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सोमवार, 3 अप्रैल 2017

वर्षा निर्भर क्षेत्रों में कुटकी लगायें फसल सघनता बढायें

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

धान्य कुल अर्थात पोएसी कुल में जन्मी  कुटकी (पेनीकम सुमाट्रेन्स) एक ऐसी अनोखी  फसल है जिसे सूखा और जल भराव जैसी विषम परिस्थितियों और कम उपजाऊ भुमिओं  में न्यूनतम खर्चे में आसानी से उगाया जा सकता है . संभवतः यही वजह है जिसके  कारण इसे गरीबों की फसल कहा जाता है । वास्तव में कम समय में तैयार होने वाली यह एक पौष्टिक लघु धान्य फसल हैं जिसकी खेती के बाद शीघ्र तैयार होने वाली रबी फसले भी उगाई जा सकती है।  पौष्टिकता के मान से कुटकी के 100 ग्राम दानों  में 8.7 ग्राम प्रोटीन, 75.7 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 5.3 ग्राम वसा, 8.6 ग्राम रेशा के अलावा खनिज तत्व, कैल्शियम एंव फॉस्फोरस  प्रचुर मात्रा में पाए जाते  है। भारत में तमिलनाडू, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, मध्यप्रदेश एंव छत्तीसगढ़ राज्यों के असिंचित क्षेत्रों में कुटकी की खेती प्रचलित है। छत्तीसगढ़ के बस्तर व बिलासपुर संभाग में कुटकी को कोसरा या चिकमा के नाम से जाना जाता है।
कुटकी एक शीघ्र पकने वाली फसल है। अतः असिंचित अवस्था में भी द्वि-फसली खेती के लिए यह एक आदर्श फसल है।  इसकी खेती उच्चहन भूमि में एकफसली के रूप में की जाती है। अतः इसके साथ दलहनी एंव तिलहनी फसलों (अरहरउड़दसोयाबीनतिल) की अन्तर्वर्तीय या मिश्रित खेती अपनाकर अतिरिक्त लाभ लिया जा सकता है। जून में बोई गई फसल अगस्त में तैयार हो जाती है। इसके बाद कुल्थीरामतिलतोरियाअरण्डीआदि की खेती सुगमता से की  जा सकती है।

मृदा एंव भूमि तैयारी

          कुटकी की खेती उचित जल निकास वाली भारी दोमट एंव रेतीली भूमियों में की जा सकती है। फसल के लिए भूमि का पीएच मान 5.5 से 7.5 के बीच उपयुक्त रहता है। हल्की क्षारीय तथा लवणीय भूमि में भी इसकी खेती की जा सकती है। छत्तीसगढ़ के बस्तर की मरहान (पथरीली व कंकड युक्त, कम उपजाऊ) तथा टिरा(ढालू व रेतीली ) भूमियों में कुटकी उगाई जाती है। बगैर बंधान या हल्के बंधान वाले  खेत कुटकी के लिए अधिक उपयुक्त रहते है। मानसून की पहली वर्षा के साथ खेत की तैयारी करना चाहिए। इसके लिए देशी हल या ट्रेक्टर से खेत की दो बार आड़ी-खड़ी जुताई करके पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए।

उन्नत किस्में

          कुटकी की स्थानीय किस्मों की अपेक्षा उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग करने से अधिक उपज ली जा सकती  है।
जवाहर कुटकी-1: इस किस्म का  बीज हल्का काला होता है। यह किस्म 75 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसत 8 से 10 क्विंटल/ हेक्टेयर उपज क्षमता है।
टी.एन.ए.यू.-63: यह 90-95 दिन में तैयार होने वाली किस्म है जो कि औसतन 10-12 क्विंटल/ हेक्टेयर पैदावार देती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए उपयुक्त रहती है।
जवाहर कुटकी-2: इसके दाने गोल, पीले रंग के होते हैं। पौधा 90 से 95 से. मी. ऊँचा व सीधा होता है। यह जाति 75 से 80 दिन में पककर तैयार होती है। औसत पैदावार 10 क्विंटल/ हेक्टेयर हैं।
जवाहर कुटकी-8: इसका दाना हल्का भुरे रंग का होता है। पौधे की ऊँचाई 80 से. मी. तथा 8 से 9 कल्ले निकलते हैं। यह 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10 से 12 क्विंटल/ हेक्टेयर है।
तारिनी (ओएलएम-203): यह अधिक उपज देने वाली (12-15 क्विंटल/ हेक्टेयर.) किस्म है जो कि 85-95 दिन में तैयार हो जाती है। झुलसा रोग प्रतिरोधी किस्म है।
उपरोक्त किस्में मध्य प्रदेश में खेती हेतु  उपयुक्त पाई गई है .
पीआरसी-3: यह किस्म 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता औसतन 6-7 क्विंटल/ हेक्टेयर है।
आईजीएल-4: यह किस्म 70-75 दिन में पक कर तैयार होती है। इसकी उपज क्षमता औसतन 7-8 क्विंटल/ हेक्टेयर हैं।
आईजीएल -10: यह किस्म 75-80 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। इसकी उपज क्षमता औसतन 7-8 क्विंटल/ हेक्टेयर है।
          कुटकी की उपरोक्त तीनों  किस्में छत्तीसगढ़  की मरहान एंव टिकरा भूमियों के लिए उपयुक्त पाई गई हैं।

