Powered By Blogger

शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

वसंत ऋतु में सूरजमुखी उगायें स्वास्थ्य और समृद्धि घर लायें


डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

देश में खाद्य तेलों के कम उत्पादन के कारण बढती आबादी की पूर्ति के लिए प्रति वर्ष विदेशों से भारी  मात्रा में खाध्य तेल आयात करना पड़ रहा है। सूरजमुखी  (हेलिएन्थस एनस एक शीघ्र तैयार होने वाली, प्रकाश एवं ताप के प्रति असंवेदनशील और  सूखा को सहने वाली महत्वपूर्ण तिलहनी फसल है । सूरजमुखी की खेती वर्ष भर यानी खरीफ, रबी और ग्रीष्म ऋतु में की जा सकती है।  खरीफ में फसल पर अनेक प्रकार कीट रोगों का प्रकोप होता है तथा पर्याप्त प्रकाश न मिलने के कारण फूल छोटे होते है और दानों का विकास कम होता है जिससे उपज कम मिलती है। ग्रीष्मकाल में उत्तम जलवायु के साथ-साथ खाद-उर्वरक एवं जल उपयोग दक्षता बेहतर होने की वजह से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है। कम लागत और कम समय (तीन माह) में तैयार होने वाली इस फसल से किसान बेहतर मुनाफा अर्जित कर सकते है। सिंचाई संपन्न धान-गेंहूँ फसलों के बाद सूरजमुखी की खेती से किसान भाई अपनी आमदनी बढ़ा सकते है।  सूरजमुखी की खेती न केवल आर्थिक रूप से फायदेमंद है अपितु इसके तेल और बीजों का सेवन करना स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी माना जाता है।
सूरजमुखी बीज: पौष्टिक गुणों का खजाना
सूरजमुखी की लहलहाती फसल फोटो साभार गूगल 
सूरजमुखी देखने में जितना खुबसूरत एवं आकर्षक होता है, स्वास्थ्य के लिए इसका बीज और तेल कहीं ज्यादा लाभदायक भी होता है. इसके फूलों व बीजों में कई औषधीय गुण छिपे होते हैं। इसके बीजों में 40-45  प्रतिशत तेल पाया जाता है। इसका तेल हल्के रंग, अच्छे स्वाद और इसमें उच्च मात्रा में लिनोलिक एसिड होता है, जो कि दिल के मरीज़ों के लिए अच्छा होता है इसके अलावा सूरजमुखी के तेल का सेवन करने से लीवर सही तरीके से काम करता है और ऑस्टियोपरोसिस जैसी हड्डियों की बीमारी भी नहीं होती है सूरजमुखी का तेल बालों और पाचन तंत्र के लिए भी लाभकारी होता है इसके तेल से वनस्पति घी भी बनाया जाता है. सूर्यमुखी के बीज पौष्टिक और खाने में स्वादिष्ट होते है. सौ ग्राम सूरजमुखी के बीज में वसा 41 ग्राम, प्रोटीन 21 ग्राम, रेशा 9  ग्राम,शुगर 2.6 ग्राम, ऊर्जा 584 कैलोरी, पोटैशियम 645 मि.ग्रा.,कॉपर 1.8 मि.ग्रा., ज़िंक 5 मि.ग्रा.,मैंगनीज़ 1.95 मि.ग्रा., फॉस्फोरस 660 मि.ग्रा., सोडियम 9 मि.ग्रा., पैंटोंथेनिक एसिड 1.13 मिलीग्राम, पायरिडाक्साइन 1.345 मि.ग्रा., नियासिन 8.335 मि.ग्रा. के अलावा विटामिन ए, विटामिन बी-6, विटामिन सी,सेलेनियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम और आयरन प्रचुर मात्रा में पाए जाते है, जो हमारे शरीर को स्वस्थ रखने में सहायक होते है। इसके बीजों के सेवन से शरीर में कोलेस्ट्राल की मात्रा घटती है, ह्रदय रोग का खतरा कम होता है तथा त्वचा में निखार आता है। सूरजमुखी के बीज को कच्चा या भूनकर स्नैक्स के रूप में खाया जा सकता है अथवा इन्हें सलाद, पास्ता, पोहा या सब्जी में स्वाद और पोष्टिकता बढ़ाने के लिए ऊपर से डालकर भी खाया जा सकता है। इसका तना जलाने के काम आता है। इसकी खली पशुओं एवं  मुर्गियों के लिए आदर्श भोजन है।

