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शुक्रवार, 11 मार्च 2016

पानी है अनमोल, समझो इसका मोल

गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 

जल  महिमा 
                   जल प्रकृति का वाहक है। जल है तो  कल है । जब जीव संसार में आता है तो उसे जल की घुट्टी ही दी जाती है। मनुष्य की जीवन लीला जल से चलती है और अंत में अस्थियां जल में प्रवाहित कर दी जाती हैं। महाकवि तुलसीदास ने जल की महत्ता को रेखांकित करते हुए रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में कहा कि 'जल बिनु रसकि होई संसारा। लगभग चार सौ वर्ष पूर्व कही गई संत रहीम की यह उक्ति  ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गए न ऊबरे, मोती, मानूस, चून’- आज अखिल विश्व के अस्तित्व के लिए ध्येय वाक्य की भांति ग्रहण करने योग्य है। मोती और चून के बिना तो फिर भी यह दुनियां  रह सकती है, परन्तु जल के बिना यह मात्र आकाशीय पिण्ड बन कर रह जाएगी। अतः जल के बिना जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। भारतीय संस्कति में नदियों को पुण्य-सलिला माना गया है । अधिकतर मानव  सभ्यताएं नील, गंगा, सिंधु, फरात आदि नदी-घाटी में ही जन्मी और फली-फूली हैं। भारत में जल लोगों में श्रद्धा का  भाव जगाता है।प्रकृति के  जिन पंचभूतों (क्षिति जल पावक गगन समीरा) से  मानव शरीर का निर्माण हुआ उनमें जल प्रमुख है। जल देवताओं के रूप में इंद्र और वरुण की सृष्टि हुई  जिन्हें जल देवता के रूप में पूजा जाता है। यही नहीं  महाभारत के भीष्म पितामह  गंगा से जन्मे और गंगा पुत्र कहलाये।  ये जल की महत्ता  ही थी कि जन-कल्याण के लिए भागीरथ ऋषि को गंगा धरती पर लाने के लिए कड़ी तपस्या करनी पड़ी। गंगा हमारी आस्था, सभ्यता, संस्कृति और जीवन से जुड़ी आराध्य नदी है।जल ही हमारा रक्षक है। यदि जल ना हो तो प्रकृति की साड़ी  प्रक्रियाएं ही बन्द हो जायेंगी और पृथ्वी के सभी जीव-जंतु समाप्त हो जाएंगे। 
मौजूदा  जल संसाधन 
               पृथ्वी के भीतर लगभग 1 अरब 40 करोड़ घन कि.मी. पानी है एक घन कि.मी. में औसतन 900 अरब लीटर पानी मौजूद है। इस अथाह जल भंडार का 97 प्रतिशत हिस्सा खारे  पानी  के रूप में सागरों और महासागरों में और मात्र 3 प्रतिशत हिस्सा ही मीठे पानी का  यानि हमारे काम का है।  इस 3 % में भी  67-68 % हिस्सा यानि  तीन चैथाई भाग ग्लेशियर और बर्फीली पहाड़ियों के पिघलने से बने जल का है जो अनादिकाल से नदी, झरने आदि के रूप में पृथ्वी पर अनवरत रूप से बह रहा है और करीब 30 % हिस्सा भूमिगत जल के खाते में आता है।  समस्त जीवों के शरीर का अधिकांश भाग पानी है । मानव शरीर का 65 प्रतिशत, हाथी के शरीर का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा पानी है यहां तक कि आलू में 80 प्रतिशत और टमाटर में 95 प्रतिशत पानी होता है। गेंहू की बुआई से लेकर उसे एक रोटी का रूप देने में लगभग 435 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है । पानी की सबसे अधिक खपत औद्योगिक इकाईयों में होती है। एक कि.