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सोमवार, 3 अगस्त 2020

रासायनिक उर्वरकों के साथ जैव उर्वरक का प्रयोग लाभप्रद

                                                 डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

  

भारत वर्ष में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है और कृषकों की मुख्य आय का साधन खेती है। हरित क्रांति के समय से बढती हुई जनसँख्या को देखते हुए एवं आमदनी की दृष्टि से उत्पादन बढ़ाना आवश्यक है। हर्ष की बात है की 2.1 प्रतिशत की दर से प्रतिवर्ष बढ़ने वाली आबादी के साथ कृषि उत्पादन का संतुलन बना हुआ है। कृषि उत्पादन वृद्धि में उन्नत किस्म के बीजों, उर्वरकों, सिंचाई जल एवं पौध संरक्षण का उल्लेखनीय योगदान रहा है। रासायनिक उर्वरकों की बढती कीमतों  के कारण  खेती की लागत बढती जा रही है। फसलों के लिए जरुरी पोषक तत्वों में नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश में से नत्रजन का सर्वाधिक उपयोग होता है। भूमि में डाले गये नत्रजन का  अधिकतम 30-40 प्रतिशत ही फसल उपयोग कर पाती हैं और शेष 60-70  प्रतिशत भाग या तो नष्ट हो जाता है या जमीन में ही अस्थायी बन्धक हो जाता हैं। अन्य पोषक तत्वों में फॉस्फोरस धारी उर्वरक तो पौधों को 15-20 प्रतिशत ही उपलब्ध हो पाते है, शेष भूमि में स्थिर हो जाता है । भारत जैसे विकासशील देश में नत्रजन एवं फॉस्फोरस की आपूर्ति केवल रासायनिक उर्वरकों से कर पाना छोटे और मध्यम श्रेणी के किसानों की क्षमता से परे है । वर्तमान परिस्थितियों में नत्रजन एवं फॉस्फोरस धारी उर्वरकों के साथ-साथ इनके वैकल्पिक स्रोतों का उपयोग न केवल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने तथा मृदा की उर्वरा शक्ति को टिकाऊ  बनाये रखने के लिए भी आवश्यक है। ऐसी स्थिति में जैव उर्वरकों एवं रासायनिक उर्वरकों के एकीकृत उपयोग की करने की  आवश्यकता है।

विभिन्न जैव उर्वरक फोटो साभार गूगल

जैव उर्वरक जीवाणु खाद क्या है?

पौधों या फसलों की अच्छी वृद्धि के लिए मुख्यतः 17 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, जिनमें नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश अति आवश्यक पोषक तत्व है। यह पौधों को तीन प्रकार यथा रासायनिक खाद, गोबर की खाद/ कम्पोस्ट तथा नाइट्रोजन स्थिरीकरण एवं फास्फोरस घुलनशील जीवाणुओं द्वारा उपलब्ध होते  है। प्राकृतिक रूप से भूमि में कुछ ऐसे जीवाणु विद्यमान होते है, जो वायुमंडलीय नाइट्रोजन को अमोनियम नाइट्रेट में एवं स्थिर फॉस्फोरस को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर देते है। जैव उर्वरक इन्हीं सूक्ष्म जीवों का उत्पाद है जो पौधों को नत्रजन एवं फास्फोरस आदि की उपलब्धता बढ़ाता है। जैव उर्वरक पौधों के लिए वृद्धि कारक पदार्थ भी देते हैं तथा पर्यावरण को स्वच्छ रखने में सहायक हैं। भूमि, जल एवं वायु को प्रदूषित किये बिना कृषि उत्पादन स्तर में स्थायित्व लाते हैं। इन्हें जैव कल्चर या जीवाणु खाद कहते हैं।

नाना प्रकार के जैव उर्वरक

जैव उर्वरक अनेक प्रकार के होते है. नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले दलहनी फसलों के लिए  राइजोबियम कल्चर, गैर-दलहनी फसलों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जैव उर्वरकों में एजोटोबेक्टर, एजोस्पाइरिलम कल्चर,नील हरति शैवाल, (वीजीए) व अजोला  तथा फॉस्फेट घुलनशील जैव उर्वरकों में फास्फेटिका कल्चर,माइकोराइजा,ट्राइकोडर्मा आदि आते है जिनका विवरण अग्र प्रस्तुत है

1.राइजोबियम कल्चर

यह एक नमीं युक्त पदार्थ जैसे  चारकोल एवं जीवाणु का मिश्रण है, जिसके प्रत्येक एक ग्राम भाग में 10 करोड़ से अधिक राइजोबियम जीवाणु होते हैं। इस जैव उर्वरक का उपयोग केवल दलहनी फसलों में ही किया जाता है तथा यह फसल विशिष्ट होती है, अर्थात अलग-अलग फसल के लिए अलग-अलग प्रकार का राइजोबियम जैव उर्वरक यानि कल्चर का प्रयोग होता है। राइजोबियम जीवाणु कल्चर  से बीज उपचार करने पर ये जीवाणु बीज पर चिपक जाते हैं। राइजोबियम जीवाणु छोटी-छोटी हलकी गुलाबी रंग की जड़ ग्रंथियों में सहजीवी रूप में वास करते है और वायुमंडल की  नाइट्रोजन को आपसी जैविक क्रियाओं द्वारा अमोनिया में बदल देते है। इन जड़ ग्रंथियों में लैग हीमोग्लोबिन पदार्थ पाया जाता है। अधिक ग्रंथियां होने से फसल की पैदावार अधिक आती है ।

