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गुरुवार, 24 नवंबर 2022

सेहत के लिए महागुणकारी अलसी: आयुर्वेद में इसे देव खाद्य एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने माना सुपरफ़ूड

                  अलसी: खेती, प्रसंस्करण एवं मूल्य संवर्धन- भविष्य का एक अभिनव और लाभप्रद कृषि स्टार्टअप 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, कृषि महाविद्यालय, महासमुंद(छत्तीसगढ़)

 

कभी जिस अलसी तेल का उपयोग गरीबों के खाने एवं झोपड़ियों में उजाले के लिए किया जाता था, उस अलसी के दानों को स्वास्थ के लिए चमत्कारी माना जा रहा है।

अलसी को तीसी, अंग्रेजी में लिनसीड तथा वनस्पति विज्ञान में  लाइनम यूसीटेटीसिमम कहते है, जो लिनेसी परिवार का एक वर्षिय सदस्य है यह देश की सबसे महत्वपूर्ण औद्योगिक तिलहन फसल है जिसकी खेती शीतकाल में होती है प्रजाति के अनुसार  इसके पौधों में नीले, सफेद एवं बैंगनी रंग के पुष्प खेत में मनोहारी छटा बिखेरते है इसके फल (संपुट) गोल होते है इसके बीज तिल के समान  छोटे कत्थई-सुनहरे रंग के एवं चिकने होते है।  अलसी से न केवल तेल बल्कि इसके तनों से उच्च गुणवत्ता के रेशे (फाइबर) प्राप्त होते हैइसके बीज में 30-45 % तेल पाया जाता है, जिसका इस्तेमाल पेंट, वार्निश, लिनोलियम, प्रिंटर की इंक, चमड़े के उत्पाद  आदि के निर्माण में किया जाता है  अलसी के रेशों से गर्मी में पहनने के लिए सबसे उपयुक्त  लिनेन कपड़े बनाये जाते है आज कपड़ों में लिनेन ब्रांड सबसे मंहगा बिक रहा है यहीं नहीं, इसके रेशे सिगरेट के लिए रोलिंग पेपर और मुद्रा नोट बनाने में इस्तेमाल किये जाते है

व्यवसायिक उपयोग  ही नहीं सेहत के लिए भी जरुरी है अलसी  

पौष्टिकता के लिहाज से अलसी के प्रति 100 ग्राम दानों में 37.1 % वसा (लगभग 18-20 % ओमेगा-3 फैटी एसिड व अल्फा-लिनोलेनिक एसिड -ए.एल.ए.), 20.3 % प्रोटीन, 4.8 % फाइबर, 530 किलो कैलोरी ऊर्जा के अलावा खनिज लवण (कैल्शियम, लोहा, पोटैशियम, जिंक और मैग्नेशियम तथा विटामिन (थाइमिन, विटामिन-बी-5, नियासिन, राइबोफ्लेविन व विटामिन सी) के साथ-साथ एंटीऑक्सीडेंट (लाइकोपेन, लिग्नेन व लिउटीन) प्रचुर मात्रा में पाए जाते है।  इसलिए अलसी को सेहत के लिए चमत्कारिक खाद्य कहा जाता है। दरअसल,ओमेगा-3 फैटी एसिड व अल्फा-लिनोलेनिक एसिड को मनुष्य की सेहत के लिए जरुरी माना गया है। हमारे शरीर में ओमेगा-3 फैटी एसिड का  संश्लेषण नहीं होता है। इसी वजह से इसकी आपूर्ति बाहरी स्त्रोत से की जानी चाहिए. इसकी आपूर्ति खाध्य तेल एवं मांस-मछली से ही की जा सकती है। अलसी ओमेगा-3 का सबसे बड़ा  एवं सस्ता स्त्रोत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी अलसी को सुपर फ़ूड का दर्जा देता है। महात्मा गांधी ने भी अपनी पुस्तक में अलसी को सेहत के लिए महत्वपूर्ण खाध्य पदार्थ बताया था। दरअसल हम अपने दैनिक भोजन में ओमेगा-6 की मात्रा अधिक होती है और ओमेगा-3 की मात्रा न्यूनतम होती है, इसलिए आवश्यक फैटी एसिड का असंतुलन पैदा होने से शारीरिक विकार पैदा होने लगते है। अलसी के सेवन से शरीर में फैटी एसिड का संतुलन बना रहता है। आयुर्वेद में अलसी को दैविक भोजन माना गया है।

