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बुधवार, 22 जनवरी 2020

मधुमक्खी पालन: एक रोचक लघु व्यवसाय



डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

भारत का एक बड़ा भू-भाग विविध फसलों, सब्जियों, फल वृक्षों, फूलों, जड़ी-बूटियों, वनों आदि से आच्छादित है, जो प्रतिवर्ष फूल, फल, बीज के साथ ही बहुमूल्य मकरन्द और पराग को धारण करते है, परन्तु उसका भरपूर सदुपयोग नहीं हो पाता है शहद उत्पादन हेतु मकरंद और पराग ही कच्चा माल है जो हमें प्रकृति से मुफ्त में उपलब्ध है मधुमक्खी ही केवल कीट प्रजाति का जीव है, जो पेड़-पौधों के फूलों से मकरंद एकत्रित कर मनुष्यों के लिए स्वादिष्ट एवं पौष्टिक खाध्य पदार्थ यानि मधु के रूप में परिवर्तित कर सकती है आज मधुमक्खियों के पालन पोषण और उनके सरंक्षण की महती आवश्यकता है मधुमक्खी पालन बेरोजगार युवकों, भूमि-हीन, अशिक्षित एवं शिक्षित परिवारों को कम लागत से अधिक लाभ देने वाला व्यवसाय ही नहीं है, अपितु इससे कृषि उत्पादन में भी 15-25 प्रतिशत की  वृद्धि होती है। भारत में किसानों को खेती के साथ-साथ बिना विशेष प्रयत्न के अतिरिक्त आय दे सकता है। इसके लिए किसान को न तो कोई अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है और न ही फसलों में अतिरिक्त खाद-पानी देना होता है। भारत में शहद उत्पादन के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश, राजस्थान,पश्चिम बंगाल, बिहार एवं हिमाचल प्रदेश अग्रणी राज्य है।  इसके अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं उत्तराखंड में भी मधुमक्खी पालन किया जाने लगा है। वर्ष 2016-17 में देश में 94,500 मैट्रिक टन शहद का उत्पादन हुआ ।  अभी हमारे देश में प्रति व्यक्ति शहद की खपत केवल आठ ग्राम है जबकि जर्मनी में यह 1800 ग्राम है। सेहत के लिए अमृत समझे जाने वाले शहद की उपयोगिता  के कारण आने वाले समय में शहद की मांग बढ़ने की संभावनाओं   को देखते हुए देश में मधुमक्खी पालन का सुनहरा भविष्य है।   
                            कब, कैसे और कहाँ करें मधुमक्खी पालन
मित्रवत खेती-मधुमक्खी पालन फोटो साभार गूगल 
मधुमक्खी पालन एक ऐसा उद्यम है जिसके लिए मधु मक्खी पालक किसान के पास अपनी जमीन और भवन होना भी आवश्यक नहीं है। अतः बेरोजगार युवक एवं कृषक अपना स्वयं का मधुमक्खी पालन व्यवसाय शुरू कर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत कर समृद्ध कृषि, स्वस्थ और श्रेष्ठ भारत निर्माण में भागीदार बन सकते है। इस व्यवसाय को कम लागत में घर की छतों में, छज्जों पर, खेत की मेड़ों के किनारे, तालाब के किनारे आसानी से किया जा सकता है। यही नहीं मौन पालक किसान अपनी पूँजी और सामर्थ्य के अनुसार एक बक्से से लेकर अनेक बक्सों से भी काम प्रारम्भ कर सकते है । एक बक्से से एक