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मंगलवार, 23 मार्च 2021

नकदी फसल: हॉपशूट्स-खेती से धन वर्षा

                                                                    डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर(सस्यविज्ञान), इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय.

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कांपा,महासमुंद (छत्तीसगढ़)

      हॉपशूट्स (हुमुलस लुपूलस) मोरैसी कुल का एक बहुवर्षी आरोही पौधा है जिसे आमतौर पर हॉपशूट्स के नाम से जाना जाता है। इस पौधे की टहनियां कुछ हद तक शतावर (एस्पैरेगस) पौधे से मिलती जुलती है। उचित नमीं एवं सूर्य प्रकाश मिलने पर इसका पौधा तेजी से बढ़ता है. प्रारंभ में इसकी शाखाएं बैंगनी रंग की होती है, जो बाद में हरे रंग की हो जाती है. इसकी बैंगनी मुलायम टहनियों या तनों को सब्जी के रूप में पकाकर या सलाद के रूप में खाया जाता है। कुछ जगहों पर इसका अचार बनाकर भी खाया जाता है। स्वाद में इसकी कच्ची टहनियां हल्की तीखी होती है।इसके फूलों को कोन कहते है। हॉपशूट्स के तने व फल-फूल (कोंस)  का  इस्तेमाल विभिन्न प्रकार के उत्पाद तैयार करने में किया जाता है। हॉपशूट्स का प्रयोग मुख्यतः वियर व शराब को सुगंधित व स्वादिष्ट बनाने के लिये किया जाता है। इसलिए इसकी अंतराष्ट्रीय मांग अधिक होने के कारण इसकी खेती काफी लाभदायक होती है।

हॉपशूट्स लता के शंकु (कोंस) फोटो साभार गूगल 

हॉपशूट्स के विविध उपयोग

हॉप-शूट के इस्तेमाल की शुरुआत 11वीं शताब्दी में बियर में कडवाहट लाने के लिए की गई थी। इसके बाद भोजन में फ्लेवर के तौर पर इसका प्रचलन बढ़ा और फिर हर्बल दवा तैयार करने में इस्तेमाल किया जाने लगा बाद में इसकी व्यवसायिक खेती होने पर इसके मुलायम तनों का सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। व्यवसायिक रूप से हॉपशूट्स की खेती इसके परिपक्व फूलों (हॉप कोंस) के लिए की जाती है। इसके फूल को हॉप-शंकु या स्ट्रोबाइल कहा जाता है, जिसका उपयोग बीयर बनाने में स्थिरता एजेंट के रूप में किया जाता है।  यह न सिर्फ बियर का स्वाद बढ़ाता है, बल्कि विशेष प्रकार का रंग व महक भी देता है। इससे बियर काफी समय तक खराब भी नहीं होती। बाकी मुलायम टहनियों का उपयोग सब्जी, सलाद और अचार के अलावा तना,फूल और फलों का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार की औषधीय निर्माण में किया जाता है। जड़ी-बूटी के रूप में हॉप-शूट का उपयोग यूरोपीय देशों में भी लोकप्रिय है, जहां इसका उपयोग त्वचा को चमकदार और युवा रखने के लिए किया जाता है क्योंकि सब्जी भी एंटीऑक्सिडेंट का एक समृद्ध स्रोत है। ह्यूमलोन और ल्यूपुलोन नामक एसिड पाए जाते है जो मानव शरीर में कैंसर कोशिकाओं को मारने में प्रभावी समझे जाते है। इससे निर्मित सब्जी पाचन तंत्र में सुधार करती है, अवसाद, चिंता ग्रस्त लोगों को लाभकारी होती है। टीबी रोग के उपचार के साथ ही यह कैंसर रोग के निदान में भी उपयोगी पाई गई है। कैंसर की कोशिकाओं को फैलने से रोकने में हॉप शूट्स मदद करती है। हॉप्स  प्रमुख हर्बल एंटीबायोटिक और सीडेटिव औषधि होने के अलावा, मीनोपॉज़ से जुड़ी समस्याओं, इनसॉम्निया यानी नींद न आने की शिकायतें दूर करने में भी यह मददगार है । हॉप के मादा पुष्पक्रम में अनेक रसायन जैसे मुलायम रेजिन (अल्फ़ा और बीटा अम्ल), सुगंध तेल तथा जैनिन पाए जाते है जिन्हें समस्त संसार में आधारभूत अंश के रूप में बियर निर्माण में उपयोग किया जाता है।

