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मंगलवार, 6 नवंबर 2018

भूली बिसरी बहुपयोगी फसल सोया की वैज्ञानिक खेती

भूली बिसरी बहुपयोगी फसल सोया की वैज्ञानिक खेती
डॉ.जी.एस.तोमर, प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
सोया (अनेथम ग्रेविओलेन्स) अम्बेलिफेरी कुल का सदस्य है। इसे  दिल, सोवा  और सुवा के नाम से भी जाना जाता है। सोया के पत्तियों, टहनियों और बीज में तीक्ष्ण मनभावन खशबू होती है।   सब्जी एवं अन्य खाध्य पदार्थ तैयार करने में  इसके बीज का इस्तेमाल किया जाता है। सोया के पत्ते एवं बीज सौफ से मिलते जुलते होते है।  इसके बीज को कई जगह बन सॉफ भी कहा जाता है।  इसके हर्ब तेल का उपयोग वेज और नॉन वेज खाध्य सामग्री, अचार, सिरका आदि को स्वादिष्ट बनाने में किया जाता है।  इसके बीजों में बेसुमार औषधीय गुण विद्यमान है।  इसके बीज तीखे, भूख बढ़ाने वाले, उष्ण, मूत्र रोधक, बुद्धिवर्धक, काफ एवं वायुनाशक माने जाते है। सोया के बीजो से निकाले गये वाष्पशील तेल का प्रयोग कई प्रकार कई दवाओं के निर्माण में किया जाता है. सोया के तेल में पानी मिलाकर दिल वाटर बनाया जाता है जो छोटे बच्चो को अफरा, पेट दर्द तथा हिचकी जैसी तकलीफ होने पर दिया जाता है।  सोया के बीजो से निकाले गये वाष्पशील तेल को ग्राइप वाटर बनाने में भी प्रयोग किया जाता है।  इसके बीज को पीसकर घाव या जख्म पर लगाने से आराम मिलता है।   इसके साबुत या पीसे हुए बीज सूप, सलाद, सॉस, व् अचार में डाले जाते है।  सोया  के हरे एवं मुलायम तने, पत्तिया तथा  पुष्पक्रम को भी सब्जी एवं सूप को सुवासित करने में प्रयोग होता है। भारत के अनेक क्षेत्रों में सोया भाजी के रूप में भी इस्तेमाल होती है।   सोया की भाजी के सेवन से पाचन तंत्र की गड़बड़ी, गैस एवं अजीर्ण में आराम मिलता है।   सोया के हर्ब तेल में प्रमुख रूप से फैलान्डोन 35 % एवं 3,9-एपोक्सी-पी-मेंथ-1-एने 25 % पाया जाता है।  इसके  बीज तेल में लिमोनेने 70 % तक एवं कारवोन  60 % तक पाया जाता है। 
सोया की फसल-पुष्पावस्था फोटो साभार गूगल
पोषकमान की दृष्टि से सोया की 100 ग्राम खाने योग्य सूखी हर्ब में 7 ग्राम पानी, 20 ग्राम प्रोटीन, 4 ग्राम वसा,44 ग्राम कार्बोहाइड्रेट्स, 12 ग्राम रेशा,60 मिग्रा एस्कोर्बिक एसिड पाया जाता है. इसका ऊर्जा मान 1060 कि कैलोरी होता है।  इसके सूखे 100 ग्राम खाने योग्य बीज में 8 ग्राम पानी, 16 ग्राम प्रोटीन, 14 ग्राम वसा, 34 ग्राम कार्बोहाइड्रेट्स, 21 ग्राम रेशा एवं 7 ग्राम राख पाया जाता है।  इसका ऊर्जा मान 1275 कि कैलोरी होता है।
विश्व में अमेरिका, चीन और ऑस्ट्रेलिआ में सोया की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है तथा सबसे अधिक खपत अमेरिका, जापान और जर्मनी में होती है।  भारत में सोया की खेती बहुत छोटे स्तर पर सब्जी-मसाला फसल के रूप में गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में प्रचलित  है।  भारत के अनेक क्षेत्रों में रबी फसलों के साथ सोया खरपतवार के रूप में भी उगता है। सोया के हर्ब और बीज में विद्यमान आवश्यक तेल के विविध औषधीय महत्त्व को देखते हुए सोया की व्यवसायिक खेती बहुत ही फायदेमंद सिद्ध हो सकती है। परन्तु सुनिश्चित बाजार होने पर ही सोया की व्यवसायिक खेती करेंगे तभी आशातीत लाभ प्राप्त हो सकेगा ।  सोया की खेती से अधिकतम उपज और आमदनी लेने की लिए इसकी वैज्ञानिक खेती अग्र प्रस्तुत है।