 अनेक शोधों से यह ज्ञात हुआ है कि हमारे भोजन में ओमेगा-3 की कमी और ओमेगा-6 की प्रचुरता से शरीर में उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, दमा, अवसाद, कैंसर आदि रोग बढ़ने लगते हैं। शरीर के स्वस्थ संचालन के लिये ओमेगा-3 तथा ओमेगा-6 दोनो 1:1 अर्थात बराबर के अनुपात में होने चाहिए। इसलिए हमें प्रति दिन 30 से 60 ग्राम अलसी का सेवन करना चाहिए। अलसी के सेवन से शरीर में अच्छे कोलेस्ट्राल  की मात्रा बढती है और खराब कोलेस्ट्राल कम होता है. अलसी के नियमित सेवन से ह्रदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कैंसर, कब्ज, टी.बी. आदि रोगों से मुक्ति मिल सकती है। अलसी का तेल भी काफी गुणकारी होता है। अलसी तेल की मालिश करने पर त्वचा के दाग-धब्बे व झुर्रियां दूर हो जाती है। त्वचा जलने के दर्द व जलन में अलसी के तेल से  राहत मिलती है।

अलसी को हल्का भूनकर भोजन के बाद सौंफ कि तरह नियमित रूप से खाया जा सकता है। इसके लड्डू भी स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होते है। सेहत के लिए उपयोगी अलसी आज कल मेडिकल स्टोर तथा अनेक ऑनलाइन साइट पर मंहगे दामों में बेचीं जा रही है। आप इसे पास के बाजार से खरीद कर विभिन्न रूपों में  इसका खाने में इस्तेमाल कर सकते है।

अलसी के  आकर्षक उत्पाद- युवाओं के रोजगार हेतु  एक  अभिनव स्टार्टअप

बहुगुणी एवं बहुपयोगी अलसी रोजगार एवं आकर्षक आमदनी का एक बेहतरीन जरिया हो सकती है. आज खाद्य  बाजार में पौष्टिक एवं स्मार्ट उत्पादों की बहुत मांग है और हाथो-हाथ बिकते है. थोड़ी से लागत से आप अलसी से आप  विभिन्न प्रकार की खुशबू (फ्लेवर) जैसे नीबू, संतरा, तुलसी, पौदीना प्रकार के  छोटे-छोटे पाउच तैयार कर बाजार में पेश कर सकते है. अलसी के ओमेगा-3  लड्डू, ओमेगा-3 दूध, ओमेगा-3 पापड व चिप्स, ओमेगा-3 बिस्कुट, ओमेगा-3 चाँकलेट आदि उत्पाद तैयार कर बाजार में प्रस्तुत कर सकते है. निश्चित ही इस उभरते व्यवसाय को अच्चा प्रतिसाद मिल सकता है।   यही नहीं, पौल्ट्री व्यवसायी भी ओमेगा-3  अंडे का उत्पादन कर बेहतरीन लाभ अर्जित कर सकते है।  अलसी के दानों से तेल निकालने के पश्चात बची खली का उपयोग दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक खली के रूप में अथवा खेती में बेहतरीन खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। अलसी के तनों से रेशे निकालकर उससे अनेकों प्रकार के उत्पाद तैयार करने का भी व्यवसाय किया जा सकता है। इस प्रकार अलसी की खेती से लेकर इसके प्रसंस्करण एवं मूल्यवर्धन  की इकाई एक सुनहरे व्यवसाय का माध्यम बन सकती है।

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नोट :कृपया  लेखक/ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्य पत्र-पत्रिकाओं अथवा इंटरनेट पर प्रकाशित न किया जाए. यदि इसे प्रकाशित करना ही है तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पता तथा ब्लॉग का नाम अवश्य प्रेषित करें

शनिवार, 19 नवंबर 2022

जंगली धान खरपतवार नहीं स्वास्थ्य के लिए शक्तिमान है पसहर चावल

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

सृष्टि के सृजन के शुरूआती वर्षों में हमारे पूर्वज प्रकृति में स्वमेय उगने वाले पेड़-पौधों एवं उनके फल एवं बीजों से ही अपना और परिवार का उदर पोषण किया करते थे. खाद्यान्न में मोटे अनाज मसलन सावां, कोदो, कुटकी, लाल या पसर चावल खाकर हृष्ट पुष्ट बने रहकर लम्बा जीवन जी लेते थे युग परिवर्तन के साथ-साथ आधुनिक जीवन शैली के अनुरूप कृषि क्षेत्र में भी उन्नत तकनीकों  का इजाफा होने लगा  इसके चलते हम प्राचीन परम्पराएँ एवं फसलों को भी तिलाजंली देते जा रहे है मोटे अनाज एवं उनके प्रसंसकरण के तौर-तरीके से उपजे अन्न स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी हुआ करते थे उदाहरण के लिए  जिस चावल का सेवन हमारे पूर्वज करते थे, वह अब हमें  व्रत एवं उपवास के समय ही खाने को मिल पाता है बाकी समय  हम सब आधुनिक खेती से उपजे एवं  मॉडर्न राइस मिलों से प्रसंस्कृत निम्न  पोषक तत्वों वाला चावल खाकर ही गुजारा कर रहे है  देशी पद्धति अर्थात हलर अथवा धनकुट्टी (ढेकी) का चावल देखने में जरुर आकर्षक नहीं लगता है परन्तु स्वाद और सेहत के लिए बेहद लाभकारी होता है  इसकी पैदावार कम होने के कारण  यह  सिर्फ  उपवास के समय ही मंहगी दर पर मिलता है  प्रकृति प्रदत्त  लाल चावल या पसहर चावल को एकत्रित करने एवं इसके प्रसंस्करण के लिए ग्रामीण समुदाय को प्रेरित करने कि आवश्यकता है और किसानों को भी इस बहुमूल्य चावल की खेती के लिए  उन्हें शिक्षित प्रशिक्षित करने का प्रयास करना जरुरी है तभी बेरोजगार  ग्रामीणों एवं  साधन विहीन किसानों की आमदनी में इजाफा  के साथ-साथ लोगों को वर्ष भर  पौष्टिक एवं स्वास्थ्यवर्धक चावल खाने के लिए उपलब्ध हो सकते है   


