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सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

उर्वरको में मिलावट की जाँच कैसे करें


                                      उर्वरको में मिलावट की जाँच कैसे करें 

खेती-किसानी  मे प्रयोग किए  जाने वाले कृषि निवेशो में  उर्वरक सबसे महँगा कृषि आदान  है, जिसका   फसल उत्पादन बढाने  में 15-50 प्रतिशत का योगदान रहता  है। अनेक  क्षेत्रों में उर्वरकों की सीमित उपलब्धता और काला बाजारी से स्तरहीन उर्वरकों की बिक्री आदि के कारण कुछ  उर्वरक विनिर्माता फैक्ट्रियों तथा विक्रेताओं द्वारा नकली एवं मिलावटी उर्वरक बनाकर बाजार मे बेचने लगते हैं। बहुधा किसान भाई को शिकायत रहती है की भरपूर खाद-उर्वरक उपयोग करने के बावजूद भी उपज में वांछित बढोत्तरी अर्थात मुनाफा नही हो रहा है। इसकी प्रमुख वजह घटिया-स्तरहीन उर्वरको का प्रयोग ही है। यह सच है की घटिया या  मिलावटी उर्वरको के उपयोग से फसलों के उत्पादन मे गिरावट आती है। उर्वरक उपयोग से वांछित लाभ तभी मिल सकता है जब उनमे पोषक तत्वों की सही मात्रा उपलब्ध हो। अतः किसान भाईओं को  बाजार में उपलब्ध उर्वरकों का  परीक्षण कर उर्वरक क्रय करना चाहिए, जिससे मिलावट की धोखाधड़ी से बचा जा सकता है ।

प्रमुख उर्वरकों मे सामान्य पदार्थो र्की मिलावट

उर्वरक मिलावटी पदार्थ
यूरिया साधारण नमक, म्यूरेट, आफ पोटाश
डी.ए.पी. सुपर फास्फेट, राक फास्फेट, एन.पी.के.मिश्रण, चिकनी मिट्टी
सुपर फास्फेट क्ले मिट्टी, जिप्सम की गोलियाँ
एम.ओ.पी. बालू, साधारण नमक
जिंक सल्फेट मैग्नीशियम सल्फेट

                                       उर्वरको में  मिलावट : परिक्षण  की विधियाँ 


1.यूरिया-46 % नत्रजन 

        यह प्रमुख पोषक तत्व नत्रजन प्रदान करने वाला उर्वरक है जिसमे 45-46 प्रतिशत नत्रजन तत्व पाया जाता है। कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक मात्रा में इस उर्वरक का उपयोग किया जाता है। प्रतिवर्ष फसल बोआई के समय यूरिया की बाजार में कमी देखी जाती है जिसके कारण कई विक्रेता घटिया अथवा मिलावटी यूरिया किसानो को बेच देते हे जिससे किसान को बांछित लाभ नही हो पाता है। अतः यूरिया खाद खरीदने से पहले उसकी गुणवत्ता की जांच करना उचित होता है। यूरिया के सुधिकरण की जाँच निम्न प्रकार से की जा सकती है।
1. शुद्ध यूरिया चमकदार, लगभग समान आकार के दाने वाला, पानी में पूर्णतया घुल जाना, घोल को छूने पर शीतल की अनुभूति, गर्म तवे पर रखने से पिघल जाना, आँच (लौ) तेज करने पर कोई अवशेष न बचना, आदि सामान्य बातें हैं।
2. एक  ग्राम यूरिया (उर्वरक) परखनली में लें तथा 5 मिली. आसुत जल मिलायें और पदार्थ को घोलें एवं 5-6 बूँद सिल्वर नाइट्रेट घोल मिलायें, दही जैसा सफेद अवशेष का बनना यह प्रदर्शित करता है कि पदार्थ मिलावटी है। किसी भी अवशेष का न बनना शुद्ध यूरिया को बताएगा।
3. एक चम्मच यूरिया परखनली में लें तथा पिघलने तक गर्म करें, ठंडा होने पर 1 मि.ली.पदार्थ पानी में घोलें तथा बूँद-बूँद कर 1 मि.ली. बाई यूरेट घोल मिलाये,गुलाबी रंग आता है, तो यूरिया शुद्ध है और यदि गुलाबी रंग नहीं आता है तो समझें मिलावट है।
4. हथेली पर थोड़ा पानी लें, 2 मिनट बाद जब हथेली और पानी का ताप अनुरूप (एकसा) हो जाये तब 10-15 दानें यूरिया के डालें, शुद्ध यूरिया का घोल स्वच्छ होगा, यदि सफेद अवशेष आता है तो यूरिया मिलावटी है।

2. डाय अमोनियम फॉस्फेट  (डी.ए.पी .) -18 % नत्रजन व 46% फॉस्फोरस 

              यह यूरिया के बाद सर्वाधिक मात्रा  में उपयोग में लाया जाने वाला महत्वपूर्ण उर्वरक है जिसमे 18 % नत्रजन और 46 % फॉस्फोरस पाया जाता है। इसके सुधिकरण की जांच निम्नानुसार की जा सकती है। 
1. सामान्यतः शुद्ध डी.ए.पी. के दानो का आकार एकदम गोल नहीं होता, डी.ए.पी. के दानो को गर्म करने या जलाने पर दाने साबूदाने की भांति फूलकर लगभग दोगुने आकार के हो जायें तो वह शुद्ध होगा। डी.ए.पी. के दानों को लेकर फर्श पर रखें, फिर जूते के तले से रगड़ें, शुद्ध डी.ए.पी. के दाने आसानी से नहीं टूटेते, यदि आसानी से टूट-फुट जायें तो डी.ए.पी. में मिलावट है।
2. डी.ए.पी.में नाइट्रोजन की जाँच के लिए 1 ग्राम पीसे डी.ए.पी. में चूना मिलायें, सूँघने पर यदि अमोनिया की गंध आती है तो डी.ए.पी. में  नाइट्रोजन उपस्थित है यदि नही तो डी.ए.पी. मे मिलावट हो सकती है।
3. एक ग्राम पिसा नमूना परखनली में लें, 5 मि.ली. आसुत जल (डिस्टिल्ड वाटर ) मिलायें और हिलायें, फिर 1 मिली. नाइट्रिक अम्ल मिलायें,फिर हिलायें, यदि यह घुल जायें एवं घोल अर्ध-पारदर्शी हो जायें तो डी.ए.पी. शुद्ध है यदि कोई पदार्थ अघुलनशील बचता है, तो मिलावट है।
4. एक ग्राम पिसा हुआ  नमूना लें तथा 5 मि.ली. आसुत जल में घोलें, हिलाये, फिल्टर पेपर से छाने, उस फिल्ट्रेट में 1 मिलीलीटर सिल्वर नाइट्रेट घोल मिलायें, पीले अवक्षेप का बनना । जो 5-6 बूँद नाइट्रिक एसिड को मिलाने पर घुल जाये तो पदार्थ मे फास्फेट उपस्थित है और डी.ए.पी. शुद्ध है। यदि अवक्षेप सफेद है तो मिलावट है।

3.म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (एम.ओ.पी.)- 60 % पौटाश 

           अधिकाँश भारतीय मिट्टियो में पोटाश तत्व की कमी नही रहती है फिर भी संतुलित उर्वरक उपयोग के लिए नत्रजन और फॉस्फोरस के साथ पोटेशियम युक्त उर्वरक मसलन म्यूरेट ऑफ़ पोटाश देने की अनुसंशा की जाती है। इसकी सुधता की परख निम्नानुसार की जा सकती है।
1. एक  ग्राम उर्वरक परखनली में लें, 5 मिली आसुत जल मिलायें व अच्छी तरह हिलायें अधिकांश उर्वरक धुल जाये तथा कुछ अघुलनशील कण पानी की सतह पर तैरें तो शुद्ध पोटाश (एम.ओ.पी.) होगी, यदि अधिकांश अघुलनशील पदार्थ परखनली के तले पर बैठ जाये तो समझे उर्वरक मे मिलावट है।
2. शुद्ध पोटाश (एम.ओ.पी.) पानी में पूर्णतया घुलनशील, रंगीन पोटाश (एम.ओ.पी.) का लाल भाग पानी पर तैरता है यदि ऐसा है तो पोटाश (एम.ओ.पी.) शुद्ध है अन्यथा नहीं, शुद्ध पोटाश (एम.ओ.पी.) के कण नम करने पर आपस में चिपकते नहीं।
3. एक चम्मच उर्वरक को 10 मिली,जल में घोंले, निथरे भाग से 2 मि .ली.घोल में 2 मि.ली. तनु 
हाइड्रो क्लोरिक एसिड का  घोल मिलायें, इसमे 1 मि.ली. बेरियम क्लोराइड मिलाने पर यदि स्वच्छ घोल बनता है तो उर्वरक शुद्ध है और यदि सफेद अवक्षेप है तो समझे  मिलावट है।

4. सिंगल सुपर फास्फेट (एस .एस . पी .)-16 % फॉस्फोरस 

       नत्रजन के बाद दूसरा आवश्यक पोषक तत्व है तथा फसलो की उपज बढाने में कारगर सिद्ध हो चूका है। इसकी सुधता की जांच निम्नानुसार की जा सकती है।
1. दानेदार पाउडर, काला भूरा आदि रंगों में से एक दाना हथेली पर रगड़ने से आसानी से टूट जाये तो शुद्ध है।
2. 1 ग्राम उर्वरक परखनली में लें, 5 मिली. आसुत जल मिलायें तथा अच्छी तरह हिलाये और छानें तथा 5-6 बूँद सिल्वर नाइट्रेट घोल मिलायें यदि पीला यदि पीला अवक्षेप है एवं घुल जाये तो फास्फेट की उपस्थिति है, यदि नहीं तो पदार्थ संदिग्ध है।
3. आधे चम्मच उर्वरक को 5 मिली. आसुत जल में घोलें, ऊपरके निथरे भाग को दूसरी परखनली में लेकर 15-20 बूँदें सिल्वर नाइट्रेट के घोल को मिलायें, हल्का दूधिया अवक्षेप प्राप्त होता है, इसमें 2-3 बूँद तनु कास्टिक सोडा मिलाने पर पीला  अवक्षेप आता है तो उर्वरक शुद्ध है यदि ऐसा नहीं होता तो शुद्ध समझें।

5. जिंक सल्फेट

    सूक्ष्म पोषक तत्व जिंक प्रदान करने वाला यह उर्वरक है। धान-गेंहू फसल चक्र वाले क्षेत्रो में इस तत्त्व की कमी देखी जा रही है। इसकी सुधता की जांच निम्नानुसार की जा सकती है।
1. एक  ग्राम उर्वरक परखनली में लें, 5 मि .ली . आसुत जल मिलायें, अच्छी तरह हिलायें, फिल्टर पेपर में छाने 8-10 बूँद तनु सोडियम हाइड्राक्साइड का  घोल मिलायें, सफेद पदार्थ बनता है, तब 10-12 बूंदें सांद्र सोडियम हाइड्राक्साइड घोल मिलायें अगर अवक्षेप घुल जायें तो पदार्थ शुद्ध है अन्यथा नहीं।
2. पानी में घुलनशील लेकिन इसका घोल यूरिया या एम.ओ.पी. की तरह ठंडा नही होता तो शुद्ध पदार्थ है।
3. डी.ए.पी. के घोल मे जिंक सल्फेट के घोल को मिलाने पर थक्केदार घना अवक्षेप बन जाता है, जबकि मैग्नीशियम सल्फेट के साथ ऐसा नहीं होता।

फसलोत्पादन मे पोषक तत्वो के कार्य व कमी के लक्षण

                                                                      डॉ . गजेन्द्र सिंह तोमर

                                         प्रमुख  पोषक तत्वो के कार्य व कमी के लक्षण

                जीव जगत में जिस तरह से प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन निर्वाह करने के लिए कुछ पोषक तत्वों की आवश्कता होती है, उसी तरह से पौधों को भी अपनी वृद्धि, प्रजनन, तथा विभिन्न जैविक क्रियाओं के लिए कुछ पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है । इन पोषक तत्वों के उपलब्ध न होने पर पौधों की वृद्धि रूक जाती है यदि ये पोषक तत्व एक निश्चित समय तक न मिलें तो पौधों की मृत्यु आवश्यम्भावी हो जाती है । पौधे भूमि से जल तथा खनिज-लवण शोषित करके वायु से कार्बन डाई-आक्साइड प्राप्त करके सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में अपने लिए भोजन का निर्माण करते हैं । फसलों के पौधों को प्राप्त होने वावली कार्बन-डाई-आक्साइड तथा सूर्य के प्रकाश पर किसान या अन्य किसी का नियन्त्रण सम्भव नहीं हैं लेकिन कृषक फसल को प्राप्त होने वाले जल तथा खनिज-लवणों को नियन्त्रित कर सकता है । वैज्ञानिक परीक्षणो के आधार पर 17 तत्वों को पौधो के लिए आवश्यक निरूपित किया गया है, जिनके बिना पौधे की वृद्धि-विकास तथा प्रजनन आदि क्रियाएं सम्भव नहीं हैं। इनमें से मुख्य तत्व कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन , नाइट्रोजन, फॉस्फोरस  और पोटाश है। इनमें से प्रथम तीन तत्व पौधे वायुमंडल से ग्रहण कर लेते हैं। नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पोटाश को पौधे अधिक मात्रा में ग्रहण करते हैं अतः इन्हें खाद-उर्वरक के रूप में प्रदाय करना आवश्यक है। इसके अलावा कैल्सियम, मैग्नीशियम और सल्फर की आवश्यकता कम होती है अतः इन्हें गौण पोषक तत्व के रूप मे जाना जाता है इसके अलावा लोहा, तांबा, जस्ता, मैंग्नीज, बोरान, मालिब्डेनम, क्लोरीन व निकिल की पौधो को अल्प मात्रा में आवश्यकता होती है। पौधों के लिए आवश्यक महत्पूर्ण पोषक तत्वो के कार्य व कमी के लक्षण प्रस्तुत हैं।
(1) नत्रजन के प्रमुख कार्य
नाइट्रोजन से प्रोटीन बनती है जो जीव  द्रव्य का अभिन्न अंग है  तथा पर्ण हरित के निर्माण में भी भाग लेती है । नाइट्रोजन का पौधों की वृद्धि एवं विकास में योगदान इस तरह से है-
;1.    यह पौधों को गहरा हरा रंग प्रदान करता है । 
;2.     वानस्पतिक वृद्धि को बढ़ावा मिलता है ।  
;3.     अनाज तथा चारे वाली फसलों में प्रोटीन की मात्रा बढ़ाता है । 
;4.     यह दानो  के बनने में मदद करता है ।   