मौसम में औसतन 20-25 किलो शहद मिल सकता है। मधुमक्खी पालन के लिए जनवरी से मार्च का समय सबसे उपयुक्त है, लेकिन नवंबर से फरवरी का समय तो इस व्यवसाय के लिए वरदान है, क्योंकि तापमान की दृष्टि से मधुमक्खियों के लिए यह सबसे उपयुक्त समय होता है । बहुफसली क्षेत्र, बाग़-बगीचों, वनाच्छादित क्षेत्रों के आस-पास  मधुमक्खी पालन की व्यापक सम्भानाये संभावनाएं है फसलों में सूरजमुखी,सरसों,रामतिल,गाजर, मूली,सोयाबीन, अरहर,मिर्च आदि, फल वृक्षों में नीबूं,संतरा,मौसमी,आंवला,अमरुद,पपीता,अंगूर,आम आदि तथा शोभाकारी पेड़ों में गुलमोहर,नीलगिरी आदि के बागानों के पास मधुमक्खी पालन सफलतापूर्वक किया जा सकता है
मधुमक्खी पालन लागत:लाभ का गणित  
किसान भाई इस व्यवसाय को पांच कलोनी (पांच बाक्स) से शुरू कर सकते है एक बॉक्स में लगभग में 4000 रुपए का खर्चा आता है । इनकी संख्या को बढ़ाने के लिए समय समय पर इनका विभाजन कर सकते हैं। सामान्यतौर पर 50 बक्से वाली इकाई पर बक्से और उपकरण मिलाकर लगभग दो लाख रूपये की लागत आती है जिसमें 3-4 लाख की आमदनी प्राप्त की जा सकती है।  इसके अलावा आपके पास मधुमक्खियों की संख्या बढ़ जाएगी जिनसे आप अगली बार 100 बक्सों में मधुमक्खी पालन कर अपने मुनाफे को दौगुना कर सकते है।
मधुमक्खी पालन हेतु उपयुक्त प्रजाति
मधुमक्खी परिवार में एक रानी और लगभग 4-5 हजार श्रमिक मक्खियाँ तथा 100-200 नर (ड्रोन) मक्खियाँ पायी जाती है. भारत में मधुमक्खियों की मुख्यतः 4 प्रजातियां पाई जाती है.
1. चट्टानी मधुमक्खी(एपिस डोरसाटा):इसे रॉक बी के नाम से भी जाना जाता है. यह बड़े आकार की होती है. इसके पालन से शहद के एक छत्ते से 35-40 किग्रा प्रति वर्ष शहद प्राप्त किया जा सकता है. यह मक्खी उग्र स्वभाव की होती है।
2. लघु मक्खी (एपिस फ्लोरिया): यह मक्खी छोटे आकार की होती है जो प्रायः झाड़ियों में अपना छत्ता बनाती है। इससे एक छत्ते से लगभग 250-300 ग्राम तक शहद प्रति वर्ष प्राप्त होता है।
3. भारतीय मधुमक्खी( एपिस सेराना): एशियाई तथा भारतीय मूल की इन मधुमक्खियों को भारत के अधिकतर क्षेत्रों में पाला जाता है। भारतीय मधु वंश में 10-20 किग्रा मधु एक वर्ष में प्राप्त किया जा सकता है।
4. पश्चिमी मधुमक्खी (एपिस मेलीफेरा): इसे इटेलियन और यूरोपियन बी के नाम से जाना जाता है. शांत स्वभाव होने के कारण इनका पालन पोषण आसानी से किया जा सकता है. विश्व में इसी मधुमक्खी का पालन अधिक किया जाता है. इस मधुमक्खी द्वारा प्रतिवर्ष 50-150 किग्रा शहद एक छत्ते से प्राप्त किया जा सकता है। 
एक नहीं अनेक फायदे है मधुमक्खी पालन में
मधुमक्खी पालन से शहद के अलावा मोम, प्रोपोलिस,बी वैनम, पराग व रायल जैली प्राप्त होने के साथ-साथ फसल उत्पादन में भी वृद्धि होती है । मधुमक्खी पालन से होने वाली मुख्य लाभ इस प्रकार से है.  