उपयुक्त जलवायु

सोया समशीतोष्ण जलवायु की फसल है जिसके लिए शुष्क एवं ठंडा मौसम अनुकूल होता है| भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में इसे खरीफ ऋतु में उगाया जाता है परन्तु उत्तर भारत में इसे  रबी (शरद ऋतु) फसल के रूप में सफलता पूर्वक उगाया जाता है। बुवाई के समय वातावरण का तापमान 22-28 डिग्री से.ग्रे. उपयुक्त होता है. फसल बधवार के लिए 22-35 डिग्री से.ग्रे. तापमान अच्छा रहता है।   

भूमि एवं इसकी तैयारी

सोया की खेती हल्की बलुई मिटटी को छोड़कर उत्तम जल निकास वाली चिकनी मिट्टी से लेकर लाल-पीली मिट्टियों में सफलता पूर्वक की जा सकती है।  भूमि का पी एच मान 5-7 तक उपयुक्त रहता है।  खेत की तैयारी के लिए एक गहरी जुताई के साथ दो-तीन बार हैरो चलाने के उपरान्त खेत में पाटा लगा कर मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए।  बुआई से पूर्व खेत को  छोटी छोटी क्यारियों में बाँट लेना चाहिए ताकि सिंचाई एवं जल निकासी में सुविधा हो सके। मिट्टी में  दीमक की समस्या होने पर  मिथाइल पैराथीओन 2.0  प्रतिशत दवा  25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में अंतिम जुताई के समय सामान रूप से बिखेर कर मिट्टी में  मिला देना चाहिए।

बुआई का समय

असिचित क्षेत्रों  में सोया की बुआई वर्षा ऋतु समाप्त होते ही अर्थात मध्य सितम्बर से मध्य अक्टूबर माह में की जा सकती है, जबकि सिचित क्षेत्रों में इसकी बुवाई  मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक संपन्न कर लेना चाहिए।

बीज दर एवं बुवाई


सिचित क्षेत्रो में सोया का 4 किलोग्राम बीज एवं असिचित क्षेत्रों  में 5.0 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से  प्रयोग करना चाहिए।  बीज को थाइरम या बाविस्टिन 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करने का पश्चात बुवाई करना चाहिए।  अधिक उत्पादन लेने के लिए सोया की बुवाई कतार विधि से करना फायदेमंद रहता है ।  इस विधि में  कतार से कतार की दूरी  सिंचित अवस्था में 40 सेमी. एवं असिंचित अवस्था में  30 सेमी. रखना  चाहिए ।   दोनों ही परिस्थितियों में पौधे से पौधे की दुरी 20-30 सेमी. रखनी चाहिए। यदि सिर्फ हर्ब के लिए सोया की खेती की जानी है तब कतार से कतार के बीच 15 सेमी. तथा पौध से पौध के बीच 10 सेमी की दूरी रखना चाहिए। इसका बीज बहुत छोटा एवं हल्का होता है, अतः बुआई  2.0 सेमी. से ज्यादा गहराई पर नहीं करें।सोया को चना, गेंहू, सरसों या मटर के साथ अंतरवर्ती फसल के रूप में भी उगाया जा सकता है। 
सुवा की उन्नत किस्में 

आमतौर पर किसान भाई सोया की स्थानीय किस्मों की खेती करते है जिनसे उन्हें कम उत्पादन प्राप्त होता है।  अच्छी उपज एवं मुनाफे के लिए सोया की उन्नत किस्मों की खेती करना चाहिए।
1.एन. आर. सी. एस.एस. -ए.डी.-1 : यह सोया की  युरोपियन किस्म है जो 140-150 दिन  में पक कर तैयार होकर औसतन  उपज 14-15  क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।  इसके बीजों  में 3.5 प्रतिशत वाष्पशील तेल पाया जाता है. यह सिचित क्षेत्रो में खेती करने के लिए उपयुक्त है।
2.एन. आर. सी. एस.एस. -ए.डी.-2 :  सोया की यह भारतीय उन्नत किस्म है जो लगभग  135-140  दिनों में पक कर तैयार होकर  औसतन 14-15  क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।  इसके बीजों  में 3.2 प्रतिशत वाष्पशील तेल पाया जाता है.  यह किस्म असिंचित अथवा सीमित सिंचाई की उपलब्धता वाले क्षेत्रो में खेती के लिए उपयुक्त है।