अलग-अलग फसलों के लिए राइजोबियम जीवाणु खाद के अलग-अलग पैकेट उपलब्ध होते हैं राइजोबियम कल्चर 200 ग्राम के पॉकेट में उपलब्ध होता है एक पॉकेट   राइजोबियम कल्चर से से 10 किग्रा बीज उपचारित कर सकते हैं। सबसे पहले एक बर्तन में  400-500  मि.ली. पानी में 50 ग्राम गुड़ मिलाकर तथा उसे उबाल लें। इस घोल के ठंडा होने पर राइजोबियम कल्चर का एक पॉकेट (200 ग्राम) मिलाकर अच्छी प्रकार से घोल बना लेवें  बीजों को साफ सतह पर एकत्रित कर उक्त जीवाणु कल्चर के घोल को बीजों पर धीरे-धीरे डालें, और  हल्के हाथ से तब तक लटते पलटते रहे  जब तक कि सभी बीजों पर जीवाणु कल्चर की समान परत न बन जाये। अब उपचारित बीजों को बिछाकर फैलाकर 10-15 मिनट तक  सुखाने के पश्चात तुरन्त बुवाई करें । राइजोबियम कल्चर के  प्रयोग से उपज में 15 से 40 प्रतिशत तक उपज में इजाफा होता है। इसके बीजोपचार से 10-35  किग्रा रासायनिक नत्रजन की बचत होती है। इसके प्रयोग से वृद्धि वर्धक(साइटोंकानिन) हार्मोन्स भी पोधो को उपलब्ध होते है। इसके प्रयोग से  भूमि की उर्वरा शक्ति बढती है।

2.एजोटोबैक्टर जैव उर्वरक

यह जैविक उर्वरक एज़ोटोबैक्टर कोकोकम से बनी है। यह जीवाणु मिट्टी में पाया जाता है जो नत्रजन परिवर्तन करता है तथा वृद्धि हार्मोन बनाता है । इससे  पौधों की जड़ों का समुचित  विकास होता है। यह कुछ कीटनाशक पदार्थ छोड़ता है जिससे जड़ों की रोगों से सुरक्षा होती है। यह पौधों की बढ़वार एवं उत्पादकता में 15-25 % तक वृद्धि करता है। इसके प्रयोग करने से 20-30 कि.ग्रा. नत्रजन की बचत की जा सकती है। इसके प्रयोग करने से अंकुरण शीघ्र और स्वस्थ होता है तथा जड़ एवं तनों का विकास अधिक एवं शीघ्र होता है। यह जैव उर्वरक गेंहू,धान, कपास,सब्जियों और फलों के लिए उपयोगी रहता है।

3.एजोस्पाइरिलम जैव उर्वरक

यह जीवाणु खाद एजोस्पाइरिलम ब्रैजिलैंस या लिपोफेरम से बनी है. यह जीवाणु जड़ों के समीप पाया जाता है। इसके प्रयोग से 30-35 प्रतिशत  नत्रजन उर्वरक  की बचत की जा सकती है। यह पौधों के जमाव एवं बढ़वार में मदद कर उत्पादकता में 25 % तक की वृद्धि कर सकता है । यह जैव उर्वरक (कल्चर) धान और गन्ना फसल के लिए उपयोगी होता है।

4.एसीटोबैक्टर जैव उर्वरक 

यह खाद एसीटोबैक्टर डाइएजोट्राफिकस नामक जीवाणु से बनी है यह जीवाणु गन्ने के सभी भागों (जड़,तना व पत्ती) में पाया जाता है। इसका प्रयोग गन्ना फसल में किया जाता है यह गन्ने की लम्बाई एवं मोटाई को बढ़ाता है । सामान्यतौर पर इसके उपचार से गन्ना उपज में 5-20 टन प्रति हेक्टेयर और चीनी की मात्रा में 5-15 % की वृद्धि करता है।

4. फॉस्फोरस घुलनशील जैव खाद

यह जैव खाद बैसिलस, स्युडोमोनास एवं या एस्पर्जिलस आवामोरी नामक जीवाणु से बनी है । फास्फेटिक उर्वरकों का लगभग एक तिहाई भाग ही पौधे अपने उपयोग में ला पाते है। शेष अघुलनशील अवस्था में ही पड़ा रह जाता है जिसे पौधे स्वयं घुलनशील नहीं बना पातें। यह जीवाणु पौधों की जड़ों के पास रह कर अघुनशील फास्फोरस को घुलनशील कर पौधों को उपलब्ध करवाते है। इसका प्रयोग सभी फसलों में किया जा सकता है। यह पौधों की वृद्धि को बढ़ाते है तथा उत्पादकता को 15-20 % तक बढ़ा सकते हैं। इसके प्रयोग करने से 25-30 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से उपलब्ध फास्फेट की बचत की जा सकती है। जड़ों का विकास अधिक होता है, जिससे पौधा स्वस्थ बना रहता है।

5. नील हरित शैवाल

एक कोशिकीय सूक्ष्म नील हरित शैवाल (बी जी ए) नम मिट्टी तथा स्थिर पानी में स्वतन्त्र रूप से पाए जाते हैं। धान के खेत का वातावरण नील-हरित शैवाल के लिए के लिए सर्वथा उपयुक्त होता है। इसकी वृद्धि के लिए आवश्यक ताप, प्रकाश नमी और पोषक तत्वों की मात्रा धान के खेत में विद्यमान रहती है। धान की रोपाई के 3-4 दिन बाद स्थिर पानी में 12.5 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से सूखे जैव उर्वरक का प्रयोग करें। इसके पश्चात् 4-5 दिन तक लगातार खेत में पानी भरा रहने दें। खेत में लगातार तीन वर्ष तक इसका प्रयोग करने के बाद इसे पुनः डालने की आवश्यकता नहीं होती है। यदि धान में किसी खरपतवारनाशी का प्रयोग कियाजाना है तो इसका प्रयोग खरपतवार नाशी के प्रयोग के 3-4 दिन बाद करें। नील हरित जैव उर्वरक के प्रयोग से 30 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन प्राप्त होती है। इसके प्रयोग से धान के उत्पादन में 15 से 20 प्रतिशत की वृद्धि होती है। इसके यह  वृद्धि नियंत्रक एवं विटामिन  भी श्रावित करता हैं जिससे पौधों में अच्छी वृद्धि के साथ-साथ दानों की गुणवत्ता भी बढ़ती है।