बहुमूल्य शहद: प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ खाध्य पदार्थ मधु यानि शहद प्रदान करने का श्रेय मधुमक्खियों को ही जाता है। नियोजित तरीके से मधुमक्खी  पालन करने से अधिक मात्रा में शहद उत्पादन कर आर्थिक लाभ अर्जित किया जा सकता है। शहद यानि मधु अपने आप में एक संतुलित व पौष्टिक प्राकृतिक आहार है।  शहद में मिठास ग्लुकोज, सुक्रोज एवं फ्रुक्टोज के कारण है। एक चम्मच मधु से 100 कैलोरी उर्जा प्राप्त होती है इसके अलावा प्रोटीन की मात्रा 1-2 प्रतिशत होती है और न केवल प्रोटीन ब्लकि 18 तरह के अमीनो एसिड भी मौजूद होते हैं जो ऊत्तकों के निर्माण एवं हमारे शरीर के विकास में महत्वपूर्ण भुमिका निभाते है। मधु में कई तरह के विटामीन जैसे - बी-1, बी-2 व सी के अलावा अनेक प्रकार के खनिज जैसे पौटेशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, आयरन आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। मधु रक्त वर्धक, रक्त शोधक तथा आयुवर्धक अमृत है। आयुर्वेद में मधु को योगवाही कहा जाता है। आज अमूमन  80 प्रतिशत दवाईयों में मधु का इस्तेमाल किया जा रहा है। बेकरी कनफेक्सनरी उद्योग में भी मधु का उपयोग हो रहा है जैसे मधु जैम और जैली व स्कवैस में भी मधु डालकर उसकी गुणवत्ता को बढाया जाता है। इसी प्रकार से से टॉफी, आइसक्रीम एंव कैन्डी आदि विभिन्न प्रकार की कनफेक्सनरी उद्योगों में भी मधु का बहुत तेजी से उपयोग बढ़ता जा रहा है । शहद के  निर्यात से भारत को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा अर्जित होती है।
मोम उत्पादन : मोम उत्पादन, मधुमक्खी पालन उद्योग का एक उप-उत्पादन है। यह शहद के छत्तों से मधु निष्कासन के समय प्राप्त छिल्लन और टेढ़े छत्तों से प्राप्त किया जाता है। एक वंश से 200-300 ग्राम तक मोम प्रति वर्ष प्राप्त की जाती है। मोम का इस्तेमाल मोमबत्ती, औषधियां, पोलिश, पेंट तथा वार्निश बनाने में किया जाता है।
फसल उत्पादन में इजाफा: फसलों एवं पेड़ पौधों में परागण क्रिया में मधुमक्खियों का बहुत बड़ा सहयोग होता है। मधुमक्खियों द्वारा पौधां में लगभग 80 से 90 प्रतिशत परागण होता है। मधुमक्खी फूलों पर भ्रमण एवं परागण करती है। इस विशेषता के कारण सब्जियों, फलों तथा तिलहन फसलों के उत्पादन में भारी वृद्धि होती है।
मधुमक्खी पालन में ध्यान रखने वाली बातें
Ø मधुमक्खियों के परिवार को मौसम के अनुसार गर्मियों में छायादार स्थान में रखें एवं सर्दियों में धूप में रखें तथा मौन फ़ार्म के पास शुद्ध पानी का उचित प्रबंध रखें. बरसात के दिनों में मौन परिवारों को गहरी छाया में न रखें. इन्हें हमेशा ऊंचे स्थानों पर रखें जिससे वर्षा का पानी मौन परिवारों तक न पहुंचे.
Ø बरसात के दिनों में मौन परिवारों के द्वार (गेट) छोटे रखें जिससे सिर्फ दो मक्खियाँ आ-जा सके बाकी हिस्सा बंद कर दे ताकि मक्खियों में लूट-मार की समस्या नहीं होगी.
Ø बरसात (जुलाई से सितम्बर) में मौन परिवार के पास ततैया के छत्ते न बनने दें. ततैया दिखने पर उन्हें कीटनाशकों के छिडकाव से नष्ट कर दें.
Ø मौन परिवारों में नई रानी मधुमक्खी का होना आवश्यक है.इसके लिए माह फरवरी-मार्च में पुरानी रानियों को मारकर नई रानियाँ तैयार करें. नई रानियाँ पुरानी के मुकाबले अधिक अंडे देती है जिससे मधुमक्खी के परिवार में वर्कर मक्खियों की अधिक संख्या बनी रहती है.
Ø मौन बक्सों को ऐसे स्थानों पर रखें जहां भरपूर मात्रा में नैक्टर व पराग ( फूल वाले पेड़ पौधे, फसलें) उपलब्ध हो.
Ø  मौन परिवारों के लिए जब भरपूर मात्रा में नैक्टर न हो तो शक्कर का कृत्रिम भोजन के रूप में 50 प्रतिशत घोल रात्रि में रखें.
