डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व
विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                भारत   में भूमि उपयोग की
प्रमुख दो पद्धतियां कृषि और वानिकी क्रमशः 46.4 व 22.7 % क्षेत्र में अपनाई जा
रही है।  कृषि हमारी आजीविका और भोजन का प्रमुख जरिया है परन्तु वन मानव जाति के
लिए अमूल्य प्राकृतिक सम्पति ही नहीं है, अपितु हमारी जलवायु और भू-पारस्थिकी  के श्रेष्ठ सरंक्षक भी है।  राष्ट्रिय वन नीति
के मुताबिक देश में उपलब्ध कुल भौगोलिक क्षेत्र के 33.33 % भाग में घने वन होना
चाहिए।  दुर्भाग्य से अंधाधुंध कटाई, नगरीय विस्तार, औद्योगिक विकास, सड़क निर्माण आदि
के चलते हमारे वनों का क्षेत्रफल दिनों दिन घटता जा रह है , जिनका क्षेत्र दिनोदिन
घटता जा रहा है।  एक अनुमान के  हिसाब से हम
अपने वनों को 13 हजार वर्ग किलोमीटर प्रति वर्ष की दर से नष्ट कर रहे है।  वास्तव
में वनों की अत्यधिक क्षति हमारे खुद के उत्तरजीविता के लिए खतरा है।  एक आंकलन
(अग्रवाल एवं साथी, 2009) के अनुसार देश में 100 मिलियन टन जलाऊ लकड़ी, 853 मिलियन
टन चारा (हरा और सूखा) तथा 14 मिलियन टन इमारती काष्ठ की कमीं है।  इस कमी को पूरा
करने के लिए जंगलों का अवैध तरीके से दोहन किया जाता है जिसे रोकने के लिए देश में
में कृषि-वानिकी पद्धति को बढ़ावा देने की महती आवश्यकता है। 
                कृषि वानिकी एक ऐसा
विज्ञान है जो कृषि, वानिकी, पशु पालन तथा अन्य विषयों और प्रबंधन पर आधारित है,
जो सब मिलकर भूमि उपयोग की सुव्यवस्थित पृष्ठभूमि निर्मित करते है।  कृषि वानिकी
भूमि उपयोग की वह धारणीय पद्धति है जिसके अन्तर्गत भूमि का उत्पादन बनाए रखते हुए
उस भूमि पर वृक्षों तथा फसलों का उत्पादन और या पशुपालन एक ही समय में अथवा
क्रमवद्ध रूप में अपनाया जाता है, जो पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए रखते हुए  जन समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।  कृषि
वानिकी के सन्दर्भ में कृषि के अन्तर्गत फसलें, फल तथा सब्जिओं को वहुद्देशीय
वृक्षों (फल, लकड़ी तथा चारे हेतु) के साथ उगाया जाता है।  .
कृषि वानिकी पद्धतियाँ
प्रमुख पांच सिद्धांतों यथा धारणीयता, उत्पादकता, लचीलापन, सामाजिक स्वीकार्यता और
पारस्थितिकीय सामंजस्य पर आधारित है :-
१धारणीयता: धारणीयता का
अर्थ प्राकर्तिक संतुलन यानि प्रकृति की क्षमता को बनाए रखते हुए प्राकृतिक  स्त्रोतों का उपयोग करना है। वृक्षों और फसलों
को एक साथ उगाने से समय-समय पर होने वाले पारस्थितिकीय परिवर्तन (उच्च तापक्रम, पाला,
ओला, तेज हवा आदि) में संतुलन बना रहता है।  इस प्रकार फसल उत्पादन में वृक्ष
सहायक होते है। 
२ उत्पादकता: वृक्षों के
साथ फसलों को उगाने तथा आवश्यकतानुसार पशु पालन करने से कुल उत्पादकता और लाभ में
वृद्धि होती है।  इसके अलावा भूमि की उर्वरा शक्ति कायम रहती है, खरपतवारों का
नियंत्रण  होता है और फसल शीघ्र तैयार हो
जाती है।  वृक्ष भूमि की निचली सतह से तथा फसलें ऊपरी सतह से नमीं और पोषक तत्व
ग्रहण करते है।  वृक्ष होने से मृदा क्षरण से नष्ट होने वाली ऊपरी उपजाऊ परत  का सरंक्षण होता है। 
  लचीलापन : कृषि वानिकी
पद्धति में लचीलापन अधिक होता है जो वाह्य तथा आन्तरिक परिवर्तन को सहने की क्षमता
प्रदान करता है।  कृषि वानिकी के तीन घटकों यथा फसलें, वृक्ष और पशुओ से उत्पादन
प्राप्त होता है . विशेष परिवर्तन की स्थिति में तीनों घटक एक साथ प्रभावित नहीं
होते है  वल्कि एक घटक की हानि दुसरे घटक
से पूरी हो जाती है। 
४सामाजिक स्वीकार्यता : स्थानीय
समाज ही कृषि वानिकी का मूल आधार होता है।  समाज के लिए  आवश्यक वस्तुओं जैसे
खाद्यान्न, फल, ईधन, पशु चारा, कृषि औजार निर्माण हेतु लकड़ी आदि की पूर्ती फसल और
वृक्षों से होने से उनमे आत्मनिर्भरता का भाव विकसित होता है।  इसके अलावा
मधुमक्खी पालन, रेशम कीट पालन, लाख उत्पादन और अन्य कुटीर उद्योग स्थापित करने में
भी कृषि वानिकी से मदद मिलती है। 
  पारस्थितिकीय सामंजस्यता: वृक्ष कार्बन डाई
ऑक्साइड ग्रहण कर ऑक्सीजन छोड़ते है जिससे वातावरण शुद्ध होता है . इसके अलावा
वृक्ष वायु वेग कम करते है तथा  मृदा एवं
जल सरंक्षण में सहायता करते है . इस प्रकार पारस्थितिकीय संतुलन कायम रखने में
वृक्ष महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। 
   
कृषि वानिकी पद्धतियाँ
कृषि वानिकी पद्धति के प्रमुख तीन घटकों यथा  वृक्ष, फसलें और पशु में से वृक्ष एक अनिवार्य
घटक होता है।  कृषि वानिकी की प्रमुख
पद्धतिया निम्नानुसार है :
- कृषि वनिकीय पद्धति (एग्रो-सिल्वीकल्चरल सिस्टम): इस पद्धति में वृक्षों और फसलों को एक साथ एक ही भूमि पर सुव्यस्थित ढंग से उगाया जाता है . खाद्यान्न, ईधन और कृषि औजार हेतु लकड़ी प्राप्त करना इस पद्धति का प्रमुख उद्देश्य होता है। उदहारण के लिए यूकेलिप्टस के साथ खरीफ में मूंग, उर्द, लोबिया तथा रबी में चना, मटर आदि सूबबूल के साथ खरीफ में जुआर, बाजरा, सोयाबीन, मूंगफली तथा रबी में गेंहू, चना, सरसों आदि की खेती की जा सकती है। शहर के नजदीक वृक्षों के साथ सब्जी वाली फसलें लगाना अधिक लाभप्रद होता है .
 - कृषि उद्यानिकी पद्धति (एग्रो-होर्टीकल्चरल सिस्टम): इस पद्धति में फलदार वृक्षों के साथ खाद्धान्न फसलें या सब्जियां उगाई जाती है .इस पद्धति वृक्षों से फल, ईधन और कृषि औजार बनाने के लिए लकड़ी तथा फसलो से अन्न और सब्जियां मिल जाती है। उदहारण के लिए बेर के साथ खरीफ में लोबिया, गूआरफली आदि तथा रबी में चना, मसूर, गोभी, आदि. इसी प्रकार नीबू के साथ लोबिया, चना, मटर आदि फसलें लगाई जा सकती है।
 - उद्यानिकी-वानिकी पद्धति (होर्टो-सिल्वीकल्चरल सिस्टम): इस पद्धति में फल, सब्जियां, ईधन और कृषि औजारों के लिए लकड़ी प्राप्त करने के उद्देश्य से फलदार वृक्षों को वनिकीय वृक्षों के साथ सहयोगी वृक्षों के रूप में लगाया जाता है। इसमें नियमित फल उद्यानों के उत्तर और पश्चिम दिशाओं में वायु अवरोधक के रूप में वानिकी वृक्ष लगाये जाते है।
 - कृषि-उद्यानिकी-वानिकी पद्धति (एग्रो-होर्टो सिल्वीकल्चरल सिस्टम): यह एक बहुमंजलीय पद्धति है जिसमे फल दर वृक्ष, वानिकी वृक्ष और फसलें एक साथ उगाई जाती है जिससे फल, ईधन, लकड़ी और खाद्यान्न प्राप्त होते रहते है। उदहारण के लिए किन्नो संतरा को 5 X 5 मीटर की दूरी पर लगाकर इनकी कतारों के मध्य सुबबूल लगाया जा सकता है।
 - वनिकीय-चारागाही पद्धति (सिल्वो-पैस्टोरल सिस्टम): इस पद्धति में चारागाहों में वृक्षों को लगाकर उसमे पशुओं का चराया जाता है. घासों को प्राकृतिक रूप से बढ़ने दिया जाता है . इस प्रणाली से पशुओं को छाया और चारा के अलावा ईधन और लकड़ी प्राप्त होती है। इसे पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि सरंक्षण के लिए अपनाया जाता है। उदहारण के लिए सूबबूल, सिरिस, शीशम बबूल आदि वृक्षों को चरागाहों में लगाया जाता है।
 - कृषि-उद्यानिकी-चारागाही पद्धति (एग्रो-होर्टो-पेस्ट्रोरल सिस्टम): यह एक कृषि उधानिकी और उद्यानिकी-चारागाही की मिली जुली पद्धति है जिसके तहत वानिकीय वृक्षों के स्थान पर फलदार वृक्षों को उगाया जाता है और फलदार वृक्षों के साथ घास तथा खाद्यान्न फसलें लगाई जाती है. घास की कटाई कर पशुओं को खिलाया जाता है . उदहारण के लिए आम, अमरुद, नीबू, किन्नो आदि फलदार वृक्षों के साथ जार, बाजरा, मक्का, अंजन घास और स्टाइलो घास लगाईं जाती है।
 - उद्यानिकी-चारागाही पद्धति (होर्टो-पेस्ट्रोरल सिस्टम): इस पद्धति में चारागाहों में फलदार वृक्ष उगाये जाते है . पशुओं की चराई के साथ साथ फल भी प्राप्त हो जाते है। उदाहरण के लिए बेर, आंवला, शहतूत, खिरनी, जामुल आदि वृक्षों का रोपण किया जाता है।
 - कृषि-वानिकीय-चारागाही पद्धति (एग्रो-सिल्वो-पेस्ट्रोरल सिस्टम): यह कृषि वानिकीय तथा वन चारागाही पद्धतियों की मिली जुली पद्धति है जिसमे वृक्षों के बीच में खाधान्न फसलें तथा घासें उगाई जाती है। घासें काटकर पशुओं को खिलाई जाती है . इसमें मुखरूप से बबूल और शूबबूल के वृक्ष लगाये जाते है।
 - उद्यानिकी-वानिकीय चारागाही पद्धति (होर्टो-सिल्वो-पेस्टोरल सिस्टम); इस प्रणाली में फलदार वृक्षों के साथ साथ वानिकीय वृक्ष तथा घासें उगाई जाती है जिसके तहत फल, ईधन, कृषि औजारों के लिए लकड़ी और जानवरों के लिए चारा प्राप्त होता है। इस पद्धति का उपयोग हिमालयी क्षेत्रों में किया जाता है।
 - गृह-कृषि-वानिकी पद्धति (होमस्टेड एग्रोफॉरेस्ट्री): यह बहु उद्देशीय तथा बहुपयोगी पद्धति है जिसके अन्तर्गत कृषि वानिकी के सभी घटक आ जाते है। इसमें वानकीय वृक्ष, फलदार वृक्ष, नकदी फसलें, खाद्यान्न, सब्जियां और पशुपालन सम्मिलित रहते है। इस पद्धति के माध्यम से घरेलु उपयोग की वस्तुएं जैसे खाद्यान्न, फल, सब्जियां, ईधन, काष्ठीय लकड़ी, दूध और खेतों के लिए खाद प्राप्त हो जाता है . उदाहरण के लिए नारियल, सुपाड़ी, काली मिर्च, इलाइची, केला, सब्जियां, अन्नानास, कन्दीय फसलें और अनाज वाली फसलें शामिल रहती है। यह पद्धति केरल में प्रचलित है।
 - सीमान्त वृक्षारोपण (बाउंड्री प्लांटेशन): खेतों और प्रक्षेत्रों की सीमाओं तथा मेंड़ो पर कतार के रूप में वृक्षारोपण करना सीमान्त वृक्षारोपण पद्धति कहलाता है . इसके तहत वानिकीय और फलदार दोनों प्रकार के वृक्ष लगाये जाते है। प्रक्षेत्रों की सुरक्षा के लिए भी यह उपयोगी पद्धति है जिसमे फल, ईंधन, काष्ठ, चारा आदि प्राप्त हो जाता है. सूबबूल, यूकेलिप्टस, बबूल,बांस, इमली, नीम, आम, जामुन, करोंदा,विलायती इमली, बेल आदि वृक्षों का रोपण इस पद्धति में किया जाता है।
 
कृषि वानिकी में वृक्षों का चयन एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है
क्योंकि वृक्षों को फसलो के साथ उगाया जाता है .  वृक्षों में निम्न लिखित गुण होना चाहिए:-
- कृषि वानिकी में प्रयुक्त किये जाने वाले वृक्ष बहु उद्देशीय होना चाहिए अर्थात इस वृक्षों से एक से अधिक पदार्थ (चारा, ईधन, फल, खाद्यान्न, औषधि, इमारती लकड़ी, आदि) मिलना चाहिए।
 - वृक्षों में स्थानीय कृषि जलवायु और भूमिओ में उगने की क्षमता होना चाहिए।
 - इनमे विपरीत जलवायु (सूखा, बाढ़ आदि) परिस्थियाँ सहन करने का गुण होना चाहिए .
 - चरागाहों को छोड़कर अन्य स्थानों के लिए वृक्ष कम छाया देने वाले होने चाहिए। .
 - दलहनी कुल के वृक्ष लगाने का प्रयास करना चाहिए. ऐसे वृक्ष वायुमंडल की नत्रजन भूमि में स्थिर कर भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में सहायक होते है।
 - वृक्ष कम से कम देखभाल में शीघ्र बढ़ने वाले होने चाहिए।
 - वृक्षों में कटाई-छटाई को सहन कर पुनः बढ़ने की क्षमता होनी चाहिए।
 - वृक्षों की फसलों के साथ उगने का संयोज्य (कम्पेटिबिलिटी) होना चाहिए।
 - कीट, रोग और सूखा सहन करने की क्षमता होना चाहिए।
 
कृषि वानिकी के लिए प्रमुख बहुउद्देशीय वृक्ष
सामान्य नाम  
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वानस्पतिक नाम  
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प्रमुख उपयोग एवं
  पद्धति  
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बबूल  
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अकेशिया निलोटिका  
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काष्ठ, ईधन, चारा,
  खम्भे,टैनिन,नाइट्रोजन स्थिरक. कृषि वानिकी एवं सीमान्त वृक्षारोपण।  
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गम अरेबिक वृक्ष  
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अकेशिया सेनेगल  
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ईधन, चारा, खम्भे,
  औसधि, नाइट्रोजन स्थिरक, भूमि सरंक्षण, कृषि वन-चारागाही।  
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खैर  
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अकेशिया कटेचू  
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काष्ठ, ईधन, चारा, कृषि
  औजार, कत्था,टेनिन. समूह वृक्षारोपण हेतु। 
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बेल  
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ईगली मारमेलोस  
 | 
  
फल, चारा, औषधि,गोंद,
  कृषि औजार, वन-उद्यानिकी हेतु।  
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काला  सिरिस  
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अल्बीजिया लेवेक  
 | 
  
ईधन, खम्भे,चारा, कृषि
  औजार, भूमि सरंक्षण, काष्ठ,शोभादार,टेनिन. कृषि वानिकी एवं वन-चारागाही पद्धति
  हेतु।  
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सफ़ेद सिरिस  
 | 
  
अल्बीजिया प्रोसेरा  
 | 
  
ईधन, खम्भे, छाया,
  टेनिन, नाइट्रोजन स्थिरक, सुरक्षा घेरा, कृषि-वन-चारागाही पद्धति हेतु।  
 | 
 
कटहल  
 | 
  
आर्टोकार्पस हेटेरोफिलस
   
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फल, चारा, काष्ठ,
  छाया,शोभाकर, कृषि वानिकी हेतु।  
 | 
 
काजू  
 | 
  
एनाकार्डियम ओक्सी  डेन्टेल  
 | 
  
फल, गिरी,ईधन, भूमि
  सरंक्षण, उद्यानिकी-चारागाही हेतु  
 | 
 
नीम  
 | 
  
अजेदिरेक्टा इंडिका  
 | 
  
काष्ठ , ईंधन,औषधि,खम्भे,छाया,
  पर्यावण और भूमि सुधार.कृषि वानिकी, वन-चारागाही पद्धति. 
 | 
 
