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गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

हरी खाद:भूमि की सेहत सुधारे और उपज बढ़ायें

 डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)  
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

भारत में हरित क्रांति के दौरान और उसके पश्चात फसलोत्पादन बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक मात्रा में प्रयोग हुआ है तथा जीवांश वाली खादों जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट और हरी खाद का उपयोग लेश मात्र किया जा रहा है। रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से तात्कालिक रूप से पोषक तत्वों की पूर्ती तो हो जाती है परन्तु भूमि के भौतिक और जैविक गुणों का सर्वनाश हो जाता है। उर्वरको को बेतरतीब और असंतुलित मात्रा में प्रयोग से भूमि की उत्पादक क्षमता में तेजी से गिरावट देखी जा रही है।भारत में मृदा उर्वरकता एवं उत्पादकता बढ़ाने में  जैविक खादों का  प्रयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है। सधन कृषि पद्धति के अन्तर्गत  नगदी फसलों की खेती को बढ़ावा देने से भूमि की अन्तर्गत क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चिय ही कमी आई लेकिन बढ़ते ऊर्जा संकट, उर्वरकों के मूल्यों में बृद्धि तथा गोबर की खाद एवं अन्य कम्पोस्ट जैसे कार्बनिक स्रोतों की सीमित आपूर्ति से आज हरी खाद का महत्व और बढ़ गया है।  यदि हरी खाद का प्रयोग करें तो निश्चित रूप से भूमि की भौतिक दशा में सुधार के साथ साथ भूमि की उर्वरा और उपजाऊ शक्ति बढ़ाकर किसान गुणवत्ता युक्त फसलोत्पादन अधिक मात्रा में प्राप्त कर सकते  है।
क्या है हरी खाद ?
मृदा उर्वरता को बढ़ाने के लिए समुचित हरे पौधों को उसी खेत में उगाकर अथवा अन्य कहीं से लाकर खेत में मिला देने की प्रक्रिया को हरी खाद देना कहते है। दुसरे शब्दों में   अविच्छेदित अर्थात् बिना गले-सड़े हरे पौधों अथवा उनके भागों को जब मृदा की नाइट्रोजन या जीवांश की मात्रा बढ़ाने के लिए खेत में दबाया जाता है तो इस क्रिया को हरी खाद देना कहते हैं। फसलें, जो मृदा में जीवांश पदार्थ की मात्रा स्थिर  रखने अथवा बढ़ाने के लिए उगाई जाती है, हरी  खाद की फसलें कहलाती हैं तथा उनका सस्य -क्रम में प्रयोग हरी खाद देना कहलाता है।

हरी खाद की फसल के आवश्यक  गुण

हरी खाद की फसल का मुख्य उद्देश्य भूमि को जीवांश पदार्थ प्रदान करना होता है। इसके लिए आवश्यक है कि हरी खाद के लिये जो फसल बोई गई है वह अधिकाधिक वृद्धि करे ताकि भूमि को ज्यादा से ज्यादा जीवांश पदार्थ प्राप्त हो। हरी खाद की फसल में कुछ विशेष गुणों का होना अति आवश्यक होता है। ये विशेष गुण इस प्रकार से हैं-
  • हरी खाद वालीफसल  कम समय में अधिकतम  वृद्धि करने वाली हो जिससे कम समय में मृदा को ज्यादा से ज्यादा कार्बनिक पदार्थ प्राप्त हो सकें.
  • फसल दलहनी कुल की होना चाहिए क्योंकि इस कुल के पौधों की जड़ो में पाई जाने वाली ग्रन्थियों में उपस्थित बैक्टेरिया वायुमंडल की स्वतन्त्र नाइट्रोजन को मृदा में स्थिर करते है .
  •  फसल की जड़ें भूमि में गहराई तक जाने वाली हो ताकि वे पोषक तत्वों और नमीं को अधोमृदा से निकालकर ऊपर लाने में सक्षम हो सकें.
  •  फसल की जल और  पोषक तत्वों की माँग तुलनात्मक रूप से कम हो।
  • फसल  विपरीत जलवायुविक  परिस्थितियों को सहन करने की क्षमता रखती हों।
  • फसल बीमारीयों तथा कीट-पंतगों के आक्रमण को सहन करने की क्षमता रखती हो।
  • फसल ऐसी हो जिसे कम उपजाऊ मृदा में भीआसानी से  उगाया जा सके और उसकी जल मांग भी कम होना चाहिए। 
  • खाद्यान्न फसल चक्र में  उसका उचित स्थान होना चाहिए। फसल  कम देख रेख में  शीघ्र तैयार होने वाली होना चाहिए। 
  • फसल भूमि को अधिक मात्रा में जीवांश पदार्थ और नाइट्रोजन  प्रदान  करने वाली  हों।
  • फसल बहुद्देश्यीय होना चाहिए  जैसे - चारा, खाद, रेशा, आदि

