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मंगलवार, 23 मार्च 2021

नकदी फसल: हॉपशूट्स-खेती से धन वर्षा

                                                                    डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर(सस्यविज्ञान), इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय.

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कांपा,महासमुंद (छत्तीसगढ़)

      हॉपशूट्स (हुमुलस लुपूलस) मोरैसी कुल का एक बहुवर्षी आरोही पौधा है जिसे आमतौर पर हॉपशूट्स के नाम से जाना जाता है। इस पौधे की टहनियां कुछ हद तक शतावर (एस्पैरेगस) पौधे से मिलती जुलती है। उचित नमीं एवं सूर्य प्रकाश मिलने पर इसका पौधा तेजी से बढ़ता है. प्रारंभ में इसकी शाखाएं बैंगनी रंग की होती है, जो बाद में हरे रंग की हो जाती है. इसकी बैंगनी मुलायम टहनियों या तनों को सब्जी के रूप में पकाकर या सलाद के रूप में खाया जाता है। कुछ जगहों पर इसका अचार बनाकर भी खाया जाता है। स्वाद में इसकी कच्ची टहनियां हल्की तीखी होती है।इसके फूलों को कोन कहते है। हॉपशूट्स के तने व फल-फूल (कोंस)  का  इस्तेमाल विभिन्न प्रकार के उत्पाद तैयार करने में किया जाता है। हॉपशूट्स का प्रयोग मुख्यतः वियर व शराब को सुगंधित व स्वादिष्ट बनाने के लिये किया जाता है। इसलिए इसकी अंतराष्ट्रीय मांग अधिक होने के कारण इसकी खेती काफी लाभदायक होती है।

हॉपशूट्स लता के शंकु (कोंस) फोटो साभार गूगल 

हॉपशूट्स के विविध उपयोग

हॉप-शूट के इस्तेमाल की शुरुआत 11वीं शताब्दी में बियर में कडवाहट लाने के लिए की गई थी। इसके बाद भोजन में फ्लेवर के तौर पर इसका प्रचलन बढ़ा और फिर हर्बल दवा तैयार करने में इस्तेमाल किया जाने लगा बाद में इसकी व्यवसायिक खेती होने पर इसके मुलायम तनों का सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। व्यवसायिक रूप से हॉपशूट्स की खेती इसके परिपक्व फूलों (हॉप कोंस) के लिए की जाती है। इसके फूल को हॉप-शंकु या स्ट्रोबाइल कहा जाता है, जिसका उपयोग बीयर बनाने में स्थिरता एजेंट के रूप में किया जाता है।  यह न सिर्फ बियर का स्वाद बढ़ाता है, बल्कि विशेष प्रकार का रंग व महक भी देता है। इससे बियर काफी समय तक खराब भी नहीं होती। बाकी मुलायम टहनियों का उपयोग सब्जी, सलाद और अचार के अलावा तना,फूल और फलों का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार की औषधीय निर्माण में किया जाता है। जड़ी-बूटी के रूप में हॉप-शूट का उपयोग यूरोपीय देशों में भी लोकप्रिय है, जहां इसका उपयोग त्वचा को चमकदार और युवा रखने के लिए किया जाता है क्योंकि सब्जी भी एंटीऑक्सिडेंट का एक समृद्ध स्रोत है। ह्यूमलोन और ल्यूपुलोन नामक एसिड पाए जाते है जो मानव शरीर में कैंसर कोशिकाओं को मारने में प्रभावी समझे जाते है। इससे निर्मित सब्जी पाचन तंत्र में सुधार करती है, अवसाद, चिंता ग्रस्त लोगों को लाभकारी होती है। टीबी रोग के उपचार के साथ ही यह कैंसर रोग के निदान में भी उपयोगी पाई गई है। कैंसर की कोशिकाओं को फैलने से रोकने में हॉप शूट्स मदद करती है। हॉप्स  प्रमुख हर्बल एंटीबायोटिक और सीडेटिव औषधि होने के अलावा, मीनोपॉज़ से जुड़ी समस्याओं, इनसॉम्निया यानी नींद न आने की शिकायतें दूर करने में भी यह मददगार है । हॉप के मादा पुष्पक्रम में अनेक रसायन जैसे मुलायम रेजिन (अल्फ़ा और बीटा अम्ल), सुगंध तेल तथा जैनिन पाए जाते है जिन्हें समस्त संसार में आधारभूत अंश के रूप में बियर निर्माण में उपयोग किया जाता है।

इन देशों में की जाती है हॉप की खेती

सबसे पहले हॉप्स की खेती उत्तरी जर्मनी में शुरू हुई. इसके बाद इसकी खूबियों को देखकर विश्व के अनेक देशों में इसकी व्यवसायिक खेती की जाने लगी इंग्लैण्ड में तो बियर तैयार करने में हॉप्स के इस्तेमाल को अनिवार्य कर दिया गया जिससे उसका स्वाद बढ़ जाए वर्तमान में व्यापारिक रूप से हॉप्स की खेती लगभग 20 देशों जैसे अर्जेंटीना,आस्ट्रेलिया,बैल्जियम, कनाडा, इंग्लैण्ड,फ़्रांस, जर्मनी, जापान,कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन,सयुंक्त राज्य अमेरिका आदि में की जा रही है। ये देश हॉप्स का विभिन्न देशों को निर्यात भी करते है। एशिया में भारत के अलावा केवल चीन और जापान में ही हॉप की खेती की जा रही है कुल अंतराष्ट्रीय मांग का 70 फीसदी हिस्सा केवल जर्मनी तथा अमेरिका ही पूरा करते है। भारत के कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश में सीमित क्षेत्र में हॉप्स की खेती की जा रही है

