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सोमवार, 20 मार्च 2017

सफल पशु पालन के लिए जरुरी है वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन

डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक-सह-प्रमुख वैज्ञानिक
सस्यविज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)


                    भारत देश की कुल सकल आय का 15-16 प्रतिशत आय पशुधन से प्राप्त होती  है। पशु पालन एवं दुग्धोत्पादन की  सफलता मुख्य रूप से उत्तम नश्ल के दुधारू पशुओं  एवं पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक हरे  चारे की उपलब्धता पर निर्भर करती है । विश्व के कुल पशुधन का छठा भाग भारत में होने  के बावजूद दुग्ध उत्पादन  में हमारा बीसवां हिस्सा है । भारत में कृषि योग्य भूमि के मात्र 4 % क्षेत्र में चारा फसलों की खेती की जाती है। अधिकांश किसान देशी नश्ल के पशु (गाय, भैंस, बकरी आदि) का पालन करते है।  इन पशुओं का जीवन निर्वाह सूखे अपौष्टिक चारे (कड़वी, भूषा, धान का पुआल) आदि पर निर्भर करता है जिसके परिणामस्वरूप उनकी उत्पादकता निम्न स्तर पर बनी हुई है। पशुपालन व्यवसाय मुख्यतः संतुलित हरे चारे पर निर्भर करता है । हरा चारा पशुपालन के  लिए आवश्यक पोषक तत्वों का एक मात्र  सुलभ एवं सस्ता स्त्रोत  है । जनसंख्या एवं पशुसंख्या में निरन्तर वृध्दि को ध्यान में रखते हुए हरा चारा उत्पादन का महत्व और  भी बढ़ जाता है क्योंकि  मानव व पशुओं  के मध्य आवश्यक पोषक  तत्वों  की प्रतिस्पर्धा को  कम करने का एक मात्र  विकल्प चारा उत्पादन ही है। भारत में दुग्ध¨त्पादन व्यवसाय  की प्रमुख समस्या प्रचुर मात्रा में  दूध प्रदान करने वाले पशु धन को  पर्याप्त मात्रा  में पौष्टिक एवं स्वादिष्ट  हरा चारा उपलब्ध कराना है । अतः कम लागत पर अधिक दूध प्राप्त करने के लिए प्रचुर मात्रा में  हरा एवं पौष्टिक  चारे की महत्वपूर्ण भूमिका है। विश्व के अन्य देशों  की अपेक्षा हमारे देश में गाय और   भैसों  की संख्या सर्वाधिक है परन्तु ओसत  दुग्ध उत्पादन बहुत कम है। 
               छत्तीसगढ़ में गायों  की संख्या अधिक है परन्तु उनसे औसतन  500 ग्राम  से कम दुग्ध उत्पादन होता  है। हरा चारा, दाना की कमी के कारण इनकी  उत्पादन क्षमता कम रहती है। अनाज के उत्पादन के फलस्वरूप बचे हुए अवशेष  से भूसा तथा पुआल पर हमारे पशुओं  की जीविका निर्भर करती है। इन सूखे चारों  में  कार्बोहायड्रेट  को छोड़कर  अन्य  आवश्यक   पोषक   का नितान्त अभाव रहता है। पशु की दुग्ध उत्पादन की आनुवंशिक क्षमता के अनुरूप दूध का उत्पादन प्राप्त करने  के लिए उसके शरीर को  स्वस्थ रखने की आवश्यकता के साथ-साथ समुचित दूध उत्पादन के लिए पशु क¨ संतुलित आहार देने की आवश्यकता ह¨ती है । ल्¨किन ग्रामीण परिवेश में जो  चारा तथा दाना पशुओं को  दिया जाता है, उसमें प्रोटीन, खनिज लवण तथा विटामिन्स का नितांत अभाव पाया जाता है । वनस्पति जगत में इन तत्वों  का सबसे सस्ता एवं आसान स्त्रोत  हरा चारा ही है।  