                                  ग्रीष्मकाल में सूरजमुखी की खेती ऐसे करें 

उपयुक्त मृदा एवं खेत की तैयारी  
            सूरजमुखी की खेती सभी प्रकार की मृदाओं  में की जा सकती है। किन्तु उचित जल निकास व उदासीन अभिक्रिया वाली (पीएच मान 6.5 -8.0) दोमट से भारी मृदाएं अच्छी समझी जाती है । मृदा की जलधारण क्षमता एवं कार्बनिक पदार्थ की मात्रा अच्छी होनी चाहिए । सामान्यतः खरीफ में असिंचित एवं रबी - जायद में इसे सिंचित क्षेत्रों में उगाया जाता है । खेत में पर्याप्त नमी न होने की दशा में पलेवा (हल्की सिंचाई) देकर खेत की  जुताई करनी चाहियें। इसके बाद  देशी हल से 2 से 3 बार जुताई कर  मिट्टी भुरभुरी बना लेनी चाहिए। इसके बाद खेत में पाटा चलाकर समतल कर बुवाई करना चाहिए ।
न्नत प्रजातियों के बीज का चयन
सूरजमुखी की अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्मों अथवा संकर प्रजातियों का बीज विश्वशनीय प्रतिष्ठानों से क्रय करना चाहिए। अधिक उपज के लिए संकर किस्मों के बीज का प्रयोग करें परन्तु इन प्रजातियों से पैदा किये गए बीज की पुनः बुवाई न करें अर्थात अगले वर्ष संकर प्रजाति का न्य बीज ही प्रयोग करें. सूरजमुखी की उन्नत किस्मों एवं संकर प्रजातियों की विशेषताएं अग्र सारणी में प्रस्तुत है:  
उन्नत किस्म एवं संकर प्रजातियों की विशेषताएं
प्रजाति
उपज क्षमता (क्विंटल/हेक्टेयर)
अवधि (दिनों में)
दानों में तेल (%)
बी.एस.एच.-1
10-15
 90-95
40-41 
एम.एस.एच. -17
15-18 
 90-100 
42-44 
एम.एस.एफ.एस. -8   
 15-18 
 90-100
42-44 
एस.एच.एफ.एच.-1   
15-20 
 90-95 
40-42 
एम.एस.एफ.एच.-4   
 20-30 
 90-95 
42-44 
ज्वालामुखी 
30-35 
 85-90 
42-44 
.सी. 68415  
10-12  
 110-115 
42-46 
मॉडर्न
12-14
75-80
42-44
सूर्या
15-16
80-100
42-44
बोआई का समय
            सूरजमुखी की बंसलकालीन फसल को बोने का उचित समय फरवरी का प्रथम से द्वितीय पखवाड़ा है. यह फसल मई के अंतिम या जून के प्रथम सप्ताह तक तैयार हो जाती है । देर से बोआई करने पर फसल देर से पकती है और मानसून की बारिस शुरु हो जाती है जिससे फसल कटाव एवं गड़ाई में समस्या हो सकती है।
बीज एवं बुवाई
सामान्य किस्मों की बुवाई हेतु 12-15 किग्रा बीज और संकर प्रजातियों के लिए 5-6 किग्रा प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त होता है। बुवाई से पूर्व बीज को रात में पानी में भिंगोकर रखने के उपरान्त सुबह छाया में सुखाकर थिरम या बाविस्टीन 3 ग्राम प्रति किलो बीज दर से उपचारित कर बुवाई करना चाहिए। बोआई सदैव लाइनों में करें, संकुल एवं बौनी प्रजातियों को 45 से.मी. तथा संकर एवं लम्बी प्रजातियों को 60 से.मी. दूरी पर बनी कतारों में बोयें तथा पौधे से पौधे की दूरी 20-30 से.मी. रखें । बीज की गहराई 3-4 सेमी रखें । बोआई के 15-20 दिन बाद विरलीकरण कर पौधे से पौधे की दूरी 20-30 से.मी. स्थापित  कर लेना चाहिए ।
संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन 
            सूरजमुखी की सफल खेती हेतु मृदा परिक्षण के आधार पर उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए. इसकी खेती में 3 से 4 टन गोबर की कम्पोस्ट खाद प्रति हेक्टर का प्रयोग लाभप्रद पाया गया है। सामान्यतः फसल में  80-100 कि.ग्रा. नत्रजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर  पर्याप्त रहता है । नत्रजन की    आधी से दो तिहाई मात्रा बोते समय तथा शेष 25-30 दिन बाद या पहली सिंचाई के समय खड़ी फसल में  कूंड़ों में प्रयोग करना चाहिए । फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय दें ।  फास्फोरस को सिनगले सुपर फोस्फेट के रुप में देने से फसल के लिए आवश्यक सल्फर तत्व की पूर्ति हो जाती जाती है। सल्फरधारी उर्वरकों के प्रयोग से सूरजमुखी के बीज में तेल प्रतिशत में वृद्धि होती है। रश्मि पुश्प्कों के खिलते समय मुंडकों पर २% बोरेक्स एवं 1% जिंक सल्फेट के छिडकाव से बीजों के भराव, उपज एवं तेल प्रतिशत में वृद्धि होती है।
समय पर सिंचाई जरुरी  
            सूरजमुखी की अच्छी फसल के लिए हलकी मृदाओं में  4 से 5 तथा भारी भूमि में 3 से 4 सिंचाइयां की आवश्यकता होती है आवश्यकतानुसार पहली सिंचाई बोने के 20-25 दिन बाद आवश्यक है । तदोपरान्त समान्यतया 15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की आवश्कता पड़ती है । वानस्पतिक, कली, फूल एवं दाने पड़ते समय खेत में नमी की कमी होने पर सिंचाई अवश्य करनी चाहिए । फूल विकसित होने की अवस्था में सिंचाई सावधानी पूर्वक करना चाहिए जिससे पौधे गिरने न पायें.
अंतर्कर्षण एवं खरपतवार नियंत्रण
            पौधों की समुचित बढ़वार एवं खरपतवार नियंत्रण हेतु बोने के 15-20 दिन बाद पहली निराई-गुड़ाई करें तथा दूसरी गुड़ाई के समय पौधों पर मिट्टी भी चढ़ा दें, जिससे पौधे तेज हवा के कारण गिरने नहीं पाते।  खरपतवार नियंत्रण हेतु पेन्डिमैथेलिन 30 इसी की 3.3 लीटर मात्रा प्रति हेक्टर के हिसाब से 800 से 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के बाद 1 से 2 दिन के अन्दर छिड़काव करना चाहिए।
परसेचन क्रिया :  सूर्यमुखी में परागण (निषेचन) की क्रिया मुख्यतः भौरों एवं मधुमक्खियों  के माध्यम से संपन्न होती है।  इसमें बीजों के विकास के लिए परसेचन क्रिया अत्यंत आवश्यक है। परागण हेतु पर्याप्त संख्या में भौरें एवं मधुमक्खियां नहीं आने पर पुष्प मुंडको में बीज का समुचित विकास नहीं हो पाता है । इसके निदान के लिये  अच्छी तरह फूल खिल जाने पर हाथ में दस्ताने पहनकर या किसी मुलायम रोयेदार कपड़े को लेकर सूरजमुखी के मुंडको पर चारों ओर फेरना चाहिए। पहले फूल के किनारे वाले भाग पर, फिर बीच के भाग पर यह  क्रिया प्रातःकाल 8  बजे तक संपन्न   कर लेना चाहिए। पुष्प मुंडको में हाथ से कपड़ा फेरने का कार्य 15 से 20 प्रतिशत फूल आने पर लगभग 15 दिन तक करना चाहिए ।