पसहर चावल को  कहीं-कहीं पसई चावल, तिन्नी के चावल, लाल चावल, करगा धान  अंग्रेजी में वाइल्ड राइस, रेड राइस  तथा वनस्पति विज्ञान में  ओराइजा रफीपोगाँन कहा जाता है, जो घास (पोयेसी) कुल की  स्वतः उगने वाली वार्षिक फसल है

जिस प्रकृति प्रदत्त पौधे से  विश्व की बहुसंख्यक आबादी के भरण-पोषण के लिए चावल की किस्मों का विकास किया गया और किया जा रहा है, उसे हम यूँ ही जंगली धान और खरपतवार कह कर तिरस्कृत ही नहीं कर रहे है, बल्कि नाना प्रकार की खरपतवारनाशक दवाओं का उपयोग कर उसे जड़-मूल से नष्ट करने पर भी  तुले है यह मानव हित में नहीं कहा जा सकता है क्योंकि  सामान्य उगाये जा रहे चावल की अपेक्षा प्रकृति से उपहार स्वरूप मिले पसहर चावल में मानव के लिए जरुरी पौष्टिक तत्वों का भंडार छुपा हुआ है, तभी तो हमारे पूर्वज शदियों से इस चावल का सेवन कर स्वस्थ और दीर्धायु बने रहते थे अतः अत्यधिक आनुवंशिक विविधताओं से परिपूर्ण और विषम जलवायु एवं परिस्थितयों में भी उगने और पनपने के अद्भुत गुणों से ओतप्रोत नैसर्गिक चावल को भविष्य का पौष्टिक खाद्यान्न मानक़र और चावल की नित-नई किस्में ईजाद करने  के लिए इसकी प्रजातियों का संरक्षण, संवर्धन एवं खेती करना नितांत आवश्यक है

सम्पूर्ण विश्व में बहुतायत में उगाये जाने वाले और खाए जाने वाले सामान्य चावल की उत्पत्ति आज से 6000  वर्ष (BC) जंगली धान की ओराइजा रफ़ीपोगोन  एवं  ओराइजा निवारा नामक प्रजातियों से हुई है  जंगली धान की  ये प्रजातियाँ  अर्द्ध जलिय स्वभाव की है और भारत की विभिन्न  जलवायुविक परिस्थितयों में दलदली, नम भूमि, सडक किनारे  एवं धान के खेतों में  खरपतवार की भाँती उगती है  सामान्य धान के खेत में अथवा खेत के पास करगा या जंगली धान उगकर धान की उन्नत जातियों के साथ संकरण कर अलग प्रकार की जंगली धान भी प्राकृतिक रूप से  पैदा हो रही है यही वजह है कि विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाने वाले जंगली धान/लाल चावल के रूप और रंग में विबिधता देखने को मिलती है

पसहर चावल का पौधा/फसल  

पसहर चावल (जंगली धान) के पौधे  उगाये जाने वाले धान के पौधों से अधिक लम्बे एवं ज्यादा कंशे (टिलर्स) वाले होते है.  इसका तना 80 सेमी लम्बा एवं अन्दर से खोखला होता है. तने की निचली  गांठो से जड़े निकलती है इसकी पत्तियां 15-35 सेमी लम्बी होती है  पसहर चावल यानी जंगली धान में बालियाँ पहले निकलती है और परिपक्वता भी शीघ्र होती है, परन्तु परिपक्वता असीमित होती है अर्थात सभी बालियाँ एक साथ नहीं पकती है  पकने के बाद इनके दाने शीघ्र झड़ने लगते है. जंगली धान कि बालियाँ 12-25 सेमी लम्बी  जिनमें 5-10 मिमी लम्बी सुक (awn) होती है इसके दाने लाल-भूरे रंग के  5-7 मिमी लम्बे होते है

