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रविवार, 14 अप्रैल 2013

मूँगफली का आर्थिक महत्त्व एवं वैज्ञानिक खेती

                                      

                                                                        डॉ .गजेन्द्र सिंह तोमर                                                                                                                           प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं बिभाग 
                                                  इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

बहुपयोगी व्यापारिक फसल-मूँगफली 

                 भारत की तिलहन फसलो  में मूँगफली का मुख्य स्थान है । इसे तिलहन फसलों का राजा तथा गरीबों के बादाम की संज्ञा दी गई है। इसके दाने में लगभग 45-55 प्रतिशत तेल(वसा) पाया जाता है जिसका उपयोग खाद्य पदार्थो के रूप में किया जाता है। इसके तेल में लगभग 82 प्रतिशत तरल, चिकनाई वाले ओलिक तथा लिनोलिइक अम्ल पाये जाते हैं। तेल का उपयोग मुख्य रूप से वानस्पतिक घी व साबुन बनाने में किया जाता है। इसके अलावा मूँगफली के तेल का उपयोग श्रंगार प्रसाधनों, शेविंग क्रीम आदि के निर्माण में किया जाता है।
    मूँगफली के दाने बहुत ही पौष्टिक होते हैं जिसमें कुछ खनिज पदार्थ, फास्फोरस, कैल्सियम व लोहा पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। मूँगफली वानस्पतिक प्रोटीन का एक अच्छा एंव सस्ता स्त्रोत है। इनमें 28-30 प्रतिशत प्रोटीन पायी जाती है।मूंगफली में मांस से 1.3 गुना, अंडे  से 2.5 गुना तथा फलो  से 8 गुना अधिक प्रोटीन   पाया  जाता है । उच्च कोटि की प्रोटीन विद्यमान होने के कारण यह शीघ्र पचने योग्य होती है । इसमें कुछ विटामिन भी प्रचुर मात्रा  में पाये जाते है । मूंगफली में थियामिन, राइबोफ्लोविन और निकोटिनिक अम्ल पर्याप्त मात्रा  में उपस्थिति रहते है साथ ही विटामिन ई भी प्रचुरता में होता है । फॉस्फ़ोरस, कैल्सियम तथा लोहा जैसे खनिज पदार्थ भी मूंगफली में पाए जाते है । मूँगफली के 100 ग्राम दानो  से 349 कैलोरी उर्जा  प्राप्त होती है । इसके दानों को कच्चा, भूनकर अथवा तलकर खाया जाता है अथवा मीठे या नमकीन व्यंजन बनाकर उपयोग में लाया जाता है। मूँगफली से उत्तम गुणों वाला दूध व दही भी तैयार किया जाता है। मूँगफली का हरा वानस्पतिक भाग जो कि खुदाई के बाद प्राप्त होता है, साइलेज के रूप में या हरा ही पशुओं को  खिलाया जाता है। दानों से तेल निकालने के बाद बची हुई खली भी एक पौष्टिक पशु आहार एंव जैविक खाद के रूप में उपयोग की जाती है। इसकी खली में 7-8 प्रतिशत नाइट्रोजन, 1.5 प्रतिशत फास्फोरस तथा 1.5 प्रतिशत पोटाश पाया जाता है। मूँगफली का छिलका गत्त्¨ बनाने और  कार्क की जगह काम में लाई जाने वाली चीजो  के बनाने के काम में आता है । इसकी जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण  करने वाले जीवाणु (राइजोबियम) पाये जाते हैं जो कि वायुमंडलीय नाइट्रोजन को भूमि  में (लगभग 80-200 किग्रा. प्रति हे.) स्थिर करते हैं । अतः शस्य-चक्र में रखने पर मूँगफली की खेती से भूमि की भोतिक दशा सुधरती है, उर्वरा शक्ति बढ़ती है । इस फसल क¨ भू-क्षरण र¨कने के लिए भी उत्तम साधन माना गया है । इस प्रकार से मूँगफली बहुपय¨गी व्यापारिक फसल है। भारत में मूँगफली के कुल उत्पादन का 81 प्रतिशत भाग तेल निकालने में, 12 प्रतिशत बीज के रूप में, 6 प्रतिशत खाद्य के रूप में और शेष 1 प्रतिशत निर्यात में उपयोग किया जाता है।
              भारत में क्षेत्रफल तथा उत्पादन की दृष्टि से मूँगफली का सभी तिलहनी फसलों में प्रथम स्थान है। तिलहनी फसलों के कुल क्षेत्रफल का 40 प्रतिशत तथा कुल उत्पादन का 60 प्रतिशत भाग अकेले मूँगफली का है। देश में 6.16 मिलियन हैक्टर  रकबे में मूगफली बोई गई जिससे 1163 किग्रा. प्रति हैक्टर ओसत उपज के मान से 7.17 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त किया गया।  देश में मूँगफली की औसत उपज  विश्व औसत उपज (1554 किग्रा/हे.) से काफी कम है। 
      छत्तीसगढ़ के सभी जिलो में मूँगफली की खेती की जाती है, परन्तु सरगुजा, महासमुन्द, जशपुर, बिलासपुर, रायगढ़ जिले क्षेत्रफल व उत्पादन में अग्रणीय हैं। राज्य में खरीफ में 51.60 हजार हैक्टर एंव रबी  में 14.58 हजार हैक्टर में मूँगफली की खेती की गई जिससे क्रमशः 1310 किग्रा. एवं 1156 किग्रा. प्रति हैक्टर ओसत उपज दर्ज की गई।    मध्य प्रदेश में मूंगफली की खेती 0.20 मिलियन हैक्टर क्षेत्र  में की गई जिससे 1140 किग्रा. प्रति हैक्टर ओसत उपज के मान से 0.23 मिलियन टन उपज प्राप्त की गई है । 

कैसी हो जलवायु

    मूँगफली की फसल उष्ण कटिबन्ध की मानी जाती है, परन्तु इसकी खेती शीतोष्ण कटिबन्ध के परे समशीतोष्ण कटिबन्ध  में भी, उन स्थानो  पर जहाँ गर्मी का मौसम पर्याप्त लम्बा हो, की जा सकती है  । जीवन काल में थोड़ा पानी, पर्याप्त धूप तथा सामान्यतः कुछ अधिक तापमान, यही इस फसल की आवश्यकताएं है । जहाँ रात में तापमान अधिक गिर जाता है, वहाँ पौधो  की बाढ़ रूक जाती है । इसी बजह से पहाड़ी क्षेत्रो  में 3,500 फिट से अधिक ऊँचाई पर इस फसल को  नहीं बोते है । इसके लिए अधिक वर्षा, अधिक सूखा तथा ज्यादा ठंड हानिकारक है। अंकुरण एंव प्रारंभिक वृद्धि के लिए 14 डि से.-15 डि से. तापमान का होना आवश्यक है। फसल वृद्धि के लिए 21-30 डि . से. तापमान सर्वश्रेष्ठ रहता है। फसल के जीवनकाल के दौरान सूर्य का पर्याप्त प्रकाश, उच्च तापमान तथा सामान्य वर्षा का होना उत्तम रहता है।  प्रायः 50-125 सेमी. प्रति वर्ष वर्षा वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए उपयुक्त समझे जाते है। पौधों की वृद्धि एंव विकास के लिए सुवितरित 37-62 सेमी. वर्षा अच्छी मानी जाती है। फसल पकने तथा खुदाई के समय एक माह तक गर्म तथा स्वच्छ मौसम अच्छी उपज एंव गुणों के लिए अत्यंत आवश्यक है।कटाई के समय वर्षा होने से एक तो  खुदाई  में कठिनाई  होती है, दूसरे मूँगफली का रंग बदल जाता है और  फलियो  में बीज उग आने  की सम्भावना रहती है । धूप-काल  का इस फसल पर कम प्रभाव पड़ता है । मूँगफली के कुल क्षेत्रफल का लगभग 88 प्रतिशत भाग खरीफ में और शेष भाग जायद मौसम में उगाया जाता है।