कीट-रोगों से फसल सुरक्षा
            दीमक व कटुवा कीट बीज अंकुरण एवं पौध विकास के समय फसल को नुकसान करते हैं । इनकी रोकथाम के लिए बुवाई के पहले क्लोरपायरीफ़ॉस 6 लीटर मात्रा को 600-700 लीटर पानी में घोलकर खेत में छिड़ककर मिट्टी में मिला देना चाहिए । खड़ी फसल पर इन कीड़ों का प्रकोप दिखने पर सिंचाई जल के साथ क्लोरपाइरीफास 20 ईसी दो से तीन लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। हरा फुदका, बिहार की बालदार सूड़ी, तम्बाकू की सूड़ी, चेंपा, सफेद मक्खी तथा रस चूसने वाले अन्य कीड़ों की रोकथाम के लिए  मिथाइल ओडिमेटान 25 ईसी एक लीटर मात्रा का 600 से 800 लीटर पानी के साथ प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए।
            ग्रीष्मकालीन फसल में जड़ तथा तना सड़न, फूल गलन और झुलसा रोग प्रकोप की संभावना रहती हैं । इन रोगों से बचने के लिए बुवाई पूर्व बीजों का उपचार करना आवश्यक है।  खड़ी फसल में इन रोगों के नियंत्रण हेतु कापर ऑक्सिक्लोराइड 1.5 से 2 लिटर को 800 से 900 लिटर पानी में घोल बनाकर 15-15 दिन के अन्तराल पर दो छिडकाव करेध्यान रहें, सूरजमुखी फसल में फूल आने के बाद किसी भी प्रकार के कीटनाशक/रोगनाशकों का इस्तेमाल न करें अन्यथा परसेचन क्रिया के लिए आवश्यक मधुमक्खी एवं भौरों की संख्या कम हो सकती है। 
पशु पक्षियों से सुरक्षा
            सूरजमुखी की फसल को मुख्यतः नीलगाय, जंगली सुअर, बंदर, तोता, कौआ आदि मुण्डक में दाना भरते समय भारी नुकसान करते हैं । अतः इन पशु-पक्षियों से फसल को बचाना अति आवश्यक होता है। आजकल बाजार में पक्षी उड़ाने वाले टेप (एल्यूमिनियम) उपलब्ध हैं। खेत में फसल से  अधिक ऊॅचाई पर चारों तरफ एवं खेत में आड़े तिरछे लकड़ी/बांस गाड़कर उन पर टेप बाँधने  से चिड़ियों/तोते से फसल को बचाने में सहायता मिलती है। बाजार में जूट, रेशम एवं धागे से बने जाल भी उपलब्ध है जिनसे फसल की सुरक्षा की जा सकती है।
कटाई एवं मड़ाई
जब सूरजमुखी के मुण्डक (फूल) का पिछला भाग हल्के पीले-भूरे रंग का होने लगे तभी फसल के मुण्डकों को काटकर 5-6 दिन तेज धूप में सुखाकर डण्डे से पीटकर दाने निकाल लिए जाते हैं । आजकल बाजार में सूरजमुखी थ्रेसर उपलब्ध हैं जिनकी सहायता से सूरजमुखी की मड़ाई की जा सकती है । सूरजमुखी के बीज को अच्छी प्रकार से सुखाकर (नमीं स्तर 5-6 %) भंडारित करें अथवा बाजार में बेचने की व्यवस्था करना चाहिएसूरजमुखी की मड़ाई के तीन माह के अन्दर तेल निकालने (पिराई) का कार्य कर लेना चाहिए अन्यथा नमीं के कारण तेल की गुणवत्ता खराब हो सकती है।
उपज एवं आमदनी
सामान्यतौर पर उपरोक्तानुसार वैज्ञानिक विधि से सूरजमुखी की खेती करने पर लगभग 22-28 कुन्तल बीज एवं 80-100 कुन्तल डण्ठल प्रति हैक्टर पैदा किये जा सकते हैं।  