पसहर चावल तैयार करने की जटिल प्रक्रिया

बिना हल के जोते और बिना बोये खेतों एवं अन्य पानी भरी जमीनों में स्वतः उगने वाले घास कुल के खरपतवार से चावल तैयार करने की प्रक्रिया अत्यंत जटिल है. चूँकि इसके दाने पकने पर शीघ्र झड़ जाते है, इसलिए स्थानीय लोग और वनवासी इनके पौधों को आपस में बांधकर इसकी बालियों को पॉलिथीन की थैलियों अथवा कपड़े से बाँध देते है पूर्ण पक जाने पर इनकी कटाई एवं मड़ाई की जाती है कठिन परिश्रम के बाद प्राप्त को मंहगे दामों में बेचना ग्रामीणों एवं वनवासियों कि मजबूरी है। त्यौहार अथवा उपवास के दिनों  में ही यह बहुमूल्य अनाज  बाजार में  देखा जाता है। इसकी खेती को बढ़ावा देने से ग्रामीणों को रोजगार और आमदनी के अवसर प्राप्त हो सकते है।

व्रत-उपवास में खाने की प्राचीन प्रथा

व्रत एवं उपवास के समय पसहर चावल खाने शदियों पुरानी परंपरा  के पीछे सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक कारण भी है पसहर चावल का सेवन  हलषष्ठी यानी कमरछठ  व्रत में किया जाता है संतान की प्राप्ति एवं उनके सुखमय जीवन के लिए महिलाएं यह व्रत रखती है भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की षष्ठी के दिन श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म हुआ था और श्री बलराम का मुख्य अस्त्र हल है इसलिए इसे हलषष्ठी कहते है. इस दिन हल  की पूजा करने का विधान है और इसलिए हल से जुते खेत से उपजे अन्न का सेवन इस दिन नहीं किया जाता है

हलषष्ठी के  अलावा देश के विभिन्न भागों में उपवास के समय विशेषकर एकादशी, नव रात्रि, ऋषि पंचमी, छठ पूजा आदि अवसरों में  भी पसहर चावल या उससे तैयार पकवान खाए जाते है व्रत या उपवास में खेती वाले अनाज  को नहीं खाया जाता बल्कि बिना हल चलाये अर्थात बिना बोये उगे चावल को  खाने की पुरानी परंपरा है जो आज भी जीवंत है पौष्टिक गुणों से युक्त इस चावल को प्रकृति का वरदान माना जाता है दरअसल सामान्य उगाये जाने वाले चावल की  तुलना में पसहर चावल अधिक पौष्टिक एवं स्वास्थवर्धक होते है  प्राकृतिक रूप से उगे ये चावल रासायनिक खाद-उर्वरक एवं कीटनाशकों से मुक्त होते है अर्थात यह जैविक उत्पाद है

पौष्टिकता में सुपरफ़ूड-स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम खाद्यान्न  

पोषण मान कि दृष्टि से सामान्य चावल की अपेक्षा लाल/पसहर चावल में सभी मानव के लिए आवश्यक लगभग सभी  पोषक तत्व अधिक मात्रा में पाए जाते है एक कप पकाए हुए लाल चावल में औसतन 9 ग्राम  प्रोटीन, 0.8 ग्राम वसा, 4 ग्राम फाइबर, 11 मिग्रा कैल्शियम, 8.4 मिग्रा मैग्नीशियम, 3.8 मिग्रा आयरन, 2.8 मिग्रा जिंक, 2 मिग्रा मैंगनीज, 0.3 ग्राम पोटैशियम,  6 मिग्रा नियासिन, 5 मिग्रा थायमिन, 0.3 मिग्रा विटामिन बी-6 एवं 0.2 मिग्रा कॉपर पाया जाता है इसमें इस चावल में लाल रंग एंथोसायनिन के कारण होता है जो इसे एंटीकैंसर खाध्य बनाता है लाल चावल में फाइबर की अधिकता से पाचन तंत्र स्वस्थ रहता हैइसमें  आयरन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो शरीर को खून की कमीं  यानी एनेमिया रोग से मुक्त रखने में सहायक है  इसमें कैल्शियम एवं कॉपर की  उपस्थिति से हड्डियाँ मजबूत होती है और दिमाग को तरोताजा बनाये रखने में सहायक होता है।  इसमें विद्यमान जिंक क्षय रोग और मलेरिया से बचाव करता है इसमें उपस्थित मैंगनीज मधुमेह से रक्षा करती है एवं रक्त में शर्करा स्तर कम करने में सहायक होती   है इसमें पोटैशियम की मौजूदगी उच्च रक्त चाप एवं ह्रदय रोग के खतरों से बचाने में मदद करती है लाल चावल में थायमिन, विटामिन बी-1, बी-6, नियासिन  पाए जाते है जो तंत्रिका प्रणाली को मजबूती प्रदान करते है इसके दानों में टोकोक्रॉमनल तत्व की प्रचुरता होने के कारण इसे दाने अधिक पौष्टिक हो जाते है। पसहर चावल में विद्यमान एंटीओक्सिडेंट गुणों के कारण  पसहर चावल के सेवन से शरीर को इंस्टेंट एनर्जी मिलती है और  रोग प्रतिरोधक क्षमता बढती है