खाद एवं उर्वरक


उत्तम उपज एवं अधिक तेल उत्पादन के लिए सोया फसल में मृदा परिक्षण के आधार पर संतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग आवश्यक रहता है।  खेत की अंतिम जुताई के समय 8-10 टन गोबर की खाद मिट्टी में मिलाना चाहिए।  सामान्य उर्वरा शक्ति वाली मृदाओं में  बुवाई के समय 40 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा. फॉस्फोरस एवं 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।  इसके अलावा बुवाई के 40-45 दिन बाद फसल में फूल आते समय सिंचाई के बाद नत्रजन 30 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।    

सिंचाई प्रबंधन

सोया की फसल से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए समय पर सिंचाई करना आवश्यक रहता है।  इसकी फसल को 3-4 सिंचाई की आवश्यकता होती है।  प्रथम सिंचाई बुवाई के 20 दिन बाद, दूसरी सिंचाई फूल आते समय एवं तीसरी सिंचाई दानों की दूधिया अवस्था में करना चाहिए।

निंदाई-गुड़ाई एवं फसल सुरक्षा


सोया की फसल के साथ बहुत से खरपतवार उग आते है जो फसल वृद्धि और उत्पादन को कम कर देते है।  इनके नियंत्रण के लिए बुआई के 20-25 दिन बाद खेत में निदाई-गुड़ाई कर खरपतवार निकाल देना चाहिए।  आवश्यकता पड़ने पर फूल आते समय निंदाई-गुड़ाई कर खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए।  सोया फसल में भभूतिया रोग का प्रकोप लगने की संभावना होने पर घुलनशील सल्फर 0 2 % का साप्ताहित अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।  फसल की कीड़ों से भी सुरक्षा करें।  

फसल की कटाई एवं उपज


सोया हर्ब तेल निकलने के लिए फसल की कटाई फूल आने से पहले अर्थात बुवाई के 40-50 दिन बाद कर लेना चाहिए।  इस अवस्था में हर्ब में तेल की मात्रा 1.5-1.7 % पाई जाती है।  कटाई के बाद हर्ब को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर 1-2 दिन तक छाया में सुखाने के उपरान्त तेल निकलना चाहिए।  बीजों के लिए लगाई गई फसल में  बीजों के पीले पड़ने से पूर्व हरी अवस्था में ही कटाई कर लेना चाहिये अन्यथा बीज में तेल की मात्रा में गिरावट हो जाती है।  देर से कटाई करने पर बीज चटककर खेत में ही बिखरने की संभावना रहती है।  सोया के बीजों में 2.6  से 3.7  % तेल (समय पर कटाई करने पर) पाया जाता है।  सोया हर्ब एवं बीज का जल आसवन विधि से तेल निकाला जाता है।  उत्तम सस्य विधिया अपनाने पर सामान्य तौर पर  सोया की ताज़ी हर्ब का उत्पादन 3.0-10  टन प्रति हेक्टेयर तक  आ सकता है।  आसवन के बाद 40-50 किग्रा. तेल प्राप्त हो सकता है। सोया बीज का उत्पादन सिंचित अवस्था में 5-7 क्विंटल एवं असिंचित अवस्था में 2-3  क्विंटल होता है। 
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सोमवार, 5 नवंबर 2018

रबी में राई एवं सरसों की बुवाई से भरपूर कमाई

                                                      डॉ. जी.एस. तोमर, प्राध्यापक

सस्य विज्ञान विभाग,


इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,


राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, अंबिकापुर

          हरित क्रांति की सफलता के फलस्वरूप कृषि प्रधान भारत ने खाद्यान्न उत्पादन में भले ही आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है परन्तु तिलहन और दलहन उत्पादन के मामले में हम अभी भी फिसड्डी बने हुए है। हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा खाद्य तेल आयातक राष्ट्र है। खाध्य तेलों के आयात में देश न केवल  करोड़ों रुपए की विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है, बल्कि देश के किसानों को उनके द्वारा उत्पादित तिलहन का बाजिब मूल्य भी नहीं मिल पाता है। विदेशों से आयातित वनस्पति तेल में 80 फीसदी तक पाम ऑयल होता है, जो सेहत के लिए  अच्छा नहीं माना जाता है, परन्तु सस्ता होने की वजह  से अधिकांश मध्यम वर्गीय  लोगों की रसोई, होटल और रेस्टोरेंट में  इसी  तेल का इस्तेमाल किया जाता है। जनसंख्या वृद्धि एवं लोगों की बदलती जीवन शैली के कारण भारत में खाद्य तेलों की खपत बढ़ना सुनिश्चित है। खाद्य तेलों की मांग के अनुरूप तिलहनी फसलों के उत्पादन में वृद्धि करना निहायत जरुरी है। भारत में खरीफ में उगाई जा रही तिलहनों के क्षेत्रफल में विस्तार होने की संभावना बहुत ही कम है क्योंकि खद्यान्न फसलें, दलहन, कपास और गणना फसल के क्षेत्र में कटौती कर तिलहनों को उगाना बुद्धिमानी नहीं हो सकती है।  धान उत्पादक राज्यों में धान के बाद पड़ती पड़ी भूमियों में रबी तिलहनों की खेती को बढ़ावा देने और उनसे अधिकतम उत्पादन लेने के लिए किसान भाइयों को प्रेरित करना होगा।  इसके अलावा किसान भाइयों द्वारा उत्पादित तिलहनों को उत्पादन लागत मूल्य से दो गुनी कीमत पर तिलहन फसल की उपज खरीदने की पुफ्ता व्यवस्था करना होगी।  विदेशों से आयातित पाम आयल और सोयाबीन आयल पर आयात शुल्क बढ़ाना होगा जिससे खाद्यान्न तेलों में मिलावट पर अंकुश लग सकेगा और किसानों द्वारा उत्पादित तिलहनों का सही मूल्य प्राप्त हो सकेगा।  भारत में रबी तिलहनों में राय-सरसों सबसे महत्वपूर्ण फसल है।  इसके बीज में 40-42 % तक तेल पाया जाता है और सरसों का तेल स्वास्थ के लिए लाभकारी है। सरसों का तेल खाने से लेकर शरीर में लगाने और औद्योगिक प्रयोजनों में भी इस्तेमाल होता है।  अतः आने वाले समय में सरसों के तेल की मांग बढ़ना सुनुश्चित है। 

         
सरसों फसल फोटो साभार गूगल
भारत मे राई-सरसों समूह के अन्तर्गत विभिन्न फसलें यथा तोरिया
, गोभी सरसों, भूरी सरसों, पीली सरसों, तारामिरा, करन राई तथा काली सरसों की खेती प्रचलित है परन्तु राई-सरसों वर्ग की फसलों के कुल क्षेत्रफल का 85 से 90 प्रतिशत हिस्सा  सरसों (राई या लाहा) के अन्तर्गत आता है। राई-सरसों रबी की प्रमुख तिलहनी फसल है जिसका देश की अर्थ व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान है। भारत में राई-सरसों की खेती 57.62 लाख हेक्टेयर में की गई जिससे 1184 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 68.22 लाख टन उत्पादन लिया गया।  विश्व औसत उपज 2144 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की तुलना में हमारे देश की औसत उपज बहुत कम है।  उपयुक्त किस्मों का चयन न करना, असंतुलित उर्वरक प्रयोग, पौध सरंक्षण उपायों को न अपनाने की वजह से राई-सरसों की उपज कम आती है। राई-सरसो के उत्पादन में राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाना, मध्य प्रदेश तथा गुजरात  अग्रणीय राज्य है ।  वर्ष 2015-16 के दौरान मध्य प्रदेश में सरसों-राई की खेती 6.17 लाख  हेक्टेयर मे की गई जिससे 1134 किग्रा. प्रति हेक्टेयर उपज की दर से 7.00 लाख  टन उत्पादन प्राप्त हुआ । छत्तीसगढ़ में राई-सरसो  की खेती 0.43 लाख हैक्टर में की गई जिससे 517 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 0.22 लाख टन उत्पादन लिया गया । जाडे की अवधि कम होने तथा सिंचाई के पर्याप्त साधन न होने के कारण प्रदेश मे सरसों की औसत उपज  कम ही आती है।  मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में सही समय पर बुवाई और वैज्ञानिक प्रबंधन से राई-सरसों से आसानी से 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उपज लेकर बेहतरीन मुनाफा अर्जित कर सकते  है । राय-सरसों से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने हेतु सस्य तकनीक अग्र प्रस्तुत है :   

