डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं बिभाग
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
बहुपयोगी व्यापारिक फसल-मूँगफली
भारत की तिलहन फसलो में मूँगफली का मुख्य स्थान है । इसे तिलहन फसलों का राजा तथा गरीबों के बादाम की संज्ञा दी गई है। इसके दाने में लगभग 45-55 प्रतिशत तेल(वसा) पाया जाता है जिसका उपयोग खाद्य पदार्थो के रूप में किया जाता है। इसके तेल में लगभग 82 प्रतिशत तरल, चिकनाई वाले ओलिक तथा लिनोलिइक अम्ल पाये जाते हैं। तेल का उपयोग मुख्य रूप से वानस्पतिक घी व साबुन बनाने में किया जाता है। इसके अलावा मूँगफली के तेल का उपयोग श्रंगार प्रसाधनों, शेविंग क्रीम आदि के निर्माण में किया जाता है।
मूँगफली के दाने बहुत ही पौष्टिक होते हैं जिसमें कुछ खनिज पदार्थ, फास्फोरस, कैल्सियम व लोहा पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। मूँगफली वानस्पतिक प्रोटीन का एक अच्छा एंव सस्ता स्त्रोत है। इनमें 28-30 प्रतिशत प्रोटीन पायी जाती है।मूंगफली में मांस से 1.3 गुना, अंडे से 2.5 गुना तथा फलो से 8 गुना अधिक प्रोटीन पाया जाता है । उच्च कोटि की प्रोटीन विद्यमान होने के कारण यह शीघ्र पचने योग्य होती है । इसमें कुछ विटामिन भी प्रचुर मात्रा में पाये जाते है । मूंगफली में थियामिन, राइबोफ्लोविन और निकोटिनिक अम्ल पर्याप्त मात्रा में उपस्थिति रहते है साथ ही विटामिन ई भी प्रचुरता में होता है । फॉस्फ़ोरस, कैल्सियम तथा लोहा जैसे खनिज पदार्थ भी मूंगफली में पाए जाते है । मूँगफली के 100 ग्राम दानो से 349 कैलोरी उर्जा प्राप्त होती है । इसके दानों को कच्चा, भूनकर अथवा तलकर खाया जाता है अथवा मीठे या नमकीन व्यंजन बनाकर उपयोग में लाया जाता है। मूँगफली से उत्तम गुणों वाला दूध व दही भी तैयार किया जाता है। मूँगफली का हरा वानस्पतिक भाग जो कि खुदाई के बाद प्राप्त होता है, साइलेज के रूप में या हरा ही पशुओं को खिलाया जाता है। दानों से तेल निकालने के बाद बची हुई खली भी एक पौष्टिक पशु आहार एंव जैविक खाद के रूप में उपयोग की जाती है। इसकी खली में 7-8 प्रतिशत नाइट्रोजन, 1.5 प्रतिशत फास्फोरस तथा 1.5 प्रतिशत पोटाश पाया जाता है। मूँगफली का छिलका गत्त्¨ बनाने और कार्क की जगह काम में लाई जाने वाली चीजो के बनाने के काम में आता है । इसकी जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणु (राइजोबियम) पाये जाते हैं जो कि वायुमंडलीय नाइट्रोजन को भूमि में (लगभग 80-200 किग्रा. प्रति हे.) स्थिर करते हैं । अतः शस्य-चक्र में रखने पर मूँगफली की खेती से भूमि की भोतिक दशा सुधरती है, उर्वरा शक्ति बढ़ती है । इस फसल क¨ भू-क्षरण र¨कने के लिए भी उत्तम साधन माना गया है । इस प्रकार से मूँगफली बहुपय¨गी व्यापारिक फसल है। भारत में मूँगफली के कुल उत्पादन का 81 प्रतिशत भाग तेल निकालने में, 12 प्रतिशत बीज के रूप में, 6 प्रतिशत खाद्य के रूप में और शेष 1 प्रतिशत निर्यात में उपयोग किया जाता है।
भारत में क्षेत्रफल तथा उत्पादन की दृष्टि से मूँगफली का सभी तिलहनी फसलों में प्रथम स्थान है। तिलहनी फसलों के कुल क्षेत्रफल का 40 प्रतिशत तथा कुल उत्पादन का 60 प्रतिशत भाग अकेले मूँगफली का है। देश में 6.16 मिलियन हैक्टर रकबे में मूगफली बोई गई जिससे 1163 किग्रा. प्रति हैक्टर ओसत उपज के मान से 7.17 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त किया गया। देश में मूँगफली की औसत उपज विश्व औसत उपज (1554 किग्रा/हे.) से काफी कम है।