भारत में हॉप्स की खेती की संभावनाएं

भारत में हॉप्स की आवश्यकता निरंतर बढती जा रही है क्योंकि यहां मदिरा (शराब) उद्योग का विकास तेजी से हो रहा है। विदेशों से हॉप्स आयात करने पर शराब उत्पादन की लागत बढ़ जाती है। इसलिए हॉप्स की खेती की भारत में व्यापक संभानाएं प्रतीत होती है। भारत के कश्मीर में महाराजा रणवीर सिंह (1858-85) के समय लगाया गया तथा हिमाचल प्रदेश के चंबा में भी  उगाया गया। इसके बाद 19वी शताब्दी में श्रीनगर में हॉप्स की व्यापारिक खेती की गई। इसके बाद यूरोप और अमेरिका से उत्तम गुणों वाली हॉप्स काफी सस्ती और आसानी से मिलने के कारण इसकी खेती बंद हो गई। इसके बाद 1960 में इसकी खेती हिमाचल प्रदेश में पुनः प्रारंभ की गई। भारतीय बियर उद्योग की हॉप्स की कुल वार्षिक खपत 500 टन के करीब है भारत सरकार यदि हॉप्स के आयात शुल्क को बढ़ा देवें तो निश्चित ही  भारत में इसकी खेती को बढ़ावा मिल सकता है देश में हॉप्स की खेती को प्रोत्साहित करने से  भारतीय मदिरा उद्योग को सस्ते दर पर हॉप्स उपलब्ध होगी और देश के किसानों की आमदनी में आशातीत बढ़ोत्तरी भी होगी

सब्जी के लिए उपयुक्त हॉपशूट्स की टहनियां फोटो साभार गूगल 

खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

हॉप्स का पौधा प्रकाश संवेदनशील होता है और इसकी व्यापारिक खेती केवल उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की शर्द-गर्म जलवायु में सफलता पूर्वक की जा सकती है हॉपशूट्स की उचित बढ़वार एवं पुष्पन  के लिए  गर्मियों में औसतन तापमान 16  से 20  डिग्री सेल्सियस उपयुक्त पाया गया है पानी की समुचित व्यवस्था होने पर अधिक तापमान से पौधे की बढ़ौतरी पर कम असर पड़ता हैइसके शंकु विकसित होते समय अधिक वर्षा हानिकारक होती है सामान्यतौर पर भारत के कश्मीर और हिमाचल प्रदेश की जलवायु हॉप्स की खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है परन्तु नियंत्रित वातावरण में इसकी खेती अमूमन सभी स्थानों में की जा सकती है। सही बाजार भाव एवं उपयुक्त जलवायु देखकर ही हॉप्स की व्यवसायिक खेती करने की सलाह दी जाती है 

भूमि का चुनाव 

हॉप्स की खेती के लिए उपजाऊ भुरभुरी दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है मृदा का पी एच मान 6 से 8 के मध्य होना चाहिए.इसकी खेती नदियों के किनारे जहां पौधे की जड़े जल स्तर तक पहुँच सकें सफलता से की जा सकती है, परन्तु मिट्टी में पानी खड़ा नहीं होना चाहिए

उन्नत किस्में

हॉप्स की व्यवसायिक खेती की लिए मुख्यतया लेट क्लस्टर प्रजाति सबसे उपयुक्त मानी जाती है इसके अलावा  गोल्डन क्लस्टर, हाइब्रिड-2 व हरमुख नामक प्रजातियाँ भी उपयुक्त रहती है

रोपण का समय

हॉप्स के पौधों की रोपाई हिमपात से पूर्व दिसंबर और फिर मार्च-अप्रैल में की जानी चाहिए आम तौर पौध तैयार करने हेतु  फरबरी-मार्च में इसकी कलमों को पॉलिथीन बैग या उचित क्यारियों में लगाया जाता है

पौधे तैयार करना (प्रवर्धन)

        हॉप्स के पौधों का प्रसारण बीज तथा वानस्पतिक दोनों विधियों से किया जा सकता है परन्तु बीज से तैयार होने वाले पौधों में पुष्पन देरी से होता है तथा फूल कम गुणकारी होते है अतः व्यवसायिक खेती के लिए इसे वानस्पतिक विधि (कलम और अंत: भू-स्तरी-राइजोम) से पौध तैयार कर अथवा सीधे तैयार खेत में रोपण किया जा सकता है कलम या राइजोम  कीट-रोग मुक्त तथा 15-20 से.मी. लम्बे होना चाहिए जिन पर 2-3 आँखे (बड) होना आवश्यक है 