बोआई का समय

          कुटकी शीघ्र पकने वाली फसल है। मानसून के आगमन के साथ इसकी बोआई जून के प्रथम पखवाड़े से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक कर देनी चाहिए। देर से बोआई करने पर इसके उत्पादन में कमी आती है।

बीज व बोआई

          अच्छे अंकुरण प्रतिशत वाले स्वस्थ बीज कतार बोनी हेतु 6-8 किग्रा. तथा छिड़कवाँ विधि से बोनी करने के लिए 8-10 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है। मिश्रित फसल की बीज दर कतारों के अनुपात पर निर्भर करती है जो कि शुद्ध फसल से कम रहती है। कोदो की फसल में बीज जनित व मृदा जनित रोगों का प्रकोप होता है। फसल की रोगों से सुरक्षा के लिए बाविस्टीन 2 ग्राम प्रति किग्रा. बीज से उपचारित कर बोना चाहिए।
          आमतौर पर किसान  कुटकी की बोआई छिटककर या बिखेरकर करते  है। इस विधि से बीजान्कुरण एकसार नहीं होता है जिसके फलस्वरूप पर्याप्त पौध संख्या ना होने के कारण उन्हें उपज कम मिलती है। अतः कुटकी की बेहतर उपज के लिए बोनी कतार विधि से  ही करनी चाहिए। इसका बीज छोटा, गोल एंव चिकना होता है अतः एक सार बोआई के लिए एक भाग बीज को 20 भाग रेत या भुरभुरी गोबर की खाद के साथ  मिलाकर बुआई करना अच्छा रहता है । कतार बोआई हेतु दो कतारों के बीच 22-25 सेमी. की दूरी रखना चाहिए। कतार में पौध -से -पौध के बीच 8-10 सेमी. का फसला रखना उचित रहता है। बोआई के बाद हल्का पाटा चलाकर बीज को ढँक देना चाहिए। बोआई के 15-20 दिनों बाद पौध विरलीकरण कर पौधों के मध्य वांछित दूरी स्थापित की जा सकती है।

खाद एंव उर्वरक

          आमतौर पर कुटकी में खाद व उर्वरकों का प्रयोग किसान नहीं करते हैं। परंतु अन्य फसलों की तरह इसे पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है जिनकी पूर्ति हेतु खाद एंव उर्वरक देना आवाश्यक होता है और तभी अच्छा उत्पादन प्राप्त हो सकता है प्रति हेक्टेयर 10 किग्रा. नत्रजन, 10 किग्रा, स्फुर एंव 10 किग्रा. पोटाश  बोआई के समय देना लाभकारी पाया गया है। इसके अलावा बोआई के एक माह बाद (फसल में कल्ले बनते समय) 10 किग्रा./हे. नत्रजन निंदाई के पश्चात् देना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

          वर्षा ऋतु की फसल होने के कारण कुटकी की फसल को भी खरपतवारों द्वारा क्षति होती है । इन पर नियंत्रण पाने के लिए बोआई के 20-25 दिनों बाद एक निंदाई करनी चाहिए। फसल अंकुरण पूर्व 2 किग्रा.एट्राजीन (50 प्रतिशत घुलनशील पावडर) को 600-700 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़कने से खरपतवारों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

कटाई एंव गहाई


          कुटकी की फसल 75-110 दिनों में पक जाती है। जब नीचे की पत्तियाँ सूखने लगे तथा निचली पत्तियाँ पीली पड़ने लगे तब कटाई करनी चाहिए। जून में बोई गई फसल अगस्त में पक जाएगी, अतः मौसम खुला होने पर शीघ्र ही काट लेना चाहिए। अधिक पकने पर कुटकी के दाने झड़ते हैं एंव चिडियाँ क्षति पहुँचाती हैं। अतः कटाई का कार्य समय पर करना आवश्यक है। कटाई के बाद फसल को अच्छे से सुखाकर गहाई करना चाहिए। दानों को धूप में सुखाकर भण्डारित करना चाहिए। कुटकी की अच्छी फसल से 8-10 क्विंटल/हेक्टेयर दाना  उपज प्राप्त की जा सकती है।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

सृष्टि की प्रथम खाद्यान्न फसल कोदों से ऐसे लें भरपूर उत्पादन


डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

          खाद्यान्न फसलों में कोदों (पेस्पैलम स्कोर्बिकुलेटम) भारत का एक प्राचीन अन्न है जिसे ऋषि अन्न का दर्जा प्राप्त है । ऐसा माना जाता है की जब महर्षि विश्वामित्र जब  स्रष्टि की रचना कर रहे थे तो सबसे पहले उन्होंने कोदों अन्न की उत्पत्ति की थी. यह एक जल्दी पकने वाली सबसे अधिक सूखा अवरोधी आदिवासी प्रिय फसल है. यह गरीबों की फसल मानी जाती है क्योकि इसकी खेती अनउपजाऊ भूमियों में बगैर खाद-पानी के की जाती है। इसके दानो का इस्तेमाल चावल की तरह उबालकर  खाने में किया जाता है। इसके दाने में 8.3 प्रतिशत प्रोटीन, 1.4 प्रतिशत वसा, 65.9 कार्बोहाइड्रेट तथा 2.9 प्रतिशत राख पाई जाती है। मधुमेह के रोगियों के लिए चावल  व गेहूँ के स्थान पर कोदों अन्न  विशेष लाभकारी पाया गया है।
भारत में कोदो पैदा करने वाले राज्य महाराष्ट्र, उत्तरी कर्नाटक, तमिलनाडु के कुछ भाग, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ पश्चिम बंगाल के कुछ भाग, बिहार, गुजरात एंव उत्तर प्रदेश है।  कोदो की खेती अधिकतर असिंचित क्षेत्रों में, खरीफ के मौसम में की जाती है। इसके बाद रबी के मौसम में कम पानी चाहने वाली फसलें जैसे, जौ मसूर, सरसों चना, अलसी आदि ली जा सकती है। सिंचाई की सुविधा होने पर गेहूँ की फसल भी ली जा सकती है। कोदों को धान, ज्वार, मक्का, अरहर ऊपरी खेतों में सावाँ, रागी के साथ मिलाकर भी बोया जा सकता है। हल्की भूमियों में तिल के साथ और भारी भूमियों में अरहर, ज्वार आदि के साथ कोदो को उगाया जा सकता है।

