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सोमवार, 21 मार्च 2016

घातक है फसलोत्पादन में उर्वरकों का असंतुलित उपयोग

डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (सस्य विज्ञानं विभाग)
इंदिरा गांधी  कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगह)
                      माता भूमिः पुत्र¨ अहं पृथिव्याः अर्थात भूमि सबकी उत्पादक होने के  कारण मेरी माता है और  मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ।  प्राचीन समय में प्रचलित भूमि प्रबन्ध की सर्वाधिक प्रमुख बात भूमि के  साथ मातृवत व्यवहार तथा  प्रकृति तथा प्राकृतिक संघटकों  के साथ साहचर्य एवं  सहकार की भावना रही है । आज  मानव ने अपने स्वार्थ को  साकार करने मैं भूमि का अनवरत दोहन-शोषण करते हुए भूमि और  प्रकृति के  साथ स्थापित तारतम्य एवं साहचर्य को  लगभग समाप्त कर दिया है जिसके  परिणामस्वरूप जीवनदायिनी भूमि मृतपाय स्थिति में है। विगत कुछ वर्षों  से बहु-फसली सघन खेती में हमने भूमि के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों  पर प्रहार किया है। आज उच्च विश्लेषण उर्वरकों  यथा यूरिया, डाइअमोनियम फाॅस्फेट और  म्यूरेट आॅफ पोटाश का प्रचलन बढ गया है जिनसे क¢वल नत्रजन, फाॅस्फ¨रस एवं पोटाश तत्व ही फसल क¨ प्राप्त ह¨ते हैं। जबकि निम्न विश्लेषण उर्वरकों के प्रयोग से फसलों  को गौण  तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व प्राप्त होते रहते है।  दरअसल उच्च विश्लेषण उर्वरकों के लगातार प्रयोग से मिट्टी में गौण तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों  की कमी आ रही है । भारत में अमूमन 47 प्रतिशत मृदाओं  में जस्ता, 12 प्रतिशत में लोहा, 5 प्रतिशत में तांबा तथा 4 प्रतिशत मृदाओं  में मैंगनीज की कमीं है जिसका दुष्प्रभाव फसलों  की उपज एवं गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है। दलहन, तिलहन तथा अधिक उपज देने वाली फसलों  में गन्धक का प्रयोग आवश्यक होता है। यहीं नहीं भारतीय मृदाओं  में कार्बनिक कार्बन की सर्वत्र कमी (0.17 प्रतिशत) परिलक्षित हो रही हैं जिसकी वजह से हमारी अधिकांश मिट्टियाँ बीमार अर्थात अनुपजाऊ होती जा रही है। दरअसल जैविक खादें जैसे गो बर की खाद, कम्प¨स्ट, हरी खाद आदि मृदा उर्वरता बनाए रखने, उत्पादन क¨ स्थिर रखने एवं पोषक तत्वों  से सही परिणाण प्राप्त करने के  लिए आवश्यक हैं। यहीं नहीं जैविक खादें वर्तमान फसल को  लाभ पहुँचाने के  साथ-साथ आगामी फसल क¨ भी अवश¨षित प्रभाव द्वारा लाभ पहुँचाती हैं।