रोपण विधि

हॉप्स की पौध या कलमों को 1.5 x .5 मीटर (कतार एवं पौध) की दूरी पर 10-15 से.मी. की गहराई पर लगाना चाहिए कलम लगाते समय ध्यान रखें कि कलमों की आँखे (बड) भूमि में ऊपर की तरफ रहें. प्रत्येक पौधे से 4 लताएं निकलती हैहॉप्स की  स्वस्थ और मजबूत बेलों को शीघ्र प्रशिक्षित करना चाहिए नहीं तो इसकी बेलें झुक जाती है बेल वाली फसलों की भांति हॉप्स की बेलों को भी छतरी (अम्ब्रेला) विधि से प्रशिक्षित करना चाहिए. इसकी बेले 5-6 मीटर लम्बी बढती है जो ऊपर जाकर छाते की तरह फ़ैल जाती है

खाद और उर्वरक

हॉप्स की सफल खेती  के लिए खाद और उर्वरक की संतुलित मात्रा देना आवश्यक है, ताकि पौधों का विकास भली भांति हो सकें. इसके लिए गोबर की खाद 10-12 टन, नाईट्रोजन 100 किलोग्राम, फॉस्फोरस 100  किलोग्राम तथा 70 किलोग्राम पोटाश  प्रति हेक्टेयर देनी चाहिएगोबर की खाद व अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा पौध रोपण के समय मिट्टी में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए नाईट्रोजन उर्वरक को दो बार में देना लाभकारी होता है नाइट्रोजन की आधी मात्रा को पौधों के चारों तरफ 90 सेंटीमीटर के घेरे में मार्च के अन्त या अप्रैल के शुरू में देना चाहिए और शेष आधी मात्रा को जून माह में प्रयोग करना चाहिए

सिंचाई एवं जल निकास

हॉप्स के पौधों को आवश्यकतानुसार ड्रिप विधि से सिंचाई करते रहना चाहिए वर्षा होने पर खेत से जल निकासी की व्यवस्था करना आवश्यक होता है खेत में पानी भरा नहीं रहना चाहिए. हॉप्स कोन पकते समय सिंचाई बंद कर देना चाहिए

निराई-गुड़ाई एवं छंटाई

हॉप्स में वर्ष भर 4-5 बार निराई-गुड़ाई की जाती है निराई गुड़ाई के बाद पौधों पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए। पौधों पर मिट्टी चढ़ाने एवं उन्हें सहारा देने से तेज हवा पानी में पौधे गिरने से बाख जाते है। पौधों की उचित वृद्धि तथा फूलों के विकास के लिए कटाई-छंटाई करना आवश्यक रहता है यह कार्य बसंत ऋतू के आरम्भ में किया जाता है तेज धार वाले चाकू या शिकेटियर से अगल-बगल की अनचाही शाखाओं को काट देना चाहिए वर्ष में 2-3 बार छ्टाई करना चाहिए इनकी कटी हुई  मुलायम शाखाओं को सब्जी के उद्देश्य में बाजार में बेचने से अच्छी कीमत मिल जाती है। इसके अलावा in टहनियों से नई पौध भी तैयार की जा सकती है

शंकुओं की तुड़ाई

हॉप्स में फूल जून में आते है और मध्य जुलाई में मादा फूल (बर) बनते हैं.परागण के बाद बर शीघ्र बढ़ता है जिससे  शंकु (हॉप कोंस) तैयार होते हैंहॉप्स की तुड़ाई अगस्त के अन्त से सितम्बर के अन्त तक समाप्त की जाती है हॉप्स के शंकुओं का रंग हल्का पीला होने लगे तथा ये आसानी से टूटने लगे (लुपुलिन कोशिकाओं में पूर्ण रूप से रेजिन भर जाए तथा सुंगध आने लगे) तब इनकी तुड़ाई कर लेना चाहिएकश्मीर में फूल अगस्त के अंतिम सप्ताह से लेकर सितम्बर अन्त तक तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैगर्म स्थानों पर इसके फूल (कोंस) अगस्त में भी कटाई के लिए तैयार हो जाते है

हॉप्स की पैदावार

उचित जलवायु तथा सही सस्य प्रबंधन करने पर तीन वर्ष के हॉप्स की फसल से 3 से 4 टन प्रति हेक्टेयर शंकुओं (कोंस) की उपज प्राप्त हो जाती है कटाई के समय प्राप्त ताजे और सूखे शंकुओं के बीच 4:1 का अनुपात होता है। सब्जी के लिए हॉप्स की मुलायम टहनियों को तोड़कर बाजार में बेचकर अच्चा मुनाफा अर्जित किया जा सकता है

हॉप्स शंकुओं को सुखाना जरुरी

हॉप्स शंकुओं की तुड़ाई के बाद इन्हें सुखाना जरुरी होता है क्योंकि अधिक नमीं युक्त कोंस शीघ्र खराब होने लगते है कोंस को तोड़ते समय इनमें 75  से 85 प्रतिशत तक नमीं रहती है इन्हें 6 प्रतिशत नमीं स्तर तक सुखाया जाता है सामान्य तौर पर हॉप्स शंकुओं को सुखाने के लिए 42 से 45 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान 10 घण्टों के लिए आवश्यक होता है ध्यान यह रखना चाहिए कि कोई भी शंकु न टूटे सूखने के बाद कोंस को पॉलिथीन के थैलों में पैक कर उचित स्थान पर भंडारित कर लिए जाता है अथवा बाजार में बेच दिया जाता है