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रविवार, 19 जनवरी 2020

भरपूर उपज और आमदनी के लिए जायद में मूंगफली की खेती


डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

भारत के अनेक राज्यों विशेषकर धान-गेंहू फसल प्रणाली वाले क्षेत्रों में तेजी से भूजल गिरता जा रहा है।  केन्द्रीय भूजल बोर्ड की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हरियाणा, पंजाब व राजस्थान में भूजल स्तर 300 मीटर तक पहुंच जाएगा और अगले 20 से 25 साल में भूजल स्तर खत्म हो सकता है। देश के अन्य  राज्यों में भी भूजल संकट की आहट सुनाई देने लगी है।धान-गेंहू, गन्ना फसल प्रणाली वाले क्षेत्रों में इन फसलों की सिंचाई में पानी की सर्वाधिक खपत होती है। वर्तमान में धान उत्पादन देश की आवश्यकता से अधिक हो रहा है। देश के अनेक राज्यों में धान की खरीफ उपज को समर्थन मूल्य पर खरीद लिया जाता है परन्तु ग्रीष्मकालीन धान उपज को किसान ओने पौने दाम में मंडियों में बेचते है जिससे उन्हें लागत मूल्य भी नहीं मिल पाता है। ग्रीष्मकालीन धान की फसल में पानी की सर्वाधिक खपत होती है।  अतः बढ़ते जल संकट को देखते हुए   ग्रीष्मकालीन धान की खेती को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। धान के बाद धान की खेती करने से पानी  की  कमीं,  बिजली  की  अधिक  खपतमिट्टी  की उर्वरा शक्ति में गिरावटभूमिगत  पानी  के  स्तर  में  गिरावटभूजल  प्रदूषण के अलावा अन्य फसलों की उत्पादकता में गिरावट देखने को मिल रही है।पानी एवं संसाधनों के सरंक्षण के लिए धान बाहुल्य आश्वस्त सिंचन सुविधा संपन्न क्षेत्रों में धान की जगह मक्का, दलहन व तिलहन जैसी कम पानी चाहने वाली फसलों को प्रोत्साहित करने की जरुरत है।
       
मूंगफली फसल फोटो साभार गूगल 
देश में खाध्य तेल की जरुरत को पूरा करने के लिए करीब 23 लाख टन वनस्पति तेल की जरुरत होती है, जबकि भारत में अभी सिर्फ 8 लाख टन तेल ही पैदा हो पा रहा है और बाकी का 15 लाख टन तेल हमें विदेशों से आयात करना पद रहा है जिसमें करोड़ों रूपये की विदेशी मुद्रा खर्च करना पड़ रही है। देश में तिलहनी फसलों के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार तथा उनकी औसत उपज बढ़ने की महती आवश्यकता है। ग्रीष्म  ऋतु में धान की पारम्परिक खेती की बजाय 
मूँगफली की खेती अधिक फायदेमंद साबित हो रही है । भारत में मूंगफली की व्यापक खेती खरीफ ऋतु में की जाती है परन्तु  ग्रीष्मकाल में मूँगफली की खेती अधिक उपज (औसत 1877 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर) देती है,क्योंकि खरीफ की अपेक्षा ग्रीष्म  में खरपतवार, कीड़े एवं बीमारियों का प्रकोप फसल पर कम होता है। अतः ग्रीष्मकाल में सूक्ष्म सिंचाई की सहायता से मूँगफली के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार करने से मूंगफली उत्पादन में इजाफा हो सकता है और देश में खाद्यान्न तेलों की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है।  अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए कृषकों को निम्न तकनीक अपनानी आवश्यक हैः
उपयुक्त जलवायु

मूंगफली उष्ण कटिबंधीय पौधा होने के कारण इसे लम्बे समय तक गर्म मौसम की आवश्यकता होती है।  बीज अंकुरण और प्रारंभिक वृद्धि के लिए 14-15 डिग्री से.ग्रे. तापमान की आवश्यकता होती है।  फसल वृद्धि के लिए 21-30 डिग्री से.ग्रे. तापमान उत्तम रहता है।  पर्याप्त सूर्य प्रकाश, उच्च तापमान तथा सामान्य वर्षा मूंगफली की खेती के लिए सर्वश्रेष्ठ रहती है।  खरीफ की अपेक्षा ग्रीष्मकाल मूंगफली की खेती के लिए आदर्श मौसम होता है।  फसल पकने तथा खुदाई के समय एक माह तक गर्म एवं खुला मौसम बेहतर उपज के लिए आवश्यक है।