हरी खाद देने विधियां

भारत के विभिन्न भागों में मृदा एवं जलवायु की परिस्थितियों में  में  हरी खाद देने की अलग अलग विधियाँ अपनाई जाती है। उत्तरी  भारत में अमूमन  उन्ही खेतों में हरी खाद वाली फसलें लगाई जाती है जिनमे खाद देनी होती है जबकि पूर्वी और मध्य भारत में कभी कभार मुख्य फसल के साथ ही हरी खाद वाली फसल भी लगाईं जाती है। दक्षिण  भारत में खेत की मेड अथवा तालाबों के किनारे हरी खाद वाली फसलों को उगाकर अथवा अन्य जगहों से पेड़ पौधों की पत्तियों और शाखाओं को काटकर खेत में मिला दिया जाता है। इस  प्रकार हरी खाद देने के ढंग को दो वर्गों में विभाजित किया गया है। 
हरी खाद की स्थानिक विधि: इस विधि में हरी खाद की फसल को उसी खेत में उगाया जाता है। जिसमें हरी खाद का उपयोग करना होता है। यह विधि समुचित वर्षा अथवा सुनिश्चित सिंचाई वाले क्षेत्रों में अपनाई जाती है। इस विधि में फूल आने से पूर्व वानस्पतिक बृद्धिकाल (45-60 दिन) में मिट्टी में पलट दिया जाता है। मिश्रित रूप से बोई गई हरी खाद की फसल को उपयुक्त समय पर जुताई द्वारा खेत में दवा दिया जाता है।
हरी पत्तियों की हरी खादः इस विधि में हरी खाद की फसलों की पत्तियों एवं कोमल शाखाओं को तोडकर खेत में फैलाकर जुताई द्वारा मृदा में दवाया जाता है। व मिट्टी में थोडी नमी होने पर भी सड़ जाती है। यह विधि कम वर्षा वाले क्षेत्रों के लिए  उपयोगी होती है।
हरी खाद के लिए प्रयोग होने वाली फसलें 
खरीफ की  फसलें - सनई, ढैचा,मूगँ मोठ, उर्द,लोबियाआदि। 
रबी की फसलें - सेजी, मटर, बरसीम, खिसारी, मसूर,  मेंथीआदि। 
विभिन्न फसलों द्वारा मृदा को प्रदान की गई हरे पदार्थ और नाइट्रोजन की मात्रा
फसल का नाम
मौसम
हरे पदार्थ की मात्रा (टन/हे.)
नाइट्रोजन का प्रतिशत
भूमि को प्राप्त नाइट्रोजन (किग्रा/हे.)
सनई
खरीफ
20-30
0.43
86-129
ढैंचा
खरीफ
20-26
0.42
84-105
उड़द
खरीफ
10-12
0.41
41-49
मूंग
खरीफ
8-10
0.48
38-48
गूआर
खरीफ
20-25
0.34
68-85
लोबिया
खरीफ
15-18
0.49
74-88
सैंजी
रबी
26-29
0.51
120-135
खिसारी
रबी
12.5 
0.54
66
बरसीम
रबी
16
0.43
60

हरी खाद का महत्व/हरी खाद के लाभ

हरी खाद वाली फसलें भूमि की उर्वरता बढ़ाने और भूमि की भौतिक दशा सुधारने में महत्वपूर्ण योगदान देती है।हरी  खाद के प्रयोग से निम्न लिखित लाभ प्राप्त होते है। 
मृदा में जीवांश पदार्थ में बढ़ोत्तरी: मृदा में बड़ी मात्रा में  हरे पदार्थो को मिलाने से कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ती है। मौसम और प्रबंधन के अनुसार  अलग -अलग फसलें प्रति वर्ष 40-100 किग्रा./हे.  नत्रजन  मृदा में बढ़ाती है।  दरअसल दलहनी फसलों की जड़ों में पाया जाने वाले राइजोबियम जीवाणुओं द्वारा वातावरण की स्वतन्त्रत नत्रजन का भूमि में  स्थिरीकरण होता है, जिससे फसल को नत्रजन तत्व उपलब्ध होता है। 
पोषक तत्वों का संरक्षण: खाली पड़ी/परती  भूमि की अपे़क्षा यदि इनमे  हरी खाद की फसल उगाई जाये तो पोषक तत्वों को  उद्धिलन  द्वारा होने वाली  हानियों से बचाया जा सकता है क्योकि ये पोषक तत्व खेत में खड़ी फसल के द्वारा अवशोषित कर लिये जाते है तथा जब फसल  को हरी खाद के लिए खेत में दबाते है तो  जीवांश पदार्थ का विच्छेदन  होकर पुनः अगली फसल को पोषक तत्व  प्राप्त हो जाते है।
पोषक तत्वों की उपलब्धता में वृद्धि:हरी खाद की फसलें जब भूमि में दबायी जाती हैं तो इनके विच्छेदन के बाद अनेक कार्बनिक और अकार्बनिक  अम्ल पैदा होते हैं। ये अम्ल पोषक तत्वों जैसे - कैल्शियम, मैग्नीशियम, फास्फोरस तथा पोटाश  आदि की घुलनशीलता को बढ़ातें हैं जिससे  पौधों को इनकी  उपलब्धता बढ़ जाती है।
मृदा सतह का संरक्षण :हरी खाद की अधिकांश फसलों की वानस्पतिक तथा जड़ों की वृद्धि अधिक होने के कारण ये एक तरह से मृदा को आच्छादन प्रदान करती है।इन  फसलों की जड़ों में  मृदा कणों को अपने साथ कुछ हद तक बाँधे रखने की क्षमता  होती है। अतः मृदा कटाव की सम्भावना  नहीं रहती  है तथा मृदा कटाव में बह कर जाने वाले पोषक तत्वों का भी संरक्षण होता है। अतः हरी खाद वाली फसलें  अप्रत्यक्ष रूप से भूमि की उर्वरता को कायम रखने में मदद करती है।
जैविक प्रभाव:हरी खाद के इस्तेमाल से भूमि में अनेकलाभदायी  जीवाणु क्रियाशील हो जाते हैं।भूमि में अनेक जैविक क्रियाओं जैसे-कार्बनडाई आक्साइड , अमोनिया , नाइट्राइट, नाइट्रेट  वअन्य पदार्थो के  विच्छेदन में  इन्ही जीवाणुओं की क्रियाशीलता से मदद मिलती  है। इसके आलाव वातावरण की स्वतन्त्र नाइट्रोजन व भूमि में स्थिरीकरण की क्रिया भी इन्ही जीवाणुओं के सहयोग से संपन्न  होती है। 
खतपतवार नियंत्रण: हरी खाद की फसल तीव्रगति से  वृद्धि करके खरपतवारों को प्रकाश, जल,पोषक तत्वों आदि की उपलब्धता कम कर देती है जिससे  खरपतवारों की वृद्धि और विकास अवरुद्ध हो जाता है। अप्रत्यक्ष रूप से खरपतवारों द्वारा होने वाली पोषक तत्वों की हानि को भी हरी खाद कम  करती है।
मृदा संरचना में सुधार:हरी  खाद से प्राप्त जीवांश पदार्थ से हल्के गठन वाली मिट्टियों  तथा चिकनी भूमियों की संरचना में सुधार होता  है । इस प्रकार भूमि की  जल धारण क्षमताऔर पोषक तत्वों की उपलब्धता  बढ़ती है तथा वायु संचार में भी वृद्धि होती  है। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से मृदा  की उर्वरता में सहयोग होता है।
क्षारीय एंव लवणीय भूमियों का सुधार: हरी खाद की फसल भूमि में मिलने के बाद अनेकप्रकार के  अम्ल पैदा  करती  हैं जो क्षारीयता को कम करने में मददगार होती  हैं और मृदा से  वाष्पीकरण को रोक कर भी इस तरह की भूमियाँ बनने में रोकती है। अतः अप्रत्यक्ष रूप गैर उर्वर  भूमियों को उर्वर और उपजाऊ  बनाने में मदद करती  है।


नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

बुधवार, 19 अप्रैल 2017

सतत हरा चारा उत्पादन से सफल पशु पालन

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

भारत में श्वेत क्रांति की सफलता में चारा फसलों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।  पशुधन को स्वस्थ और उनकी उत्पादन क्षमता बनाये रखने के लिए हरे चारे का विशेष योगदान है। सूखे चारे (भूषा, कड़वी, पुआल आदि) से पशुओं को आवश्यक पोषक तत्व नहीं मिल पाते है। हरा चारा रसदार, सुपाच्य और पौष्टिक होता है जिसे सभी पशु चाव से खाते है।  हरे चारे में प्रोटीन, विटामिन्स, रेशा और खनिज लवण पर्याप्त मात्रा में पाए जाते है जो की पशुओं के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक रहते है।  देश में कुल कृषि योग्य भूमि के लगभग 5.2 प्रतिशत क्षेत्र (लगभग  8.34  मिलियन हेक्टेयर) में चारा उत्पादन किया जा रहा है, जिससे केवल 40-50 प्रतिशत पशुओं को ही हरा चारा उपलब्ध हो पा रहा है। सीमित कृषि भूमि होने के कारण हमें  चारा फसलों के अन्तर्गत उपलब्ध जमीन  से ही  प्रति इकाई अधिकतम चारा उत्पादन बढाने के प्रयास करना होगे। इसके अलावा खाद्यान फसल पद्धति में चारा फसलों के समावेश से अतिरिक्त चारा उत्पादन लिया जा सकता है। साथ ही  उपलब्ध चारा संसाधन के बेहतर रख रखाव से भी चारे की उपलब्धता को बढाया जा सकता है। देश में हरा चारा उत्पादन और उपलब्धतता बढाने हेतु अग्र प्रस्तुत रणनीत कारगर साबित हो सकती है। 
  •         चारा  फसलों की खेती में  उन्नत किस्मों के उच्च गुणवत्ता युक्त बीज का इस्तेमाल करना चाहिए।  
  •        चारा फसलों की सस्तुत उत्पादन तकनीक से चारा फसलों की खेती करना चाहिए। 
  •     शीघ्र तैयार होने वाली चारा फसलों यथा सरसों/सूर्यमुखी/सल्जम) का चयन करें तथा उपयुक्त फसल चक्र अपनाना चाहिए। 
  •       अन्तः फसली खेती में दलहनी फसलों का समावेश करे जिससे चारे की गुणवत्ता बढ़ने के साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति भी बढती है। 
  •      कुल कृषि योग्य रकबे के 15-20 % क्षेत्र में बहुवर्षीय चारा फसलें जैसे नेपिएर घास/गिनी घास लगाये ताकि  पशुओं को वर्ष भर हरा चारा उपलब्ध होता रहें। 
  •  .    खेत/प्रक्षेत्र की मेंड़ो पर दलहनी कुल के चारे वाले वृक्षों/झाडियो का रोपण करें जिससे आपात काल के दौरान पशुओं को हरा चारा प्राप्त हो सकें। 
  •     चारे वाली फसलों की सही अवस्था में कटाई करें जिससे मवेशिओं को अधिकतम पोषक तत्व उपलब्ध हो सकें। 
  •  .    आवश्यकता से अधिक चारा उत्पादन को ‘हे’ या ‘सायलेज’ के रूप में सरंक्षित करने के उपाय करना चाहिए ताकि आपात काल में पशुओं को पौष्टिक चारा उपलब्ध हो सकें। 
  •   .   हरे चारे को मशीन से काटकर कुट्टी के रूप में जानवरों को खिलाना चाहिए जिससे चारे की बर्वादी नहीं होगी साथ ही कुट्टी शीघ पचनीय होती है .

                                        चारे वाली फसलें/वृक्ष
    1.   एक वर्षीय चारा फसलें  :  (अ) दलहनी-बरसीम, लुसर्न, लोबिया, गुआर आदि। 
                                      (ब) घास कुल-ज्वार, बाजरा, मक्का, जई, जई आदि। 
                                      (स) अन्य चारे- सरसों, सल्जम, सोयाबीन, सूर्यमुखी आदि। 
    2. बहुवर्षीय चारा फसलें  :    (अ) घांस: संकर नेपियर बाजरा, गुनी घास, पारा घास आदि। 
                                      (ब) चारागाह घास-नंदी घास, अंजन घास मार्वल घास आदि। 
                                      (स) चारागह दलहनी घास- स्टायलो, सिराट्रो आदि। 
                                      (द) वृक्ष/झाड़ियाँ-सूबबूल, सिरिस,खेजरी, शेवरी आदि। 

महत्वपूर्ण चारा फसलें

ज्वार

ग्रीष्मकाल और वर्षा ऋतु में उगाई जाने वाली घास कुल की चारा फसलों में ज्वार सबसे महत्वपूर्ण चारा फसल है जिसकी खेती ठन्डे पहाड़ी क्षेत्रो को छोड़कर सम्पूर्ण भारत वर्ष में प्रचलित है।  इसमें अत्यधिक सूखा और अधिक वर्षा सहन करने की अद्भुत क्षमता पाई जाती है।  ज्वार की एकल, दो और बहु कटाईया देने वाली किस्मे उपलब्ध है जो की एक से छः कटाईयों में 50 से 100 टन/हेक्टेयर हरा चारा उत्पादित करने की क्षमता रखती है।  ज्वार फसल के पौधों में  प्रारंभिक अवस्था में प्रूसिक एसिड नामक जहरीला पदार्थ पाया जाता है, इसलिए चारे के लिए इसकी कटाई फसल में 50% पुष्पन होने पर अथवा पुष्पन से पूर्व फसल में सिंचाई देकर करने की सलाह दी जाती है।  ज्वार की उन्नत किस्मों में एम्.पी.चरी, पीसी-6,पीसी-9, पीसी-23, एचसी-308, एसएसजी-898, सीओएफएस-29, पन्त चरी-5, पन्त चरी-6, यशवंत, रुचिरा  आदि है। 