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

                 राई-सरसों के लिए समतल और उत्तम जल निकास वाली बलुई दोमट से  दोमट मिटटी सर्वोत्तम है। अच्छी पैदावार के लिए भूमि का पीएच मान 7-8 के मध्य होना चाहिए । राई-सरसों की अच्छी उपज के लिए खेत की तैयारी भली भांति करना आवश्यक रहता है.इसके लिये प्रायः एक जुताई मिट्टी पलट हल से करनी चाहिए तथा 3 - 4 जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। पाटा चलाकर खेत की मिट्टी को महीन, भुरभुरी तथा समतल कर लेते हैं। इससे जमीन में नमीं लम्बे समय तक संचित रहती है, जो कि सरसों व राई के उत्तम अंकुरण एवं पौध बढ़वार के लिये आवश्यक है। फसल को भूमिगत कीड़ों से बचाने के लिए अंतिम जुताई के समय 1.5 % क्युनालफ़ॉस 20-25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से मिटटी में मिला देना चाहिए.
उन्नत किस्में

    किसान भाइयों को उनके क्षेत्र की भूमि एवं जलवायु के अनुसार ही उन्नत किस्मों के बीज का चयन करना चाहिए. प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है कि अकेले उन्नत किस्मों के प्रयोग से पुरानी प्रचलित किस्मों की अपेक्षा 20-25 प्रतिशत अधिक उपज ली जा सकती है।

राई-सरसों की प्रमुख उन्त किस्मो  की विशेषताएं


किस्म                            अवधि (दिन)    उपज (क्विं/हे.)      प्रमुख विशेषताएँ

टायप-151                     120 - 125          14 - 15         46 % तेल, सिंचित क्षेत्र हेतु, पीली सरसों
क्रांति                             125 - 135          25 - 28         सिंचित क्षेत्र हेतु, तेल 40 प्रतिशत
वरदान                          120 - 125          13 - 18          40 % तेल, देर बोने हेतु उपयुक्त।
वैभव                            120 - 125          13 - 18           तेल की मात्रा 38 प्रतिशत
कृष्णा                            125 - 130          25 - 30          सिंचित क्षेत्र हेतु, 40 प्रतिशत तेल
आरएलएम-514              150 - 155          15 - 20          40 % तेल, शुष्क दशा के लिए उपयुक्त।
आरएलएम-198              152 - 166          17 - 18           38 % तेल, सिंचित दशा के लिए।
वरूणा (टी-59)                125 - 130          20 - 25          42% तेल, दाना बड़ा।
पूसा बोल्ड                      130 - 140         18 - 26            सिंचित क्षेत्र हेतु, 40% तेल, दाना बड़ा 
माया                             125-136            20-23             अगेती बुवाई हेतु, उच्च तापमान सहनशील   
वसुन्धरा                        130 - 135          20 - 21           तेल 38 - 40 प्रतिशत
जेएम-1                         120 - 128          20 - 21           काला कत्थई बीज, सिंचित दशा हेतु।
जेएम-2                         135 - 138         15 - 20            बीज गोल कत्थई काला, तेल 40% 
जवाहर सरसों-3               130-132           18-20            तेल की मात्रा 40 %, पछेती बुआई हेतु उपयुक्त 
राज विजय सरसों-2          120-140            25-30           तेल की मात्रा 37-41 %, समय पर बुवाई हेतु
आर.जी.एन.-73               127-136           18-22            देर से बुवाई हेतु उपयुक्त, बीज में तेल 39 %
कोरल-432                      113-147           18-26            सिंचित क्षेत्रों के लिए, बीज में तेल 40-42 %