भूमि की किस्म
मूँगफली की फसल को विभिन्न प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है, परन्तु भरपूर उपज के लिए  बलुई दोमट भूमि जिसमे प्रचुर मात्रा में कार्बनिक पदार्थ एवं कैल्शियम मौजूद हो, अच्छी रहती है। भूमि का पी एच मान 5.5-7.5 के मध्य होना चाहिए।  आलूमटरसब्जी मटर तथा राई की कटाई के बाद खाली खेतों में मूंगफली की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।    भारी चिकनी मिटटी मूंगफली की खेती के लिए अनुपयुक्त रहती है। 
खेत की तैयारी
ग्रीष्मकालीन मूँगफली के लिए खेत की तैयारी अच्छी प्रकार कर लेनी चाहियें। मूंगफली का विकास भूमि के अन्दर होने के कारण खेत की मिटटी ढीली, भुरभुरी एवं बारीक होना आवश्यक है.  खेत की एक गहरी जुताई (12-15 सेमी.)तथा 2-3 जुताई देशी हल अथवा कल्टीवेटर से करके भुरभुरा बना लेना चाहिये। बहुत अधिक गहरी जुताई न करे अन्यथा फलियाँ गहराई पर बनेगी और खुदाई में कठिनाई हो सकती है।  अंतिम जुताई के समय 1.5 % क्यूनालफास 25 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से मिटटी में मिला देने से दीमक और भूमिगत कीड़ों से फसल सुरक्षित रहती है। 
उन्नत किस्मों का चयन
उन्नत किस्म का बीज फसल उत्पादन का एक आवश्यक अंग है. पुरानी किस्मों की अपेक्षा नविन उन्नत किस्मों में अधिक उपज क्षमता के साथ-साथ ये कीट-रोगों के प्रतिरोधक होती है। ग्रीष्मकालीन मूँगफली से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए शीघ्र तैयार होने वाली तथा गुच्छेदार प्रजातियों  का चयन करना चाहिए । छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त मूंगफली की प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएं अग्र सारणी में प्रस्तुत है।
प्रमुख किस्में 
पकने की अवधि(दिनो में)
उपज (कु./हे.)
सेलिंग (%)
दानों में तेल की मात्रा  (%)
एस.बी-11  
110-120  
28-30
68-70
48-50
आई.सी.जी.एस.-44
105-110
23-27
70-72
45-49
आई.सी.जी.एस.-11  
105-110
20-25  
68-70
47-50
आई.सी.जी.एस.-37
105-110
18-20
70-72
48-50
आई.सी.जी.वी.-93468 (अवतार)
115-120
25-30
69
50
जे.जी.एन.-23
90-95  
15-20  
69-70
45-50
टी.जी.-37
90-100
20-22  
69-71
48-50
टी.ए.जी.-24
90-100
28-30
69
50
जे एल.-501
105-110  
20-25
69-70
48-50
विकास
105-110
20-22
70-72
48-49

बुवाई का उचित समय
ग्रीष्मकालीन मूँगफली की अच्छी उपज लेने के लिए अच्छा होगा कि बुवाई फरवरी-मार्च में करना चाहिए । विलम्ब से बुवाई करने पर मानसून की वर्ष प्रारम्भ होने की दशा में खुदाई के बाद फलियों की सुखाई करने में कठिनाई होगी।
बीज का चयन एवं बीज दर
मूंगफली की बुआई हेतु बीज के लिए स्वस्थ फलियों का चयन करना चाहिए अथवा उनका प्रमाणित बीज का इस्तेमाल करना चाहिए।  बुवाई हेतु पुराने बीजों का इस्तेमाल न करें क्योंकि उनमें अंकुरण क्षमता कम होती है जिससे खेत में पर्याप्त पौध संख्या स्थापित नहीं हो पाती है. बुवाई के 4-5 दिनों पहले चयनित फलियों से  हाथ या मशीन की सहायता से  बीज  अलग कर लेना चाहिए. ध्यान रखें की फलियों तोड़ते समय  दानों  के लाल भीतरी आवरण को क्षति न पहुंचे अन्यथा बीज अंकुरण शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।  किसान भाई प्रायः मूंगफली के बीज का प्रयोग कम मात्रा में करते है जिसके कारण खेत में पौधों की बांक्षित संख्या स्थापित नहीं हो पाती है, परिणामस्वरूप उन्हें उपज कम मिलती है.ग्रीष्मकालीन फसल से अच्छी पैदावार  हेतु  झुमका किस्मों के लिए 100-125  किलोग्राम  तथा मध्यम फलने वाली किस्मों के लिए 80-100 किलोग्राम बीज  प्रति हैक्टेयर उपयुक्त होता है । बीज की मात्रा कम न करें अन्यथा प्रति इकाई पौधे कम  स्थापित होने से उपज कम प्राप्त होगी ।
