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रविवार, 26 जुलाई 2020

अधिक उपज के लिए ऐसे करें फसलों में पोषक तत्व प्रबंधन

        डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

भारत के आर्थिक विकास में कृषि का महत्वपूर्ण योगदान है। देश 60 प्रतिशत से अधिक आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने जीवनयापन के लिए कृषि पर निर्भर है। यही नहीं देश में शक्कर, गुण,सूती कपड़ा निर्माण के लिए कपास, सब्जी,फल-फूल सभी कुछ कृषि पर निर्भर है । कृषि क्षेत्र में लगातार हो रही तकनीकी विकास और किसान हितैषी सरकारी योजनाओं की बदौलत आज कृषि उन्नति और प्रगति के राह पर है।स्वतन्त्रता के बाद देश में खाद्यान्न उत्पादन, दुग्ध उत्पादन, शक्कर उत्पादन,फल और सब्जी उत्पादन आदि में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई होने के फलस्वरूप आज हम अनेक कृषि उत्पाद के मामले में आत्म निर्भर हो गए है।हरित क्रांति की सफलता की वजह से खाद्यान्न उत्पादन एवं अन्य कृषि उत्पाद में वृद्धि संभव हो सकती है जिससे अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्मों के साथ-साथ सिंचाई एवं पोषक तत्वों की अतुलनीय भुमिका रही है। यह सर्विदित है की अनाज उत्पादन से लेकर कृषि की सभी जिन्सों के उत्पादन में 50 प्रतिशत वृद्धि केवल उर्वरकों के उपयोग के कारण हुई है। उन्नत किस्मों के विकास तथा सिंचाई सुविधाओं के प्रसार के करण देश में उर्वरक उपयोग में निरंतर वृद्धि हो रही है। देखने में आया है की फसलों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों में से किसान भाई नत्रजनयुक उर्वरकों का अधिक प्रयोग करते है, जिससे भूमि में अन्य आवश्यक पोषक तत्वों का संतुलन बिगड़ गया है जिसके फलस्वरूप उत्पादकता में वांक्षित वृद्धि नहीं हो पा रही है। उत्तम गुणवत्ता युक्त बेहतर उपज के लिए पोषक तत्वों का संतुलित मात्रा में उपयोग नितान्त आवश्यक है।

पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्व

पौधों की अच्छी वृद्धि एवं समुचित विकास के लिए मुख्यरूप से 17 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। भूमि में इन पोषक तत्वों की कमीं से फसल की वृद्धि एवं विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिससे फसलों की पैदावार कम हो जाती है। अतएव कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए खाद एवं उर्वरकों के माध्यम से पोषक तत्वों का उचित प्रबंधन आवश्यक हो जाता है. पौधों का 95 प्रतिशत भाग कार्बन,हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन से निर्मित होता है. जबक शेष 5 प्रतिशत भाग में अन्य पोषक तत्वों का योगदान रहता है। पौधों की आवश्यकतानुसार पोषक तत्वों को मुख्यरूप से निम्न दो भागों में विभाजित किया गया है:

   1.मुख्य पोषक तत्व: इस वर्ग में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नत्रजन, फॉस्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, मैग्नेशियम एवं सल्फर पोषक तत्व आते है. इन पोषक तत्वों को पुनः तीन भागों में विभाजित किया गया है:

(अ)आधारभूत पोषक तत्व: कार्बन, हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन तत्व इस वर्ग में आते है जो पौधों को हवा एवं पानी के माध्यम से प्राप्त हो जाते है. ये तत्व वायुमंडल में प्रचुर मात्रा में पाए जाते है, अतः इन्हें अलग से देने की आवश्यकता नहीं होती है.

(ब)प्राथमिक पोषक तत्व: इस वर्ग में मुख्य रूप से नत्रजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश को सम्मलित किया गया है. पौधों को इन तत्वों की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है और ये तत्व भूमि से जल के माध्यम से अवशोषित किये जाते है.

(स) द्वितीयक पोषक तत्व: इसमें मुख्यतः कैल्शियम, मैग्नेशियम एवं सल्फर तत्व आते है. ये पोषक तत्व भूमि से लिए जाते है, लेकिन प्राथमिक पोषक तत्वों की अपेक्षा इनकी कम आवश्यकता पड़ती है।

2.सुक्ष पोषक तत्व: पौधों को इन पोषक तत्वों की बहुत कम मात्रा की आवश्यकता होती है परन्तु पौधों की वृद्धि एवं जीवन चक्र को पूरा करने के लिए मुख्य पोषक तत्वों के सामान इनकी भी जरुरत होती है। आज कल सघन फसल प्रणाली अपनाने के कारण बहुत सी मिट्टियों में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमीं परिलक्षित हो रही है। इस वर्ग में आयरन, जिंक, मैगनीज, बोरोन, तांबा, कोबाल्ट आदि आते है।