उपयुक्त जलवायु

          उष्ण एंव समशीतोष्ण जलवायु वाले देशों में कोदों की खेती होती है। भारत में इसकी खेती खरीफ के मौसम में की जाती है। इस फसल के लिए 40-50 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त रहते है। इसमें सूखा सहने की अच्छी क्षमता होती हैं।

भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी

          कोदों की खेती के लिए दोमट तथा हल्की दोमट भूमियाँ उपयक्त रहती हैं।कंकरीली -पथरीली भूमियों में भी कोदो की खेती की जाती है। अच्छी उपज के लिए उचित जल निकास वाली ऊँची भूमि सर्वोत्तम रहती है। खेत को एक बार मिट्टि पलटने वाले हल से तथा 2-3 बार देशी हल या कल्टीवेटर से जोत कर तैयार कर लेना चाहिए। जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।

उन्नत किस्मों का चयन 

          कोदों की उन्नत किस्मों की औसत उत्पादन क्षमता 17-22 क्विंटल/हेक्टेयर के मध्य है। जबकि स्थानीय किस्मों की उत्पादकता 10 क्विंटल/हेक्टेयर से भी कम होती है। अतः उपज के लिए अग्र लिखित उन्नत किस्मों के बीज का उपयोग करना आवश्यक होता है।
जवाहर कोदों: बीज भूरे रंग का तथा पकने की अवधि ल्रभग 110-120 दिन है। इस जाति की पैदावार लगभग 20 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।
जवाहर कोदो-2: इसके बीच का रंग भूरा होता है। यह किस्म 110-115 दिनों में पककर तैयार होती है। इसकी औसत उपज 13 क्विंटल प्रति हे. है।
जवाहर कोदो-41: इसके दाने का रंग हल्का भूरा होता है। यह 105 से 108 दिन में पककर तैयार होती है तथा औसत पैदावार 20 क्विंटल/हेक्टेयर है।
जवाहर कोदों-62: यह किस्म 95 से 100 दिन में पककर तैयार होकर  औसतन उपज 22 क्विंटल/हेक्टेयर उपज देती है। यह किस्म सामान्य वर्षा वाले क्षेत्र तथा कम उपज वाली भूमि  के लिए उपयुक्त है।
जवाहर कोदों-101: इसके पौधों की ऊँचाई 60 सेमी. होती है। यह जाति 100 दिन में पककर तैयार होती हैै। दाना भूरा और बड़ा होता हैै। इसकी औसत पैदावार 20 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।
जवाहर कोदों-46: दानों का रंग हल्का कत्थई होता है। पकने की अवधि 100-105 दिन है। इसकी औसत पैदावार 15-17 क्विंटल/हेक्टेयर है।
जवाहर कोदों-364: इसके बीज गाढे भूरे या चाकलेट रंग के होते हैं। इसकी पैदावार 15-17 क्विंटल/हेक्टेयर है।
जे. के.-76:  यह मात्र 85 दिन में पकने वाली किस्म है। इसकी उपज 8-10 क्विंटल/हेक्टेयर होती है। 
उपरोक्त किस्मे मध्य प्रदेश में खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है। 
जीपीयूके-3: कोदो की यह किस्म 100 दिन में तैयार होती है जो कि 20-22 क्विंटल/हेक्टेयर उत्पादन देने में सक्षम है।
आईसीसीके-737: यह किस्म 95-10 दिन में तैयार होती है तथा औसतन 20-25 क्विंटल/हेक्टेयर उपज क्षमता है।
          कोदों की उपरोक्त दोनों किस्में छत्तीसगढ़  की हल्की पथरीली भूमियों के लिए उपर्युक्त है।

बोआई का समय

          कोदों प्रमुख रूप से खरीफ ऋतु की फसल है। जून के अंतिम सप्ताह से लेकर मध्य जुलाई तक, जब खेत में पर्याप्त नमी होकोदों की बोआई कर देनी चाहिए। अगेती बोनी करने से रबी की फसल के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है।