बोआई उचित समय पर

              समय पर बुआई करना खेती में सफलता की प्रथम सीढ़ी है। सरसों की बुआई का समय मुख्यतः तापक्रम पर निर्भर करता है। बुआई के समय दिन का अधिकतम  तापमान औसतन   30 डि.से. होना आवश्यक है। सरसों और राई की बुआई अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े से लेकर मध्य नवम्बर तक संपन्न कर लेना चाहिए।

बीज की मात्रा एवं बीजोपचार 

            खेत में उचित पौध संख्या स्थापित करने के लिए बुवाई में सही बीज दर का प्रयोग करना आवश्यक रहता है । बुवाई हेतु स्वस्थ एवं रोग मुक्त प्रमाणित बीज का इस्तेमाल करना चाहिए। बीज दर बुवाई के समय, किस्म का प्रकार, एवं मिटटी की नमीं पर निर्भर करते है. सामान्य तौर पर  राई-सरसों की शुद्ध फसल हेतु 4-5  किलो प्रति हेक्टेयर तथा मिश्रित फसल उगाने के लिए 1-1.5  किलो प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है। बोने के पूर्व  बीज को फफूंदीनाशक रसायन जैसे कार्बेन्डिजिम (वाविस्टिन) 1.5 ग्राम और मैंकोजेब 1.5 ग्राम मिलकर प्रति किग्रा. बीज के हिसाब से उचारित करना चाहिए. बीज को ट्राईकोडर्मा 6 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करने से  भी मृदा जनित रोगों से फसल की सुरक्षा की जा सकती है। प्रारंभिक अवस्था में चितकबरा कीट अथवा पेंटेड बग से बचाव हेतु इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू पी 7 ग्राम प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करना चाहिए. राई-सरसों के बीज को बुवाई पूर्व स्फुर घोलक जीवाणु (पी एस बी) एवं एज़ोटोबेक्टर (10-15 ग्राम प्रत्येक जीवाणु खाद प्रति किग्रा बीज दर) से उपचारित करने से फसल को नत्रजन और फॉस्फोरस तत्व की उपलब्धता बढ़ जाती है और उपज में भी बढ़ोत्तरी होती है.

बोआई कतारों में 

          राई-सरसों की बुवाई खेत में बीज बिखेर कर न करें. अच्छी पैदावार के लिए बुवाई कतारों में ही करें. फसल की बुवाई पंक्तियों में 30-45 सेमी. और पौधों में 15 - 20 सेमी. के अन्तर से करना चाहिये। बुवाई हल के साथ लगे नाई या पोरा अथवा यांत्रिक सीड ड्रिल से करना चाहिए. पोरा द्वारा बुवाई करने के बाद खेत में पाटा नहीं चलाये अन्यथा बीज अधिक गहराई में जा सकता है.बुआई के समय यह ध्यान रखना चाहिये कि बीज उर्वरक के सम्पर्क में न आये अन्यथा अंकुरण प्रभावित होगा। अतः बीज 3- 4 सेमी. गहरा तथा उर्वरक को 7 - 8 सेमी. गहराई पर देना चाहिए। अच्छे अंकुरण एवं उचित पौध संख्या के लिए बुआई से पूर्व बीजों को पानी में भिगोकर बोया जाना चाहिए।

संतुलित पोषक प्रबंधन  

    राई-सरसों अधिक  मात्रा में और शीघ्रता से भूमि से पोषक तत्व ग्रहण  करती है। अतः खाद और उर्वरकों के माध्यम से फसल के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति आवश्यक है। बुआई के 15 - 20 दिन पूर्व 4-5 टन सड़ी हुई गोबर की खाद  खेत मे मिलाने से पौध वृद्धि और उपज में बढ़ोत्तरी  होती है। राई व सरसों की सिंचित फसल में 80-100  किग्रा. नत्रजन, 50-60  किग्रा. स्फुर, 20-30  किग्रा. पोटाश तथा 25 किग्रा जिंक सल्फेट  प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस, पोटाश एवं जिंक सल्फेट  की पूरी मात्रा बुआई के समय  कूड़ो में बीज के नीचे देना चाहिए। शेष नत्रजन पहली सिंचाई के बाद देना चाहिए। नत्रजन को अमोनियम सल्फेट तथा फास्फोरस सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में देने से फसल को आवश्यक सल्फर तत्व भी मिल जाता है जिससे उपज और बीज में तेल की मात्रा बढ़ती है। शोध परीक्षणों से ज्ञात होता है कि जैव नियामक-थायोयूरिया के पर्णीय छिडकाव से राई-सरसों की उपज में 15-20 % की बढ़ोत्तरी हो सकती है।  अतः थायोयूरिया 0.1 % घोल (500 ग्राम थायोयूरिया 500 लीटर पानी) तैयार कर पहला छिडकाव फूल आने के समय (बुवाई के 40-50 दिन बाद) एवं दूसरा छिडकाव फलियाँ बनने के समय करना चाहिए। 

अधिक पैदावार के लिए करे सिंचाई

               राई-सरसों  में फसल की क्रांतिक अवस्थाओं में सिंचाई देने से उपज मे वृद्धि होती है। अच्छे अंकुरण के लिए भूमि मे 10-12 प्रतिशत नमी होना आवश्यक रहता है। कम नमी होने पर एक हल्की सिंचाई देकर बुआई करना लाभप्रद रहता है। सरसों फसल में 2-3 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। इस फसल को औसतन 40 सेमी. जल की आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई बुआई के 25 - 30 दिन बाद (4 - 6 पत्ती अवस्था) और दूसरी सिंचाई फूल आते समय (बुआई के 70 - 75 दिन बाद) करनी चाहिए। प्रथम सिंचाई देर से करने पर पौधों में शाखायें, फूल व कलियां अधिक बनती है। सरसों में पुष्पागम  और शिम्बी  लगने का समय सिंचाई की दृष्टि से क्रांतिक होता है। इन अवस्थाओं पर भूमि में नमी की कमी होने से दानें अस्वस्थ तथा उपज और दाने में तेल की मात्रा में कमी होती है।  फव्वारा पद्धति में 12 मीटर की दूरी पर नोज़ल रख कर 7-8 घंटे की दो सिंचाई करने से उपज बढती है और पानी की बचत भी होती है। सीमित पानी की उपलब्धता होने पर टपक यानि बूँद बूँद सिंचाई पद्धति बहुत कारगर सिद्ध हो रही है.

उचित पौध संख्या एवं खेत रहें खरपतवार मुक्त  

               खेत में पौधों की इष्टतम संख्या स्थापित होने से प्रत्येक पौधों का विकास अच्छा होता है, शाखायें अधिक निकलती है जिससे पौधों पर फलियाँ अधिक बनती है क्योंकि पौधो को उचित प्रकाश, जल और पोषक तत्व समान रूप से उपलब्ध होते है। खेत में प्रति इकाई पौधों की उचित संख्या स्थापित करने के लिए  बुआई के 15-20 दिन बाद पहली निंदाई-गुड़ाई  के साथ पौधों का विरलीकरण यानी घने पौधों की छटनी करें तथा पौधों-से-पौंधें के मध्य 15-20 सेमी. का फांसला कर देना चाहिए।  सिंचित अवस्था में प्रति वर्ग मीटर 33 एवं असिंचित अवस्था में 15 पौधे रहना चाहिए.  इसके अलावा  जब फसल में पहली फूल की शाखा निकल आये तब ऊपरी हिस्सा तोड़ देने से शाखाये, फूल व फलियाँ अधिक बनती है जिससे उपज मे वृद्धि होती है। पौधों के इस कोमल भाग को भाजी के रूप में बाजार में बेचा जा सकता है या पशुओं को खिलाया जा सकता है।
            अनियंत्रित खरपतवारों के कारण  राई-सरसों की उपज में 20-30 प्रतिशत तक गिरावट  आ सकती है। इन फसलों में बथुआ, चटरी - मटरी, सैंजी, सत्यानाशी, मौथा, हिरनखुरी आदि खरपतवारों का प्रकोप होता है। खरपतवारों के रासायनिक नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालिन 30 ई सी  (स्टाम्प)  ई लीटर सक्रिय तत्व अर्थात 3.3 लीटर दवा को 800 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरंत बाद अंकुरण से पहले छिड़काव करना चाहिए। यदि सरसों को चने क साथ लगाया गया है तब खरपतवार नियंत्रण के लिए फ्लूक्लोरालिन 45 ई सी  (बेसालिन) 1 लीटर सक्रिय  तत्व अर्थात 2.2 लीटर दवा  प्रति हेक्टेयर की दर से 800 लीटर पानी में घोलकर बुआई के पूर्व खेत मे छिड़काव कर मिटटी में मिला देना चाहिए। आज कल सरसों के खेतों में ओरोबैन्की (जड़ परजीवी खरपतवार) की समस्या भी हो रही है. यह खरपतवार फसल की 40-50 दिन की अवस्था पर उगता है और फसल को क्षति पहुंचाता है. इसके नियंत्रण हेतु फसल चक्र में बदलाव करें तथा ग्रीष्म ऋतु में खेत की गहरी जुताई करें. कड़ी फसल में इसके नियंत्रण हेतु ग्लाईफोसेट 60 मिली मात्रा प्रति हेक्टेयर बुवाई के 30 दिन बाद और 125 मिली मात्र प्रति हेक्टेयर बुवाई के 50 दिन बाद 150 लीटर पानी में घोलकर खेत में पर्याप्त नमीं होने की दशा में छिड़काव करने से काफी हद तक इस खरपतवार पर नियंत्रण पाया जा सकता है। 

समय पर करें कटाई एवं गहाई  


            राई सरसों की कटाई उपयुक्त समय पर करने से फलियों से बीजों के बिखरने, हरे बीज की समस्या तथा सिकुड़े हुए बीजों की समस्या नहीं रहती है. सामान्य तौर पर राई-सरसों  की फसल 120-150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। पकने पर पत्तियाँ पीली पड़ जाती है और बीजों का प्राकृतिक रंग आ जाता है। अपरिपक्व अवस्था में कटाई करने पर उपज में  कमीं आ जाती है और तेल की मात्रा भी घट जाती है। फलियों के अधिक पक जाने पर वे चटख जाती हैं और बीज झड़ने  लगते है। फसल की 75 % फल्लियों एवं पत्तियों के पीले-भूरे पड़ने और बीज में नमीं का अंश 30-35 % होने पर फसल की कटाई हँसिये से या फिर पौधों को हाथ से उखाड़ लेना चाहिये। कटाई उपरान्त फसल को 2-3 सप्ताह तक खलिहाँन में सुखाया जाता है।  बीज में नमीं का अंश 12-20 % होने पर फसल को डंडो से पीटकर या बैलो  की दाय चलाकर या ट्रेक्टर से गहाई (मड़ाई) की जाती है। आज कल मड़ाई के लिए बहु फसली गहाई यंत्र (थ्रेसर) का भी प्रयोग किया जाता है। मड़ाई के बाद बीजों को भूसे से अलग करने के लिए पंखे का प्रयोग करते है या हवा में ओसाई करते है। थ्रेशर से गहाई करने से बीज तथा भूसा अलग-अलग निकल जाते है तथा गहाई में समय और श्रम कम लगता है।  गहाई के बाद बीजों के भण्डारण हेतु 8 % नमीं के स्तर पर लाने के लिए घूप में लगभग 5-6 दिन तक सुखाना चाहिए।

उपज अधिक कमाई भरपूर 

             सरसों एवं तोरिया की उन्नत सस्य  तकनीक अपनाकर  सिंचित  अवस्था में 20-25 क्विंटल तथा असिंचित अवस्था  में  15 - 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है। भूसा भी लगभग 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।बीज को अच्छी तरह धूप में  सूखाना चाहिए। सरसों के दानों में भण्डारण के समय नमी की मात्रा 7-10 प्रतिशत होना चाहिए। भारत सरकार द्वारा वर्ष 2018-19 के लिए घोषित रबी फसलों के समर्थन मूल्य के आधार पर यदि सरसों की उपज की बिक्री 4200 रूपये प्रति क्विंटल के हिसाब से की जाती है और किसान भाई 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर भी  पैदावार  लेते है तो उन्हें 84000 रूपये की कुल आमदनी होती है जिसमे से 24000 रूपये प्रति हेक्टेयर की उत्पादन लागत घटाने पर उन्हें 60000 रूपये का शुद्ध मुनाफा हो सकता है। इसके अलावा सरसों का भूषा बेचकर किसान भाई कम से कम 3-4 हजार का अतिरिक्त मुनाफा भी अर्जित कर सकते है।  
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