6. अजोला

यह  ठण्डे मौसम में स्थिर पानी के ऊपर तैरते हुए पाया जाता है जो दूर से देखने में हरे या लाल रंग की चटाईनुमा लगता है। इसकी पत्तियां बहुत छोटी तथा मोटी होती हैं। इन पत्तियों के नीचे छिद्रों में सहजीवी साइनो-वैक्टीरिया (एनावीना एजोली) पाया जाता है, जो नत्रजन स्थिरीकरण में सहायक है। यह जलमग्न धान के खेतों में बुवाई के एक सप्ताह बाद 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर  की दर से उगाया जा सकता है जो दो किलोग्राम नत्रजन प्रति दिन की दर से स्थिर कर सकता है। इसका प्रयोग कम्पोस्ट बनाने में अथवा 10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से हरी खाद के रूप में भूमि में मिलाकर किया जा सकता है। इसके प्रयोग से धान में खरपतवार कम पनपते हैं तथा नत्रजन के प्रयोग में 40-80 किलोग्राम तक बचत की जा सकती है।

7. माइकोराइजा

इसमें फफूंदी का पौधें की जड़ों से सहजीवन होता है, जिसमें फफूंदी अपनी जड़ों से पोषक तत्वों को अवशोषित करती है और पौधों को इन तत्वों को तुरन्त उपलब्ध कराती है इसके प्रयोग से फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम एवं सूक्ष्म तत्वों की उपलब्धता बढ़ती है। इसके प्रयोग से वृद्धि वर्धक साइटोकाइनिन हार्मोन्स भी पौधों को उपलब्ध होता है।इसके प्रयोग से पौधों हेतु जल की उपलब्धता बढ़ता है।

जैव उर्वरकों की प्रयोग विधि

1. बीज उपचार विधि : जैव उर्वरकों के प्रयोग की यह सर्वोत्तम विधि है। बीज उपचार हेतु 500 मि.ली.  पानी में लगभग 50 ग्राम गुड़ या गोंद उबालकर अच्छी तरह मिलाकर घोल बना लेते है। इस घोल को 10 किग्रा बीज पर छिड़क कर मिला देते हैं जिससे प्रत्येक बीज पर इसकी परत चढ़ जाये। तब जैव उर्वरक को छिड़क कर मिला दिया जाता है। इसके उपरान्त बीजों को छायादार जगह में सुखा लेते हैं। उपचारित बीजों की बुवाई सूखने के तुरन्त बाद कर देनी चाहिए।

2. पौध जड़ उपचार विधि : धान तथा सब्जी वाली फसलें जिनके पौधों की रोपाई की जाती है जैसे टमाटरफूलगोभी, पत्तागोभीप्याज आदि फसलों में पौधों की जड़ों को जैव उर्वरकों द्वारा उपचारित किया जाता है। इसके लिए किसी चौड़े व छिछले पात्र में 5-7 लीटर पानी में एक किलोग्राम जैव उर्वरक मिला लेते है। इसके उपरान्त नर्सरी से पौधों को उखाड़कर तथा जड़ों से मिट्टी साफ करने के पश्चात् 50-100 पौधों को बण्डल में बांधकर जीवाणु खाद के घोल में 10 मिनट तक डुबो देते हैं। इसके बाद तुरन्त रोपार्इ कर देते है।

3. कन्द उपचार विधि : गन्नाआलूअदरकअरबी,हल्दी,जिमीकंद  आदि फसलों में जैव उर्वरकों के प्रयोग हेतु कन्दों/बीज टुकड़ों को उपचारित किया जाता है। एक किलोग्राम जैव उर्वरक का 20-25  लीटर पानी में घोलकर  बना लेते हैं। इसके उपरान्त कन्दों/बीज टुकड़ों  को 10 मिनट तक घोल में डुबोकर रखने के पश्चात बुवाई कर देते है।

4.मृदा उपचार विधि : जैव उर्वरक  8-10 किलोग्राम  को 80-100 किग्रा मिट्टी या कम्पोस्ट में मिलाका र मिश्रण तैयार करके अन्तिम जुताई के समय खेत में मिला देते है।

जैव उर्वरकों के प्रयोग में सावधानियॉ

Ø जीवाणु खाद को धूप व गर्मी से दूर सूखे एवं ठण्डे स्थान पर रखें।

Ø जीवाणु खाद या इससे उपचारित बीजों को किसी भी रसायन या रासायनिक उर्वरकों  के साथ न मिलायें।

Ø राइजोबियम जीवाणु कल्फचर सल विशिष्ट होता है। अतः पैकेट पर अंकित फसल में ही इसका प्रयोग करें।

Ø यदि बीजों पर फफूंदनाशी बेविस्टीन का प्रयोग करना हो तो बीजों को पहले फफूंद नाशी से उपचारित करें तथा फिर जीवाणु खाद की दुगुनी मात्रा से उपचारित करें।

Ø जैव उर्वरकों को पैकेट पर लिखी अन्तिम तिथि से पहले ही इस्तेमाल कर लेना चाहिए

Ø जैव उर्वरक और रासायनिक खादों को उचित मात्रा एवं तरीके से उपयोग करना चाहिए।

संक्षेप में हम कह सकते है कि जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों का विकल्प तो नहीं बन सकते है परन्तु जैविक एवं रासायनिक उर्वरकों के साथ यदि इनका इस्तेमाल समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन के तहत एक पूरक के रूप में किया जाता है तो मृदा की उर्वरता बढ़ने के साथ-साथ खेती में रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को कम कर खेती के लाभ को बढाया जा सकता है 

कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

शनिवार, 1 अगस्त 2020

समस्या नहीं रोजगार का साधन बन सकती है जलकुम्भी

                                            डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

जलकुम्भी आर्थात वाटरहायसिंथ (आइकार्निया क्रेसपीस) पाण्टीडेरीयेसी कुल का स्वतन्त्र रूप से जल में तैरने वाला खरपतवार है। इसके पौधे ऊंचाई में कुछ सेंटीमीटर से लेकर 60 सेंटीमीटर तक के हो सकते है।  इसका तना खोखला और छिद्रदार होता है तथा पर्व संधियों से झुण्ड में रेशेदार जड़ें निकलती है। इसकी पत्तियां चिकने हरे रंग की होती है। इस पौधे के फूल नीले, सफ़ेद-बैंगनी रंग के आकर्षक होते है। इन पौधों की पत्तियों में हवा भरी होती है जिससे ये जल की सतह पर आसानी से तैर सकते है। इसके बीज लम्बे समय तक जीवित रहते है। यह खरपतवार बहुत तेजी से प्रगुणन और वृद्धि करता है और लगभग 12-15 दिन में इसकी संख्या दुगुनी हो जाती है।

जल कुम्भी पुष्पन अवस्था फोटो साभार गूगल  
दक्षिण अमेरिका मूल की जलकुम्भी को सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन के दौरान सजावटी पौधे के रूप में ब्राजील से 1896 में बंगाल के वानस्पतिक उद्यान  में  में प्रवेश कराया गया था। आज जलकुम्भी के बढ़ते प्रसार और समस्या के कारण इसे इसे बंगाल के आतंक, नीला शैतान और घातक खरपतवार जैसे नामों से भी पुकारा जाने लगा है। आज ये हमारे देश के दो लाख हेक्टेयर से अधिक जलिय क्षेत्र में फैलकर गंभीर समस्या बन गयी  है। विश्व के 80 से अधिक देशों में अपनी जड़ें जमा चुकी यह वनस्पति  हमारे देश के लगभग सभी राज्यों में तेजी से फ़ैल कर समस्या बनती जा रही है । बेहद तेज गति से फैलने वाले इस पौधे से ना केवल जल प्रदुषण का खतरा बढ़ रहा है बल्कि जलीय जंतुओं विशेषकर मछलियों के लिए भी यह  नासूर बनती जा रही है। जलकुम्भी मीठे जल जैसे तालाबों, नदियों, नहरों, झीलों आदि में विशेषकर वर्षा ऋतु में बहुतायत में उगती है। इसके अधिक फैलाव के कारण  नौकायन,सिंचाई, मछली पालन आदि में व्यवधान उत्पन्न होता है। जलकुम्भी अपने चटाईनुमा बढ़वार के कारण जलाशय की पूरी सतह को आच्छादित कर लेती है जिससे हवा और सूर्य का प्रकास अवरुद्ध हो जाने से जलीय जंतुओं विशेषकर मछली उत्पादन, सिंघाड़ा और मखाना उत्पादन  बुरी तरह प्रभावित होता है। इस खरपतवार के प्रकोप के कारण नदीं, नालों और नहरों में जल  प्रवाह 20-30 प्रतिशत तक घट जाता है। इससे एक तरफ पानी की गुणवत्ता ख़राब होती है, तो दूसरी तरफ गर्मियों में वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ने से जलाशय और तालाब सूखने लगते है।जलकुम्भी के सड़ने से जलाशय और तालाबों का पानी प्रदूषित (गन्दा) हो जाता है । जलकुम्भी के पौधे मच्छरों आदि को भी शरण देते है जिससे मलेरिया, डेंगू  जैसे घातक रोगों का प्रसार होता है। शहरी निकायों के जलस्त्रोतों से जलकुम्भी हटाने या नियंत्रित करने के लिए प्रति वर्ष हजारों-लाखों रूपये खर्च करना पड़ता है।यदि जलस्त्रोतों से जलकुम्भी को इक्कट्ठा कर इससे विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए बेरोजगारों को शिक्षित-प्रशिक्षित किया जाए तो यह जलीय खरपतवार समस्या नहीं रोजगार और आमदनी का एक जरिया बन सकती है।

जल कुम्भी का नियंत्रण

सौन्दर्य की छटा बिखेरती जल कुम्भी फोटो साभार गूगल 
जलीय खरपतवारों विशेषकर जलकुम्भी के नियंत्रण के लिए इसे यंत्रों द्वारा काटकर एकत्रित कर नाव में भरकर जलस्त्रोतों से बाहर निकाला जा सकता है। इस विधि में समय,श्रम और पैसा अधिक लगता है। ऊपर से काटकर निकालने के बाद फिर से जलकुम्भी पनपने लगती है, क्योंकि इसके बीज और कन्द बहुत समय तक जीवित रहते है । रासायनिक विधि से नियंत्रित करने के लिए अनेक प्रकार के शाकनाशी जैसे पैराक्वाट, ग्लाइफोसेट और 2,4-डी के छिडकाव द्वारा भी जलकुम्भी को नियंत्रित किया जा सकता है। परन्तु इन रसायनों के उपयोग से जलस्त्रोतों के प्रदूषित होने तथा जलीय जंतुओं के अस्तित्व को संकट उत्पन्न हो सकता है।इसलिए बड़े पैमाने पर रसायनों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। जलकुम्भी को जैविक विधि से नियंत्रित करने में नियोकेटिना आइकार्नी तथा आर्थोगेलुमना टेरेबा जैसे कीटों का प्रयोग कारगर सिद्ध हुआ है। ये  कीट इन पौधों के प्रसार, फूल और बीज पैदा करने की क्षमता कम कर देते  है जिससे इस खरपतवार की संख्या कम हो जाती है।