इन देशों में की जाती है हॉप की खेती

सबसे पहले हॉप्स की खेती उत्तरी जर्मनी में शुरू हुई. इसके बाद इसकी खूबियों को देखकर विश्व के अनेक देशों में इसकी व्यवसायिक खेती की जाने लगी इंग्लैण्ड में तो बियर तैयार करने में हॉप्स के इस्तेमाल को अनिवार्य कर दिया गया जिससे उसका स्वाद बढ़ जाए वर्तमान में व्यापारिक रूप से हॉप्स की खेती लगभग 20 देशों जैसे अर्जेंटीना,आस्ट्रेलिया,बैल्जियम, कनाडा, इंग्लैण्ड,फ़्रांस, जर्मनी, जापान,कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन,सयुंक्त राज्य अमेरिका आदि में की जा रही है। ये देश हॉप्स का विभिन्न देशों को निर्यात भी करते है। एशिया में भारत के अलावा केवल चीन और जापान में ही हॉप की खेती की जा रही है कुल अंतराष्ट्रीय मांग का 70 फीसदी हिस्सा केवल जर्मनी तथा अमेरिका ही पूरा करते है। भारत के कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश में सीमित क्षेत्र में हॉप्स की खेती की जा रही है

भारत में हॉप्स की खेती की संभावनाएं

भारत में हॉप्स की आवश्यकता निरंतर बढती जा रही है क्योंकि यहां मदिरा (शराब) उद्योग का विकास तेजी से हो रहा है। विदेशों से हॉप्स आयात करने पर शराब उत्पादन की लागत बढ़ जाती है। इसलिए हॉप्स की खेती की भारत में व्यापक संभानाएं प्रतीत होती है। भारत के कश्मीर में महाराजा रणवीर सिंह (1858-85) के समय लगाया गया तथा हिमाचल प्रदेश के चंबा में भी  उगाया गया। इसके बाद 19वी शताब्दी में श्रीनगर में हॉप्स की व्यापारिक खेती की गई। इसके बाद यूरोप और अमेरिका से उत्तम गुणों वाली हॉप्स काफी सस्ती और आसानी से मिलने के कारण इसकी खेती बंद हो गई। इसके बाद 1960 में इसकी खेती हिमाचल प्रदेश में पुनः प्रारंभ की गई। भारतीय बियर उद्योग की हॉप्स की कुल वार्षिक खपत 500 टन के करीब है भारत सरकार यदि हॉप्स के आयात शुल्क को बढ़ा देवें तो निश्चित ही  भारत में इसकी खेती को बढ़ावा मिल सकता है देश में हॉप्स की खेती को प्रोत्साहित करने से  भारतीय मदिरा उद्योग को सस्ते दर पर हॉप्स उपलब्ध होगी और देश के किसानों की आमदनी में आशातीत बढ़ोत्तरी भी होगी

सब्जी के लिए उपयुक्त हॉपशूट्स की टहनियां फोटो साभार गूगल 

खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

हॉप्स का पौधा प्रकाश संवेदनशील होता है और इसकी व्यापारिक खेती केवल उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की शर्द-गर्म जलवायु में सफलता पूर्वक की जा सकती है हॉपशूट्स की उचित बढ़वार एवं पुष्पन  के लिए  गर्मियों में औसतन तापमान 16  से 20  डिग्री सेल्सियस उपयुक्त पाया गया है पानी की समुचित व्यवस्था होने पर अधिक तापमान से पौधे की बढ़ौतरी पर कम असर पड़ता हैइसके शंकु विकसित होते समय अधिक वर्षा हानिकारक होती है सामान्यतौर पर भारत के कश्मीर और हिमाचल प्रदेश की जलवायु हॉप्स की खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है परन्तु नियंत्रित वातावरण में इसकी खेती अमूमन सभी स्थानों में की जा सकती है। सही बाजार भाव एवं उपयुक्त जलवायु देखकर ही हॉप्स की व्यवसायिक खेती करने की सलाह दी जाती है 