बरसीम

यह शीत ऋतू (रबी) की प्रमुख दलहनी चारा फसल है  जिसकी खेती बिहार, हरियाणा, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में बहुतायत में की जाती है।  इस फसल से नवम्बर से मई तक 6-7 कटाईयां  ली जा सकती है जिससे 70-100 टन/हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त हो सकता है।  इसका चारा स्वादिष्ट, सुपाच्य  और पौष्टिक होता है जिसमे 20% क्रूड प्रोटीन पाया जाता है।  दलहनी फसल होने के कारण यह भूमि में वतावरणीय नाइट्रोजन स्थिर करती है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति बढती है।  
बरसीम की उन्नत किस्में जेबी-1,2,3, बीएल-22, मेस्कावी, जेएचबी-146,वरदान, बुन्देल बरसीम  आदि है। 

लुसर्न (रिजका)

चारे की रानी के नाम से प्रसिद्ध लुसर्न हरे चारों में  बरसीम व ज्वार के बाद सबसे अधिक लोकप्रिय फसल है।  इसकी खेती शीत ऋतु में गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में की जाती है . इस फसल से नवम्बर से जून तक 7-8 कटाईयों  में 60-80 टन/हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त हो जाता है . इसके चारे में लगभग 20 % क्रूड प्रोटीन पाया जाता है।  लुसर्न से उत्तम गुणवत्ता वाला ‘हे’ बनाया जा सकता है।  लुसर्न की उन्नत किस्मे आनंद-2, आनंद लुसर्न-3, आरएल-88 है . 

लोबिया

लोबिया एक  दलहनी फसल है जिसकी खेती ग्रीष्म और वर्षा ऋतू में सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है।  देश के ठन्डे पहाड़ी इलाकों को छोड़कर सभी राज्यों में लोबिया दाना-सब्जी-चारा फसल के रूप में उगाई जाती है।  यह शीघ्र बढ़ने वाली और कटाई के बाद तेजी से पुनर्वृद्धि करने वाली फसल है।  इसका हरा चारा मुलायम और पौष्टिक होता है जिसे पशु चाव से खाते है।  ज्वार, बाजरा और मक्का के साथ मिश्रित फसल के रूप में इसकी खेती करने से गुणवत्ता युक्त चारा मात्रा में प्राप्त किया   सकता है। लोबिया की एकल फसल से 30-50 टन/हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त होता है।  लोबिया से बेहतरीन गुणवत्ता का  ‘हे’ और ‘साइलेज’ तैयार कर आपातकालीन समय में जानवरों को खिलाया जा सकता है।  
लोबिया की प्रमुख उन्नत किस्में-यूपीसी-5286,ईसी-4216, यूपीसी-5287, यूपीसी-628, आईएफसी-8401, श्वेता  आदि है । 

जई

यह घास कुल की शीत ऋतु में उगाई जाने वाली फसल है जिसकी खेती मुख्यतः बिहार, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में की जाती है। इसकी बढ़वार अच्छी होती है और कटाई पश्चात पुनर्वृद्धि तेजी से होती है। इसका हरा चारा मुलायम और पचनीय होता है .इससे औसतन 30-50 टन/हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त होता है। इससे उत्तम किस्म का ‘हे’ और ‘साइलेज’ बनाया जा सकता है। 
जई की उन्नत किस्मे केंट,यूपीओ-212, ओ एस-6, ओएस-7, जेएचओ-822, जेएचओ-851 और आरओ-19 आदि है। 

मक्का

मक्का ग्रीष्म, वर्षा और शरद ऋतु में उगाई जाने वाली सबसे उपयुक्त घास कुल की फसल है. इसका हरा चारा पौष्टिक होता है जिसमे  कार्बोहाईड्रेट बहुतायत में पाया जाता है।  इससे लगभग 30-40 टन हरा चारा प्राप्त होता है . इसके हरे चारे से उत्तम गुणवत्ता वाला साइलेज तैयार किया जा सकता है।  
प्रमुख उन्नत किस्मे-अफ्रीकन टाल, जे-1006, विजय कम्पोसिट, मंजरी,प्रताप मक्का चरी आदि। 

फसल चक्र : चारे वाली फसलों के उपयुक्त फसल चक्र अपनाने से न केवल भूमि की उत्पादकता में वृद्धि होती है वल्कि वर्ष पर्यंत हरे चारे की उपलब्धता भी सुनिश्चित होती है।  चारे वाली फसलों के कुछ महत्वपूर्ण फसल चक्र यहाँ दिए जा रहे है :

                         फसल चक्र                                      हरा चारा उत्पादन (टन/हे/वर्ष)
1.   हा.नेपियर बाजरा-लोबिया-बरसीम+सरसों                285
2.   मक्का+लोबिया-मक्का-लोबिया-जई-मक्का+लोबिया          165
3.   मक्का+लोबिया-राइस बीन-बरसीम+सरसों                 110
4.   हाइब्रिड नेपियर बाजरा+ग्वार-लुसर्न                        250
5.   ज्वार+लोबिया-मक्का+लोबिया-मक्का+लोबिया             110
6.   एम.पी.चरी-लोबिया-बरसीम+सरसों-ज्वार+लोबिया    168

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मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

पानी है अनमोल-समझो इसका मोल

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय रायपुर (छत्तीसगढ़)