छत्तीसगढ़ के सभी जिलो में मूँगफली की खेती की जाती है, परन्तु सरगुजा, महासमुन्द, जशपुर, बिलासपुर, रायगढ़ जिले क्षेत्रफल व उत्पादन में अग्रणीय हैं। राज्य में खरीफ में 51.60 हजार हैक्टर एंव रबी में 14.58 हजार हैक्टर में मूँगफली की खेती की गई जिससे क्रमशः 1310 किग्रा. एवं 1156 किग्रा. प्रति हैक्टर ओसत उपज दर्ज की गई। मध्य प्रदेश में मूंगफली की खेती 0.20 मिलियन हैक्टर क्षेत्र में की गई जिससे 1140 किग्रा. प्रति हैक्टर ओसत उपज के मान से 0.23 मिलियन टन उपज प्राप्त की गई है ।
कैसी हो जलवायु
मूँगफली की फसल उष्ण कटिबन्ध की मानी जाती है, परन्तु इसकी खेती शीतोष्ण कटिबन्ध के परे समशीतोष्ण कटिबन्ध में भी, उन स्थानो पर जहाँ गर्मी का मौसम पर्याप्त लम्बा हो, की जा सकती है । जीवन काल में थोड़ा पानी, पर्याप्त धूप तथा सामान्यतः कुछ अधिक तापमान, यही इस फसल की आवश्यकताएं है । जहाँ रात में तापमान अधिक गिर जाता है, वहाँ पौधो की बाढ़ रूक जाती है । इसी बजह से पहाड़ी क्षेत्रो में 3,500 फिट से अधिक ऊँचाई पर इस फसल को नहीं बोते है । इसके लिए अधिक वर्षा, अधिक सूखा तथा ज्यादा ठंड हानिकारक है। अंकुरण एंव प्रारंभिक वृद्धि के लिए 14 डि से.-15 डि से. तापमान का होना आवश्यक है। फसल वृद्धि के लिए 21-30 डि . से. तापमान सर्वश्रेष्ठ रहता है। फसल के जीवनकाल के दौरान सूर्य का पर्याप्त प्रकाश, उच्च तापमान तथा सामान्य वर्षा का होना उत्तम रहता है। प्रायः 50-125 सेमी. प्रति वर्ष वर्षा वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए उपयुक्त समझे जाते है। पौधों की वृद्धि एंव विकास के लिए सुवितरित 37-62 सेमी. वर्षा अच्छी मानी जाती है। फसल पकने तथा खुदाई के समय एक माह तक गर्म तथा स्वच्छ मौसम अच्छी उपज एंव गुणों के लिए अत्यंत आवश्यक है।कटाई के समय वर्षा होने से एक तो खुदाई में कठिनाई होती है, दूसरे मूँगफली का रंग बदल जाता है और फलियो में बीज उग आने की सम्भावना रहती है । धूप-काल का इस फसल पर कम प्रभाव पड़ता है । मूँगफली के कुल क्षेत्रफल का लगभग 88 प्रतिशत भाग खरीफ में और शेष भाग जायद मौसम में उगाया जाता है।
भूमि का चयन
मूँगफली के लिए अच्छी भुरभुरी हलकी मिट्टी उत्तम रहती है जिससे इसके नस्से (पेग) सरलता से घुस पायें और अधिक फली बन सकें । वैसे तो मूँगफली सभी प्रकार की खेती योग्य भूमि-बलुई, बलुई-दोमट, दोमट, मटियार दोमट, मटियार तथा कपास की काली मिट्टी में उगाई जा सकती है, परन्तु हलकी बलुई-दोमट सबसे उपयुक्त समझी जाती है । कैल्शियम व जीवांश पदार्थ युक्त भूमि उपयुक्त होती है। भारी और चिकनी मिट्टी इसकी खेती के लिए अनुपयुक्त रहती है, क्योंकि शुष्क मौसम में इस प्रकार की मृदा कड़ी हो जाती है जिससे स्त्रीकेसर दंड या खूँटियाँ भूमि में प्रवेश नहीं कर पाती और फलियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता । इसके अलावा इन मिट्टियो में खुदाई के समय भी कठिनाई होती है। भूमि का पी-एच. मान 5.5-7.5 के मध्य होना चाहिए। इस फसल के लिए छत्तीसगढ़ की कछारी एंव भाटा-मटासी जैसी हल्की भूमि अधिक उपयुक्त है। अरहर व मूँगफली की मिश्रित खेती के लिए कन्हार-भर्री जमीन अच्छी होती है।
भूमि की तैयारी