भूमि का चयन

    मूँगफली के लिए अच्छी भुरभुरी हलकी मिट्टी उत्तम रहती है  जिससे इसके नस्से (पेग) सरलता से घुस पायें और  अधिक फली बन सकें । वैसे तो  मूँगफली सभी प्रकार की खेती योग्य भूमि-बलुई, बलुई-दोमट, दोमट, मटियार दोमट, मटियार तथा कपास की काली मिट्टी में उगाई जा सकती है, परन्तु हलकी बलुई-दोमट सबसे उपयुक्त समझी जाती है । कैल्शियम व जीवांश पदार्थ युक्त भूमि उपयुक्त होती है।  भारी और चिकनी मिट्टी इसकी खेती के लिए अनुपयुक्त रहती है, क्योंकि शुष्क मौसम में इस प्रकार की मृदा कड़ी हो जाती है जिससे स्त्रीकेसर दंड या खूँटियाँ भूमि में प्रवेश नहीं कर पाती और  फलियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता । इसके अलावा इन मिट्टियो  में खुदाई के समय भी कठिनाई होती है। भूमि का पी-एच. मान 5.5-7.5 के मध्य होना चाहिए। इस फसल के लिए छत्तीसगढ़ की कछारी एंव भाटा-मटासी जैसी हल्की भूमि अधिक उपयुक्त है। अरहर व मूँगफली की मिश्रित खेती के लिए कन्हार-भर्री जमीन अच्छी होती है।

भूमि की तैयारी 

    मूँगफली का विकास भूमि के अंदर  होता है। अतः मिट्टी ढीली, भुरभुरी एंव महीन होना आवश्यक है। इससे जल धारण क्षमता एंव वायु संचार में वृद्धि होती है।बहुत गहरी जुताई अच्छी नहीं रहती है, क्योंकि इससे फल्लियाँ गहराई पर बनेंगी और खुदाई में कठिनाई होती है। पूर्व की फसल कटने के बाद एक गहरी जुताई (12-15 सेमी.) करनी चाहिए। इसके बाद पहली वर्षा के बाद बतर आने पर 2-3 बार हैरो या कल्टीवेटर चलाकर मिट्टी  को भुरभूरा कर लेना चाहिए। इसके लिए रोटावेटर का भी प्रयोग किया जा सकता है। जुताई के पश्चात् पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए। जलनिकास के लिए खेत में उचित दूरी पर नालियाँ बनाना चाहिए। दीमक तथा चींटियों से बचाव के लिये क्लोरपायरीफास 1.5 प्रतिशत का 20-25 किलो प्रति हे. के हिसाब से जुताई के समय देना चाहिए।

उन्नत किस्मो  का चयन 

    प्राचीन काल से ही उन्नत बीज कृषि का एक आवश्यक अंग रहा है। मूँगफली की पुरानी किस्मों की अपेक्षा नई उडन्नत किस्मों की उपज क्षमता अधिक ह¨ती है और उन पर कीटों तथा रोगों का प्रकोप भी कम होता है। अतः उन्नत किस्मों के बीज का प्रयोग बुवाई के लिए करना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु एंव मृदा के अनुसार अनुमोदित किस्मों का उपयोग करना चाहिए।

मूँगफली की प्रमुुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ

1.एके-12-24: मूंगफली की सीधे  बढने वाली यह किस्म 100-105 दिन में तैयार होती है । फलियो  की उपज 1250 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो  से 75 प्रतिषत दाना प्राप्त होते है । दानो  में 48.5 % तेल पाया जाता है । 
2.जे-11: यह एक गुच्छेदार किस्म है ज¨ कि 100-105 दिन में पककर 1300 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ उत्पन्न करने की क्षमता रखती है । खरीफ एवं गर्मी में खती करने के लिए उपयुक्त है । फलियो  से 75 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
3.ज्योति : गुच्छे दार किस्म  है जो की 105-110 दिन में तैयार होकर 1600 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ पैदा करने की क्षमता रखती है । फलियो  से 77.8 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो  में 53.3 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
4.कोंशल (जी-201): यह एक मध्यम फैलने वाली किस्म है जो कि  108-112 दिन में पककर तैयार होती है और  1700 किग्रा. प्रति हैक्टर फलियाँ पैदा करने की क्षमता रखती है । फलियो  से 71 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
5.कादरी-3:  यह शीघ्र तैयार ह¨ने वाली (105 दिन) किस्म है जिसकी उपज क्षमता 2100 किग्रा. प्रति हैक्टर है । फलियो  से 75 प्रतिशत दाना मिलता है और  दानो  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
6.एम-13: यह एक फैलने वाली किस्म हैजो  कि सम्पूर्ण भारत में खेती हेतु उपयुक्त रहती है । लगभग 2750 किग्रा. प्रति हैक्टर उपज क्षमता वाली इस किस्म की फलियो  से 68 प्रतिशत दाना प्राप्त होता है तथा दानो  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
7.आईसीजीएस-11: गुच्छेदार यह किस्म 105-110 दिन में तैयार होकर 2000 किग्रा. प्रति हैक्टर उपज देती है । इसकी फलियो  से 70 प्रतिशत दाना मिलता है तथा दानो  में तेल की मात्रा 48.7 प्रतिशत होती है ।
8.गंगापुरीः मूंगफली की यह गुच्छे वाली  किस्म है जो  95-100 दिन में तैयार ह¨ती है । फलियो  की उपज 2000 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो  से 59.7 प्रतिशत दाना प्राप्त हो ते है । दाने  में 49.5 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
9.आईसीजीएस-44: मूंगफली की  मोटे दाने वाली किस्म है । फलियो  की उपज 2500 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । फलियो  से 72 प्रतिषत दाना प्राप्त होते है । दाने  में 49 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
10.जेएल-24 (फुले प्रगति): यह एक शीघ्र पकने वाली (90-100 दिन) किस्म है । इसकी उपज क्षमता 1700-1800 किग्रा. प्रति हैक्टर ह¨ती है । दानो  में तेल 50-51 प्रतिशत होता है ।यह मध्यम सघन बढ़ने वाली चिकनी फल्लियो  वाली किस्म है ।
11.टीजी-1(विक्रम): यह किस्म 120-125 दिन में पककर तैयार ह¨ती है जिसकी उपज क्षमता 2000-2500 किग्रा. प्रति हैक्टर ह¨ती है । दानो  में तेल की मात्रा  46-48 प्रतिशत पाई जाती है ।यह एक वर्जीनिया अर्द्ध फैलावदार किस्म है ।
12.आई.सी.जी.एस.-37: यह किस्म 105-110    दिन में तैयार ह¨ती है जिसकी उपज क्षमता 1800-2000 किग्रा. प्रति हैक्टर तक ह¨ती है । दानो  में 48-50 प्रतिशत तेल पाया जाता है । यह एक अर्द्ध फैलने वाली किस्म है ।

बोआई का समय  

    बोआई के समय का मूंगफली की उपज पर व्यापक प्रभाव पड़ता है । बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होना चाहिए परन्तु अधिक नमी में भी बीज सड़ने की संभावना रहती है । खरीफ में मूँगफली की बोआई जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई के दूसरे सप्ताह तक की जानी चाहिऐ।  पलेवा देकर अगेती बोआई करने से फसल की बढवार तेजी से होती है तथा भारी वर्षा के समय फसल को नुकसान नहीं पहुँचाता है। वर्षा प्रारम्भ होने पर की गई बोआई से पौधो की बढ़वार प्रभावित होती है साथ ही खरपतवारों का प्रकोप तीव्र गति से होता है।