जल सभी जीवधारियों के लिए नितांत जरूरी है।  पेड़-पौधे भी अपना भोजन जल के माध्यम से ग्रहण करते है।  इसलिए जल ही जीवन है कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं है।  प्रत्येक जीवधारियों की कोशिकाओं में 90% से भी ज्यादा जल की मात्रा होती है।  शारीर की समस्त क्रियाएं जल के माध्यम से ही संपन्न होती है। धरती की 75% सतह जलमग्न है।  जल कृषि ही नहीं अपितु उद्योग, कल कारखानों के लिए भी अत्यावश्यक आदान है। पृथ्वी को जलीय-गृह कहा जाता है।  धरती के तापमान को सामान्य बनाए रखने में जल का बहुत बड़ा योगदान है, अन्यथा पृथ्वी पर तपिस इतनी बढ़ जाएगी की जीव धारियों का रहना कठिन हो जाएगा।  जल हमें अनेको रूप में प्राप्त होता है।  जल का सामान्य रूप द्रव है।  यह वायुमंडल में भाप के रूप में होता है, ध्रुवों में बर्फ के रूप में होता है तथा कभी-कभी यह ओस-ओला, कोहरा तथा पाले के रूप में भी हमें  दिखाई देता है।  दक्षिण गोलार्द्ध में 81 % जल तथा 19 % स्थल है उत्तरी गोलार्द्ध में 54% जल तथा 46% स्थल है।  जल को हम पांच तरीकों से जान सकते है-महासागरीय जल, अंतर्द्विपीय जल, वायु मंडलीय जल, जैवमंडलीय जल तथा भूमिगत जल . महासागरीय जल स्वाद में नमकीन होता है।  प्रति किलोग्राम पर इसमें लवणता औसतन 35 ग्राम होती है .क्योंकि सूरज की गर्मी महासागरों के जल पर निरंतर पड़ती रहती है, इसलिए वाष्पीकरण की क्रिया भी लगातार होती रहती है जिसमे जल सदैव उड़ता रहता है।  इस प्रकार सागर के जल में लवणों की अधिकता हो जाती है।
भारत में लगभग 80% जल कृषि में सिंचाई हेतु प्रयोग किया जाता है परन्तु जल की लगातार घटती उपलब्धता के कारण कृषि क्षेत्र के लिए उपलब्ध जल पर दबाव बढ़ रहा है और ऐसी संभावना है की वर्ष 2025 तक कुल शुद्ध जल का मात्र 63% भाग ही कृषि उपयोग के लिए मुहैया हो पायेगा।  ऐसे में खाद्यान्न उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है यानी जल के साथ साथ भोजन की भी किल्लत हो सकती है।  भारत में जहाँ 1951 में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धतता 5177 घन मीटर हुआ करती थी वह 2011 में घटकर 1545 घन मीटर रह गई है। इस प्रकार बीते 60 वर्षों में जल उपलब्धता में लगभग 70 % की गिरावट दर्ज की गई जो की हम सब के लिए चिंता और चिंतन का विषय है।  
यह सही है कि प्रकृति ने दिल खोलकर, उदारतापूर्वक हमें पानी का वरदान दिया है यानि प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध कराया है।  एक अध्ययन के अनुसार हमारे देश में प्रति वर्ष वर्षा के रूप में 4000 बीसीएम पानी बरसता है जिसमे से हम औसतन 600 बीसीएम का ही उपयोग कर पाते है, जाहिर है कि बाकी सब पानी  व्यर्थ बह जाता है।  इसे यूं समझना आसान होगा कि बादलों से 4000 बूंदे गिरती है जिसमें से हम 600 बूंदों का इस्तेमाल कर पाते है।  इसका सीधा तात्पर्य यह हुआ कि प्रकृति ने पानी देने में तो कोई कंजूसी नहीं बरती, हम ही उसे सहेजने-संवारने में असफल साबित हो रहे है। 
हकीकत तो यह है कि हमने पानी की कीमत को कभी नहीं पहचाना, उसका सही मोल नहीं किया। माल-ए-मुफ्त, दिल-ए-बेरहम की लय पर पानी को बहाते रहे, खुले हाथों खर्च करते रहे, उसे बचाने-सहेजने की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया।  हम पानी की इज्जत करना भूल गए और क्रमशः उस अवस्था में पहुंच गए जहां पानी की कमीं ने हमारे चेहरों का पानी उतारकर हमारी रंगत बिगाड़ दी  है। धरती का सीना चीरकर लगातार  बेखौफ पानी निकालने से हमारा भूजल पाताल की ओर चला जा रहा है और यदि यही स्थिति रही तो एक दिन धरती की कोख सूख जाएगी।  हम तो नवीन  प्रौद्योगिकी के बल पर कुछ समय तक  जल प्राप्त कर लेंगे।  लेकिन पृथ्वी को प्राणवान वायु देने वाले इन पेड़-पौधों का क्या होगा ? क्या इनके विना हमारा जीवन संभव है। क्योंकि पेड़ नहीं होंगे तो हवा-पानी नहीं मिलेगा और इन दोनों की अनुपस्थिति में जीवन लीला समाप्त होना निश्चित है।   
आज आवश्यकता इस बात की है की हम पानी के वास्तविक मोल को पहचानें, उसके महत्त्व को समझें और हो सके तो दूध और अमृत के सदृश उसकी कद्र करें, उसे तरजीह दें।  पानी का न केवल हम सदुपयोग करें वरन उसके दुरूपयोग को  एक अपराध मानें।  याद रखें, अगर हम अब भी नहीं जागृत हुए तो क्या आने वाली पीढियां हमें कठघरे में खड़ा कर बूंद-बूंद का हिसाब नहीं मांगेगी? इसलिए हम सबको  उपलब्ध जल का किफायती उपयोग करते हुए अपने-अपने निवास पर वर्षा जल सरंक्षण के लिए आवश्यक उपाय अपनाना चाहिए। सार्वजनिक स्थानों, कार्यालयों आदि स्थानों पर जल की अनावश्यक बर्वादी को रोकने के प्रयास करना चाहिए। खेती-किसानी में भी सिंचाई जल का फसल की आवश्यकतानुसार कुशल प्रयोग करने के लिए किसानों को प्रेरित करना चाहिए। प्रकृति प्रदत्त वर्षा जल को अपने आस-पास के तालाबों, कुओं में सहेजने/सरंक्षित करने में भी हम सब को सहकारी भाव से सहयोग देने की आवश्यकता है।  