बीज एंव बोआई

          कोदों की फसल में बीज जनित एंव मृदा जनित रोगों का प्रकोप होता है। फसल की रोगों से सुरक्षा क लिए मोनोसान 5 ग्राम या सेरेसान 2 ग्राम, प्रति किग्रा. बीज के हिसाब से उपचारित कर बीज बोना चाहिए। कोदो की बोआई छिटककर या बिखेरकर की जाती है। विधि से अंकुरण एक-सा नहीं होता हैं तथा उपज कम मिलती है। अधिकतम उपज के लिए बोनी कतार में ही करना चाहिए। कतार बोनी में 8-10 किग्रा. और छिडकवाँ विधि में 10-12 किग्रा. प्रति हे. बीज लगता है। बीज को 40-45 सेमी. की दूरी पर बनी पंक्तियों मंे हल के पीछे कूड़ में या फिर सीड ड्रिल द्वारा बोना चाहिए। बीज से बीज की दूरी 8-10 सेमी. रखी जाती है जो कि बोआई के 15-20 दिन बाद पौध विरलीकरण करके प्राप्त की जा सकती है। बीज बोने की गहराई लगभग 3 सेमी. रखना चाहिए। कोदो का बीज छोटा, गोल एंव चिकना होता है, अतः बीज को 20 भाग रेत या गोबर की सूखी एंव भुरभुरी खाद के साथ मिलाकर बोआई करना चाहिए। अन्तर्वर्तीय या मिश्रित फसल लेने पर कोदो की बीज दर, कतारों के अनुपात पर निर्भर करती है जो कि शुद्ध फसल से कम होती है।

खाद एंव उर्वरक

          आमतौर पर किसानकोदों में खाद एंव उर्वरकों का प्रयोग कम करते हैं, जिससे उत्पादन भी कम प्राप्त होता है। कोदो की अच्छी फसल लेने के लिए 40 किग्रा. नत्रजन , 20 किग्रा. फाॅस्फोरस व 20 किग्रा. पोटाॅश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है। इन उर्वरकों को बोआई से पहले खेत में छिड़ककर मिला देना चाहिए। यदि गोबर की खाद या कम्पोस्ट उपलब्ध हो, तो 5-7 टन प्रतिहे. अंतिम जुताई के समय खेत में मिला देना चाहिए। जैविक खाद देने पर उर्वरकों की मात्रा आधी कर देनी चाहिए।

सिंचाई एंव जल निकास

          कोदों वर्षा ऋतु की फसल है, अतः इसे अलग से सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। अवर्षा की स्थिति में 1-2 सिंचाई देने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है। इस फसल की खेती के लिए खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था कर लेनी चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

          कोदों को भी अन्य फसलों की भाँति खरपतवारों से हानि होती है। बोआई के 20-25 दिन पश्चात् पहली और 45-50 दिन बाद दूसरी निंदाई करनी चाहिए। खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण हेतु एट्राजीन (50 प्रतिशत घुलनशील पाउडर) 2 किग्रा. /हे. को 800 लीटर पानी में घोलकर अंकुरण पूर्व छिड़कना चाहिए।

कटाई - मड़ाई

          कोदों की फसल 90-110 दिन (सितम्बर-नवम्बर) तक पककर तैयार हो जाती है। उचित समय पर कोदो की कटाई करना आवश्यक रहता है। अधपके अवस्था में इस फसल की कटाई करने पर कोदो के बीजों में विषैले पदार्थ की मात्रा अधिक रह जाती है। कटाई योग्य कोदो की फसल की पत्तियाँ सूखकर भूरी हो जाती हैं एंव दाना काला व कठोर हो जाता है। इस अवस्था में कोदो के दानों में 15-17 प्रतिशत नमी होती जो कि भण्डारण हेतु उपयुक्त नहीं मानी जाती है। अतः पूर्ण रूप से पकी हुई फसल की बालियाँ काट लेते हैं अथवा सम्पूर्ण पौधों की कटाई करके एक सप्ताह तक धूप में सुखाना चाहिए। इसके पश्चात् हाथ से पीटकर या बैलों की दांय  चलाकर मड़ाई की जाती है। तत्पश्चात् ओसाई कर दाना भूषा  अलग किया जाता है।

उपज एंव भण्डारण

          कोदों की अच्छी फसल से 10-20 क्विं. प्रति हे. पुआल या भूसा प्राप्त होता है। दानों को अच्छी तरह सुखाकर नमी का अंश 10-12 प्रतिशत होने पर नमी रहित स्थान पर अच्छी तरह भंडारित करना चाहिए। 

सावधानी से करें कोदों अन्न का इस्तेमाल: कोदों के दाने तथा पुआल कुछ विशेष दशाओं में विषैलापन उत्पन्न करते है। जिससे दाने भोजन के योग नही रहा जाते हैं। अतः ध्यान रखें कि दाने खूब पके हुए हों और कम से कम 6 माह पुराने गोदाम में रखे हुए हों, तभी खाने हेतु प्रयोग करना चाहिए। अधिक नमी की अवस्था में केादो भंडारण से विष उत्पन्न होता है। यदि वर्षा या बदली के समय इसकी कटाई की गई हो अथवा भण्डारण के समय दानों में  अधिक नमी होने पर इनमें विषैलापन उत्पन्न हो जाता है। यदि कोदो के भंडारण में किसी प्रकार नमी का प्रवेश हो जाता है तब इसमें सड़न की क्रियायें आरंभ हो जाती हैं। परिणामस्वरूप टोमेन नामक विष उत्पन्न हो जाता है। ऐसी दशा में भंडार गृह में प्रवेश करने या ऐसे विषैले अन्न का भोजन करने से मानव स्वास्थ को भारी क्षति अथवा मृत्यु तक हो सकती है।
कोदों का चारा मवेशिओं  के लिए हानिकारक : इसका पुआल घटिया किस्म का होता है। अतः इसे पशु चाव से नहीं खाते हैं। घोड़ों के लिए इसका भूसा विषयुक्त होता है। इसलिए घोड़ो को इसका चारा-भूसा नहीं दिया जाना चाहिए ।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