नोट: कृपया ध्यान देवें- उपयुक्त  जलवायु होने तथा हॉप्स की खेती की तकनीकी जानकारी होने, उत्पाद की बाजार में सुनिश्चित मांग  तथा  निवेश की क्षमता अनुसार ही खेती प्रारंभ करें. इस आलेख के लेखक-ब्लॉगर की बगैर अनुमति के अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर यह आलेख प्रकाशित न करें. यदि आवश्यक हो तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पद एवं संस्था का नाम देना न भूलें

सोमवार, 22 मार्च 2021

पानी है अनमोल-समझों इसका मोल-अभी नहीं समझोगे तो फिर पानी को तरसोगे

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,

                          कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,कांपा, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

राजा भगीरथ स्वर्ग  से गंगा को उतार कर लाये थे जिससे प्रतीत होता है  कि भारत भूमि पर जल कितनी मुश्किल से आया भगीरथ ब्रह्म देव और महादेव शिव को वचन देते है कि वह गंगा की शुद्धता बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे साथ ही इसके जल का अनुचित दोहन नहीं होने देंगे उन्होंने ही गंगा को देवी की प्रतिष्ठा देकर पूजनीय बनाया. भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा कि व्यर्थ में जल की एक बूँद बहाना भी जल का अपमान है. इस प्रकार से भारतीय  संस्कृति तो सदियों से भारत समेत विश्व को पानी बचाने के लिए जागरूक कर रही है विडंबना है कि न तो  भारत में ही और न ही विश्व में इस बात को अब तक समझा गया है कि पानी की बर्बादी नहीं करना है लेकिन वेद-पुराणों से ना सही अभियानों से ही यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए उतना बेहतर होगा क्योंकि यह तो निश्चित है की जल है  तो कल है जल ही जीवन है. ये कोई मुहावरे या कोटेशन मात्र नहीं बल्कि अंतिम सच है आज 22 मार्च 2021 को विश्व जल दिवस है यानी पानी को बचाने के संकल्प का दिन पानी के महत्त्व को जानने और मानने का दिन पानी के सरंक्षण के विषय में लोगों को जागृत करने का दिन  विश्वभर के लोगों को जल की महत्ता समझाने और लोगों को स्वच्छ जल उपलब्ध कराने के लिए सयुंक्त राष्ट्र संघ के आवाहन पर 1993 से प्रति वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है।  इस वर्ष के विश्व जल दिवस (World Water Day-2021) की थीम वेल्यूइंग वाटर अर्थात ‘पानी को महत्त्व देना’ है, जिसका लक्ष्य जलवायु परिवर्तन और बढती जनसंख्या के दौर में जन-जन को पानी का महत्व समझाना है,जल संरक्षण के महत्त्व को जन-जन तक पहुंचाना है ताकि भविष्य में हर किसी को पीने और जीने के लिए स्वच्छ जल  उपलब्ध होता रहे। पानी को सहेजने और पानी को बर्बाद करने से रोकने के लिए सिर्फ एक दिवस मनाने से काम नहीं चलने वाला है इसके लिए तो हम सब को वर्ष भर 24 घंटे सचेत रहना पड़ेगा क्योंकि पानी का उपयोग तो हम सुबह से लेकर देर रात तक करते रहते है और कृषि क्षेत्र में to रात को ही खेतों की सिंचाई करते है नहर का पानी खोलकर या सिंचाई पम्प चालू कर सो भी जाते है और पानी व्यर्थ बहता रहता है इस प्रकार जाने अनजाने में  हम  प्रकृति के अनमोल रत्न को व्यर्थ ही बर्बाद करते रहते है


दुनियां में गहराते जल संकट को देखते हुए करीब चार दशक पहले ही अनेक विद्वानों ने ये भविष्यवाणी कर दी थी कि यदि समय रहते इंसानों ने जल की महत्ता को नहीं समझा तो अगला विश्वयुद्ध (World War) जल को लेकर होगा। 1995 में वर्ल्ड बैंक के इस्माइल सेराग्लेडिन ने भी विश्व में पानी के संकट की भयावहता को देखते हुए कहा था कि इस शताब्दी में तेल के लिए युद्ध हुआ लेकिन अगली शताब्दी की लड़ाई पानी के लिए होगी। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी लोगों को चेताते हुए कहा था कि ध्यान रहे कि आग पानी में भी लगती है और कहीं ऐसा न हो कि अगला विश्वयुद्ध पानी के मसले पर हो। बढ़ते जल संकट को लेकर पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा ने भी माना है अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर लड़ा जायेगा। ये सब कथन भविष्य में पानी के भयावह संकट की चेतावनी दे रहे है। उजड़ते वन और कटते पेड़ों के कारण उत्पन्न जलवायु परिवर्तन के कारण एक तरफ वार्षिक वर्षा की मात्रा निरंतर कम होती जा रही है तो  दूसरी तरफ वातावरण के बढ़ते तापक्रम की वजह से हमारे बर्फ के पहाड़, ग्लेशियर पिघल कर बाढ़ और तबाही मचा रहे है आज से 10 वर्ष पूर्व हमारे देश में लगभग 15 हजार नदियाँ थी, जिनमें से 4500 नदियाँ सूखकर अब सिर्फ बरसाती नदियाँ बनकर रह गई है हमारे अन्य जल स्त्रोत यथा झरने, तालाब भी सूखते जा रहे है गाँव और शहरों के तालाब-नालों को  पाट कर कंक्रीट के जंगल खड़े किये जा रहे है। एक तरफ तो गर्मियों में पानी की भारी किल्लत तो दूसरी तरफ प्रकृति प्रदत्त वर्षा जल को हम व्यर्थ ही बह जाने देते है जो नदियों में मिलकर बाढ़ से तबाही का कारण बनता है

