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गुरुवार, 16 मार्च 2017

मृदा सुर्यीकरण : प्रभावी पौध सरंक्षण की प्राकृतिक पद्धति


  डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर
प्रधान वैज्ञानिक (शस्य विज्ञान)
इंन्दिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 
                   आज कल खेती में खरपतवारों, कीड़े और बीमारियों की रोकथाम के लिए खतरनाक रासायनिकों का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है जिससे ना केवल हमारे  पर्यावरण को भारी क्षति हो रही है बल्कि इनके प्रयोग से मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पद रहा है।   प्राकृतिक एवं जैविक खेती में मृदा जनित कीट रोग और खरपतवारों के प्रकोप की अधिक संभावना रहती है .इनकी रोकथाम के लिए मृदा सुर्यीकरण तकनीक अधिक कारगर सिद्ध हो सकती है . शोध परिणामों से ज्ञात होता है की मिट्टी की सतह पर सामान्य दशा की अपेक्षा सुर्यिकृत दशा में मृदा का तापमान 8-10 डिग्री सेग्रे. बढ़ जाता है जो की बिभिन्न प्रकार के खरपतवारों और मृदा जनित रोग कारकों  (सुक्ष्मजिवाणुओं) को नष्ट करने के लिए पर्याप्त होता है. हल्के रंग की मिट्टियो की अपेक्षा काली मिट्टी सौर ऊष्मा का अधिक मात्रा में अवशोषण करती है। 
                   सोलराइजेशन या सौरीकरण तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए सर्व प्रथम  जमीन की अच्छी तरह जुताई के बाद हल्की सिचाई की  जाती है। इसके बाद पारदर्शी पॉलीएथलीन  फिल्म को मिट्टी पर बिछा दिया जाता है। फिल्म के किनारे मिट्टी में दबा दिए जाते हैं, ताकि अंदर की गर्मी बाहर न आ सके।  यह काम अप्रैल से जून के बीच इसलिए किया जाता है कि तब सूर्य की किरणों में काफी तेजी होती है। इस कारण पॉलीएथलीन  फिल्म के अंदर खासी गर्मी   पैदा (तापमान में 8-12 डिग्री सेग्रे की वृद्धि ) हो जाती है। इससे खरपतवार की कई प्रजातियों के बीज और फसलों में रोग फैलाने वाले जीवाणु दम तोड़ देते हैं। आमतौर पर मिट्टी का सौरीकरण तीन से छह हफ्ते तक किया जाता है, लेकिन इसकी अवधि अधिक होने पर गहराई तक खरपतवारों का सफाया करना आसान हो जाता है। मृदा  सौरीकरण से जमीन में नाइट्रोजन का स्तर बढ़ जाता है क्योकि  मिट्टी के ढके रहने से घुलनशील पोषक तत्व उसमें अच्छी तरह मिल जाते हैं। सौरीकरण से किसान को स्वस्थ पौध तो मिलती ही है, कीटनाशकों, फफूंदनाशकों और खरपतवारनाशकों पर होने वाले खर्च से भी मुक्ति मिल जाती है। साथ ही खरपतवार नियंत्रण  पर लगने वाले समय की बचत होती है । पीटीई फिल्म का सावधानी पूर्वक इस्तेमाल करने तथा उत्तम  रख रखाव से इसका कई बार इस्तेमाल किया जा सकता है। 

प्रभावी मृदा सुर्यीकरण के महत्वपूर्ण कारक

१.सौर उर्जा का अधिक मात्रा में  अवशोषण एवं संचयन के लिए पतली और पारदर्शी पोलीथिन सीट (20-25 माइक्रोमीटर ), मोटी-काली पोलीथिन सीट की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती है। 
२. पोलीथिन को जमीन से चिपकाकर बिछाना चाहिए, जिससे उसके नीचे कम से कम हवा रहे ताकि  सौर ऊष्मा का  अवशोषण और मृदा तापमान में अधिकतम अभिवृद्धि हो सके . इसके लिए खेतो का समतल होना आवश्यक होता है। 
३. इस तकनीक की सफलता में मिट्टी में नमी की मात्रा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है . इसलिए पोलीथिन बिछाने से पूर्व खेत की हल्की सिचाई (50 मिमी.) करना अति आवश्यक होता है .इससे ना केवल मृदा में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं पर सोर्य ऊष्मा का प्रभाव बढ़ जाता है वरन मृदा में ऊष्मा का संचालन अधिक गहराई तक होता है। 
४.अधिक गर्मी वाले महीनों (अप्रैल से जून) में, जब खेत में कोई फसल न हो, अधिक से अधिक समय तक पारदर्शी पॉलीएथलीन बिछा कर मृदा  सुर्यीकरण करने से  बेहतर परिणाम मिलते है . परीक्षणों से ज्ञात हुआ है की देश के उत्तरी  भाग में मई से जून तथा दक्षिणी भाग में अप्रेल से मई के दौरान मृदा सुर्यीकरण करना अति उत्तम होता है क्योकि उन महीनो में वायुमंडलीय तापमान अधिक और आसमान साफ़ रहता है। 
5. मृदा सुर्यीकरण का प्रभाव अमूमन भूमि के ऊपरी सतह (0-10 सेमी) तक रहता है . इसके प्रभाव को और अधिक गहराई तक पहुचाने के लिए सुर्यीकरण की अवधी 8-10  सप्ताह की होना चाहिए ताकि जड़  और गांठों से उगने वाले खरपतवार भी नष्ट हो जाए.
6. मृदा सुर्यीकरण के पश्चात खेत में जुताई कार्य वर्जित है अन्यथा इसका असर कम हो जाता है।  अतः बुवाई में डिबलर या अन्य यंत्र का प्रयोग करना चाहिए जो केवल कूंड बनाने का कार्य करे . सीधे सीड ड्रिल से बुवाई करना फायदेमंद पाया गया है। 