रविवार, 2 अप्रैल 2017

पौष्टिक हरे चारे के लिए आदर्श फसल है लोबिया

डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर,
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
          लोबिया या बरबटी (विगना साइनेनसिस) लेग्यूमिनोसी कुल की दलहनी फसल है जिसकी खेती मुख्यतः सब्जी, दाल और चारे के लिए की जाती है। खरीफ में इसे ज्वार, बाजरा या मक्का फसल के साथ अंतः फसल के रूप में उगाया जाता है।  यह   सिंचित क्षेत्रों में  गर्मी मे बोई जाने वाली चारे की महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। असिंचित स्थानों मे इसे वर्षा ऋतु मे बोया जाता है। फसल चक्र में लोबिया का महत्वपूर्ण स्थान है क्योकि इससे कम अवधि में उच्चकोटि का हरा चारा प्राप्त होता है, साथ ही दलहनी फसल होने के कारण यह भूमि की उर्वरता भी बढ़ाती हे। इसके हरे चारे को अच्छे गुणो वाली हे एवं साइलेज के रूप मे संरक्षित किया जा सकता हे। लोबिया के चारे मे 14-20 प्रतिशत प्रोटीन, 8-12 प्रतिशत पाच्य प्रोटीन एवं 60-65 प्रतिशत कुल पचनीय पोषक तत्व पाये जाते हैं। इसे जुआर, बाजरा और मक्का के साथ मिलाकर मवेशियो को खिलाना फायदेमंद पाया गया है । लोबिया से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन लेने के लिए आधुनिक शस्य विधियाँ इस ब्लॉग में प्रस्तुत है
जलवायु एवं भूमि
          लोबिया ग्रीष्म एवं वर्षा ऋतु में उगाई जाने वाली फसल है। इसकी जलवायु सम्बन्धी आवश्यकताएँ मक्का और ज्वार जैसी हैं। मक्का की अपेक्षा सूखा और गर्मी सहन करने की क्षमता लोबिया में अधिक है। इसके बीज 14 से 15 से नीचे तापक्रम पर अंकुरित नहीं हो पाते हैं। पाले एवं कम तापक्रम का वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। उचित जलनिकास वाली दोमट, चिकनी दोमट और काली मिट्टी मे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है परन्तु बलुई दोमट या दोमट मिट्टी काफी उपयुक्त पायी जाती है।
खेत की तैयारी
          लोबिया के लिए खेत की बहुत तैयारी नहीं करनी चाहिए है। खेत की दो या तीन जुताई करना पर्याप्त होती है। इसके लिए भूमि की ऊपरी सतह तैयार करनी चाहिए।
उन्नत किस्में
          चारे वाली लोबिया की उपयुक्त प्रमुख किस्मों की विशेषताएँ निम्नानुसार हैं -
1. रसियन जाइन्ट: यह फैलने वाली किस्म है। तना लम्बा एवं पत्तियाँ बड़ी होती हैं। शुद्ध फसल के लिए उपयुक्त है। औसतन 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चार प्राप्त होता है।
2. यू.पी.सी. 5286: यह सिंचित और असिंचित अवस्थाओ में खरीफ एव जायद ऋतुओ मे उगाने के लिए आदर्श किस्म है। इसकी फसल अवधि 140-150 दिन है, फलियाँ चटकती नहीं हैं। इसकी कटाई 50 प्रतिशत पुष्पावस्था में करने पर औसतन 350-380 क्विंटल/हे. हरा चारा देती है।
3. यू.पी.सी.5287: यह किस्म बोने के लगभग 55-65 दिन बाद फूल तथा फलियाॅं बननेकी अवस्था में पहुंच जाती है। हरे चारे की औसत उपज 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
4. सी.26: पीला मोजैक निरोधक किस्म ग्रीष्म ऋतु के लिए उपयुक्त है। हरे चारे की औसत उपज 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आती है
5. ई.सी. 4216: यह मध्यम समय मे पकने वाली किस्म है। उपज 350 क्विं/हे. हरा चारा।
6. यू.पी.सी. 9020: यह अगेती (60-65) किस्म है। हरे चारे की उपज 400 क्विं/हे.।
7. एच.एफ.सी. 42-1: यह किस्म मिश्रित फसल के रूप में उगाने के लिए अधिक उपयुक्त है। शुद्ध फसल से 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा मिलता है।
8. बुन्देल लोबिया - 1: कीट एवं रोग प्रतिरोधी  इस किस्म  से हरे चारे की उपज 250-320 क्विं/हे. प्राप्त हो सकती है ।
9. बुन्देल लोबिया - 2: यह लीफ मोजैक वाइरस प्रतिरोधी किस्म है। औसतन 220-350 क्विं/हे. हरा चारा देती है।
          इनके अलावा इगफ्री एस-450 व इगफ्र एस-457 (बीज के लिए भी उपयुक्त) तथा चारे के लिए इगफ्री ए-978, सिरसा-10, जवाहर लोबिया-1, जवाहर लोबिया-2 किस्में भी लगाई जा सकती है।
बीज एवं बोआई
          सामान्य रूप से असिंचित क्षेत्रों में इसे वर्षा के प्रारंभ में बोया जाता हैं और सिचिंत क्षेत्रो में इसे मार्च से जून के बीच मे बोया जा सकता है। बोआई से पहले बीज को 2.5 ग्राम थीरम प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए आमतौर पर इसकी बोनी छिटकवां विधि से की जाती है। परन्तु कतारो में र्बोआ करना अधिक लाभप्रद रहती है। इसके लिए कतारों से कतारो की दूरी 30 से 40 सेन्टीमीटर तथा पौध से पौध की दूरी 8 से 10 सेंटीमीटर रखना चाहिए साधारणतः लोबिया की शुद्ध फसल के लिए बीज दर 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं मिश्रित फसल के लिए 10-15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोया जाता है। छिटकवां विधि से बोने पर बीज अधिक लगता है।
उर्वरक प्रबंधन 
          लोबिया की अच्छी फसल के लिए प्रति हेक्टेयर 20-30 किलोग्राम नत्रजन तथा 40 से 60 किलोग्राम स्फुर की आवश्यकता पड़ती है। इन दोनों उर्वरकों को मिलाकर बुआई के समय या उससे दो दिन पहले खेत मे डालना चाहिए।
सिंचाई एवं जल निकास
          मार्च से अप्रैल के बीच बुवाई करने पर 8 से 10 दिन के अंतर पर सिंचाई की आवश्यकता होती है। पहली सिचाई बुवाई के 10 दिन बाद की जानी चाहिए खरीफ फसल में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। अधिक बरसात होने पर खेत में जल निकास की आवश्यकता पड़ती है।
निंदाई-गुड़ाई 
          खरपतवारों को निकालने के लिए फसल में अंकुरण के 15 दिनो के अंदर एक बार निंदाई-गुड़ाई करना पर्याप्त होता हे। इसके पश्चात् लोबिया की अच्छी बढ़वार व फैलाव के कारण खरपतवार नियंत्रित रहते हैं।
कटाई एवं उपज