पानी है अनमोल समझों इसका मोल

पानी है अनमोल, समझो इसका मोल-जो अभी नहीं समझोगे, तो फिर पानी के लिए तरसोगे ज्ञात हो कि धरती का करीब तीन चौथाई भाग पानी से भरा हुआ है लेकिन इसमें से 97 फीसदी पानी खारा है और सिर्फ तीन फीसदी हिस्सा ही पीने योग्य है। इसमें से दो प्रतिशत बर्फ और ग्लेशियर के रूप में है ऐसे में सिर्फ एक फीसदी पानी ही मानव उपभोग के लिए बचता है।  हम अपने पास उपलब्ध पानी का 70 फ़ीसदी खेती-बाड़ी में इस्तेमाल करते हैं और तेजी से बढती जनसँख्या के भरण पोषण के लिए कृषि क्षेत्र में निरंतर पानी की मांग बढती ही जा रही है प्रकृति हमें जल एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और हम भी इस चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है इस चक्र को गतिमान रखना हम सब की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है इस चक्र के थमने का अर्थ है, हमारे जीवन के पहिये का थम जाना प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते है, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है हम स्वयं पानी का निर्माण तो नहीं कर सकते, परन्तु अपने प्राकृतिक संसाधनों को सरंक्षित तो कर ही सकते है, उन्हें दूषित होने से भी बचाया जा सकता है

हमारे पास 1869 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध है जिसमें से बड़ा हिस्सा भौगोलिक कारणों से उपयोग में नहीं आ पाता। हम भारतीय हर साल लगभग 1061 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी इस्तेमाल कर रहे है.उपलब्ध जल संसाधनों का 92 फीसद हिस्सा कृषि कार्यों में, 5% उद्योगिक तथा 3 % घरेलू कार्यों में इस्तेमाल करते है अन्तराष्ट्रीय मानक के अनुसार प्रति व्यक्ति पानी की 1700 क्यूबिक मीटर से कम उपलब्धता वाले देश पानी की कमीं (वाटर स्ट्रेस्ड) वाले देश की श्रेणी में आते है अग्र प्रस्तुत सारणी के आंकणों से स्पष्ट है हमारे देश में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता निरंतर घटती जा रही है जो एक गहन चिंता का विषय है

प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धतता: कल,आज और कल

वर्ष

प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धतता

2001

1820 क्यूबिक मीटर

2011

1545 क्यूबिक मीटर

2021

1486 क्यूबिक मीटर

2025

1340 क्यूबिक मीटर

2030

1140 क्यूबिक मीटर

जल संकट की प्रमुख वजह

आज विश्व में मानव को तीन सबसे बड़ी समस्यायों से जूझना पड़ रहा है यथा  जल संकट, वायु प्रदुषण और धरती का बढ़ता तापमान जल संकट के तमाम कारणों में से एक तो जनसंख्या में बढोत्तरी और जीवन का स्तर ऊँचा करने की लालच में मानव ने प्रकृति के साथ द्वन्द मचा रखा है अर्थात प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और शोषण किया जा रहा ह । दूसरा कारण है पानी को इस्तेमाल करने के तरीक़े के बारे में हमारी अक्षमता। कृषि में सिँचाई के परंपरागत तौर-तरीक़ों (जैसे बाढ़ विधि से सिंचाई) में फ़सलों तक पानी पहुंचने से पहले ही काफी पानी बर्बाद हो जाता है। उजड़ते जंगल और नष्ट होते पेड़-वनस्पतियों की वजह से पर्यावरण में ऑक्सीजन की कमीं तथा कार्बन डाई ऑक्साइड की बढ़ोत्तरी हो रही है इसके कारण तापक्रम में वृद्धि, वर्षा जल में कमीं होने से भूमि का जल स्तर नीचे खिसकता जा रहा है यदि अभी भी लोग पानी के संचय, संरक्षण और सुरक्षा के प्रति जागरुक नहीं हुए तो आने वाले हालात बहुत भयंकर होंगे