मूँगफली का विकास भूमि के अंदर होता है। अतः मिट्टी ढीली, भुरभुरी एंव महीन होना आवश्यक है। इससे जल धारण क्षमता एंव वायु संचार में वृद्धि होती है।बहुत गहरी जुताई अच्छी नहीं रहती है, क्योंकि इससे फल्लियाँ गहराई पर बनेंगी और खुदाई में कठिनाई होती है। पूर्व की फसल कटने के बाद एक गहरी जुताई (12-15 सेमी.) करनी चाहिए। इसके बाद पहली वर्षा के बाद बतर आने पर 2-3 बार हैरो या कल्टीवेटर चलाकर मिट्टी को भुरभूरा कर लेना चाहिए। इसके लिए रोटावेटर का भी प्रयोग किया जा सकता है। जुताई के पश्चात् पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए। जलनिकास के लिए खेत में उचित दूरी पर नालियाँ बनाना चाहिए। दीमक तथा चींटियों से बचाव के लिये क्लोरपायरीफास 1.5 प्रतिशत का 20-25 किलो प्रति हे. के हिसाब से जुताई के समय देना चाहिए।
उन्नत किस्मो का चयन
प्राचीन काल से ही उन्नत बीज कृषि का एक आवश्यक अंग रहा है। मूँगफली की पुरानी किस्मों की अपेक्षा नई उडन्नत किस्मों की उपज क्षमता अधिक ह¨ती है और उन पर कीटों तथा रोगों का प्रकोप भी कम होता है। अतः उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग बुवाई के लिए करना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु एंव मृदा के अनुसार अनुमोदित किस्मों का उपयोग करना चाहिए।
मूँगफली की प्रमुुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
1.एके-12-24: मूंगफली की सीधे बढने वाली यह किस्म 100-105 दिन में तैयार होती है । फलियो की उपज 1250 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो से 75 प्रतिषत दाना प्राप्त होते है । दानो में 48.5 % तेल पाया जाता है ।
2.जे-11: यह एक गुच्छेदार किस्म है ज¨ कि 100-105 दिन में पककर 1300 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ उत्पन्न करने की क्षमता रखती है । खरीफ एवं गर्मी में खती करने के लिए उपयुक्त है । फलियो से 75 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
2.जे-11: यह एक गुच्छेदार किस्म है ज¨ कि 100-105 दिन में पककर 1300 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ उत्पन्न करने की क्षमता रखती है । खरीफ एवं गर्मी में खती करने के लिए उपयुक्त है । फलियो से 75 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
3.ज्योति : गुच्छे दार किस्म है जो की 105-110 दिन में तैयार होकर 1600 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ पैदा करने की क्षमता रखती है । फलियो से 77.8 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो में 53.3 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
4.कोंशल (जी-201): यह एक मध्यम फैलने वाली किस्म है जो कि 108-112 दिन में पककर तैयार होती है और 1700 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ पैदा करने की क्षमता रखती है । फलियो से 71 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
5.कादरी-3: यह शीघ्र तैयार ह¨ने वाली (105 दिन) किस्म है जिसकी उपज क्षमता 2100 किग्रा. प्रति हैक्टर है । फलियो से 75 प्रतिशत दाना मिलता है और दानो में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
6.एम-13: यह एक फैलने वाली किस्म हैजो कि सम्पूर्ण भारत में खेती हेतु उपयुक्त रहती है । लगभग 2750 किग्रा. प्रति हैक्टर उपज क्षमता वाली इस किस्म की फलियो से 68 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
