के रूप में इंद्र और वरुण की सृष्टि हुई  जिन्हें जल देवता के रूप में पूजा जाता है। यही नहीं  महाभारत के भीष्म पितामह  गंगा से जन्मे और गंगा पुत्र कहलाये।  ये जल की महत्ता  ही थी कि जन-कल्याण के लिए भागीरथ ऋषि को गंगा धरती पर लाने के लिए कड़ी तपस्या करनी पड़ी। गंगा हमारी आस्था, सभ्यता, संस्कृति और जीवन से जुड़ी आराध्य नदी है।जल ही हमारा रक्षक है। यदि जल ना हो तो प्रकृति की साड़ी  प्रक्रियाएं ही बन्द हो जायेंगी और पृथ्वी के सभी जीव-जंतु समाप्त हो जाएंगे। 
मौजूदा  जल संसाधन 
               पृथ्वी के भीतर लगभग 1 अरब 40 करोड़ घन कि.मी. पानी है एक घन कि.मी. में औसतन 900 अरब लीटर पानी मौजूद है। इस अथाह जल भंडार का 97 प्रतिशत हिस्सा खारे  पानी  के रूप में सागरों और महासागरों में और मात्र 3 प्रतिशत हिस्सा ही मीठे पानी का  यानि हमारे काम का है।  इस 3 % में भी  67-68 % हिस्सा यानि  तीन चैथाई भाग ग्लेशियर और बर्फीली पहाड़ियों के पिघलने से बने जल का है जो अनादिकाल से नदी, झरने आदि के रूप में पृथ्वी पर अनवरत रूप से बह रहा है और करीब 30 % हिस्सा भूमिगत जल के खाते में आता है।  समस्त जीवों के शरीर का अधिकांश भाग पानी है । मानव शरीर का 65 प्रतिशत, हाथी के शरीर का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा पानी है यहां तक कि आलू में 80 प्रतिशत और टमाटर में 95 प्रतिशत पानी होता है। गेंहू की बुआई से लेकर उसे एक रोटी का रूप देने में लगभग 435 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है । पानी की सबसे अधिक खपत औद्योगिक इकाईयों में होती है। एक कि.ग्रा. एल्यूमीनियम बनाने में 1400 लीटर, एक टन स्टील बनाने में 270 टन और एक टन कागज बनाने में 250 मी.टन तथा एक लीटर पेट्रोल या अंग्रेजी शराब के शोधन में 10 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। दैनिक उपयोग में खर्च होने वाले पानी का 70 प्रतिशत हिस्सा वाष्प के जरिए या तो वातावरण में पहुंचता है या फिर जहां पानी गिरता है उस  क्षेत्र के पौधों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। शेष पानी नदी-नालों के जरिए समुद्र में पहुंच जाता है। गौरतलब है, वातावरण में नमी की मात्रा 85 प्रतिशत समुद्री पानी के वाष्प से होती है तथा शेष नमी पौधों आदि के वाष्पोत्सर्जन के कारण होती है। उदाहरण के लिए  मक्का की फसल प्रति हेक्टेयर क्षेत्रफल से प्रतिदिन औसतन 37,000 लीटर पानी वाष्प के  रूप में वातावरण में प्रवाहित करती है।
घटती जल उपलब्धता 
           दुनियां की 17 %  जनसंख्या अकेले भारत में निवास करती है, जबकि उसका भूभाग सिर्फ  4 % ही है। हमारे देश में जल उपलब्धता  पूर्णतः मानसून पर निर्भर करती है।। क्योंकि लगभग 75 प्रतिशत जल वर्षा के रूप में चार महीनों के अन्दर हमारे भूभाग पर पड़ता है। देश का 1/3 क्षेत्रफल सूखे तथा 1/8 भाग बाढ़ की संभावना से ग्रस्त रहता है। जनसंख्या की वृद्धि, तीव्र शहरीकरण तथा विकासात्मक जरूरतों ने भारत की जल उपलब्धता पर भारी दबाव डाला है। हमारी प्रति व्यक्ति पेयजल उपलब्धता की स्थिति काफी चिंताजनक है। वर्ष 1951  में जब भारत की आबादी  36 करोड़ थी, तब प्रति व्यक्ति 5177 क्यूबिक लीटर पेयजल उपलब्ध था। वर्ष 2011 में आबादी बढ़कर 1.21 अरब हो गई, जबकि पेयजल उपलब्धता घटकर 1150 क्यूबिक मीटर रह गई।  