जरुरी है जल संरक्षण एवं जल का मितव्ययी उपयोग  

विश्व के समक्ष आसन्न जल संकट की समस्या से निपटने के लिए हमें अपने नगर के परंपरागत जल स्त्रोतों यानी तालब, कुएं, नदी,नालों को सहेजन होगा, सरंक्षित करते हुए उपलब्ध जल संसाधनों का मितव्ययी उपयोग करने पर ध्यान देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. पानी के स्त्रोतों की सुरक्षा की जिम्मेदारी नगर निगम, ग्राम पंचायतों अथवा सरकार की ही नहीं बल्कि समाज में रह रहे प्रत्येक नागरिक की भी है. इन्हें गन्दा न करें, प्रदूषित होने से बचाए. जल संरक्षण का दूसरा उपाय अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना है. पेड़ों के कारण जमीन की नमीं बरकरार रहती है, वातावरण का तापमान नियंत्रित रहता है और वर्षा अधिक होती है. इसके अलावा हम सब को अपने गाँव व शहर में वाटर हार्वेस्टिंग (यथास्थाने जल एकत्रित करने) पर विशेष ध्यान देना होगा खेत का पानी खेत और गाँव का पानी गाँव में सहेजने के सिद्धांत पर अमल करना होगा। प्रति बूँद अधिक फसल की तर्ज पर ड्रिप और फव्वारा विधि से सिंचाई को बढ़ावा देना होगा जिससे हमारा कृषि उत्पादन भी बढेगा और कम पानी में अधिक क्षेत्र में सिंचाई भी की जा सकती हैअपने घर की छत या परिसर में वर्षा जल को रोककर जमीन के भीतर उतारने का कार्य करना होगा जिससे भूमिगत जल का भरण हो सकें और हमें वर्ष पर्यंत पीने के लिए शुद्ध पानी प्राप्त हो सकें इसमें कोई दो मत नहीं है कि जहाँ पर्याप्त मात्रा में पानी व उसका सहीं प्रबंधन है, वे इलाके व देश संमृद्धि होते है. दुनियां में हर 4 में से एक रोजगार पानी से जुड़ा है. सयुंक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियां की 78 प्रतिशत वर्कफ़ोर्स पानी पर निर्भर है विश्व की समस्त कृषि पानी की उपलब्धतता पर टिकी है जब पानी नहीं होगा तो  कृषि नहीं होगी तो हम क्या पियेंगे और क्या खायेंगे ? पूरी समस्या का बस और बस एक ही समाधान सघन वृक्षारोपण और पेड़-पौधों का संरक्षण इससे वातावरण का तापक्रम संतुलित रहेगा और जल वर्षा अधिक होगी. उपलब्ध जल संसाधनों के पुनर्भरण का कार्य तेजी से करना होगा वर्षा जल को संरक्षित करके उसका कृषि कार्यों में उपयोग करना होगा ताकि भूजल का दोहन कम हो सदानीरा नदियों के संरक्षण संवर्धन पर भी उचित ध्यान देना होगा उन्हें दूषित-प्रदूषित होने से बचाना होंगा, तभी भविष्य में आसन्न जल संकट की विभीषिका से बचा जा सकता है  

ऋग्वेद में जल देवता से प्रार्थना करते हुए लिखा है: या आपो दिव्या उत वा स्त्रवन्ति रवनित्रिमा उत वा याः स्वयञ्जाः।। समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु।। अर्थात जो दिव्य जल आकाश से (वृष्टि के द्वारा) प्राप्त होते हैं, जो नदियों में सदा गमनशील हैं, खोदकर जो कुएँ आदि से निकाले जाते हैं, और जो स्वयं स्त्रोतों के द्वारा प्रवाहित होकर पवित्रता बिखेरते हुए समुद्र की ओर जाते हैं, वे दिव्यतायुक्त पवित्र जल हमारी रक्षा करें।

रविवार, 21 मार्च 2021

जीवन के लिए जरुरी है वन और वृक्षों का पुनर्रोपण एवं संरक्षण

 डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफेसर, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, जिला महासमुंद (छत्तीशगढ़)

भारत की सभ्यता एवं संस्कृति का विकास वनों की छत्रछाया में ही हुआ है।लोक संस्कृति व लोक कथाएं वनों से जुड़ी है। देश के इतिहास को भी अरण्य संस्कृति से जोड़ कर देखा जाता है। प्राकृतिक संसाधनों में वनों का महत्त्व जगजाहिर है। वनों से हमें जीवनदायी प्राणवायु, वर्षा जल के अलावा सैकड़ों प्रकार की लकड़ी, बहुमूल्य बन उपजे जैसे बीडी पत्ता, औषधियां, नाना प्रकार के फल फूल प्राप्त होते है जिस पर देश के करोड़ों लोगों की जीविका निर्भर है। इनसे देश के 60 से अधिक कुटीर उद्योगों को कच्चा माल प्राप्त होता है. यही नहीं वन हमारी जैव विविधिता के महत्वपूर्ण स्त्रोत है. बीते कुछ वर्षों से वनों के बड़ी मात्रा में दोहन के फलस्वरूप इनके क्षेत्रफल में भारी कमीं आई है। कटते और उजड़ते वनों के कारण ही जलवायु परिवर्तन-बढ़ते तापक्रम और घटती वर्षा जैसे दुष्परिणाम देखने को मिल रहे है। आज   21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस (World Forest Day) मनाया जा रहा है । वानिकी दिवस मनाने का उद्देश्य है कि दुनियां के तमाम देश अपनी मातृभूमि की मिट्टी और वनसंपदा का महत्व समझें और जंगलों की कटाई  रोकने तथा इनके संरक्षण पर ध्यान दें ।