बीज शोधन एवं उपचार
बीजजनित रोगों से सुरक्षा हेतु बोने से पूर्व बीज (गिरी) को उपयुक्त रसायन से उपचारित कर लेना चाहिए. बीजोपचार के लिए थीरम 75 % डब्लू.एस. 2.0 ग्राम तथा कार्बेन्डजिम का 50 प्रतिशत 1 ग्राम घुलनशील चूर्ण के मिश्रण की 3.0 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से शोधित कर लेना चाहिए। दीमक एवं सफ़ेद लट से फसल की सुरक्षा के लिए 1 लीटर  क्लोरपायरीफ़ॉस (20 ई सी) प्रति 40 किग्रा बीज के हिसाब से बीजोपचार करें।  इस शोधन के 5-6 घण्टे के बाद बोने से पहले बीज मूँगफली के विशिष्ट राइजोबियम कल्चर (राइजोबियम लेग्युमिनोसेरम) से उपचारित करें।  बीजोपचार करते समय ध्यान रखें कि सबसे पहले कवकनाशक फिर कीटनाशक एवं अंत में राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें ।
ऐसे करें बिजाई 
खेत में पर्याप्त नमी के लिए पलेवा देकर ग्रीष्मकालीन मूँगफली की बुवाई करना उचित होगा। यदि खेत मे उचित नमी नही हैं तो मूँगफली का जमाव अच्छा नही होगा जो उपज को सीधा प्रभावित करेगा। सफल उत्पादन के लिए उचित बीज दर के साथ उचित दूरी पर बुवाई करना आवश्यक होता है। गुच्छेदार प्रजातियों ग्रीष्मकालीन खेती के लिए उत्तम रहती है। इसलिए बुवाई  30 सेमी. की दूरी पर देशी हल से खोले  गयें कूडो में 10 सेमी की दूरी पर करना चाहियें। फैलने वाली किस्मों के लिए कतार से कतार की दूरी 45 सेमी एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी. रखन चाहिए।  बीज को 5-6 सेमी गहराई पर बोना चाहिए।  बुवाई के बाद खेत में आड़ा-खड़ा  पाटा लगाकर दानों को मिट्टी से ढंक देना चाहियें। मूंगफली की बुवाई सीड ड्रिल द्वारा करनी उपयोगी रहती है, क्योंकि कतार से कतार और बीज से बीज की दूरी संस्तुति अनुसार आसानी से कायम की जा सकती है और इच्छित पौधों की संख्या प्राप्त होती है। 
खाद एवं उर्वरक प्रबन्धन
मूँगफली की अच्छी पैदावर लेने के लिए उर्वरकों का प्रयोग बहुत आवश्यक है। उर्वरकों का प्रयोग भूमि परीक्षण की संस्तुतियों के आधार पर किया जाय। यदि परीक्षण नहीं कराया गया है तो नत्रजन 20-30  किलोग्रामफास्फोरस 40-60  किलोग्रामपोटाश 30-40  किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें. मुख्य पोषक तत्वों के अलावा गंधक एवं कैल्शियम का मूंगफली की पैदावार तथा गुणवत्ता पर महत्वपूर्ण प्रभाव देखा गया है| इन दोनों तत्वों की मांग की पूर्ति के लिए 200 से 400 किलोग्राम जिप्सम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें| नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा और जिप्सम की आधी मात्रा बुवाई के समय मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें. जस्ते की कमी की पूर्ति हेतु 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट का प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें. जिप्सम की शेष आधी मात्रा के साथ 4 कि.ग्रा. बोरेक्स प्रति हेक्टेयर की दर से  पुष्पावस्था के समय 5 सेंटीमीटर की गहराई पर पौधे के पास दिया जाना चाहिए फास्फेट का प्रयोग सिंगिल सुपर फास्फेट के रूप में किया जाय तो अच्छा रहता हैं यदि फास्फोरस की निर्धारित मात्रा सिंगिल सुपर फास्फेट के रूप में प्रयोग की जाय तो पृथक से जिप्सम के प्रयोग की आवश्यकता नहीं रहती हैं।  