नत्रजन-कमी के लक्षण
1. पौधों मे प्रोटीन की कमी होना व हल्के रंग का दिखाई पड़ना । निचली पत्तियाँ पड़ने लगती है, जिसे क्लोरोसिस कहते हैं।
2. पौधे की बढ़वार का रूकना, कल्ले कम बनना, फूलों का कम आना।
3. फल वाले वृक्षों का गिरना। पौधों का बौना दिखाई पड़ना। फसल का जल्दी पक जाना।
(2) फॉस्फोरस  के कार्य
1. फॉस्फोरस  की उपस्थिति में कोशा विभाजन शीघ्र होता है। यह न्यूक्लिक अम्ल, फास्फोलिपिड्स व फाइटीन के निर्माण में सहायक है। प्रकाश संश्लेषण में सहायक है।
2. यह कोशा की झिल्ली, क्लोरोप्लास्ट तथा माइटोकान्ड्रिया का मुख्य अवयव है।
3. फास्फोरस मिलने से पौधों में बीज स्वस्थ पैदा होता है  तथा बीजों का भार बढ़ना, पौधों में रोग व कीटरोधकता बढती है.
 4.फास्फोरस के प्रयोग से जड़ें तेजी से विकसित तथा सुद्दढ़ होती हैं । पौधों में खड़े रहने की क्षमता बढ़ती है ।
5. इससे फल शीघ्र आते हैं, फल जल्दीबनते है व दाने शीघ्र पकते हैं।
6. यह नत्रजन के उपयोग में सहायक है तथा फलीदार पौधों में इसकी उपस्थिति से जड़ों की ग्रंथियों का विकास अच्छा होता है ।
फॉस्फोरस-कमी के लक्षण
1. पौधे छोटे रह जाते हैं, पत्तियों का रंग हल्का बैगनी या भूरा हो जाता है।फास्फोरस गतिशील होने के
    कारण पहले ये लक्षण पुरानी (निचली) पत्तियों पर दिखते हैं । दाल वाली फसलों में
    पत्तियां  नीले हरे रंग की हो जाती हैं ।
2. पौधो की जड़ों की वृद्धि व विकास बहुत कम होता है कभी-कभी जड़े सूख भी   जाती हैं ।  
3. अधिक कमी में तने का गहरा पीला पड़ना, फल व बीज का निर्माण सही न होना।
4. इसकी कमी से आलू की पत्तियाँ प्याले के आकार की, दलहनी फसलों की पत्तियाँ नीले रंग की तथा चौड़ी  पत्ती वाले पौधे में पत्तियों का आकार छोटा रह जाता है।
(3) पोटैशियम के कार्य
1. जड़ों को मजबूत बनाता है एवं सूखने से बचाता है। फसल में कीट व रोग प्रतिरोधकता बढ़ाता है। पौधे को गिरने से बचाता है।
2. स्टार्च व शक्कर के संचरण में मदद करता है। पौधों में प्रोटीन के निर्माण में सहायक है।
3. अनाज के दानों में चमक पैदा करता है। फसलो की गुणवत्ता में वृद्धि करता है । आलू व अन्य सब्जियों के स्वाद में वृद्धि करता है । सब्जियों के पकने के गुण  को   सुधारता है । मृदा में नत्रजन के कुप्रभाव को दूर करता है।
पोटैशियम-कमी के लक्षण
1. पत्तियाँ भूरी व धब्बेदार हो जाती हैं तथा समय से पहले गिर जाती हैं।
2. पत्तियों के किनारे व सिरे झुलसे दिखाई पड़ते हैं।
3. इसी कमी से मक्का के भुट्टे छोटे, नुकीले तथा किनारोंपर दाने कम पड़ते हैं। आलू में कन्द छोटे तथा जड़ों का  विकास कम हो जाता है
4. पौधों में प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया कम तथा श्वसन की क्रिया अधिक होती है।
(4) कैल्सियम के कार्य
1. यह गुणसूत्र का संरचनात्मक अवयव है। दलहनी फसलों में प्रोटीन निर्माण के लिए आवश्यक है।
2. यह तत्व तम्बाकू, आलू व मूँगफली के लिए अधिक लाभकारी है।
3. यह पौधों में कार्बोहाइड्रेट संचालन में सहायक है।
कैल्सियम-कमी के लक्षण
1. नई पत्तियों के किनारों का मुड़ व सिकुड़ जाना। अग्रिम कलिका का सूख जाना।
2. जड़ों का विकास कम तथा जड़ों पर ग्रन्थियों की संख्या में काफी कमी होना।
3. फल व कलियों का अपरिपक्व दशा में मुरझाना।
(5) मैग्नीशियम के कार्य
1. क्रोमोसोम, पोलीराइबोसोम तथा क्लोरोफिल का अनिवार्य अंग है।
2. पौधों के अन्दर कार्बोहाइड्रेट संचालन में  सहायक है।
3. पौधों में प्रोटीन, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट तथा वसा के निर्माण मे सहायक है।
4. चारे की फसलों के लिए महत्वपूर्ण है।
मैग्नीशियम-कमी के लक्षण
1. पत्तियाँ आकार में छोटी तथा ऊपर की ओर मुड़ी हुई दिखाई पड़ती हैं।
2. दलहनी फसलों में पत्तियो की मुख्य नसों के बीच की जगह का पीला पड़ना।
(6) गन्धक (सल्फर) के कार्य
1. यह अमीनो अम्ल, प्रोटीन (सिसटीन व मैथिओनिन), वसा, तेल एव विटामिन्स के निर्माण में सहायक है।
2. विटामिन्स (थाइमीन व बायोटिन), ग्लूटेथियान एवं एन्जाइम 3ए22 के निर्माण में भी सहायक है। तिलहनी फसलों में तेल की प्रतिशत मात्रा बढ़ाता है।
3. यह सरसों, प्याज व लहसुन की फसल के लिये आवश्यक है। तम्बाकू की पैदावार 15-30प्रतिशत तक बढ़ती है।
गन्धक-कमी के लक्षण
1. नई पत्तियों का पीला पड़ना व बाद में सफेद होना तने छोटे एवं पीले पड़ना।
2. मक्का, कपास, तोरिया, टमाटर व रिजका में तनों का लाल हो जाना।
3. ब्रेसिका जाति (सरसों) की पत्तियों का प्यालेनुमा हो जाना।
(7) लोहा (आयरन) के कार्य
1. लोहा साइटोक्रोम्स, फैरीडोक्सीन व हीमोग्लोबिन का मुख्य अवयव है।
2. क्लोरोफिल एवं प्रोटीन निर्माण में सहायक है।
3. यह पौधों की कोशिकाओं में विभिन्न ऑक्सीकरण-अवकरण क्रियाओं मे उत्प्रेरक  का कार्य करता है। श्वसन क्रिया में आक्सीजन का वाहक है।
लोहा-कमी के लक्षण
1. पत्तियों के किनारों व नसों का अधिक समय तक हरा बना रहना।
2. नई कलिकाओं की मृत्यु को जाना तथा तनों का छोटा रह जाना।
3. धान में कमी से क्लोरोफिल रहित पौधा होना, पैधे की वृद्धि का रूकना।
(8) जस्ता (जिंक) के कार्य
1. कैरोटीन व प्रोटीन संश्लेषण में सहायक है।
2. हार्मोन्स के जैविक संश्लेषण में सहायक है।
3. यह एन्जाइम (जैसे-सिस्टीन, लेसीथिनेज, इनोलेज, डाइसल्फाइडेज आदि) की क्रियाशीलता बढ़ाने में सहायक है।  क्लोरोफिल निर्माण में उत्प्रेरक  का कार्य करता है।
जस्ता-कमी के लक्षण
1. पत्तियों का आकार छोटा, मुड़ी हुई, नसों मे निक्रोसिस व नसों के बीच पीली धारियों का दिखाई पड़ना।
2. गेहूँ में ऊपरी 3-4 पत्तियों का पीला पड़ना।
3. फलों का आकार छोटा व बीज कीपैदावार का कम होना।
4. मक्का एवं ज्वार के पौधों में बिलकुल ऊपरी पत्तियाँ सफेद हो जाती हैं।
5. धान में जिंक की कमी से खैरा रोग हो जाता है। लाल, भूरे रंग के धब्बे दिखते हैं।
(9) ताँबा (कॉपर ) के कार्य
1. यह इंडोल एसीटिक अम्ल वृद्धिकारक हार्मोन के संश्लेषण में सहायक है।
2. ऑक्सीकरण-अवकरण क्रिया को नियमितता प्रदान करता है।
3. अनेक एन्जाइमों की क्रियाशीलता बढ़ाता है। कवक रोगो के नियंत्रण में सहायक है।
ताँबा-कमी के लक्षण
1. फलों के अंदर रस का निर्माण कम होना। नीबू जाति के फलों में लाल-भूरे धब्बे अनियमित आकार के दिखाई देते हैं।
2. अधिक कमी के कारण अनाज एवं दाल वाली फसलों में रिक्लेमेशन नामक बीमारी होना।
(10) बोरान के कार्य
1. पौधों में शर्करा के संचालन मे सहायक है। परागण एवं प्रजनन क्रियाओ में सहायक है।
2. दलहनी फसलों की जड़ ग्रन्थियों के विकास में सहायक है।
3. यह पौधों में कैल्शियम एवं पोटैशियम के अनुपात को नियंत्रित करता है।
4. यह डी.एन.ए., आर.एन.ए., ए.टी.पी. पेक्टिन व प्रोटीन के संश्लेषण में सहायक है
बोरान-कमी के लक्षण
1. पौधे की ऊपरी बढ़वार का रूकना, इन्टरनोड की लम्बाई का कम होना।
2. पौधों मे बौनापन होना। जड़ का विकास रूकना।
3. बोरान की कमी से चुकन्दर में हर्टराट, फूल गोभी मे ब्राउनिंग या खोखला तना एवं तम्बाखू में टाप-     सिकनेस नामक बीमारी का लगना।
(11) मैंगनीज के कार्य
1. क्लोरोफिल, कार्बोहाइड्रेट व मैंगनीज नाइट्रेट के स्वागीकरण में सहायक है।
2. पौधों में आॅक्सीकरण-अवकरण क्रियाओं में उत्प्रेरक का कार्य करता है।
3. प्रकाश संश्लेषण में सहायक है।
मैंगनीज-कमी के लक्षण
1. पौधों  की पत्तियों पर मृत उतको के धब्बे दिखाई पड़ते हैं।
2. अनाज की फसलों में पत्तियाँ भूरे रग की व पारदर्शी होती है तथा बाद मे उसमे ऊतक गलन रोग पैदा होता है। जई में भूरी चित्ती रोग, गन्ने का अगमारी रोग तथा मटर का पैंक चित्ती रोग उत्पन्न होते हैं।
(12) क्लोरीन के कार्य
1. यह पर्णहरिम के निर्माण में सहायक है। पोधो में रसाकर्षण दाब को बढ़ाता है।
2. पौधों की पंक्तियों में पानी रोकने की क्षमता को बढ़ाता है।
क्लोरीन-कमी के लक्षण
1. गमलों में क्लोरीन की कमी से पत्तियों में विल्ट के लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
2. कुछ पौधों की पत्तियों में ब्रोन्जिंग तथा नेक्रोसिस रचनायें पाई जाती हैं।
3. पत्ता गोभी के पत्ते मुड़ जाते हैं तथा बरसीम की पत्तियाँ मोटी व छोटी दिखाई पड़ती हैं।
(13) मालिब्डेनम के कार्य
1. यह पौधों में एन्जाइम नाइट्रेट रिडक्टेज एवंनाइट्रोजिनेज का मुख्य भाग है।
2. यह दलहनी फसलों में नत्रजन स्थिरीकरण, नाइट्रेट एसीमिलेशन व कार्बोहाइड्रेट मेटाबालिज्म क्रियाओ में सहायक  है।
3. पौधों में विटामिन-सी व शर्करा के संश्लेषण में सहायक है।
मालिब्डेनम-कमी के लक्षण
1. सरसों जाति के पौधो व दलहनी फसलों में मालिब्डेनम की कमी के लक्षण जल्दी दिखाई देते हैं।
2. पत्तियों का रंग पीला हरा या पीला हो जाता है तथा इसपर नारंगी रंग का चितकबरापन दिखाई पड़ता है।
3. टमाटर की निचली पत्तियों के किनारे मुड़ जाते हैं तथा बाद में मोल्टिंग व नेक्रोसिस रचनायें बन जाती हैं।
4. इसकी कमी से फूल गोभी में व्हिपटेल एवं मूली मे प्याले की तरह रचनायें बन जाती हैं।
5. नीबू जाति के पौधो में माॅलिब्डेनम की कमी से पत्तियों मे पीला धब्बा रोग लगता है।