उर्वरकों  का समुचित एवं संतुलित प्रयोग से तात्पर्य है कि फसल की आवश्यकतानुसार सभी आवश्यक पोषक तत्व समुचित मात्रा, सही अनुपात एवं उचित समय में मृदा में उपलब्ध होना चाहिए। परन्तु रासायनिक उर्वरकों के अनुचित और  असंतुलित प्रयोग न हरित क्रांति की सफलता पर सवालिया निशान लगा दिया है। कभी हरित क्रांति आवश्यक थी परन्तु रासायनिक उर्वरकों  का अंधाधुन्ध एवं असंतुलित उपयोग के दुष्परिणाम अब स्पष्ट दिख रहे है। देश के  अनेक कृषि क्षेत्रों  में पौधों के  लिए तीन मुख्य पोषक तत्वों  यथा नाइट्रोजन, फाॅस्फ़ोरस व पोटाश का प्रयोग एक अनिश्चित अनुपात में किया जा रहा है। किसी-किसी क्षेत्र में तो  यह अनुपात 9:3:1 है । जबकि अनाज वाली फसलों  में नाइट्रोजन, फास्फेट एवं पोटाश का आदर्श अनुपात 4:2:1, दाल वाली फसलों  में 1:2:1 तथा सब्जी वाली फसलों  में यह  अनुपात 2:1:1  होना चाहिए। स्वस्थ जीवन के  लिए हम सब क¨ स्वच्छ वायु, शुद्द जल, पौष्टिक भोजन, पशुओं के लिए चारा, ईधन, आवास और  प्रदूषण मुक्त पार्यवरण की आवश्यकता होती है। ये आवश्यकताएं कहीं न कहीं आधुनिक खेती से ताल्लुक रखती है। विकास मूलक कार्यो के  लिए कृषि भूमि को  गैर कृषि भूमि में तबदील किया जा रहा है। बढ़ते शहरीकरण, आधुनिकीकरण, ओद्योगिकीकरण और  रासायनिक उर्वरकों के अन्धाधुन्ध व असंतुलित प्रयोग से उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में परिवर्तित हो  रही है जिसके  परिणामस्वरूप पारिस्थितिक असंतुलन की स्थिति पैदा हो  गई है।
रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग के दुष्परिणाम
  • बीते  कुछ दशक से देश के  अनेक राज्यों  में फसल उत्पादन बढ़ाने हेतु रासायनिक उर्वरकों  के बढ़ते प्रयोग से वायु, जल और  मृदा प्रदूषण में लगातार इजाफा हो  रहा है जिसके  फलस्वरूप मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है ।
  • रासायनिक उर्वरकों के  लगातार असंतुलित प्रयोग से कृषि भूमि का उपजाऊपन और  उत्पादकता दोनों ही  घटती जा रही है।
  •  मिट्टी में उपस्थित केंचुए और अनेक अन्य सूक्ष्मजीव वास्तव में किसानों  लिए प्रकृति प्रदत्त निःशुल्क उपहार है । ये जीव अपनी जैव क्रियाओं  से भूमि को  पोषक तत्व तो  प्रदान करते ही है, साथ ही मिट्टी क¨ भुरभुरा बनाकर उसमें धूप और  हवा के  आवागमन को  सुगम बनाते है। परन्तु रासायनिक उर्वरकों  एवं कीटनाशकों के प्रयोग से केँचुए एवं अन्य लाभ कारी जीव विलुप्त होते जा रहे है।
  • असंतुलित उर्वरक उपय¨ग में मुख्यतः नाइट्र¨जन प्रदान करने वाले अकार्बनिक उर्वरको  का प्रयोग अधिक करने से मृदा में कुछ द्वितीयक व सूक्ष्म पोषक तत्वों  की कमी होती जा रही है जिसके  परिणामस्वरूप फसलों  की गुणवत्ता और  पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
  • दलहनी फसलों  में अत्यधिक नाइट्रोजनधारी उर्वरक   प्रयोग करने या फिर अधिक उर्वरता वाली भूमि में उगाने के  फलस्वरूप जड़ों की ग्रन्थि निर्माण और  वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
  • देश के  अनेक राज्यों  जैसे पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि के  कृषि क्षेत्रों  में लगातार एक ही किस्म के  रासायनिक उर्वरकों के  अन्धाधुन्ध प्रयोग  के  परिणामस्वरूप उपजाऊ भूमि का बड़ा भू भाग तेजी से लवणीय, क्षारीय और  अम्लीय भूमि मेें तबदील ह¨ता जा रहा है।
