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शुक्रवार, 5 जून 2020

कोरोना वायरस का कहर-प्रकृति को सजाने-संवारने का अवसर

विश्व पर्यावरण दिवस, शुक्रवार 5 जून,2020 पर विशेष आलेख 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, पोस्ट-बिरकोनी, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

हम जो खाद्य पदार्थ खाते हैं, जिस हवा  की हम सांस लेते हैं, जो पानी हम पीते हैं और जो जलवायु हमारे पृथ्वी ग्रह को रहने योग्य बनाती है,वह सब प्रकृति की अनमोल देन है। कल्पना कीजिए अगर हमारी जमीनें खाद्यान्न का उत्पादन करने में विफल हो जाएँ, हमारे भूजल के भंडार सूख  जायें हमारी नदियां प्रदूषित हो जायें र हमारे जंगल नष्ट हो जायें, तो क्या मानवता का अस्तित्व खतरे में नहीं पड़  जायेगा ऐसा होने पर निश्चित ही  सम्पूर्ण मानव जाति भी विलुप्त हो जाएगी  परमेश्वर ने धरती पर आदमी के साथ-साथ नाना प्रकार के जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, पेड़-पौधे और वनस्पतियों की रचना की है और ये सभी एक दूसरे पर निर्भर है इनमें से किसी एक के अस्तित्व पर संकट आने का अर्थ है दूसरे के अस्तित्व पर संकट आना, यदि प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष  जीवन के लिए प्रकृति में शुद्ध हवा और शुद्ध पानी के साथ साथ अनेक प्रकार के जीव-जंतु व वनस्पतियों में संतुलन का होना जरूरी है। हमारा जीवन प्रकृति पर  आश्रित  होने के बावजूद भी पिछले कुछ दशकों से हमने आवश्यकता से अधिक प्राकृतिक सम्पदा (जल,जंगल,जमीन और जानवर) का दोहन-शोषण करके प्राकृतिक संतुलन को नेस्तनाबूत कर दिया है ।विज्ञान  के अजेय रथ पर आरूढ़ मानव आज विधाता को चुनौती दे रहा है. विश्व की यह प्रगति मानों प्रकृति को विस्मृत भी कर रही है प्रकृति  का अमर्यादित उपभोग, वनों की कटाई, उद्योग धंधों की भरमार, उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन, व्यापार और इसी प्रकार का एक परिवेश बनता जा रहा है जो प्रकृति, पर्यावरण, पृथ्वी और मानव जाति  के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है मर्यादाओं की सीमाएं लांघना ही मानवों की दुर्दशा का कारण बनता जा रहा है आज समूचा विश्व मानव निर्मित जैविक और प्राकृतिक आपदाओं मसलन चक्रवाती तूफ़ान अम्फान, महातूफान निसर्ग, टिड्डी आक्रमण, भूकंप के झटको के अलावा इस सदी की सबसे बड़ी त्रासदी कोरोना वायरस महामारी का दंश झेल रहा है। वर्ष 2020 में जैविक आपदा और प्राकृतिक आपदाओं का कहर ये साबित करता है कि मानव काफी लम्बे समय से  प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता आ रहा है। इसलिए आज पूरा विश्व प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं से सहमा हुआ है एक मामूली से अदृश्य वायरस (कोविड-19) ने सम्पूर्ण मानव जाति के ताने-बाने और  वैश्विक अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दिया है सामाजिक दूरी, सेनेटाइजेशन, प्लास्टिक की पन्नी ओढ़कर  और  सम्पूर्ण लॉक डाउन  करके इस जैविक  महामारी को हम कुछ हद तक  नियंत्रित तो कर सकते है, लेकिन  समाप्त नहीं कर सकते है वायरस से होने वाली अधिकांश बीमारियाँ वन्य जीवों से ही आती है. अतः वन्य जीवों के शिकार पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है इसके अलावा  हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और संवर्द्धन पर समुचित ध्यान देना होगा यानि प्रकृति से दूर होती मानवता को प्रकृति की ओर लौटना होगा तभी हमारा आज और कल सुरक्षित रह सकता है। यदि समय रहते प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा की ओर जनमानस का ध्यान आकर्षित नहीं किया गया तो प्रलय की स्थिति का आगमन अवश्यंभावी हो जायेगा.