बुधवार, 30 जनवरी 2013

भारत में खाद्यान्न सुरक्षा के मायने


भारत में खाद्यान्न सुरक्षा की सार्थकता 
डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
               आधुनिक विज्ञान और  सूचना-संचार क्रांति के  इस युग में हम विकास की नित नई इबारत लिख रहे  है । हमारी धरती से हर किसी का पेट भरने लायक अनाज भी पैदा होने लगा  है । परंतु फिर भी संसार के  85 करोड़  से भी ज्यादा नर-नारी और  बच्चे हर रोज  भूखे पेट सोने के  लिए विवश है। हजार-करोड़  बच्चे कुपोषण के  कारण काल कवलित होते  जा रहे है । व्यापक अन्नोत्पादन के बाबजूद सबको भरपूर भोजन नही मिल पा रहा हे। पौष्टिक भोजन तो अब बीते युग की बात लगती हे।  चूक कहां है ? मानवता पर भूख का यह कलंक क्यों  लग रहा है ? विकास की सुनहरी  इबारते गढ़ने के  बाबजूद भी बेरोजगारी, मंहगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी और  भुखमरी अपने चरम पर आखिर क्यों  है । खाद्य पदार्था की कीमतो  में हो  रही बेतहासा बृद्धि और  आसन्न भुखमरी के खिलाफ राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लड़ाई के लिए संगठित प्रयास भी हो रहे है । सन 1996 में आयोजित विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन में राज्यो  और  सरकारो  के  अध्यक्षों  नें घोषणा की थी कि हर किसी को पौष्टिक और  पर्याप्त भोजन  मिलना एक अधिकार है ताकि सबको  भूख से मुक्ति मिल सके । सभी ने एक मत हो कर  विश्व के नक़्शे  से हमेशा के लिए भूख का खात्मा करने की वचनबद्धता व्यक्त की थी। परन्तु 16 वर्ष बीतने के  बाद भी स्थिति में अपेक्षित सुधार नजर नहीं आ रहा है । मानव अधिकारों की वैश्विक घोषणा (1948) का अनुच्छेद 25 (1) कहता है कि हर व्यक्ति को अपने और अपने परिवार को बेहतर जीवन स्तर बनाने, स्वास्थ्य की स्थिति प्राप्त करने, का अधिकार है जिसमें भोजन, कपड़े और आवास की सुरक्षा शामिल है।खाद्य एवं कृषि संगठन ने 1965 में अपने संविधान की प्रस्तावना में घोषणा की कि मानवीय समाज की भूख से मुक्ति सुनिश्चित करना उनके बुनियादी उद्देश्यों में से एक है।
        कभी सोने  की चिढ़िया कहलाने वाला भारत आज गरीबी, मुखमरी, भ्रष्टाचार और  मंहगाई से  क्यों परेशांन हाल में दिख रहा है, इस पर विचार  विमर्श करना हम सब का कर्तव्य  है । आज से 176 वर्ष पूर्व  लॉर्ड मैकाले ने संपूर्ण भारत का दौरा  करने के पश्चात्  ब्रिटेन के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमंस में  अपने महत्वपूर्ण वक्तव्य में कहा था कि  भारत में मैंने किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा जो भिखारी हो, जो चोर हो, इसका मतलब ये हुआ इंग्लेण्ड में उस समय भिखारी और चोर रहे होंगे । जाहिर है कि 1835 में भारत में न तो भुखमरी और न  न ही गरीबी थी। गरीबी नहीं तो चोरी की संभावना भी नहीं रहती है। भारत छोड़ने के  पूर्व 1947 में अग्रेजो  ने एक सर्वे कराया था जिसमे कहा गया था कि भारत में 4 करोड़ लोग गरीब है । देश में पहली पंच वर्षीय योजना (1952) लागू करते  समय देश में वास्तविक गरीबों की संख्या 16 करोड़ थी। आंकड़ों के तराजू में भारत की गरीबी को कई बार तोला गया है। आश्चर्यजनक पहलू यह है कि आंकड़ों के परिणाम एकदम विरोधाभासी रहे है। भारत सरकार द्वारा नियुक्त प्रोफेसर अर्जुन सेनगुप्त आय¨ग(2007) के अनुसार भारत की 115 करोड़ की जनसँख्या में से 77 प्रतिशत ( लगभग 83 करोड  70 लाख) लोग बहुत गरीब हैं । एक दिन में खर्च करने के लिए इनक¢ पास 20 रूपये भी नहीं है और इन 84 करोड़ में से 50 करोड़ ऐसे हैं जिनके पास खर्च करने के लिए 10 रूपये भी नहीं है, 25 करोड़ के पास खर्च करने के लिए 5 रुपया भी नहीं है और बाकी के पास 50 पैसे भी नहीं है खर्च करने के लिए। एशियाई विकास बैंक के अनुसार यह आंकड़ा 62.2 प्रतिशत बनता है। गरीबों की गिनती के लिए मापदण्ड तय करने में जुटे विशेषज्ञों के समूह की बात यदि सरकार स्वीकार करे तो देश की 50 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा से नीचे (बीपीएल) पहुंच जाएगी।  सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समूह ने बीपील का पैमाना तय करने कैलोरी खपत को आधार बनाने का सुझाव दिया तथा यह माना कि 2400 कैलोरी के पुराने मापदण्ड को आधार बनाया गया तो देश में बीपीएल की आबादी 80 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। इसके  उलट योजना आयोग ने तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट को आधार मानकर करीब  38 फीसदी आबादी को ही गरीबी रेखा से नीचे माना है । अभी हाल ही में 21 सितंबर, 2011 को  योजना आयोग ने देश की सबसे बड़ी अदालत में जो हलफनामा पेश किया है, उसमें बताया गया है कि खान पान में शहर¨ं में 965 रूपये और  गाँवो  में 781 रूपये प्रतिमाह खर्च करने वाले को  गरीब नहीं माना जा सकता । इस प्रकार शहर में 32 रूपये और  गाँव में 26 रूपये प्रतिदिन खर्च करने वाला व्यक्ति बी.पी.एल. परिवार को  मिलने वाली सुविधा पाने का हकदार नहीं है । भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने प्रत्येक कामकाजी आदमी को प्रतिदिन 50 ग्राम दाल, 200 ग्राम सब्जी, 520 ग्राम अनाज, 45 ग्राम तेल और 200 ग्राम दूध का सेवन आवश्यक बताया है। इस आधार पर वर्ष 2010 में एक थाली की कीमत 35.95 रूपये थी जो  कि वर्तमान में 62 रूपये में मिल रही है । अब जरा स¨चिये कि 26 रूपये में तो  गांव के  गरीब को  एक वक्त का आधा पेट भर भोजन का भी इंतजाम नहीं ह¨ सकता है । ऐसे में गरीबो  की थाली खाली रहना स्वाभाविक है । यह विडंबना नहीं त¨ क्या है कि आजादी क¢ 64-65 साल और  11 पंचवर्षीय योजनाओ के  बावजूद भी हम न तो  गरीबी को  ठीक तरह परिभाषित कर सके  है और  न ही देश में गरीबो  की सही संख्या का आंकलन कर पाये है ।
          अक्सर कहा जाता है कि जनसंख्या बढ़ने से गरीबी और  भुखमरी बढ़ती है । आइये देखते है कि यह तर्क कितना सही है और  कितना गलत । आजादी के  समय हमारे यहाँ गरीबों की संख्या 4 करोड़ थी अब उस स्तर के गरीबों की संख्या 84 करोड़ हो गयी है मतलब आबादी बढ़ी  3.5 गुना लेकिन गरीब बढ़ गए 21 गुना । परन्तु स¨चने की बात है गरीबों के अनुपात में आबादी के हिसाब से वृद्धि होनी चाहिए थी, अर्थात गरीबों की संख्या में भी 3.5 गुनी वृद्धि होनी चाहिए थी । जाहिर है कि हमारे देश में आज 2011 मे 14 -15 करोड़ से ज्यादा गरीब नहीं होने चाहिए थे ?  इसी अवधि में अनाज का उत्पादन लगभग छः गुना बढ़ा है, मतलब आबादी बढ़ी साढ़े तीन गुनी और अनाज उत्पादन में वृद्धि हुई छः गुनी, फिर भूख और गरीबी से क्यो  त्रस्त है हमारे देश के लोग? हां आबादी बढ़ती पाँच गुना और अनाज उत्पादन में वृद्धि होती तीन गुना तो मैं मान लेता कि भुखमरी होने का कारण जायज है। जब इन 64 वर्ष में औद्योगिक उत्पादन में दस गुनी वृद्धि हुई है तो  फिर देश में बेरोजगारों की इतनी बड़ी फौज कैसे खड़ी हो गयी है ?  कहीं न कहीं नीतियों के स्तर पर देश के  नीति निर्माताओ और   सरकार से चूक हुई है जो गरीबी, भुखमरी और बेकारी रोकने में असफल रही है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे । महान अर्थशास्त्री माल्थस के  सिद्धांत अनुसार जिस देश में जनसँख्या ज्यादा होगी वहाँ गरीबी ज्यादा होगी, बेकारी ज्यादा होगी। इस सिद्धांत को यूरोप के देशों ने ही नकार दिया है परन्तु दुर्भाग्य से  हम लोग वही सिद्धांत पढ़ते-पढ़ाते आ रहे है । भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जिसकी जनसँख्या बढ़ी है । दुनिया के हर देश की जनसँख्या कई गुना बढ़ी है । अमेरिका की जनसँख्या पिछले 60 वर्षों में ढाई गुना बढ़ी है, ब्रिटेन सहित यूरोप की जनसँख्या तो पिछले 60 सालों में तीन गुना बढ़ी है, लेकिन इसी अवधि में उनके यहाँ अमीरी बढ़ गयी है एक हजार गुनी। स¨चने की बात है कि अमेरिका और यूरोप में जनसँख्या बढ़ने से पिछले साठ सालों में अमीरी आती है तो भारत में जनसँख्या बढ़ने से गरीबी क्यों आनी चाहिए और अगर भारत में जनसँख्या बढ़ने से गरीबी आती है तो यूरोप और अमेरिका में भी जनसँख्या बढ़ने से गरीबी आनी चाहिए थी ? क्योंकि सिद्धांत हमेशा सार्वभोमिक होते हैं, सिद्धांत कभी किसी देश की सीमाओं में नहीं बंधा करते। आप को  यह जानकर हैरानी होगी कि चीन की सरकार तो यह मानती है कि जितने ज्यादा हाथ उतना ज्यादा उत्पादन और उसने ये सिद्ध कर के दुनिया को दिखाया भी है । तो भारत में ये सिद्धांत कि जितने ज्यादा हाथ तो उतना ज्यादा उत्पादन क्यों नहीं चल सकता? उसका एक कारण ये है कि चीन की सरकार ने अपनी सारी व्यवस्था को ऐसे बनाया है जिसमे अधिक से अधिक लोगों को काम मिल सके और भारत सरकार ने अपनी व्यवस्था को ऐसे बनाया है जिसमे कम से कम लोगों को काम मिल सके। बस इतना ही फर्क है। 