केंद्र सरकार ने वर्ष 2019-20 के लिए सूरजमुखी बीज का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5388 रुपए प्रति क्विंटल निर्धारित किया है। उक्त भाव से सूरजमुखी की उपज बेचने पर 1,18,536 से 1,50,864 रूपये  प्रति हैक्टर की आमदनी प्राप्त हो सकती है जिसमें 25000 रूपये प्रति हेक्टेयर की उत्पादन लागत घटा देने से मात्र 90-100 दिनों में 93,536 से  1,25,864 रूपये  शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है। सूरजमुखी की खेती के साथ-साथ मधुमक्खी पालन करने से सूरजमुखी उपज में 10-15 प्रतिशत उपज में इजाफा होने के अलावा बहुमूल्य शहद का उत्पादन प्राप्त कर अतिरिक्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है 
कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

बुधवार, 22 जनवरी 2020

मधुमक्खी पालन: एक रोचक लघु व्यवसाय



डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

भारत का एक बड़ा भू-भाग विविध फसलों, सब्जियों, फल वृक्षों, फूलों, जड़ी-बूटियों, वनों आदि से आच्छादित है, जो प्रतिवर्ष फूल, फल, बीज के साथ ही बहुमूल्य मकरन्द और पराग को धारण करते है, परन्तु उसका भरपूर सदुपयोग नहीं हो पाता है शहद उत्पादन हेतु मकरंद और पराग ही कच्चा माल है जो हमें प्रकृति से मुफ्त में उपलब्ध है मधुमक्खी ही केवल कीट प्रजाति का जीव है, जो पेड़-पौधों के फूलों से मकरंद एकत्रित कर मनुष्यों के लिए स्वादिष्ट एवं पौष्टिक खाध्य पदार्थ यानि मधु के रूप में परिवर्तित कर सकती है आज मधुमक्खियों के पालन पोषण और उनके सरंक्षण की महती आवश्यकता है मधुमक्खी पालन बेरोजगार युवकों, भूमि-हीन, अशिक्षित एवं शिक्षित परिवारों को कम लागत से अधिक लाभ देने वाला व्यवसाय ही नहीं है, अपितु इससे कृषि उत्पादन में भी 15-25 प्रतिशत की  वृद्धि होती है। भारत में किसानों को खेती के साथ-साथ बिना विशेष प्रयत्न के अतिरिक्त आय दे सकता है। इसके लिए किसान को न तो कोई अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है और न ही फसलों में अतिरिक्त खाद-पानी देना होता है। भारत में शहद उत्पादन के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश, राजस्थान,पश्चिम बंगाल, बिहार एवं हिमाचल प्रदेश अग्रणी राज्य है।  इसके अलावा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं उत्तराखंड में भी मधुमक्खी पालन किया जाने लगा है। वर्ष 2016-17 में देश में 94,500 मैट्रिक टन शहद का उत्पादन हुआ ।  अभी हमारे देश में प्रति व्यक्ति शहद की खपत केवल आठ ग्राम है जबकि जर्मनी में यह 1800 ग्राम है। सेहत के लिए अमृत समझे जाने वाले शहद की उपयोगिता  के कारण आने वाले समय में शहद की मांग बढ़ने की संभावनाओं   को देखते हुए देश में मधुमक्खी पालन का सुनहरा भविष्य है।   
                            कब, कैसे और कहाँ करें मधुमक्खी पालन
मित्रवत खेती-मधुमक्खी पालन फोटो साभार गूगल 