देश में उपलब्ध पानी का 89 % हिस्सा तो केवल खेती में खप जाता है, शेष बच्चे जल में से 6% उद्योगों और  5 % पीने के काम आता है।  खेती में आई हरित क्रांति से देश खाद्यान्न के मोर्चे पर तो आत्म निर्भर हो गया लेकिन रासायनिक खादों के अंधाधुन्ध और असंतुलित इस्तेमाल से हमारे अधिकांश जल स्त्रोत प्रदूषित हो गए है। नदियों में तो इतना औद्योगिक कचरा/जहर घुल चुका है की उनका पानी पीने लायक तो क्या, नहाने योग्य भी नहीं रहा है। जमीन के अंदर मौजूद जल में भी जहर घुलने लगा है। परिणामस्वरूप बोतल बंद पानी ने बाजार में धाक जमा ली है। एक जमाना था जब लोग कुओं, बावड़ियों, तालाब और झरनों  के निर्मल जल से अपनी प्यास बुझा लिया करते थे, वे आज पानी की बोतल बगल में दबाकर घर से बाहर निकलते है। बोतल बंद पानी का बाजार शहरों में ही नहीं गावों में भी तेजी से पाँव पसार रहा है क्योंकि लोगों को लगता है कि नलों और कुओं का पानी गन्दा और जहरीला है और जिन्दा रहने के लिए बोतल बंद पानी ही सुरक्षित है। परिणामस्वरूप बोतल बंद पानी के कारोबार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ-साथ घरेलू औद्योगिक घराने  भी कूंद पड़े। आज बोतल बंद पानी का  कारोबार लगभग एक खरब रुपये का है जो 40 से 50 फीसदी की तूफानी रफ़्तार से बढ़ता जा रहा है। महानगरों के बड़े घरानों में और होटलों में 20 से 50 लीटर की बड़ी बोतलों में बंद पानी इस्तेमाल किया जा रहा है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि  प्रकृति से मुफ्त में मिले जल को भी महंगे दामों में खरीदना पड़  रहा है। गरीब और मध्यम वर्ग तो पानी खरीद नहीं सकते है, उन्हें तो उपलब्ध गंदे जल से ही गुजार करना पड़ रहा है। गहराता जल संकट मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा है।  वर्ल्ड इकनोमिक फोरम ने तो आसन्न जल संकट को आतंकवाद, महाविनाश के हथियारों के इस्तेमाल और विष्वव्यापी मंदी से भी ज्यादा खतरनाक करार दिया है। आज दुनियां के अनेक देशों सहित भारत के तमाम राज्यों में भी जल स्त्रोतों यथा नदियों, नहरों आदि पर कब्जे के लिए आपस में सिर फुटौवल कर रहे है।  पीने के पानी  के लिए तो जगह -जगह खून खराबा हो रहा है।  महाराष्ट्र के विदर्भ में तो पानी की किल्लत को देखते हुए धारा-144 लगा दी गई है।
आसन्न जल संकट-कौन जिम्मेदार 
         दुनियां में दो हिस्सा पानी है और एक हिस्सा जमीन, फिर भी विश्व एक भयंकर जलसंकट के मुहाने पर खड़ा है।  अमूमन धरती की सतह का अधिकांश भाग समुद्र द्वारा आच्छादित है और पृथ्वी पर पानी का विशाल भण्डार हमें दिखता भी है। परन्तु उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश या फिर छत्तीसगढ़ के रहवासियों  और किसानों को  बंगाल की खाड़ी का पानी कदाचित उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है । हालांकि प्रकृति ने इसकी निःशुल्क व्यवस्था कर रखी है। सूर्य की गर्मी से समुद्र का पानी वाष्पीकृत होकर बादलों में पहुंचता है, जो बाद में वर्षा के रूप में शुद्ध पानी हमारे स्थान पर उलब्ध हो  जाता हैं। घर पहुँच सेवा (होम डिलीवरी) की इतनी सुन्दर व्यवस्था बगैर किसी शुल्क के प्रकृति ने हमारे लिए संजोई है। परन्तु वर्षा तो कुछ माह ही होती है, जबकि पानी हमें हर समय प्रति दिन और प्रति क्षण चाहिए। जल भण्डार के लिए भी प्रकृति हमारे साथ है। परंतु मनुष्य ने अपने तात्कालिक सुख एवं स्वार्थ के लिए  प्रकृति की सुन्दर व्यवस्था को  तहस-नहस कर दिया है। जंगलों  की अंधाधुंध कटाई, ओद्योगिक  अपशिष्ट व शहरी कचरे को  नदियों में बहा कर उनके निर्मल जल को प्रदूषित कर देना, कल कारखानो के माध्यम से हाँनिकारक गैसों को वायुमण्डल में फैलाना, भू-जल का अन्धाधुन्ध दोहन, गावों  व नगरों के प्राचीन तालाब-प¨खरों  पर अतिक्रमण आदि ऐसे कारक है जिनसे प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा हैं जिसकी वजह से आज जलवायु परिवर्तन  के दुष्परिणाम देखने को मिल रहे है।  इसे विडंबना ही कहेंगे कि मंगल पर जीवन और पानी की खोज तो  की जा रही है परन्तु पृथ्वी पर पहले से मौजूद जल और  जीवन के संरक्षण-संवर्धन को लेकर चहुंओर  उदासीनता ही दिखाई देती है । अब भी समय है सँभलने का, यदि नहीं संभले तो जल-संकट के कारण ग्रह युद्ध जैसे हालात उत्पन्न हो  सकते है और इसमें कोई दो-राय नहीं कि अगला विश्वयुद्ध गहराते जल संकट की वजह से हो  सकता है ।
 प्रकृति हमे मानसून की बारिश के रूप में पानी मुफ्त में देती है। जो चीज मुफ्त मिले, देखा गया है कि इंसान उसकी कोई कदर नहीं  करता । यही कारण है कि आज बेरहमी से पानी की बर्बादी हो रही है  और जल-संसाधनों को बचाने में कोई भी खास  दिलचस्पी लेता नजर नहीं आ रहा है। सब कुछ  सरकार और सरकारी महकमें के भरोसे छोड़ दिया  कहां तक उचित है ।अपने  आस-पास देखें तो इसका सबूत अपने आप मिल जाएगा। मसलन  सार्वजनिक नलों की टोटियां भी निकाल कर ले जाते है जिससे नलों का पानी बेरोकटोक फालतू बहता रहता है। सबमर्सिबल पम्प का पाइप हाथ में लेकर चमचमाती गाड़ियां ही नहीं घर के सामने की  सड़क को धोते लोग आपको दिखाई दे जायेंगे । धरती के गर्भ से हर दिन लाखों-करोड़ों लीटर पानी बेरहमी से खींचा जा रहा है लेकिन उसकी भरपाई (रिचार्ज) करने की ओर बहुत ही कम लोगों का ध्यान है । भू-गर्भ जल के अंधाधुंध दोहन को देखते हुए स्पष्टं हैं कि अगर हम न सुधरे तो आने वाला कल भयावह होगा।
सयुंक्त राष्ट्र संघ की पहल  
       जल संकट एक विश्वव्यापी समस्या बनता जा रह है और यही वजह है की संयुक्त राष्ट्रसंघ  ने 'रियो डि जेनेरियो' में  22 मार्च 1992 को  विश्व जल दिवस मानाने का एलान किया था और 1993 से  प्रति वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जा रहा है  जिसके जरिये लोगों को जल की महत्ता, पानी बर्बाद नहीं करने और उसके संसाधनों को बचाने के लिए प्रेरित किया जाता है।

जल का किफायती उपयोग और जल सरंक्षण जरूरी   
              ऐसे समय में जब हम घटते जल संसाधनों तथा जल की बढ़ती मांग से जूझ रहे हैं, जल दक्षता बढ़ाने से ही लाभ हो सकता है। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में जल संग्रहण, प्रबंधन एवं वितरण की प्राचीन परंपराओं  पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता तो संभवतः जल को लेकर त्राहिमान की स्थिति कभी नहीं उत्पन्न होती। वर्षा जल संचयन द्वारा भूगर्भ जलस्रोतों के नवीकरण में पारम्परिक जलस्रोतों की  महत्वपूर्ण भूमिका को  पुनः अमल में लाना होगा। परम्परागत जलस्रोतों के  गहरीकरण, मरम्मत और  निरन्तर रखरखाव से कम खर्च में जल उपलब्धता को ¨ काफी हद तक बढ़ाया जा सकता हैं। भारत के विभिन्न गांवों -नगरों  में ऐतिहासिक धरोहर के तालाबों के  बेहतर रख-रखाव और  नवनिर्मित डबरियों  से क्षेत्र में अनुकूल जल प्रबंधन का महत्वपूर्ण आधार निर्मित किया जा सकता है । वास्तव में आज समग्रीकृत वाटरशैड विकास परियोजनाओं के अन्तर्गत जल-संग्रहण-संरक्षण में नए कार्यों के साथ पुराने जलस्रोतों को नवजीवन देने की ठोस कार्ययोजना के  साथ-साथ जल संग्रहण व संरक्षण के लिए जनजागरुकता व सहकारिता की भावना विकसित करनी चाहिए। वर्तमान में लगभग 80 प्रतिशत जल कृषि क्षेत्र की मांग को पूरा करता है। भविष्य में उद्योगों में तथा ऊर्जा एवं पेयजल की मांग तेजी से बढ़ने के कारण अत्यावश्यक हो गया है कि जल संरक्षण के प्रयास तेजी से और योजनाबद्ध ढंग से किए जाएं। वर्ष 2011 में शूरू किये गये राष्ट्रीय जल मिशन का उद्देश्य जल संरक्षण, जल की बर्बादी में कमी लाना तथा समतापूर्ण वितरण है। जल उपयोग दक्षता में बीस प्रतिशत की वृद्धि करना भी राष्ट्रीय जल मिशन का लक्ष्य है। इसी प्राकर राष्ट्रीय जल नीति 2012 में जल संसाधनों के उपयोग में दक्षता सुधार की जरूरत को स्वीकार किया गया है । अभी तक उपलब्ध जल की मात्रा बढ़ाने पर अधिक ध्यान दिया गया, परन्तु अब जल का कुशल उपयोग तथा उसका प्रबंधन कैसे किया जाए, पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। इस प्रकार वर्तमान जल संकट से उबरने के  लिए ‘जल संसाधन विकास’ से समेकित जल संसाधन प्रबंधन’ की दिशा में आमूल चूल बदलाव किये जाने की महती आवश्यकता है। इसके लिए जन जागरण अभियान तथा सम्यक जल नीतियों को ईमानदारी से  धरातल पर उतारना होगा । देश में बढ़ते जल संकट को लेकर सरकार को उसकी जिम्मेदारी याद दिलाने के लिए बीते  कुछ वर्ष पहले  माननीय सुप्रीम कोर्ट ने लोगों के दिल की बात कही थी कि जो सरकार लोगों को पानी नहीं दे सकती, उसे सत्ता में रहने को कोइ हक़ नहीं  है। सुप्रीम कोर्ट ने युद्ध स्टार पर अनुसन्धान के लिए वैज्ञानिकों की कमेटी भी गठित करते हुए कहा की अनुसन्धान का मुख्य मुद्दा खरे समुद्री पानी को काम से काम खर्च पर मीठे पेय जल में बदलना होगा। इसके परिणामों हम सबको प्रतीक्षा है।
कृषि में कुशल जल प्रबंधन की दरकार  