लाल चावल का प्रसंस्करण देशी पद्धति (हाथ कुटाई) से प्राप्त किया जाता है, जिसमें चावल का कदा छिलका हटाया जाता है. दाने के ऊपर पोषक तत्वों से परिपूर्ण परत इस चावल में बनी रहती है सफेद चावल अर्थात मिल से प्रसंस्कृत चावल में इस परत को हटा ली जाती है, जिससे राइस ब्रान तेल निकाला जाता है इसलिए पोषण मान कि दृष्टि से सफेद चावल (मिल में तैयार) में पोषक तत्व न्यूनतम मात्रा में रह जाते है. यही वजह कि सफेद चावल का सेवन करने वाली बहुसंख्यक आबादी मधुमेह, ह्रदय रोग, रतौधी, किडनी रोग, उच्च रक्तचाप जैसे खतरनाक रोगों कि गिरफ्त में आती जा रही है एक आंकलन के हिसाब से आगामी  वर्ष 2035  तक मधुमेह पीड़ित व्यक्तियों की संख्या में 55 फीसदी का इजाफा हो सकता है इसके पीछे खानपान कि बदलती शैली एवं गुणवत्ता (आवश्यक पोषक तत्व) विहीन सफेद चावल का सेवन माना जा रहा है इसलिए अब हमें अपनी जड़ों की  तरफ (बैक टू बेसिक) लौटना  होगा  अर्थात खान पान के पुराने तौर तरीको जैसे प्राकृतिक ढंग से उग रहे अथवा जैविक तरीके से उगाये जाने वाले खाद्यान्न के साथ-साथ खाध्य प्रसंस्करण की प्राचीन विधियों से तैयार खाद्यान्न का उपयोग/उपभोग करना होगा  तथा  लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करना होगा। इससे रोजगार के नए अवसर सृजित हो सकते है तथा स्वस्थ भारत की कल्पना साकार हो सकती है

पसहर चावल का संरक्षण एवं संवर्धन जरुरी  

प्रकृति की धरोहर लाल चावल में  सूखा सहने, कीट-रोग प्रतिरोधकता, शीघ्र तैयार होने के साथ-साथ  दानों में  पौष्टिक तत्वों कि प्रचुरता जैसे तमाम अनुवांशिक  विशेषताओं के कारण भविष्य में चावल की गुणवत्ता युक्त एवं अधिक उपज देने वाली किस्मों  के विकास के लिए इनका संरक्षण एवं संवर्धन  निहायत जरुरी है यही नहीं  यह चावल विपरीत मौसम एवं असामान्य परिस्थियों में भी  किसानों के लिए रोजगार  के अवसर तथा देश की खाद्यान्न और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने में अहम योगदान दे सकता है  

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शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

सेहत और ताकत का खजाना है-समा का चावल-उपवास में खाने की परंपरा

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

समा के चावल को भारत के विभिन्न स्थानों पर सांवा, मोरधन,  समा, झंगोरा, झुंगरु, वरई, कोदरी, श्यामा चावल, उपवास के चावल आदि नाम से जाना जाता है इसे अंग्रेजी में इंडियन  बार्नयार्ड मिलेट  और बिलियन डॉलर ग्रास  तथा वनस्पति विज्ञान में इकनिक्लोवा फ्रूमेन्टेंसी के नाम से जाना जाता है, जो घास (पोएसी) कुल का वार्षिक खरपतवार है यह घास नमीं वाले स्थानों, दलदली खेतों में  स्वमेय उगता है इसके पौधे 60-120 सेमी  ऊंचे एवं कंशेयुक्त होते है। भारत के पहाड़ी राज्यों में समा की खेती भी की जाती है और वहां इसे चाव से खाया जाता है।

समा कि फसल एवं दानें 

समा के दाने छोटे, गोल तथा रंग में भूरे पीले होते है
। अक्टूबर से नवंबर माह  में समा के चावल की फसल में दाने तैयार हो जाती है । प्रकृति प्रदत्त मुफ्त की समा फसल की कटाई-मिजाई एवं दानों को सुखाने के उपरान्त  समा चावल का उपयोग अथवा बाजार में बेच कर लाभ अर्जित किया जा सकता है। भूमिहीन किसानों एवं बेरोजगार युवकों के लिए मुफ्त की फसल आमदनी का अच्छा साधन बन सकती है। बाजार में इसका चावल बहुत महंगे (150-200 रूपये प्रति किलो)  दामों पर बिकता है।