विश्व पर्यावरण-2020: प्रकृति के लिए समय 

 विश्व पर्यावरण दिवस फोटो साभार गूगल  
आज विश्व  पर्यावरण दिवस (5 जून,2020) हम ऐसे मौके पर मना रहे है, जबकि समूची मानवजाति एक बड़े स्वास्थ्य संकट अर्थात कोरोना वायरस महामारी से जूझ रही है इस वर्ष जर्मनी की साझेदारी में कोलंबिया में विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है इंसानों व् प्रकृति के बीच के गहरे संबंध को देखते हुए इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस का विषय प्रकृति के लिए समय और जैव विविधिता रखा गया है जो  प्रकृति के साथ बिगड़े तारतम्य को फिर से सुधारने के लिए प्रेरित करता है जैव विविधता प्रकृति की जैविक सम्पदा और समृद्धि का संपूर्ण स्वरूप है जिसमें बड़े से बड़े और छोटे से छोटे जीवाणु, सभी तरह के जीव, पेड़-पौधे तथा वनस्पतियां शामिल है। जैव विविधता कृषि का आधार है। जैव विविधता फसलों और पालतू पशुओं की सभी प्रजातियों और उनके भीतर की विविधता का मूल है। जैव विविधता और कृषि का परस्पर संबंध है क्योंकि जहां जैव विविधता कृषि के लिए महत्वपूर्ण है, वहीं कृषि जैव विविधता के संरक्षण और सतत उपयोग में भी योगदान दे सकती है। प्रकृति ने मानवता को पौधों और पशुओं की प्रचुर विविधता प्रदान की है परन्तु सयुंक्त राष्ट्र एवं कृषि संघठन (FAO) की एक नई रिपोर्ट के अनुसार खाध्य प्रणाली को मजबूत आधार प्रदान करने वाली जैव विविधिता धीरे-धीरे गायब हो रही है। इससे भोजन, आजीविका, स्वास्थ्य और पर्यावरण के भविष्य के लिए बड़ा खतरा पैदा होता जा रहा है । वैश्‍विक कुपोषण, जलवायु परिवर्तन, कृषि उत्‍पादकता बढ़ाना, जोखिम कम करना और खाद्य सुरक्षा बढ़ाने जैसी वैश्‍विक चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें बहुमूल्‍य प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करना होगा, क्‍योंकि हमारी कृषि पद्धति में इनसे आवश्‍यक कच्‍चे माल की आपूर्ति होती है और बड़ी संख्या में  लोगों को आजीविका उपलब्ध होती है। नई दिल्ली में आयोजित प्रथम अंतराष्ट्रीय कृषि जैव विविधता कांग्रेस- आईएसी 2016 के उद्घाटन के अवसर पर लोगों का संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने जैव विविधता को बचाने और तकनीक की मदद से गरीबी हटाने की अपील की है । साथ ही यह भी कहा कि कृषि जैव विविधता के मामले में भारत बहुत समृद्ध है। मानव ने प्रकृति में दखल देकर ही जलवायु परिवर्तन की समस्या पैदा की है। उसकी इसी गलती से तापमान बढ़ रहा है जो जैव विविधिता को नुकसान पहुंचा रहा है। जैव विविधता की सुरक्षा का अर्थ है कि उसके लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करना। हमारे पूर्वज सामाजिक और आर्थिक प्रबंधन में माहिर थे। उनके संस्कार जनित प्रयासो से ही हम जैव विविधता बचा पाये हैं और प्रकृति के साथ संतुलन बनाते हुए सबकी जरूरत पूरा करते रहे है  

मानव और प्रकृति का एक दूसरे से अभिन्न सम्बंध है। मानव का प्रकृति के प्रति कर्तव्य है उसे संजोए रखने का। जहाँ प्रकृति मानव जीवन के पहलुओं को निर्धारित करती है वहीं मानव के क्रियाकलापों से प्रकृति प्रभावित भी होती है और यही प्रभाव कुछ समय बाद मानव जीवन पर असर डालता हैं। पृथ्वी पर आज लाखों विशिष्ट जैव प्रजातियों के रूप में प्राकृतिक संसाधन है जिनसे समस्त प्राणियों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती होती है और  इसी जैव विविधिता से हम सबका जीवन चलता है परन्तु विश्व में तेजी से विलुप्त हो रही अनेक प्रजातियों के कारण प्राकृतिक संतुलन बिगड़ने से भी जलवायु संकट और स्वास्थ्य सम्बन्धी महामारी विकराल रूप ले रही है चूंकि पृथ्वी से बहुत सी प्रजातियाँ धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रहीं है या विलुप्त होने की कगार पर हैं ऐसे में इनमे पल्लवित होने वाले सूक्ष्म जीव और वायरस भी अपने लिए दूसरा ठिकाना ढूंढ रहे है इन सूक्ष्म जीवों और वायरसों ने अब मानव आबादी को अपना आश्रय बनाना शुरू कर दिया है जैव विविधिता के हो रहे क्षरण के कारण चमगादड़ से उत्पन्न वायरस (कोविड-19) संक्रमण मानवता के लिए खतरा बन गया है इस संक्रमन से पूरी दुनिया में अब तक 65 लाख से अधिक लोगों को अपना शिकार बना लिया है इस महामारी से करीब 4 लाख से अधिक लोगों की जान भी जा चुकी है विज्ञान कितनी भी उन्नति-प्रगति कर लें परन्तु प्रकृति के समक्ष वह सदैव बोना ही रहेगा कोरोना वायरस से लड़ने के लिए या बचने के लिए  भले ही वेक्सीन की खोज हो जाये लेकिन कल अन्य दूसरी प्राकृतिक आपदा या महामारी पैदा हो जाने से इनकार नहीं किया जा सकता है हमें अपनी प्रकृति और पर्यावरण को सुरक्षित करने उसे संवारने और सजाने के आवश्यक उपाय अपनाने ही होंगे तभी इस गृह पर मानवता सुरक्षित और खुशहाल रह सकती है

कोविड-19 ने दिखाई भविष्य की राह

वर्कोतमान कोविड-19 संकट हम सभी को अपना भविष्य सुरक्षित करने का एक मौका  दे  रहा है। प्रकृति को फिर से हरा-भरा और समृद्ध करने के लिए चेतावनी दे रहा है आज पूरा विश्व कोरोना वायरस की महामारी से भयभीत है परन्तु यह वायरस हमें प्रकृति और पर्यावरण को सजाने–संवारने का एक सन्देश लेकर आया है। यह वायरस  हमें बता रहा है कि हमें प्रकृति का सम्मान करना होगा प्रकृति के साथ पुनः  तारतम्य स्थापित करना होगा अन्यथा भविष्य में और भी बड़े लॉक डाउन और संकट का सामना करना पड़ सकता है दरअसल हमने विकास की अंधी-दौड़ में पूरी प्रकृति को अपने कब्जे में ले लिया है,जल-जंगल,जमीन और जानवरों पर अपना अधिपत्य जमा लिया हैं। लेकिन हम यह भूल गए हैं कि हमारी संपूर्ण आर्थिक समृद्धि और सुंदर भविष्य के सपने एक छोटे से अदृश्य जीव यानि वायरस  द्वारा  नष्ट किये जा सकते है। कोरोना संकट के चलते लम्बे समय से तमाम कल कारखाने और वाहनों का आवागमन बंद रहने और मानवीय गतिविधियों के लॉकडाउन के चलते विस्श्व भर में वायु प्रदूषण कम होने के संकेत मिल रहे है हमारे देश की नदियां विशेषकर गंगा-यमुना निर्मल प्रतीत होने लगी है प्राणवायु भी स्वच्छ हो गई है नासा की रिपोर्ट के अनुसार भरत का प्रदूषण पिछले 20 वर्षों की तुलना में सबसे नीचे पहुँच गया है कोविड-19 के माध्यम से प्रकृति ने अपना रौद्र रूप दिखा कर हमें मजबूर कर दिया है कि हम प्रकृति की जैव विविधिता और अपने पर्यावरण को सुरक्षित बनाने का प्रयास करें प्रकृति का सरंक्षण करना मानव जाति का कर्तव्य भी है और अधिकार भी क्योंकि यह संतुलन हमने बिगाड़ा है और हम सब को मिलकर इसे ठीक करना होगा तभी मानव जाति का वर्तमान और भविष्य सुरक्षित रह पायेगा हमें  निश्चित  रूप से  प्रकृति की  ओर लोटना और उसके साथ चलना ही होगा प्रकृति के साथ जो भूल हमने जाने-अनजाने में की है, उसकी पुनरावृत्ति को रोकना होगा । अपनी सुरम्य प्रकृति को कायम करना होगा प्रकृति को सजाने-संवारने और पर्यावरण को सुरक्षित करने के लिए हमे हरियाली से ही खुशहाली के मूलमंत्र को आत्मसात करते हुए अधिक से अधिक क्षेत्र और अपने घरों के आस-पास वृक्षारोपण करने के लिए जन समुदाय को प्रेरित करना चाहिए रोपित पौधों के प्रबंधन अर्थात इनके रख रखाव पर समुचित ध्यान  देने की आवश्यकता है यदि बच्चों  के जन्पमदिवस और स्वजनों की स्मृति में तथा विशिष्ट अवसरों पर वृक्ष लगाने की भावना को जागृत किया जाय तो निश्चित ही हरियाली और खुशहाली का वातावरण देखने को मिल सकता है    आस-पास के वातावरण और जल स्त्रोतों को स्वच्छ रखने के लिए जन-जागरण अभियान चलाने की आवश्यकता है आवागमन हेतु सार्वजनिक यातायात के साधनों का इतेमाल करें बहुत आवश्यक हो तभी निजी वाहनों का उपयोग करें प्लास्टिक की वजह से कितने ही जिव जंतु विलुप्त होने की कगार पर है, अतः प्लास्टिक का उपयोग कम करें और प्रदूषण न फैलाएं। कृषि और बागवानी में कीट नाशकों और शाकनाशियों का उपयोग कम करें वर्षा जल संरक्षण की विभिन्न विधियां जैसे खेत का पानी खेत में, गाँव का पानी गाँव में, छत के पानी का संरक्षण करें. खेती में कुशल जल प्रबंधन तकनीकें अपनाएं। जल को व्यर्थ  बर्बाद ना करें जल संपत्ति ज़रूर आपकी हो सकती है, पर संसाधन नहीं अर्थात प्राकृतिक संसाधनों का सरंक्षण करते हुए इनका कुशल उपयोग करें कृषि में लाभदायक जीव जंतुओं और वनस्पतियों का संरक्षण करें  कृषि विविधिकरण अर्थात विभिन्न प्रकार की फसलें यथा धान, गेंहू, ज्वार, बाजरा, कोड़ों, कुटकी, रागी, दलहन, तिलहन, सब्जी वाली फसलों को हेर-फेर (फसल चक्र) कर उगाने का प्रयास करें

प्रकृति और पर्यावरण की करो सुरक्षा  

       यही है सबसे बड़ी तपस्या        


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रविवार, 22 मार्च 2020

कोरोना महामारी से डरो ना-जल सरंक्षण करो-ना


कोरोना जैसी महामारी को भगाना है तो जल सरंक्षण अपनाना है 

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़  

दुनिया भर में कोरोना वायरस ने कोहराम मचा रखा है।  आम हो या ख़ास, हर कोई कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने की जुगत में लगा है।  विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना वायरस यानि कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित कर दिया है।  समूची मानवता के लिए खतरे की घंटी बजा रहे कोरोना वायरस की महामारी से बचने के लिए  विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ)  ने लोगों को बार-बार हाथ धोने की सलाह दी है।  हमारे डॉक्टर भी कोरोना  वायरस से बचने के थोड़ी थोड़ी देर बाद साबुन से हाथ धोने की सलाह दे रहे है, जिससे इस महामारी से निपटने के लिए देश विदेश  में पानी की खपत में कई गुना इजाफा हो गया है । एक बार हाथ धोने पर लगभग 1.5-2 लीटर पानी खर्च होता है और दिन में बार-बार हाथ धोने के लिए प्रति व्यक्ति 15-20 लीटर पानी  की आवश्यकता होगी । इसका मतलब है, पांच सदस्य वाले परिवार को केवल हाथ धोने के लिए 100 लीटर पानी  लगेगा । जब लोगों के पास पीने के लिए  साफ पानी नहीं होगा, तो उनके पास हाथ धोने के लिए और  बीमारी को फैलने से रोकने के लिए स्वस्छ पानी कहाँ से लायेंगे । विश्व स्वास्थ्य संघठन के अनुसार, एक व्यक्ति को अपनी बुनियादी जरूरतें जैसे पीने, खाना पकाने और स्वच्छता को पूरा करने के लिए प्रत्येक दिन 7.5 से 17  लीटर पानी की आवश्यकता होती है। लेकिन, कोविड-19 से निपटने में जल की आवश्यकता बढती जा रही है । एक रिपोर्ट के अनुसार, तीन अरब लोगों के पास बुनियादी रूप से हाथ धोने के लिए जल की पर्याप्त उपलब्धता नहीं है। क्लाईमेट ट्रेंड की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के 17 देश अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं। इनमें पहले 12 मध्य-पूर्व तथा अफ्रीका के हैं तथा 13वां स्थान भारत का है। कोविड-19  के संक्रमण का मामला चीन, इटली, स्पेन, अमेरिका और यूरोप के बाद अब जल की कमी वाले देशों भारत आदि में भी पैर पसार चूका है।   आज हम सबको सबक लेने की जरुरत है कि कोरोना जैसी  महामारी से बचने के लिए पानी कितना कारगर साबित हो रहा है लेकिन दुनिया में तीन अरब लोगों के पास बार-बार हाथ धोने के लिए पानी की उपलब्धता नहीं है। हमारे देश के 60 करोड़ लोग गंभीर पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। एक आंकलन के अनुसार वर्ष 2030 तक देश में पानी की मांग उपलब्ध जल वितरण से दोगुनी हो जाएगी। देश के  नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक दूषित जल हर साल 1.75 लाख लोगों की जान ले रहा है। किसी भी महामारी के दौरान लोगों को शुद्ध जल न मिलना उन्हें आसानी से काल के गाल में धकेल देता है। 
जल की महिमा
मनुष्य सहित पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीव-जंतु एवं वनस्पतियों का जीवन जल पर निर्भर है. जल जीवन के लिए अमृत है. जल की महिमा का बखान और जल से प्रार्थना करते हुए ऋग्वेद में कहा गया है कि " इदमाप: प्र वहत यत् किं च दुरितं मयि, यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेष उतानृतम्”. हे जल देवता ! मुझसे जो भी पाप हुआ हो, उसे तुम दूर बहा दो अथवा मुझसे जो भी द्रोह हुआ हो, मेरे किसी कृत्य से किसी को पीड़ा हुई हो अथवा मैंने किसी को गालियाँ दी हों, अथवा असत्य भाषण किया हो, तो वह सब भी दूर बहा दो. जल पर ही मनुष्य का जीवन, प्रकृति और जीव-जंतु निर्भर हैं। जल धरती पर सबसे महत्व पूर्ण पदार्थ है। पेड़-पौधों, जानवरों, मनुष्य के पास जीवित रहने के लिए जल का होना अति आवश्यक है। अगर जल न हो तो धरती पर जीवन संभव नहीं है। आज पानी का मूल्य बदल गया है और जल एक महत्वपूर्ण व मूल्यवान वस्तु बन चूका है।  एक आदमी खाने के बिना कई दिनों तक जिन्दा रह सकता है परन्तु जल के बिना वह ज्यादा दिन तक जिन्दा नहीं रह सकता है. जल के बिना पेड़-पौधे और जीव जंतुओं का जीवन भी खतरे में पड़ जाता है। 

विश्व जल दिवस की सार्थकता

विश्व जल दिवस-2020  फोटो साभार गूगल 
सयुंक्त राष्ट्र के आवाहन पर 1993 से प्रति वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है इस दिवस का उद्देश्य विश्व के सभी विकसित देशों में स्वस्छ, सुरक्षित जल की उपलब्धतता सुनिश्चित करवाना है और जनमानस में जल सरंक्षण के महत्त्व पर ध्यान केन्द्रित करना है। दुर्भाग्य से कोरोना वायरस-19 की महामारी के संक्रमण से भयभीत विश्व समुदाय की आँखों से इस वर्ष का  "विश्व जल दिवस' ओझल सा हो गया। यह एक ऐतिहासिक त्रासदी है जिससे पूरी दुनिया एकजुटता से लड़ रही है।   इस वर्ष विश्व जल दिवस-2020 की थीम है 'जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभावयानी लोगों को यह जागरूक करना है कि, जलवायु परिवर्तन का किस तरह से जल संसाधनों पर प्रभाव पड़ रहा है।आज हम जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को महसूस भी कर सकते हैं।भारत में वर्तमान में प्रतिव्यक्ति जल की उपलब्धता 2,000 घनमीटर है लेकिन यदि परिस्थितियाँ इसी प्रकार रहीं तो अगले 20-25 वर्षों में जल की यह उपलब्धता घटकर 1,500 घनमीटर रह जायेगी जल की उपलब्धता का 1,680 घनमीटर से कम रह जाने का अर्थ है पीने के पानी से लेकर अन्य दैनिक उपयोग तक के लिए जल की कमी हो जाना। सिंचाई के लिए पानी की कमीं से खाध्य संकट भी उत्पन्न हो जायेगा । जलवायु परिवर्तन के साथ अनावृष्टि (सूखा और अकाल), जंगलों में आग, जल की गुणवत्ता में गिरावट तो कही अतिवृष्टि के कारण बाढ़ की बिभिषिका का सामना करना पड़ रहा है इसके अलावा जलवायु परिवर्तन से  आम लोगों के स्वास्थ्य और उनकी उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। पानी के वर्तमान जल स्तर में  20 प्रतिशत गिरावट के लिये जलवायु परिवर्तन प्रमुख कारण है। विश्व मौसम संगठन एवं संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के अनुसार ग्रीन हाऊस गैसों के बढ़ते उत्सर्जनों के कारण इस सदी में धरती के ताप में 1.4 डिग्री सेंटीग्रेड से 5.8 डिग्री सेंटीग्रेड ताप की वृद्धि अवश्यंभावी है। जलवायु परिवर्तन के कारण आहिस्ता-आहिस्ता ग्लेशियरों द्वारा जल की आपूर्ति में भी कमी आती जा रही है। जिसके फलस्वरूप नदियों में जल स्तर प्राय कम होता चला जा रहा है। जलवायु में तीव्र बदलाव से सूखा, बाढ़, तूफान आदि कि भयावर स्थिति पैदा हो गई है और आईपीसीसी 2007 कि रिपोर्ट के अनुसार औसत वैश्विक समुद्र जल स्तर में लगभग 18 सेमी से 140 सेमी कि वृद्धि संभावित है जिससे तटीय शहरों के डूबने की आशंका है. जलवायु परिवर्तन के कारण जल संसाधनों पर कुप्रभाव के अलावा फसल उत्पादन, मानव स्वास्थ्य और आजीविका पर भी गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण कहीं अल्प वर्षा तो कही अति वृष्टि और ओला से फसलोत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है खाद्यानों, तिलहन, रेशा, मीठाकारकों,फल-फूल, सब्जियों और औषधीय वनस्पतियों के उत्पादन में जल संसाधनों की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। भारत में कुल उपलब्ध जल का 84 प्रतिशत खेती में, 12 प्रतिशत उद्योगों में और 4 प्रतिशत घरेलू कामों में उपयोग होता है। जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघलकर कम होते जा रहे हैं अतः सिंचाई हेतु सतही जल का विस्तार करना कठिन है। ऐसी परिस्थिति में, विशाल कृषि क्षेत्र में सिंचाई के लिए भूजल दोहन ही एक मात्र विकल्प बच जाता है जिसके फलस्वरूप देश के अधिकतर हिस्सों में भूजल स्तर में गिरावट दर्ज की जा रही है। वर्षा की अनियमितता और अनिश्चितता, जलवायु परिवर्तन की समस्या को और प्रज्ज्वलित कर रही है। चीन और अमेरिका की तुलना में भारतीय किसान एक इकाई फसल पर दो से चार गुना अधिक जल उपयोग करते हैं। देश की लगभग 55 प्रतिशत कृषि भूमि पर सिंचाई के साधन नहीं हैं, जहाँ प्रति इकाई फसल उत्पादकता बहुत कम है । भूजल का लगभग 60 प्रतिशत सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है। हमारे देश में लगभग 80 प्रतिशत घरेलू जल आपूर्ति भूजल से ही होती है। इससे भूजल का स्तर लगातार घटता जा रहा है। अतः जल की अनावश्यक बर्बादी पर अंकुश नहीं लगाया गया और जल सरंक्षण हेतु जरुरी कदम नहीं उठाये गए तो आगामी समय में सिंचाई की लिए और अन्य प्रयोजनों के लिए  आवश्यक जल का संकट निश्चित है। दरअसल प्रकृति से खिलवाड़ करने के फलस्वरूप उपजे जलवायु परिवर्तन के कारण कोरोना वायरस जैसी महामारी फैल रही है।  आज 22 मार्च 2020 विश्व जल दिवस के अवसर पर हम सबको  मिलकर जल की बर्बादी रोकने और  जल को सहेजने का  संकल्प लेना  होगा तथा यह भी सुनिश्चित करना होगा की देश में  उपलब्ध सभी  जल स्त्रोतों के पुनर्भरण  और  कुशल जल प्रबंधन के लिए उसी गंभीरता से यथोचित कदम उठाएंगे  जितना हम अभी कोरोना वायरस संक्रमण फैलने के खिलाफ देश को सुरक्षित करने के लिए उठा रहे है। 

जल का नहीं सही जल प्रबंधन का अकाल
प्रकृति द्वारा हमें पर्याप्त मात्रा में जल निःशुल्क प्राप्त होता है परन्तु जल के उपव्यय और भूगर्भीय जल के अतिदोहन तथा जल के कुप्रबंधन कारण दिन प्रति दिन  जल संकट गहराता जा रहा है।  पृथ्वी का 71 प्रतिशत भाग जल से घिरा हुआ है, 29 फीसदी भाग पर स्थल है। इस 29 प्रतिशत क्षेत्र पर ही इंसान और दूसरे प्राणी रहते हैं। पृथ्वी पर कुल उपलब्ध जल लगभग 01 अरब 36 करोड़ 60 लाख घन किमी. है, परंतु उसमें से 96.5 प्रतिशत पानी समुद्र में पाया जाता है, लेकिन खारा होने के कारण इस पानी को पीने के लिए और सिंचाई में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। शेष 3.5 प्रतिशत पानी ही हमारे लिए उपयोगी है जिसका हम उपयोग कर सकते हैं, इसलिए हमें इस उपलब्ध जल को बचाना चाहिए। इसकी एक बूंद बूंद बहुत कीमती है, इसे व्यर्थ नहीं गवाना चाहिए। मौजूदा जल संसाधनों में से सर्वाधिक हिस्सा कृषि क्षेत्र में उपयोग किया जाता है. सिंचाई में जल दुरूपयोग रोकना आवश्यक है।  देश के किसानों की अधिक पानी अधिक उपज की धारणा को बदलना होगा क्योंकि फसलोत्पादन में सिंचाई का योगदान 15-20 प्रतिशत होता है. फसल के लिए भरपूर पानी का तात्पर्य मिट्टी में पर्याप्त नमीं बनाये रखना होता है परन्तु वर्तमान में नहरी क्षेत्र के किसान सिंचाई का अंधाधुंध प्रयोग कर रहे है।  भूगर्भीय जल की आखिरी बूँद को खीचने की कवायद बदस्तूर जारी है. इस प्रवृति को तत्काल रोका जाना चाहिए. उपलब्ध जल के किफायती उपयोग के लिए सिंचाई की बूँद-बूँद पद्धति और फव्वारा तकनीक, नाली-मेंड़ विधि से सिंचाई, एकांतर कतार विधि से सिंचाई तरकीबों से जल की बचत कर अधिक क्षेत्र में सिंचाई कर अधिक उत्पादन लिया जा सकता है।  फसलों में जीवन रक्षक या पूरक सिंचाई देकर दोगुना उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।  सतत जल आपूर्ति के लिए भूमिगत जल का पुनर्भरण किया जाना आवश्यक है।  प्रकृति प्रदत्त वर्षा जल का सरंक्षण किया जाना बेहद जरुरी है।  किसानों को गाँव का पानी गाँव में तथा खेत का पानी खेत में सरंक्षित करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।  ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ें तालाबों का निर्माण और उनके रखरखाव हेतु जरुरी कदम उठाए जाने चाहिए तक वर्षा जल का अधिकतम सरंक्षण किया जा सकें. इसके अलावा अत्यधिक जल दोहन रोकने के लिए कड़े कानून बनाकर उनका पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिए।  शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। देश की नदियों को परस्पर जोड़ने की कवायद को सफल बनाना होगा जिससे हमारी नदियों में वर्ष भर जल का प्रबाह कायम हो सकें। उपलब्ध जल का कुशल उपयोग तथा वर्षा जल सरंक्षण तकनीकों को अपनाने से जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न जल संकट की समस्या का कुछ हद तक निराकरण कर मानवता की रक्षा की जा सकती है। 
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शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

बहुमंजिला कृषि से कम क्षेत्रफल में भरपूर उत्पादन एवं आमदनी

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
महासमुंद (छत्तीसगढ़)

भारत में विश्व की 3 प्रतिशत भूमि एवं 4 प्रतिशत जल राशी किन्तु पूरे विश्व की 17 प्रतिशत आबादी है अर्थात हमारे देश में भूमि एवं जल संसाधन कम परन्तु जनसंख्या घनत्व बहुत अधिक है। देश में कृषि योग्य भूमि 14.3 करोड़ हेक्टेयर से अधिक बढ़ने की कोई संभावना नहीं है। ऐसे में  बढती आबादी,घटते संसाधन को देखते हुए जनसँख्या का भरण पोषण एक चुनौती है।  भारत में खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल सीमित है और दिन प्रतिदिन शहरीकरण, उध्योगिकीकरण, मकान बनते जाने के कारण कृषि योग्य भूमि कम होती जा रही है।  तेजी से बढती जनसँख्या की खाद्यान्न आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रति इकाई क्षेत्रफल में भूमि की उत्पादकता बढ़ाने हेतु दो विकल्प मौजूद है।  पहला प्रतिवर्ष कृषि योग्य भूमि में दो या दो से अधिक फसलों को उगाया जाये परन्तु ऐसा करने के लिए सिंचाई का साधन होना अति आवश्यक है।  अभी भी भारत में सिर्फ 35-40 प्रतिशत क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा है और इसलियें भारत में फसल सघनता 137 प्रतिशत है अर्थात एक फसली क्षेत्रफल अधिक है। अब दूसरा विकल्प बचता है कि एक साथ एक ही क्षेत्रफल पर कई फसलें  उगाकर बढ़ती हुई जनसंख्या के भोजन एवं खान-पान की अन्य वस्तुओं की पूर्ति की जा सकें। दूसरे विकल्प को सफल बनाने के लिए बहुपयोगी वृक्ष एवं खाद्यान्न और सब्जी फसलों में से चुनकर उन्हें इस  प्रकार से उगाया जाता है जिससे विभिन्न फसलों की उपज विभिन्न ऊंचाइयों से प्राप्त की जा सकती है।  इस प्रकार की बहुउद्देशीय खेती को बहुमंजिला अथवा बहुस्तरीय कृषि कहा जाता है। हमारे देश में 80 प्रतिशत से अधिक किसान सीमान्त एवं लघु कृषकों की श्रेणी में आते है।  ऐसे  किसान बहुस्तरीय खेती अपनाकर अपने सीमित क्षेत्र से अधिकतम उत्पादन एवं आमदनी अर्जित कर  आत्मनिर्भर बन सकते है।

नारियल एवं पपीते के साथ बहुस्तरीय खेती फोटो साभार गूगल
क्या है बहुमंजिला कृषि 


बहुमंजिला खेती का मुख्य उद्देश्य  प्रति इकाई क्षेत्रफल एवं  समय पर विविध प्रकार की फसलों को इस प्रकार से उगाना है जिससे खेती के लिए आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों यथा प्रकाश, जल, भूमि,जल तथा पोषक तत्वों का कुशल उपयोग हो और सीमित क्षेत्रफल से अधिक से अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके। इसमें बहुपयोगी वृक्षों के साथ खाद्यान्न अथवा सब्जी वाली फसलों को उगाया जाता है।  एक वर्षीय फसलों में बहुफसली खेती की अच्छी संभावनाएं है परन्तु बहुवर्षीय पौधों के साथ मिश्रित खेती एक नई शुरुवात है।   वर्तमान में इस प्रकार की खेती दक्षिण भारतीय राज्यों यथा केरल, कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र के कुछ भागों तथा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में अधिक प्रचलित है।  लंबी अवधि तक वर्षा होने वाले इन क्षेत्रों की प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में पौधे बहुमंजिला तरीके से व्यवस्थित होते हैं और अपनी प्रकृति के अनुसार अलग अलग ऊॅंचाई तक जाते हैं। इन पौधों के बीच जैव अजैव संबंधों और उर्जा के आदान प्रदान से सभी के सह-अस्तित्व के लिये आवश्यक प्राकृतिक संतुलन बनाने में मदद मिलती है। दक्षिण भारत के अलावा उत्तर  एवं मध्य भारत में भी बहुस्तरीय खेती सफलता पूर्वक की जाने लगी है। प्राकृतिक संसाधनों के सरंक्षण, टिकाऊ खाद्यान्न उत्पादन और प्रति इकाई किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए बहुस्तरीय कृषि को बढ़ावा देने की महती आवश्यकता है। 
बहुमंजिल कृषि के सिद्धांत
बहुमंजिला या बहु-स्तरीय खेती की सफलता इसके अंतर्गत उगाई जाने वाली फसलों का चुनाव एवं उनकी अग्र-प्रस्तुत विशेषताओं पर निर्भर करती है। 
1.   फसलों का चुनाव इस प्रकार से करना चाहिए कि उनमें प्रकाश,पोषक तत्व और जल के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा कम से कम हो ताकि वह एक दूसरे को प्रभावित किये बिना स्वतंत्र रूप से वृद्धि कर सकें। 
2. पौधों का चयन इस प्रकार करें कि घरेलू स्तर की आवश्यकताओं यथा अनाजदालतिलहनफल एवं सब्जियों आदि की पूर्ति हो सकें। 
3.   सबसे ऊंचे स्तर के वृक्ष ऐसे होने चाहिए जिनसे कम से कम छाया हो जिससे उनके नीचे उगाई जाने वाली फसलों को पर्याप्त मात्रा में प्रकाश और हवा मिल सके। 
4.   ऊपर से नीचे वाली मंजिल में उगाये जाने वाले पौधों में कम प्रकाश में भी प्रकाश संश्लेषण करने की क्षमता होना चाहिए।  दूसरी मंजिल के पौधों की पत्तियां अधिक चौड़ी, बड़ी एवं पतली होना चाहिए।   
5.   सबसे नीचे वाली मंजिल की फसलें सीमित प्रकाश में अपना भोजन बनाने अर्थात प्रकाश संश्लेषण करने में सक्षम होना चाहिए अर्थात इस प्रकार की फसलें छाया चाहने वाली हो। इन फसलों की पत्तियां हरी,चौड़ी, बड़ी एवं पतली होना चाहिए। 
बहु-मंजिला  कृषि के लिए प्रादर्श 
लतायुक्त सब्जियों के साथ बहुस्तरीय कृषि फोटो साभार गूगल 
बहुस्तरीय कृषि के तहत ऊपरी मंजिल के लिए नारियल, सुपारीखजूर, यूकेलिप्टस, पोपलर, सहजन, पामआयल ट्री, काजू, बेर, चीकू  आदि उपयुक्त पाई गई है।इन पौधों की पत्तियां छोटी, बिरली और कटी होना चाहिए।  इसके अलावा इन वृक्षों में तेज प्रकाश को सहन करने एवं प्रकाश संश्लेषण करने की क्षमता होती है।  दूसरी मंजिल के लिए कॉफी,टेपियोका, पान,केला, पपीता आदि उपयुक्त फसलें हो सकती है।  निचली मंजिल पर हल्दी, अदरक,सफ़ेद मूंसली, जिमिकांदा, अरवी.लोबिया,लिली,गेंदा फूल आदि की खेती की जा सकती है।  इस प्रकार से विविध फसलों की प्रकाश, जल, पोषक तत्वों आदि की आवश्यकता भिन्न-भिन्न होने से वे एक दुसरे से प्रतिस्पर्धात्मक सहयोग करती है. पौधों को उनकी लम्बाई के बढ़ते क्रम में पूर्व से पश्चिम की ओर लगायें ताकि सभी को पर्याप्त धूप मिल सके।
बहुमंजिला  खेती सफल प्रादर्श 
श्रीफल अर्थात नारियल को फर्स्ट फ्लोर फसल कहा जाता है।  नारियल का पेड़ लगभग 70-80 साल तक उत्पादन देता रहता है. खेत में 6 x 6 मीटर की दूरी पर पोधे लगाये जाते है।  दो कतारों के बीच खली जगह (ग्राउंड फ्लोर) में सब्जी फसलें यथा आलू, फूल गोभी,टमाटर,प्याज व अन्य भाजियां लगाई जा सकती है।  इससे साल भर आमदनी प्राप्त की जा सकती है।  गर्मी के दिनों में कच्चे नारियल/पानी वाले नारियल 25-30 रूपये प्रति नग बिकते है।  बरसात में इनकी कीमत कुछ कम हो जाती है. एक पेड़ में साल में 350-400 नारियल फल प्राप्त हो जाते है।  इसके पत्तों से झाड़ू और नारियल खोल से कोकोपिट व अन्य उपयोगी सामग्री बनाई जाती है। 
धान उत्पादक राज्यों विशेषकर छत्तीगढ़ में धान की मेड़ें काफी चौड़ी होती है जिनपर बहुस्तरीय कृषि कर किसानों की आमदनी में काफी इजाफा किया जा सकता है।  कृषि विज्ञान केन्द्र अम्बिकापुर में खेतों की मेड़ों की बेकार पड़ी भूमि पर लौकीभिंडीसेममटरफूल गोभीपत्ता गोभीस्ट्राबेरी आदि फसलों की बहुस्तरीय खेती पर सफल प्रयोग किया गया है । इस तकनीक में धान खेत की मेडों पर एक साथ दो-तीन  फसलों की खेती की गई। इसके लिए मेड़ पर पांच फीट बांस का मचान बनाकर उस पर लौकी/सेम  की बेलों को चढ़ाया  गया और मंडप के नीचे मटरफूल गोभीपत्ता गोभीफ्रेन्चबीनस्ट्राबेरी आदि फसलों की  खेती कर बेहतर उत्पादन और आमदनी प्राप्त हुई । इस प्रणली के अंतर्गत  मेडों पर भिंडीगवारफल्लीगेंदारजनीगंधा लगाकर आकर्षक मुनाफा अर्जित किया गया है। इस प्रकार की बहु-स्तरीय कृषि क्षेत्र एवं प्रदेश के छोटे-मझोले किसानों में लोकप्रिय होती जा रही है। 
लघु एवं सीमान्त किसान अपने खेत में बांस,बल्ली की सहायता से एक मंडप तैयार कर कम लागत में बहुस्तरीय खेती को अपना सकते है।  मंडप के ऊपर 20-25 से.मी. पर रस्सियाँ बुनकर उस पर घास-फूस की परत बिछा दी जाती है अथवा टटिया बनाकर ऊपर रख देते है। ऐसा करने से बेल वाली फसलों को बढ़ने व् फलने-फूलने के लिए सहारा तथा  भरपूर प्रकाश उपलब्ध हो जाता है और नीचे वाली फसलों की तेज धूप-गर्मी से सुरक्षा भी हो जाती है।  इस मंडप के नीचे फरवरी-मार्च महीने में जमीन के नीचे अदरक, हल्दी, अरवी आदि फसलें लगाते हैं. इन फसलों की जड़ें 20-25 सेमी की गहराई पर स्थित होती है. अरवी, हल्दी आदि 60-70 दिन में अंकुरित होकर ऊपर बढ़ती है। इस दरम्यान कोई भी साग भाजी जैसे-मेंथीपालक, धनियां,चौलाई आदि (इनकी जड़ें 5-10 सेमी की गहराई तक ) की बुवाई कर 30-35 दिन में उपज ली जा सकती है ।  इसके बाद पत्तेदार सब्जियों की कटाई पश्चात इनके स्थान पर शकरकंद की बुवाई (बेल कलमों)  की जा सकती है।  इसके बाद शकरकंद की खुदाई के उपरान्त खेत में बांस-बल्ली की सहायता से मंडप बनाकर बेल बाली सब्जियां यथा कुंदरू, लौकी, तोरई, करेला आदि की बुवाई कर इनकी बेलों को मंडप पर चढ़ाकर उत्पादन लिया जा सकता है । इन फसलों की पत्तियां पतली और कटानयुक्त होती हैं जिससे नीचे की फसलों को पर्याप्त प्रकाश एवं हवा प्राप्त होती रहती है। इसके साथ ही  बीच-बीच में पपीता भी लगाया जा सकता हैं। इस प्रकार एक ही खेत से 4-5 प्रकार की फसलें आसानी से ली जा सकती है। 
बहुमंजिला कृषि में आम (दशहरी, आम्रपाली आदि) के साथ अमरुद और लोबिआ; आम के साथ बाजरा और ग्वारफली; अरहर के साथ तिल और मूंगफली; मक्का के साथ मूंग और मूंगफली; सहजन के साथ लालभाजी, भिंडी और अरवी; पपीता के साथ पालक और प्याज या लहसुन; गन्ना के साथ आलू और सरसों युकलिप्टस के साथ पपीता और चारे के लिए बरसीम, चारे के लिए हाथी घास के साथ लोबिआ और रबी में बरसीम  आदि को आसानी से अपनाया जा सकता है।    
बहुमंजिला खेती से लाभ
1.   बहुमंजिला खेती में प्रति  इकाई भूमि में विविध प्रकार की फसलों को एक साथ उगाकर कृषि आदानों (पानी एवं पोषक तत्व) का कुशल उपयोग करते हुए आकर्षक लाभ अर्जित किया जा सकता है। 
2.   कृषि पारिस्थितकी तंत्र में समय के साथ उत्पादन में गिरावट आती है, वहीँ बहुस्तरीय कृषि में समय के साथ उत्पादन की मात्र और विविधता बढती है। 
3.   इस प्रणाली के अनुशरण से वर्ष भर कुछ न कुछ आमदनी प्राप्त होती रहती है जिससे परिवार की खाद्यान्न,सब्जी, मसाले,फल आदि की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है.
4.   बहुमंजिला खेती भूमि की उर्वरा शक्ति कायम रखने, जैव विविधितता एवं पर्यावरण सरंक्षण में सहायक होती है। 
5. बहुमंजिला खेती से वर्ष पर्यन्त रोजगार के अवसर प्राप्त होने के अलावा जलवायु परिवर्तन के कारण फसल उत्पादन प्रभावित होने की संभावना कम रहती है। 
6. फसलोत्पादन में कीट-रोग और खरपतवार प्रकोप कम होता है जिससे इनकी रोकथाम में लगने वाले रासायनिकों पर खर्चा बच जाता है।    
भारत में तेजी से बढती जनसंख्या के कारण भूमि का बिखंडन होता जा रहा है जिससे कृषि जोत का आकार  सिकुड़कर अव्यावहारिक होता जा रहा  हैं. सीमित कृषि भूमि में  परंपरागत कृषि अलाभकारी हो रही है। ऐसे में लघु और सीमान्त किसानों के लिए बहुस्तरीय कृषि प्रणाली वरदान साबित हो सकती है। सामान्य कृषि की तुलना में बहु-स्तरीय कृषि में लागत 4  गुना कम और लाभ 8  गुना अधिक प्राप्त किया जा सकता है।  इसके अलावा परिवार की भोजन, सब्जी,फल आदि आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है।  इससे परिवार को खाद्यान्न और पोषण सुरक्षा के साथ-साथ सुनिश्चित आमदनी भी प्राप्त होती रहती है।
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