भूमि का चुनाव 

हॉप्स की खेती के लिए उपजाऊ भुरभुरी दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है मृदा का पी एच मान 6 से 8 के मध्य होना चाहिए.इसकी खेती नदियों के किनारे जहां पौधे की जड़े जल स्तर तक पहुँच सकें सफलता से की जा सकती है, परन्तु मिट्टी में पानी खड़ा नहीं होना चाहिए

उन्नत किस्में

हॉप्स की व्यवसायिक खेती की लिए मुख्यतया लेट क्लस्टर प्रजाति सबसे उपयुक्त मानी जाती है इसके अलावा  गोल्डन क्लस्टर, हाइब्रिड-2 व हरमुख नामक प्रजातियाँ भी उपयुक्त रहती है

रोपण का समय

हॉप्स के पौधों की रोपाई हिमपात से पूर्व दिसंबर और फिर मार्च-अप्रैल में की जानी चाहिए आम तौर पौध तैयार करने हेतु  फरबरी-मार्च में इसकी कलमों को पॉलिथीन बैग या उचित क्यारियों में लगाया जाता है

पौधे तैयार करना (प्रवर्धन)

        हॉप्स के पौधों का प्रसारण बीज तथा वानस्पतिक दोनों विधियों से किया जा सकता है परन्तु बीज से तैयार होने वाले पौधों में पुष्पन देरी से होता है तथा फूल कम गुणकारी होते है अतः व्यवसायिक खेती के लिए इसे वानस्पतिक विधि (कलम और अंत: भू-स्तरी-राइजोम) से पौध तैयार कर अथवा सीधे तैयार खेत में रोपण किया जा सकता है कलम या राइजोम  कीट-रोग मुक्त तथा 15-20 से.मी. लम्बे होना चाहिए जिन पर 2-3 आँखे (बड) होना आवश्यक है 

रोपण विधि

हॉप्स की पौध या कलमों को 1.5 x .5 मीटर (कतार एवं पौध) की दूरी पर 10-15 से.मी. की गहराई पर लगाना चाहिए कलम लगाते समय ध्यान रखें कि कलमों की आँखे (बड) भूमि में ऊपर की तरफ रहें. प्रत्येक पौधे से 4 लताएं निकलती हैहॉप्स की  स्वस्थ और मजबूत बेलों को शीघ्र प्रशिक्षित करना चाहिए नहीं तो इसकी बेलें झुक जाती है बेल वाली फसलों की भांति हॉप्स की बेलों को भी छतरी (अम्ब्रेला) विधि से प्रशिक्षित करना चाहिए. इसकी बेले 5-6 मीटर लम्बी बढती है जो ऊपर जाकर छाते की तरह फ़ैल जाती है

खाद और उर्वरक

हॉप्स की सफल खेती  के लिए खाद और उर्वरक की संतुलित मात्रा देना आवश्यक है, ताकि पौधों का विकास भली भांति हो सकें. इसके लिए गोबर की खाद 10-12 टन, नाईट्रोजन 100 किलोग्राम, फॉस्फोरस 100  किलोग्राम तथा 70 किलोग्राम पोटाश  प्रति हेक्टेयर देनी चाहिएगोबर की खाद व अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा पौध रोपण के समय मिट्टी में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए नाईट्रोजन उर्वरक को दो बार में देना लाभकारी होता है नाइट्रोजन की आधी मात्रा को पौधों के चारों तरफ 90 सेंटीमीटर के घेरे में मार्च के अन्त या अप्रैल के शुरू में देना चाहिए और शेष आधी मात्रा को जून माह में प्रयोग करना चाहिए