समा का चावल सेहत और शरीर को उर्जावान बनाये रखने का खजाना है. पोषण कि दृष्टि से इसके 100 ग्राम दानों में 65.5 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 10  ग्राम फाइबर, 6.2 ग्राम प्रोटीन, 2.20 ग्राम वसा, 307 Kcal ऊर्जा, 20 मिग्रा कैल्शियम, 5 मिग्रा आयरन, 82 मिग्रा मैगनीशियम, 3 मिग्रा जिंक  तथा 280 मिग्रा फास्फोरस के अलावा विटामिन ए, सी, ई प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। शरीर में  प्रोटीन एवं फाइबर की आपूर्ति, पाचन तंत्र सुधारना. वजन कम करना, ताकत और स्फूर्ति बढ़ाने के साथ-साथ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता  बढाने में कारगर सिद्ध हुआ है। यह शुगर के मरीजों, ह्रदय रोगियों, उच्च रक्तचाप से पीड़ित व्यक्तियों के लिए उपयोगी अन्न है। इसमें मौजूद हाई डाईटरी फाइबर शरीर में ग्लूकोज के स्तर एवं कोलेस्ट्रोल  को संतुलित रखते हैं। समा के चावल के उत्पादन एवं भोजन में इसके उपयोग को बढाने से देश में व्याप्त भुखमरी एवं कुपोषण की समस्या से निजात मिल सकती है।  

आध्यात्मिक और आयुर्वेदिक दोनों ही दृष्टि से समा के चावल को महत्वपूर्ण माना गया है. ऐसा माना जाता है कि व्रत के समय खेतों में बोया अनाज नही खाया जाता है समा का चावल बिना जुताई और बिना बुआई के अपने आप उगता है अर्थात यह  प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाला अन्न है। ये चावल  पाचन में सहज और सौम्य माने जाते है। दरअसल, व्रत एवं उपवास के दौरान भोजन नहीं करने से शरीर का पाचन तंत्र कमजोर हो जाता है इसलिए व्रत के दौरान फलाहार के रूप में आसानी से पचने वाले और पौष्टिक समा के चावल का सेवन किया जाता है एकादशी व्रत, हरतालिका तीज के दिन समा के चावल अथवा इससे तैयार पकवान खाने का रिवाज है आसानी से पचने, तुरंत ऊर्जा एवं स्फूर्ति प्रदान करने कि वजह से ही व्रत में इसके चावल खाए जाते है समा के चावल  का विवरण वेदों में भी मिलता है। इसे सृष्टि का प्रथम अन्न भी माना जाता है  प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार यदि समा के चावल का सेवन सिर्फ महीने में तीन बार  नियमित रूप से करने पर व्यक्ति 85 वर्ष तक स्वस्थ एवं   उर्जावान बना रह सकता है।  दरअसल सामान्य  चावल की तुलना में समा के चावल में 30 गुना अधिक एंटीऑक्सीडेट्स तत्व पाए जाते है जिससे इनमें एंटीएजिंग के गुण होते है। इसके नियमित सेवन से अपच, पेट फूलना, खून की कमीं, भूख ना लगना, वजन में गिरावट, हाथ-पैरों में झुनझुनी, बाल झड़ना, मुँह में छाले, त्वचा विकार, हड्डियों और माँसपेशियों जैसी तमाम  समस्याओं  का सामना नहीं करना पड़ता है। सुपाच्य  होने कि वजह से इसका सेवन बच्चे से लेकर बुजुर्ग भी कर सकते हैं। ध्यान रहे समा के चावल को हवामुक्त (एयर टाइट) पात्र में भंडारित कर रखना आवश्यक है, क्योंकि नमीं के संपर्क में आने से ये खराब हो जाते है।

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बुधवार, 16 नवंबर 2022

ग्रामीण युवाओं के लिए रोजगार एवं आमदनी के अवसर देता है-पलाश वृक्ष : एक उत्तम स्टार्टअप

 



डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

ढांक कहो, टेसू कहो, अथवा कहो पलाश। ऊपवन में पर हैसियत, होती इसकी खास. किसी  सम्माननीय कवि द्वारा कही गयी ये पंक्तियाँ पलाश के महत्व को दर्शाती है. वैदिक ग्रंथों से लेकर कवियों कि रचनाओं और साहित्य में  पलाश का  गुणगान  किया गया है।  साहित्य में और आम बोल चाल में एम् एक मुहावरा “ढांक के तीन पात” बहुत प्रचलित है जिसका तात्पर्य चाहे कुछ भी हो जाय, कुछ परिवर्तन नहीं होगा, ढांक  के तीन पात ही रहेंगे प्रकृति ने हमें पेड़-पौधों के रूप में अनेकों उपहार दिए है, जो जीवन को न केवल स्वस्थ बनाते है, बल्कि उनके मनमोहक पुष्पों से जन-जीवन को हमेशा उत्साह, उमंग और प्रेरणा मिलती है