जल की रोचक दुनिया

  •  विश्व जल दिवस 2 फरवरी को मनाया जाता है। 
  •  एक व्यक्ति अपने जीवन काल में लगभग 61000 लीटर पानी पीता है। 
  •  वयस्क व्यक्ति के शारीर में 70% पानी होता है। 
  • जन्म के समय बच्चे के पूरे वजन का 80% भाग पानी होता है। 
  • एक वयस्क व्यक्ति प्रति दिन औसतन 100 गैलन पानी उपयोग में लेता है। 
  • जब आदमी के शारीर में 1% पानी की कमीं हो जाती है तब उसे प्यास लगती है। 
  • शुद्ध जल का पीएच मान 7 होता है, जो न तो एसिड है और न ही क्षार। 
  •  पृथ्वी पर 75% भाग पानी है। 
  • भू-सतह की अपेक्षा भूमिगत जल काफी साफ़ होता है। 
  • पृथ्वी पर जितना पानी है उसका 3% भाग ही उपयोगी है। 
  • शुद्ध जल का न तो स्वाद होता है, न रंग होता है और न ही उसमे कोई गंध होती है। 
  • पृथ्वी पर सबसे ज्यादा मात्रा में खारा पानी पाया जाता है। 
  • पानी की अपेक्षा बर्फ 9% हल्की होती है। 
  • प्रतिवर्ष जल जनित बीमारियों  से विश्व में  40 लाख लोग मरते है। 
  • पानी 00C पर जम जाता है तथा 1000C पर उबलने लगता है। 
  • एक बार जब पानी भाप में बदल जाता है तब उस भाप के कण 10 दिनों तक वायुमंडल में रहते है। 
  • घर में कुल पानी का 74% भाग बाथरूम में, 21% धुलाई में तथा 5% रसोई घर में उपयोग होता है। 
  • प्रकृति के पदार्थों में से पानी ही ऐसा है जो ठोस (बर्फ), द्रव (पानी), तथा गैस (भाप, पानी वाष्प) तीनों रूपों में पाया जाता है। 
  • पृथ्वी के कुल पानी का 97 % खारा पानी, 03 % सादा तजा पानी होता है।  इस तीन प्रतिशत में केवल 01% पानी पिने योग्य होता है।  यह शुद्ध पानी ग्लेशियर तथा बर्फ के चट्टानों से आता है। 
  • हम बिना खाए एक माह तक जीवित रह सकते है, किन्तु बिना पानी पिए मात्र 5-7 दिनों तक ही जीवित रह सकते है। 
  • भारत में लगभग 1.19 मीटर यानि 1190 मिमी. औसत वार्षिक वर्ष होती है, जो परिणाम के हिसाब से पर्याप्त है परन्तु वर्ष आगमन के समय व स्थान में अनिश्चितता व अस्थिरता होने के कारण देश के विभिन्न भागों में सूखे और बाढ़ की स्थिति निर्मित होती रहती है। 
  • भारत में जल प्रदूषण रोकथाम एवं नियंत्रण अधिनियम 1974 से लागू किया गया है। 
  • ओजोन परत को पर्यावरण छतरी के नाम से जाना जाता है। 
  • मनुष्य के शारीर में प्रधान रूप से छः तत्व ऑक्सीजन, कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कैल्शियम तथा फॉस्फोरस पाए जाते है। 
  • शुष्क बर्फ ठोस कार्बन-डाइ-ऑक्साइड के रूप में पायी जाती है। 
  • जल की अस्थाई कठोरता मैग्नीशियम और कैल्शियम बाइकार्बोनेट लवणों के कारण होती है
  •  जल की स्थाई कठोरता उनमे मिले मैग्नीशियम और कैल्शियम के क्लोराइड एवं सल्फेट लवणों के कारण होती है।
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संकर धान की खेती से ही संभव है भारत की खाद्यान्न सुरक्षा


डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर,  
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 

चावल विश्व की 2.7 बिलियन से अधिक आबादी का मुख्य भोजन है। विश्व में खद्यान्न सुरक्षा में चावल की अहम् भूमिका है। धान ही एक मात्र ऐसी फसल है जिसकी खेती सभी परिस्थितियों यथा सिंचित, असिंचित, जल प्लावित, ऊसरीली और बाढ़ ग्रस्त भूमियों में सुगमता से की जा सकती है। हरित क्रांति की सफलता में मुख्य भूमिका निभाने वाली इस फसल की उत्पादकता में जनसँख्या वृद्धि दर के अनुरूप बढ़त नहीं हो पा रही है अपितु भारत के अनेक राज्यों में धान की औसत उपज राष्ट्रिय औसत से काफी काम बनी हुई है। भारत में धान की खेती 43.86 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में प्रचलित है जिससे 2390 किग्रा./हेक्टेयर के औसत मान से 104.80 मिलियन टन उत्पादन (2014-15) प्राप्त हुआ. धान की औसत उपज की दॄष्टि से हम अन्य देशो यथा चीन (6710 किग्रा/हे.), इंडोनेशिया (5152 किग्रा/हे.) ही नहीं बांग्लादेश (4376 किग्रा/हे.) और विश्व औसत (4486 किग्रा/हे.) से भी काफी पीछे है। देश में लगभग 58 % क्षेत्र में धान की खेती सिंचित परिस्थितियों में की जा रही है। धान की औसत उपज के मामले में क्षेत्रीय विभिन्नता बहुत अधिक है। पंजाब में चावल की औसत उपज 3838 किग्रा/हे. ली जा रही है तो धान के कटोरा छत्तीसगढ़ में महज 1581 किग्रा/हे. की दर से चावल पैदा किया जा रहा है।धान की उपज में क्षेत्रीय असमानता को दूर करने के लिए हमें धान उत्पादन की उन्नत तकनीक को व्यवहार में लाने के लिए किसान भाइयों को प्रेरित करना होगा और इसके लिए उन्हें खेती में लगने वाले आदानों जैसे उन्नत किस्म/संकर प्रजातियों के प्रमाणित बीज और उर्वरक सही समय पर उपलब्ध कराना होगा।  खाद्यान्न के मामले में आत्म निर्भरता बरक़रार रखने के लिए हमें प्रति वर्ष 5 मिलियन टन की दर से खाद्यान्न (जिसमे 2 मिलियन टन धान) उत्पादन बढ़ाना होगा।  घटती कृषि योग्य भूमि, पानी, श्रम और अन्य प्राकृतिक स्त्रोतों की कमी होते हुए भी धान की उत्पादकता बढ़ाने के लक्ष्य को हासिल करना ही होगा। बढ़ती जनसंख्या की खाद्यान्न आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रति इकाई उत्पादन में वृद्धि करना अति आवश्यक हो गया है। उन्नतशील किस्मों विशेषकर संकर धान के अतंर्गत क्षेत्र विस्तार तथा उन्नत तकनीकी के प्रचार-प्रसार से धान की उत्पादकता दो गुना बढ़ाई जा सकती है। चीन में संकर धान की खेती बढ़े पैमाने पर प्रचलित है तथा वहाँ के कृषक सामान्य किस्मों की अपेक्षा संकर किस्मों से 30 प्रतिशत अधिक उपज ले रहे हैं। भारत में 1990 में महज 10000 हेक्टेयर क्षेत्र में संकर धान की खेती प्रचलित थी जिसका रकबा बढ़कर  (वर्ष 2014 में)  2.5 मिलियन हेक्टेयर पहुँच गया।  देश में खाद्यान्न सुरक्षा कायम रखने के लिए हमें भी पड़ौसी देश चीन की भाँती संकर धान के अंतर्गत  क्षेत्रफल बढ़ाने के लिए किसानों को प्रेरित करना होगा और इस बावत उन्हें संकर प्रजातियों के प्रमाणित बीज समय पर मुहैया करना होगा।  इसमें कोई संदेह नहीं की संकर धान की खेती से हम भी प्रति इकाई अधिक उपज ले सकते है, परन्तु किसान भाइयों को इसकी खेती में अग्र प्रस्तुत उन्नत तकनीक व्यवहार में लानी होगी तभी उन्हें मनबांक्षित उत्पादन प्राप्त हो सकेगा।