पोषक तत्वों के प्रकार एवं महत्त्व

पौधे अपना भोजन मुख्यतः पत्तियों के हरे भाग (प्रकाशसंश्लेषण) के माध्यम से ग्रहण करते है। पौधे भूमि से आवश्यक पोषक तत्व घोल अथवा द्रव के रूप में जड़ों द्वारा ग्रहण करते है। अधिक और गुणवत्तायुक्त उत्पादन के लिए यह आवश्यक है की भूमि में सभी आवश्यक पोषक तत्वों का प्रबंधन किया जाए। जैसे बीज खेती का आधार है, उसी प्रकार अच्छी पौध वृद्धि, उपज एवं गुणवत्ता का आधार पोषक तत्वों को माना जाता है। फसल की समुचित वृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्व खाद एवं उर्वरकों के माध्यम से दिए जाते है। खाद एवं उर्वरकों को उनकी उपलब्धता के साधन एवं पोषक तत्वों की मात्रा के आधार पर कार्बनिक, अकार्बनिक एवं जैविक खादों में बांटा गया है।

पशुओं के गोबर और जैविक कचड़ा को मिलाकर कम्पोस्ट खाद बनाया जाता है। इसमें पोषक तत्वों की मात्रा कम होती है जिससे इनकी अधिक मात्रा लगती है। फसलों की मांग के अनुरूप पोषक तत्वों की आपूर्ति करने के लिए पर्याप्त मात्रा में जैवक खाद उपलब्ध न हो पाने की वजह से आज काल किसान भाई रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल अधिक करते है। उर्वरक का उपयोग सस्ता और आसान रहता है।

उर्वरक एक प्रकार के रासायनिक यौगिक होते है जिन्हें कारखानों में तैयार किया जाता है तथा इनमें एक या एक से अधिक पोषक तत्व अधिक मात्रा में पाए जाते है। मुख्य पोषक तत्वों यथा नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश की आपूर्ति के लिए उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है. इन पोषक तत्वों को फसल उत्पादन के लिए अधिक आवश्यकता होती है।उर्वरकों में पाये जाने वाली पोषक तत्वों के आधार पर इनकों तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है:

(i)           नत्रजन धारी उर्वरक: यूरिया, अमोनियम सल्फेट, कैल्शियम नाइट्रेट

(ii)          फॉस्फोरस धर उर्वरक: सिंगल सुपर फॉस्फेट, डबल सुपर फॉस्फेट, ट्रिपल सुपर फॉस्फेट, डाईअमोनियम फॉस्फेट (डी ए पी)

(iii)        पोटाशधारी उर्वरक: म्यूरेट ऑफ़ पोटाश.पोटेशियम क्लोराइड

पोषक तत्वों (उर्वरकों) का उपयोग हमेशा निम्न बातों को ध्यान में रखकर करना चाहिए जिससे फसलों की अच्छी वृद्धि एवं बेहतर उपज प्राप्त होने के साथ-साथ पोषक तत्व उपयोग क्षमता में वृद्धि हो सके।

(i)           फसल की किस्म (ii) भूमि का प्रकार (iii) भूमि में नमीं की उपलब्धतता एवं (iv) भूमि की उर्वरता

खरीफ एवं रबी फसलों में पोषक तत्व प्रबंधन

खरीफ फसलों की खेती सामान्यतौर पर वर्षा पर आधारित होती है. कम वर्षा वाले क्षेत्रों में मुख्य रूप से ज्वार, बाजरा,मक्का के अलावा दलहनी व तिलहनी फसलों की खेती की जाती है। जबकि अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इन फसलों के अलावा धान की फसल भी ली जाती है। सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने पर रबी ऋतु में गेंहू, सरसों, चना, सूर्यमुखी, गन्ना आदि फसलों की खेती की जाती है। इन सभी फसलों से अधिकतम पैदावार के लिए पोषक तत्वों को फसल में उचित मात्रा में एवं सहीं समय पर देना अत्यंत आवश्यक है।

खरीफ फसलों में पोषक तत्व प्रबंधन

फसल

पोषक तत्वों की मात्रा (नत्रजन:फॉस्फोरस:पोटेशियम, किग्रा/हे.)

