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मंगलवार, 29 जनवरी 2013

भारतीय कृषि के सतत विकास हेतु आवश्यक पहल


डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

       कृषि, भारतीय अर्थव्यवस्था का न केवल अभिन्न और सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है बल्कि यह देश की बहुत बड़ी आबादी के रोजगार, व्यवसाय और आय का साधन भी है। आज हम जिस युग में जी रहे हैं वह वैश्वीकरण का युग है। दुनिया भर के देश एवं लोग एक-दूसरे के काफी करीब आ रहे हैं और इसका प्रभाव औद्योगिक, व्यवसायिक या तकनीकी क्षेत्रों के साथ-साथ कृषि और कृषि पर आधारित अन्य क्षेत्रों पर भी व्यापक रूप से पड़ रहा है। कृषि के विश्व बाजार से जुड़ने से कृषि और किसानों को देश के भीतर और देश के बाहर भी एक नई तरह की प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन इसके साथ ही, यह समय कृषि और किसानों के सामने एक नया अवसर और संभावनाएं तलाशनें का भी मौंका देता है। किसानों के लिए बाजार को समझना बेहद जरूरी हो गया है। अगर अच्छा बाजार है तो उसके अनुसार कृषि उत्पादन के लिए आवश्यक उपाय करना अपनाना चाहिए और नई जगह मार्केट बनाने के लिए भी कोशिष करना चाहिए। 
इसमें कोई संदेह नहीं हैं कि हमारे देश ने कृषि शिक्षा, कृषि अनुसंधान और  कृषि की नई तकनीक तथा उन्नत प्रजाति के फसलों को विकसित करने में महत्वपूर्ण उपलब्धियां अर्जित की हैं। वर्ष 1951 में हमारे देश का खाद्यान्न उत्पादन मात्र 51 मिलियन टन था, जो कि वर्तमान में 227 मिलियन टन के आस-पास पहुंच गया है। ‘हरित क्रांति’ के माध्यम से भारत  ने खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भरता प्राप्त कर ली है। इसी तरह तिलहनों के लिए ‘पीत क्रांति’, दूध के लिए ‘श्वेत क्रांति’, मत्स्य उत्पादन के लिए ‘नीली क्रांति’ के साथ-साथ उद्यानिकी और पुष्प उत्पादन के क्षेत्र में रेखांकित की जाने वाली उपलब्धियों प्राप्त हुई है। इन उपलब्धियो  ने न केवल किसानों को लाभान्वित किया हैं बल्कि हमारे देश की आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाया हैं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का सम्मान बढ़ाया है। 
परन्तु  जहां एक ओर कृषि उत्पादन लगातार बढ़ता दिख रहा हैं वहीं दूसरी ओर देश की बढ़ती हुई आबादी की मांग के अनुसार यह वृद्धि अपर्याप्त दिखाई देती है। वर्ष 1991 में खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगभग 510 ग्राम थी, जोकि  वर्तमान में 421 ग्राम प्रति व्यक्ति रह गई है। इसी तरह दलहन के क्षेत्र में पहले जहां दालों की उपलब्धता 70 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन थी। यह क्रमशः गिरकर 50 ग्राम और अब मात्र 30 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन रह गई है। इसके कारण विशेषकर शाकाहारियों के लिए दैनिक आहार में प्रोटीन की उपलब्धता में कमी आने से कुपोषण जैसी समस्याए फ़ैल रही है जा की हम सब के लिए  चिंता और चिंतन का विषय  है। तिलहन उत्पादन में भी हम पीछे हैं। और हमें अपनी आवश्यकता का 35 से 40 प्रतिशत खाद्य तेल का आयात करना पड़ता है। दलहन और तिलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए केन्द्र शासन द्वारा विश्¨ष प्रयास किये जा रहे हैं। मै वैज्ञानिको  का आहवान करना चाहता हूँ कि चावल-गेहूँ की भांति दलहन-तिलहन तथा सब्जी उत्पादन के क्षेत्र  में भी क्रांति लाने के कारगर उपाय करें 