          सामान्यतः चारे के लिए लोबियो की कटाई बोने के 60-70 दिन बाद एव बीज के लिए बुवाई के 90-100 दिन बाद करते हैं। लोबिया की ग्रीष्मकालीन फसल की कटाई दो बार की जा सकती है जबकि वर्षाकालीन फसल की केवल एक ही कटाई की जाती है। रशियन जाइन्ट किस्म में पहली कटाई बुआई के 50 दिन बाद और दूसरी कटाई पहली कटाई के 40 दिन बाद करते हैं। पहली कटाई भूमि की सतह से 10-15 सेमी. ऊपर से करनी चाहिए जिससे अगली कटाई के लिए बढ़वार शीघ्र व अच्छी हो सके। फूल बननेकी अवस्था मे कुल पाचनशील तत्व अधिक मात्रा में पाये जाते हैं अतः कटाई फुल आते समय की जानी चाहिए। दाने वाली फसल को फलियों के पूर्ण रूप से पक जाने पर ही काटना चाहिए। हरे चारे की उपज गर्मी की ऋतु में 200 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा वर्षा ऋतु में बोई गई फसल मे 250 से 350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है। सामान्य दशा में 8-10 क्विंटल प्रत हेक्टेयर औसत बीज उत्पादन मिल जाता है।

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पशुपालन के लिए वर्ष भर हरा चारा देने वाली उत्कृष्ट फसल नेपियर घास

डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,रायपुर (छत्तीसगढ़)