             बढ़ती मंहगाई और  घटती खाद्यान्न उपलब्धता के  परिप्रेक्ष्य में कृषि की दशा और दिशा को समझना आवश्यक है । स्वतन्त्रता के  समय भारत अकाल, सूखा, गरीबी और भुखमरी से पीड़ित ऐसा देश था, जिसे अमेरिका से गेंहू आयात कर अपनी जनता के पेट की आग बुझानी पड़ी थी । साठ के  दशक में    भारतीय अर्थव्यवस्था को  शिप-टु-माउथ खाद्यान्न अर्थव्यवस्था कहा जाता था, अर्थात उस समय जहाज से उतरने वाला गेंहू सीधे भूखे लओगो के  पेट तक जाता था । वर्ष 1966 से 1970 के दौरान  भारत ने हरित क्र्रांति को  अपनाया जिसने भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था की दिशा एवं दशा बदल दी और  देश के किसानों का पसीना खेतों में मोती बन उगने लगा और देश न सिर्फ खाद्य आत्मनिर्भरता की दहलीज पर आकर खड़ा हो गया बल्कि अपनी एक अरब की जनसंख्या का पेट भरने के बाद दूसरे देशों को निर्यात करने की भी स्थिति में आ गया। देश का कुल खाद्यान्न उत्पादन 51 मिलियन टन (1950-51) से बढ़कर 218.20 मिलियन टन (2010-11) तक पहुँच गया है । भरपूर फसल उत्पादन के  बावजूद भी प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की घटती उपलब्धतां हम सबके  लिए चिन्ता और   चिन्तन का विषय बनी हुई है। विगत दो  दशको  से भारतीय कृषि संक्रमण काल से गुजर रही है । भारत में वर्ष 1990-91 में अनाज की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता 468 ग्राम थी वह वर्ष 2005-06 में घटकर 412 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई। विश्व में सबसे अधिक क्षेत्रों में दलहनी खेती करने वाला देश भी भारत ही है। दाल की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता वर्तमान में 31 ग्राम प्रति दिन प्रति व्यक्ति क¢ आस पास है जबकि 1961 में एक व्यक्ति को   69.0 ग्राम दाल मिला करती थी । देश में 39 प्रतिशत आबादी को  पौष्टिक भोजन, 48 प्रतिशत को  कम पौष्टिक तथा 20 प्रतिशत को  अब मात्र प्राण रक्षा हेतु ही भोजन मिल पाता है । सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान आजादी के समय के 51 प्रतिशत से घटकर वर्तमान में मात्र 18 प्रतिशत रह गया है और रोजगार में हिस्सेदारी 72 फीसदी से घटकर 52 फीसदी पर पहुंच गई है । भारत के पास दुनिया की कुल 2.4 प्रतिशत जमीन है, पर दुनिया की आबादी का करीब 18 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है । खेती लायक जमीन सिर्फ अमेरिका में हमसे ज्यादा है और जल क्षेत्र सिर्फ कनाडा और अमेरिका में अधिक है, फिर भी देश में आज कृषि की खस्ता हाल में है । कृषि य¨ग्य भूमि दिन-प्रतिदिन घट रही है । हमारे यहां प्रति व्यक्ति 0.3 हेक्टेयर कृषि भूमि है जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा 11 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है । कृषि के आवश्यक साधनों की उपलब्धता भी विश्व के औसत की तुलना में चार से छठवें हिस्से के बराबर है । कृषि के लिए आवश्यक प्राकृतिक साधनों की उपलब्धता लगातार घट रही है जबकि सूखा व बाढ़ जैसी आपदाओं का प्रकोप बढ़ता जा रहा है । इस दौरान कृषि को मिलने वाले बजट में भी कमी होती गई। अब सीधा सा हिसाब है कि अगर निवेश घटेगा तो स्वाभाविक तौर पर उस क्षेत्र का विकास बाधित हो जाएगा। वैश्विक जलवायु परिवर्तन जैसी बड़ी आपदा भी कृषि के भविष्य के लिए चुनौती बन गई है, इससे देश में कृषि की स्थिति अ©र भी दयनीय हो गयी है । इसका सबसे ज्यादा प्रभाव किसानों पर पड़ा है । इसक¢ अलावा जब से देश में तथाकथित ‘आर्थिक उदारवाद’ की बयार बहनी शुरू हुई है तब से किसानों का जीवन और मुश्किल हो गया है। यही कारण है कि किसानों की आत्महत्याओं के मामले बढ़ गये हैं । इस मामले में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ अग्रणी हैं ।  वर्ष 2020 तक देश की जनसंख्या  132 करोड़ तक पहुँचने का अनुमान है । उस समय देश को  कुल मिलाकर 375 मिलियन टन खाद्यान्नों  (344.7 मिलियन टन अनाज तथा 30.3 मिलियन टन दालो ) की जरूरत होगी। ऐसी स्थिति में यदि भारत में खाद्यान्न फसलों की उत्पादकता तथा उत्पादन में सुधार करने के लिए तात्कालिक और दूरगामी कदम नहीं उठाये गये तो हमारी मांग को देखते हुए हमारा देश काफी पिछड़ जायेगा। देश में गंभीर खाद्य संकट पैदा हो जायेगा। यह खाद्य संकट राजनैतिक संकट का भी रूप लेगा और विकसित देश हमारी खाद्य आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादित खाद्य पदार्थ का प्रयोग राजनैतिक हथियार के रूप में करेंगे।  यह स्थिति हमारी आजादी और सम्प्रभुता दोनों पर हमला करेगी। इस दुष्चक्र से निकलने के  लिये केन्द्र तथा राज्य सरकारों को कृषि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने तथा किसानों की खेती से मोह भंग होने की स्थिति से पहले ही खेती किसानी को सर्वोच्च प्राथमिकता देने की ईमानदार पहल करनी होगी। 
                आखिर क्या बजह है कि रिकार्ड फसलोत्पादन के बावजूद खाद्यान्नो की महंगाई और  भूखे लोगो  की संख्या पिछले 2-3 सालो से लगातार बढती जा रही रही है । बढ़ती मंहगाई के  कारण आम आदमी दैनिक आवश्यकता के  अनुरूप खाद्यान्न क्रय नहीं कर पा रहा है ।इस दुनिया में भगवान का संतुलन कितना अजीब  है की  100 किलो ग्राम अनाज का बोरा   जो इंसान उठा सकता है, वह  उसे खरीद नहीं सकता और जो  खरीद सकता है वह  उसे उठा नहीं सकता ।  जाने माने अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन (1981) का मानना है कि ज्यादातर मामलों में भूख और अकाल अनाज की उपलब्धता की कमी के कारण नहीं पड़ते, बल्कि उनकी वजह असमानता और वितरण व्यवस्था की कमी होती है। दरअसल  आज कल पौष्टिक अनाजों यथा ज्वार, बाजरा, मक्का, कोदो , कुटकी, रागी आदि को  कच्चे माल के  रूप में शराब व जैव ईधन बनाने में प्रयुक्त कर अमीरों की मौज-मस्ती की पूर्ति की जा रही है। इस अमानवीय कृत्य में अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र ही नहीं भारत भी आगे बढ़ रहा है । ब्रिटेन की स्वयंसेवी संस्था ऑक्सफेम ने दुनिया में बढ़ रहे खाद्यान्न् संकट के सिलसिले में चेतावनी दी है कि अनाज से यदि शराब और इथेनॉल बनाना बंद नहीं किया गया तो 2030 तक खाद्यान्नों की मांग 70 फीसद बढ़ जाएगी और इनकी कीमतें आज के मुकाबले दोगुनी हो जाएंगी। भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो यह चेतावनी सच ही ठहर रही है । पिछले सात सालों  में खाद्यान्नों की कीमतें डेढ़ सौ से दो सौ फीसदी तक बढ़ चुकी हैं। अकेले महाराष्ट्र में अनाज से शराब बनाने वाली 270 भट्ठियों में रोजाना 75 हजार लीटर से डेढ़ लाख लीटर तक शराब बनाई जा रही है। ज्ञात हो  एक लीटर शराब बनाने के  लिए  तकरीबन 20-30 किलो अनाज को  सड़ाया जाता है । इसी तरह से अनाज वाली फसलो  से आजकल जैव ईधन अर्थात इथेनॉल का कारोबार भी हजारों टन का आंकड़ा पार कर गया है।  शराबी तथा मांसाहारियों की बढ़ती तायदात भी खाद्यान्न संकट की बड़ी वजह बन रही है। भारत में शराब पीने और मांस खाने वाले लोगों की संख्या  में निरन्तर बढत होती जा रही़ है। मध्यम और  गरीब वर्ग में मांसाहार तथा  शराबखोरी की लत अधिक देखी जा रही है । एक अनुमान के  मुताबिक भारतवर्ष 2013 तक रूस क¨ पीछे छोड़ते हुए चीन के  बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शराब का बाजार होगा । आज से 20 वर्ष पहले 300 भारतियो में से एक शराबी हुआ करता था और  अब प्रत्येक 20 में से एक आदमी शराब का शोकीन  है । वर्ष 2009 की स्थिति में 200 मिलियन केस शराब (एक केस में 12 बोतल अर्थात 9 लीटर शराब) और  195.5 मिलियन केस  (प्रत्येक केस  में 9.5 लीटर) बियर की खपत हुई । भारत में 23 हजार  दुकाने  एवं 10 हजार बार-रेस्तराओ  के  माध्यम से सरकार का यह व्यापार दिन दूनी रात चोगुनी रफ़्तार  से फल फूल रहा है । कुछ ऐसी ही वजहों से भारत में 20 प्रतिशत लोग भुखमरी का अभिशाप झेल रहे हैं। माना कि शराब उद्ययोग  से सरकार को मोटा  मुनाफा होता है परन्तु लाख-करोड़ो  परिवारो  का सुख-चैन और उनका   खुशियाँ छीनकर व्यवसाय करना-कराना कहां तक जायज है ? बकरे या मुर्गियों के पालन में जितना अनाज खर्च होता है, उतना अगर सीधे अनाज को ही भोजन के  रूप में उपयोग में लाया जाये तो वह कहीं ज्यादा भूखों की भूख मिटा सकता है। अध्ययन बताते है कि तीन महीने में एक मुर्गा जब तक आधा किलो मांस देने लायक होता है, तब तक इस अवधि में वह 10 से 12 किलो तक अनाज खा जाता है। यानी 12 किलो अनाज (कीमत 250-300 रूपये) के बदले मिलता है, महज आधा किलो मांस (कीमत 100-125 रूपये ) उपलब्ध हो पाता   है। बकरे और  सुअर आदि के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है। यह अनाज का न केवल दुरुपयोग है, बल्कि भूखो के  साथ क्रूर मजाक और  एक तरह की नाइंसाफी ही है। 
             खाद्यान्न के दाम बढ़ने के लिए अनाज पर बाजार का बढ़ता प्रभुत्व भी कम जिम्मेवार नहीं है। अप्रैल 2008 में जारी फेडरल बैंक आफ कंसास की रिपोर्ट बताती है कि अनाज पर बाजारवादी ताकतों का बढ़ता प्रभुत्व इसकी बढ़ती कीमतों के लिए सर्वाधिक जिम्मेवार है। साठ के दशक में खेत में पैदा होने वाले अनाज की कीमत और उपभोक्ता तक पहुंचने पर उसकी कीमत के बीच 59 फीसदी का फर्क होता था। जो अब बढ़कर अस्सी फीसदी हो गया है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाजारवादी ताकतें किस कदर अनाज की कीमतों के साथ खेल रही हैं। खाद्यान्न संकट और बढ़ती महंगाई के लिए विश्व बैंक की नीतियां भी कम द¨षी नहीं हैं। बीते चार दशक में विश्व बैंक ने जिन नीतियों को विकासशील देशों पर थोपा है उससे इन देशों की कृषि बदहाल हो गई है और किसान तबाही के  कगार पर खड़े है। वायदा बाजार भी विश्व बैंक की नीतियों की ही देन है। स¨ना चांदी जैसी अमूल्य वस्तुओ में वायदा व्यापार तो  समझ में आता है, इससे आम आदमी या गरीब का ज्यादा  वास्ता नहीं है परन्तु दैनिक उपभोग की अत्यावश्यक वस्तुओ  जैसे गेहूं, चावल, दाल, तेल, शक्कर आदि में भी इस गोरख धंधे ने अपने पांव पसार लिये है ।  इसमें अनाज के उत्पादन या उपलब्ध्ता से कहीं ज्यादा का वायदा कारोबार पहले ही हो जाता है। वास्तविकता में जब उतनी मात्रा में खाद्यान्न उपलब्ध ही नहीं होगा तो संकट का पैदा होना स्वभाविक है।एक आंकलन के  अनुसार भारत में सालाना करीब 40 हजार करोड़ से ज्यादा का वायदा व्यापार होता है। सूत्रों  से प्राप्त जानकारी के  अनुसार अकेले रायपुर शहर में यह वायदा कारोबार 500 करोड़  से अधिक है । दरअसल वायदा व्यापार के  माध्यम से उपभोक्ता वस्तुओ की जमाखोरी और  कालाबजारी के  अलावा विक्रय कर चोरी भी  बदस्तूर तरीके से जारी  रही है जिससे सरकार को  प्रति माह करोड़ो  रूपये के  राजस्व की हांनि हो  रही है । फलस्वरूप मंहगाई की मार हम सब भुगत ही रहे है । 
  खाद्यान्नो की महंगाई का एक कारण, बढ़ते उत्पादन के बावजूद उसके भण्डारण एवं वितरण की बदहाली भी हैं । भारतीय खाद्य निगम तथा राज्य सरकार की विभिन्न एजेंसियों की कुल भण्डारण क्षमता  विगत दस वर्ष से लगभग 370 लाख टन के  आस पास अटकी हुई  है । इसे बढाने की बजाय अब सरकार निजी भण्डारण क्षेत्रो  को प्रोत्साहित कर रही है । जाहिर है  निजी भण्डारण क्षमता का लाभ आमतौर पर निजी क्षेत्र के बड़े किसान व आढतिये, व्यापारी आदि ही ज्यादा उठाएंगे । खासकर काला बाजारी व जमाखोरी के लिए इनके संभावित दुरपयोग  से इनकार नहीं किया जा सकता । आम भारतीय किसान तो  इन भण्डार ग्रहो  में घुसने तक की जुर्रत नही कर  सकता है, भण्डारण करना तो  दूर है । निजी भंडारण को बढावा देने में भी सरकारी धन व छूटो का ही अधिकाधिक लाभ बहुराष्ट्रीय कंपनियां और  पूंजीपति ही उठा रहे है । इसके  बाबजूद अभी तक कुल भण्डारण क्षमता 910 लाख टन हो पायी है । याद रहे इन भण्डार ग्रहो  में तमाम कृषि उत्पादो यथा सब्जी, फल अनाज आदि को  रखा जाता है । देश में भण्डारण की कमी या फिर उपलब्ध भण्डार गृहो  का आम किसान की पहुंच से बाहर होने के  कारण भारत में पैदा होने वाले कुल अनाज का 20  से 30  प्रतिशत हिस्सा प्रति वर्ष नष्ट हो जाता है । किसानो के  खून पशीने से उपजे इस अन्न की बरवादी को  गंभीरता से  लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 27 जुलाई, 2010 को कहा कि जिस देश में हजारों लोग भूखे मर रहे हों, वहां अन्न के एक दाने की बर्बादी भी अपराध है । इसी तरह 12 अगस्त, 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर दोहराया  कि अनाज सड़ाने के बजाए केंद्र सरकार गरीब और भूखे लोगों तक इसकी आपूर्ति सुनिश्चित करे । देश की सर्वोच्च  अदालत के  इस फरमान को  सरकार एक सलाह समझ बैठी जिसके चलते अदालत को फिर कहना पड़ा कि यह आदेश है, सलाह नहीं है. तब तक 6.86 करोड़ का अनाज सड़ चुका था ।  