उर्वरक देने का समय

धान-बौनी

किस्में

80-100:40-50:20-25

20 % नत्रजन तथा फॉस्फोरस व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई/रोपाई के समय

50 % नत्रजन बुवाई के 40-50 दिन तथा शेष 30% बुवाई के 60-70 दिन बाद

ज्वार

80-100:40:20

½ नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय

½ नत्रजन बुवाई के 30-35 दिन बाद

बाजरा

80:40:20

½ नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय

½ नत्रजन बुवाई के 30-35 दिन बाद

मक्का

80-120:40:20

½ नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय

 ¼ नत्रजन बुवाई के 30 दिन बाद एवं ¼ नत्रजन 45-50 दिन बाद  

मूंग/उड़द/लोबिया

20:30:10

सम्पूर्ण नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय

 

अरहर

30:40:20

सम्पूर्ण नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय

 

मूंगफली

20-30:60:20

सम्पूर्ण नत्रजन एवं फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा तथा 250 किग्रा.जिप्सम बुवाई के समय

 

तिल

40-50:30:20

½ नत्रजन तथा फॉस्फोरस व् पोटाश की पूरी मात्रा के अलावा 250 किग्रा जिप्सम बुवाई के समय

½ नत्रजन बुवाई के 30-35 दिन बाद

रबी फसलों में पोषक तत्व प्रबंधन

फसल

पोषक तत्वों की मात्रा (नत्रजन:फॉस्फोरस:पोटेशियम, किग्रा/हे.)

उर्वरक देने का समय

गेंहूँ

120:40:30

1/3 नत्रजन एवं फॉस्फोरस तथा पोटेशियम की पूरी मात्रा बुवाई के समय

1/3 नत्रजन पहली सिंचाई के समय एवं 1/3 नत्रजन दूसरी सिंचाई के समय

जौ

80:40:10

½  नत्रजन एवं फॉस्फोरस तथा पोटेशियम की पूरी मात्रा बुवाई के समय

½ नत्रजन पहली सिंचाई के समय

सरसों

80-100:40:20

½ नत्रजन एवं फॉस्फोरस तथा पोटेशियम की पूरी मात्रा बुवाई के समय

½ नत्रजन पहली बुवाई के 30-35 दिन बाद

चना/मटर

20:40:20

सम्पूर्ण नत्रजन एवं फॉस्फोरस तथा पोटेशियम बुवाई के समय

 

गन्ना

120-150:80:60

½  नत्रजन एवं फॉस्फोरस तथा पोटेशियम की पूरी मात्रा गन्ना लगाते समय

½ नत्रजन बुवाई के 110-120 दिन बाद

खाद एवं उर्वरक देते समय ध्यान योग्य बातें

1.   सभी पोषक तत्वों को खाद एवं उर्वरक के माध्यम से भूमि में दिया जाना चाहिए. खाद एवं उर्वरक की मात्रा फसल की किस्म, भूमि की दशा तथा मृदा में नमीं की मात्रा पर निर्भर करती है। अनाज वाली फसले जैसे धान, ज्वार, बाजरा, गेंहू, मक्का आदि को दलहनी फसलों की अपेक्षा अधि नत्रजन की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार तिलहनी फसलों को भी अधिक नत्रजन की जरुरत होती है। जबकि दलहनी फसलों को नत्रजन कम एवं फॉस्फोरस की आवश्यकता अधिक होती है। दलहनी फसलें अपनी जड़ों में वायुमंडलीय नत्रजन का स्थिरीकरण कर नत्रजन की पूर्ती स्वतः कर लेती है।

2.   फसलों के लिए पोषक तत्वों की सही मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए. ऐसा करने से उर्वरकों की बचत हो सकती है और फसल को संतुलित मात्रा में आवश्यकतानुसार पोषक तत्व उपलब्ध हो सकेंगे।

3.   फसलों को पोषक तत्वों की आपूर्ति खाद, उर्वरक एवं जैव उर्वरकों के माध्यम से कराई जाती है तो इस विधा को समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन कहते है। इस तकनीक का उपयोग करने से भूमि की उर्वरा शक्ति बरक़रार रहती है और फसल की उपज में भी बढ़ोत्तरी होती है।

4.   तिलहनी फसलों को गंधक (सल्फर) तत्व की आवश्यकता होती है। अतः 30-40 किग्रा. सल्फर या फिर 250 किग्रा. जिप्सम प्रति हेक्टेयर का इस्तेमाल कर in फसलों की उपज और बीज में तेल की मात्रा को बढाया जा सकता है.

5.   दलहनी फसलों की अच्छी पैदावार के लिए बुवाई पूर्व बीज का राइजोबियम कल्चर से उपचार के साथ  पौधों की शुरुआती बढ़वार एवं विकास के लिए बुवाई के समय 20-30 किग्रा नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से देना आवश्यक होता है.

6.   फसल प्रणाली में दलहनी फसलों का समावेश अवश्य करें अर्थात फसलों को हेर फेर कर (फसल चक्र) बोना चाहिए ताकि भूमि की उर्वरा शक्ति कायम रह सकें.