समस्या नहीं रोजगार का साधन है जलकुम्भी

जलकुंभी के दुष्प्रभावों के साथ-साथ इसमें बहुत से आर्थिक गुण भी पाए जाते है. ग्रामीण क्षेत्रों में पौधे का उपयोग जैव-गैस संयंत्रों में कच्चे पदार्थ के रूप में किया जा सकता है। जलकुम्भी मुलायम होने के कारण आसानी से विघटित होने वाली वनस्पति है। इसी गुण के कारण जलकुम्भी इथेनाल और बायो-गैस (मीथेन) उत्पादन के लिए वरदान साबित हो सकती है।  जैव-गैस संयंत्र में जलकुम्भी के उपयोग से गोबर की बचत होगी जिसे खाद के रूप में खेतों में उपयोग किया जा सकता है। जलकुम्भी का उपयोग कागज, रस्सी, बैग, टोकरी और अन्य सजावटी सामन बनाने में भी किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, जलकुम्भी को पालतू पशुओं जैसे बकरी एवं अन्य मवेशियों हेतु पौष्टिक हरे चारे के रूप में भी खिलाया जा सकता है। भैंसों को जल कुम्भी काफी पसंद है  सूखे चारे के साथ 20 प्रतिशत जलकुम्भी मिलाकर पशुओं को खिलाई जा सकती है एक विश्लेषण के अनुसार जलकुम्भी में 96% जल, 0.04% नाइट्रोजन,0.0.6 % फॉस्फोरस, 0.2% पोटैशियम, 3.5 % कार्बनिक तत्व और 1 % लौह तत्व के अलावा अनेक प्रकार के एमिनो अम्ल भी इसमें प्रचुर मात्रा में पाए जाते है । अतः पौधे को हरी खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। जलकुम्भी पौधे का उपयोग कम्पोस्ट बनाकर कमाई का जरिया बनाया जा सकता है । जलकुम्भी से तैयार कम्पोस्ट को गृह वाटिका में सब्जियों, फलों तथा सजावटी पौधों को उगाने में प्रयोग किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, जलकुम्भी कम्पोस्ट को नर्सरी में पौधो को तैयार करने हेतु भी प्रयुक्त किया जा सकता है। कम्पोस्ट को जमीन से निकाली गई पौध की जड़ों की नमीं को बनाये रखने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। जलकुम्भी का उपयोग पौध प्रसारण विधियों जैसे दाव कलम  (लेयरिंग) तथा रोपण (ग्राफ्टिंग) में भी किया जा सकता है।

जलकुम्भी में जल के प्रदूषकों जैसे लीड, क्रोमियम, जिंक, मैगनीज, कॉपर आदि को अवशोषित करने की क्षमता होती है। अतः पौधे का उपयोग जल शोधन में भी किया जा सकता है।  इन सब के अलावा दुनिया भर में लोग अपने भोजन में इसका उपयोग पूरक आहार के रूप में करते हैं। इसमें 90% पानी के अलावा कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा के अलावा विटामिन ए, विटामिन सी, रिबोफाल्विन, विटामिन बी 6, कैल्शियम की उचित मात्रा भी पायी जाती है। देश की पुरातन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में जलकुम्भी का विशेष महत्व है इसके पौधे से अस्थमा, कफ, एंजाइमा, थाइराइड, शरीर के अंदरूनी दर्द, त्वचा संबंधी बीमारियों के लिए दवाइयां बनाई जाती है जलकुम्भी का तेल और इसके सूखे पाउडर से दवाइयां तैयार की जाती है जलकुंभी की भस्म से मोटापा, बाल गिरना, याददाश्त कमजोर होना, रूखी त्वचा, पेट की समस्या व हाथ-पैरों में ऐंठन जैसी बीमारियों से भी राहत मिलने के प्रमाण है। यहां हम किसी भी रोग के निवारण हेतु जलकुम्भी सेवन की सिफारिस नहीं कर रहे है। सक्षम चिकत्सक के परामर्श के उपरान्त ही इसके सेवन की सलाह दी जाती है 

इस प्रकार हम देखते है की भारत के सभी राज्यों के जल स्त्रोतों विशेषकर जलाशयों एवं तालाबों में तेजी से पैर पसारती जलकुम्भी देश के बेरोजगारों और नौजवानों के लिए आकर्षक रोजगार और आमदनी अर्जित करने का साधन बन सकती है प्रकृति प्रदत्त जल कुम्भी की समस्या को अवसर में बदला जा सकता है जल कुम्भी से एक नावोन्वेशी स्टार्ट-अप के रूप में  खेती के लिए बहुमूल्य खाद,विविध सजावटी सामान, कागज, बैग,टोकनी, धागे, दवाइयों के अलावा जैव-उर्जा का उत्पादन किया जा सकता है

कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधारने छत्तीसगढ़ सरकार की अभिनव पहल-गौधन न्याय योजना

                                                डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
कोडार रिसोर्ट, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