मधुमक्खी पालन एक ऐसा उद्यम है जिसके लिए मधु मक्खी पालक किसान के पास अपनी जमीन और भवन होना भी आवश्यक नहीं है। अतः बेरोजगार युवक एवं कृषक अपना स्वयं का मधुमक्खी पालन व्यवसाय शुरू कर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत कर समृद्ध कृषि, स्वस्थ और श्रेष्ठ भारत निर्माण में भागीदार बन सकते है। इस व्यवसाय को कम लागत में घर की छतों में, छज्जों पर, खेत की मेड़ों के किनारे, तालाब के किनारे आसानी से किया जा सकता है। यही नहीं मौन पालक किसान अपनी पूँजी और सामर्थ्य के अनुसार एक बक्से से लेकर अनेक बक्सों से भी काम प्रारम्भ कर सकते है । एक बक्से से एक मौसम में औसतन 20-25 किलो शहद मिल सकता है। मधुमक्खी पालन के लिए जनवरी से मार्च का समय सबसे उपयुक्त है, लेकिन नवंबर से फरवरी का समय तो इस व्यवसाय के लिए वरदान है, क्योंकि तापमान की दृष्टि से मधुमक्खियों के लिए यह सबसे उपयुक्त समय होता है । बहुफसली क्षेत्र, बाग़-बगीचों, वनाच्छादित क्षेत्रों के आस-पास  मधुमक्खी पालन की व्यापक सम्भानाये संभावनाएं है फसलों में सूरजमुखी,सरसों,रामतिल,गाजर, मूली,सोयाबीन, अरहर,मिर्च आदि, फल वृक्षों में नीबूं,संतरा,मौसमी,आंवला,अमरुद,पपीता,अंगूर,आम आदि तथा शोभाकारी पेड़ों में गुलमोहर,नीलगिरी आदि के बागानों के पास मधुमक्खी पालन सफलतापूर्वक किया जा सकता है
मधुमक्खी पालन लागत:लाभ का गणित  
किसान भाई इस व्यवसाय को पांच कलोनी (पांच बाक्स) से शुरू कर सकते है एक बॉक्स में लगभग में 4000 रुपए का खर्चा आता है । इनकी संख्या को बढ़ाने के लिए समय समय पर इनका विभाजन कर सकते हैं। सामान्यतौर पर 50 बक्से वाली इकाई पर बक्से और उपकरण मिलाकर लगभग दो लाख रूपये की लागत आती है जिसमें 3-4 लाख की आमदनी प्राप्त की जा सकती है।  इसके अलावा आपके पास मधुमक्खियों की संख्या बढ़ जाएगी जिनसे आप अगली बार 100 बक्सों में मधुमक्खी पालन कर अपने मुनाफे को दौगुना कर सकते है।
मधुमक्खी पालन हेतु उपयुक्त प्रजाति
मधुमक्खी परिवार में एक रानी और लगभग 4-5 हजार श्रमिक मक्खियाँ तथा 100-200 नर (ड्रोन) मक्खियाँ पायी जाती है. भारत में मधुमक्खियों की मुख्यतः 4 प्रजातियां पाई जाती है.
1. चट्टानी मधुमक्खी(एपिस डोरसाटा):इसे रॉक बी के नाम से भी जाना जाता है. यह बड़े आकार की होती है. इसके पालन से शहद के एक छत्ते से 35-40 किग्रा प्रति वर्ष शहद प्राप्त किया जा सकता है. यह मक्खी उग्र स्वभाव की होती है।
2. लघु मक्खी (एपिस फ्लोरिया): यह मक्खी छोटे आकार की होती है जो प्रायः झाड़ियों में अपना छत्ता बनाती है। इससे एक छत्ते से लगभग 250-300 ग्राम तक शहद प्रति वर्ष प्राप्त होता है।
3. भारतीय मधुमक्खी( एपिस सेराना): एशियाई तथा भारतीय मूल की इन मधुमक्खियों को भारत के अधिकतर क्षेत्रों में पाला जाता है। भारतीय मधु वंश में 10-20 किग्रा मधु एक वर्ष में प्राप्त किया जा सकता है।
4. पश्चिमी मधुमक्खी (एपिस मेलीफेरा): इसे इटेलियन और यूरोपियन बी के नाम से जाना जाता है. शांत स्वभाव होने के कारण इनका पालन पोषण आसानी से किया जा सकता है. विश्व में इसी मधुमक्खी का पालन अधिक किया जाता है. इस मधुमक्खी द्वारा प्रतिवर्ष 50-150 किग्रा शहद एक छत्ते से प्राप्त किया जा सकता है। 
एक नहीं अनेक फायदे है मधुमक्खी पालन में
मधुमक्खी पालन से शहद के अलावा मोम, प्रोपोलिस,बी वैनम, पराग व रायल जैली प्राप्त होने के साथ-साथ फसल उत्पादन में भी वृद्धि होती है । मधुमक्खी पालन से होने वाली मुख्य लाभ इस प्रकार से है.  