ग्रा. एल्यूमीनियम बनाने में 1400 लीटर, एक टन स्टील बनाने में 270 टन और एक टन कागज बनाने में 250 मी.टन तथा एक लीटर पेट्रोल या अंग्रेजी शराब के शोधन में 10 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। दैनिक उपयोग में खर्च होने वाले पानी का 70 प्रतिशत हिस्सा वाष्प के जरिए या तो वातावरण में पहुंचता है या फिर जहां पानी गिरता है उस  क्षेत्र के पौधों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। शेष पानी नदी-नालों के जरिए समुद्र में पहुंच जाता है। गौरतलब है, वातावरण में नमी की मात्रा 85 प्रतिशत समुद्री पानी के वाष्प से होती है तथा शेष नमी पौधों आदि के वाष्पोत्सर्जन के कारण होती है। उदाहरण के लिए  मक्का की फसल प्रति हेक्टेयर क्षेत्रफल से प्रतिदिन औसतन 37,000 लीटर पानी वाष्प के  रूप में वातावरण में प्रवाहित करती है।
घटती जल उपलब्धता 
           दुनियां की 17 %  जनसंख्या अकेले भारत में निवास करती है, जबकि उसका भूभाग सिर्फ  4 % ही है। हमारे देश में जल उपलब्धता  पूर्णतः मानसून पर निर्भर करती है।। क्योंकि लगभग 75 प्रतिशत जल वर्षा के रूप में चार महीनों के अन्दर हमारे भूभाग पर पड़ता है। देश का 1/3 क्षेत्रफल सूखे तथा 1/8 भाग बाढ़ की संभावना से ग्रस्त रहता है। जनसंख्या की वृद्धि, तीव्र शहरीकरण तथा विकासात्मक जरूरतों ने भारत की जल उपलब्धता पर भारी दबाव डाला है। हमारी प्रति व्यक्ति पेयजल उपलब्धता की स्थिति काफी चिंताजनक है। वर्ष 1951  में जब भारत की आबादी  36 करोड़ थी, तब प्रति व्यक्ति 5177 क्यूबिक लीटर पेयजल उपलब्ध था। वर्ष 2011 में आबादी बढ़कर 1.21 अरब हो गई, जबकि पेयजल उपलब्धता घटकर 1150 क्यूबिक मीटर रह गई।  देश में उपलब्ध पानी का 89 % हिस्सा तो केवल खेती में खप जाता है, शेष बच्चे जल में से 6% उद्योगों और  5 % पीने के काम आता है।  खेती में आई हरित क्रांति से देश खाद्यान्न के मोर्चे पर तो आत्म निर्भर हो गया लेकिन रासायनिक खादों के अंधाधुन्ध और असंतुलित इस्तेमाल से हमारे अधिकांश जल स्त्रोत प्रदूषित हो गए है। नदियों में तो इतना औद्योगिक कचरा/जहर घुल चुका है की उनका पानी पीने लायक तो क्या, नहाने योग्य भी नहीं रहा है। जमीन के अंदर मौजूद जल में भी जहर घुलने लगा है। परिणामस्वरूप बोतल बंद पानी ने बाजार में धाक जमा ली है। एक जमाना था जब लोग कुओं, बावड़ियों, तालाब और झरनों  के निर्मल जल से अपनी प्यास बुझा लिया करते थे, वे आज पानी की बोतल बगल में दबाकर घर से बाहर निकलते है। बोतल बंद पानी का बाजार शहरों में ही नहीं गावों में भी तेजी से पाँव पसार रहा है क्योंकि लोगों को लगता है कि नलों और कुओं का पानी गन्दा और जहरीला है और जिन्दा रहने के लिए बोतल बंद पानी ही सुरक्षित है। परिणामस्वरूप बोतल बंद पानी के कारोबार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ-साथ घरेलू औद्योगिक घराने  भी कूंद पड़े। आज बोतल बंद पानी का  कारोबार लगभग एक खरब रुपये का है जो 40 से 50 फीसदी की तूफानी रफ़्तार से बढ़ता जा रहा है। महानगरों