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बुधवार, 12 जून 2019

जलवायु परिवर्तन एवं जल संकट में कारगर है-एरोबिक धान उत्पादन पद्धति


जलवायु परिवर्तन एवं जल संकट में कारगर है

एरोबिक धान उत्पादन पद्धति

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

भारत में उपलब्ध कुल ताजे जल का 80 प्रतिशत हिस्सा कृषि कार्यो में इस्तेमाल किया जाता है और इसका  60 प्रतिशत से अधिक  भाग  धान की सिंचाई के लिए प्रयुक्त किया जाता है।  जाहिर है, कि सिंचित धान की जल उपयोग दक्षता बहुत कम है, क्योंकि इसमें एक किलोग्राम धान उत्पादन करने के लिए 3000 से 5000 लीटर पानी की खपत होती है। भारत में लगभग 50 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि में धान की खेती प्रचलित है जिसमें उपलब्ध सिंचाई जल का सर्वाधिक उपयोग होता है।  देश में ताजे पानी की निरंतर घटती उपलब्धतता और बढती आबादी को आहार उपलब्ध कराने हेतु पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादन के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए हमें कम से कम जल में अधिकतम उत्पादन लेने हेतु आवश्यक कदम उठाने होंगे।  हमारे देश की 70 प्रतिशत आबादी का मुख्य आहार चावल (धान) है और देश में खाध्य  सुरक्षा को  कायम रखने के लिए हमें उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों को क्षति पहुंचाएं बिना  धान उत्पादन बढ़ाने के सघन प्रयास करने होंगे।  इसमें कोई शक नहीं है कि धान की फसल की जल मांग अन्य फसलों की तुलना में सर्वाधिक है और इसलिए किसान भाई वर्षा जल अथवा सिंचाई के माध्यम से धान के खेत को पानी से लबालब भर कर रखते आ रहे है. परन्तु अब  जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून की अनिश्चितता, कम हो रही वर्षा, गिरते भू-जल के कारण धान की परम्परागत खेती को खतरा पैदा हो गया है।  यही नहीं पानी से भरे हुए खेत विनाशकारी गैसें जैसे मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड आदि उगल रहे है जो की ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण प्रदूषण के लिए उत्तरदाई मानी जाती है।   अतः जलवायु परिवर्तन, वर्षा जल में हो रही लगातार कमीं, खेती की लिए आवश्यक श्रमिकों की अनुपलब्धता,  खेती की बढती लागत को ध्यान में रखते हुए हमें धान की खेती के तौर-तरीकों में बदलाव करना होगा. अन्तराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान, फिलिपीन्स एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के वैज्ञानिकों ने धान की खेती की ऐसी तकनीक विकसित की है जिसके माध्यम से कम पानी एवं सीमित लागत में धान की भरपूर फसल ली जा सकती है।  इसे एरोबिक राइस कल्टीवेशन (वायु संचारित धान की खेती) नाम दिया गया है। 
एरोबिक धान की फसल फोटो साभार गूगल

  क्या एरोबिक धान (वायु संचारित) धान ?

धान उगाने की एरोबिक (वायुसंचारित)पद्धति एक पर्यावरण अनुकूल पद्धति है।  इस विधि में धान को गेंहू, दलहन और तिलहन की भांति सूखी किन्तु सिंचित मिट्टी में उगाया जाता है।   इस प्रकार से एरोबिक धान उत्पादन उन सभी खेतों में किया जा सकता है, जो दालों, ज्वार, बाजरा, मक्का, गेंहूँ आदि के लिए उपयुक्त होते है।  इसमें धान फसल को मौसम और विशिष्ट जरूरतों के मुताबिक ही सिंचाई की जाती है।  इसमें पूरी फसल अवधि तक खेत जल से असंतृप्त रखा जाता है  अर्थात सिंचाई सिर्फ मिट्टी को गीला रखने के लिए की जाती है न कि खेत को पानी भरने या मिटटी को संतृप्त करने के लिए।  दूसरे शब्दों में एरोबिक धान के लिए मिट्टी को पूरे फसल काल के दौरान नॉन सैचुरेटेड (गैर-संतृप्त) स्थिति में रखा जाता है।  खेत मचाने (पडलिंग)  के लिए आवश्यक जल की सीधे-सीधे बचत हो जाती है।  एरोबिक धान प्रणाली में धान के खेत को वैकल्पिक रूप से बार-बार गीला और सूखा करने से पानी की बचत के साथ-साथ खेत से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में काफी कमी  होती है. इस विधि से  परम्परागत पद्धतियों के समकक्ष उपज प्राप्त होने के साथ साथ करीब 40-50 प्रतिशत जल की बचत होती है। 