बीज दर एंव बोआई 

    बीज के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली मूँगफली पूर्ण रूप से विकसित, पकी हुई मोटी, स्वस्थ्य तथा बिना कटी-फटी होनी चाहिए । बोआई के 2-3 दिन पूर्व मूँगफली का छिलका सावधानीपूर्वक उतारना चाहिए जिससे दाने के लाल भीतरी आवरण को क्षति न पहुँचे अन्यथा बीज अंकुरण शक्ति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। एक माह से ऊपर छीले  गये बीज अच्छी तरह नहीं जमते । छीलते समय बीज के साथ चिपका हुआ कागज की तरह का पतली झिल्ली नहीं उतारना चाहिए क्योकि इसके उतरने या खरोच लगने से अंकुरण ठीक प्रकार नहीं होता है ।  गुच्छेदार  किस्मों में सुषुप्तावस्था नहीं होती है, अत: खुदाई के बाद इनके बीज सीधे खेत में बोये जा सकते हैं। भूमि पर फैलने वाली  या वर्जीनिया किस्मों में सुषुप्तावस्था होती है, अतः शीघ्र बोने के लिए बीजों का ईथालीन क्लोराइहाइड्रिन (0.7 प्रतिशत) से उपचार करना चाहिए। बोआई हेतु 85 प्रतिशत से अधिक अंकुरण क्षमता वाले बीज का ही प्रयोग करना उचित रहता है।
    अच्छी उपज के लिए यह आवश्यक है कि बीज की उचित मात्रा प्रयोग में लाई जाए। मूँगफली की मात्रा एंव दूरी किस्म एंव बीज के आकार पर निर्भर करती है। गुच्छे वाली किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेमी. रखनी चाहिए। ऐसी किस्मों के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 45 सेमी. रखी जाती है और उनके लिए प्रति हेक्टेयर 60-80 किग्रा. बीज पर्याप्त होता है। दोनों प्रकार की किस्मों के पौधों की दूरी 15-20 सेमी. रखना चाहिए। भारी मिट्टि में 4-5 सेमी. तथा हल्की मिट्टि में 5-7 सेमी. गहराई पर बीज बोना चाहिए। मूँगफली को किसी भी दशा में 7 सेमी. से अधिक गहराई पर नहीं बोना चाहिए। अच्छे उत्पादन के लिये लगभग 3 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर होना चाहिए।

बीजोपचार 

    बीज जनित रोगों से बचने के लिए बीजों का  उचित फंफूदीनाशक दवाओ   से शोधन करना आवश्यक है। मूँगफली के बीज को कवकनाशी  जैसे थायरम या बाविस्टीन, 3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करना चाहिऐ। इस उपचारित बीज में राइजोबियम कल्चर से भी निवेशित करना चाहिए। राइजोबियम कल्चर से बीजों को उपचारित करने के लिए 2-5 लीटर पानी में 300 ग्राम गुड़ डालकर गर्म करके घोल बना लिया जाता है । घोल को ठंडा करके उसमें 600 ग्राम राइबोजियम कल्चर मिलायें। यह घोल एक हे. बोआई के लिए पर्याप्त होता है। इसके बाद फास्फेट विलय जीवाणु खाद(पी.एस.बी.) से बीजों को उपचारित करना चाहिए। उपचारित बीजों को छाया में सुखाकर शीघ्र बोआई करना चाहिए। इससे उपज में 5-15 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी ह¨ती है। सफेद गिडार की रोकथाम हेतु 254 मिली. क्लोरोपाईरीफास (20ईसी) दवा प्रति किलो बीज की दर से शोधित कर बोआई करना चाहिए।

बोआई की विधियाँ 

    समतल भूमि में मूँगफली को छिटककर बो दिया जाता है। यह एक अवैज्ञानिक विधि है। इसमें पौध संख्या अपर्याप्त रहती है साथ ही फसल की निराई गुड़ाई करने में कठिनाई होती है। उपज भी बहुत कम प्राप्त होती है। मूँगफली की बोआई के लिए प्रायः निम्न विधियाँ प्रयोग में लाई जानी चाहिए -
1. हल के पीछेे बोआई : देशी हल के पीछे से बीज की बोआई कूड़ों में 5-7 सेमी. गहराई पर की जाती है।
2. डिबलर विधि: यह विधि थोड़े क्षेत्रफल में बोआई करने के लिए उपयुक्त है। पंक्तियों में खुरपी की सहायता से छिद्र बना लेते हैं जिनमें बीज डालकर मिट्टि से ढँक देते हैं। इसमें बीज की मात्रा कम लगती है। इसमें श्रम एंव व्यय अधिक लगता है।
3. सीड प्लांटर द्वारा:  इस यन्त्र से बोआई अधिक क्षेत्रफल में कम समय में हो जाती है। बीज को बोने के बाद पाटा चलाकर बीज को ढँक दिया जाता है। भूमि का प्रकार एंव नमी की मात्रा के अनुसार बीज की गहराई 5-7 सेमी. के बीच रखनी चाहिए। इस विधि से श्रम एंव व्यय की बचत होती है।
    छत्तीसगढ़ में मादा कूँड़ पद्धति से बोआई करना अधिक लाभप्रद पाया गया है। प्रत्येक तीन से चार कतारों के बाद जल -निकास के लिये नाली बनाई जाती है।

खाद एंव उर्वरक 

    मूँगफली की फसल भूमि से अपेक्षाकृत अधिक मात्रा  में पोषक तत्वों का अवश¨षण  करती है। मूँगफली की 12-13क्विंटल . प्रति हे. उपज देने वाली फसल भूमि से लगभग 110 किग्रा. नाइट्रोजन, 14 किग्रा. फॅस्फोरस और 30 किग्रा. पोटाश ग्रहण कर लेती है। मूँगफली के लिए नत्रजन, स्फुर, पोटाश के अलावा सल्फर, कैल्शियम तत्वों की भी आवश्यकता होती है। दलहनी फसल होने के कारण इसे अधिक नाइट्रोजन देने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। चूँकि जीवाणु-ग्रंथिकाओं  का विकास बोने के लगभग 15-20 दिन बाद शुरू होता है, इसलिए फसल की प्रारंभिक बढ़वार के लिए प्रति हे. 10 किग्रा. नत्रजन वर्षा निर्भर क्षेत्रों तथा 20 किग्रा. नत्रजन सिंचित क्षेत्रो के लिए संस्तुत की जाती है। इसकी पूर्ति अमोनियम सल्फेट  के माध्यम से करना चाहिए, क्योंकि इससे फसल को नत्रजन के अलावा आवश्यक गंधक तत्व भी उपलब्ध हो जाता है। गंधक से मूँगफली में तेल की मात्रा बढ़ती है तथा जड़ ग्रंथिकाओं की संख्या में भी वृद्धि होती है। जिससे नत्रजन का संस्थापन अधिक होता है।
    दलहनी फसल होने के कारण इस फसल को फाॅस्फोरस की अधिक आवश्यकता पड़ती है। यह जड़ों के विकास तथा लाभदायक जीवाणुओं की वृद्धि में भी सहायता होती है। इससे नत्रजन का संस्थापन भी अधिक होता है। मूँगफली के लिए 40-60 किग्रा. फास्फोरस प्रति हे. पर्याप्त होता है। यदि स्फुर सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में दिया जाए तो फसल को स्फुर के साथ-साथ सल्फर तथा कैल्शियम की पूर्ति भी हो जाती है। जिन भूमियों में पोटाश की मात्रा कम हो, पोटाश देना आवश्यक होता है, वहाँ प्रति हेक्टेयर 30-40 किग्रा. पोटाश देना चाहिए। उत्तर भारत में गंधक, कैल्सियम और जिंक तत्व की कमी पायी जाती है। अतः 15-20 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करना चाहिए। खेत की अंतिम जुताई के समय गोबर खाद 20-25 गाड़ी (10-12 टन) देना लाभदायक रहता है। सभी उर्वरकों का प्रयोग बोआई के समय  किया जाना चाहिए। ध्यान रखें कि बीज उर्वरकों के सीधे सम्पर्क में न आये। इनका प्रयोग इस तरह से करना चाहिए, जिससे कि यह बीज के 3-5 सेमी. नीचे पड़े। इसके लिए उर्वरक ड्रिल  नामक यंत्र का प्रयोग किया जा सकता है।

खरपतवार प्रबन्धन 

    मूँगफली की खेती में निराई-गुडाई  का विशेष महत्व है। बोआई से 35 दिन तक खरपतवारों की वृद्धि अधिक होती है। अनियंत्रित खरपतवारों से 50-70 प्रतिशत उपज में कमी हो सकती है। खरपतवार प्रकोप से इसकी जड़ों का विकास रूक जाता है और भारी मिट्टियों में फल्लियों की बढ़वार ठीक से नहीं हो पाती है। अतः फसल में 2 बार निराई-गुडाई अवश्यक करना चाहिए। ब¨आई के 12-15 दिन पश्चात् निरायक (कल्टीवेटर) से गुड़ाई करनी चाहिए और यह गुड़ाई  15-20 दिन बाद पुनः करनी चाहिए । वास्तव में मूँगफली की फसल की सफलता मुख्यतः भूमि में सुइया  (पेग) के अधिकतम विकास पर निर्भर करती है । इसी समय पौधों की जड़ों पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिये । जब एक बार सुइयाँ  निकलने लगें और  फलियाँ बनने लगें तो ¨ गुड़ाई बन्द कर देनी चाहिए । मिट्टी चढ़ाने का कार्य गुच्छे वाली और फैलने वाली, दोनों ही प्रकार की किस्मों में किया जाता है। प्रारम्भिक नींदा नियंत्रण के लिये ट्राइफ्लूरालिन 48 ई. सी. 0.25 -0.75 किग्रा. प्रति हे. की दर से बुआई से पहले छिड़काव कर भूमि में मिला देना चाहिए। अंकुरण से पहले एलाक्लोर 50 ईसी 1-1.5 किग्रा. या नाइट्रोफेन 0.25-0.75 किग्रा. प्रति हे. का 500-600 लीटर पानी में बने घोल का छिड़काव करना लाभप्रद पाया गया है। अंकुरण के बाद इमेजेथापिर करना चाहिए। कतारों में बोई गई फसल में निदांई-गुडाई का कार्य, कतारों के बीच हल चलाकर शीघ्रता से किया जाता है।

सिंचाई एंव जल निकास

    सामान्य तौर पर बरसात के मौसम में सिंचाई करने की जरूरत नहीं पड़ती है। अगेती फसल (मई के अन्त या फिर जून में ब¨ई जाने वाली फसल) लेनी हो, तों बोआई के पूर्व एक सिंचाई करना आवश्यक होता है। अवर्षा या सूखे की स्थिति में फसल की आवश्यकतानुसार 2-3 सिंचाइयाँ करनी चाहिए। नस्से  बनते समय एंव फलियों के भरते समय भूमि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है जिससे फलियाँ भूमि में आसानी से घुसकर विकसित ह¨ सकें । मूँगफली की अच्छी उपज के लिए 50-75 मि.मी. जल की आवश्यकता होती है। हल्की मृदाओं  में जब उपलब्ध जल का स्तर 25 प्रतिशत रह जाये, सिंचाई करनी चाहिए। फसल की परिपक्व अवस्था  पर सिंचाई नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से फल्लियों के भीतर दाने अंकुरित होने लगते हैं। सिंचाई नालियों की सहायता से करनी चाहिए। भारी वर्षा के समय जल निकास की उचित व्यवस्था भी होनी चाहिए, अन्यथा पौधे पीले पड़ जायंगे, कीट आक्रमण होगा तथा फल्लियाँ सड़ सकती हैं।
फसल पद्धति
    मूँगफली की शीघ्र तैयार होने वाली उन्नत किस्मों का प्रयोग करने से वर्षाधीन क्षेत्रों में राई, मटर गेहूँ  आदि फसले लेकर द्वि फसली खेती की जा सकती है। सिंचाई की सुविधा होने पर मूँगफली के बाद गेहूँ, चना, मटर, सरसों, की फसलें आसानी से उगाई जा सकती हैं। मूँगफली आधारित अन्तर्वर्ती फसली खेती के लिए कन्हार भूमि में मूगँफली + अरहर (4:1), मूँगफली +सूरजमुखी (3:1 या 2:1), मूँगफली + उर्द (4:1) तथा हल्की भूमि में मूँगफली +तिल(3:1) की खेती लाभकारी रहती है।

कटाई-खुदाई समय पर आवश्यक 

    मूँगफली की फसल 120-150 दिन में पककर तैयार हो जाती है। शीघ्र पकने वाली किस्में सितम्बर-अक्टूबर तथा देर से पकने वाली किस्में अक्टूबर-नवम्बर में खुदाई के लिए तैयार हो जाती हैं। जब पौधे पीले पड़ने लगें और पत्तियाँ मुरझाकर झड़ने लगें (इस समय 75 प्रतिशत फल्ली पक जाती है) तभी फसल की कटाई/खुदाई करनी चाहिए। इस समय फल्ली के छिल्के की भीतरी सतहह पर गहरा रंग  उत्पन्न हो जाता है और बीज के आवरण का रंग भी किस्म के अनुसार समुचित ढंग से विकसित हो जाता है। अधपकी फसल काटने से उपज कम हो जाती है तथा तेल की मात्रा कम व गुणवत्ता भी घट जाती है। फसल की कटाई, हाथ से पौधे उखाड़कर, खुरपी या कुदाल से खोदकर अथवा देशी हल या ब्लेड हैरो द्वारा, की जा सकती है। कटाई के समय फल्लियों में 40-50 प्रतिशत नमी रहती है। अतः फल्लियों को पौधों से अलग करने के पहले 8-10 दिन तक सुखाना चाहिए। इसके बाद फल्लियाँ हाथ से तोड़कर अच्छी तरह धूप में सुखाया जाता है। खुदाई के समय वर्षा होने पर भूमि में फल्लियों पर फफूंदी  लग सकती है। इससे बीज का रंग बदल सकता है साथ ही उसमें अफलाटाक्सिन (कड़वा-जहरीला पदार्थ) का रासायनिक स्तर काफी बढ़ सकता है। अफलाटाक्सिन से बीजो के खाने का गुण नष्ट होने की संभावना रहती है।

उपज एंव भण्डारण

    उन्नत सस्य विधियों से खेती करने पर गुच्छेदार  किस्मों की फल्लियों की उपज 15-20 क्विंटल  तथा फैलने वाली किस्मों की उपज 20-30 क्विंटल . प्रति हे. तक प्राप्त की जा सकती है।  जब दानों में नमी का अंश 9 प्रतिशत रह जाता है तब भण्डारण किया जाता है। वैसे भण्डारण के समय फल्लियों में नमी का अंश 5 प्रतिशत आर्दश माना जाता है। अधिक नमी वाली फल्लियों को भंडारित करने पर मूँगफली के गुणों में गिरावट आने लगती है जिससे निकाला हुआ तेल खराब होता है। फल्लियों को ही भण्डारित किया जाता है, आवश्यकतानुसार फल्लियों का छिलका पृथक करना चाहिए।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

बगैर जुताई करे बोवाई : मील का पत्थर साबित हो रही है शून्य भू-परिष्करण


                                   बेहतर कमाई  के लिए बगैर जुताई करे बोवाई 

                                                                   गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                               प्राध्यापक (सश्यविज्ञान )
                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय , कृषक नगर , रायपुर (छत्तीसगढ़ )
 
              परम्परागत रूप से खेतों की तैयारी में अधिक जुताई करने में ज्यादा  समय, श्रम और धन अधिक लगता है। दिनों दिन महंगी होती खेती के कारण किसानो का खेती किसानी से मोह भंग होने लगा है. भूपरिष्करण की आधुनिक विचारधारा के तहत अब यह सिद्द हो चूका है कि तमाम फसलो की बोवाई अब सुन्य भू-परिष्करण पर भी सफलता पूर्वक की जा सकती है। शून्य भू परिश्करन अर्थात  जीरो टिलेज फसल उत्पादन में मील का पत्थर साबित होगा। जीरो टिलेज पारंपरिक खेती से अलग कृषि की एक नई विधा है, जिसमें खेत की जुताई के बिना बुआई की जा सकती है।  इसके फायदों को देखते हुए केंद्र व् राज्य सरकारो  द्वारा भी इसमें इस्तेमाल होने वाले यंत्र ( सीड ड्रिल) पर किसानों को 50 फीसदी सब्सिडी दी जा रही है, ताकि इस विधा को बढ़ावा मिल सके। खेती की लागत कम करने के लिए अब  कृषि वैज्ञानिक भी किसानों को इसी के जरिये खेती करने की सलाह दे रहे हैं। गौरतलब है कि खरीफ यानि धान की कटाई के बाद किसानों को रबी की फसल गेहूं आदि के लिए खेत तैयार करने पड़ते हैं। गेहूं के लिए किसानों को अमूमन 5-7 जुताइयां करनी पड़ती हैं। ज्यादा जुताइयों की वजह से किसान समय पर गेहूं की बिजाई नहीं कर पाते, जिसका सीधा असर गेहूं के उत्पादन पर पड़ता है। इसके अलावा इसमें लागत भी ज्यादा आती है। ऐसे में किसानों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता। जीरो टिलेज से किसानों का वक्त तो बचता ही है, साथ ही लागत भी कम आती है, जिससे किसानों का मुनाफा काफी बढ़ जाता है। जीरो टिलेज के जरिये खेत की जुताई और बिजाई दोनों ही काम एक साथ हो जाते हैं। इस विधा से बुआई में प्रति हेक्टेयर किसानों को करीब 2000-2500 रुपए की बचत होती है। बीज भी कम लगता है और पैदावार करीब 15 फीसदी बढ़ जाती है। खेत की तैयारी में लगने वाले श्रम व सिंचाई के रूप में भी करीब 15 फीसदी बचत होती है। इसके अलावा खरपतवार भी ज्यादा नहीं होता, जिससे खरपतवार नाशकों का खर्च भी कम हो जाता है। समय से बुआई होने से पैदावार भी अच्छी होती है। किसान अगेती फसल की बुआई भी कर सकते हैं।
       देश के अनेक राज्यों में  गेहूँ रबी की एक प्रमुख फसल है जो एक बड़े भूभाग  में उगाई जाती है। गेहूँ की भरपूर पैदावार लेने के लिए बोआई का समय नवम्बर का पहला सप्ताह उपयुक्त होता है, लेकिन कुछ क्षेत्रों में धान की फसल की कटाई देर से होने के कारण अथवा  कुछ क्षेत्रों में नमी बने रहने के कारण खेत की तैयारी समय से न होने पर गेहूँ की बुआई समय से नहीं हो पाती जिससे उपज में काफी गिरावट आती है। जैसे- गेहूँ की बुआई 30 नवम्बर के बाद करने पर प्रत्येक दिन 30-35 किग्रा. उपज प्रति हे. की दर से कम होती है, इसलिए जीरो टिल मशीन से खेत की बिना जुताई किये हुये गेहूँ की बुआई जल्द कम समय में कर ली जाती है जिससे किसान पर आर्थिक बोझ कम पड़ता है।  यही नहीं जीरो टिलेज विधि से न केवल  गेहूँ  बल्कि धान, मक्का, ज्वार , बाजरा, चना, मटर आदि फसलो की बोवाई भी की जा सकती है। देश के उत्तरी राज्यों में किसान जीरो टिलेज को अपना रहे हैं।
                      जीरो टिल फर्टी सीड ड्रिल मशीन में लगे कुंड बनाने वाले फरो-ओपनर  पतले धातु की मजबूत शीट से बने होते हैं, जो जुते खेत में एक कूड़ बनाते हैं। इसी कूड़ में खाद और बीज एक साथ  गिरता  जाता है। यह सीड ड्रिल 9 और 11 फरो-ओपेनर आकार में उपलब्ध हैं। इसमें फरो-ओपेनर इस तरह लगाए गए हैं कि उनके बीच की दूरी को कम या ज्यादा किया जा सकता है। यह मशीन गेहूं और धान के अलावा दलहन फसलों के लिए भी बेहद उपयोगी है। इससे दो घंटे में एक हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई की जा सकती है। इस मशीन को 35 हॉर्स पॉवर शक्ति के ट्रैक्टर से चलाया जा सकता है।
                     इसके इस्तेमाल से पहले कुछ सावधानियां बरतना आवश्यक है । खेत समतल और साफ-सुथरा होना चाहिए। कंबाइन हार्वेस्टर  से कटे धान से बिखरे हुए पुआल को हटा देना चाहिए, वरना यह मशीन में फंसकर खाद-बीज के बराबर से गिरने में बाधक हो सकते हैं। धान की फसल को जमीन  के पास से काटना चाहिए, ताकि बाद में डंठल खड़े न रह जाएं क्योकि  इन डंठलों को हटाने में काफी समय बर्वाद  हो जाता है। बुआई के समय  मिट्टी में नमी का होना बेहद जरूरी है। अगर नमी कम है तो बुआई से कुछ दिन पहले खेत में हल्का पानी (पलेवा) लगा  लें। बुआई के वक्त दानेदार उर्वरकों का ही इस्तेमाल करें, ताकि वे ठीक से कूड में  गिर सके। इसके अलावा सीड ड्रिल को चलाते समय ही उठाना या गिराना चाहिए, वरना फरो-ओपनर में मिट्टी भर जाती है, जिससे कार्य प्रभावित होता है।

जीरो टिल  कृषि से लाभ

    1. खेत की तैयारी  में लगने वाली  लागत, समय व श्रम की बचत तथा  कम खर्च में बीज की बोआई समय पर हो जाती है।
    2. मृदा अपरदन कम होता है।
    3. खरपतवार कम उगते हैं जैसे गेहूँसा के पौधे। अन्य खरपतवार जुताई न करने से गहराई में पड़े रहते हैं।
    4. बीज, खाद, सिंचाई इत्यादि संसाधनों का बेहतर प्रबन्धन होता है।
    5. ऊसर भूमि में भी इसकी बोआई अत्यन्त लाभप्रद पायी गई है।
    6. जीरो टिल मशीन से बोआई करने पर खाद की पूरी मात्रा पौधे ले लेते हैं, तथा अन्य खरपतवार उसका उपयोग नहीं कर पाते हैं, जिससे खरपतवार कम पनपते  है, और उपज अच्छी मिलती है।

राष्ट्रीय कृषि नीति ----2007



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असिंचित क्षेत्रों के लिए वरदान है: उतेरा कृषि - रिले क्रॉपिंग

उतेरा कृषि  कम लागत से अधिक आमदनी

                    भारत में फसल उत्पादन की अनेको  परंपरागत पद्धतियाँ सदियो  से प्रचलन में है जिनमें से उतेरा या पैरा कृषि अथवा रिले क्रॉपिंग  एक महत्वपूर्ण पद्धति है । आधार फसल अर्थात धान की कटाई से पूर्व अन्य फसल की बुवाई आधार फसल की खड़ी अवस्था में करना ही उतेरा कृषि पद्धति कहलाता है तथा अनुवर्ती फसल उतेरा फसल कहलाती है । इस कृषि प्रणाली का प्रमुख उद्देश्य खेत  में उपस्थित नमी का उपयोग अनुवर्ती उतेरा फसल के अंकुरण तथा पौध  वृद्धि के लिए करना है । छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्रो  में जहाँ की कृषि वर्षा पर आधारित है तथा सिंचाई के सीमित साधन के कारण रबी मोसम में खे त परती पड़े रहते है उन क्षेत्रो में यह पद्धति अपनाई जाती है जिसे वर्षा आधारित क्षेत्रो  में द्विफसली खेती हेतु उपयोगी विकल्प के रूप में देखा जा रहा है । उतेरा कृषि पद्धति से प्रायः सभी किसान परिचित रहते है, परन्तु उससे जुड़े वैज्ञानिक पहलुओ  तथा आधुनिक सस्य क्रियाओ  के अभाव के कारण वे उतेरा फसल से काफी कम उत्पादन ले  पाते है । अतः प्रति इकाई उत्पादन वढ़ाने के लिए उतेरा खेती की वैज्ञानिक विधियो  का व्यापक उपयोग  अत्यन्त आवश्यक है । आधार फसल की बोवाई के समय ही उतेरा फसल के लिए भी योजना बना लेना चाहिए । 

उतेरा खेती अपनाने से निम्नलिखित लाभ है:
1.    उतेरा कृषि की सबसे बड़ा लाभ यही है कि रबी मोसम में जो खेत  पड़ती  पड़ा रहता है उसका समुचित उपयोग हो  जाता है जिसके फलस्वरूप फसल सघनता भी बढ जाती है।
2.    उतेरा कृषि अन्य दोहरी फसल पद्धतियो  से कम लागत वाली सस्ती एवं सरल फसल पद्धति है ।
3.    इस पद्धति से खे त में मौजूद नमी का सदुपयोग होता है ।
4.    सीमित संसाधनो  एवं कम लागत से ही रबी दलहन तथा तिलहनी फसलो  की अतिरिक्त उपज प्राप्त हो जाती है अर्थात अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त ह¨ता है ।
5.    उतेरा कृषि के अन्तर्गत दलहनी फसलो  की खेती से मिट्टी में नत्रजन की मात्रा  बढ़ जाती है, जिससे किसान को  अनुवर्ती अन्य फसल की खे ती में नत्र जनयुक्त खाद की मात्रा  कम देनी पड़ती है ।
6.    तिलहनी फसलो  से खल्ली के रूप में कार्बनिक खाद प्राप्त होती है ।

भूमि का चुनाव

                      उतेरा खेती के लिए भारी या मटियार दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है । अतः मध्यम तथा निचली भूमि का चुनाव करना चाहिए । भारी मिट्टी में जल धारण क्षमता अधिक ह¨ती है साथ ही काफी लम्बे समय तक सि मिट्टी में नमी बरकरार रहती है । ऊपरी या टांड़ भूमि उतेरा फसल के लिए उपयुक्त नहीं ह¨ती है क्य¨ंकि यह जल्दी ही सूख जाती है । अंकुरण के समय ख्¨त में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए । पानी के जमाव से बीज सड़ जाने का खतरा रहता है । अतः जल निकासी का प्रबन्ध कर लेना चाहिए ।
फसल एवं किस्मो  का चयन

आधार फसल की किस्म तथा प्रस्तावित अनुवर्ती उतेरा फसल के बीच समय का सामंजस्य अति आवश्यक है ।  मुख्य फसल की अवधी और  उतेरा फसलो  के बीच समय का तालमेल इस प्रकार से हो  कि हथिया नक्षत्र में पड़ने वाली वर्षा का लाभ दोनों  फसलो को  मिल जाए,  साथ ही उतेरा फसल वृद्धि एवं विकास के लिए पर्याप्त समय भी मिल जाए । अतः आधार फसल के लिए मध्यम अवधि वाली अर्थात 120 से 125 दिन में पकने वाली उन्नत किस्मो  का चयन करना चाहिए । लम्बी अवधि की आधार फसल का चुनाव करने से उतेरा फसल को  वृद्धि के लिए कम समय मिलता है तथा नमी के अभाव के कारण उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । धान छत्तीसगढ की प्रमुख खरीफ फसल है इसलिए धान क¨ आधार फसल के रूप में लिया जाता है । यदि रबी फसलो को  उतेरा के रूप में लेना  है तब धान की उन्नत मध्यम अवधि वाली किस्में जैसे आई.आर.36, आईआर-64, पूसा बासमती आदि की खेती खरीफ में आधार फसल के रूप में की जानी चाहिए । उतेरा फसल के रूप में खेसारी, अलसी, मसूर, मटर, चना आदि का चुनाव किया जा सकता है ।
बीज दर
           उतेरा फसल के लिए बीज दर उस फसल के सामान्य अनुशंसित मात्रा  से डेढ़ गुणा अधिक रखना चाहिए ।उदाहरण के लिए अलसी की अनुशंसित बीज दर 20 किग्रा प्रति हेक्टेयऱ है । उतेरा खेती हेतु 20 किग्रा का डेढ़ गुणा अर्थात 30 किग्रा अलसी बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होगी । प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने के लिए उतेरा फसलो जैसे खेसारी (तेवड़ा), अलसी, मसूर,चना,मटर  की उन्नत किस्मो  का चुनाव एवं उचित बीज दर का प्रयोग  आवश्यक है ।
आधार फसल धान की किस्में        उतेरा फसल                  उन्नत किस्में        बीद दर (किग्रा / हेक्टेयऱ)एमटीयू-1010                  खेसारी                         रतन, पूसा-24          85
आईआर-36                                  अलसी                            शुभ्रा, टी-397          30
आईआर-64                                   मसूर                               जे एल एस-१         35       
महामाया                                      चना                                सी-235, वैभव        110
पूसा बासमती                                मटर                                   रचना                 115

कब और  कैसे लगाएं
              धान  फसल में 50 प्रतिशत फूल आने के दो सप्ताह बाद अर्थात अक्टूबर के मध्य माह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह के बीच उतेरा फसल की बोआई छीट कर करना चाहिए । बो आई के समय खेत में पर्याप्त नमी होना चाहिए । नमी इतनी रहें कि बीज गीली मिट्टी में चिपक जाएं । परन्तु ध्यान रहें कि खेत में पानी अधिक  न  रहे अन्यथा बीज सड़ जाएंगें । अतः आवश्यकता से अधिक पानी निकाल देना चाहिए अर्थात खे त में जल निकासी का उत्तम प्रबन्ध कर लेना चाहिए  ।
खाद एवं उर्वरक
              उतेरा फसल को  भी पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। दलहनी फसलो  में नत्रजन की आवश्यकता पौध की  प्रारम्भिक अवस्था में होती है । अतः यूरिया 2 किग्रा  डीएपी 20  किग्रा  तथा पोटाश 6  किग्रा  प्रति एकड़ बोआई के समय देना चाहिए । अलसी या अन्य तिलहनी फसलो के लिए नजत्रन की अतिरिक्त मात्रा  देने की आवश्यकता होती है । अतः अतिरिक्त 10  किग्रा  यूरिया का व्यवहार बो आई के 20 दिन बाद करना चाहिए ।
खरपतवार नियंत्रण 

           धान कटाई के 25-30 दिन बाद उतेरा फसल में एक निंदाई करना चाहिए । चना तथा खेसारी जैसी उतेरा फसल की शीर्ष शाखाओ को  तोड़ देना चाहिए ।अलसी में खरपतवार  नियंत्रण  के लिए आइसोप्रोतुरान धूल (25 प्रतिशत) का छिड़काव बोआई के 15 दिनो  बाद किया जा सकता है । दलहनी फसलो  में खरपतवार  नियंत्रण  हेतु एलाक्लोर  50 ईसी का प्रयोग   बोआई के 2 दिन बाद किया जा सकता है ।
पौध  संरक्षण
                 दलहनी फसलों  जैसे चना, मटर, मसूर, खेसारी तथा तिलहनी फसल जैसे अलसी में उकठा रोग होने पर उक्त खेत में 2  से 3 साल तक इन फसलो  की खेती रोक देनी चाहिए या फिर रोग रोधी किस्मो  का प्रयोग करना चाहिए । मटर के फंफूदी रोग  नियंत्रण  हेतु कैरान थे(0.1 प्र.) या सल्फेक्स (0.3 प्र.)  का छिड़काव करना चाहिए । अलसी में गाल मीज का प्रकोप तथा दलहनी फसलो  में फली छेदक से फसल सुरक्षा हेतु मिथाइल डिमेटान (10 मिली. प्रति 10 ली. पानी) या मोनोक्रोटोफास  (10 मिली प्र.10 ली. पानी) का छिड़काव करना चाहिए ।
उपज        
              आधार फसल अर्थात धान  की कटाई उतेरा फसल को  बचाते हुए सावधानी से करनी चाहिए । किसान भाई यदि आधार फसल धान जैसे ही उतेरा फसल की खेती पर ध्यान दें तो  निश्चित रूप से प्रति इकाई अधिकतम उपज ली जा सकती है । असिंचित क्षेत्रो में उतेरा खेती  अपनाकर काफी कम लागत में  खेसारी    7-10 क्विंटल      अलसी 6-8 क्विंटल , मसूर    2.5-3.5 क्विंटल ,     चना 3-5 क्विंटल , तथा मटर से 6-8  क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा  सकती है ।

बुधवार, 27 मार्च 2013

ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यकम (RAWEP): अवधारणा एवं उद्देश्य


           कृषि कला ही नही अपितु एक सुदृढ़ एवं सफल विज्ञान है।  वैज्ञानिक दृष्टिकोण  से कृषि कार्य अब जीविकोपार्जन  का साधन न रहकर,  एक वृहद उद्योग  का रूप लेता जा रहा है । परंतु व्यवहारिक स्तर पर हमारे देश में कृषि का ओद्योगिक  स्वरूप अभी भी उभर कर सामने नहीं आ पाया है । सैद्धांतिक रूप से कृषि शिक्षा को  तकनीकी शिक्षा भले  ही मान ले  परन्तु यथार्थ के धरातल पर कृषि का चिकित्सकीय दृष्टिकोण  हमसे अभी भी दूर है । आज भी कृषि स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण कर खेती किसानी अथवा स्वंय का व्यवसाय न कर नौकरी  की तलाश में रहते है क्योकि शिक्षा के दरम्यान उन्हे कृषि व्यवसाय और खेती किसानी की ओर  अग्रसर होने की व्यवहारिक शिक्षा और  संस्कार देने में कहीं न कहीं हमसे चूक हो  रही है । मृदा प्रबंध भू-प्रबंध, जल प्रबध और  पौध  संरक्षण की शिक्षा तो  दी जाती है परन्तु मृदा और पादप  स्वास्थ्य अभी भी आम चर्चा का विषय नहीं बन पाया है । विकसित देशो  में मानव स्वास्थ्य व पशु स्वास्थ्य की भांति पादप और  मृदा स्वास्थ्य की अवधारणा विकसित हो  चुकी है जिसके फलस्वरूप वहां के गांवो  व नगरो  में बड़ी तादाद में कृषि चिकित्सालय स्थापित हो  रहे है । विकसित और  अनेक विकासशील देशो  के किसानो  व जनसामान्य ने पादप व मृदा स्वास्थ्य की अवधारणा को  आत्मसात कर लिया है । हमारे देश में भी कृषि शिक्षा को  स्वरोजगारोन्मुखी बनाने की दिशा में केंद्र  व राज्य सरकारो  ने कारगर कदम उठाये है ।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR), नई दिल्ली ने कृषि शिक्षा को  स्वरोजगारोन्मुखी बनाने के उद्देश्य से स्नातक उपाधि के अंगीभूत ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव एक ग्रामोन्मुखी प्रशिक्षण  पाठ्यक्रम लागू किया है । इस प्रशिक्षण का उद्देश्य किसानो  की समस्याओ  के समाधान की दिशा में कृषि छात्र-छात्राओं को ¨ स्वावलंबी बनाते हुए सर्वांगीण ग्राम्य विकास का पथ प्रशस्त करना है । सम्पूर्ण भारत में कृषि शिक्षा में एकरूपता लाने के उद्देश्य से भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् नई दिल्ली  की चतुर्थ अधिष्ठाता समिति ने कृषि स्नातक शिक्षा के लिए नवीन पाठ्यक्रम की अनुशंसा की है जिसमें ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव पाठ्य्रम में भी संसोधन किया गया है । इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर में स्नातक उपाधि हेतु अध्ययनरत विद्यार्थियो  के लिए गाम्य कृषि कार्य अनुभव (Rural Agriculture Work Experience Programme) नाम से महत्वाकांक्षी व्यवहारिक प्रशिक्षण कार्यक्रम चतुर्थ अधिष्ठाता समिति की अनुशंसा के अनुरूप सभी महाविद्यालयो  में प्रारंभ किया है । इसका लक्ष्य ग्राम्य जीवन के परिवेश में तथा कृषक परिवार की पृष्ठभूमि मे छात्र-छात्राओं को  कृषि की वर्तमान स्थिति से अवगत कराना है । स्नातक उपाधि के अंतिम वर्ष में विद्यार्थियो को  इस छःमाही व्यवहारिक प्रशिक्षण में अनिवार्य रूप से भाग लेना होता है। सीखने और सिखाने की अवधारणा के निमित्त विद्यार्थिओ को ¨ तीन माह के लिए कृषक परिवारो के साथ  संलग्न किया जाता है । इस दोरान उन्हे फसल उत्पादन उद्यानिकी, फसल संरक्षण (कीट व रोग  प्रबंधन), ग्रामीण कृषि अर्थशास्त्र  और कृषि  प्रसार शिक्षा से संबधित विषयो  पर वरिष्ठ प्राध्यापको  द्वारा प्रायो गिक प्रशिक्षण प्रदान करने के अलावा कृषको  के खेत पर कृषि तकनीक  प्रदर्शन एवं प्रशिक्षण आयोजित किये जाते है । इस कार्यक्रम के तहत छात्र-छात्राओं को  कृषि शोध  संस्थान, कृषि विज्ञान केन्द्रो  और  कृषि संबंधित उद्यमिता  केन्द्रो  के साथ भी संलग्न किया जाता है जिससे वे कृषि अनुसंधान, प्रसार और  उद्यम से संबंधित गतिविधियो  के बारे में ज्ञान अर्जित कर सकें । अंत में संबंधित विषयो  में छात्र-छात्राओं  द्वारा अर्जित ज्ञान और कोशल की  प्रायोगिक परीक्षा आयोजित की जाती है जिसमें सफल होने के पश्चात ही  उन्हें कृषि  स्नातक की उपाधि प्रदान की जाती है । सीखो और  सिखाओ  तथा देखो फिर करो  की मूल भावना के  निमित्त संचालित ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव के पमुख उद्देश्य हैः
1.    विद्यार्थियो को  गाँव में रहकर  किसान परिवारो  की जीवनशैली, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पहलुओ  के बारे में अध्ययन का अवसर प्रदान करना ।
2.    छात्र-छात्राओं एवं किसानो को  फसलोत्पादन, उद्यानिकी, फसल सुरक्षा, कृषि अर्थशास्त्र  तथा कृषि प्रसार शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषयो  पर व्यवहारिक प्रशिक्षण।
3.    गाँव  में अपनाई जा रही कृषि प्रणाली का अध्ययन करना एवं स्थानीय भूमि एवं जलवायु के आधार पर आदर्श फसल पद्धति तैयार कर उसके क्रियान्वयन हेतु कृषको को  प्रेरित करना ।
4.    कृषि तकनीक को कुशलता से हस्तान्तरित करने हेतु विद्यार्थियो को  सक्षम बनाना ।
5.    केन्द्र व राज्य शासन द्वारा संचालित कृषि एवं किसान हितैषी विभिन्न योजनाओं के बारे में किसानो  एवं छात्र-छात्राओं  को  अवगत कराना ।
6.    कृषि चिकित्सा एवं कृषि व्यवसाय से संबंधित व्यवहारिक तत्वों  का अध्ययन एवं स्वरोजगार स्थापित करने किसानो  व छात्र-छात्राओं  को  प्रेरित करना । 