मृदा सुर्यीकरण का प्रभाव 

१. खरपतवार विज्ञान अनुसंधान निदेशालय जबलपुर एवं देश के विभिन्न शोध संस्थानों में किये गए अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि 4-6  सप्ताह के मृदा सुर्यीकरण से अधिकांश खरपतवारों का नियंत्रण हो जाता है परन्तु कंद अथवा तनो की गांठो से उगने वाले खरपतवारो पर इस तकनीक का कम प्रभाव पड़ता है क्योकि इस प्रकार के खरपतवार जमीन में अधिक गहराई पर होते है।  इसके अलावा सख्त बीज आवरण वाले खरपतवार जैसे सेंजी (मेलिलोटस अल्वा), हिरन खुरी (केन्वाल्वुलास अर्वेंसिस) आदि पर मृदा सुर्यीकरण का कम असर पड़ता है। 

२. मृदा सुर्यीकरण से मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं  और खरपतवार बीजों  पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने से फसल बढ़वार और उत्पादन अच्छा होता  है . इसके अलावा  लाभकारी सूक्ष्मजीवों की सक्रियता और मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों की घुलनशीलता तथा उनकी उपलब्धता में से  फसलोत्पादन में आशातीत बढोत्तरी होती है . देश के विभिन्न भागों में किये गए शोध परिणामों से ज्ञात होता है  कि मृदा सुर्यीकरण के माध्यम से  प्रभावी खरपतवार नियंत्रण की वजह से  प्याज की पैदावार में 100 से 125 %, मूंगफली में 52 % एवं तिल में 72 % की बढ़त दर्ज की गई .मृदा सुर्यीकरण तकनीक की उपयोगिता

                              मृदा सुर्यीकरण एक पर्यावरण हितैषी तकनीक है जो की  प्रयोगकर्त्ता के लिए पुर्णतः सुरक्षित है। इस तकनीक के  प्रयोग से विभिन्न प्रकार के खरपतवारों, रोग फ़ैलाने वाले तमाम जीवाणुओं,कवकों तथा सूत्रकृमिओं को नष्ट किया जा सकता है।  तम्बाखू और अन्य फसलो के साथ  उगने वाले ओरोबेंकी नामक परिजीवी खरपतवार नियंत्रण के लिए यह एक कारगर तकनीक है। इसके अलावा इसे अपनाने से  खेत की जुताई में आने वाली लागत भी कम हो जाती है। 

  मृदा सुर्यीकरण तकनीक के सीमायें

1.   मृदा सुर्यीकरण हेतु उपयोग में लाई जाने वाली पॉलिथीन सीट की लागत अधिक आने से यह तकनीक थोड़ी खर्चीली है, परन्तु इसका  प्रयोग नगदी फसलों, पुष्पोत्पादन, पौध तैयार करने में अधिक लाभदायक पाया गया है . पॉलिथीन सीट का दुबारा प्रयोग करने से आर्थिक लागत को कम किया जा सकता है . सही मायने में भूमि की तैयारी, खरपतवार और विभिन्न मृदा जनित रोगों के नियंत्रण में आने वाले खर्च  में वचत तथा पोषक तत्वों की उपलब्धतता और उत्पादकता में  वृद्धि  को ध्यान में रखते हुए खेती का आर्थिक आंकलन किया जाए तो यह तकनीक सस्ती एवं लाभकारी सिद्ध होगी .
2.   इस तकनीक का इस्तेमाल उन्ही क्षेत्रों में लाभकारी होगा, जहां पर कम से कम 50-60 दिनों तक आसमान साफ़ और  वातावरण का तापमान 40 डिग्री से.ग्रे. से अधिक रहता है . जलभराव वाली भुमिओं के लिए यह तकनीक उपयुक्त नहीं रहती है .



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