वायुसंचारित (एरोबिक) धान की खेती से लाभ

     पारम्परिक मचाई, पानी भरी एंव अवायुसंचारित दशा में की जाने वाली धान की खेती के सापेक्ष वायु संचारित धान की खेती से  अग्र लिखित लाभ होते है –
Ø एरोबिक धान पद्धति में सीधी बुवाई की जाती है। खेती की मचाई एंव लगातार परनी भरे रहने की आवश्यक्ता नहीं की होती है। अमूमन 40-50% तक सिंचाई जल की बचत होती है।
Ø पौध शाला प्रबंधन  एंव रोपाई की आवश्यकता नहीं होती है । अतः समय, श्रम एवं धन की बचत होती है।
Ø बीज की मात्रा कम लगती है।  पानी का बहाव और अधिक पानी की वजह से पोषक तत्वों की हानि अधिक होती है परन्तु एरोबिक धान में पोषक तत्वों का नुकशान कम होता है अतः उर्वरक उपयोग क्षमता में वृद्धि होती है।
Ø खेत में पानी नहीं भरा होने से वायु आगमन में सुगमता होती है, जिससे जड़ तन्त्र का  विकास अच्छा होता है। अतः फसल गिरने की आशंका कम रहती है। 
Ø खेत में पानी नहीं भरने से फसल में कीट-रोग का प्रकोप कम होता है।
Ø  इस पद्धति से खेती करने पर भूमि की भौतिक दशा में सुधार होता है, जिससे अगली फसलों की बुवाई में आसानी होती है। 
Ø एरोबिक धान वाले खेतों में मिट्टी को पूरी फसल अवधि के दौरान वायवीय स्थिति में बनाये रखा जाता है, इसलिए जहरीली गैसों जैसे मीथेन आदि का उत्सर्जन कम होता है पानी भरे खेत में नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्पादन होता है।  अतः एरोबिक धान पद्धति पर्यावरण अनुकूल मानी जाती है।
Ø कीचड युक्त खेतों में नर्सरी, रोपाई, निराई-गुड़ाई आदि कार्यो के लिए लम्बे समय तक काम करने वाले कृषकों/मजदूरों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है जबकि एरोबिक धान पद्धति में किसान को स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं नहीं आती है।
                                       एरोबिक धान उत्पादन पद्धति से खेती ऐसे करें 
खेत की तैयारी
धान की उगाने की एरोबिक  (वायुसंचारित) पद्धति में खेत की तैयारी सामान्यत: गेहूं या मक्के जैसे ही की जाती है।  सर्वप्रथम 2 या 3 जुताई कर खेत को समतल कर मिट्टी को भुरभुरा करते हैं खेत की अंतिम जुताई के समय गोबर की खाद/फसल अवशेष आदि 5-6 टन प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में मिलाना चाहिए हैं।
प्रजाति का चुनाव
एरोबिक परिस्थितियों में अधिकतम उत्पादन के लिए  धान की सही प्रजाति का चुनाव करना सबसे महत्वपूर्ण होता है  एरोबिक धान किस्मों/प्रजातियों में सूखा सहिष्णु,  कम फसल अवधि (शीघ्र तैयार होने वाली) एवं गहरी जड़ प्रणाली जैसे लक्षण होना चाहिए। इन किस्मों को प्रकाश-असंवेदनसील होना चाहिए एवं सीधे शुष्क बुवाई के लिए उपयुक्त होना चाहिए।  सहभागी धान, आई आर-64, एमटीयू-1010, पीएमके-3, पीएचबी-71, पीए-6444, डीआरआरएच-3, जेकेआरएच-3333, प्रोअग्रो-6111, सत्यभामा सीआर 101, पूसा सुगंधा, सीआर धान-201, सीआर धान-206, रासी,डीआरआर धान-44,  दंतेस्वरी, इंदिरा बारानी धान-1, बम्लेस्वारी आदि का चुनाव करना चाहिए।
बुवाई का समय एवं विधि
धान की सीधी बुवाई मानसून आगमन से एक सप्ताह पहले या फिर वर्षा प्रारंभ होने के साथ करने पर धान की उपज बराबर ही मिलती है।  अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्मों की बुवाई हेतु 30 किग्रा तथा संकर धान के लिए 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है।  यदि किसान भाई स्वयं का बीज इस्तेमाल करना चाह रहे है तो बुवाई से पूर्व बीजों को कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित कर लेना चाहिए बुवाई हल के पीछे पोरा या केरा विधि से 2-3 से.मी. की गहराई पर करना चाहिए।  इसके लिए सीड ड्रिल का उपयोग भी किया जा सकता है।  उन्नत किस्मों को पंक्तियों में 20 x 10 से.मी. तथा संकर प्रजातियों को 20 x 15 से.मी. की दूरी पर बोना चाहिए।  खेत में इष्टतम पौध संख्या स्थापित करने के लिए एक स्थान पर 2-3 पौधे बनाये रखना आवश्यक होता है।
पोषक तत्व का प्रबंधन
एरोबिक धान से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए पोषक तत्वों का प्रबंधन अति आवश्यक है।  उर्वरकों की सही एवं संतुलित मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए।  सामान्यतौर पर उन्नत किस्मों के लिए 120 किग्रा नत्रजन,50 किग्रा फॉस्फोरस तथा 50 किग्रा पोटाश तथा संकर किस्मों के लिए 150 किग्रा नत्रजन,40 किग्रा फॉस्फोरस तथा 50 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।  फॉस्फोरस एवं पोटाश की संस्तुत मात्रा बुवाई के समय प्रयोग करें। बुवाई के समय नत्रजनीय उर्वरक देने से खेत में खरपतवार अधिक पनपते है।  नाइट्रोजन की आधी मात्रा फसल की 2-3 पत्ती अवस्था के समय देना लाभप्रद होता है।  नत्रजन उर्वरक की शेष आधी मात्रा को दो सामान भागों में बांटकर 25 % अधिकतम फसल बढ़वार (बुवाई के 45 दिन बाद) और शेष 25 % मात्रा फसल में 50 % फूल आने पर देना चाहिए।   बुवाई के शुरूआत अवस्था में प्रति एकड़ 4 से 5 टन सड़ी गोबर की खाद 40 से 50 किलो डीएपी, 15 से 20 किलो यूरिया, 20 किलो पोटाश एवं 8 से 10 किलो जिंक सल्फेट का उपयोग बुवाई के समय करे शेष यूरिया की मात्रा को दो अलग-अलग अवस्था में डालें। जिन भूमियों में लौह तत्व की कमी अथवा फसल में लौह तत्व की कमीं के लक्षण दिखते है, तो साप्ताहिक अंतराल में फेरस सल्फेट का 0.5-1.0  % का घोल बनाकर 3-4 बार पत्तियों पर छिडकाव करना चाहिए।
खरपतवार प्रबंधन
धान की सीधी बुवाई  करने पर खरपतवार प्रकोप अधिक होता है अर्थात एरोबिक धान प्रणाली में खरपतवार मुख्य समस्या उत्पन्न करते है।  खरपतवार प्रबंधन पर समुचित ध्यान नहीं देने से 50-90 प्रतिशत तक उत्पादन में कमीं हो सकती है।  अतः धान के खेत में निराई-गुड़ाई करके खरपतवार नष्ट कर देना चाहिए।  हाथ अथवा मशीनों के जरिये खरपतवार नियंत्रण में समय, श्रम और पूँजी अधिक लगती है।  शाकनाशियों के इस्तेमाल से कम खर्च में शीध्र खरपतवारों पर काबू पाया जा सकता है।  खरपतवार नियंत्रण हेतु बुवाई के तुरंत बाद पेंडामिथालीन 30 ई सी  1.5 किग्रा सक्रिय तत्व लीटर को 500 लीटर पानी के साथ मिलाकर  प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकना चाहिए।  इसके बाद बुवाई के 15 से 20 दिन बाद (या 3-4 पत्ती अवस्था) बिसपाइरिबेक सोडियम 250 मिग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से  500 लीटर पानी के साथ मिलाकर छिड़काव करें।
सिंचाई प्रबंधन
धान उत्पादन की एरोबिक पद्धति में अधिक उपज के लिए उचित जल प्रबंधन आवश्यक है. जिस प्रकार से गेहूं की सिंचाई करते है उसी प्रकार हमें धान की सिंचाई करते रहना चाहिए। फसल की किसी भी अवस्था में खेत में पानी भरा रखने की कोई आवश्यकता नहीं है।  सुवितरित और पर्याप्त वर्षा होने पर, सिंचाई देने की जरुरत नहीं होती है. खेत की मिट्टी में बाल बराबर दरारें दिखने पर सिंचाई कर देना चाहिए। कृत्रिम  सिंचाई से वर्षा जल सिंचाई बेहतर होती है।  अधिक वर्षा होने की स्थिति में खेत से जल निकासी की उचित व्यवस्था होना चाहिए।  यदि किसान भाईयों के पास स्प्रिंकलर की उपलब्धता है तो सिंचाई स्प्रिंकलर के माध्यम से  की जा सकती है  खेत में पानी  भरा रहने से मृदा में हवा का प्रवेश अवरुद्ध हो जाता है जिससे  जड़ों का विकास रुक जाता है। मिट्टी में हवा का आवागमन होने से जड़ों का विकास अच्छा होता है और कल्लों का फुटाव ज्यादा होता है जिससे पैदावार अच्छी प्राप्त होती है। अतः धान के खेत में पानी भरने की बजाय खेत में लगातार नमीं बनाये रखना महत्वपूर्ण है।  इसके लिए वैकल्पिक सूखा फिर सिंचाई पद्धति सबसे कारगर साबित हो रही है।  इससे सिंचाई जल की 40-50 प्रतिशत बचत होती है और उपज भी भरपूर प्राप्त होती है।
फसल की कटाई एवं उपज
सामान्य तौर पर एरोबिक पद्धति से उगाये गए धान में 75-80 दिनों में पुष्पन अवस्था आती है और 120-125 दिनों में फसल परिपक्व हो जाती है।  एक बाली में 90-95 प्रतिशत दानों के परिपक्व होने पर फसल की कटाई करना चाहिये।  कटाई के समय दानों में 20-22 प्रतिशत नमीं होना चाहिए।  गहाई के बाद भण्डारण से पूर्व दानों को 10-12 प्रतिशत नमीं तक सुखा लेना चाहिए. सामान्य परिस्थितियों एवं उचित सस्य प्रबंधन के आधार पर एरोबिक धान से 4-5 टन प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है। 
उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कह सकते है कि जलवायु परिवर्तन से उपजी समस्याओं यथा वर्षा जल में अनिश्चितता, पर्यावरण प्रदुषण में वृद्धि, खेती में बढती लागत और जनसँख्या वृद्धि को देखते हुए हमें धान उत्पादन को टिकाऊ बनाने और खेती की लागत कम करने  के एरोबिक धान पद्धति को प्रोत्साहित करना चाहिए।  इसमें कृषि एवं कृषक कल्याण से जुड़ें समस्त सरकारी विभागों के मैदानी अधिकारीयों एवं निजी क्षेत्र के कृषि आदान कंपनियों की अहम भूमिका हो सकती है।  जागरूक और उन्नत किसानों को तो यह पद्धति अपनाना ही  चाहिए  बल्कि आस-पास के साथी  किसानों को भी प्रेरित करना चाहिए ताकि आने वाले वर्षों में देश की खाद्यान्न सुरक्षा कायम बनी रहें।