संकर धान क्या है ?

          संकर धान दो किस्मों में बिखरे गुणों के संयोग द्वारा एक कच्चे बंधन के रूप में सृजित धान का बीज है। सामान्यः संकर धान प्रति इकाई क्षेत्र में असंकर (साधारण) प्रजातियों से 15-20 प्रतिशत अधिक उपज देती है। परन्तु विडंबना यह है कि अपनी अगली पीढ़ी में गुणों का बंधन बिखर जाता है और संकर धान अपनी अद्भुत क्षमता खो देता है और यही वजह है कि इसके बीज की आवयकता हर वर्ष होती है। कभी भी संकर धान के बीज हेतु पुनः उपयोग में न लें। भारत में भी संकर धान के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार की व्यापक संभावना है। भविष्य में धान की बढ़ती माँग की पूर्ति की दशा में संकर किस्मों के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार एक सार्थक कदम होगा।
संकर धान उत्पादन तकनीक 
संकर धान की उन्नत खेती के लिए भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी सामान्य धान की भांति ही करते है। इसके रोपण हेतु पौध की तयारी, खाद एवं उर्वरक प्रबंधन, सिंचाई प्रबंधन सामान्य धान से भिन्न है जिसका विवरण यहां प्रस्तुत है :

संकर धान की प्रजातियां : भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने भी संकर धान की अनेक किस्में विकसित कर ली हैं तथा देश की विभिन्न परिस्थितियों के लिए  अनुमोदन किया जा चुका है।  विभिन्न परिक्षणों के आधार पर निम्न संकर किस्में छत्तीसगढ़ एंव म. प्र. के लिए उपयुक्त पायी गयी हैं-
1. के.आर. एच.-2: इस किस्म की  उपज क्षमता 7 टन प्रति हेक्टेयर है। इसका दाना लम्बा पतला होता है। पकने की अवधि 130-135 दिन है।इस किस्म में भूरा माहो कीट एंव ब्लास्ट (झुलसा) रोग के लिये निरोधकता होती     है।
2. पी. एच. वी.-71: यह किस्म केन्द्रीय किस्म विमोचन समिति द्वारा जारी की गयी है।इस किस्म के पकने की अवधि 130 दिन है। दाना लम्बा पतला होता है। भूरा माहो कीट के लिये इस किस्म में प्रतिरोधकता होती है।उसकी उपज क्षमता 7-8 टन प्रति हेक्टेयर है।
3. सह्याद्रि : यह मध्यम अवधी (125-130 दिन) में तैयार होकर 6-7 क्विंटल/हे. उपज देती है।  इसका  दाना लम्बा पतला होता है।
4. प्रो एग्रो- 6201: यह किस्म मध्यम अवधि (125-130 दिन) में तैयार होती है। इसका लम्बा पतला तथा अच्छी गुणवत्ता वाला होता है। इसकी उपज क्षमता 7 टन प्रति हे. है।
5. एराइज - 6444:  यह किस्म 135-140 दिन में तैयार होती है।  इसका दाना लम्बा एंव पतला होता है। यह प्रति हेक्टेयर 6-7 टन उपज देती है। 
6. सुरुचि-5401: यह किस्म 130-135 दिन में पक कर 6 टन/हे. उपज देती है। 
धान की इन संकर प्रजातियों के अलावा अंकुर-7434,पीएसी-837, पीएसी-807, 27 पी63, केपीएच-371, जेआरएच-4, जेआरएच-5, पूसा आरएच-10, व्हीएनआर-2245 आदि का चयन कर अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।  

नर्सरी प्रबंधन

          सामान्य धान की भाँति नर्सरी प्रबंधन करें। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए 700-800 वर्गमीटर नर्सरी क्षेत्र पर्याप्त होता है।संकर धान का बीज 20-25 ग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से 15-20 किग्रा प्रति हेक्टेयर लगता है।  पौधशाला में बीज को बिरला बोया जाना चाहिए जिससे पौध का विकास अच्छा हो सकें।  बीज को अंकुरित कर बोने से पौधों का विकास शीघ्रता से होता है।  नर्सरी में प्रति वर्ग मीटर क्षेत्रफल के हिसाब से 5-6 ग्राम नत्रजन, स्फुर व पोटॉश डालना चाहिए। प्रारंभिक अवस्था में नर्सरी की मृदा को संतृप्त अवस्था में रखना चाहिए एंव पौधे वृद्धि के समय 2.50-3.00 सेमी जल स्तर रखना चाहिए। इस तरह से नर्सरी में खरपतवार नियंत्रण भी हो जाता है। यदि नर्सरी के पौधों में नत्रजन की कमी हो तो 15-18 दिन बाद पुनः नत्रजन का छिड़काव किया जा सकता है। पौधों में जिंक या लोहे की कमीं के लक्षण दिखने पर तो 0.5 % जिंक सल्फेट एवं 0.2  % फेरस सल्फेट के घोल का छिड़काव करना चाहिए।