विश्व वानिकी दिवस पहली बार वर्ष 1971 ईस्वी में मनाया गया । भारत में इसकी शुरुआत 1950 में की गई । संयुक्त राष्ट्र संघ ने 28 नवंबर 2012 में एक संकल्प पत्र पारित किया इसके जरिए 21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाने की घोषणा की गई ।21 मार्च को दक्षि‍णी गोलार्ध में रात और दि‍न बराबर होते हैं। यह दि‍न वनों और वानि‍की के महत्त्व और समाज में उनके योगदान  को प्रतिस्थापित करने तथा अधिक से अधिक वृक्षारोपण करने के लिए जन जागृति पैदा करने के उद्देश्य से मनाया जाता है।

इस साल विश्व वानिकी दिवस की थीम ‘Forest restoration: a path to recovery and well-being अर्थात *वन बहाली: पुनःप्राप्ति और कल्याण का मार्ग* रखा गया है, जो वनों के संरक्षण एवं संवर्धन से जुड़ा है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार इस साल की थीम UN Decade on Ecosystem Restoration (2021-2030) पर आधारित है, जिसका उद्देश्य दुनियाभर के ecosystem का बचाव करना है। इससे स्पष्ट है कि प्राकृतिक वनों के विस्तार व उनकी बहाली के लिए विश्व के देशों को गंभीरता से कार्य करना होगा तभी हमारे वन बचेंगे। वास्तव में प्राकृतिक वनों का सरंक्षण एवं संवर्धन  आज सबसे बड़ी चिंता और चिंतन का विषय है क्योंकि विश्व में तेजी से वनों का क्षेत्रफल घटता ही जा रहा है. प्रति वर्ष 100 लाख हेक्टेयर वन समाप्त होते जा रहे है और प्रति व्यक्ति वनों का क्षेत्र घट रहा है। वनों की बर्वादी का यह सिलसिला यूँ ही जारी रहा तो आने वाले समय में वन विहीनता, हमें जीवन विहीन कर देगा। वन भारतीय संस्कृति और सभ्यता के द्योतक माने जाते है परन्तु देश में आज महज 21.6 फीसदी वन ही बचे है जबकि 1980 में लागू हमारी वन नीति के अनुसार किसी भी राज्य और देश में 33 फीसदी वनभूमि होनी चाहिए। देश में 2-4 राज्यों को छोड़कर अन्य राज्यों में वनों की स्थिति चिंताजनक है। प्रगति और विकास की अंधी दौड़ के चलते हमारे वन उजड़ते जा रहे है एवं वृक्षों की निर्मम हत्या कर दी जा रहीं है जिसके परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन, वातावरण का तापमान बढ़ता जा रहा है, बर्सफ के पहाड़ एवं ग्लेशियर पिघल रहे है जो हर वर्ष भूस्खलन और बाढ़ के रूप में तबाही का सबब बनता जा रहा है। यही नहीं जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियर के पिघलने की वजह से हमारे समुद्र का  जल-स्तर बढ़ता जा रहा है जिससे समुद्र किनारे के इलाकों के जलमग्न होने का खतरा मंडरा रहा है। वनों के समाप्त होने से उन पर आश्रित जंगली जानवर भोजन-पानी की तलाश में शहरों की और पलायन कर जन-धन को को भारी क्षति पहुँचाने लगे है। इन  सब प्राकृतिक और मानव जनित घटनाओं और दुर्घटनाओं के लिए मनुष्य ही जिम्मेदार है जो अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी चला रहा है। अतः पृथ्वी पर प्राणवायु ऑक्सीजन का निरंतर प्रवाह तथा पीने और जीने के लिए शुद्ध जल की सतत उपलब्धतता बनाये रखने के लिए, मानवता की रक्षा के लिए वन और वृक्षों का पुनर्रोपण एवं संरक्षण के लिए पूरी निष्ठा और ईमानदारी से  मजबूत कार्यनीति को धरातल पर उतारना ही होगा, तभी हम सबका और आने वाली पीढ़ियों का जीवन सुरक्षित और खुशहाल रह सकता है।