उचित जल प्रबन्ध आवश्यक  
ग्रीष्मकालीन मूँगफली की खेती के लिए सिंचाई आवश्यक है । मूँगफली को सामान्यतौर पर 450 से 650 मिली पानी की आवश्यकता होती है। खेत में पर्याप्त नमीं नहीं होने पर बुवाई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करें. मूंगफली की फसल में प्रारंभिक वनस्पतिक वृद्धि अवस्था, फूल बनना, अधिकीलन (पैगिंग) तथा फली बनने की अवस्था सिंचाई के प्रति अति संवेदनशील होती  है.। अतः अच्छी उपज और कुशल जल उपयोग के लिए संवेदनशील अवस्थाओं पर सिंचाई करना आवश्यक होता है ।   जल भराव की समस्या होने पर खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था करना चाहिए।  सिंचाई नालियों की सहायता से छोटी-छोटी क्यारियां बनाकर देना चाहिए।
पौधों की जड़ों पर मिटटी चढ़ाना
मूंगफली की फसल में निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रित रहते है और फसल की जड़ों का विकास अच्छा होता है. पौधों की जड़ों पर अंतिम निराई-गुड़ाई के साथ मिटटी चढ़ाने का कार्य जरुरी होता है।  मिटटी चढ़ाने से मूंगफली में बनने वाली खूंटियों (पेग) को मिटटी में घुसने एवं वृद्धि करने में सहायता मिलती है।  यह कार्य फसल की 40-45 दिनों की अवस्था तक कर लेना चाहिए । ध्यान रहे फसल में अधिकीलन अर्थात खूँटियॉ (पेगिंग) बनने के बाद  निकाई-गुड़ाई नहीं करें।
खरपतवारों को न पनपने दें  
मूंगफली की कम उत्पादकता के प्रमुख कारणों में से खरपतवारों का प्रकोप प्रमुख है. खरपतवारों का सही नियंत्रण न करने पर फसल की उपज में 30 से 50 प्रतिशत तक कमी आ जाती है. खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रथम निराई-गुड़ाई बुआई के 15-20 दिनों बाद एवं दूसरी निराई-गुड़ाई 30-35 दिन बाद करना चाहिए।  निराई गुड़ाई के लिए खुरपी अथवा हैण्ड हो का इस्तेमाल किया जा सकता है।   रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण हेतु बुवाई से 1-3 दिन के अन्दर पेन्डिमेथेलिन (स्टॉम्प) की 1.0-1.5 किग्रा अथवा एलाक्लोर (लासो) 1.5-2.0  या मेटोलाक्लोर (डुअल) की1.0-1.5 प्रति हैक्टेयर सक्रिय तत्व की मात्रा 800-1000 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर मिटटी में मिलाना चाहिए। दवा प्रयोग के समय खेत में पर्याप्त नमीं होना आवश्यक है. खड़ी फसल में सकरी पत्ती वाले खरपतवार (घास) के नियंत्रन हेतु क्युजालोफॉप  (टर्गासुपर) 40-50 ग्राम प्रति हेक्टर सक्रिय तत्व की मात्रा बुवाई के 20-25 दिन पर छिडकाव करें।  इमेज़ेथापायर (परस्यूट 10% एसएल) की 75-100 ग्राम प्रति हेक्टेयर सक्रिय तत्व की मात्रा बुवाई के 20-25 दिन पर छिडकाव करने से चौड़ी पत्ती वाले एवं कुछ घास कुल के खरपतवार नियंत्रित हो जाते है। 
कीट-रोगों से फसल सुरक्षा भी आवश्यक
वैसे तो ग्रीष्मकाल में उगाई जाने वाली मॅूगफली में प्रायः कीट ⁄ रोग  का प्रकोप प्रायः कम होता है, परन्तु दीमक, चेंपा एवं फलीवेधक के प्रकोप की संभावना रहती है।  बुवाई के पूर्व कवकनाशी से बीजोपचार करने से रोग प्रकोप की संभावना नहीं रहती है। फसल की पत्ती धब्बा आदि रोगों से सुरक्षा हेतु 2-3 सप्ताह के अंतराल पर कार्बेन्डाजिम (0.025%) + मेंकोजेब (0.2%) छिड़काव करना चाहिए। फसल में संभावित कीट प्रकोप एवं नियंत्रण के उपाय अग्र प्रस्तुत है। 