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मंगलवार, 11 जून 2019

खरपतवार मुक्त खेत से ही संभव है धान का अधिकतम उत्पादन


          खरपतवार मुक्त खेत से ही संभव है धान का अधिकतम उत्पादन
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय.
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,
                           अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
देश की जनसंख्या वृद्धि के साथ खाद्यानों की मांग को पूरा करना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। धान हमारे देश की प्रमुख खाद्यान फसल है। इसकी खेती विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में लगभग 43.50 मिलियन हेक्टेयर जिससे 110.15 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ है। राष्ट्रीय स्तर पर धान की औसत पैदावार 25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है, जो कि बहुत कम है । परम्परागत विधि से  धान की  बुवाई और फसल में खरपतवारों के प्रकोप से धान का उत्पादन कम मिल पाता है.   हमारे देश में धान की खेती असिंचित/वर्षा आधारित (40 % क्षेत्र) एवं सिंचित (60 % क्षेत्र) परिस्थितियों में की जाती है।  ऊची भूमि में वर्षा आधारित खेती में खरपतवार नियन्त्रण एक बड़ी समस्या है, यदि इसका समय से प्रबंधन न किया जाये तो फसल पूरी तरह नष्ट हो जाती है।  खरपतवार प्रायः फसल से पोषक तत्व, नमी, सूर्य का प्रकाश तथा स्थान के लिये प्रतिस्पर्धा करते हैं जिससे मुख्य फसल के उत्पादन में कमी आ जाती है। धान की फसल में खरपत्वारों से होने वाले नुकसान को 15-85 प्रतिशत तक आंका गया है। कभी - कभी यह नुकसान 100 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। सीधे बोये गये धान (35-45 प्रतिशत) में रोपाई किये गये धान (10-15 प्रतिशत), की तुलना में अधिक नुकसान होता है। पैदावार में कमी के साथ-साथ खरपतवार धान में लगने वाले रोगों के जीवाणुओं एवं कीट व्याधियों को भी आश्रय देते हैं। कुछ खरपतवार के बीज धान के बीज के साथ मिलकर उसकी गुणवत्ता को खराब कर देते हैं। इसके अतिरिक्त खरपतवार भूमि से भारी मात्रा में पोषक तत्वों का अवशोषण कर लेते हैं तथा धान की फसल को पोषक तत्वों से वंचित कर देते हैं।
धान में खरपतवार नियंत्रण फोटो साभार  कृषक जगत (गूगल)