प्राचीनकाल से गौधन, गजधन और बाजिधन को को रतन धन से भी पहले रखा गया है, क्योंकि पशुधन हमारे देश में कृषि व्यवस्था का आधार रहा है पशुपालन पूर्व में कृषि का सहायक धंधा हुआ करता था किंतु अब ऐसा नहीं है आज कल यह एक पृथक रोजगार और आय सृजन का ऐसा क्षेत्र बन गया है जिसमें विपुल संभावनाएं है पूरे देश में ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुधारने एवं किसानों की आमदनी को दोगुना करने अनेक कृषि और किसान हितैषी योजनाये चलाई जा रही है धान छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल है और 65 प्रतिशत क्षेत्र में धान की एक फसली खेती प्रचलित है धान बाहुल्य राज्य होने के बावजूद प्रदेश के किसान धान की औसत पैदावार अन्य राज्यों की तुलना में बहुत कम (महज 1.5 से 2.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) ले पा रहे है धान लेने के बाद सिंचाई सुविधाओं के अभाव में रबी फसलों की खेती नहीं करते है इसके परिणामस्वरूप प्रदेश के किसानों को गरीबी और बेरोजगारी का सामना करना पड़ रहा है प्रदेश में पशुपालन बहुतायत में किया जाता है परन्तु दाना-चारा के अभाव में यहां के पशुओं की दुग्ध उत्पादन क्षमता बहुत ही कम (800-900 मिली प्रति पशु प्रति दिन) है जिससे किसानों को पशुपालन आर्थिक से लाभकारी नहीं होने तथा चारा संकट के चलते वें अपने पशुधन को खुला चरने के लिए छोड़ देते है और यहीं वजह है जिससे राज्य में द्विफसली क्षेत्र में इजाफा नहीं हो पा रहा है कम होती वर्षा, गिरता भू-जल स्तर, बढती खेती की लागत एवं पशुधन के लिए चारा संकट जैसी समस्याओं से निपटने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने नरवा,गरवा, घुरवा अउ बाड़ी नाम की महत्वकांक्षी योजना की शुरुवात की है मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने नारा दिया-‘छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी नरवा,गरवा,घुरवा अउ बाड़ी,एला बचाना हे संगवारी’ ! उनका स्पष्ट मानना  है कि छत्तीसगढ़ की पहचान के लिए चार चिन्ह है-नरवा (नाला), गरवा (पशु और गोठान),घुरवा (खाद) एवं बाड़ी (बगीचा), जिनके संरक्षण से भूजल भरण, सिंचाई सुविधाओं का विस्तार, जैविक खेती को बढ़ावा, फसल सघनता (रबी फसलों का क्षेत्र विस्तार) बढ़ने के साथ-साथ पशुधन को आर्थिक रूप से लाभकारी बनाने और परम्परागत किचन गार्डन (बाड़ी) बढ़ावा मिलने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार और किसानों की आमदनी में इजाफा होने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार होने की उम्मीद है इस में कोई दो मत नहीं है कि जिस उद्देश्य से यह योजना प्रारम्भ की गई है उसका सही और सम्क्रियक यान्वयन होता है तो निश्चित ही प्रदेश की कृषि अर्थव्यवस्था को इससे दूरगामी लाभ हो सकता है
गौधन न्याय योजना एक अभिनव पहल
माननीय मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ द्वारा गौधन न्याय योजना  का शुभारम्भ फोटो साभार गूगल 
छत्तीसगढ़ सरकार ने नरवा,गरवा, घुरवा अउ बाड़ी कार्यक्रम के तहत प्रदेश में गौपालन को आर्थिक रूप से लाभदायक  बनाने, खुले में पशु चराने की प्रथा रोकने, भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से “गौधन न्याय योजना” का शुभारम्भ किया है इस योजना के फलीभूत होने पर  सड़कों और शहरों को आवारा पशुओं से मुक्ति  के साथ-साथ पर्यावरण सरंक्षण में भी मदद मिल सकती है। दरअसल छत्तीसगढ़ में खुले में पशुओं के चराने की परंपरा रही है, जो मवेशियों और फसलों दोनों के लिए हांनिकारक है। हाई-वे और शहरों की सड़कों पर आवारा जानवर सड़क दुर्घटनाओं का प्रमुख कारण बनते हैं। अधिकतर पशुपालक  दूध निकालने के बाद गायों को खुला छोड़ देते है, जिससे फसलों की चराई के अलावा गन्दगी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रदेश में गौधन न्याय योजना के जमीनी स्तर पर लागू होने पर निश्चित रूप से पशुपालकों की आमदनी बढ़ने के साथ साथ प्रदेश में दोफसली क्षेत्र में इजाफा होगा जिससे प्रदेश की अर्थव्यवस्था में सुधार होने की उम्मीद की जा सकती है ।
भारत में पहली बार लागू इस महत्वकांक्षी योजना के तहत छत्तीसगढ़ के लोक पर्व हरेली (20 जुलाई,2020, हरियाली अमावश्या) के अवसर पर मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने सांकेतिक रूप से गोबर खरीद कर योजना का शुभारम्भ किया । इस योजना के तहत सरकार पशुपालकों से दो रुपए किलो की दर से गोबर खरीद कर इससे गोठानों में वर्मीकम्पोस्ट बनाकर किसानों को बेचा जायेगा । अब तक प्रदेश में 3509  गोठान बन चुके है इनमें से 1659  गोठानों में कृषि, बागवानी के अलावा वर्मीकम्पोस्ट बनाने का काम ग्रामीण महिला समूहों के माध्यम से प्रारम्भ हो गया है। प्रदेश में 5409 ग्राम पंचायतों में गोठान निर्माण का प्रावधान है। योजना के हितग्राहियों का पंजीयन कर उन्हें एक कार्ड जारी किया जायेगा जिसमें गोबर खरीद की मात्रा, कीमत एवं अन्य जानकारियां दर्ज की जायेगा।