गन्ने की भांति दिखने वाली नेपियर घास (पेनीसेटम परप्यूरियम) पोएसी (ग्रेमिनी) कुल की सदस्य है। अधिक ऊंची होने के कारण इसे हाथी घास भी कहते है। पशुओ को वर्ष भर हरा चारा देने वाली अत्यधिक उत्पादन क्षमता वाली संकर नेपियर बाजरा बहुवर्षीय घास है। इस घास में बाजरे के आदर्श गुण जैसे रसीलापन, घनी पत्तियाँ, शीघ्र बढ़वार, उच्च प्रोटीन व शर्करा प्रतिशत के अलावा तेज  बढ़वार जैसे गुण नैपियर में विद्यमान रहते हैं। नेपियर घास का चारा स्वादिष्ट व पौष्टिक होता है। इसके चारे में औसतन 15-20 प्रतिशत शुष्क पदार्थ तथा 8 से 10 प्रतिशत प्रोटीन होता है। इसके चारे की पाचनशीलता 50-70 प्रतिशत होती है। संकर  नेपियर घास, सामान्य नेपियर घास (हाथी घास) से अधिक पौष्टिक एवं उत्पादक होती है। दुधारू पशुओं को लगातार यह घास खिलने से दुग्ध उत्पादन में वृद्धि के साथ साथ उनमे रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होती है।  इस घास को एक बार लगाने के बाद 4-5 वर्ष तक लगातार हरा चारा प्रदान करती है।  इस घास को सभी प्रकार की भूमिओं और खेत की मेड़ों पर सुगमता से लगाया जा सकता है। 
जलवायु एवं भूमि
          गर्म तथा आर्द्र जलवायु वाले क्षेत्र अर्थात् जहाँ तापमान ऊँचा (25 डिग्री सेल्सियस से अधिक), वर्षा अधिक और वायुमण्डल में आर्द्रता की मात्रा अधिक हो, खेती के लिए उपयुक्त रहते हैं। इसकी बढ़वार के लिए मार्च से सितम्बर की अवधि बहुत अनुकूल रहती है। इसकी खेती के लिए 150 सेमी. 200 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र सर्वोत्तम है। अत्यन्त शीतल मौसम होने पर (20 डिग्री सेल्सियस से नीचे) इसकी वृद्धि बिल्कुल बन्द हो जाती है पाले से नेपियर को बहुत हानि पहुँचती  है। फसल कम तापक्रम में सर्दियों में 2-3 माह तक सुषुप्तावस्था में रहती है। गन्ने की तरह उत्तरी भारत की जलवायु बीज बनने के लिए उपयुक्त नहीं है। जनवरी-फररी में फूल आते हैं पर बीज नहीं बनते। इसलिए नैपियर का प्रशारण वानस्पतिक विधि से किया जाता है। 
          यह घास उत्तम जल निकास वाली सभी प्रकार की भूमि पर उगाई जा सकती हैं। परन्तु दोमट या बलुई-दोमट मिट्टी सर्वोत्तम मानी जाती है।  धान के खेतों की मेड़ पर नेपियर स्थापित करने से पशुओं को हरा चारा उपलब्ध कराया जा सकता है। शुष्क व अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में जहाँ सिंचाई की सुविधा है इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।
          इसकी बुआई के लिए खेत को अच्छी तरह तैयार कर लेना चाहिए। इसके लिए मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करके बखर द्वारा मिट्टी को महीन एवं भुरभुरा बना लेना चाहिए। घास लगाने से पहले खेत को समतल किया जाना चाहिए एवं खरपतवार नहींहोने चाहिए।
उन्नत किस्में
          नेपियरकी देशी किस्मों की अपेक्षा उन्नत किस्मों से अधिक उपज एवं गुणवत्तयुक्त चारा प्राप्त होता है। इसकी उन्नत किस्मों मे पूसा जायन्ट, एन-बी-21, शक्ति, संकर 12 आई.जी.एफ.आर.आई.-3 6,7 आदि प्रदेश के लिए उपयुक्त है संकर किस्मो का बीज बाँझ होता है। इनके एक झुँड में 40-50 तक कल्ले बनते हैं। नेपियर की प्रमुख संकर किस्मों की विशेषताएॅं यहंाॅं प्रस्तुत की जा राही हैं -
1. पूसा जायन्ट: इस किस्म का विकास पेनीसेटम परप्यूरियम तथा पेनीसेटम टाइफोइडियम (अफ्रीकन बाजरा) के संकरण द्वारा किया गया। यह किस्म नेपियर घास की अपेक्षा उत्तम गुणों वाला दो गुना अधिक चारा देती है साधारण नेपियर घास की तुलना में इसमें 25 प्रतिशत अधिक प्रोटीन और 12 प्रतिशत अधिक शर्करा पायी जाती है। और वृद्धि की सभी अवस्थाओं में इस किस्म का तना अधिक रसीला, मुलायम तथा कम रेशेदार होता है चारा अधिक मुलायम तथा पत्तीदार होता है। 
2. एन.बी.-21(नेपियर संकर बाजरा): यह भी संकर किस्म है जिसके पौधे लम्बे, शीघ्र बढ़ने वाले तथा अधिक कल्ले युक्त होते हैं तने पतले तथा रोये रहित होते है। पत्तियाँ लम्बी, पतली तथा चिकनी होती है। प्रथम कटाई बोने के लगभग 50 दिन बाद की जा सकती है। इसके बाद मुख्य वृद्धि मौसम मे 35-40 दिन के अन्तराल पर कटाईयाँ करते हैं। सर्दी मे पौध वृद्धि धीमी हो जाती है एक वर्ष में गभग 160 से 200 टन प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त होता है।
          नेपियर की अन्य किस्मों में इंडियन ग्रासलैड एण्ड फोडर रिसर्च इंस्टीट्यूट, झांसी (उ.प्र.) द्वारा विकसित इगफ्री-6 (हरे चारे की उपज 120-130 टन/हे.) इगफ्री-3 (हरे चारे की उपज 110-120 टन/हे.), इगफ्री-7(हरे चारे की उपज 130-160 टन/हे.) तथा यसवन्त (हरे चारे की उपज 130-140 टन/हे.) है जो कि अन्तर्वर्तीय खेती के लिए उपयुक्त है। इनके अलावा इन.बी.37, को.-1 , को.-2, को.-3 किस्में भी अधिक उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। 
बोआई/रोपाई  का समय