पलाश को ढांक परास, संस्कृत में किशुक, रक्त पुष्पक, ब्रह्मा पादप, अंग्रेजी में फ्लेम ऑफ़ द फारेस्ट और  वनस्पति विज्ञान में ब्यूटिया मोनोस्पर्मा कहते है। आकर्षक रंग, रूप और गुणों से परिपूर्ण पलाश उत्तर प्रदेश का राजकिय वृक्ष है जो भारतीय डाक टिकट पर भी शोभायमान हो चुका है। पलाश की दो प्रजातियां होती है-एक लाल  फूलों वाला पलाश (ब्यूटिया मोनोस्पर्मा) जो की सभी जगह देखने को मिलता है. दूसरा सफेद फूलों वाला पलाश (ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा) एक प्रकार का लता पलाश है, जो दुर्लभ है। इसके पेड़ मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के वनों में कहीं कहीं दिख जाते है। इनके अलावा एक पीला पलाश (अत्यंत दुर्लभ) भी होता है. ऐसा माना जाता है सफेद पलाश के फूल व पत्ते भगवान शंकर को बेहद प्रिय है। इस  दुर्लभ पेड़ का प्रयोग तंत्र-मन्त्र में किया जाता है।

पलाश का पेड़ मध्यम आकार का लगभग 12 से 15 मीटर ऊंचा होता है. इसका तना सीधा, खुरदुरा एवं अनियमित शाखाओं वाला होता है इसके एक ही डंठल में तीन पत्रक एक साथ लगे होते है, जो ढाक के तीन पातलोकोक्ती को सार्थक करते है। पलाश के पत्ते गोल होते है जो सामने से हरे एवं नीचे से भूरे रंग के होते है। पतझड़ के बाद बसंत ऋतू में इसमें केसरिया लाल रंग के फूल खिलते है ऐसा माना जाता है कि ऋतुराज बसंत का आगमन पलाश के बगैर पूर्ण नहीं होता है अर्थात पलाश बसंत का श्रंगार है. इसके फूल  बाहर  से मखमली भूरे-पीले व अन्दर की ओर सिंदूरी लाल रंग के होते है फूलों की पंखुड़ियां तोते की चोंच की तरह लाल होती हैं, इसलिए इसे किंशुक (शुक या तोता) कहा गया है फूल खिलने के बाद दूर से देखने पर ऐसा लगता है, जैसे जंगल में आग लगी है, इसलिए इसे फ्लेम ऑफ़ द फारेस्ट अर्थात जंगल की ज्वाला भी कहा जाता है सर्वगुण संपन्न पलाश के फूल में गंध नहीं होती है

पलाश वृक्ष का धार्मिक, आर्थिक एवं औषधिय महत्व

दुर्लभ सफेद पलाश फोटो साभार गूगल 
धार्मिक महत्व: आयुर्वेद में पलाश को ब्रह्मवृक्ष कहा गया है और इस वृक्ष में तीनों देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश का निवास माना जाता है। पलाश का प्रयोग गृह-नक्षत्रों की शांति हेतु किया जाता है। इसके फूल भगवान् जगन्नाथ को अर्पित किये जाते है और यज्ञोपवीत संस्कार के विधि विधान में  भी इनका उपयोग होता है.इसकी लकड़ी यज्ञ- हवन पूजन में काम आती है। धार्मिक एवं तांत्रिक अनुष्ठानों में सफेद पलाश की अधिक मांग होती है, परन्तु उपलब्ध न होने के कारण लाल पलाश का ही इस्तेमाल किया जाता है. पलाश के  पेड़ की जड़ से ग्रामीण सोहई बनाते हैं, जिसे दिवाली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजन के समय गाय-बैलों के गले में बांधा जाता हैं। 

रोजगार एवं आमदनी का साधन है पलाश  

1.दौना-पत्तल उद्यम: प्रकृति प्रदत्त पलाश न केवल बसंत में मनोहारी दृश्य उत्पन्न करता है बल्कि ग्रामीणों को रोजगार एवं आमदनी के अवसर भी प्रदान करता है इसकी पत्तियों का उपयोग दौना-पत्तल एवं बीडी बनाने में किया जाता है प्लास्टिक उपयोग से हो रहे प्रदुषण एवं स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव को देखते हुए भारत के अनेक राज्यों में शादी-समारोहों में उपयोग होने वाले प्लास्टिक के पात्रो/डिस्पोजल बेचने एवं प्रयोग पर रोक लगा दी है ऐसे में पेड़-पौधों के पत्तो से बने दौना-पत्तल की हमारी प्राचीन परंपरा पुनर्जीवित होने की संभावना बलवती हुई है आज कल पेड़ों के पत्तों से बने पात्रों का चलन बढ़ रहा है और बाजार में इनकी मांग बढती जा रही है अतः दौना-पत्तल को कुटीर उद्यम के रूप में अपनाया जा सकता है इसकी पत्तियां पशुओं के लिए पौष्टिक चारा भी है