उपरोक्तानुसार फसलों में पोषक तत्वों का उचित मात्रा में संतुलित एवं समन्वित प्रयोग करके न केवल अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है, बल्कि भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाये रखा जा सकता है जो हमारी भूमि के स्टेट एवं टिकाऊ उत्पादन के लिए बहुत आवश्यक है।

कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

राष्ट्रिय आय में महिलाओं के योगदान की अपेक्षा कब तक

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

 सूर्योदय  से लेकर सूर्यास्त और रात्रि तक महिलाएं विविध घरेलू कार्यों एवं पारिवारिक-सामाजिक दायित्वों का निर्वहन सुचारू व व्यवस्थित ढंग से करते हुए अपनी कार्यकुशलता, सहनशीलता, धैर्य व समर्पण का परिचय बखूबी से देती आ रही है। यही नहीं, ग्रामीण महिलाएं घर एवं रसोई के कार्यों के अतिरिक्त खेती-बाड़ी, बागवानी,पशुपालन, मछली पालन, मुर्गी पालन से सम्बंधित बहुआयामी  कार्यों में भी सक्रिय भूमिका निभाती है। निर्माण सम्बन्धी कार्यों में भी महिलाओं की हिस्सेदारी कं नहीं है। इसके अलावा लघु, कुटीर, हस्तकला व् दस्तकारी उद्योगों में भी अपने कौशल, सृजनात्मक शक्ति व चातुर्य के बलबूते पर अपना वर्चस्व कायम किये हुए है। शहरों की तुलना में ग्रामीण महिलाओं के पास कार्य की अधिकता है, इसके विपरीत आज भी महिलाओं की स्थिति दयनीय है। सबसे अधिक कार्य का बोझ होने के बावजूद महिलाओं को पुरुषों से कम पारिश्रमिक  मिलता है जो उनकी दयनीय स्थिति को दर्शाता है।

महिलाओं द्वारा धान  की रोपाई फोटो साभार गूगल 
वर्तमान में तकनीक व प्रौद्योगिकी युग में उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर देश के विकास में महती भूमिका अदा कर रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य,रक्षा, सेना,पुलिस,विज्ञान,खेलकूद, पत्रकारिता, मनोरंजन, प्रशासनिक, राजनैतिक  आदि सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी व् सहभागिता उतरोत्तर बढती जा रही है, जो निश्चित रूप से महिला सशक्तिकरण की अवधारणा का यथार्थ रूप ही है। किन्तु विडम्बना का विषय यह है कि देश के विकास में आधे से अधिक का योगदान देने वाली महिलाओं द्वारा सम्पादित विविध घरेलु कार्यों का आर्थिक मूल्यांकन नहीं होने के कारण ये राष्ट्रीय आय में समावेशित होने से वंचित रह जाती है । ज्ञात रहे कि राष्ट्रिय आय में बाजारोन्मुखी गतिविधियों को ही शामिल किया जाता है। इसी वजह से महिलाओं द्वारा सम्पादित विविध घरेलू कार्य एवं खेती-किसानी, पशुपालन, प्रसंस्करण से सम्बंधित कार्य राष्ट्रिय आय की परिधि से बाहर रह जाते है। हमारे देश की नीति और नियमों में कितना विरोधाभास है कि जब इन सभी घरेलू व अन्य कार्यो का संपादन नौकर अथवा बाजार व्यवस्था के तहत किया जाता है, तब वे राष्ट्रिय आय का अभिन्न अंग बन जाते है। महिलाओं द्वारा सम्पादित कार्यों का आर्थिक मूल्यांकन नहीं होने की वजह से उनके द्वारा प्रतिपादित श्रमसाध्य कार्य नजरअंदाज हो जाते है, जिसका खामियाजा महिला वर्ग को उठाना पड़ता है और इसी विसंगति के कारण समाज, देश व विश्व के विकास में उनके योगदान को अनदेखा कर दिया जाता है। आर्थिक सर्वेक्षण में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया हा कि देश के अर्थव्यवस्था में महिलाओं के योगदान को या तो पहचाना नहीं गया है या फिर उसका सहीं तरीके से मूल्यांकन नहीं किया गया है. जबकि इसमें कोई अतिसयोंक्ति नहीं है की आज के आर्थिक एवं भौतिकवादी  युग में आर्थिक क्रियाओं के स्तर व् इनमें सहभागिता के आधार पर ही पद,प्रतिष्ठा और परिस्थिति का निर्धारण होता है. अतः यह नितांत आवश्यक हो जाता है की महिलाओं द्वारा सम्पादित घरेलू कार्यों एवं असंगठित क्षेत्रों यथा कृषि, बागवानी, पशुपालन, कुटीर उद्योग, निर्माण आदि क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं के महत्वपूर्ण योगदान का न्यायोचित मूल्यांकन करने हेतु ठोस रणनीत बनाई जानी चाहिए।

कृषि में महिलाओं का अभूतपूर्व योगदान

भारत अपने अस्तित्वकाल से ही कृषि प्रधान देश रहा है। महिलाओं के बगैर खेती-किसानी, बागवानी, पशुपालन और कुटीर उद्योगों की सफलता संभव नहीं हो सकती है. पिछली जनगणना (2011) के अनुसार, देश की  कुल महिला श्रमिकों की संख्या का 55% कृषि कार्य में और 24% कृषि मज़दूर के अंतर्गत कार्यरत थीं। किंतु भू-स्वामित्व  पर महिलाओं का स्वामित्व केवल 12.8% है जो लैंगिक असमानता को दर्शाता है। विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के आंकड़े बता रहे हैं कि भारत के 48 प्रतिशत कृषि संबंधित रोजगार में महिलाएं हैं, जबकि करीब 7.5 करोड़ महिलाएं दुग्ध उत्पादन तथा पशुधन व्यवसाय जैसी गतिविधियों में सार्थक भूमिका निभाती हैं। कृषि क्षेत्र में कुल श्रम की 60 से 80 फीसदी तक हिस्सेदारी महिलाओं की है। पहाड़ी तथा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र तथा केरल राज्य में महिलाओं का योगदान कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पुरुषों से कहीं ज्यादा है। भारत वर्ष में उसके भूगोल और जनसंख्या के अनुपात से कृषि में महिलाओं के योगदान का आंकलन करें, तो यह करीब 32 प्रतिशत है। घरेलू कार्यो के अतिरिक्त बुवाई से लेकर रोपाई, सिंचाई, गुड़ाई, उर्वरक डालना, पौध संरक्षण, कटाई, गहाई, भंडारण और कृषि से जुड़े अन्य कार्य जैसे कि मवेशी प्रबंधन, चारे का संग्रह, दुग्ध संग्रहण, मधुमक्खी पालन, मशरुम उत्पादन, बकरी पालन, मुर्गी पालन आदि में महिलाओं का अधिक योगदान हैं। वर्षों से इतना भारी-भरकम कृषि कार्य करने वाली अधिकांश भारतीय महिलाओं को घर और खेत में कोई हक नहीं है अर्थात भू-स्वामित्व में उनकी हिस्सेदारी नहीं है. महिला सशक्तिकरण का नारा देने वाले देश में खेती-किसानी में हाड़तोड़ मेहनत करने वाली महिलाओं को किसान का दर्जा भी अभी तक नहीं मिल सका है। दरअसल, खेती-किसानी में कार्यरत महिलाओं के कार्य का आर्थिक मूल्यांकन नहीं होने के कारण हम  अपनी मातृशक्ति की श्रमपूंजी के साथ न्याय नहीं कर पा रहे है। आज भी किसान भाइयों को ही अन्नदाता की मान्यता है, जबकि बहिनों के बलबूते खेती हो रही है। आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी महिलाओं को कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए उचित अवसर नहीं  दिए जा रहे हैं। आज भी खेती की सफलता से सम्बंधित प्रशिक्षण हो या फिर पुरुष्कार, सभी पर पुरुष वर्ग का ही कब्ज़ा है।

              निसंदेह महिलाओं द्वारा सम्पादित विविध किन्तु महत्वपूर्ण कार्यों का उचित आर्थिक मूल्यांकन होने से घरेलू महिलाओं एवं कृषि उत्पादक कार्यों में संलग्न महिलों के मान-सम्मान और प्रतिष्ठा में सुधार होगा जिससे इन महिलाओं के प्रति समाज की मानसिकता में सकारात्मक परिवर्तन होगा जिसके फलस्वरूप उन्हें शोषण,उत्पीडन और प्रताड़ना से मुक्ति मिलेगी महिलाओं के विकास, उनके मान-सम्मान और प्रतिष्ठा में वृद्धि होने से स्वतः ही परिवार, समाज, गाँव, शहर व् देश का तीव्र गति से  विकास होगा और हमारा देश विकसित देशों की श्रेणी में शामिल हो जायेगा  
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मंगलवार, 14 जुलाई 2020

रासायनिक उर्वरकों (रासायनिक खेती) का प्रयोग कब, कैसे और किसने किया

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्रोफ़ेसर, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,
कांपा, पोस्ट बिरकोनी, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)

            रासायनिक उर्वरकों पर आधारित आधुनिक खेती की शुरुआत 1840 में जर्मनी में हुई. इससे पूर्व पूरे विश्व में सजीव यानि जैविक खेती हुआ करती थी  जर्मनी में 1840 में प्रसिद्ध केमिस्ट जस्टस वोन लाइबिग ने रासायनिक उर्वरक का मेमोरेंडम प्रसिद्ध किया।  उन्होंने रासायनिक उर्वरकों पर पॉट कल्चर प्रयोग किया। जस्टस वोन लाइबिग कृषि वैज्ञानिक नहीं थे, अतः कृषि वैज्ञानिक जोह्न्सन ने रासायनिक उर्वरकों का खेत में परीक्षण  किया। प्रथम दो वर्ष में फसल उत्पादन अच्छा मिला। यह जानकार जर्मनी की सभी युद्ध का सामन बनाने वाली फैक्टरी रासायनिक उर्वरक बनाने लगी। अगले दो साल बाद फसलों का उत्पादन कम होने लगा। उर्वरकों के प्रयोग से भूमि में लाभदायक जीवाणु की संख्या घटने लगी तथा सभी फसलों और वनस्पतियों में रोगों का प्रकोप बढ़ने लगा। इसके बावजूद भी रासायनिक उर्वरकों एवं कीट नाशकों का प्रयोग   बढ़ने लगा जिसके परिणामस्वरूप रसायनयुक्त वनस्पति एवं चारे को खाने वाले पशु रोगग्रस्त होने लगे। पशुओं के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए पशु औषधालयों की आवश्यकता पड़ने लगी।  
         यूरोप में औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ ग्रामीण जनता औद्योगिक नगरों में रहने लगें। रासायनिक उर्वरकों से उत्पादित खाद्यान्न के सेवन से शहरी जनता में बीमारियों का प्रकोप बढ़ने लगा जिससे अस्पताल और चिकित्स्कों की संख्या में बढ़ोत्तरी होने लगी। लोगों में ह्रदय आघात, मधुमेह, रक्त चाप, कैंसर, किडनी व लिवर रोग जैसी  समस्यायें उत्पन्न होने लगी। 
            अपनी मौत के पहले जस्टस वोन लाइबिग ने लिखा-'मेरा रासायनिक उर्वरक' का 1840 का मेमोरेंडम गलत था।  रासायनिक उर्वरकों पर सभी संसोधन कृषि वैज्ञानिक डॉ जोह्न्सन ने मेरे नाम से प्रसिद्ध किये। समग्र मानव जाती को रोगी बनाने का पाप मैंने किया है। मैं ईश्वर से माफ़ी मांगता हूँ। मैं अंधा हो गया हूँ।  ईश्वर ने मुझे दण्डित किया है। रासायनिक खेती का सिद्धांत गलत है। मुझे माफ़ करना !  
         भारत के किसानों को आधुनिक रासायनिक खेती सीखने के लिए    ब्रिटिश वैज्ञानिक सर आल्बर्ट (1910-1940) भारत आया परन्तु भारत के किसानों की सजीव खेती देखकर वह खुद जैविक खेती (organic farming) का वैज्ञानिक बन गया। उन्होंने रानी विक्टोरिया को पत्र लिखा-भारत के किसान मेरा प्रोफ़ेसर है। जैविक कृषि से ही मनुष्य सहित जीव प्राणीमात्र निरोगी रह सकते है, परन्तु  समग्र विश्व में रासायनिक कृषि से प्रजा रोग ग्रस्त हो रही है। जस्टस वोन लाइबिग का रासायनिक कृषि का सिद्धांत गलत है। सीक्रेट्स ऑफ़ सॉइल्स नामक पुस्तक में क्रिस्टोफर बर्ड-पीटर टोम्पस्कीन लेखक ने लिखा है-रासायनिक कृषि से  उत्पादित खाद्यान्न के सेवन से 30  प्रतिशत से अधिक युवा नपुंसक हो गए है।  समग्र प्रजा रोग ग्रस्त हो रही है। मधुमेह, कैंसर ,ह्रदय आघात जैसे असाध्य रोग बढ़ते जा रहे है. अभी भी समय है सजीव प्राकृतिक  खेती से उत्पादित खाद्यान्न खाने से मानव जाती निरोगी बना सकते है। हरित क्रान्ति के आगमन के पश्चात भारत में रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, फफूंदीनाशकों एवं शाकनाशकों के उपयोग में निरंतर इजाफा होता जा रहा है। 
            विकास के पश्चिमी मॉडल को अपनाकर हमारे अधिकांश कृषक प्रकृति के सह अस्तित्व के सिद्धांत को भूलते जा रहे है एवं स्वअस्तित्व को बनाये रखने  के लक्ष्य में प्रकृति के अपने मित्र घटकों (जल, जंगल, जमीन, पशुधन) को नष्ट करते जा रहे है। परिणामस्वरूप प्रकृति भी अपना विकराल रूप अर्थात सूखा, बाढ़, कीट, रोग आक्रमण, भूकंप आदि मानव जाती को नष्ट करने वाली विभीषकाएं उत्पन्न हो रही है। भूमि, जल तथा वायु का प्रदुषण  इस स्तर पर बढ़ा है कि भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् (ICAR) के तत्कालीन महानिदेशक डॉ. मंगला राय (भारत सरकार के पूर्व कृषि सलाहकार) को लिखना पड़ा 'रासायनिक खेती से जनजीवन का अस्तित्व खतरे में आया है। अब कुछ वर्षों से भारत सरकार जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है जिसके कारण देश के उच्च वर्ग एवं कुछ मध्यम वर्ग में जैविक खेती के उत्पादों के इस्तेमाल की और रुझान बढ़ा है। उच्च गुणवत्ता वाले उत्पाद  एवं अच्छा भाव मिलने के कारण जैविक कृषि के प्रति किसानों में जागृति पैदा हो रही है।  इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि आने वाला भविष्य जैवक खेती का होगा अर्थात हमें अपने देश में  पुनः प्राकृतिक खेती खेती के सिद्धांतों का अनुपालन करना होगा, तभी समृद्ध, स्वस्थ, आत्मनिर्भर और खुशहाल भारत की कल्पना साकार हो सकती है ।     
कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 





























फसलों की उपज और गुणवत्ता बढाने अवश्य करे गंधक का इस्तेमाल

                                                  डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्राध्यापक (सस्य्विज्ञान)

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट,कांपा, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)

पौधों के लिए आवश्यक पोशाक तत्वों में नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश के बाद बाद गंधक चौथा प्रमुख पोषक तत्व है. हमारे देश में बोई जाने वाली प्रमुख तिलहनी फसलों में मूंगफली, सोयाबीन, तिल, सरसों, सूरजमुखी, अलसी आदि  तथा दलहनी फसलों में अरहर, मूंग,  उड़द, चना, मटर, मसूर आदि प्रमुख हैं। इनके अलावा प्याज, लहसुन, मूली, कपास आदि  फसलों में भी गंधक की विशेष जरूरत होती है। एक ही खेत में हर वर्ष इन फसलों की खेती करने से खेतों में गंधक की कमी हो रही है. जिससे फसल की पैदावार व गुणवत्ता में निरन्तर कमी आ रही है। आमतौर पर किसान फसलों में प्रायः गंधक रहित उर्वरक जैसे डी.ए.पी. एवं यूरिया का उपयोग अधिक करते है, जबकि गंधक युक्त उर्वरकों जैसे सिंगल सुपर फास्फेट व जिप्सम का उपयोग प्रायः कम करते है  जिससे खेतों में गंधक की कमीं होने से उत्पादन और गुणवत्ता में गिरावट होती है। राष्ट्रिय एव विभिन्न प्रदेशों में किये गए परीक्षणों से ज्ञात होता है, कि एक किलोग्राम गंधक के प्रयोग से 12 किग्रा गेंहूँ, 5 किग्रा मूंगफली, 7 किग्रा सरसों और 74 किग्रा कंद की बढ़ोत्तरी होती है. गंधक के उपयोग से सरसों में 8.5 %, मूंगफली में 5.1 %, सूरजमुखी में 3.6% और सोयाबीन में 6.8 प्रतिशत तेल में बढ़ोत्तरी होती है।

क्यों जरुरी है गंधक

गंधक कार्बनिक पदार्थों की सरंचना का अभिन्न अंग है. यह पौधों के क्लोरोफिल के निर्माण में सहायक होता है, जो कि पौधों के लिए अत्यंत आवश्यक है. पौधों की वानस्पतिक वृद्धि और जड़ों के विकास में भी गंधक सहायता करता है।तिलहनी फसलों में गंधक के उपयोग से दानों में तेल की मात्रा में बढोतरी होती है, साथ ही दाने सुडौल व चमकीले बनते है तथा पैदावार अधिक प्राप्त होती है। इसी प्रकार दलहनी फसलों में प्रोटीन के निर्माण के लिए गंधक अतिआवश्यक पोषक तत्व हैं. गंधक से दलहनी फसलों में भी दाने सुडौल बनते हैं व पैदावार बढ़ती है। यहीं  नहीं, दलहनी फसलों की जडो में ग्रंथियों के निर्माण में गंधक मदद करता है जिससे राइजोबियम जीवाणुओं की क्रियाशीलता को बढ़ावा मिलता है।