खरपतवार प्रबंधन कब करें ?

धान की फसल में खरपतवारों से होने वाला नुकसान खरपतवारों की संख्या, किस्म एवं फसल से प्रतिस्पर्धा के समय पर निर्भर करता है। फसल की प्रारम्भिक अवस्था में घास कुल के खरपतवार जैसे सावां, कोदों आदि एवं बाद की अवस्था में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार सर्वाधिक  नुकसान पहुंचाते हैं। सीधे बोये गये धान में बुवाई के 15-45 दिन तथा रोपाई वाले धान में रोपाई के 35-45 दिन बाद का समय खरपतवार प्रतिस्पर्धा की दृष्टि से क्रान्तिक (संवेदनशील) होता है। इस अवधि में फसल को खरपतवारों से मुक्त रखने से उत्पादन अधिक प्रभावित नहीं होता है।

1.शुष्क परिस्थिति में सीधे बोये गए धान (वर्षाश्रित ऊपरी तथा निचली भूमि

खेत की भली भांति जुताई करने के पश्चात खरपतवार अवशेष हटा कर खेत को समतल कर लेना चाहिए।  सीड ड्रिल अथवा हल के पीछे 20 सेमी की दूरी पर कतारों में 70 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर की दर पर बुवाई करें।  खरपतवारों की बढ़वार रोकने के लिए धान फसल में नत्रजन का आधारी प्रयोग नहीं करना चाहिए बल्कि सिफारिस की गई नत्रजन को तीन समान भागों में बांटकर बुवाई के 20,40 एवं 60 दिनों बाद प्रयोग करना चाहिए।  बुवाई करने के 15-20 दिनों बाद कतारों के बीच खरपतवारों को नष्ट करने के लिए वीडर का प्रयोग करना चाहिए।  कम खर्च में खरपतवारों के नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि का प्रयोग करना सर्वोत्तम पाया गया है।  घास जैसे खरपतवारों के नियंत्रण के लिए बुवाई करने के 10-12 दिनों बाद गीली मिट्टी की सतह पर बाइस्पाइरिबेक सोडियम (नोमिनो गोल्ड) 35 ग्राम प्रति हेक्टेयर या क्वीनक्लोराक (फासेट) 375 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।  निचली भूमियों में देर से उगने वाले घास कुल के खरपतवारों के नियंत्रण के लिए बुवाई करने के 25 दिनों बाद फेनोक्साप्रोप-पी-इथाइल (राइस स्टार) 70 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।

2.आद्र परिस्थिति में सीधे बोये गए धान (वर्षाश्रित उथली निचली भूमि तथा सिंचित)

आद्र परिस्स्थिति में बुवाई करने से पूर्व एक माह तक खेत को सूखा रखने के बाद एक सप्ताह के अंतराल में दो बार खेत की मचाई कर समतल कर लेना चाहिए।  पहली मचाई के बाद खेत में पानी भरा रहने से खरपतवार एवं फसल अवशेष साद जाते है।  इसके बाद पूर्व अंकुरित बीजों को गीली मिटटी में 20 x 15 सेमी की दूरी पर 60 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई करें अथवा कतारों में 20 सेमी की दूरी पर हाथ से या ड्रम सीडर द्वारा बुवाई की जा सकती है।  बुवाई के समय नत्रजन उर्वरक का प्रयोग न करें क्योंकि नत्रजन के प्रयोग से शीघ उगने वाले खरपतवारों की बढ़वार अधिक होती है।  अतः सिफारिस की गई नत्रजन को चार समान भागों में बांटकर बुवाई के 15,30,45 तथा 60 दिनों बाद देना चाहिए।  बुवाई करने के 15-20 दिनों बाद गीली मिटटी में हैण्ड हो या वीडर चलाकर खरपतवार नियंत्रित किये जा सकते है।  यह एक श्रमसाध्य एवं महँगी विधि है।  कम खर्च में रासायनिक विधि से घास कुल के खरपतवारों के नियंत्रण के लिए बाइस्पाइरिबेक सोडियम (नोमिनो गोल्ड) 35 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें।  चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिए बुवाई के 8  दिनों बाद बेनसल्फ्यूरान  मिथाइल 70 ग्राम तथा प्रेटीलाक्लोर 700 ग्राम प्रति हेक्टेयर (लोडाक्स पॉवर) की दर से अथवा बुवाई करने के 15 दिनों बाद एजिमसल्फ्यूरान (सेगमेंट) 70 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें।

3.प्रतिरोपित धान (वर्षाश्रित उथली निचली भूमि तथा सिंचित)

रोपाई विधि से धान लगाने के लिए आद्र सीधी-बुवाई वाले धान के समान भूमि की तैयारी करें. अच्छी प्रकार से तैयार खेत में 25-30 दिनों की उम्र वाले पौधों को 20 x 15 अथवा 15 x 15 सेमी की दूरी पर एक स्थान पर 2-3 पौध की रोपाई करें।  रोपाई करने के 15 दिनों बाद नत्रजन की पहली मात्रा प्रयोग करे तथा शेष मात्रा 15-20 दिनों के अंतराल में 2-3 समान भागों में बांटकर प्रयोग करना चाहिए।  उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण मृदा उर्वरता एवं धान की किस्म के आधार पर करना चाहिए।  यांत्रिक विधि से खरपतवार नियंत्रण हेतु रोपाई के 25-30 दिनों बाद खेत में 8-10 सेमी पानी स्तर होने पर कतारों के बीच कोनोवीडर चलाना चाहिए।  पौधों के पास के खरपतवार हाथों से निकाले जा सकते है।  शीघ्र खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि सरल एवं किफायती होती है।  धान की पौधशाला में  बुवाई करने के 2-3 दिनों के अन्दर पाइराजोसल्फ्यूरान इथाइल (साथी) 20 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से खरपतवार नियंत्रण में रहते है।  मुख्य खेत में, आद्र सीधी-बुवाई वाले धान के लिए सिफारिस किये गए खरपतवारनाशियों का प्रयोग करें।  इसके अलावा शुष्क मौसम के दौरान धान की रोपाई के 15 दिनों बाद अलमिक्स 4 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करने से चौड़ी पत्ते वाले एवं नरकुल खरपतवार नियंत्रित हो जाते है।
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शुक्रवार, 7 जून 2019

कृषि में संतुलित उर्वक उपयोग से टिकाऊ खेती संभव


             कृषि में संतुलित उर्वक उपयोग से टिकाऊ खेती संभव
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय.
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