2. हर्बल गुलाल एवं रंग:  केमिकल युक्त रंग के प्रचलन और इनके दुष्प्रभाव से परिचित लोग अब होली पर रंग और गुलाल का उपयोग कम करने लगे है. अब बाजार में हर्बल (प्राकृतिक)  गुलाल और रंगों की अधिक मांग है.  रंगों और गुलाल पलाश के फूलों से हर्बल रंग और गुलाल तैयार किया जाता है मथुरा में इसके हर्बल गुलाल एवं रंग  से आज भी होली खेली जाती है इसके फूल फाल्गुन-चैत्र में खिलते है इन फूलों को एकत्रित कर इनसे प्राकृतिक गुलाल एवं रंग बनाने का उद्यम प्रारंभ कर आर्थिक उन्नति की जा सकती है

3. मूल्यवान गोंद: इसके तने से लाल रस निकलता है जो सूखकर लाल गोंद बन जाता है जिसे बंगाल कीनो, पुनिया गोंद एवं कमरकस के नाम से जाना जाता है गोंद एकत्रीकरण एवं प्रसंस्करण भी एक अच्छा उद्यम हो सकता है। पलाश की पतली शाखाओं को उबालकर निम्न कोटि का कत्था तैयार किया जाता है, जिसे पश्चिम बंगाल में खाया जाता है

4. लाख कीट पालन: पलाश के पेड़ों पर लाख कीट पालन किया जाता है. लाख का उपयोग खोखले गहनों के अन्दर भरने, चूड़ियां, खिलोने आदि  बनाने में किया जाता है लाख कीट पालन एवं लाख प्रसंस्करण भी उत्तम व्यवसाय है

5.पलाश कि पत्तियां पशुओं के लिए उत्तम चारा है. इसकी जड़ों से प्राप्त रेशों का उपयोग रस्सियां बनाने में किया जाता है

पलाश का औषधिय महत्त्व: पलाश के सम्पूर्ण पेड़ में औषधीय गुण पाए जाते है, जिनका प्रयोग आयुर्वेदिक, यूनानी एवं होम्योपैथिक दवाएं बनाने में किया जाता है

पलाश के पत्तों से बने दौना-पत्तल पर नित्य कुछ दिनों तक भोजन करने से शारीरिक व्याधियों का शमन होता है। दरअसल पलाश की पत्तियों में विद्यमान पोषक तत्व एवं औषधिय गुण गर्म भोजन में समाहित हो जाते है, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी माने जाते है इसके अलावा पत्तियों का उपयोग फोड़ा-फुंसी, मुंहासे आदि के उपचार में किया जाता है पलाश की छाल से प्राप्त अर्क का उपयोग नजला और खांसी के उपचार में किया जाता हैपलाश का गोंद  त्वचा रोग, मुंह  के रोग, अतिसार, पेचिस, उदर रोग के उपचार में उपयोगी माना जाता है  इसकी जड़ की छाल रक्तचाप के उपचार में फायदेमंद होती है. इसके फूल सूजन, प्रदाह या जलन को शांत करने वाले माने जाते है इसके फूलों का इस्तेमाल मधुमेह, नेत्र रोग, उदर रोग, बुखार आदि के  उपचार में किया जाता है इसके फूलों का सेवन करने से शरीर को ऊर्जा मिलती है एवं रक्त संचार बढ़ाने में मदद मिलती है पलाश के फूलों का पेस्ट चेहरे पर लगाने से चेहरा कांतिवान हो जाता है इसके फूलों के पानी से स्नान करने से लू और गर्मी से बचा जा सकता है पलाश के बीज और तेल में कृमिनाशक गुण पाए जाते है. इनका उपयोग बुखार, मलेरिया, फीता कृमि, गोल कृमि के उपचार में किया जाता है इसके तेल का उपयोग साबुन उद्योग में किया जाता है

उजड़ते वन-उपवन एवं जंगलों के विनाश के कारण पलाश के वृक्षों की संख्या दिनों-दिन कम होती जा रही है, जो चिंता और चिंतन का विषय है. पलाश वृक्ष कि महत्ता एवं व्यवसायिक उपयोगिता को देखते हुए सरकार एवं वन विभाग को इनके संरक्षण एवं संवर्धन के लिए प्रयास करना चाहिए. इसके अलावा किसानों खेतों की मेंड़ों पर इस बहुपयोगी वृक्ष के पेड़ों का रोपण  करने किसानों को भी प्रोत्साहित करने कि आवश्यकता है ताकि उनकी आमदनी में इजाफा हो सके. इस प्रकार से  पलाश के  पेड़ ग्रामीणों के लिए रोजगार एवं आमदनी अर्जित करने का उत्तम साधन बन सकते है इससे न केवल दौना-पत्तल, लाख उत्पादन, फूलों से प्राकृतिक रंग, गोंद एवं आयुर्वेदिक दवाइयों का कारोबार  किया जा सकता है। पलाश के हर्बल उत्पाद उपलब्ध होने से  लोगों के स्वास्थ एवं इसके  पेड़ों के रोपण से पर्यावरण में भी सुधार हो सकता है।

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