क्या कहता है गोबर का गणित
पशुपालन विभाग की 19वीं  पशु गणना के हिसाब से प्रदेश में 1 करोड़ 46 लाख 13 हजार पशुधन है। इनमे 98.13 लाख गाय और 14 लाख भैंस है। स्वस्थ पशु दिनभर में औसतन 10-12 किलो तक गोबर देते है। सामान्यतौर पर एक पशु से औसतन एक दिन में पांच किलो गोबर भी मिलेगा तो पूरे प्रदेश में हर रोज 5 करोड़ 60 लाख 65 हजार किग्रा (56065 टन प्रति दिन) गोबर प्राप्त होगा। यह सालाना 2 करोड़ 4 लाख 63 हजार 725 टन होगा। सरकार द्वारा यदि 2 रूपये प्रति किलो अर्थात 2000 रूपये प्रति टन की दर से गोबर क्रय किया जाता है, तो प्रति दिन 11 करोड़  21 लाख  30 हजार रूपये खर्च करना होगा । सरकार को वार्षिक बजट में गोबर खरीदने के लिए भारी भरकम बजट का प्रावधान करना होगा । यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहता है तो 2 रूपये प्रति किलो के भाव से गोबर बेचने से किसान को एक पशु से 3650 रूपये और 5 पशुओं से 18,250 रूपये प्रति वर्ष का मुनाफा हो सकता है ।
यदि ख़रीदे गए गोबर से केंचुआ खाद बनाई जाती है तो लगभग 28 हजार टन केंचुआ खाद का निर्माण होगा जिसे 8000 प्रति टन (8 रूपये प्रति किलो सरकारी दर) के भाव से बेचने पर 22,40,00000 की आमदनी हो सकती है। इसमें आधी उत्पादन लागत को घटा दिया जाये तो भी सरकार की यह योजना घाटे की नहीं है। अब सवाल उठता है की किसान 8 रूपये किलों केंचुआ खाद क्यों और कैसे खरीदेगा। वर्तमान में इस्तेमाल किया जा रहा रासायनिक उर्वरक किसान को सस्ता पड़ता है । इसे एक उदाहरण से समझते है: मान लीजिये किसी धान्य फसल में 60:40:20 किग्रा प्रति हेक्टेयर  की दर से क्रमशः नाइट्रोजन:फॉस्फोरस: पोटाश दिया जाना है तो इसके लिए 134:375:33 किलो क्रमशः यूरिया:सिंगल सुपर फॉस्फेट:म्यूरेट ऑफ़ पोटाश की आवश्यकता पड़ेगी। बाजार में यूरिया 5.56/-, सिंगल सुपर फॉस्फेट  7.25/-व म्यूरेट ऑफ़ पोटाश 18.20/-किलो के भाव से मिलता है तो किसान को कुल उर्वरकों पर 4068 रूपये प्रति हेक्टेयर का खर्चा करना पड़ेगा।  दूसरी ओर फसल में 60 किग्रा नाइट्रोजन तत्व की पूर्ती करने के लिए किसान को कम से कम 4 टन वर्मीकम्पोस्ट (1.5 % नत्रजन) खाद क्रय करनी होगी जिसके लिए उसे 32000 रूपये की कीमत चुकानी होगी जो उसकी सीमा से बाहर है। यद्यपि वर्मीकम्पोस्ट का इस्तेमाल करने से भूमि की उर्वरा शक्ति और फसल की गुणवत्ता में सुधार होगा परन्तु रासायनिक उर्वरकों की तुलना में उपज कम या बराबर आ सकती है। कुल मिलाकर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि  वर्मी कम्पोस्ट खाद विक्रय पर किसान को कम से कम 50 प्रतिशत की छूट प्रदान कर 4 रूपये प्रति किलो की दर से यह खाद उपलब्ध कराने का प्रावधान किया जाए  तभी गौधन न्याय योजना अपने उद्देश्यों में फलीभूत हो सकती है।
गोबर से जैविक खाद कम्पोस्ट 
भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के लिए खेती में जैविक खाद का प्रयोग आवश्यक होता है। इसी उद्देश्य से कृषि विभाग ने नाडेप विधि से खाद (कम्पोस्ट) बनाने की विधि की जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया जिसके फलस्वरूप गाँव-गाँव में नाडेप-टांका निर्मित किये गए। कम से कम गोबर का उपयोग करके अधिकाधिक मात्रा में खाद बनाने के लिए नाडेप पद्धति सर्वोत्तम है। नाडेप विधि से कम्पोस्ट बनाने में जैविक कचरा और गोबर को मिलाकर टांका में भरा जाता है। इस पद्धति से मात्र एक गाय के वार्षिक गोबर से 80 से 100 टन (लगभग 150 बैलगाड़ी ) खाद प्राप्त हो सकती है।
ऐसे बनेगी गोबर से वर्मीकम्पोस्ट
वर्मीकम्पोस्ट तैयार करने के लिए गोबर की खाद के अलावा मिट्टी,पानी, घरेलू तथा पशुशाला का कूड़ा कचरा तथा फसल अवशेष के अलावा केंचुओं (एपीजेइक तथा एनेसिक प्रजातियाँ) की आवश्यकता होती है। केंचुआ खाद बनाने के लिए गड्ढा विधि सर्वोत्तम रहती है। इसमें 4 x 1.25 x 0.75 मीटर आकार की जुड़वां पक्की टंकी बनाते है जिसका निर्माण जमीन पर होना चाहिए। हर दिवार में 30 सेमी.पर छेद रखे जाते है। इस विधि में सूखी घास-पत्तियां,गोबर 3-4 क्विंटल, कूड़ा कचरा 7-8 क्विंटल एवं 8500 से 10,000 केंचुओं की आवश्यकता होती है। सर्वप्रथम 15 सेमी. सूखी घास, चारा,कचरा की तह लगाकर उसे 24 घंटे तक पानी से तार रखते है। अब इसमें 300-350 केंचुआ प्रति वर्ग मीटर की दर से छोड़कर 20 सेमी कचरे की तह  जमा देते है। इसे भी पानी से नम बनाये रखते है। भराई के बाद ढेर के ऊपर छाया की व्यवस्था करना आवश्यक है। भराई के बाद 30-45 दिन तक ढेर को नम बनाये रखना चाहिए. इस प्रकार 60-65 दिन में 3-4 क्विंटल कम्पोस्ट तैयार हो जाता है। इसके अतिरिक्त उक्त ढेर से 20-25 हजार केंचुआ भी प्राप्त हो जाते है। दूसरी बार खाद बनाने के लिए इन  केंचुओं का इस्तेमाल किया जा सकता है। एक वर्ष में 3-4 बार में  वर्मी कम्पोस्ट तैयार किया जा सकता है।