                          भारत में कृषि क्षेत्र में जल की सर्वाधिक खपत होती है। अतः कृषि में यथोचित जल प्रबंधन हमारी समग्र जल सततता के लिए आवश्यक है। इसके  लिए जल का कुशल उपयोग,  पुनर्चक्रण तथा पुनः प्रयोग की तीन-सूत्रीय कार्ययोजना को हमारे खेतों में उपयोग में लाना होगा। हमें  इजराइल जैसे देशों से सबक लेनें की जरूरत है जहाँ न्यूनतम वर्षा जल उपलब्धता के बावजूद दक्षतापूर्ण जल नीतियों और प्रौद्योगिकीय प्रगति के कारण कृषि में कुशल जल उपयोग से अधिकतम उत्पादन लिया जा रहा है।   हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के 'प्रति बूँद जल  अधिक फसल उपज' को सार्थक बनाने के लिए  हमारी वर्तमान  सिंचाई प्रणाली में बदलाव कर सिचाई की फव्वारा और टपक (ड्रिप) पद्धत्ति  के माधयम से उपलब्ध जल के कुशल  प्रयोग को भी प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। जल सुरक्षा एवं साल सरंक्षण के विभिन्न पहलुओं के बारे में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए भारत सरकार के  जल संसाधन विकास और गंगा सरंक्षण मंत्रालय ने 2015-16 के दौरान 'जल क्रांति अभियान' की शुरुआत एक अच्छी पहल है।  इस अभियान के तहत देश के 674 जिलों में जल की बेहद कमीं का सामना करने वाले गावों  (कुल 1001 गावं) का चयन  'जल ग्राम' के रूप में किया जा रहा है। जल का अधिकतम एवं सतत उपयोग सुनिश्चित करने के लिए पंचायत स्तरीय समिति द्वारा इन गावों के लिए एक एकीकृत  सुरक्षा  योजना,  जल सरंक्षण,   जल प्रबंधन एवं संबंधित गतिविधियों पर विचार किया जा रहा है। 
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शनिवार, 5 मार्च 2016

सीप से मोती उत्पादनः किसानों के लिए नई सौगात

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं विभाग 
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 

            हीरे के मोती ही सबसे नायाब महारत्न है जिसे  चन्द्र रत्न माना जाता  है और नवरत्नों में मोती की अपनी ही शान है। यही कारण है कि सदियों से यह महिलाओं के गले की शोभा रहा है। मोती की एक विशेषता यह है कि यद्धिप इसे नवरत्नों में गिना जाता है पर यह कोई रत्न (पत्थर) नहीं है, यह तो समुद्र के एक जलजीव के मुहँ की लार से सीप के गर्भ मे बनता है। विज्ञान के अनुसार यह शुद्ध कैल्शियम है। मोती  को  मुक्ता, शशि रत्न तथा अग्रेजी में पर्ल कहते है । मोती खनिज रत्न न होकर जैविक रत्न होता है । मूंगे की भांति ही मोती का निर्माण भी समुंद्र के  गर्भ  में  एक विशेष प्रकार के कीट-घोंघें  द्वारा किया जाता है। यह नाजुक  जीव सीप के  अंदर रहता है। वस्तुतः सीप एक प्रकार का घोंघें  का घर होता है। मान्यता है कि जब सीप में स्वाति नक्षत्र की बूँद आ गिरती है तो वही मोती बन जाती है । परन्तु मोती के  जन्म के  विषय में वैज्ञानिक धारणा यह है कि जब कोई विजातीय कण घोंघें के  भीतर प्रविष्ट हो जाता है तब वह उस पर अपने शरीर से निकलने वाले मुक्ता पदार्थ का आवरण चढ़ाना शुरू कर देता है और  इस प्रकार कुछ समय पश्चात यह सुन्दर मोती का रूप धारण कर लेता है।

             मोती एक प्राकृतिक रत्न  है जो सीप से पैदा होता है। भारत समेत हर देश में  मोतियों की माँग बढ़ती जा रही है, लेकिन दोहन और प्रदूषण से इनकी संख्यौ घटती जा रही है। अपनी घरेलू माँग को पूरा करने के लिए भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से हर साल मोतियों का बड़ी मात्रा में आयात करता है। पहले मोती केवल समुद्र से ही प्राप्त होते थे बाद में इन्हें कृत्रिम रूप से झील, तलाब, नदी आदि में मोती की खेती करके भी बनाया जाने लगा है। म¨ती फारस की खाड़ी, श्रीलंका, बेनेजुएला, मैक्सिको ,आस्ट्रेलिया तथा बंगाल की खाड़ी में पाए जाते हैं। भारत में मोती मुख्यतः दक्षिण भारत के  तमिलनाडू राज्य के  ततूतीकेरन तथा बिहार के  दरभंगा जिले से प्राप्त होते है। वर्तमान समय में सबसे अधिक मोती चीन तथा जापान में उत्पन्न होते है। फारस की खाड़ी में उत्पन्न ह¨ने वाले म¨ती क¨ ही बसरे का म¨ती कहा जाता है जिसे सवर्¨त्तम माना गया है। आजकल मोती कई रंगो में मिलते हैं। जैसे श्वेत, श्याम, गुलाबी व पीत वर्ण व श्याम वर्ण के मोतियों को (तहीती) कहते हैं। ये काले रंग के मोती महिलाओं के गले में बहुत सुंदर लगते हैं। आस्ट्रेलिया के हल्के पीत वर्ण के मोती दुर्लभ होते हैं। इन्हें साउथ-पी पर्ल के नाम से जाना जाता है। अकोया नामक मोती साधारण होते हैं। आम आदमी की पहुँच में भी है।
तीन प्रकार के होते हैं मोती
केवीटी- सीप के अंदर ऑपरेशन के जरिए फारेन बॉडी डालकर मोती तैयार किया जाता है। इसका इस्तेमाल अंगूठी और लॉकेट बनाने में होता है। चमकदार होने के कारण एक मोती की कीमत हजारों रुपए में होती है।
गोनट- इसमें प्राकृतिक रूप से गोल आकार का मोती तैयार होता है। मोती चमकदार व सुंदर होता है। एक मोती की कीमत आकार व चमक के अनुसार 1 हजार से 50 हजार तक होती है।
मेंटलटीसू- इसमें सीप के अंदर सीप की बॉडी का हिस्सा ही डाला जाता है। इस मोती का उपयोग खाने के पदार्थों जैसे मोती भस्म, च्यवनप्राश व टॉनिक बनाने में होता है। बाजार में इसकी सबसे ज्यादा मांग है।
ऐसे बनता है मोती
          घोंघा नाम का एक कीड़ा जिसे मॉलस्क कहते हैं, अपने शरीर से निकलने वाले एक चिकने तरल पदार्थ द्वारा अपने घर का निर्माण करता है।  घोंघे के घर को सीपी कहते हैं। इसके अन्दर वह अपने शत्रुओं से भी सुरक्षित रहता है। घोंघों की हजारों किस्में हैं और उनके शेल भी विभिन्न रंगों जैसे गुलाबी, लाल, पीले, नारंगी, भूरे तथा अन्य और भी रंगों के होते हैं तथा ये अति आकर्षक भी होते हैं। घोंघों की  मोती बनाने वाली किस्म बाइवाल्वज कहलाती है इसमें से भी ओएस्टर घोंघा सर्वाधिक मोती बनाता है। मोती बनाना भी एक मजेदार प्रक्रिया  है। वायु, जल व भोजन की आवश्यकता पूर्ति के लिए कभी-कभी घोंघे जब अपने शेल के द्वार खोलते हैं तो कुछ विजातीय पदार्थ जैसे रेत कण कीड़े-मकोड़े आदि उस खुले मुंह में प्रवेश कर जाते हैं। घोंघा अपनी त्वचा से निकलने वाले चिकने तरल पदार्थ द्वारा उस विजातीय पदार्थ पर परतें चढ़ाने लगता है। 
भारत समेत अनेक देशों  में मोतियों की माँग बढ़ती जा रही है, लेकिन दोहन और प्रदूषण से इनका उत्पादन घटता जा रहा है। अपनी घरेलू माँग को पूरा करने के लिए भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से हर साल मोतियों का बड़ी मात्रा में आयात करता है। मेरे देश की धरती , सोना उगले, उगले हीरे-मोती।  वास्तव में हमारे देश में विशाल समुन्द्रिय तटों के साथ ढेरों सदानीरा नदियां, झरने और तालाब मौजूद है।  इनमें मछली पालन  अलावा हमारे बेरोजगार युवा एवं किसान अब मोती पालन कर अच्छा मुनाफा कमा सकते है। 
कैसे करते हैं खेती
              मोती की खेती के लिए सबसे अनुकूल मौसम शरद ऋतु यानी अक्टूबर से दिसंबर तक का समय माना जाता है। कम से कम 10 गुणा 10 फीट या बड़े आकार के तालाब में मोतियों की खेती की जा सकती है। मोती संवर्धन के लिए 0.4 हेक्टेयर जैसे छोटे तालाब में अधिकतम 25000 सीप से मोती उत्पादन किया जा सकता है।  खेती शुरू करने के लिए किसान को पहले तालाब, नदी आदि से सीपों को इकट्ठा करना होता है या फिर इन्हे खरीदा भी जा सकता है। इसके बाद प्रत्येक सीप में छोटी-सी शल्य क्रिया के  उपरान्त इसके भीतर 4 से 6 मिली मीटर व्यास वाले साधारण या डिजायनदार बीड जैसे गणेश, बुद्ध, पुष्प आकृति  आदि डाले जाते है । फिर सीप को बंद किया जाता है। इन सीपों को नायलॉन बैग में 10 दिनों तक एंटी-बायोटिक और प्राकृतिक चारे पर रखा जाता है। रोजाना इनका निरीक्षण किया जाता है और मृत सीपों को  हटा लिया जाता है। अब इन सीपों को तालाबों में डाल दिया जाता है। इसके लिए इन्हें नायलॉन बैगों में रखकर (दो सीप प्रति बैग) बाँस या पीवीसी की पाइप से लटका दिया जाता है और तालाब में एक मीटर की गहराई पर छोड़ दिया जाता है। प्रति हेक्टेरयर 20 हजार से 30 हजार सीप की दर से इनका पालन किया जा सकता है। अन्दर से निकलने वाला पदार्थ नाभिक के चारों ओर जमने लगता है जो  अन्त में मोती का रूप लेता है। लगभग 8-10 माह बाद सीप को चीर कर मोती निकाल लिया जाता है। 
कम लागत ज्यादा मुनाफा
             एक सीप लगभग 20 से 30 रुपए की आती है। बाजार में 1 मिमी से 20 मिमी सीप के मोती का दाम करीब 300 रूपये से लेकर 1500 रूपये होता है। आजकल डिजायनर मोतियों को  खासा पसन्द किया जा रहा है जिनकी बाजार में अच्छी कीमत मिलती है। भारतीय बाजार की अपेक्षा विदेशी बाजार में मोतिओ  का निर्यात कर काफी अच्छा पैसा कमाया जा सकता है। तथा सीप से मोती निकाल लेने के बाद सीप को भी बाजार में बेंचा जा सकता है। सीप द्वारा कई सजावटी सामान तैयार किये जाते है। जैसे कि सिलिंग झूमर, आर्कषक झालर, गुलदस्ते आदि वही वर्तमान समय में सीपों से कन्नौज में इत्र का तेल निकालने का काम भी बड़े पैमाने पर किया जाता है। जिससे सीप को भी स्थानीय बाजार में तत्काल बेचा जा सकता है। सीपों से नदीं और तालाबों के जल का शुद्धिकरण भी होता रहता है जिससे जल प्रदूषण की समस्या से काफी हद तक निपटा जा सकता है।  
              सूखा-अकाल की मार झेल रहे किसानों एवं  बेरोजगार छात्र-छात्राओं को मीठे पानी में मोती संवर्धन के क्षेत्र में आगे आना चाहिए क्योंकि मोतीयों की मांग देश विदेश में बनी रहने के कारण इसके खेती का भविष्य उज्जवल प्रतीत होता है। भारत के अनेक राज्यों के नवयुवकों ने मोती उत्पादन को एक पेशे के रूप में अपनाया है।  मध्य प्रदेश एवं  छत्तीसगढ़ राज्य में  भी मोती उत्पादन की बेहतर  संभावना है।  मोती संवर्द्धन से सम्बधित अधिक जानकारी के  लिए सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वााकल्चर, भुवनेश्वंर (ओडीसा)  से संपर्क किया जा सकता है । यह संस्थान ग्रामीण नवयुवकों, किसानों  एवं छात्र-छात्राओँ  को  मोती उत्पादन पर  तकनीकी  प्रशिक्षण प्रदान करता है।