हमारे देश की जनसँख्या 125 करोड़ का आंकड़ा बहुत समय पहले ही पार कर चुकी है. तेजी से बढ़ती हुई आबादी के लिए भरपूर भोजन की व्यवस्था करने के लिए सतत कृषि उत्पादन बढ़ाना आवश्यक ही नहीं मजबूरी हो गया है कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी के लिए हमारे सामने दो महत्वपूर्ण विकल्प हैं, पहला तो यह कि हम पैदावार बढाने के लिए कृषि योग्य भूमि में वृद्धि करें जो कि लगभग नामुमकिन है दूसरा महत्वपूर्ण विकल्प बचता है कि हम कम से कम क्षेत्रफल से अधिक से अधिक पैदावार लें  फसलों से अधिक उपज प्राप्त करना कई कारकों पर निर्भर करता है, मसलन उन्नत किस्में, सिंचाई, उर्वरक, पौध सरंक्षण आदि. उन्नत किस्मों से अधिकतम पैदावार लेने के लिए सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है जलवायु परिवर्तन के कारण सिंचाई जल की उपलब्धतता में निरंतर कमीं होती जा रही है।  अतः फसल उत्पादन बढाने में पानी के बाद उर्वरक एक महत्वपूर्ण कृषि आदान है सघन कृषि में लगातार अंधाधुंध तरीके से रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति में गिरावट आने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण में भी इजाफा हो रहा है।  अतः खद्यान्न उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उर्वरक का समुचित एवं संतुलित प्रयोग करना नितांत आवश्यक है. उर्वरक का समुचित एवं संतुलित इस्तेमाल से तात्पर्य है की फसल की आवश्यकतानुसार सभी आवश्यक पोषक तत्व समुचित मात्रा एवं उचित अनुपात में उचित समय पर मृदा में उपलब्ध करना है. पौधों के सम्पूर्ण विकास के लिए 18 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है. पौधों के लिए आवश्यक मुख्य पोषक तत्वों में  नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश का उपयोग अधिक मात्रा में तथा अन्य तत्व का उपयोग अल्प मात्रा में किया जाता है. अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने की लालसा में किसान अंधाधुंध तरीके से रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहे है जिससे प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति निर्मित हो रही है. किसान खेती में अनुमान से ही उर्वरकों का उपयोग कर रहे है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है और पर्यावरण को भी क्षति पहुँच रही है बहुतेरे कृषक खेती में उर्वरक का उपयोग तो करते है किन्तु एक या दो तत्व से संबंधित उर्वक को भूमि में मिलकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है इस प्रकार से उर्वरक देने से फसल को उस तत्व विशेष की तो प्रचुर मात्रा उपलब्ध हो जाती है परन्तु अन्य तत्वों की कमीं से मृदा के पोषक तत्वों का संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाता है उदहारण के लिए यदि हम मृदा में सिर्फ यूरिया का इस्तेमाल लम्बे समय तक करें तो मृदा में नत्रजन तो पर्याप्त मात्रा उपस्थित रहेगा किन्तु फॉस्फोरस, पोटेशियम, सल्फर आदि की कमीं हो जाती है जिससे फसल उत्पादन बढ़ने की बजे घटने लगता है. जागरूक किसान भूमि में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश से युक्त उर्वरक का उपयोग तो पर्याप्त मात्रा में करते है परन्तु फसल के लिए अन्य आवश्यक पोषक तत्वों जैसे कैल्शियम, सल्फर, मैग्नेशियम आदि की पूर्ति पर ध्यान नहीं देते है जिससे इन तत्वों की कमीं के कारण उन्हें भरपूर उत्पादन नहीं मिल पाता है खरीफ में जिन क्षेत्रों में सोयाबीन अथवा मूंगफली की खेती प्रचलन में है, वहां की मिट्टियों में सल्फर तत्व की कमीं देखी जा रही है चूँकि सोयाबीन एवं मूंगफली तिलहनी फसलें है जो मृदा से अधिक मात्रा में सल्फर तत्व का अवशोषण करती है, क्योंकि तेल निर्माण में सल्फर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है वर्तमान परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि कम लागत में अधिकतम उपज लेने के लिए क्षेत्र के अनुकूल फसल चक्र अपनाते हुए उर्वरकों का समुचित एवं संतुलित उपयोग किया जाए जिससे उर्वरक उपयोग क्षमता में बढोत्तरी हो सके।  फसलों से अधिकतम उत्पादन लेने तथा उर्वरक उपयोग क्षमता में वृद्धी के लिए अग्र प्रस्तुत विन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है:
1.उर्वरकों का चयन: किसान भाइयों को फसल की किस्म, मृदा गुण एवं उर्वरक में तत्व के मूल्य के आधार पर उर्वरकों का चयन करना चाहिए
(i)फसल की किस्म: बोई जाने वाली फसल की किस्म के आधार पर उर्वरक का चयन करना चाहिए, क्योंकि फसल विशेष किसी तत्व विशेष की उपलब्धतता से अधिक उपज देती है।  उदहारण के लिए गेंहू, धान, मक्का, गन्ना आदि फसलों को नाइट्रोजन तत्व की अधिक आवश्यकता होती है।  दलहनी फसलों को फॉस्फोरस एवं कैल्शियम, तिलहनी फसलों को पोटाश, फॉस्फोरस एवं गंधक तत्व की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है इसी प्रकार से लम्बी अवधी वाली फसलों (गन्ना,कपास आदि) को ऐसे उर्वरक देने चाहिए, जो अधिक समय तक फसल को धीरे-धीरे पोषक तत्व प्रदान करते रहे. कम अवधि वाली फसलों को शीघ्र प्राप्त होने वाले उर्वरक देना लाभकारी होता है।
(ii)मृदा गुण: हमारे देश में अनेकों प्रकार की मृदाएँ पाई जाती है जिनमे अलग-अलग तत्वों की कमीं या अधिकता पाई जाती है।  अतः मृदा का रासायनिक परीक्षण करवाकर जिस तत्व की कमीं हो, उसकी पूर्ती करना चाहिए।  अम्लीय मृदा में क्षारीय प्रभाव डालने वाले उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए जैसे अमोनियम सल्फेट. इस प्रकार से क्षारीय मृदा में अम्लीय प्रभाव वाले उर्वरकों जैसे अमोनियम नाइट्रेट आदि का प्रयोग करना चाहिए।  सल्फर की कमीं वाली मृदाओं में सुपर फॉस्फेट या सल्फर युक्त उर्वरक का इस्तेमाल करना चाहिए।
(iii)उर्वरक में तत्व इकाई मूल्य: किसी पोषक तत्व विशेष के उर्वरक के रूप में अनेक विकल्प हो सकते है।  आर्थिक दृष्टि से उस उर्वरक का उपयोग करना चाहिए जिसका इकाई मूल्य कम हो अर्थात उर्वरक में पोषक तत्व की प्रतिशत मात्रा अधिक होना चाहिए.
2.उर्वरक प्रयोग का सही समय: उर्वरक की उपयोग दक्षता बढ़ाने के लिए आवश्यक है की उर्वरक का परिस्थितयों के अनुसार सही समय पर प्रयोग किया जाए. सही समय वह होता है जब उस तत्व की पौधों को अधिक आवश्यकता होती है फॉस्फोरस एवं पोटाश की आवश्यकता पौधों को अपने प्रारंभिक काल में जड़ वृद्धि के लिए अधिक होती है अतः इन उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय आधार के रूप में देना चाहिए इसके अलावा नत्रजन एक गतिशील तत्व है भूमि में निक्षालन द्वारा इस तत्व की हानि अधिक होती है। इसलिए सम्पूर्ण आवश्यक मात्रा को खड़ी  फसल में 2-4 बार में देना लाभकारी होता है सूक्ष्म पोषक तत्वों का छिडकाव खड़ी फसल में लक्षण दिखाई देने पर करना चाहिए
3. उर्वरक की सही मात्रा: विभिन्न फसलों की उर्वरक आवश्यकता भिन्न-भिन्न होती है अतः उर्वरक की मात्रा निर्धारित करते समय फसल की किस्म, फसल चक्र, मृदा उर्वरता आदि बातें ध्यान में रखना चाहिए. मृदा परिक्षण के बाद ही उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण करना चाहिए उर्वरक का निर्धारण एक फसल पर न कर सम्पूर्ण फसल चक्र के आधार पर करना चाहिए जिससे यह स्पष्ट हो कि किस फसल को कौन से उर्वरक की कितनी मात्रा देना है।  उदहारण के लिए दलहनी फसलों के उपरान्त मृदा में नत्रजन देने की आवश्यकता कम होती है रबी फसल के बाद जब ग्रीष्म ऋतु में दलहनी फसल बोयें तो फॉस्फोरस एवं पोटाश का उपयोग न करें सिंचित धान-गेंहूँ फसल में दोनों फसलों में नत्रजन धारी उर्वरक देवें और फॉस्फोरस केवल गेंहूँ तथा पोटाश केवल धान में देना उचित होता है
4.उर्वरक प्रयोग की सही विधि: उर्वरक के उपयोग की उत्तम विधि वह है जिसमे कम खाद से अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके, साथ ही समय की बचत हो उर्वरक में उपस्थित तत्व की पानी में घुलनशीलता के आधार पर उर्वरक देने की विधि का चुनाव करना चाहिए. अचल तत्वों जैसे फॉस्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम को बुवाई के समय भूमि में मिलाना चाहिए, जिससे इन तत्वों को जड़ आसानी से ग्रहण कर सके नाइट्रोजन जैसे चल तत्वों की कुछ मात्रा बुवाई के समय कूंडों में देकर बाकी का उपयोग खड़ी फसल में करना चाहिए खड़ी फसल में उर्वरक को भूमि में न मिलाते हुए घोल के रूप में छिडकना अधिक फायदेमंद होता है. फसल में सूक्ष्म पोषक तत्वों का इस्तेमाल भी घोल के रूप में करना चाहिए सिंचाई के समय नालियों में घुलनशील उर्वरक देने से समय की बचत होती है
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