7.आईसीजीएस-11: गुच्छेदार यह किस्म 105-110 दिन में तैयार होकर 2000 किग्रा. प्रति हैक्टर उपज देती है । इसकी फलियो से 70 प्रतिशत दाना मिलता है तथा दानो में तेल की मात्रा 48.7 प्रतिशत होती है ।
8.गंगापुरीः मूंगफली की यह गुच्छे वाली किस्म है जो 95-100 दिन में तैयार ह¨ती है । फलियो की उपज 2000 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो से 59.7 प्रतिशत दाना प्राप्त हो ते है । दाने में 49.5 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
9.आईसीजीएस-44: मूंगफली की मोटे दाने वाली किस्म है । फलियो की उपज 2500 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो से 72 प्रतिषत दाना प्राप्त होते है । दाने में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
10.जेएल-24 (फुले प्रगति): यह एक शीघ्र पकने वाली (90-100 दिन) किस्म है । इसकी उपज क्षमता 1700-1800 किग्रा. प्रति हैक्टर ह¨ती है । दानो में तेल 50-51 प्रतिशत होता है ।यह मध्यम सघन बढ़ने वाली चिकनी फल्लियो वाली किस्म है ।
11.टीजी-1(विक्रम): यह किस्म 120-125 दिन में पककर तैयार ह¨ती है जिसकी उपज क्षमता 2000-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर ह¨ती है । दानो में तेल की मात्रा 46-48 प्रतिशत पाई जाती है ।यह एक वर्जीनिया अर्द्ध फैलावदार किस्म है ।
12.आई.सी.जी.एस.-37: यह किस्म 105-110 दिन में तैयार ह¨ती है जिसकी उपज क्षमता 1800-2000 किग्रा. प्रति हैक्टर तक ह¨ती है । दानो में 48-50 प्रतिशत तेल पाया जाता है । यह एक अर्द्ध फैलने वाली किस्म है ।
बोआई का समय
बोआई के समय का मूंगफली की उपज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है । बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होना चाहिए परन्तु अधिक नमी में भी बीज सड़ने की संभावना रहती है । खरीफ में मूँगफली की बोआई जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई के दूसरे सप्ताह तक की जानी चाहिऐ। पलेवा देकर अगेती बोआई करने से फसल की बढवार तेजी से होती है तथा भारी वर्षा के समय फसल को नुकसान नहीं पहुँचाता है। वर्षा प्रारम्भ होने पर की गई बोआई से पौधो की बढ़वार प्रभावित होती है साथ ही खरपतवारों का प्रकोप तीव्र गति से होता है।
बीज दर एंव बोआई
बीज के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली मूँगफली पूर्ण रूप से विकसित, पकी हुई मोटी, स्वस्थ्य तथा बिना कटी-फटी होनी चाहिए । बोआई के 2-3 दिन पूर्व मूँगफली का छिलका सावधानीपूर्वक उतारना चाहिए जिससे दाने के लाल भीतरी आवरण को क्षति न पहुँचे अन्यथा बीज अंकुरण शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। एक माह से ऊपर छीले गये बीज अच्छी तरह नहीं जमते । छीलते समय बीज के साथ चिपका हुआ कागज की तरह का पतली झिल्ली नहीं उतारना चाहिए क्योकि इसके उतरने या खरोच लगने से अंकुरण ठीक प्रकार नहीं होता है । गुच्छेदार किस्मों में सुषुप्तावस्था नहीं होती है, अत: खुदाई के बाद इनके बीज सीधे खेत में बोये जा सकते हैं। भूमि पर फैलने वाली या वर्जीनिया किस्मों में सुषुप्तावस्था होती है, अतः शीघ्र बोने के लिए बीजों का ईथालीन क्लोराइहाइड्रिन (0.7 प्रतिशत) से उपचार करना चाहिए। बोआई हेतु 85 प्रतिशत से अधिक अंकुरण क्षमता वाले बीज का ही प्रयोग करना उचित रहता है।