भारत के  सभी व्यक्तियो, विशेष रूप से निर्धनो को  खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के  लक्ष्य को लेकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली एक महत्वपूर्ण राज्य हस्तक्षेप कार्यक्रम है ज¨ वर्ष 1960 से संचालित है जिसके  तहत निर्धन तथा निर्धनतम परिवारो को  चिन्हित करके  उन्हे रियायती मूल्य पर खाद्यान्न मुहैया कराया जाता है । अनेक सर्वेक्षणों ने प्रदर्शित किया है कि गरीबी रेखा के नीचे के वर्गीकरण में दो तरह की खामियां हैं। पहली उनको बाहर रखना जो गरीब हैं और जिनके पास अपने को गरीब मनवाए जाने के लिए आवश्यक साधन नहीं है। दूसरी खामी यह है कि जो गरीब और इसके पात्र नहीं हैं, उनके नाम सूची में शामिल हो जाना क्योंकि वे प्रभावशाली होने के नाते यह करवा सकते हैं। इस प्रक्रिया में  50 से 60 प्रतिशत तक वास्तविक गरीब सूची से बाहर हो जाते हैं और दसियों लाख उन परिवारों को सरकारी सहायता प्राप्त अनाज मिलता रहता है जो इसके पात्र नहीं हैं। इन खामियों को कम से कम रखने का एकमात्र उपाय सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सर्वजनीकरण है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के  अतिरिक्त भारत सरकार द्वारा अनेको  निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम भी चलाये जा रहे है जिनमें खाद्य सुरक्षा के  घटक भी शामिल है । उदाहरण क¢ लिये काम के  बदले अनाज, दोपहर का भोजन, अन्तोदय अन्न योजना, खाद्य सुरक्षा मिशन आदि । लेकिन, इसके बावजूद देश में गरीबी घटने की बजाय, बढ़ी है। ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि योजनाओं का क्रियान्वयन निष्ठा व  ईमानदारी से नहीं ह¨ता है और योजनाओ  का लाभ जरूरतमंद अथवा पात्र हितग्राही तक नहीं पहँच पा रहा है। इस कटू सत्य को तो सरकार भी स्वीकार कर रही है कि इन योजनाओं के सौ में से मात्र 14 पैसे जरूरतमन्दों तक पहुंच पाते है । 
              आजादी के  बाद जो  नीतियां व व्यवस्था बनाई गई है जो गरीबी देती है, बेकारी देती है, भुखमरी देती है वो दुर्भाग्य से या तो  अंग्रेजों की बनाई हुई है या फिर भूमण्डीकरण व विश्व व्यापारीकरण की देन है जिनका हम अंधा अनुशरण करते आ रहे है और उस व्यवस्था के विरोधाभास हमको दिखाई तो देते हैं लेकिन उस व्यवस्था को ठीक करने का रास्ता नहीं दिखाई देता । इसलिए हम अपनी जनसँख्या और  अपने लोगों को ही हमेशा कोसते रहते हैं । व्यवस्था की गलती, नीतियो  की कमी हमको दिखाई देना बंद हो चुका है । ऐसी नीतियो  से गरीबी ही मिल सकती है, अमीरी नहीं मिल सकती और अगर अमीरी मिलेगी भी तो थोड़े लोगों को जो शायद एक प्रतिशत भी नहीं हैं, पूरे भारत की आबादी की। हो सकता है, भारत में एक करोड़ लोग बहुत अमीर हों लेकिन 99 करोड़ लोगों को आप हमेशा जीवन में संघर्ष करते हुए ही पाएंगे । हमारे देश में सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि 80 प्रतिशत संसाधन या फिर सरकारी सहायता का लाभ 20 प्रतिशत अमीर हड़प रहे है और  80 प्रतिशत आबादी 20 प्रतिशत संसाधनो  पर गुजर-बसर करने को  मजबूर है । मुंबई में एक उद्योगपति हैं जो अपनी पत्नी को जन्मदिन के तोहफे  के रूप में बोईंग विमान दे देते हैं और उसी मुंबई के  किसी कोने में एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी झोपड़ी भी है, जहाँ 100-100 वर्ग फिट के कच्चे कमरे में मानवता कराह रही हैं। अमीर भारत में गरीबी की इससे बढ़ी दरदे -दास्तान और  क्या हो  सकती है। इस प्रकार हम दावे से कह सकते है, मुश्किल हमारी व्यवस्था में है, लोगों में नहीं । हमें आशंका है कि बढ़ते भ्रष्टाचार, मंहगाई, गरीबी, भुखमरी से फैलते अंसतोष  और  सामाजिक-आर्थिक असमानता के  कारण कही हमें तीसरे विश्व महायुद्ध की विभीषिका से दो -चार न होना पड़ जाए ।
            भारत में सम्पूर्ण विकास के  नाम पर सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओ  की भरमार है जिनके  बारे में जनता अर्थात हितग्राहियो  को असल  जानकारी न होना सामान्य बात है परन्तु विभागीय अधिकारिओ  का योजना के  बारे में अनभिज्ञ रहना कोई आश्चर्य नही है। ऐसे में इन योजनाओ  का परिणाम जगजाहिर है । कृषि मंत्रालय के  अन्तर्गत केन्द्र प्रवर्तित 51 योजनाएं चल रही है जिनका कुल बजट 15 हजार करोड़ रूपये से अधिक का है । इन समस्त योजनाओ को  मात्र 10 योजनाओ  में इकजाई करने से बेहतर योजना प्रबंधन कर अनावश्यक खर्चा कम किया जा सकता है और  उत्तम समावेशी लाभ प्राप्त किया जा सकता है । गरीबी, भुखमरी और  महंगाई से आम आदमी को  राहत पहुँचाने के  लिए सबसे पहला कदम यह होना चाहिए कि जिन क्षेत्रों में लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल पा रहा है वहां तत्काल भो न उपलब्ध कराना आवश्यक है जिससे वे उत्पादक कार्य  में जुट सके । किसान और किसानी को यथाशीघ्र आवश्यक मदद के  रूप में उन्नत किस्म के  बीज, खाद-उर्वरक, कृषि उपकरण, पौध  संरक्षण दवाएं, और कृषि ऋण रियायती दर पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए । इसके  अलावा किसानो  को उनके  कृषि उत्पादो  का सरकारी मूल्य कृषि लागत के  आधार पर तय किया जाना आवश्यक है तभी खेती लाभ का सो दा हो सकेगी और  ग्रामीण नौजवान  खेती की तरफ उन्मुख होंगे  । गेहूं, चावल, मक्का, कपास, गन्ना क¢ साथ साथ दलहनी, तिलहनी और मोटे  अनाज वाली हमारी परंपरागत  फसलें जैसे ज्वार, बाजरा, कोदो , कुटकी, रागी आदि के  उत्पादन को  भी प्रोत्साहित  करते हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गेंहू-चावल के  साथ इन्हे भी शामिल करना आवश्यक है, जिससे खाद्य सुरक्षा के  साथ-साथ हमारी पोषण  सुरक्षा भी मजबूत हो सके । खाद्यान्न पर आधारित जैव ईंधन के उत्पादन पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने की जरूरत है ।  जैव ईंधन तैयार करने के  वैकल्पिक साधनो  जैसे बायोमास आदि का उपयोग  किया जा सकता है । कृषि योग्य भूमि का निरंतर घटना सबसे अधिक चिन्ता का विषय है । अतः सरकार को  चाहिए कि वह कृषि भूमि का गैर कृषि कार्य  में परिवर्तन पर अंकुश लगाएं । विशेष ओद्योगिक क्षेत्र बनाने के लिए कृषि योग्य भूमि कस उपयोग पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाना  चाहिए। मेरा तो सुझाव हे की अब भारत की सभी प्रादेशिक सरकारों को अपने अपने राज्यों में विशेष कृषि क्षेत्र स्थापित करना चाहिए जिसमे छोटे एवं मझोले किसानो के समूह बनाकर विविध कृषि करने उन्हें प्रेरित करना चाहिए। इसके अलावा प्रत्येक देश व् राज्यों  को अपने-अपने यहां अनाज का एक ऐसा रिजर्व तैयार करना चाहिए जिसका उपयोग अचानक पैदा होने वाले खाद्यान्न संकट से निपटने में किया जा सके। बाजार से अन्न व आवश्यक वस्तुओ  की जमाखोरी बढ़ रही है और कारोबारी भाव के साथ खेल रहे हैं। इससे अनाज के भाव बढ़ने से खाद्यान्न गरीबो  की पहुंच के  बाहर होते जा रहे है । इसलिए देश में महंगाई के  फलस्वरूप फैलने वाली  गरीबी और  भुखमरी को  कम करने के  लिए  वायदा बाजार पर प्रतिबंध लगाना बेहद जरूरी है। इन सब में सबसे अहम बात है कि भूखे को  भोजन देकर हम उसकी एक दिन की भूख मिटा सकते है परन्तु यदि उसे भोजन अर्थात अनाज  पैदा करने   की खातिर उन्हें   आधुनिक तौर  तरीके  सिखा देते है तो  उसके  जीवन भर की भूख मिट सकती है ।आज आवश्यकता है कि कृषि विज्ञान की तमाम उपलब्धियो को  देश के  हर गाँव व प्रतिएक  खेत तक पहुँचाने की, गांव के  नर-नारियो, बच्चे  एवं युवाओ को  कृषि उत्पादन की उन्नत  तकनीक के साथ  साथ कृषि में रोजगार के  वैकल्पिक साधनो के  बारे में शिक्षित-दीक्षित करने की । ऐसा करने से एक तरफ हमारी कृषि समृद्ध होगी वही दूसरी तरफ देश में अनुत्पादक कृषको  की संख्या में भी कमी होगी जिसके  फलस्वरूप ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार होगा।
               विकास की उपलब्धियो  से हम ताकतवर बन सकते है, महान नहीं । महान उस दिन बनेगें जिस दिन मंहगाई की मार से आम आदमी को  मुक्ति मिलेगी, जिस दिन कोई  भूखा नहीं सोएगा, जिस दिन कोई  बच्चा कुपोषित नहीं रहेगा, जिस दिन कोई  ग्रामीण अशिक्षित नहीं रहेगा और  जिस दिन सत्ता की कुर्सी पर कोई  राजा बन कर नहीं, सेवक बन कर बैठेगा । यह आदर्श स्थिति जिस दिन हमारे राष्ट्रीय चरित्र में आयेगी, उस दिन महानता हमारे सामने होगी  । फूलो  से इत्र बनाया जा सकता है, पर इत्र से फूल नहीं उगाए जाते । उसके  लिए बीज को   अपनी हस्ती मिटानी पड़ती है । देखिये जब देश की आजादी की लड़ाई चल रही थी तो पूरा भारत उस लड़ाई में नहीं लगा था चन्द लोगों ने उस लड़ाई को लड़ा और हमें आजादी हासिल हुई  । अब हमें स्वराज्य के लिए लड़ना होगा, स्वराज्य मतलब अपना राज्य, अपनी व्यवस्था, तभी हम सफल हो पाएंगे एक राष्ट्र के रूप में, और आप इसमें भारत की पूरी जनता से उम्मीद न कर सकते है कि वो इस महा यज्ञ में शामिल हो जायेगी । हां सभी गणमान्य नागरिको  के समर्थन की जरूरत अवश्य होगी। किसी जन-क्रांति के पहले एक वैचारिक क्रांति होती है । मैंने इस लेख के  माध्यम से उसी वैचारिक क्रांति के लिए ही भारतीय जनमानस को  प्रेरित करने का विनम्र  प्रयास किया है । 
जय किसान !जय जवान ! जय विज्ञान !
नोट : बगैर लेखक की अनुमति के पुनः प्रकाशित करना अपराध माना जाएगा। कृपया ध्यान रखें।