बहुमूल्य शहद: प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ खाध्य पदार्थ मधु यानि शहद प्रदान करने का श्रेय मधुमक्खियों को ही जाता है। नियोजित तरीके से मधुमक्खी  पालन करने से अधिक मात्रा में शहद उत्पादन कर आर्थिक लाभ अर्जित किया जा सकता है। शहद यानि मधु अपने आप में एक संतुलित व पौष्टिक प्राकृतिक आहार है।  शहद में मिठास ग्लुकोज, सुक्रोज एवं फ्रुक्टोज के कारण है। एक चम्मच मधु से 100 कैलोरी उर्जा प्राप्त होती है इसके अलावा प्रोटीन की मात्रा 1-2 प्रतिशत होती है और न केवल प्रोटीन ब्लकि 18 तरह के अमीनो एसिड भी मौजूद होते हैं जो ऊत्तकों के निर्माण एवं हमारे शरीर के विकास में महत्वपूर्ण भुमिका निभाते है। मधु में कई तरह के विटामीन जैसे - बी-1, बी-2 व सी के अलावा अनेक प्रकार के खनिज जैसे पौटेशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, आयरन आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। मधु रक्त वर्धक, रक्त शोधक तथा आयुवर्धक अमृत है। आयुर्वेद में मधु को योगवाही कहा जाता है। आज अमूमन  80 प्रतिशत दवाईयों में मधु का इस्तेमाल किया जा रहा है। बेकरी कनफेक्सनरी उद्योग में भी मधु का उपयोग हो रहा है जैसे मधु जैम और जैली व स्कवैस में भी मधु डालकर उसकी गुणवत्ता को बढाया जाता है। इसी प्रकार से से टॉफी, आइसक्रीम एंव कैन्डी आदि विभिन्न प्रकार की कनफेक्सनरी उद्योगों में भी मधु का बहुत तेजी से उपयोग बढ़ता जा रहा है । शहद के  निर्यात से भारत को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा अर्जित होती है।
मोम उत्पादन : मोम उत्पादन, मधुमक्खी पालन उद्योग का एक उप-उत्पादन है। यह शहद के छत्तों से मधु निष्कासन के समय प्राप्त छिल्लन और टेढ़े छत्तों से प्राप्त किया जाता है। एक वंश से 200-300 ग्राम तक मोम प्रति वर्ष प्राप्त की जाती है। मोम का इस्तेमाल मोमबत्ती, औषधियां, पोलिश, पेंट तथा वार्निश बनाने में किया जाता है।
फसल उत्पादन में इजाफा: फसलों एवं पेड़ पौधों में परागण क्रिया में मधुमक्खियों का बहुत बड़ा सहयोग होता है। मधुमक्खियों द्वारा पौधां में लगभग 80 से 90 प्रतिशत परागण होता है। मधुमक्खी फूलों पर भ्रमण एवं परागण करती है। इस विशेषता के कारण सब्जियों, फलों तथा तिलहन फसलों के उत्पादन में भारी वृद्धि होती है।
मधुमक्खी पालन में ध्यान रखने वाली बातें
Ø मधुमक्खियों के परिवार को मौसम के अनुसार गर्मियों में छायादार स्थान में रखें एवं सर्दियों में धूप में रखें तथा मौन फ़ार्म के पास शुद्ध पानी का उचित प्रबंध रखें. बरसात के दिनों में मौन परिवारों को गहरी छाया में न रखें. इन्हें हमेशा ऊंचे स्थानों पर रखें जिससे वर्षा का पानी मौन परिवारों तक न पहुंचे.
Ø बरसात के दिनों में मौन परिवारों के द्वार (गेट) छोटे रखें जिससे सिर्फ दो मक्खियाँ आ-जा सके बाकी हिस्सा बंद कर दे ताकि मक्खियों में लूट-मार की समस्या नहीं होगी.
Ø बरसात (जुलाई से सितम्बर) में मौन परिवार के पास ततैया के छत्ते न बनने दें. ततैया दिखने पर उन्हें कीटनाशकों के छिडकाव से नष्ट कर दें.
Ø मौन परिवारों में नई रानी मधुमक्खी का होना आवश्यक है.इसके लिए माह फरवरी-मार्च में पुरानी रानियों को मारकर नई रानियाँ तैयार करें. नई रानियाँ पुरानी के मुकाबले अधिक अंडे देती है जिससे मधुमक्खी के परिवार में वर्कर मक्खियों की अधिक संख्या बनी रहती है.
Ø मौन बक्सों को ऐसे स्थानों पर रखें जहां भरपूर मात्रा में नैक्टर व पराग ( फूल वाले पेड़ पौधे, फसलें) उपलब्ध हो.
Ø  मौन परिवारों के लिए जब भरपूर मात्रा में नैक्टर न हो तो शक्कर का कृत्रिम भोजन के रूप में 50 प्रतिशत घोल रात्रि में रखें.
कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे।