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शुक्रवार, 17 मार्च 2017

पोषण सुरक्षा के लिए मूँग-उर्द का उत्पादन बढ़ाएँ

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)  




भारत विश्व का सर्वाधिक दलहन उत्पादक राष्ट्र है, फिर भी देश में दालों की घरेलु पूर्ति के लिए प्रति वर्ष 10-12 लाख टन दलहन आयात  करना पड़ता है।  ऐसी स्थिति में हमें दलहनी फसलों के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार के अलावा प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने की  दिशा में कारगर रणनीत अपनाना पड़ेगी।  धान-गेंहू फसलों की लगातार गहन खेती करने के कारण भारत के अनेक क्षेत्रों में  भूमि की उर्वरा शक्ति और भूमिगत जल स्तर में निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है। इसके अलावा इन प्रमुख खाद्यान्न फसलों की उत्पादकता में ठहराव भी आता जा रहा है।  धान-गेंहू और मक्का-गेंहू तथा अन्य फसल चक्रों में दलहनी फसलों का समावेश आवश्यक हो गया है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति को पुनर्जीवित  सके।  फसल विविधिकरण में दलहनी फसलों का महत्वपूर्ण योगदान है। मुंग एवं उर्द की फसलें अल्पावधि की होने के कारन विभिन्न फसल प्रणालियों में इन्हें आसानी से सम्मिलित हो जाती है। दलहनी फसलें शाकाहारी भोजन का अबिन्न अंग है। दालों में सर्वाधिक मात्रा में प्रोटीन, विटामिन्स और खनिज लवण पाए जाते है। दलहनों के अपर्याप्त उत्पादन  और बढ़ती मंहगाई  के   कारण दालें आज आम आदमी की थाली से दूर  होती जा रही है जिसके फलस्वरूप देश के बच्चो और नवयुवको में कुपोषण की समस्या बढ़ती जा रही है।  ऐसे में दलहनी  फसलों के क्षेत्राच्छादन और उत्पादकता बढ़ाना नितांत आवश्यक है, तभी हम भारत के सभी नागरिकों को पोषण सुरक्षा मुहैया करा सकते है।   मुंग एवं उर्द भारत के कुल दलहनी फसलों के क्षेत्रफल के लगभग 28 प्रतिशत भाग पर उगाई जाती है।  भारत वर्ष  में पैदा की जाने वाली दलहनी फसलों में मूँग और उर्द का एक  प्रमुख स्थान है। वर्ष 2013-14  दौरान इन फसलों की खेती 64. 46 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में प्रचलित है जिससे 33. 06 लाख टन उत्पादन प्राप्त हुआ। इन फसलों की उत्पादकता बहुत ही कम है जिसे बढ़ाने के लिए किसान भाइयों को उन्नत तरीके से इनकी खेती करना होगा. ग्रीष्म और वर्षा ऋतू में इन फसलों से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए अग्र प्रस्तुत शस्य क्रियाएं अपनाना चाहिए। 
उपयुक्त जलवायु             
          मूँग एवं उर्द की खेती खरीफ एवं जायद दोनों मौसम में की जाती है। फसल पकते समय शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है।  जायद में इन फसलों  की खेती में अधिक सिंचाई करने की आवश्यकता होती है।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
             मूँग  एवं उर्द की खेती हेतु समुचित जल निकास वाली बलुई-दोमट मिटटी से लेकर लाल एवं काली मिटटी में भली भांति की जा सकती है।  भूमि में प्रचुर मात्रा में स्फुर का होना लाभप्रद होता है। खेत की पहली जुताई हैरो या मिट्टी पलटने वाले रिजऱ हल से करनी चाहिए. तत्पश्चात दो-तीन जुताई कल्टीवेटर से करके खेत को अच्छी तरह भुरभरा बना लेना चहिये। अंत में पाटा चलाकर खेत समतल करना  अति आवश्यक है, जिससे की खेत में नमी अधिक समय तक सुरक्षित  रह सके। गेंहू की कटाई के पश्चात शून्य जुताई विधि से बुआई करते वक्त गेंहू कटाई उपरांत खेत में हलकी सिंचाई करके जीरो टिल मशीन से सीधे बुआई करने से खेत तैयारी में लगने वाले समय की वचत होती है और उपज भी अपेक्षाकृत अधिक मिलती है.  वर्षा ऋतु में खेत से जल निकासी की उचित व्यस्था होनी चाहिए। 

उन्नत किस्में 
               फसल बुआई के समय, फसल पद्धति और क्षेत्र विशेष के लिए उपयुक्त  उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए।  खरीफ ऋतु की किस्मों के विपरीत ग्रीष्मकालीन फसल की किस्मों के चयन में ध्यान रखे कि वे काम अवधी में तैयार हो जावें। मूँग की उपयुक्त उन्नत किस्में ग्रीष्मकालीन उर्द और मूंग की खेती गन्ना, सूरजमुखी आदि फसलों के साथ अंतः फसली पद्धति में भी की जाती है। छत्तीसगढ़ राज्य के लिए उपयुक्त मूंग और उर्द की किस्मों के नाम यहाँ दिए जा रहे है :
मूँग की उन्नत किस्में 
पी.डी.एम.-11,पूसा-105,बी.एम.-4,मालवीय ज्योतिपूसा-9531, पूसा विशालमालवीय जनचेतनापी.के.व्ही.ए.के.एम.-4 आदि उन्नत किसमे है जो की 60-65 दिन में पाक कर तैयार होकर 8-10 क्विण्टल प्रति हेक्टेयर उपज देने की क्षमता रखती है।     
उर्द की उपयुक्त उन्नत किस्में 
पी.डी.यू.-1 (बसन्त बहार), टी.पी.यू.-4, टी.ए.यू.-2,टी.यू.-94-2, आर.बी.यू.-38 (बरखा), के.यू.-96-3, पन्त यू.-31, एन.यू.एल.-7   आदि उन्नत किस्में 70-75 दिन में तैयार होकर 10-12 क्विण्टल प्रति हेक्टेयर उपज देने में सक्षम होती है।    
बीज की मात्रा एवं बीजोपचार
              खरीफ फसल के लिए मूँग व उर्द के लिये, बीज दर  15-18  किलोग्राम प्रति हेक्टेयर  उपयुक्त होती  है। जायद में बीज की मात्रा 20-25  किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखना चाहिये। रोगों से बचाव तथा बेहतर उपज प्राप्त करने के लिए बीजों को सर्प्रथम सर्वांगी कवकनाशी रसायन से और इसके बाद राइज़ोबियम कल्चर से उपचारित करना चाइये।  इसके लिए प्रति किलोग्राम बीज को  1 ग्राम कार्बेन्डाजिम और 2 ग्राम थायरम या 3 ग्राम थायरम  से उपचारित करना चाहिए । इसके बाद बीज को उचित  रायजोबियम कल्चर  5 ग्राम  प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें और छाया में सुखाकर शीघ्र ही बुवाई करना चाहिये। इसी प्रकार फॉस्फेट घुलनशील बेक्टीरिया (पी.एस.बी.) से बीज शोधन करने से भी लाभ होता है।  कल्चर हमेशा विश्वशनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए। 
बुआई  का समय एवं बोन की विधि
           ग्रीष्म अथवा वसंतऋतु की फसल की बुआई 15  मार्च से 15  अप्रैल तक बुवाई करनी चाहिए।  खरीफ में इन फसलों की बुआई मध्य जुलाई से अगस्त के प्रथम सप्ताह  संपन्न कर लेना चाहिए।   बीज की बुआई कूड़ों में   से पंक्तियों  करना चाहिए।  कतारों के मध्य  की दूरी  25 से 30 सेंटी मीटर तथा पौधों के बीच की दूरी 8-10 सेमी।रखना चाहिए। बीज की बुवाई 4 से 5 सेंटी मीटर गहराई में करनी चाहिए । ग्रीष्म में पंक्तियों के मध्य 25 सेमी का फांसला रखना उचित रहता है। 
खाद एवं उर्वरक की मात्रा 
          दलहनी फसलों में अक्सर किसान भाई खाद एवं उर्वरक का इस्तेमाल नहीं करते है परंतु अच्छी एवं गुणवत्ता युक्त दलहन उत्पादन के लिए इन फसलों को भी संतुलित मात्रा में खाद-उर्वरकों की आवश्यकता होती है।  उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के बाद मिट्टी की उर्वरा शक्ति के अनुसार ही करना चाहिए। सामान्य तौर पर  10 से 15 किलोग्राम नत्रजन, 40-45  किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम सल्फर   प्रति हेक्टेयर बुआई के समय  प्रयोग करना चाहिए। इन सभी उर्वरकों की पूर्ण मात्रा बुवाई के समय कूड़ों में बीज से 2 से 3 सेंटीमीटर नीचे देना चाहिए। 

सिंचाई प्रबंधन 
            ग्रीष्मकालीन  फसल से बेहतर उत्पादन लेने के लिए उचित जल प्रबंधन आवश्यक है।  पलेवा करके बुआई करने के बाद  में पहली सिचाई बुवाई के 20  से 25  दिन बाद और बाद में हर 10 से 15 दिन के अंतराल पर सिचाई करते रहना चाहिए जिससे अच्छी पैदावार मिल सके। प्राय: खरीफ में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। परंतु पुष्पन अवस्था के समय वर्षा न होने की स्थिति में   की स्थिति में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोतरी होती है। फलियाँ बनते समय भी सिचाई करने की आवश्यकता पड़ती है। 
खरपतवार प्रबंधन 
          इन फसलों में खरपतवार प्रकोप से लगभग 30-50 % तक उपज में कमीं आ सकती है।  पहली सिचाई के बाद ओट आने पर निंदाई-गुड़ाई  करने से खरपतवार नष्ट होने के साथ साथ वायु का संचार होता है जो की मूल ग्रंथियों में क्रियाशील जीवाणु द्वारा वायुमंडलीय नत्रजन एकत्रित करने में सहायक होती है। खरपतवार  नियंत्रण जैसे की पेंडामिथालिन 30 ई सी की 3.3 लीटर अथवा एलाकोलोर 50 ई सी 3 लीटर मात्रा को 600 से 700 लीटर पानी में घोलकर बुवाई 2 से 3 दिन के अन्दर जमाव से पहले प्रति हेक्टर की दर से छिड़काव करने से प्रारंभिक खरपतवार नियंत्रित रहते है। 

कटाई व उपज 
           मूंग और उर्द की पकी हुई फल्लिओं को समय-समय पर तोड़कर चटकने से बचाना चाहिए। जब इन फसलों की पत्तियां पीली पड़ने लगे तो कटाई कर गहाई कर लेना चाहिए।  उन्नत फसल प्रबंधन और पौध सरंक्षण के उपाय अपनाने से मूंग और उर्द से 8-10 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। भण्डारण में रखने से पूर्व उपज को अच्छी तरह साफ़ करके सूखा लेना चाहिए। दानों में 10 % से अधिक नमीं नहीं होना चाहिए 
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