रोपाई का समय एंव विधि   

          संकर धान में रोपाई के समय का बहुत महत्व होता है,क्योकि रोपाई के समय में देरी होने से उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।प्रयोगों के द्वारा यह देखा गया है कि संकर धान की रोपाई 25 जुलाई तक अवश्य कर लेनी चाहिए। देर से रोपाई करने पर कंशे काम बनने के कारण  उपज में व्यापक कमीं आ जाती है। रोपाई के लिए 25-30 दिन उम्र के  स्वस्थ पौधों को चुनना चाहिए।  प्रति हिल (स्थान) 1-2 पौधे की रोपाई 2-3 सेमी. गहराई पर कतार से कतार 15 सेमी. तथा पौध से पौध 15 सेमी. की दूरी पर करें। पौध रोपण से एक सप्ताह के अंदर मरे हुए पौधों के स्थान पर उसी संकर प्रजाति के पौधों की रोपाई अवश्य संपन्न क्र लेवें जिससे  प्रति वर्गमीटर में कम-से-कम 45-50 पूँजे (हिल्स) अवश्य स्थापित हो जाएँ ।

उर्वरक प्रबंधन

          संकर धान की गुणवत्ता (कम टूटने वाली, लंबे चावल एंव पोषक तत्वों से भरपूर) बनाये रखने तथा अधिकतम उपज प्राप्त करने में उर्वरक प्रबंधन पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। उर्वरकों का प्रयोग मृदा  परीक्षण के आधार पर करें। सामान्य तौर पर गोबर की खाद 10 टन तथा रासायनिक उर्वरक के रूप में 150 किलो नत्रजन, 75 किलो स्फूर एंव 60 किलो पोटॉश  प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। जिंक की कमी वाले क्षेत्र में 25 किलो जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर देना लाभकारी पाया गया है। कुल नत्रजन का 40 प्रतिशत भाग आधार के रूप में (रोपाई के समय), 20 प्रतिशत कंसे निकलते समय, 30 प्रतिशत गभोट अवस्था में तथा शेष 10 प्रतिशत मात्रा फूल आने के समय देना चाहिए। रबी मौसम में नत्रजन को 3 भागों की तुलना में 4 भागों (40:20:30:10 प्रतिशत) में देने से संकर धान के उत्पादन में आशीतीत वृद्धि पाई गई।
          स्फुर को आधार के रूप में तथा पोटॉश को दो भागों में बाँट कर देना चाहिए। पोटॉश  की आधी मात्रा रोपाई के समय आधर खाद के रूप में तथा आधी मात्रा गभोट अवस्था में देने से संकर धान के बीज उत्पादन में वृद्धि पायी जाती है।

जल प्रबंधन

          संकर धान की खेती में जल प्रबंधन बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है। रोपाई के बाद सामान्यतया धान वृद्धि एंव जनन अवस्था में रहती है तथा इसके बाद पकने की अवस्था में प्रवेश करती है। वृद्धि अवस्था में धान की जड़ एंव तना का विकास होता है।वृद्धि अवस्था में जल की कमी या अधिकता से पौधों में कन्सों की संख्या कम हो जाती है, जिससे कि उपज में कमी आती है। पुष्पन और दाना भरने की अवस्था में जल प्रबंधन अति महत्वपूर्ण है क्योकि इस अवस्था में कंसों में बालियों का निर्माण  एंव दाने की संख्या का निर्धारण होता है।
          धान की रोपाई  के समय खेत में 1-2 सेमी. पानी होना चाहिए तथा अनावश्यक जल को खेतों से बाहर निकाल देना चाहिए। वर्धी अवस्था में पौधों की ऊँचाई के अनुसार  2-5 सेमी. जल स्तर रखना लाभकारी होता है। कंसे फूटने वाली स्थिति से लेकर बाली निकलने तक खेतों में 5-7 सेमी. पानी का स्तर रखना उचित रहता है । गभोट की अवस्था में भी पानी का उथला स्तर खेतों में रखना चाहिए। कटाई से 7-10 दिन पहले खेतों से पानी निकाल देना चाहिए।

खरपतवार निंयत्रण एवं फसल सुरक्षा 

        संकर धान की पर्याप्त बढ़वार और उपज के लिए खेत खरपतवार मुक्त रहना आवश्यक होता है।   रोपाई के एक सप्ताह के अन्दर ब्यूटाक्लोर 3 लीटर या एनीलोफॉस  एक लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600-800 प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें अथवा रोपाई के 40 दिन के अन्दर 1-2 निंदाई करने से खरपतवार नियंत्रित रहते हैं। धान की सामान्य किस्मों की तरह एकीकृत कीट एंव रोग प्रबंधन की विधियाँ आवश्यकतानुसार अपनाएँ।

कटाई, मड़ाई और उपज 

          धान फसल में  50 प्रतिशत बाली निकलने के 20-25 दिन बाद या बालियों के निचले दानों  दूध बन जाने पर खेत से पानी बाहर निकाल देना चाहिए।  जब फसल में 80-85  प्रतिशत दाने सुनहरे रंग के हो जाए अथवा बाली निकलने के 30-35 दिन पश्चात फसल की कटाई कर लेना चाहिए। इसके पश्चात फसल को सुखा कर मड़ाई संपन्न कर लेवें आज कल कंबाइन हार्वेस्टर की मदद से काम समय में कटाई और मड़ाई कार्य सुगमता से संपन्न हो जाता है। उपरोक्तानुसार शस्य तकनीक के अनुसार खेती करने पर सामान्यतौर पर 50-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक  धान की उपज प्राप्त हो सकती है। 
ध्यान रखें: संकर धान का बीज एक ही बार फसल उत्पादन के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। अतः संकर किस्मों से वास्तविक आनुवंशिक उपज क्षमता प्राप्त करने के लिए इसका बीज हर साल नया विश्वसनीय संस्थान से ही खरीदना चाहिए।


नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।