          इस घास की बोआई वर्षाधीन क्षेत्रों में मानसून आने पर जून-जुलाई मे तथा सिंचित क्षेत्रो में फरवरी के द्वितीय सप्ताह से लेकर अगस्त तक की जा सकती है। फरवरी-मार्च (बसन्त ऋतु) का समय बोआई के लिए सबसे उत्तम है। मैदानी क्षेत्रों मे नेपियर की बोआई अधिक ठन्डे दिनों को छोड़कर वर्ष भर की जा सकती है।
बीज एवं बोआई
          नेपियर घास का प्रसारण वानस्पतिक विधि द्वारा होता है। इसके लिए भूमिगत तने जड़ो के टुकड़े या तनो के टुकड़ो का उपयेाग किया जाता है।  बोआई से पूर्व तना या राइजोम को छोटे-छोटे टुकड़ों मेंकाटा जाता है। जिससे कि प्रत्येक टुकड़े मे कम-से-कम 2 स्वस्थ कलियाँ अवश्य उपस्थित हों। बोआई 7-8 सेमी. की गहराई पर करते हैं। एक हेक्टेयर  रोपाई हेतु 40,000-45,000 टुकड़ों की आवश्यकता होती है। 
नेपियर को निम्न विधियों द्वारा तैयार खेत में लगाया जाता हैं।
1. कूड़ों में बोआई: जब खेत में पर्याप्त नमी रहती है, उस समय हल द्वारा 60-90 सेमी.की दूरी पर कूड़ बना कर उसमे 50-60 सेमी. के अन्तर पर टुकड़े बिछा दिये जाते हैं। इसके पश्चात् पाटा चलाकर टुकड़ो की आवश्यकता होती है। 
2. टुकड़ों को 45 अंश के कोण का गाड़ना: तैयार खेत मे रस्सी द्वारा कतारें आर-पार बना ली जाती है। पंक्तियों से पंक्तियो की दूरी 90-100 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 60 सेमी. तक रखी जाती है। इनके कटान बिन्दुओं पर 45 अंश के कोण पर टुकड़े इस प्रकार गाड़े जाते हैं कि टुकड़े की एक कली भूमि के अन्दर रहती है जो जड़ उत्पन्न करती है तथा दूसरी कली भूमि के ऊपर रहती है जो हवाई शाखाएँ उत्पन्न करती है। टुकड़े लगाने के पश्चात् जड़ के पास की मिट्टी को अच्छी तरह दबाने के तुरन्त पश्चात् सिंचाई कर देते हैं। बाद में कूड़ों पर मिट्टी चढ़ाकर मेंड़ बना दी जाती है।
खाद एव उर्वरक
          उर्वरक घास अधिक उपज देने वाली घास है, इसलिए प्रचुर मात्रा में खाद देने की आवश्यकता होती है। नेपियर के लिए 8 से 10 टन गोबर की खाद बुआई के 2 से 3 सप्ताह पहले खेत में डालकर मिट्टी में मिला देनी चाहिए। रोपाई के समय 40-50 किलो नत्रजन तथा 60-80 किलो स्फुर तथा 20-30 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए। बाद में 40 किलो नत्रजन प्रति हेक्टेयर हर कटाई के बाद डालने से फसल की पुर्नवृद्धि तेज होती है और उत्पादन भी अच्छा मिलता है। प्रयोगा से ज्ञात हुआ है कि संकर नेपियर के साथ दलहनी चारा फसल उगाने पर 15 किग्रा.नत्रजन/कटाई/हे. देने से सर्वाधिक उपज प्राप्त होती है।
सिंचाई एवं जल निकास
          नेपियर लगाने के तत्काल बाद खेत मे पानी लगाना आवश्यक रहता है। गर्मियों में मार्च से जून तक फसल की सिंचाई 8-10 दिन के अंतर पर करनी चाहिए। सर्दी के मौसम में फसल को 15 से 20 दिन के अंतर पर पानी देना चाएिह। इसके अतिरिक्त प्रत्येक कटाई बाद पानी देना आवश्यक है। पानी भरे खेतो मे पौधे मर जाते हैं। अतएव खेत मे जल निकास का समुचित प्रबन्ध होना चाहिए।
निराई-गुड़ाई
          नेपियर घास रोपने के 15 दिन बाद अन्धी गुड़ाई करनी चाहिये। प्रत्येक कटाई के बाद दो कतारों के बीच देशी हल या कल्टीवेटर द्वारा गुड़ाई करने से भूमि की जलधारण क्षमता में वृद्धि होने के साथ साथ खरपतवार की समस्या नही रहती है इससे पुरानी जड़ों की छँटाई भी हो जाती है जिससे नई जड़ों का विकास एवं प्रसार होता है। अतः फसल बढ़वार अच्छी होती है।
फसल पद्धति
          वर्ष पर्यन्त हरा चारा प्राप्त करने के लिए नेपियर के साथ सहफसली या अन्तर्वर्ती खेती लाभदायक रहती है। अतः मिश्रित खेती में नेपियर घास की दो कतारों के मध्य खरीफ में लोबिया या ग्वार तथा रबी में बरसीम या लूर्सन उगाया जाता है। इससे उपज व उसकी गुणवत्ता और पाचनशीलता में सुधार होता है। नेपियर घास मे आक्सेलिक अम्ल रहता है जो कि पशुओं के लिए हानिकारक पाया गया है परंतु नेपियर चारे के साथ दलहर चारो को मिलाकर खिलाने से इस दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है। संकर नेपियर + बरसीम-लोबिया फसल चक्र से एक वर्ष में 200 टन हरा चारा तथा 52 टन सूखा चारा प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
कटाई एवं उपज

          सामान्य तौर पर नेपियर घास प्रथम कटाई के लिए रोपाई  के लगभग 50-60 दिन पश्चात् तैयार हो जाती है तथा इसके बाद 35-45 दिन के अन्तराल से अन्य कटाईयाॅं करना चाहिए। पौधे लगभग जमीन से 8-10 सेंटीमीटर की ऊँचाई से इसे चारे के लिए काटना चाहिए। एक बार उगाई गई फसल 3-4 वर्ष तक अच्छा चारा दे सकती है इस घास को 1-1.5 मीटर ऊँचाई पर ही काट लेना चाहिए। अधिक बढ़ने पर कटाई करने से पौधे सख्त हो जाते हैं और चारा अधिक रेशेदार हो जाता है, जिससे पशु उसे कम खाते हैं। सामान्य अवस्थाओं में नेपियर घास से प्रतिवर्ष 6-8 कटाईयाॅं मिल जाती है। जिससे लगभग 150 से 200 टन हरा चारा (संकर किस्मों से) प्राप्त किया जा सकता है।

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।