कचनार  
 | 
  
बौहिनिया बेरिगेटा  
 | 
  
ईंधन, चारा, कृषि औजार,
  छाया, सौन्दर्य,टेनिन, भूमि सरंक्षण.कृषि-वानिकी. 
 | 
 
नारियल  
 | 
  
कोकोस न्यूसीफेरा  
 | 
  
फल, रेशा, भूमि
  सरंक्षण,सीमान्त एवं समूह वृक्षारोपण. 
 | 
 
छोटा लसोड़ा  
 | 
  
कोर्डिया डाइकोटोमा  
 | 
  
फल, काष्ठ, ईंधन, चारा,
  गोंद. कृषि-वन-चारागाही, कृषि वानिकी (सीमान्त रोपण) 
 | 
 
शीशम  
 | 
  
डेल्बर्जिया  लेटीफ़ोलिया    
 | 
  
काष्ठ,ईंधन, चारा,पल्प,
  औषधि,छाया, भूमि सरंक्षण.कृषि वानिकी, वन चारागाही. 
 | 
 
आंवला  
 | 
  
इमब्लिका ऑफिसिनेलिस  
 | 
  
फल, चारा, ईंधन,
  औषधि,कृषि औजार. कृषि वानिकी, वन चारागाही.  
 | 
 
सफेदा  
 | 
  
यूकेलिपटस प्रजाति  
 | 
  
ईंधन, खम्भे, तेल, गृह
  निर्माण,भूमि सरंक्षण, कृषि वानिकी (सीमान्त वृक्षारोपण). 
 | 
 
जामुन  
 | 
  
यूजीनिया जैम्बोलना  
 | 
  
फल, चारा,
  काष्ठ,खम्भे,औषधि,छाया, भूमि सरंक्षण, वन-उद्यानिकी,बहुउद्देशीय पद्धति. 
 | 
 
सूबबूल  
 | 
  
ल्युकीना ल्यूकोसेफैला  
 | 
  
ईंधन,
  खम्भे,चारा,पल्प,नाइट्रोजन स्थिरक,भूमि सरंक्षण, कृषि वानिकी,
  कृषि-वानिकी-चारागाही, उद्यान-वानिकी  
 | 
 
आम  
 | 
  
मैंजीफेरा इंडिका  
 | 
  
फल, काष्ठ, ईंधन,
  छाया.कृषि वानिकी, वन-उद्यानिकी, बहु मंजलीय खेती।  
 | 
 
बकायन  
 | 
  
मीलिया एजाडराक   
 | 
  
ईंधन, काष्ठ, कृषि
  औजार, औषधि, पर्यावरण सुधार.कृषि वानिकी, वन-चारागाही।  
 | 
 
मुनगा  
 | 
  
मोरिंगा ओलीफेरा  
 | 
  
सब्जी,चारा, ईंधन,
  पैकिंग,औषधि,भूमि सरंक्षण.कृषि-वानिकी-चारागाही, वानिकी-उधानिकी.  
 | 
 
शहतूत  
 | 
  
मोरस एल्बा  
 | 
  
फल, रेशम उत्पादन,
  चारा,भूमि सरंक्षण. कृषि वानिकी (सीमान्त रोपण), कृषि-वानिकी-चारागाही।  
 | 
 
खेजरी  
 | 
  
प्रोसोपिस सिनेरैरिया  
 | 
  
ईंधन, चारा, खम्भे,
  कृषि औजार, सब्जी,नाइट्रोजन स्थिरक,भूमि सरंक्षण. कृषि वानिकी (कतार रोपण),
  कृषि-वानिकी-चारागाही।  
 | 
 
विलायती कीकर  
 | 
  
प्रोसोपिस ज्यूलीफ्लोरा
   
 | 
  
ईंधन, चारा, नेक्टर,
  खम्भे,नाइट्रोजन स्थिरक, भूमि सरंक्षण. क्रिश्सी वानिकी, वन-चारागाही।  
 | 
 
पोपुलर  
 | 
  
पोपुलस प्रजाति  
 | 
  
काष्ठ, ईंधन, चारा,
  पल्प,माचिस उद्योग. कृषि वानिकी (सीमान्त रोपण), वन उद्यानिकी। 
 | 
 