जीवन में पेड़ो का महत्त्व फोटो साभार गूगल 

वन ऋतुचक्र  एवं प्रकृति में संतुलन बनाये रखने में सक्षम होते है। वन अधिक वर्षा के समय मिट्टी  के कटाव को रोकते है तथा उसकी उर्वरा शक्ति को बनाए रखने में सहयोग करते है। यही नहीं पेड़-पौधे अपनी जड़ों के माध्यम से भूमि के जल को अवशोषित करते है जो पुनः वाष्पित होकर वायुमंडल में बादल का रूप ले लेते है, जिसके परिणामस्वरूप वर्षा होती है और यह चक्र निरंतर चलता रहता है। एकअध्ययन से ज्ञात हुआ है कि दुनियां के तीन चौथाई इलाकों में बेहतर पानी का कारण वहां के बेहतर वन ही रहे। दुनियां में जो बड़े 230 जलागम है, उनमें 40 फीसदी जलागमों में 50 % तक वनों की क्षति हुई है और यदि ऐसा ही होता रहा तो भविष्य में हमें भीषण जल संकट का सामना करना पड़ेगा जिसकी आहट सुनाई पड़ने लगी है। वन न केवल हमें जीवन दायिनी ऑक्सीजन देते है और बहुमूल्य वर्षा जल प्रदाता है बल्कि मनुष्य के लिए रोजी-रोटी, कपड़ा और मकान के लिए आवश्यक वस्तुएं भी प्रदान करते है। मानव को निरोगी बने रहने के लिए बहुमूल्य औषधियां हमें वनों से ही मिलती है। वनों की सुरक्षा, वृक्षारोपण तथा पेड़-पौधों की रक्षा सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि देश के हर नागरिक का भी नैतिक दायित्व और पुनीत कर्तव्य है।

हम सब को अपने पर्यावरण को सुरक्षित बनाये रखने के लिए  प्राकृतिक वनों के संरक्षण एवं संवर्धन में सहयोग करने के अलावा अपने निवास, कार्यालय परिसर, सार्खेवजनिक स्थानों, खलिहान और मार्गो पर अधिक से अधिक वृक्षों का रोपण करना चाहिए और उन पेड़ों का लालन पालन भी करना चाहिए। वृक्षों पर ही मानव जीवन आश्रित है। वृक्ष हमारी संस्कृति, सामाजिक और आर्थिक उन्नति का अहम हिस्सा है। आइए आज हम संकल्प लें कि इस वर्ष कम से कम 5 बहुपयोगी वृक्ष रोपित करेंगे, उनमें पानी और खाद देते हुए बड़ा करेंगे तथा कटने से उन्हें बचाएंगे। तभी हमें वायु प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभवों,भीषण गर्मी से मुक्ति मिल सकती है। वृक्षारोपण जैसा और कोई पूण्य कार्य नहीं है।हमारे ऋषि-मुनि जानते थे कि प्रकृति जीवन का स्रोत है और पर्यावरण के समृद्ध और स्वस्थ होने से ही हमारा जीवन भी समृद्ध, सुरक्षित और सुखी होता है।

पर्यावरण के संतुलन में वृक्षों के महान् योगदान एवं भूमिका को स्वीकार करते हुए हमारे ऋषि मुनियों ने बृहत् चिंतन किया है। हमारे शास्त्रों में वर्णित है कि एक वृक्ष सौ पुत्र समाना, मतलब 100 पुत्र उतनी सेवा नहीं करते जितना कि मात्र एक वृक्ष करता है और यह सही भी है. एक वृक्ष एक किमी. तक शुद्ध प्राणवायु फैला सकता है. पेड़ों के महत्व को स्वीकार करते हुए मत्स्यपुराण (154.511-512) में कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है-दशकूपसमावापी दशवापी समो ह्रदः।दशह्रदसमः पुत्रो दशपुत्रसमो द्रुमः।।

वृक्षारोपण ही नहीं दूसरों द्वारा रोपित पौधों के पालन पोषण और उनकी सुरक्षा करने में भी पूण्य मिलता है।विष्णुधर्मोत्तरपुराण (3.296.17) में वृक्षों के विषय में कहा गया है कि दूसरे द्वारा रोपित वृक्ष का सिंचन करने से भी महान् फलों की प्राप्ति होती है, इसमें विचार करने की आवश्यकता नही है: सेचनादपि वृक्षस्य रोपितस्य परेण तु।महत्फलमवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।। हमारे शास्त्रों के ये सूत्र इस वर्ष के विश्व वानिकी दिवस के विषय की सार्थकता को प्रतिपादित करते है।

इस प्रकार से हम सब को मिलकर वृक्षारोपण के माध्यम से धरती की हरियाली को बहाल करने का प्रयास करना चाहिए तथा हमारे आस-पास लगे हुए पेड़-वृक्षों को सिंचित करने और उन्हें सुरक्षा प्रदान करने का कार्य भी करना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था एवं संस्कृति में वनों के महत्त्व को देखते हुए यह बेहद जरुरी है की हम सब मिलकर वनों के दोहन को रोकने तथा नये वनों की स्थापना की दिशा में ईमानदारी, समर्पण एवं अंतर्भावना से कार्य करें। वनों के संरक्षण के अलावा हम सब सामूहिक रूप से अपने निवास, कार्यालय परिसर, अपनी कॉलोनी और गाँव की गलियों में भी अधिक से अधिक वृक्षारोपण करें तथा जीवन दायी पेड़ों को पाल पोष कर उन्हें फलने-फूलने का अवसर दें ताकि आने वाली पीढ़ी को सुरक्षित और खुशाल वातावरण में जीने का अवसर प्राप्त हो सकें।