                        भारत में बढ़ते हुए जनसंख्या दबाव के कारण अधिकांश कृषिय¨ग्य भूमि में खाद्यान्न, दलहन, तिलहनी फसलों तथा व्यावसायिक फसलों  यथा गन्ना, कपास आदि को  उगाने में प्राथमिकता दी जाती है। देश की कुल कृषिय¨ग्य भूमि का मात्र  4.4 प्रतिशत अंश ही चारे की खेती  में उपयोग होता  है। इस प्रकार लगभग 90 प्रतिशत पशुओं को  हरा चारा नसीब नहीं हो  पाता है। हरे चारे के विकल्प के रूप में जो पोषक  तत्व दाने, खली, चोकर  आदि से दिए जाते है, उससे दूध की उत्पादन लागत बढ़ जाती है । से पशुओं  के आहार में हरे चारे का नितान्त अभाव रहता है जिसके कारण औसत  दुग्ध उत्पादन बहुत कम प्राप्त ह¨ रहा है। भारत के योजना आयोग  के अनुसार वर्ष 2010 में देश में 1061 मिलियन टन हरे एवं 589 मिलियन टन सूखे चारे  की अनुमानित मांग थी जबकि 395.2 मिलियन टन हरा चारा और   451 मिलियन टन सूखे  चारे की आपूर्ति हो सकी थी  । इस प्रकार 63.5 प्रतिशत हरे व 23.56 प्रतिशत सूखे चारे की कमी महशूस की गई। आने वाले वर्षों  में चारा उपलब्धता में बढ़ोत्तरी  की संभावना कम ही नजर आती है। हरे चारे की ख्¨ती एवं चारागाहों  से आच्छादित कुल क्षेत्र  से वर्तमान में हमारे पशुओं को  45 से 60 प्रतिशत हरे  व सूखे  चारे की आवश्यकता की पूर्ति हो  पा रही है। सूखे  एवं हरे चारे की कमी को  पूरा करने के लिए इनके उत्पादन एवं उपलब्धता को  3-4 गुना बढ़ाना होगा । इस लक्ष्य को  प्राप्त करने के लिए दो  प्रमुख उपाय है:
1. देश में अकृषि और बंजर पड़ी जमीनों  में आवश्यक सुधार कर उनमें चारा फसलों की खेती प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है तभी इन फसलों  के अन्तर्गत  क्षेत्र बढ़ाया जा सकता है। 
2. चारा फसलों की उन्नत तरीके से खेती कर प्रति हेक्टर चारे की पैदावार में वृद्धि से भी कुल चारा उत्पादन में वृद्धि संभावित है। 
चारा फसलों  के अन्तर्गत वर्तमान में उपलब्ध   क्षेत्रों की प्रति इकाई उत्पादकता   और अन्य बेकार पड़ी जमीनों  में  इन फसलों के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार से ही  चारे की कमी की कमीं को काफी हद  तक पूरा किया जा सकता है । चारा फसलों का प्रति इकाई  उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक है:
1. अधिक उत्पादन क्षमता के आधार पर चारा फसलों की उन्नत किस्मों के बीजों की उपलब्धता समय पर होना चाहिए  ।
2. चारा फसलों के उगाने के लिए उन्नत कृषि तकनीक का उपय¨ग किया जाय ।
3. चारा फसलों से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन लेने के लिए  इनमे भी संतुलित पोषक तत्वों  का उपयोग किया जाना आवश्यक है  ।
4. इन फसलों में भी आवश्यक जल प्रबन्ध व पौध  संरक्षण उपाय भी अपनाना चाहिए ।
5 . सूखा सहन करने वाली चारा फसलों एवम उनकी उन्नत  किस्मों  की खेती को बढ़ावा देना चाहिए  ।

वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन के उपाय 

उपलब्ध सीमित संसाधनों  का कुशलतम उपयोग  करते हुए वर्ष पर्यन्त हरा एवं पौष्टिक  चारा उत्पादन के लिए निम्न  विधियों को व्यवहार में लाने की आवश्यकता है  ।
1.चारा उत्पादन की ओवरलैपिंग फसल पद्धति 
2. रिले  क्रापिंग पद्धति
3. पौष्टिक हरे  चारे की अधिक उपज के लिए मिश्रित/अंतराशस्य पद्धति 
4. अन्न वाली फसलों  के बीच रिक्त स्थानों  में चारा उत्पादन
5. खाद्यान्न फसलों  के बीच के खाली समय में चारा उत्पादन
चारा उत्पादन की ओवरलैपिंग फसल पद्धति  
               सघन डेयरी  के लिए चारा उत्पादन की आदर्श सस्य विधि वह है जिससे कि प्रति इकाई क्षेत्र  एवं समय में अधिकतम पौष्टिक  चारा उत्पादन किया जा सके । इस उद्देश्य को  ध्यान में रखते हुए वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन की विधि विकसित की गई है जिसे परस्पर व्यापी (ओवरलैपिंग  क्रापिंग) फसल पद्दति कहते है । इस पद्धत्ति  की प्रमुख विशेषताएं  हैः
1. अक्टूबर के प्रथम पखवारे में खेत को अच्छी प्रकार से  तैयार कर बरसीम की वरदान या जवाहर बरसीम-2 किस्म की बुवाई करनी चाहिए । खेत  की तैयारी या बुवाई के समय ही बरसीम के लिए 20 किग्रा. नत्रजन और  80 किग्रा. फॉस्फोरस   प्रति हेक्टर की दर से देनी चाहिए।
2. प्रथम कटाई में अच्छी उपज के लिए बरसीम के बीज में दो किग्रा  प्रति हेक्टर की दर से जापानी सरसों  का बीज मिला कर बोना चाहिए ।
3. समतल क्यारियों  में पानी भर कर मचाकर (गंदला कर) बरसीम की बुवाई करना उत्तम पाया गया है ।
4. जब तक पौधे  में अच्छी प्रकार से स्थापित न हो  जाए तब तक 2-3 बार हल्की सिंचाई 4-5 दिन के अन्तर पर करना चाहिए। इसके बाद शरद में 15 दिन तथा बसंत में 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करना चाहिए ।
5. बरसीम की पहली कटाई 45-50 दिन  पर एवं बाद की कटाईयां 25-30 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए। फरवरी के प्रथम पखवारे तक बरसीम की तीन कटाईयां ल्¨ने के बाद संकर नैपियर घास के जड़दार कल्लों (कटिंग) को  1-1 मीटर के अन्तर पर कतारों  में लगाना चाहिए । कतारों में पौध से पौध के बीच  दूरी 30-35 सेमी. रखनी चाहिए।
6. मार्च के अन्त में बरसीम की अंतिम कटाई करने  के बाद नैपियर घास की दो कतारों  के मध्य की भूमि तैयार करके उसमें लोबिया  की दो कतारे बोना  चाहिए।
7. गर्मी में 10-12 दिन के अन्तर से सिंचाई करते रहना चाहिेए।
8. जून मध्य तक ल¨बिया की कटाई करने के बाद नैपियर की कतारों  के बीच की भूमि तैयार करके उसमें 50 किग्रा नत्रजन  100 किग्रा फॉस्फोरस एवं 40 किग्रा पोटाश  प्रति हैक्टर की दर से देना चाहिए।
9. नैपियर की कटाई 45-50 दिन पर करनी चाहिए एवं प्रत्येक कटाई के बाद भूमि की उर्वरा शक्ति के अनुसार 40 किल¨ नत्रजन  प्रति हेक्टर की दर से देना चाहिए।
10. नवम्बर के प्रथम सप्ताह में पुनः   पूर्व की भांति बरसीम की बुवाई करनी चाहिए एवं गर्मी में ल¨बिया की बुवाई करना चाहिए।
11. दूसरे वर्ष के आरम्भ में खाद देते समय फास्फ¨रस की मात्र्ाा आधी कर देना चाहिए ।
12. तीसरे वर्ष नवम्बर में बरसीम की बुवाई से पहल्¨ नैपियर की पुरानी जड़ो  की छटाई कर देनी चाहिए जिससे बरसीम बढ़वार के लिए पर्याप्त जगह मिल सकें। 
             इस प्रकार उपरोक्त  तकनीक से प्रथम वर्ष में 2800, द्वितिय वर्ष में 2300 एवं तृतीय वर्ष में 1700 क्विंटल प्रति हेक्टर चारा प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार प्रतिदिन क्रमशः  ।7.6, 6.3 4.65 क्विंटल प्रति  हेक्टर औसत  पैदावार प्राप्त हो सकती  है जिसमें  8-10 लीटर दूध देने वाले  5-6 दुधारू पशु पाले  जा सकते है । अधिक हरा चारा उत्पादन होने पर अतरिक्त हरे चारे को  साइलेज  या हे के रूप में संरक्षित रखकर उसका उपयोग  चारा कमी के समय में किया जा सकता है। उपरोक्त सघन  फसल चक्र में आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी किया जा सकता है जैसे संकर हाथी घास(नैपियर) के स्थान पर गिनी घास लगाई जा सकती है। बरसीम की जगह रिजका (लूर्सन) लगाया जा सकता है। ल¨बिया के स्थान पर ग्वार लगा सकते है। फसलों  का चयन स्थान विशेष  की जलवायु व भूमि की किस्म के हिसाब से करना अच्छा रहता है। इसके अलावा नैपियर घास के मध्य कतारों  की दूरी भी बढ़ाई जा सकती है जिससे आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रयोग  आसानी से किया जा सकें ।
ओवरलैपिंग पद्धति से लाभ 