दीमक : यह सूखे की स्थिति में जड़ों तथा फलियों को काटती है। जड़ कटने से पौधे सूख जाते है। फलियों के अन्दर गिरी के स्थान पर मिट्टी भर देती है। खड़ी फसल में प्रकोप होने पर क्लोरपायरीफास 20% ई.सी. की 2.5 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से सिंचाई के पानी के साथ प्रयोग करें।
सफ़ेद गिडार : गिडारें पौधों की जड़ें खाकर पूरे पौधे को सुखा देती हैं। इस कीट की रोकथाम के लिए मिथाइल पैराथियान 50 ई.सी. 750 मि.ली. या क्विनालफॉस 25 ई.सी. 625 मि.ली. या क्लोरोपयरीफॉस 20 ई.सी. 1 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें या कार्बोरील 5% 25 किलो प्रति हेक्टेयर का भुरकाव करें।
चेंपा एवं माहू: ये छोटे-छोटे हरे एवं भूरे रंग के कीट होते है, जो पौधों के रस को चूसते है एवं वायरस जनित रोग फ़ैलाने में सहायक होते है।  इन कीटों के नियंत्रण के लिए डाईमेथोयेट (रोगर) 30 ई सी या इमिडाक्लोप्रिड (20 एस एल) की 1 लीटर मात्रा को 600-800 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिडकाव करना चाहिए। 

टिक्का रोग: मूंगफली में यह रोग अक्सर आता हैं। यह रोग फसल उगने के  के 35- 40 दिन बाद में दिखाई देता है। इस रोग से पौधों की पत्तियों पर गहरे भूरे या मटियाले रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। इसके खड़ी फसल पर मैंकोजेव ( जिंक मैगनीज कार्बामेंट) 2 कि.ग्रा. या जिनेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण 2.5 कि.ग्रा. के 2-3 छिड़काव 10 दिन के अन्तर पर करना चाहिए।

उपयुक्त समय पर करें खुदाई एवं मड़ाई  
मूंगफली की फसल में जब पुरानी पत्तियां पीली पड़कर झड़ने लगें, छिलके के ऊपर नसें उभर आयें एवं फली का छिलका कठोर हो जाये और  फली के अन्दर बीज के ऊपर की झिल्ली गुलाबी या लाल रंग की  हो जाये तो फसल की खुदाई कर लेनी चाहिए । फसल की खुदाई फावड़े अथवा पत्तीदार हैरो अथवा मूंगफली खुदाई यंत्र से की जा सकती है।  खुदाई करते समय  मृदा में उचित नमी मौजूद होनी चाहिए. खुदाई के बाद मूंगफली के पौधों के छोटे-छोटे गट्ठर बनाकर खेत में ही सूखने के लिए छोड़ देना चाहिए।  सूखने के बाद फलियों को हाथ से अथवा थ्रेशर की सहायता से अलग कर लेना चाहिए।  इसके बाद फलियों को अच्छी प्रकार से साफ़ करने के बाद 8 % नमीं स्तर तक  हलकी धूप में सुखा लेना चाहिए।  फलियों को तेज धुप में न सुखाएं । तेज धूप में सुखाई गयी मूँगफली के दानों की अंकुरण क्षमता कम हो जाती है ।
उपज एवं आमदनी  भरपूर  
उपरोक्त आधुनिक तकनीक अपनाकर ग्रीष्मकालीन मूंगफली से  20-30  क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है।  इसकी खेती में लगभग  40  हजार रुपये प्रति हेक्टेयर की लागत आती है।  यदि प्रति हेक्टेयर 25  क्विंटल उपज प्राप्त होती है जिसे बाजार में 5000  रूपये प्रति क्विंटल  के भाव  से बेचने पर 127500 का कुल मुनाफा होता है जिसमे से उत्पादन लागत 40000  घटाने से 87500  रुपये प्रति हेक्टेयर  का शुद्ध मुनाफा प्राप्त किया जा सकता है। धान की खेती करने पर यदि 40 क्विंटल की पैदावार मिलती है जिसे अधिकतम 1600 रूपये प्रति क्विंटल के भाव (ग्रीष्मकालीन धान समर्थन मूल्य पर नहीं बिकता है)  के भाव से  बेचने पर 64000 रूपये प्राप्त होते है जिसमे से 25000 रूपये उत्पादन लागत घटाने पर 39000 रूपये की आमदनी होती है जो मूंगफली की खेती से 48500 रूपये कम है। 
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