करंज  
 | 
  
पोनोमिया पिन्नैटा  
 | 
  
काष्ठ, ईंधन, चारा, हरी
  खाद, छाया, औषधि. कृषि वानिकी (सीमान्त रोपण), बहु उद्देशीय पद्धति। 
 | 
 
विलायती इमली  
 | 
  
पिथिसेलोबियम डल्से  
 | 
  
खम्भे, ईंधन, चारा,
  टेनिन,गोंड, नेक्टर, नाइट्रोजन स्थिरक, फल.सुरक्षा पंक्तियाँ.बहु उद्देशीय
  पद्धति। 
 | 
 
अगस्तय  
 | 
  
सेस्बेनिया ग्रेन्डीफ्लोरा
   
 | 
  
ईंधन, चारा, खाद्य,नाइट्रोजन
  स्थिरक, भूमि सरंक्षण, कृषि वानिकी (सीमान्त रोपण), करिसी-वन-चारागाही. 
 | 
 
इमली  
 | 
  
टेमेरिन्डस इंडिका   
 | 
  
फल, काष्ठ, ईंधन, चारा,
  छाया, औषधि, सुरक्षा पंक्ति. कृषि वानिकी(सीमान्त, समूह रोपण), वन उद्यानिकी। 
 | 
 
बेर  
 | 
  
ज़िज़िफश मोरिशियाना  
 | 
  
फल, काष्ठ, खम्भे,ईंधन,
  चारा,कृषि औजार, छाया. लाख कीट पालन, भूमि सरंक्षण. कृषि वानिकी (सीमन व समूह
  रोपण),  वानकीय-चारागाही। 
 | 
 
कृषि वानिकी के लाभ
             बढती जनसँख्या और विकास की सरपट दौड़ में भागते मानव ने  प्राकृतिक संसाधनों को  काफी क्षति पहुचाई है जिससे हमारा पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है और हमें वैश्विक तपन जैसी समस्याओं का सामना कर पड़  रहा है. संतुलित पर्यावरण मानव जीवन के लिए आवश्यक है  और संतुलित पर्यावरण निर्माण मृदा, पौधे, पानी, मानव  भूमि की उत्पादकता बनाए रखते हुए  खाद्यान्न, ईधन, चारा, फल, काष्ठ जैसे महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ती हेतु  वनों पर पड़ने वाले दवाव को कम करना, भूमि क्षरण को रोकना, मृदा में  नमीं सरंक्षण, वायु वेग को कम करना तथा बढ़ते हुए प्रदुषण को रोकना   आज की महती आवश्यकता है।  यधपि बढ़ती हुई जनसँख्या हेतु खाद्यान्न आवश्यकता की पूर्ति के लिए सघन कृषि आवश्यक है तो ईधन ब लकड़ी, पशुओं के लिए चारा तथा पर्यावरण सरंक्षण के लिए कृषि वानिकी को अपनाना अति आवश्यक है।  कृषि वानिकी अपनाने से निम्न लिखित फायदे होते  है :
- वृक्षों और फसलों को एक साथ उगाने से पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में मदद मिलती है।
 - सीमित भूमि से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है तथा भूमि की उत्पादकता बनी रहती है क्योंकि फसलों और वृक्षों का मूल तंत्र भिन्न होता है।
 - भूमि में जीवांश पदार्थ की मात्रा में व वृधि होती है जिससे भूमि की जल धारण क्षमता और पोषक तत्व उपलब्धता बढ़ जाती है।
 - भूमि उपयोग की वैकल्पिक पद्धतियां होने से भूमि का बेहतर उपयोग होता है।
 - भूमि की उर्वरा शक्ति बदती है, मृदा क्षरण पर रोक लगती है और ऊसर भुमिओं में सुधार होता है।
 - खाधान्न के अलावा जलाऊ लकड़ी, काष्ठ, फल और पशुओं के लिए वर्ष भर हरा चारा उपलब्ध होता है।
 - वृक्षों के अनावरण से सूक्ष्म वातावरण में सुधार होता है जिससे फसलोत्पादन में वृधि होती है।
 - प्राकृतिक प्रकोप जैसे आंधी, तूफ़ान, अति वृष्टि, अल्प वृष्टि आदि से फसलों में हुई क्षति की पूर्ती वृक्षों से हो जाती है।
 - किसानो को वर्ष पर्यंत रोजगार और आय के अतरिक्त साधन उपलब्ध होते है।
 - वनों पर निर्भरता कम होने से वन सरंक्षण और उनके विस्तार में सहायक है।
 