अच्छी उपज के लिए यह आवश्यक है कि बीज की उचित मात्रा प्रयोग में लाई जाए। मूँगफली की मात्रा एंव दूरी किस्म एंव बीज के आकार पर निर्भर करती है। गुच्छे वाली किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेमी. रखनी चाहिए। ऐसी किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 सेमी. रखी जाती है और उनके लिए प्रति हेक्टेयर 60-80 किग्रा. बीज पर्याप्त होता है। दोनों प्रकार की किस्मों के पौधों की दूरी 15-20 सेमी. रखना चाहिए। भारी मिट्टि में 4-5 सेमी. तथा हल्की मिट्टि में 5-7 सेमी. गहराई पर बीज बोना चाहिए। मूँगफली को किसी भी दशा में 7 सेमी. से अधिक गहराई पर नहीं बोना चाहिए। अच्छे उत्पादन के लिये लगभग 3 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर होना चाहिए।
बीजोपचार
बीज जनित रोगों से बचने के लिए बीजों का उचित फंफूदीनाशक दवाओ से शोधन करना आवश्यक है। मूँगफली के बीज को कवकनाशी जैसे थायरम या बाविस्टीन, 3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करना चाहिऐ। इस उपचारित बीज में राइजोबियम कल्चर से भी निवेशित करना चाहिए। राइजोबियम कल्चर से बीजों को उपचारित करने के लिए 2-5 लीटर पानी में 300 ग्राम गुड़ डालकर गर्म करके घोल बना लिया जाता है । घोल को ठंडा करके उसमें 600 ग्राम राइबोजियम कल्चर मिलायें। यह घोल एक हे. बोआई के लिए पर्याप्त होता है। इसके बाद फास्फेट विलय जीवाणु खाद(पी.एस.बी.) से बीजों को उपचारित करना चाहिए। उपचारित बीजों को छाया में सुखाकर शीघ्र बोआई करना चाहिए। इससे उपज में 5-15 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी ह¨ती है। सफेद गिडार की रोकथाम हेतु 254 मिली. क्लोरोपाईरीफास (20ईसी) दवा प्रति किलो बीज की दर से शोधित कर बोआई करना चाहिए।
बोआई की विधियाँ
समतल भूमि में मूँगफली को छिटककर बो दिया जाता है। यह एक अवैज्ञानिक विधि है। इसमें पौध संख्या अपर्याप्त रहती है साथ ही फसल की निराई गुड़ाई करने में कठिनाई होती है। उपज भी बहुत कम प्राप्त होती है। मूँगफली की बोआई के लिए प्रायः निम्न विधियाँ प्रयोग में लाई जानी चाहिए -
1. हल के पीछेे बोआई : देशी हल के पीछे से बीज की बोआई कूड़ों में 5-7 सेमी. गहराई पर की जाती है।
2. डिबलर विधि: यह विधि थोड़े क्षेत्रफल में बोआई करने के लिए उपयुक्त है। पंक्तियों में खुरपी की सहायता से छिद्र बना लेते हैं जिनमें बीज डालकर मिट्टि से ढँक देते हैं। इसमें बीज की मात्रा कम लगती है। इसमें श्रम एंव व्यय अधिक लगता है।
3. सीड प्लांटर द्वारा: इस यन्त्र से बोआई अधिक क्षेत्रफल में कम समय में हो जाती है। बीज को बोने के बाद पाटा चलाकर बीज को ढँक दिया जाता है। भूमि का प्रकार एंव नमी की मात्रा के अनुसार बीज की गहराई 5-7 सेमी. के बीच रखनी चाहिए। इस विधि से श्रम एंव व्यय की बचत होती है।
छत्तीसगढ़ में मादा कूँड़ पद्धति से बोआई करना अधिक लाभप्रद पाया गया है। प्रत्येक तीन से चार कतारों के बाद जल -निकास के लिये नाली बनाई जाती है।
खाद एंव उर्वरक
मूँगफली की फसल भूमि से अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में पोषक तत्वों का अवश¨षण करती है। मूँगफली की 12-13क्विंटल . प्रति हे. उपज देने वाली फसल भूमि से लगभग 110 किग्रा. नाइट्रोजन, 14 किग्रा. फॅस्फोरस और 30 किग्रा. पोटाश ग्रहण कर लेती है। मूँगफली के लिए नत्रजन, स्फुर, पोटाश के अलावा सल्फर, कैल्शियम तत्वों की भी आवश्यकता होती है। दलहनी फसल होने के कारण इसे अधिक नाइट्रोजन देने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। चूँकि जीवाणु-ग्रंथिकाओं का विकास बोने के लगभग 15-20 दिन बाद शुरू होता है, इसलिए फसल की प्रारंभिक बढ़वार के लिए प्रति हे. 