1. इस पद्धति से वर्ष  पर्यन्त  पौष्टिक  हरा चारा प्राप्त होता रहता है ।
2. दलहनी फसलों  से खेत  की उर्वरा शक्ति में बढ़त होती है ।
3. नैपियर (हाथी घास) आसानी से खेत में स्थापित हो कर लंबे समय तक हरा चारा देती है ।

वर्ष भर हरा चारा प्राप्त करने का चारा कैलेंडर  

माह                               उपलब्ध हरे चारे
जनवरी                  बरसीम, रिजका, जई, मटर, तिवउ़ा,सरसों
फरवरी                 बरसीम, रिजका, जई, मटर, नैपियर, पैरा घास
मार्च                      गिनीघास, रिजका, बरसीम, नैपियर घास ,सेंजी
अप्रैल                    नैपियर घास, ज्वार, दीनानाथ घास, बाजरा, मक्का,लोबिया, ग्वार
मई                      मक्का, ज्वार, बाजरा, दीनानाथ घास, नैपियर, गिनी घास, ल¨बिया
जून                      मक्का, ज्वार, बाजरा, नैपियर, गिनी घास, ग्वार
जुलाई                   ज्वार, मक्का, बाजरा, ल¨बिया, ग्वार, नैपियर, गिनी घास
अगस्त                  मक्का, ज्वार, बाजरा, दीनानाथ घास, नैपियर, गिनी घास, लोबिया
सितम्बर              सुडान घास, मक्का, ज्वार, बाजरा,  नैपियर, गिनी घास, लोबिया
अक्टूबर              सुडान घास, नैपियर, गिनी घास, पैरा घास, मक्का, ज्वार, लोबिया
नवम्बर                नैपियर घास, सुडान घास, मक्का, ज्वार, सोयाबीन
दिसम्बर              बरसीम , रिजका, जई, नैपियर, सरसों, शलजम

वर्ष भर हरा चारा ब¨ने एवं चारा उपलब्धता की समय सारिणी 

चारा फसलें      बोने का समय चारे की उपलब्धता कटाई संख्या चारा उपज (क्विंटल/हेक्टेयर)
लोबिया                 मार्च से जुलाई           मई से सितम्बर             1                175-200
ज्वार(बहु-कटाई)  अप्रैल से जुलाई          जून से अक्टूबर          2-3                500-600
म्क्का                     मार्च से जुलाई           मई से सितम्बर            1                200-250
बाजरा                    मई से अगस्त            जून से अक्टूबर           1                200-250
मकचरी                 मार्च से जुलाई            मई से अक्टूबर           2-3                500-600
बरसीम                 अक्टूबर से नवम्बर      दिसम्बर से अप्रैल       4-5                700-1000
जई                       अक्टूबर से दिसम्बर     जनवरी से मार्च           1-2                200-250
रिजका                 अक्टूबर से नवम्बर        दिसम्बर से अप्रैल       5-6                500-600
नैपियर घास          फरवरी से सितम्बर     जाड़े के अलावा पूरे वर्ष  7-8             1500-2000
गिनी घास             मार्च से सितम्बर          जाडे के अलावा पूरे वर्ष   6-7             1200-1500

रिले  क्रापिंग पद्धति से हरा चारा उत्पादन      

         रिले  फसल पद्धति  के अन्तर्गत एक वर्ष में 3-4 फसलों को  एक के बाद दूसरी  चरण वद्ध रूप से उगाया जाता है । इस विधि में सिंचाई, खाद-उर्वरक  की अधिक आवश्यकता एवं कृषि कार्यों  की अधिकता होती है परंतु पशुओं के लिए वर्ष भर पौष्टिक हरा चारा भरपूर मात्रा में उपलब्ध होता है। 
रिले  क्रापिंग के प्रमुख फसल चक्र
मक्का + लोबिया-मक्का + गुआर -बरसीम +सरसों 
सुडान घास + लोबिया-बरसीम + जई
संकर नैपियर + रिजका
मक्का + लोबिया-ज्वार + लोबिया-बरसीम- लोबिया
ज्वार + लोबिया-बरसीम + जई