  • रासायनिक उर्वरकों  एवं कीटनाशकों के  अनुचित एवं बेखौफ  इस्तेमाल  से भूमिगत जल, नदियाँ और सरोवरों  का जल प्रदूषित होता जा रहा है, साथ ही फसल  उत्पादों में इन रसायनिकों की विषाक्तता भी बढ़ती जा  रही है। 
  •  रसायनिक उर्वरकों के अवशेष जैसे नाइट्रेट आदि  भोज्य पदार्थों के माध्यम से शरीर में पहुंच जाते है जिससे खतरनाक बीमारियां होने का अंदेशा बना रहता है। 
  • उर्वरकों से निकलने वाली ग्रीन  हाउस गैस (नाइट्रस ऑक्साइड ) वायुमंडल में उपस्थित ओजोन परत को नष्ट करती है। ओजोन परत सूर्य से निकलने वाली खतरनाक उलटरता वॉयलेट किरणों को रोकने में मदद करती है।  अल्ट्रा वॉयलेट किरणों की वजह से मनुष्यो में त्वचा कैंसर हो जाता है।  

                  कुछ कृषक खेती में उर्वरक का उपयोग तो  करते है किंतु एक या दो  तत्व से संबंधित उर्वरक को  भूमि में मिलाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है। इस प्रकार से उर्वरक देने से उस तत्व विशेष की तो  भूमि में प्रचुर मात्रा उपलब्ध हो  जाती है परन्तु अन्य तत्वों  की कमीं से मृदा में पोषक तत्वों  का संतुलन अस्त-व्यस्त हो  जाता हैं । उदाहरण के  लिए यदि हम मृदा में सिर्फ यूरिया का उपयोग लम्बे समय तक करते रहें तो  मृदा में नत्रजन तो  पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहेगी किंतु फाॅस्फोरस, पोटाश, गंधक आदि तत्वों  की कमी हो  जाती हैं जिससे मृदा का स्वास्थ बिगड़ता है एवं फसल का उत्पादन निसन्देह घट जाएगा। चंद जागरूक किसान भूमि में नाइट्रोजन, स्फुर एवं पोटाश युक्त उर्वरक का प्रयोग भरपूर मात्रा में करते हैं परन्तु अन्य गौड़  एवं सूक्ष्म तत्वों  जैसे कैल्शियम, सल्फर, मैग्नीशियम, जिंक आदि की मृदा में उपलब्धता पर ध्यान ही नहीं देते है जिससे इन तत्वों  की कमी के  लक्षण फसल पर दिखते हैं। ऐसे में भरपूर मात्रा में उर्वरक देने पर भी फसल उत्पादन के  परिणाम निराशाजनक आते  हैं। इसी प्रकार से तिलहनी फसलों के  लिए सल्फर आवश्यक पोषक तत्व है जिसकी तेल निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका  होती होती  हैं। मूंगफली फसल में पुष्ट फल्लियों  एवं दानों के  विकास में सल्फर के  अलावा कैल्शियम तत्व की आवश्यकता होती है। धान-गेंहू फसल चक्र वाली भूमियों  में मुख्य पोषक तत्वों के  अलावा कुछ सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जिंक की कमीं देखी जा रही हैं। अतः खेत में उर्वरता का संतुलन इस प्रकार किया जाए कि फसल मांग एवं आवश्यकता के  अनुसार  पौधों को  जरूरी पोषक तत्व उपलब्ध होते रहें, जिससे अधिक से अधिक उपज प्राप्त हो सके और  मृदा स्वस्थ एवं सुरक्षित बनी रहें। वास्तव में स्वस्थ्य  मृदा उसे कहते है जिसमें जल धारण एवं निष्कासन, पोषक तत्वों  की समुचित उपलब्धता, पौधों  की बढवार एवं विकास की क्षमता, लाभकारी जीव-जन्तुओं  युक्त भूमि है जो  विभिन्न सस्य क्रियाओं के  प्रति अनुक्रियाशील हो ।

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