सिंचाई एवं जल निकास

हॉप्स के पौधों को आवश्यकतानुसार ड्रिप विधि से सिंचाई करते रहना चाहिए वर्षा होने पर खेत से जल निकासी की व्यवस्था करना आवश्यक होता है खेत में पानी भरा नहीं रहना चाहिए. हॉप्स कोन पकते समय सिंचाई बंद कर देना चाहिए

निराई-गुड़ाई एवं छंटाई

हॉप्स में वर्ष भर 4-5 बार निराई-गुड़ाई की जाती है निराई गुड़ाई के बाद पौधों पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए। पौधों पर मिट्टी चढ़ाने एवं उन्हें सहारा देने से तेज हवा पानी में पौधे गिरने से बाख जाते है। पौधों की उचित वृद्धि तथा फूलों के विकास के लिए कटाई-छंटाई करना आवश्यक रहता है यह कार्य बसंत ऋतू के आरम्भ में किया जाता है तेज धार वाले चाकू या शिकेटियर से अगल-बगल की अनचाही शाखाओं को काट देना चाहिए वर्ष में 2-3 बार छ्टाई करना चाहिए इनकी कटी हुई  मुलायम शाखाओं को सब्जी के उद्देश्य में बाजार में बेचने से अच्छी कीमत मिल जाती है। इसके अलावा in टहनियों से नई पौध भी तैयार की जा सकती है

शंकुओं की तुड़ाई

हॉप्स में फूल जून में आते है और मध्य जुलाई में मादा फूल (बर) बनते हैं.परागण के बाद बर शीघ्र बढ़ता है जिससे  शंकु (हॉप कोंस) तैयार होते हैंहॉप्स की तुड़ाई अगस्त के अन्त से सितम्बर के अन्त तक समाप्त की जाती है हॉप्स के शंकुओं का रंग हल्का पीला होने लगे तथा ये आसानी से टूटने लगे (लुपुलिन कोशिकाओं में पूर्ण रूप से रेजिन भर जाए तथा सुंगध आने लगे) तब इनकी तुड़ाई कर लेना चाहिएकश्मीर में फूल अगस्त के अंतिम सप्ताह से लेकर सितम्बर अन्त तक तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैगर्म स्थानों पर इसके फूल (कोंस) अगस्त में भी कटाई के लिए तैयार हो जाते है

हॉप्स की पैदावार

उचित जलवायु तथा सही सस्य प्रबंधन करने पर तीन वर्ष के हॉप्स की फसल से 3 से 4 टन प्रति हेक्टेयर शंकुओं (कोंस) की उपज प्राप्त हो जाती है कटाई के समय प्राप्त ताजे और सूखे शंकुओं के बीच 4:1 का अनुपात होता है। सब्जी के लिए हॉप्स की मुलायम टहनियों को तोड़कर बाजार में बेचकर अच्चा मुनाफा अर्जित किया जा सकता है

हॉप्स शंकुओं को सुखाना जरुरी

हॉप्स शंकुओं की तुड़ाई के बाद इन्हें सुखाना जरुरी होता है क्योंकि अधिक नमीं युक्त कोंस शीघ्र खराब होने लगते है कोंस को तोड़ते समय इनमें 75  से 85 प्रतिशत तक नमीं रहती है इन्हें 6 प्रतिशत नमीं स्तर तक सुखाया जाता है सामान्य तौर पर हॉप्स शंकुओं को सुखाने के लिए 42 से 45 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान 10 घण्टों के लिए आवश्यक होता है ध्यान यह रखना चाहिए कि कोई भी शंकु न टूटे सूखने के बाद कोंस को पॉलिथीन के थैलों में पैक कर उचित स्थान पर भंडारित कर लिए जाता है अथवा बाजार में बेच दिया जाता है

नोट: कृपया ध्यान देवें- उपयुक्त  जलवायु होने तथा हॉप्स की खेती की तकनीकी जानकारी होने, उत्पाद की बाजार में सुनिश्चित मांग  तथा  निवेश की क्षमता अनुसार ही खेती प्रारंभ करें. इस आलेख के लेखक-ब्लॉगर की बगैर अनुमति के अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर यह आलेख प्रकाशित न करें. यदि आवश्यक हो तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पद एवं संस्था का नाम देना न भूलें

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