हमारे देश में जहां दो तिहाई आबादी कृषि पर आधारित है, परन्तु देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान लगातार कम होता जा रहा है। ग्रामीण भारत में भी लघु एवं सीमांत किसानों का बाहुल्य है जिनके पास उपलब्ध कास्तकारी का रकबा पीढ़ी दर पीढ़ी बंटवारे के कारण और छोटा होता जा रहा है। यह भी हमारे लिए चिंता और सोच का विषय है। कृषि का सतत विकास आज देश की प्रमुख आवश्यकता हैं क्योंकि इसके बिना हम अपने राज्य और देश की जो विकास दर चाहते हैं वह संभव नहीं है। यह जरूरी  है कि खेती-किसानी को और अधिक टिकाऊ एवं लाभकारी बनाया जाएं, कृषि उत्पादन एवं उत्पादकता में तेज गति से वृद्धि हो तथा खाद्यान्न संबंधित सभी आवश्यकताएं देश में  ही पूरी हों। यह भी जरूरी हो गया है कि कृषि कार्य में युवाओं का रूझान बढ़े और इस क्षेत्र में कुशल संसाधन प्रबंधन से देश में सम्पन्नता बढ़ें। इसका महत्व समझा जाये इसे छोटा काम न समझा जाये। 
छत्तीसगढ़ की 80 प्रतिशत आबादी कृषि या कृषि आधारित कार्यों में संलग्न है।  प्रदेश के कुल भौगोलिक क्षेत्र 137.87 हेक्टेयर का लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा या लगभग 47.99 लाख हेक्टेयर जमीन खेती योग्य है। इसी तरह राज्य का लगभग 12.3 लाख हेक्टेयर हिस्सा वनों से आच्छादित है। यह कुल भौगोलिक रकबा का लगभग 45 प्रतिशत है। प्रकृति ने छत्तीसगढ़ को खनिज स्त्रोतों एवं प्राकृतिक संपदा से भरपूर नवाजा है। लेकिन मानव विकास सूचकांक की दृष्टि से अभी भी हम पीछे है। हमें ज्ञान-विज्ञान और कौशल के माध्यम से सामूहिक प्रयत्न करना है कि हम अपने प्रदेश को अग्रणी और विकसित राज्यों की सूची में सबसे ऊपरी पायदान में पहुंचा सकें। 
खेती में विविधता आवश्यक है। छत्तीसगढ़ में आम फसलों के साथ फल-फूल, सब्जियाँ, मसाले और औषधीय फसलों की खेती के साथ-साथ पशुपालन, कुक्कुट एवं मत्स्य पालन को भी समन्वित रूप से बढ़ावा दिया जाना जरूरी है। हमारे राज्य में उपजाऊ जमीन और पानी भरपूर होने के बाबजूद एक फसली क्षेत्र की प्रधानता है। जिन राज्यों मई फसल सघनता अधिक है वे आज संपन्न राज्यों की श्रेणी में सुमार है। छत्तीसगढ़ में भी  अब  आवश्कता है  एक फसलीय जमीन को  दो और तीन फसलीय खेती में तब्दील कर दिया जाए  तभी हमारे किसानो को वर्ष के   365 दिन भरपूर काम और अच्छी  आमदनी प्राप्त हो सकेगी। इससे न केवल हमारे किसान की आर्थिक दशा में सुधार होगा वरन गाँव से शहर की और ग्रामीणों का पलायन भी थम सकता है।छत्तीसगढ़ के तेजी से विकास के लिए यह जरूरी हैं कि हम कृषि के उत्पादन में कम से कम राष्ट्रीय औसत के बराबर पहुचे .। हमारें छत्तीसगढ़ में 96 लाख मवेशी हैं अगर इन्हें गुढ़वत्ता युक्त दाना चारा उपलब्ध हो सके   और इनकी नस्ल सुधार की दिशा में सार्थक पहल की जाए तो हमारे राज्य में भी दूध की नदियां बह सकती है। राज्य सरकार ने कामधेनु विश्विद्यालय स्थापित किया है जिससे पशुधन विकास की आशा बलवती हुई है। हमें अच्छे और उन्नत किस्म के बीजों पर भी विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है। राज्य में राष्ट्रीय बागवानी मिशन संचालित है। यहां आम, अमरूद, पपीता, अनार, सीताफल और नींबू आदि उत्पादन लेने की भी अच्छी संभावनाएं है। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के माध्यम से उन्नत कृषि तकनीकी प्रसार का कार्य किया जा रहा है जिससे फसलो त्पादन और  किसानो  की आमदनी बढ़ने की अच्छी संभावना है । आज के युग में कृषि उत्पादों की  संग्रहण सुविधाओं और प्रसंस्करण कार्यों ने  फसलों के मूल्य संर्वधन (वेल्यू एडीसन) का महत्वपूर्ण कार्य किया है। इससे खाद्य पदार्थो की उपलब्धता बढ़ी हैं, रोजगार के लिए नये अवसर बढ़े हैं और उपजों क व्यापक बाजार  को बढ़ावा मिला है। प्रदेश की लोकप्रिय सरकार ने कृषि का अलग से बजट प्रस्तुत कर के कृषि और किसानो के कल्याण की अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। वास्तव में यह अनुकरनिय पहल है।छत्तीसगढ़ में  इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय अपने महाविद्यालयो  एवं कृषि विज्ञान केन्द्रों के  माध्यम से प्रदेश की खेती किसानी को समोन्नत  करने निरन्तर प्रयासरत है । 

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