पौष्टिक हरे  चारे की अधिक उपज के लिए अपनाएँ  मिश्रित खेती  

             आमतौर  पर किसान भाई ज्वार, मीठी सुडान, मक्का, बाजरा आदि एक दलीय चारा फसलें कुछ क्षेत्र  उगाते है जिससे उन्हें पशुओं के लिए  हरा एवं सूखा चारा पर्याप्त मात्रा  में मिलता है । परन्तु इन चारों  में प्रोटीन  काम मात्रा में पाया जाता है। । इन एक दलीय चारा फसलों  की तुलना में  द्वि -दलीय चारा फसलों  यथा लोबिया,  ग्वार, बरसीम  आदि में  प्रोटीन और अन्य पोषक तत्त्व प्रचुर  मात्रा में पाए जाते है परन्तु इनसे अपेक्षाकृत  चारा उत्पादन कम होता है। अनुसंधान से ज्ञात होता  है कि एक दलीय एवं द्वि- दलीय चारा फसलों को मिश्रित अथवा  अन्तः फसल के  (2:2 कतार अनुपात)  रूप में बोने  से अधिक मात्रा में पौष्टिक हरा  चारा  प्राप्त किया जा सकता है।   अंतः फसली खेती की तुलना में  मिश्रित खेती  में चारा उत्पादन कम होता  है । शोध परीक्षणों से  ज्ञात हुआ है कि खाद्यान्न  के लिए उगाई जाने वाली ज्वार, मक्का या बाजरा की दो  कतारों  के मध्य रिक्त स्थान में लोबिया की एक कतार लगायी जाए और  40-45 दिन पर उसकी कटाई कर ली जाए तो ज्वार की पैदावार की पैदावार बढ़ने के साथ - साथ  लगभग 100 क्विण्टल  प्रति हेक्टर लोबिया से हरा चारा प्राप्त हो जाता है । इसके अलावा भमि की उर्वरा शक्ति में भी सुधार होता है। 
खाद्यान्न फसलों  के बीच के खाली समय में चारा उत्पादन की तकनीक 
                प्रायः उत्तर भारत में बरसात के पूर्व मई-जून में तथा बरसात के बाद अक्टूबर-नवम्बर में चारे की उपलब्धता में बहुत कमी होती है । चारे की इस कमी के समय को  लीयन पीरियड कहते है । इस  समय चारे की कमी को  पूरा करने के लिए निम्न उपाय किये जा सकते है। 
1. रबी की फसल की कटाई के बाद (मई-जून) एवं खरीफ की फसल ब¨ने के पहल्¨ शीघ्र तैयार होने वाली चारे की फसलें  उगाई जानी चाहिए ।
2. इस मौसम  में चारे के लिए मक्क + लोबिया , चरी + लोबिया , बाजरा + लोबिया  की मिलवां खेती  से 250-300 क्विंटल हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है ।
3. इसी प्रकार शीघ्र तैयार ह¨ने वाली ज्वार, बाजरा या भुट्टे के लिए उगायी गयी मक्का के काटने के बाद एवं गेहूं की बुवाई के बीच भी काफी समय बचता है । इस समय शीघ्र तैयार ह¨ने वाली फसलों  जैसे जापानी सरसों  शलजम आदि लगाकर हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है ।
भारत में कुल दुग्ध उत्पादन का 50 फीसदी से ज्यादा हिस्सा ऐसे दुधारू पशुओं  से आता है जिन्हे या  तो भरपेट चारा नही मिलता या फिर जिनके भोजन  में आवश्यक पौष्टिक तत्वों  का अभाव रहता है ।
पशुधन विकास के लिए छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा चारा विकास के लिए योजनाएं 
             छत्तीसगढ़ सहित देश के सभी राज्यों में पशुधन विकास के लिए राज्य सरकारों  द्वारा पशुनश्ल सुधार कार्यक्रम संचालिच किया जा रहा है जिसके अच्छे परिणाम आ रहे है । पशुओं को वर्ष भर पौष्टिक हरा चारा उपलब्ध  कराने के उद्देश्य से राज्य सरकारों  द्वारा चारा विकास कार्यक्रम संचालित किये जा रहे है जिसके तहत पशुधन विभाग द्वारा पशुपालकों को मौसम  के अनुसार चारा फसलों  के बीज जैसे ज्वार, मक्का, स्वीट सुडान, लोबिया , ग्वार, बरसीम, रिजका आदि के बीजों  की मिनीकिट निःशुल्क पदान किये जा रहे है । इसके अलावा विभाग द्वारा पंचायत स्तर पर सामूहिक रूप से चारागाह विकसित करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित  करने आर्थिक मदद एवं तकनीकी मार्गदर्शन भी  दिया जा रहा है । 
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