10 किग्रा. नत्रजन वर्षा निर्भर क्षेत्रों तथा 20 किग्रा. नत्रजन सिंचित क्षेत्रो के लिए संस्तुत की जाती है। इसकी पूर्ति अमोनियम सल्फेट के माध्यम से करना चाहिए, क्योंकि इससे फसल को नत्रजन के अलावा आवश्यक गंधक तत्व भी उपलब्ध हो जाता है। गंधक से मूँगफली में तेल की मात्रा बढ़ती है तथा जड़ ग्रंथिकाओं की संख्या में भी वृद्धि होती है। जिससे नत्रजन का संस्थापन अधिक होता है।
दलहनी फसल होने के कारण इस फसल को फाॅस्फोरस की अधिक आवश्यकता पड़ती है। यह जड़ों के विकास तथा लाभदायक जीवाणुओं की वृद्धि में भी सहायता होती है। इससे नत्रजन का संस्थापन भी अधिक होता है। मूँगफली के लिए 40-60 किग्रा. फास्फोरस प्रति हे. पर्याप्त होता है। यदि स्फुर सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में दिया जाए तो फसल को स्फुर के साथ-साथ सल्फर तथा कैल्शियम की पूर्ति भी हो जाती है। जिन भूमियों में पोटाश की मात्रा कम हो, पोटाश देना आवश्यक होता है, वहाँ प्रति हेक्टेयर 30-40 किग्रा. पोटाश देना चाहिए। उत्तर भारत में गंधक, कैल्सियम और जिंक तत्व की कमी पायी जाती है। अतः 15-20 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करना चाहिए। खेत की अंतिम जुताई के समय गोबर खाद 20-25 गाड़ी (10-12 टन) देना लाभदायक रहता है। सभी उर्वरकों का प्रयोग बोआई के समय किया जाना चाहिए। ध्यान रखें कि बीज उर्वरकों के सीधे सम्पर्क में न आये। इनका प्रयोग इस तरह से करना चाहिए, जिससे कि यह बीज के 3-5 सेमी. नीचे पड़े। इसके लिए उर्वरक ड्रिल नामक यंत्र का प्रयोग किया जा सकता है।
खरपतवार प्रबन्धन
मूँगफली की खेती में निराई-गुडाई का विशेष महत्व है। बोआई से 35 दिन तक खरपतवारों की वृद्धि अधिक होती है। अनियंत्रित खरपतवारों से 50-70 प्रतिशत उपज में कमी हो सकती है। खरपतवार प्रकोप से इसकी जड़ों का विकास रूक जाता है और भारी मिट्टियों में फल्लियों की बढ़वार ठीक से नहीं हो पाती है। अतः फसल में 2 बार निराई-गुडाई अवश्यक करना चाहिए। ब¨आई के 12-15 दिन पश्चात् निरायक (कल्टीवेटर) से गुड़ाई करनी चाहिए और यह गुड़ाई 15-20 दिन बाद पुनः करनी चाहिए । वास्तव में मूँगफली की फसल की सफलता मुख्यतः भूमि में सुइया (पेग) के अधिकतम विकास पर निर्भर करती है । इसी समय पौधों की जड़ों पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिये । जब एक बार सुइयाँ निकलने लगें और फलियाँ बनने लगें तो ¨ गुड़ाई बन्द कर देनी चाहिए । मिट्टी चढ़ाने का कार्य गुच्छे वाली और फैलने वाली, दोनों ही प्रकार की किस्मों में किया जाता है। प्रारम्भिक नींदा नियंत्रण के लिये ट्राइफ्लूरालिन 48 ई. सी. 0.25 -0.75 किग्रा. प्रति हे. की दर से बुआई से पहले छिड़काव कर भूमि में मिला देना चाहिए। अंकुरण से पहले एलाक्लोर 50 ईसी 1-1.5 किग्रा. या नाइट्रोफेन 0.25-0.75 किग्रा. प्रति हे. का 500-600 लीटर पानी में बने घोल का छिड़काव करना लाभप्रद पाया गया है। अंकुरण के बाद इमेजेथापिर करना चाहिए। कतारों में बोई गई फसल में निदांई-गुडाई का कार्य, कतारों के बीच हल चलाकर शीघ्रता से किया जाता है।
सिंचाई एंव जल निकास
सामान्य तौर पर बरसात के मौसम में सिंचाई करने की जरूरत नहीं पड़ती है। अगेती फसल (मई के अन्त या फिर जून में ब¨ई जाने वाली फसल) लेनी हो, तों बोआई के पूर्व एक सिंचाई करना आवश्यक होता है। अवर्षा या सूखे की स्थिति में फसल की आवश्यकतानुसार 2-3 सिंचाइयाँ करनी चाहिए। नस्से बनते समय एंव फलियों के भरते समय भूमि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है जिससे फलियाँ भूमि में आसानी से घुसकर विकसित ह¨ सकें । मूँगफली की अच्छी उपज के लिए 50-75 मि.मी. जल की आवश्यकता होती है। हल्की मृदाओं में जब उपलब्ध जल का स्तर 25 प्रतिशत रह जाये, सिंचाई करनी चाहिए। फसल की परिपक्व अवस्था पर सिंचाई नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से फल्लियों के भीतर दाने अंकुरित होने लगते हैं। सिंचाई नालियों की सहायता से करनी चाहिए। भारी वर्षा के समय जल निकास की उचित व्यवस्था भी होनी चाहिए, अन्यथा पौधे पीले पड़ जायंगे, कीट आक्रमण होगा तथा फल्लियाँ सड़ सकती हैं।
फसल पद्धति
मूँगफली की शीघ्र तैयार होने वाली उन्नत किस्मों का प्रयोग करने से वर्षाधीन क्षेत्रों में राई, मटर गेहूँ आदि फसले लेकर द्वि फसली खेती की जा सकती है। सिंचाई की सुविधा होने पर मूँगफली के बाद गेहूँ, चना, मटर, सरसों, की फसलें आसानी से उगाई जा सकती हैं। मूँगफली आधारित अन्तर्वर्ती फसली खेती के लिए कन्हार भूमि में मूगँफली + अरहर (4:1), मूँगफली +सूरजमुखी (3:1 या 2:1), मूँगफली + उर्द (4:1) तथा हल्की भूमि में मूँगफली +तिल(3:1) की खेती लाभकारी रहती है।
कटाई-खुदाई समय पर आवश्यक
मूँगफली की फसल 120-150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। शीघ्र पकने वाली किस्में सितम्बर-अक्टूबर तथा देर से पकने वाली किस्में अक्टूबर-नवम्बर में खुदाई के लिए तैयार हो जाती हैं। जब पौधे पीले पड़ने लगें और पत्तियाँ मुरझाकर झड़ने लगें (इस समय 75 प्रतिशत फल्ली पक जाती है) तभी फसल की कटाई/खुदाई करनी चाहिए। इस समय फल्ली के छिल्के की भीतरी सतहह पर गहरा रंग उत्पन्न हो जाता है और बीज के आवरण का रंग भी किस्म के अनुसार समुचित ढंग से विकसित हो जाता है। अधपकी फसल काटने से उपज कम हो जाती है तथा तेल की मात्रा कम व गुणवत्ता भी घट जाती है। फसल की कटाई, हाथ से पौधे उखाड़कर, खुरपी या कुदाल से खोदकर अथवा देशी हल या ब्लेड हैरो द्वारा, की जा सकती है। कटाई के समय फल्लियों में 40-50 प्रतिशत नमी रहती है। अतः फल्लियों को पौधों से अलग करने के पहले 8-10 दिन तक सुखाना चाहिए। इसके बाद फल्लियाँ हाथ से तोड़कर अच्छी तरह धूप में सुखाया जाता है। खुदाई के समय वर्षा होने पर भूमि में फल्लियों पर फफूंदी लग सकती है। इससे बीज का रंग बदल सकता है साथ ही उसमें अफलाटाक्सिन (कड़वा-जहरीला पदार्थ) का रासायनिक स्तर काफी बढ़ सकता है। अफलाटाक्सिन से बीजो के खाने का गुण नष्ट होने की संभावना रहती है।
उपज एंव भण्डारण
उन्नत सस्य विधियों से खेती करने पर गुच्छेदार किस्मों की फल्लियों की उपज 15-20 क्विंटल तथा फैलने वाली किस्मों की उपज 20-30 क्विंटल . प्रति हे. तक प्राप्त की जा सकती है। जब दानों में नमी का अंश 9 प्रतिशत रह जाता है तब भण्डारण किया जाता है। वैसे भण्डारण के समय फल्लियों में नमी का अंश 5 प्रतिशत आर्दश माना जाता है। अधिक नमी वाली फल्लियों को भंडारित करने पर मूँगफली के गुणों में गिरावट आने लगती है जिससे निकाला हुआ तेल खराब होता है। फल्लियों को ही भण्डारित किया जाता है, आवश्यकतानुसार फल्लियों का छिलका पृथक करना चाहिए।
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