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

भारतीय कृषि के सतत विकास हेतु आवश्यक पहल


डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

       कृषि, भारतीय अर्थव्यवस्था का न केवल अभिन्न और सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है बल्कि यह देश की बहुत बड़ी आबादी के रोजगार, व्यवसाय और आय का साधन भी है। आज हम जिस युग में जी रहे हैं वह वैश्वीकरण का युग है। दुनिया भर के देश एवं लोग एक-दूसरे के काफी करीब आ रहे हैं और इसका प्रभाव औद्योगिक, व्यवसायिक या तकनीकी क्षेत्रों के साथ-साथ कृषि और कृषि पर आधारित अन्य क्षेत्रों पर भी व्यापक रूप से पड़ रहा है। कृषि के विश्व बाजार से जुड़ने से कृषि और किसानों को देश के भीतर और देश के बाहर भी एक नई तरह की प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन इसके साथ ही, यह समय कृषि और किसानों के सामने एक नया अवसर और संभावनाएं तलाशनें का भी मौंका देता है। किसानों के लिए बाजार को समझना बेहद जरूरी हो गया है। अगर अच्छा बाजार है तो उसके अनुसार कृषि उत्पादन के लिए आवश्यक उपाय करना अपनाना चाहिए और नई जगह मार्केट बनाने के लिए भी कोशिष करना चाहिए। 
इसमें कोई संदेह नहीं हैं कि हमारे देश ने कृषि शिक्षा, कृषि अनुसंधान और  कृषि की नई तकनीक तथा उन्नत प्रजाति के फसलों को विकसित करने में महत्वपूर्ण उपलब्धियां अर्जित की हैं। वर्ष 1951 में हमारे देश का खाद्यान्न उत्पादन मात्र 51 मिलियन टन था, जो कि वर्तमान में 227 मिलियन टन के आस-पास पहुंच गया है। ‘हरित क्रांति’ के माध्यम से भारत  ने खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर ली है। इसी तरह तिलहनों के लिए ‘पीत क्रांति’, दूध के लिए ‘श्वेत क्रांति’, मत्स्य उत्पादन के लिए ‘नीली क्रांति’ के साथ-साथ उद्यानिकी और पुष्प उत्पादन के क्षेत्र में रेखांकित की जाने वाली उपलब्धियों प्राप्त हुई है। इन उपलब्धियो  ने न केवल किसानों को लाभान्वित किया हैं बल्कि हमारे देश की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाया हैं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का सम्मान बढ़ाया है। 
परन्तु  जहां एक ओर कृषि उत्पादन लगातार बढ़ता दिख रहा हैं वहीं दूसरी ओर देश की बढ़ती हुई आबादी की मांग के अनुसार यह वृद्धि अपर्याप्त दिखाई देती है। वर्ष 1991 में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगभग 510 ग्राम थी, जोकि  वर्तमान में 421 ग्राम प्रति व्यक्ति रह गई है। इसी तरह दलहन के क्षेत्र में पहले जहां दालों की उपलब्धता 70 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन थी। यह क्रमशः गिरकर 50 ग्राम और अब मात्र 30 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई है। इसके कारण विशेषकर शाकाहारियों के लिए दैनिक आहार में प्रोटीन की उपलब्धता में कमी आने से कुपोषण जैसी समस्याए फ़ैल रही है जा की हम सब के लिए  चिंता और चिंतन का विषय  है। तिलहन उत्पादन में भी हम पीछे हैं। और हमें अपनी आवश्यकता का 35 से 40 प्रतिशत खाद्य तेल का आयात करना पड़ता है। दलहन और तिलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए केन्द्र शासन द्वारा विश्¨ष प्रयास किये जा रहे हैं। मै वैज्ञानिको  का आहवान करना चाहता हूँ कि चावल-गेहूँ की भांति दलहन-तिलहन तथा सब्जी उत्पादन के क्षेत्र  में भी क्रांति लाने के कारगर उपाय करें 
हमारे देश में जहां दो तिहाई आबादी कृषि पर आधारित है, परन्तु देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान लगातार कम होता जा रहा है। ग्रामीण भारत में भी लघु एवं सीमांत किसानों का बाहुल्य है जिनके पास उपलब्ध कास्तकारी का रकबा पीढ़ी दर पीढ़ी बंटवारे के कारण और छोटा होता जा रहा है। यह भी हमारे लिए चिंता और सोच का विषय है। कृषि का सतत विकास आज देश की प्रमुख आवश्यकता हैं क्योंकि इसके बिना हम अपने राज्य और देश की जो विकास दर चाहते हैं वह संभव नहीं है। यह जरूरी  है कि खेती-किसानी को और अधिक टिकाऊ एवं लाभकारी बनाया जाएं, कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता में तेज गति से वृद्धि हो तथा खाद्यान्न संबंधित सभी आवश्यकताएं देश में  ही पूरी हों। यह भी जरूरी हो गया है कि कृषि कार्य में युवाओं का रूझान बढ़े और इस क्षेत्र में कुशल संसाधन प्रबंधन से देश में सम्पन्नता बढ़ें। इसका महत्व समझा जाये इसे छोटा काम न समझा जाये। 
छत्तीसगढ़ की 80 प्रतिशत आबादी कृषि या कृषि आधारित कार्यों में संलग्न है।  प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र 137.87 हेक्टेयर का लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा या लगभग 47.99 लाख हेक्टेयर जमीन खेती योग्य है। इसी तरह राज्य का लगभग 12.3 लाख हेक्टेयर हिस्सा वनों से आच्छादित है। यह कुल भौगोलिक रकबा का लगभग 45 प्रतिशत है। प्रकृति ने छत्तीसगढ़ को खनिज स्त्रोतों एवं प्राकृतिक संपदा से भरपूर नवाजा है। लेकिन मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से अभी भी हम पीछे है। हमें ज्ञान-विज्ञान और कौशल के माध्यम से सामूहिक प्रयत्न करना है कि हम अपने प्रदेश को अग्रणी और विकसित राज्यों की सूची में सबसे ऊपरी पायदान में पहुंचा सकें। 
खेती में विविधता आवश्यक है। छत्तीसगढ़ में आम फसलों के साथ फल-फूल, सब्जियाँ, मसाले और औषधीय फसलों की खेती के साथ-साथ पशुपालन, कुक्कुट एवं मत्स्य पालन को भी समन्वित रूप से बढ़ावा दिया जाना जरूरी है। हमारे राज्य में उपजाऊ जमीन और पानी भरपूर होने के बाबजूद एक फसली क्षेत्र की प्रधानता है। जिन राज्यों मई फसल सघनता अधिक है वे आज संपन्न राज्यों की श्रेणी में सुमार है। छत्तीसगढ़ में भी  अब  आवश्कता है  एक फसलीय जमीन को  दो और तीन फसलीय खेती में तब्दील कर दिया जाए  तभी हमारे किसानो को वर्ष के   365 दिन भरपूर काम और अच्छी  आमदनी प्राप्त हो सकेगी। इससे न केवल हमारे किसान की आर्थिक दशा में सुधार होगा वरन गाँव से शहर की और ग्रामीणों का पलायन भी थम सकता है।छत्तीसगढ़ के तेजी से विकास के लिए यह जरूरी हैं कि हम कृषि के उत्पादन में कम से कम राष्ट्रीय औसत के बराबर पहुचे .। हमारें छत्तीसगढ़ में 96 लाख मवेशी हैं अगर इन्हें गुढ़वत्ता युक्त दाना चारा उपलब्ध हो सके   और इनकी नस्ल सुधार की दिशा में सार्थक पहल की जाए तो हमारे राज्य में भी दूध की नदियां बह सकती है। राज्य सरकार ने कामधेनु विश्विद्यालय स्थापित किया है जिससे पशुधन विकास की आशा बलवती हुई है। हमें अच्छे और उन्नत किस्म के बीजों पर भी विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है। राज्य में राष्ट्रीय बागवानी मिशन संचालित है। यहां आम, अमरूद, पपीता, अनार, सीताफल और नींबू आदि उत्पादन लेने की भी अच्छी संभावनाएं है। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के माध्यम से उन्नत कृषि तकनीकी प्रसार का कार्य किया जा रहा है जिससे फसलो त्पादन और  किसानो  की आमदनी बढ़ने की अच्छी संभावना है । आज के युग में कृषि उत्पादों की  संग्रहण सुविधाओं और प्रसंस्करण कार्यों ने  फसलों के मूल्य संर्वधन (वेल्यू एडीसन) का महत्वपूर्ण कार्य किया है। इससे खाद्य पदार्थो की उपलब्धता बढ़ी हैं, रोजगार के लिए नये अवसर बढ़े हैं और उपजों क व्यापक बाजार  को बढ़ावा मिला है। प्रदेश की लोकप्रिय सरकार ने कृषि का अलग से बजट प्रस्तुत कर के कृषि और किसानो के कल्याण की अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। वास्तव में यह अनुकरनिय पहल है।छत्तीसगढ़ में  इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय अपने महाविद्यालयो  एवं कृषि विज्ञान केन्द्रों के  माध्यम से प्रदेश की खेती किसानी को समोन्नत  करने निरन्तर प्रयासरत है । 

बुधवार, 23 जनवरी 2013

कृषिका: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के छठवें द...

कृषिका: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के छठवें द...: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के छठवें दीक्षांत समारोह  छत्तीसगढ़ के माननीय राज्यपाल श्री शेखर दत्त जी का उद्बोधन रायपुर,...

श्री चन्द्रशेखर साहू जी, माननीय मंत्री कृषि, पशुधन विकास, मत्स्य पालन एवं श्रम विभाग, छत्तीसगढ़ शासन का इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के पष्ठम् दीक्षांत समारोह के अवसर पर उदबोधन


इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के पष्ठम् दीक्षांत समारोह के अवसर पर 
श्री चन्द्रशेखर साहू जी, माननीय मंत्री
कृषि, पशुधन विकास, मत्स्य पालन एवं श्रम विभाग, 
छत्तीसगढ़ शासन का उदबोधन 



इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के पष्ठम् दीक्षांत समारोह के मुख्य अतिथि, हम सब के मार्गदर्शक एवं प्रेरणा स्त्रोत, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह जी, अध्यक्ष की आसंदी पर विराजमान आदरणीय राज्यपाल छत्तीसगढ़ एवं कुलाधिपति, इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय माननीय श्री शेखर दत्त जी, कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि माननीय पदमश्री डा. अनिल के. गुप्ता, कार्यपालिक उपाध्यक्ष, नेशनल इनोवेशन फाउन्डेशन, इस विश्वविद्यालय के सम्माननीय कुलपति डा. एस.के. पाटील जी, प्रबंध मंडल तथा विद्या परिषद् के सम्माननीय सदस्यगण, अधिष्ठाता, निदेशक, प्राध्यापक, वैज्ञानिकगण, उपाधि एवं स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले प्रिय छात्र-छात्राओं, आमंत्रित अतिथि गण, प्रेस एवं मीडिया के पधारे प्रतिनिधियों, देवियों एवं सज्जनों।
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय का आज 27वा स्थापना दिवस है। इस अवसर पर यह पावन समारोह आयोजित हो रहा है जिसमें मैं आप सब के बीच उपस्थित होकर गौरवान्वित हूँ ! मैं आप सब को बधाई देता हूँ, विशेषकर उन छात्र-छात्राओं को जिनकी लगन और कड़ी मेहनत आज पुरस्कृत होने जा रही है। साथ ही मैं संकाय के सभी प्राध्यापकों, वैज्ञानिको और कुलपति जी को भी शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ, जिनके मार्गदर्शन मे विद्यार्थियों ने प्रवीणता हासिल की है। बीते हुये 26 वर्षों के कार्य-कलापों का विश्लेषण कर अतीत की उपलब्धियों तथा उनकी कमियों पर गौर करना चाहिए। इस प्रयत्न में राज्य को कृषि क्षेत्र में उत्कृष्ट बनाना ही लक्ष्य होना चाहिए।
मैंने जो देखा है और सुना है कि विगत् 26 वर्षों में इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय ने अनेक उपलब्धियाँ अर्जित की है। कृषि शिक्षा के क्षेत्र में हमने काफी तरक्की की है। साथ ही शोध, तकनीकी उन्नयन और प्रसार के क्षेत्र में भी हमारे योगदान को सराहना मिल रही है। छत्तीसगढ़ की विभिन्न फसलों जैसे धान, गेहँू, चना, तिवड़ा, सरसों, अलसी, सोयाबीन, सब्जी, फल आदि  की 50 से अधिक उन्नत किस्में विकसित की गई है। इनमें से 13 किस्में तो वर्ष 2010 में ही विकसित हुई है। इसी प्रकार विश्वविद्यालय द्वारा डिजाईन एवं निर्मित किये गये विभिन्न प्रकार के 40 कृषि यंत्र आज प्रदेश के सभी क्षेत्रों में सीधे किसानों तक अनुदान पर पहुंचाये जा रहे हैं। अभी तक 5 करोड़ 24 लाख रूपये मूल्य के 1 लाख 11 हजार कृषि यंत्र/मशीनों का उत्पादन कर किसानों तक पहुंचाया गया है। कृषि यंत्रीकरण की बढ़ती हुई उपयोगिता एवं माँग को देखते हुये वर्ष 2012-13 में 50 नये कृषि सेवा केन्द्र स्थापित किये जायेगें। इस हेतु 10 करोड़ रूपये का प्रावधान किया है। विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक एवं कृषि विभाग इन उपलब्धियों के लिये बधाई के पात्र है। इससे प्रदेश में कृषि के मशीनीकरण को बढ़ावा मिलेगा तथा मजदूरों की समस्या से कुछ हद तक छुटकारा भी मिलेगा। मेरे विचार से हाई-टेक मशीनरी का उपयोग करके कम समय में कृषि कार्य सम्पन्न कर दूसरी फसल लेने के बारे में आशावान हुआ जा सकता है। शासन भी किसानों को नाम मात्र के किराये पर इन मशीनों को उपलब्ध कराने का प्रयास कर रहा है। इससे कृषि मजदूरों की कमी की समस्या पर अंकुश लगेगा। इसके अलावा, जल एवं मृदा संरक्षण, समन्वित कीट-रोग प्रबंधन, खरपतवार नियंत्रण, फसल प्रणाली विकास, वानिकी विकास, पशु पालन, डेयरी प्रौद्योगिकी एवं उन्नत कृषि यंत्रों के विकास में विश्वविद्यालय ने विशेष प्रगति की है। सीमित संसाधनों के बावजूद यहां के वैज्ञानिकों व छात्र-छात्राओं ने अपने ज्ञान और कौशल का परिचय देते हुए राज्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। मैं पुनः आप सभी को बधाई व धन्यवाद देता हूँ तथा आशा करता हॅू कि आने वाले दिनों में और अधिक उत्साह के साथ एकजुट होकर प्रदेश की खेती किसानी को उच्च शिखर पर पहुंचाने का सार्थक प्रयास जारी रखेंगे।
खेत में किसान, सीमा में जवान। जब तक सीमा में जवान सजग है, तक तक देश और देश की सीमा सुरक्षित है। इसी प्रकार जब तक खलिहान में किसान है, संसार के प्राणी मात्र का उदर-पोषण होता रहेगा। अन्नदाता का स्थान हर युग में देवतुल्य वर्णित है, परन्तु व्यवस्था में किसान की स्थिति उतनी ही दयनीय है। इस अन्तर को पाटने की जिम्मेदारी हम सब की है। पूरा विश्व आज आर्थिक मंदी की चपेट में है, परन्तु भारत में इसका प्रभाव नगण्य है। इसका कारण खेती है। खेती से आर्थिक, सामाजिक, रोजगार, खाद्यान्न, स्वास्थ्य संबंधित सभी समस्याओं का समाधान सुनिश्चित हैं। किसानों को जब सुविधा और सम्मान मिलेगा तभी खेती-किसानी के प्रति युवा वर्ग आकर्षित होगा और तभी जय जवान, जय किसान का नारा सार्थक होगा।
महात्मा गाँधी कहा करते थे कि भारत सात लाख गाँवों में बसा है। भारत कृषि-प्रधान देश है। कृषि-संस्कृति उसकी मूल संस्कृति है। सरदार पटेल ने कृषि को ही देश की संस्कृति माना था। इस कृषि संस्कृति पर हमारे पूर्वजों को भी गर्व था। जवाहर लाल नेहरू जी ने भी कहा था कि दूसरी चीजें प्रतीक्षा कर सकती है लेकिन कृषि नहीं।
भगवान श्री कृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता बलदाऊ हलधर कहलाते थे। हलधर का अर्थ है कृषक। हल बलदाऊ का आयुध था। हल, कृषि-संस्कृति का प्रतीक है। भगवान श्री गोपाल कहलाते थे। गोपालन और कृषि का वही संबंध है जो भगवान श्री कृष्ण और बलदाऊ का। तात्पर्य यह कि हमारे देश में प्राचीन काल से कृषि तथा गौ पालन का सर्वोपरि महत्व था। ये हमारे अर्थतंत्र के केन्द्र थे। हमारे देश में कृषि विज्ञान वैदिक काल के समकक्ष प्राचीन है। पाराशर स्मृति में कृषि कर्म को मनुष्य मात्र का प्रधान कर्म कहा गया है। ़ऋषि पाराशर कृषि संस्कृति के सबसे बड़े सम्पोषक और प्रचारक थे।
ऐसे ही कृषि प्रधान देश भारत के आग्नेय कोण में स्थित है हमारा राज्य छत्तीसगढ़। प्राचीन काल में इसका नाम था कौशल। बाद में इसे दक्षिण कौशल या महाकौशल नाम से सम्बोधित किया जाता रहा। अब यह छत्तीसगढ़ के नाम से प्रसिद्ध है। छत्तीसगढ़ धान के प्रचुर उत्पादन के कारण धान के कटोरा के नाम से भी सुविख्यात है। कृषि वैज्ञानिक डाॅ. रिछारिया जी के अनुसार विश्व में धान की साढ़े बीस हजार प्रजातियाँ पायी जाती है उनमें से दस हजार प्रजातियाँ छत्तीसगढ़ में पायी जाता है। आज हमें गर्व है कि विश्वविद्यालय में अब तक 23,070 से अधिक जननद्रव्य सुरक्षित है, जो हमारी धरोहर है। इसका संरक्षण किया जाना चाहिए।
कृषि और किसानों का लक्ष्य अब मात्र भरपूर अन्न उत्पादन ही नहीं, अपितु कृषि का विविधीकरण  व्यवसायिक लाभ कमाना होना चाहिए। अतएव मेरा मानना है कि खेती किसानी के लिए नई-नई और उन्नत तकनीकों को खेत खलिहान तक पहुंचाने से ही किसानों की आर्थिक दशा में सुधार होगा। फसलों की कम लागत में ज्यादा उत्पादन देने वाली, सूखा रोधी और कीट-व्याधी प्रतिरोधक किस्मों को विकसित करने की आवश्यकता है। कम पानी में अधिक उत्पादन देने वाली किस्में तथा पद्धतियाँ विकसित की जानी चाहिए। परम्परागत रोपा पद्धति की तुलना में श्री विधि या मेडागास्कर पद्धति से धान उत्पादन औसतन 30 प्रतिशत अधिक दर्ज किया गया है। इस विधि के क्षेत्र विस्तार हेतु आगामी खरीफ मौसम मे 20 हजार हेक्टेयर में वृहद प्रदर्शन आयोजित किया जावेगा। जिसके लिये 7 करोड़ रूपये का प्रावधान है। प्रदेश में शुष्क खेती की आधुनिक तकनीक अपनाते हुये किसानों को खरीफ के साथ-साथ रबी फसल लेने के लिये प्रोत्साहित किया जावेगा। इस हेतु 40 हजार हेक्टेयर में प्रदर्शन लिया जावेगा। इसी तरह उद्यानिकी विकास के लिये नदी के कछार एवं तटों पर सब्जी उत्पादक किसानों के प्रोत्साहन हेतु प्रदर्शन आयोजित किये जावेंगे। अनुसूचित जनजाति बाहुल्य क्षेत्र में कृषकों की बाड़ी में सब्जी की खेती हेतु टपक सिंचाई योजना के अंतर्गत लागत का 75 प्रतिशत अनुदान दिया जावेगा। राष्ट्रीय बीमा योजनांतर्गत देय प्रीमियम बाबत् देय भार को कम करने के लिये राज्य सरकार के अंशदान को 5 प्रतिशत बढ़ाकर 20 प्रतिशत किया जावेगा। इससे प्रदेश के 24 लाख लघु एवं सीमांत किसानों को फायदा होगा। वर्तमान में प्रदेश में 7 मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला संचालित हैं, इस वर्ष 4 नवीन प्रयोगशालाए स्थापित की जावेगी। आगामी खरीफ मौसम में कृषकों को अनुदान पर हरी खाद के बीज उपलब्ध कराये जावेंगे, जिसके लिये 4.25 करोड़ रूपये का प्रावधान है। उन्नत ज्ञान के साथ-साथ परम्परागत ज्ञान भी लाभप्रद है। उदाहरण के तौर पर मैं यह बताना चाहता हूँ  कि बागबहरा तथा गरियाबंद में कमार जनजाति द्वारा बम्बू चैक डेम से बहती जल सरिता को मोड़कर धान में सिंचाई की जाती है। अब प्रदेश में तीन शक्कर कारखाने स्थापित हो चुके है, परन्तु गन्ने का क्षेत्र और उत्पादन बढ़ाने की दिशा में हमारे प्रयास नगण्य है। गन्ना फसल पर गहन शोध तथा क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप किस्में विकसित करने की आवश्यकता है। इस हेतु हमारे राज्य में एक राष्ट्रीय गन्ना अनुसंधान केन्द्र स्थापित करने की आवश्यकता है। इससे किसानों को गन्ने की उन्नत तकनीकी और सुधरे बीज उपलब्ध हो सकेंगे। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सहयोग से राज्य में बायोटिक स्ट्रेस प्रबंधन का राष्ट्रीय संस्थान बरोंडा में स्थापित हो रहा है। 
दो वर्ष पूर्व मैंने किसानों के साथ पीपली लाईव फिल्म देखी थी जो किसानों की आधारभूत समस्याओं में से एक ऋण ग्रस्तता के जमीनी सच को उजागर करती है। अब छत्तीसगढ़ में तो ऐसी स्थिति नहीं है फिर भी इस फिल्म से छात्रों, कृषि वैज्ञानिकों, प्रसार अमले और किसानों को विपरीत परिस्थितियों में भी दृढ़ निश्चय के साथ संघर्ष करने की प्रेरणा लेनी चाहिए। इस फिल्म से केन्द्र सरकार सहित उन राज्यों की सरकारों को भी सबक लेना चाहिए, जहां किसानों की आत्महत्याओं के अधिक मामले सामने आए। मेरे प्रेरणास्त्रोत और राज्य के ऊर्जावान मुख्यमंत्री डा. रामन सिंह के कुशल नेतृत्व में प्रदेश सरकार ने किसानों की बेहतरी के लिए खेती किसानी के लिए सबसे पहले 3 प्रतिशत में किफायती ब्याज पर कृषि ऋण उपलब्ध कराने की योजना शुरू की थी, वर्तमान में यह ब्याज दर घटाकर 1 प्रतिशत हो गई है। समर्थन मूल्य पर धान खरीदी पर बोनस से लेकर सरकार ने उन्नत बीजों की व्यवस्था के साथ-साथ सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने, नलकूप खोदने, तालाब बनाने से लेकर नदी कछार क्षेत्रों में उथले ट्यूबवेल बनाने जैसी योजनाएँ संचालित की है। सरकार ने खेतीहर महिला मजदूरों को बारिश में भीगने से बचाने के लिए निःशुल्क बरसाती देने के साथ-साथ सब्जी उत्पादक किसानों को बिजली और डीजल पम्प खरीदने पर भी 17000 रूपये तक की छूट देने की योजना चलाई है। ऐसी कई योजनाओं के कारण ही प्रदेश के किसानों में खुशहाली और सम्पन्नता आयी है। आज देश में प्राथमिक क्षेत्र में विकास की दर 2 प्रतिशत से आगे नहीं है, जबकि छत्तीसगढ़ में तमाम चुनौतियों के बावजूद कृषि के क्षेत्र में यह वृद्धि दर 5 प्रतिशत से अधिक है। छत्तीसगढ़ में विकास की गंगा बहाने में आप सब की भागीदारी है। प्रदेश सरकार की प्रतिबद्धता को साकार करने और किसानों की खुशहाली में आप सब के निरन्तर सहयोग की हमें दरकार है जिससे शासन की किसान हितैषी योजनाओं का अधिक से अधिक लाभ राज्य के प्रत्येक गाँव परिवार तक पहुंच सके।
अंत में मै पुनः आज स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधि और पदक से नवाजे जाने वाले सभी छात्र-छात्राओं को बधाई और कोटिशः शुभकामनाएँ देता हूँ और आशा करता हूँ कि उनके द्वारा संजोये गये उज्जवल भविष्य के सपने तथा उनके माता-पिता और गुरूजनों की आशाएँ आकांक्षाएँ फलीभूत हों। आज के कार्यक्रम में मुझे आमंत्रित करने तथा आप के समक्ष अपनी भावनाएँ व्यक्त करने का अवसर देने हेतु मैं विश्वविद्यालय परिवार और यहाँ के मुखिया डा. पाटील जी का आभारी हूँ। 
धन्यवाद।
जय हिन्द, जय किसान, जय छत्तीसगढ़। 

डा. रमन सिंह माननीय मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़ का उद्बोधन षष्ठम् दीक्षांत समारोह 20 जनवरी, 2013 इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर (छत्तीसगढ़)



सम्माननीय मुख्य अतिथि डा. रमन सिंह माननीय मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़ का  उद्बोधन 
षष्ठम् दीक्षांत समारोह 20 जनवरी, 2013 
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर (छत्तीसगढ़) 