गंधक की कमीं के लक्षण

मृदा में गंधक की कमिं होने के साथ ही पौधों पर लक्षण दिखाई देने लगते है. ये लक्षण विभिन्न फसलों में अलग-अलग होते है। गंधक की कमिं के लक्षण सर्प्र्थम नविन पत्तियों पर दिखाई देते है, ये पत्तियां पीली पड़ने लगती है और पौधों की बढ़वार अवरुद्ध हो जाती है। तना पतला और बौना दिखाई देता है। इसकी कमीं के लक्षण नाइट्रोजन की कमिं के लक्षणों से मिलते-जुलते है। नाइट्रोजन के अभाव में पुरानी  पत्तियां हरी बनी रहती है, जबकि गंधक की कमीं से नई पत्तियां पीली पड़ जाती है तथा पुरानी पत्तियां हरी बनी रहती है.अधिक कमीं के कारण पूरा पौधा पीला पड़ जाता है। खाद्यान्न फसलों में गंधक की कमीं से परिपक्वता की अवधि बढ़ जाती है। पौधों की पत्तियों का रंग हरा रहते हुए भी बीच का भाग पीला हो जाता है। दलहनी और तिलहनी फसलों में गंधक की कमीं के लक्षण अधिक उभरते है।सरसों वर्गीय फसलों में गंधक की कमीं के कारण फसल प्रारंभिक अवस्था में पट्टी का निचला भाग बैंगनी रंग का हो जाता है।

गधंक के प्रमुख स्रोत एवं उपयोग 

उर्वरक का नाम

उपलब्ध पोषक तत्व की प्रतिशत मात्र

सिंगल सुपर फॉस्फेट

फॉस्फोरस-16, सल्फर-12 एवं कैल्शियम-21 %

जिप्सम

23% कैल्शियम, 18 % सल्फर

जिंक सल्फेट

जिंक 12% एवं सल्फर 11-18 %

फेरस सल्फेट

आयरन-19 % एवं सल्फर-12%

पोटैशियम सल्फेट

पोटाश-50% एवं सल्फर-18 %

अमोनियम सल्फेट

नत्रजन 21 % तथा  सल्फर 24  %

पायराईट

22-24 % सल्फर, 20-22 % आयरन,

विभिन्न फसलों में गधंक की मात्रा

फसल का नाम

मात्रा किग्रा प्रति हेक्टेयर

दलहनी फासले (चना, मटर,मसूर)

15-20

तिलहनी फसलें (मूंगफली, टिल, सरसों,अलसी आदि)

25-30

प्याज, लहसुन, आलू आदि

30-40

टमाटर व अन्य सब्जियों में

15-20

फसलों में गंधक के उपयोग का समय इसके स्त्रोत पर निर्भर करता है। जब गंधक उर्वरक के रूप में उपयोग किया जाये तो सभी फसलों के लिए उसे खेत की अंतिम जुटी के समय इस्तेमाल करना चाहिए। गंधक युक्त उर्वरकों को बारीक पाउडर के रूप में खेत में फसल बुवाई के 20-25 दिन पहले मिला देना अधिक अच्छा होता है। मूंगफली में फली बनते समय, गंधक की पर्याप्त आपूर्ति के लिए गंधक को दो भागों में (बुवाई व फली बनते समय) बराबर मात्रा में बांटकर देना लाभदायक होता है। यदि किसान भाई अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फॉस्फेट, पोटैशियम सल्फेट जैसे उर्वरकों का प्रयोग करते है तो अलग से सल्फर युक्त उर्वरक देने की आवश्यकता नहीं पड़ती है ।

हरित क्रांति के बाद अधिक उत्पादन और मुनाफा कमाने के उद्देश्य से  खेतो में बेतहासा व असंतुलित रसायनिक खाद को डाल कर भूमि की उर्वरा शक्ति को नुक़सान पहुँचाया है सघन कृषि में अधिकांश किसान यूरिया, डी. ए. पी. जैसे उर्वरको का अधिक इस्तेमाल करते आ रहे है जिससे गंधक, कैल्शियम सहित अनेक सूक्ष्म तत्वों की भूमि में कमीं परिलक्षित होने लगी है इससे फसलोत्पादन और फसल उत्पाद की गुणवत्ता पर नकारात्मक असर पड़ रहा है अतः मृदा उर्वरता को बरकरार रखने के लिए आवश्यक है कि किसान खेतों की मिट्टी परीक्षण कराने के उपरान्त पोषक तत्वों की सही एवं संतुलित मात्रा का उपयोग करें फसलोत्पादन के लिए आवश्यक नत्रजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश के साथ-साथ सल्फर तत्व का भी उपयोग करे दलहनी, तिलहनी फसलों से अधिकतम  उत्पादन के साथ साथ में प्रोटीन एवं वसा की मात्रा बढाने के लिए उर्वरकों में गंधक का उपयोग आवश्यक है