के बड़े घरानों में और होटलों में 20 से 50 लीटर की बड़ी बोतलों में बंद पानी इस्तेमाल किया जा रहा है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि  प्रकृति से मुफ्त में मिले जल को भी महंगे दामों में खरीदना पड़  रहा है। गरीब और मध्यम वर्ग तो पानी खरीद नहीं सकते है, उन्हें तो उपलब्ध गंदे जल से ही गुजार करना पड़ रहा है। गहराता जल संकट मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा है।  वर्ल्ड इकनोमिक फोरम ने तो आसन्न जल संकट को आतंकवाद, महाविनाश के हथियारों के इस्तेमाल और विष्वव्यापी मंदी से भी ज्यादा खतरनाक करार दिया है। आज दुनियां के अनेक देशों सहित भारत के तमाम राज्यों में भी जल स्त्रोतों यथा नदियों, नहरों आदि पर कब्जे के लिए आपस में सिर फुटौवल कर रहे है।  पीने के पानी  के लिए तो जगह -जगह खून खराबा हो रहा है।  महाराष्ट्र के विदर्भ में तो पानी की किल्लत को देखते हुए धारा-144 लगा दी गई है।
आसन्न जल संकट-कौन जिम्मेदार 
         दुनियां में दो हिस्सा पानी है और एक हिस्सा जमीन, फिर भी विश्व एक भयंकर जलसंकट के मुहाने पर खड़ा है।  अमूमन धरती की सतह का अधिकांश भाग समुद्र द्वारा आच्छादित है और पृथ्वी पर पानी का विशाल भण्डार हमें दिखता भी है। परन्तु उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश या फिर छत्तीसगढ़ के रहवासियों  और किसानों को  बंगाल की खाड़ी का पानी कदाचित उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है । हालांकि प्रकृति ने इसकी निःशुल्क व्यवस्था कर रखी है। सूर्य की गर्मी से समुद्र का पानी वाष्पीकृत होकर बादलों में पहुंचता है, जो बाद में वर्षा के रूप में शुद्ध पानी हमारे स्थान पर उलब्ध हो  जाता हैं। घर पहुँच सेवा (होम डिलीवरी) की इतनी सुन्दर व्यवस्था बगैर किसी शुल्क के प्रकृति ने हमारे लिए संजोई है। परन्तु वर्षा तो कुछ माह ही होती है, जबकि पानी हमें हर समय प्रति दिन और प्रति क्षण चाहिए। जल भण्डार के लिए भी प्रकृति हमारे साथ है। परंतु मनुष्य ने अपने तात्कालिक सुख एवं स्वार्थ के लिए  प्रकृति की सुन्दर व्यवस्था को  तहस-नहस कर दिया है। जंगलों  की अंधाधुंध कटाई, ओद्योगिक  अपशिष्ट व शहरी कचरे को  नदियों में बहा कर उनके निर्मल जल को प्रदूषित कर देना, कल कारखानो के माध्यम से हाँनिकारक गैसों को वायुमण्डल में फैलाना, भू-जल का अन्धाधुन्ध दोहन, गावों  व नगरों के प्राचीन तालाब-प¨खरों  पर अतिक्रमण आदि ऐसे कारक है जिनसे प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा हैं जिसकी वजह से आज जलवायु परिवर्तन  के दुष्परिणाम देखने को मिल रहे है।  इसे विडंबना ही कहेंगे कि मंगल पर जीवन और पानी की खोज तो  की जा रही है परन्तु पृथ्वी पर पहले से मौजूद जल और  जीवन के संरक्षण-संवर्धन को लेकर चहुंओर  उदासीनता ही दिखाई देती है । अब भी समय है सँभलने का, यदि नहीं संभले तो जल-संकट के कारण ग्रह युद्ध जैसे हालात उत्पन्न हो  सकते है और इसमें कोई दो-राय नहीं कि अगला विश्वयुद्ध गहराते जल संकट की वजह से हो  सकता है ।
 प्रकृति हमे मानसून की बारिश के रूप में पानी मुफ्त में देती है। जो चीज मुफ्त मिले, देखा गया है कि इंसान उसकी कोई कदर नहीं  करता । यही कारण है कि आज बेरहमी से पानी की बर्बादी हो रही है  और जल-संसाधनों को बचाने में कोई भी खास  दिलचस्पी लेता नजर नहीं आ रहा है। सब कुछ  सरकार और सरकारी महकमें के भरोसे छोड़ दिया  कहां तक उचित है ।अपने  आस-पास देखें तो इसका सबूत अपने आप मिल जाएगा। मसलन  सार्वजनिक नलों की टोटियां भी निकाल कर ले जाते है जिससे नलों का पानी बेरोकटोक फालतू बहता रहता है। सबमर्सिबल पम्प का पाइप हाथ में लेकर चमचमाती गाड़ियां ही नहीं घर के सामने की  सड़क को धोते लोग आपको दिखाई दे जायेंगे । धरती के गर्भ से हर दिन लाखों-करोड़ों लीटर पानी बेरहमी से खींचा जा रहा है लेकिन उसकी भरपाई (रिचार्ज) करने की ओर बहुत ही कम लोगों का ध्यान है । भू-गर्भ जल के अंधाधुंध दोहन को देखते हुए स्पष्टं हैं कि अगर हम न सुधरे तो आने वाला कल भयावह होगा।
सयुंक्त राष्ट्र संघ की पहल  
       जल संकट एक विश्वव्यापी समस्या बनता जा रह है और यही वजह है की संयुक्त राष्ट्रसंघ  ने 'रियो डि जेनेरियो' में  22 मार्च 1992 को  विश्व जल दिवस मानाने का एलान किया था और 1993 से  प्रति वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जा रहा है  जिसके जरिये लोगों को जल की महत्ता, पानी बर्बाद नहीं करने और उसके संसाधनों को बचाने के लिए प्रेरित किया जाता है।

जल का किफायती उपयोग और जल सरंक्षण जरूरी   
              ऐसे समय में जब हम घटते जल संसाधनों तथा जल की बढ़ती मांग से जूझ रहे हैं, जल दक्षता बढ़ाने से ही लाभ हो सकता है। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में जल संग्रहण, प्रबंधन एवं वितरण की प्राचीन परंपराओं  पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता तो संभवतः जल को लेकर त्राहिमान की स्थिति कभी नहीं उत्पन्न होती। वर्षा जल संचयन द्वारा भूगर्भ जलस्रोतों के नवीकरण में पारम्परिक जलस्रोतों की  महत्वपूर्ण भूमिका को  पुनः अमल में लाना होगा। परम्परागत जलस्रोतों के  गहरीकरण, मरम्मत और  निरन्तर रखरखाव से कम खर्च में जल उपलब्धता को ¨ काफी हद तक बढ़ाया जा सकता हैं। भारत के विभिन्न गांवों -नगरों  में ऐतिहासिक धरोहर के तालाबों के  बेहतर रख-रखाव और  नवनिर्मित डबरियों  से क्षेत्र में अनुकूल जल प्रबंधन का महत्वपूर्ण आधार निर्मित किया जा सकता है । वास्तव में आज समग्रीकृत वाटरशैड विकास परियोजनाओं के अन्तर्गत जल-संग्रहण-संरक्षण में नए कार्यों के साथ पुराने जलस्रोतों को नवजीवन देने की ठोस कार्ययोजना के  साथ-साथ जल संग्रहण व संरक्षण के लिए जनजागरुकता व सहकारिता की भावना विकसित करनी चाहिए। वर्तमान में लगभग 80 प्रतिशत जल कृषि क्षेत्र की मांग को पूरा करता है। भविष्य में उद्योगों में तथा ऊर्जा एवं पेयजल की मांग तेजी से बढ़ने के कारण अत्यावश्यक हो गया है कि जल संरक्षण के प्रयास तेजी से और योजनाबद्ध ढंग से किए जाएं। वर्ष 2011 में शूरू किये गये राष्ट्रीय जल मिशन का उद्देश्य जल संरक्षण, जल की बर्बादी में कमी लाना तथा समतापूर्ण वितरण है। जल उपयोग दक्षता में बीस प्रतिशत की वृद्धि करना भी राष्ट्रीय जल मिशन का लक्ष्य है। इसी प्राकर राष्ट्रीय जल नीति 2012 में जल संसाधनों के उपयोग में दक्षता सुधार की जरूरत को स्वीकार किया गया है । अभी तक उपलब्ध जल की मात्रा बढ़ाने पर अधिक ध्यान दिया गया, परन्तु अब जल का कुशल उपयोग तथा उसका प्रबंधन कैसे किया जाए, पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। इस प्रकार वर्तमान जल संकट से उबरने के  लिए ‘जल संसाधन विकास’ से समेकित जल संसाधन प्रबंधन’ की दिशा में आमूल चूल बदलाव किये जाने की महती आवश्यकता है। इसके लिए जन जागरण अभियान तथा सम्यक जल नीतियों को ईमानदारी से  धरातल पर उतारना होगा । देश में बढ़ते जल संकट को लेकर सरकार को उसकी जिम्मेदारी याद दिलाने के लिए बीते  कुछ वर्ष पहले  माननीय सुप्रीम कोर्ट ने लोगों के दिल की बात कही थी कि जो सरकार लोगों को पानी नहीं दे सकती, उसे सत्ता में रहने को कोइ हक़ नहीं  है। सुप्रीम कोर्ट ने युद्ध स्टार पर अनुसन्धान के लिए वैज्ञानिकों की कमेटी भी गठित करते हुए कहा की अनुसन्धान का मुख्य मुद्दा खरे समुद्री पानी को काम से काम खर्च पर मीठे पेय जल में बदलना होगा। इसके परिणामों हम सबको प्रतीक्षा है।
कृषि में कुशल जल प्रबंधन की दरकार  
                          भारत में कृषि क्षेत्र में जल की सर्वाधिक खपत होती है। अतः कृषि में यथोचित जल प्रबंधन हमारी समग्र जल सततता के लिए आवश्यक है। इसके  लिए जल का कुशल उपयोग,  पुनर्चक्रण तथा पुनः प्रयोग की तीन-सूत्रीय कार्ययोजना को हमारे खेतों में उपयोग में लाना होगा। हमें  इजराइल जैसे देशों से सबक लेनें की जरूरत है जहाँ न्यूनतम वर्षा जल उपलब्धता के बावजूद दक्षतापूर्ण जल नीतियों और प्रौद्योगिकीय प्रगति के कारण कृषि में कुशल जल उपयोग से अधिकतम उत्पादन लिया जा रहा है।   हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के 'प्रति बूँद जल  अधिक फसल उपज' को सार्थक बनाने के लिए  हमारी वर्तमान  सिंचाई प्रणाली में बदलाव कर सिचाई की फव्वारा और टपक (ड्रिप) पद्धत्ति  के माधयम से उपलब्ध जल के कुशल  प्रयोग को भी प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। जल सुरक्षा एवं साल सरंक्षण के विभिन्न पहलुओं के बारे में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए भारत सरकार के  जल संसाधन विकास और गंगा सरंक्षण मंत्रालय ने 2015-16 के दौरान 'जल क्रांति अभियान' की शुरुआत एक अच्छी पहल है।  इस अभियान के तहत देश के 674 जिलों में जल की बेहद कमीं का सामना करने वाले गावों  (कुल 1001 गावं) का चयन  'जल ग्राम' के रूप में किया जा रहा है। जल का अधिकतम एवं सतत उपयोग सुनिश्चित करने के लिए पंचायत स्तरीय समिति द्वारा इन गावों के लिए एक एकीकृत  सुरक्षा  योजना,  जल सरंक्षण,   जल प्रबंधन एवं संबंधित गतिविधियों पर विचार किया जा रहा है। 
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