विवरण
गोबरखाद
कम्पोस्ट
वर्मीकम्पोस्ट
यूरिया+सुपर फॉस्फेट +म्यूरेट ऑफ़ पोटाश
तैयार होने में लगने वाली अवधि
6 माह
4 माह
2 माह
रेडीमेड
नाइट्रोजन %
0.3-0.5
0.5-1.0
1.2-1.6
यूरिया-46 % नत्रजन
फॉस्फोरस %
0.4-0.6
0.5-0.9
1.5-1.8
सुपर फॉस्फेट-16% फॉस्फोरस
पोटाश %
0.4-0.5
1.0
1.2-2.0
म्यूरेट ऑफ़ पोटाश-60 % पोटाश
लाभदायक जीवों की संख्या
बहुत कम
कम
काफी अधिक
नगण्य
मात्रा प्रति हेक्टेयर
10 टन
10 टन
4-5 टन
कम मात्रा
गोबर गैस संयंत्र: ऊर्जा के साथ खाद
गौधन न्याय योजना के तहत प्रदेश की सभी गौठानों में यदि गोबर गैस संयंत्रों की स्थापना की जाए तो इससे ग्रामीणों के लिए ईंधन, प्रकाश और कम हॉर्स पॉवर के डीजल इंजन चलाने के लिए बिजली के साथ-साथ उत्तम गुणवत्ता की जैविक खाद (बायोगेस स्लरी) भी उपलब्ध हो सकती है। दरअसल, ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर गोबर का प्रयोग उपले बनाकर ईंधन के रूप में किया जाता है। यदि ग्रामीण जन गोबर को बेच देते है तो उन्हें ईंधन की कमीं के अलावा खाद भी उपलब्ध नहीं हो पायेगा। वर्मीकम्पोस्ट खरीदकर खेती में उपयोग करना  किसानों के लिए एक मंहगा सौदा हो सकता है। अतः 5-6 पशु पालने वाले किसान परिवारों को गोबर गैस संयत्र स्थापित करने के लिए उन्हें प्रेरित करने की आवश्यकता है । इससे उनके ईंधन और खाद की समस्या का समाधान हो सकता है ।
क्या है बायोगेस स्लरी
बायोगैस संयंत्र में गोबर गैस की पाचन क्रिया के बाद 25 प्रतिशत गैस के रूप में और 75 प्रतिशत ठोस पदार्थ का रूपान्तरण खाद के रूप में होता हैं, जिसे बायोगैस स्लरी कहा जाता हैं । दो घनमीटर के बायोगैस संयंत्र में 50 किलोग्राम प्रतिदिन या 18.25 टन गोबर एक वर्ष में डाला जाता है। उस गोबर में 80 प्रतिशत नमी युक्त करीब 10 टन बायोगैस स्लरी का खाद प्राप्त होता हैं। खेती के लिये यह अति उत्तम खाद होता है। स्लरी खाद में लगभग 1.4 % नाइट्रोजन, 1.2 % फॉस्फोरस और 1 % पोटाश के अलावा  अनेक सूक्ष्म पोषक तत्व (आयरन, मैगनीज,जिंक,कॉपर आदि ) पर्याप्त मात्रा में पाए जाते है। स्लरी के खाद के इस्तेमाल से फसल को आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध होने के साथ-साथ  मिट्टी की संरचना में सुधार होता है तथा जल धारण क्षमता बढ़ती है। सूखी खाद असिंचित खेती में 5 टन एवं सिंचित खेती में 10 टन प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है । ताजी गोबर गैस स्लरी सिंचित खेती में 3-4 टन प्रति हैक्टर  की दर से प्रयोग करने की सिफारिस की जाती है । सूखी खाद का उपयोग खेत की अंतिम जुताई के समय एवं ताजी स्लरी का उपयोग सिंचाई जल के साथ किया जा सकता है । स्लरी के उपयोग से फसलों को तीन वर्ष तक पोषक तत्व धीरे-धीरे उपलब्ध होते रहते हैं।
गौधन न्याय योजना सफल बनाने कुछ सुझाव
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई गौधन न्याय योजना को सफल बनाने  के लिए गाँव-गौठानों के पास और गौचर भूमि में वर्ष भर हरा चारा उत्पादन का कार्यक्रम प्रारम्भ किया जाये और यह कार्य ग्राम समितियों के माध्यम से संपन्न कराया जाए उत्पादित चारे को न्यूनतम दर पर गौपालकों को उपलब्ध कराया जाए। हरा चारा उपलब्ध होने से छुट्टा चराई पर रोक लगेगी, गाँव में दुग्ध उत्पादन बढेगा जिससे पशुपालन को बढ़ावा मिलेगा। गौठानों में सामुदायिक स्तर पर अथवा 5-6 परिवारों को मिलाकर  गोबर गैस संयंत्रों की स्थापना की जाए जिससे ग्रामीण परिवारों को बिजली, रसोई के लिए गैस और छोटे पम्पों के लिए उर्जा प्राप्त होने के साथ-साथ बहुमूल्य खाद (स्लरी) प्राप्त होगी जिससे  जंगलों-पेड़-पौधों  की कटाई रुकेगी तथा फसल उत्पादन में सतत बढ़ोत्तरी होगी। गौपालकों से गोबर क्रय करने के बदले उन्हें हरा चारा और वर्मी कम्पोस्ट न्यूनतम लागत पर उपलब्ध कराये जाने से जैविक खेती को बढ़ावा मिलेगा। गौपालकों द्वारा उत्पादित दूध, दही, घी आदि का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया जाए ताकि पशुपालन लाभ का व्यवसाय बन सकें। इसके अलावा प्रदेश में उपलब्ध पशुधन की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए पशु नश्ल सुधार कार्यक्रम को बढ़ावा देना आवश्यक है तभी हमारे पशुधन आर्थिक रूप से लाभकारी हो सकते है। इस प्रकार गौधन न्याय योजना के सफल क्रियान्वयन से ग्रामीण क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था में सुधार होने के साथ-साथ भूमिहीन और सीमान्त किसानों को वर्ष भर रोजगार देने में यह वरदान सिद्ध हो सकती है।

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