आज के दीक्षांत समारोह के अध्यक्ष माननीय राज्यपाल छत्तीसगढ़ एवं कुलाधिपति श्री शेखर दत्त जी, पद्मश्री     डा. अनिल के. गुप्ता, कार्यपालक उपाध्यक्ष, नेशनल इनोवेशन फाउन्डेशन, प्रदेश के कृषि, पशुपालन, मत्स्य पालन एवं श्रम विभाग के माननीय मंत्री श्री चन्द्रशेखर साहू जी,  कुलपति डा. एस.के. पाटील जी, प्रबंध मंडल तथा विद्या परिषद् के सम्माननीय सदस्यगण, अधिष्ठाता, संचालक, प्राध्यापकगण, उपस्थित अतिथिगण, उपाधि एवं स्वर्ण पदक प्राप्त करने वाले प्रिय छात्र एवं छात्राओं, मीडिया के महानुभाव, देवियों और सज्जनों।
मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि मैं तेजी से कृषि विकास की ओर अग्रसर छत्तीसगढ़ राज्य के समर्पित वैज्ञानिकों, प्राध्यापकों, प्रसार विशेषज्ञों, कृषक प्रतिनिधियों, नीति निर्धारकों, विद्वानों और विद्यार्थियों के साथ विश्वविद्यालय के सबसे गरिमामय समारोह में उपस्थित हूँ। 
वर्तमान में भारत की 54 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या युवा है। देश एवं हमारे प्रदेश की प्रगति में भी युवाशक्ति का उल्लेखनीय योगदान है। यहां उपस्थित सभी छात्र-छात्राओं का आव्हान करता हूँ  कि वे कृषि, शोध और प्रसार के क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित करते हुये, समाज व राष्ट्र को नई दिशा प्रदान करें । युवा जिज्ञासु, ऊर्जावान, आदर्शवादी, साहसी और सकारात्मक विचारों से ओत-प्रोत होते हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था का दायित्व है कि युवाओं की इन प्रतिभाओं को निखारें। संस्कृत में बहुत सुन्दर श्लोक है:
विद्या ददाति  विनयं,  विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्ध नमाप्नोति धनाद्धर्म ततः सुखम् ।।
तात्पर्य यह है कि शिक्षा ही जीवन में सुख और सम्पन्नता लाती है।  छत्तीसगढ़ में हर विधा की उच्च शिक्षा के अवसर तथा सुविधाए उपलब्ध कराई जा रही हंै। व्यावसायिक शिक्षा के अवसर बढ़ाने के लिए विभिन्न संकायों में नवीन सुविधाओं तथा नवीन प्रौद्योगिकी को बढ़ावा दिया जा रहा हैं। हमारा प्रयास है कि छत्तीसगढ़ में विकसित हो रही संभावनाओं के लिए कुशल मानव संसाधन राज्य में ही उपलब्ध हो सकें ताकि बुनियादी अधोसंरचना के साथ नई पीढ़ी का भविष्य संवर सके।

राज्य गठन को 12 वर्ष  पूर्ण हो चुके हैं । इस बीच हमने हर क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है । छत्तीसगढ़ का नाम अब देश में सर्वाधिक तेजी से विकास कर रहे राज्यों में भी अग्रणी रूप में  लिया जाता है । हम चाहते हैं कि राज्य के विकास में कृषि का सर्वाधिक योगदान दर्ज हो ।  अपनी उपलब्धियों और कमियों का आकलन करने का यह सही समय है। हम इस विश्वविद्यालय को देश की दूसरी हरित क्रांति का अग्रदूत बनाने का संकल्प लें।   ग्रामीण क्षेत्रों को पुनः सशक्त बनाने का प्रण लें। भविष्य की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए एवं पुराने अनुभवों का उपयोग करते हुये, नए तरीकों और अन्वेषणों को खेत-खलिहान तक पहुँचाना होगा। इस हेतु उपलब्ध अपार प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर उपयोग सुनिश्चित कर खेती को लाभप्रद बनाना होगा। पिछले वर्षों में विश्वविद्यालय की उपलब्धियाँ प्रशंसनीय रही हैं। विभिन्न फसलों की 50 से अधिक उन्नत किस्में विश्वविद्यालय ने विकसित की है। विश्वविद्यालय ने धान के 23070 जननद्रव्य संजोकर रखे हुए हैं, जिसमें प्रदेश के माटीपुत्र डा आर.एच. रिछारिया का विशिष्ट अविस्मरणीय योगदान है। कृषि विश्वविद्यालय ने एकफसली क्षेत्र को बहुफसली क्षेत्र में परिवर्तित करने, खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने तथा ग्रामीण क्षेत्रों में आय एवं रोजगार के अवसर बढ़ाने के उद्देश्य से उपयुक्त फसल पद्धति विकसित करने में सराहनीय कार्य किया है। विश्वविद्यालय का कृषि अभियांत्रिकी संकाय भी राज्य के विकास में सक्रिय सहयोग दे रहा है। इस संकाय ने 40 विभिन्न उन्नत कृषि यंत्रों का विकास एवं उत्पादन कर उन्हें राज्य के किसानों तक पहुंचाया है। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि आपका विश्वविद्यालय कृषि फसलों का उत्पादन बढ़ाने के साथ ही कृषि उपकरणों के निर्माण में 
भी आगे आ रहा है। किसानों की सुविधा के लिये विश्वविद्यालय की निर्माण इकाई ने अभी तक 5 करोड़ 24 लाख रूपये मूल्य के 1 लाख 11 हजार कृषि यंत्र/मशीनों का निर्माण कर उन्हें किसानों तक पहुंचाया है। विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक इन उपलब्धियों के लिये बधाई के पात्र हैं। वस्तुतः कृषि कार्यों में हाई-टेक मशीनरी जैसे कम्बाइन हार्वेस्टर, सेल्फ-प्रोपेल्ड ट्रांसप्लांटर, सेल्फ-प्रोपेल्ड रीपर का उपयोग कर मजदूरों की कमी की समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। शासन भी इन्हें किराये पर किसानों को उपलब्ध कराने हेतु प्रयासरत् है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद एवं राज्य सरकार के सहयोग से संचालित कृषि विज्ञान केन्द्रों द्वारा किसानों एवं प्रसार अधिकारियों को प्रशिक्षण एवं प्रक्षेत्र प्रदर्शनों के आयोजन से राज्य में कृषि तकनीकी प्रसार में बहुत मदद मिल रही है। मुझे ज्ञात है कि सरगुजा और बस्तर के कृषि विज्ञान केन्द्रों को उत्कृष्ट कार्य के लिए पूर्व में राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया है। इसी तरह आदिवासी अंचल के एक कृषक ने सस्ता और सुन्दर बीज बोआई यंत्र विकसित कर पूरे राष्ट्र में सराहना व सम्मान प्राप्त किया। कृषि यंत्रीकरण की बढ़ती हुई उपयोगिता एवं मांग को देखते हुये वर्ष 2012-13 में 50 नये कृषि सेवा केन्द्र स्थापित किये जायेंगे। इस हेतु 10 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है। इन सभी उपलब्धियों तथा उत्कृष्ट कार्यों के लिए यहां के कुलपति, वैज्ञानिक, छात्र तथा किसान भाई बधाई के पात्र हैं। इनके सतत् प्रयास से प्रदेश की कृषि को नई पहचान मिली है।
यह कृषि विश्वविद्यालय राज्य के किसानों की जरूरतों को ध्यान में रखकर कृषि शिक्षा, अनुसंधान एवं विस्तार कार्यक्रम चलाता है। विश्वविद्यालय ने आधारभूत सुविधाओं तथा मानव संसाधन की कमी के बावजूद ‘‘विश्वसनीय छत्तीसगढ़’’ की पहचान स्थापित करने में उल्लेखनीय योगदान दिया है।  हमारे राज्य में स्थापित किया जाने वाला ’’राष्ट्रीय बायोटिक स्ट्रेस मैनेजमेन्ट इंस्टीट्यूट’’ कृषि विकास की दिशा में एक बढ़ता हुआ कदम है। राज्य में धान और गन्ना के राष्ट्रीय अनुसंधान केन्द्रों की भी आवश्यकता है। राज्य में स्थापित 3 शक्कर कारखानों के संचालन के लिये गन्ने पर शोध की जरूरत है। राज्य की मुख्य फसल धान की औसत उपज में हमारे किसान अभी पिछड़े हुए हैं अतः धान उत्पादकता बढ़ाने हेतु गहन अनुसंधान की आवश्यकता है। राज्य की लगभग 32 प्रतिशत जनसंख्या जनजातियों की है जिसकी कृषि प्रणालियाँ भिन्न हैं तथा उत्पादकता कम है ।
 पिछले 9 वर्षों में छत्तीसगढ़ ने अनेक उपलब्धियाँ हासिल की है। आज छत्तीसगढ़ अनेक क्षेत्रों में, देश में अव्वल स्थान पर है। पूर्व में हमें धान उत्पादन के क्षेत्र में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था, तो इस वर्ष भी राज्य में न्यूनतम बेरोजगारी हेतु भारत शासन द्वारा पुरस्कृत किया गया है। हमने ’’गांव, गरीब और किसान’’ की बेहतरी का वादा पूरा किया है।
वर्ष 2012-13 में पहली बार 6244 करोड़ रूपये का अलग से कृषि बजट बनाया गया है। यह कुल बजट का 17 प्रतिशत है। सिंचाई क्षमता में विस्तार को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुये बजट में 16 प्रतिशत की वृद्धि की गई है। किसानों को अब केवल एक प्रतिशत ब्याज दर पर कृषि ऋण उपलब्ध कराया जा रहा है।  कृषि बीमा प्रीमियम में राज्य सरकार ने अंशदान 5 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत किया है।   पशुपालन क्षेत्र में शिक्षा और अनुसंधान के प्रोत्साहन के लिए ’’कामधेनु विश्वविद्यालय’’ की स्थापना की गई।   सूक्ष्म सिंचाई योजना के तहत् लघु और सीमांत किसानों को ड्रिप, स्प्रिंकलर के लिए 75 प्रतिशत तक का अनुदान दिया जा रहा है। किसान को मात्र दो रूपये में मिट्टी परीक्षण की सुविधा दी गई है। किसानों को सिंचाई पम्पों के ऊर्जाकरण के लिए पूर्व के 50 हजार रूपये के स्थान पर अब 75 हजार रूपये का अनुदान दिया जा रहा है।एक से तीन हार्सपावर तक के सिंचाई पंप वाले किसानों को 5000 यूनिट तथा पाँच हार्सपावर पंप वाले किसानों को 7500 यूनिट बिजली प्रति वर्ष मुत में दी जा रही है। किसानों को मीटर किराया, फिक्स चार्ज और विद्युत उपकर से मुक्ति मिली है। राज्य सरकार द्वारा पिछले 9 वर्षों में 2.90 लाख पम्पों का ऊर्जाकरण किया गया है।   कृषि उत्पादन बढ़ाने और खेती की लागत कम करने हेतु प्रदेश में नई कृषि नीति तैयार की गई है।
 हमने कृषि शिक्षा को बढ़ावा देने का सतत् प्रयास किया है।  राज्य गठन के समय जहां कृषि, पशुपालन और दुग्ध प्रौद्योगिकी के एक-एक महाविद्यालय थे, वही वर्तमान में 7 शासकीय कृषि महाविद्यालय तथा 1-1 कृषि अभियांत्रिकी व उद्यानिकी महाविद्यालय संचालित किये जा रहे हैं। इसके अलावा निजी संस्थाओं द्वारा संचालित 15 महाविद्यालय, कृषि विश्वविद्यालय से संबंद्ध हैं। अगले वर्ष हम 3 नये कृषि एवं 1 नवीन कृषि अभियांत्रिकी महाविद्यालय प्रारंभ कर रहे हैं। समग्र प्रयासों से छत्तीसगढ़ को देश का सर्वश्रेष्ठ राज्य बनाना है। इस बात को मैं अटलजी के शब्दों में कहता हूँ। - 
कमर कसें, बलिदान करें, 
जो पाया उसमें खो न जाएं।
छत्तीसगढ़ राज्य की 80 प्रतिशत आबादी की आजीविका कृषि एवं कृषि से संबंधित क्षेत्र पर आधारित है। कृषि पर निर्भर 33 लाख परिवारों में से 54 प्रतिशत लघु एवं सीमांत किसान हैं। राज्य में कृषि विकास को गति देने की आवश्यकता है। आज भी बहुतेरे कृषक परम्परागत तरीके से खेती किसानी करते आ रहे हैं, जिससे उन्हें उत्पादन कम मिलता है। यहाँ उपलब्ध अपार प्राकृतिक संसाधनों तथा फसल उत्पादन, बागवानी, पशुपालन एवं वन-आधारित उद्यमों से जुड़े अवसरों को देखते हुए नई कृषि तकनीकी के इस्तेमाल से राज्य में ग्रामीण जनता का जीवन स्तर ऊँचा उठाने की प्रबल संभावनाएँ हैं। बागवानी के क्षेत्र में फल, सब्जी, फूल, औषधीय एवं खुशबूदार पौधों का विशिष्ट महत्व है। खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में सब्जी, मांस, अण्डे, मशरूम, शहद और वन-उत्पादों से जुड़ी तमाम संभावनाएँ हैं। 
 छत्तीसगढ़ संभावनाओं से भरा हुआ राज्य है। आवश्यकता इस बात की है कि हम सब मिलकर इस क्षेत्र के विकास के लिए कार्य करें और समाज के अन्तिम व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने का लक्ष्य रखें। इस हेतु राज्य कृषि विभाग, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, कृषि विश्वविद्यालय तथा कृषकों के बीच आपसी सामन्जस्य एवं सहयोग की आवश्यकता है।  मैं उपाधि और पदक प्राप्त करने वाले युवा कृषि छात्र-छात्राओं एवं वैज्ञानिकों से अपील करूँगा कि वे कृषक समुदाय की सेवा समर्पण, निष्ठा, संवेदनशीलता और सहानुभूति के साथ करें। मैं सभी उपाधि प्राप्तकर्ताओं और   गुरूजनों को बधाई देता हूँ  जिन्होंने दक्ष वैज्ञानिकों की भावी पीढ़ी तैयार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।  आशा करता हूँ कि देश और राज्य के सर्वांगीण विकास में आप सब अपना बहुमूल्य योगदान देते रहेंगे।  
जय किसान, जय जवान, जय विज्ञान, जय हिन्द, जय छत्तीसगढ़।