कृषक-छात्र-वैज्ञानिक परिचर्चा एवं कृषि विज्ञान प्रदर्शनी में उमड़ा जन-शैलाव



बाएं से दाएं  डॉ जी एस तोमर, आयोजन सचिव, डॉ एस के पाटील, कुलपति,श्री चंद्रशेखर साहूजी, कृषि मंत्री, छत्तीसगढ़, श्री पी आर कृदत्त, संचालक,कृषि छत्तीसगढ़,  डॉ जे एस उर्कुरकर निदेशक विस्तार एवं  डॉ ओ पी कश्यप, अधिष्ठाता दृष्टिगोचर है. 




















रायपुर २४  मार्च २०१ ३। इंदिरा गांधी कषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय रायपुर द्वारा बी.एससी.(कृषि) अंतिम वर्ष के  छात्रो  के  लिए संचालित ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यक्रम के  तहत 24 मार्च 2013 को  ग्राम सारांगाव, जिला रायपुर  स्थिति कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक  ट्रस्ट प्रांगण में कृषक-छात्र-वैज्ञानिक परिचर्चा एवं कृषि विज्ञान प्रदर्शनी  पहली बार आयोजित की गई ।  सस्य विज्ञानं के प्राध्यापक एवं  रावे समन्वयक डाँ.जी.एस तोमर के  मार्गदर्शन में कृषि छात्रो  द्वारा छत्तीसगढ़ में पहली बार आयोजित यह कार्यक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति डाँ.एस.के .पाटील की अध्यक्षता एवं प्रदेश के  कृषि,पशुधन,मत्स्य व श्रम मंत्री श्री चन्द्रशेखर साहू के  मुख्य आतिथ्य में संपन्न हुआ जिसमें क्षेत्रीय विधायक एवं अध्यक्ष बेबरेज कारपोरेशन, छत्तीसगढ़  श्री देवजी भाई पटैल, संचालक कृषि  श्री प्रतापराव क्रदत्त, निदेशक विस्तार सेवाएं डां.जे.एस.उरकुरकर, अधिष्ठाता कृषि संकाय डाँ.ओ. पी.कष्यप, विभागाध्यक्ष डाँ.एम.पी.ठाकुर सहित तमाम वैज्ञानिको , छात्रो, किसानो , स्कूली बच्चो  एवं स्थानीय जन प्रतिनिधियो  ने हिस्सा लिया ।
संबोधन डॉ जी एस तोमर, आयोजन सचिव  द्वारा साथ में डॉ ओ पी कश्यप, अधिष्ठाता,








श्री देवजीभाई पटेल, बिधायक एवं डॉ जे एस उर्कुरकर निदेशक विस्तार 






 भावी  युवा कृषि वैज्ञानिको  ने फसल उत्पादन, उद्यानिकी, फसल संरक्षण से संबंधित विभिन्न विषयो  यथा समन्वित कृषि प्रणाली, वर्षा जल संरक्षण, भू-जल पुर्नभरण एवं संवर्दन, फसल चक्र, फसल उत्पादन तकनीक, फसल सुरक्षा की परंपरागत विधियाँ, उद्यानिकी फसलो  हेतु किफायती टपक सिंचाई, फसल को  चूहो, बंदर, तोतों आदि से बचाने के  लिए कारगर  नियंत्रण विधियाँ, मृदा स्वास्थ्य परीक्षण, फलो  से जैम, जैली व शर्बत बनाने का जीवंत प्रदर्शन बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया । सुबह ११  बजे से ही दूर दराज के  कृषको, ग्रामीण महिलाओ एवं स्कूली छात्रो  ने सभी स्टालों का भ्रमण करते हुए बिषयो की जानकारी हासिल की तथा बहुत सी तकनीक को अपने गाँव खेत में अपनाने के गुर सीखे। रावे समन्वयक व आयोजन सचिव डाँ.जी.एस.तोमर ने बताया कि  ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यक्रम के  तहत 25 छात्रो  को  ग्राम जरोदा, 25 छात्रो  क¨ ग्राम बरो डा एवं 20 छात्राओ  को  ग्राम सारागांव सीखो और  सिखाओ तथा देखो और करो  की मूल भावना से कृषक परिवारो के  साथ ३ माह के लिए  संलग्न किया गया है । प्रत्येक छात्र-छात्रा ने संबंधित ग्राम के  उनके  द्वारा चयनित २ -२  कृषक परिवारो  के  साथ मिल कर अपने ज्ञान और  कोशल को  खेत पर प्रदर्शित करने के  साथ-साथ वे कृषको  के  अनुभव¨के  लाभ भी अर्जित कर रहे है । कृषि विज्ञान प्रदर्शनी का लगभग 1120 किसानो , छात्र-छात्राओ   एवं ग्रामवासीओ  ने अवलोकन करते हुए कृषि छात्रो  से विभिन्न विषयो  पर संवाद कर अपनी जिज्ञासा पूरी की । इस दोरान उन्हे कृषि पंचांग, कृषि दर्शिका और रबी व खरीफ  कृषि कार्यमाला निःशुल्क प्रदान की गई । कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए डां.एस.के .पाटील, कुलपति-इं.गां.कृ.वि. ने छात्रो  द्वारा आयोजित कृषि विज्ञान प्रदर्शनी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि रावे कार्यक्रम के तहत पहली बार इस तरह का बेहतर आयोजन किया गया है जिसे प्रदेश के  समस्त महाविद्यालयो  में लागू किया जाएगा । कला  और विज्ञान  का बेहतर समन्वयन मै पहली बार देख रहा हूं । इस आयोजन के लिए उन्होंने शिक्षको और छात्रो को हार्दिक बधाई व सुभकामनाए प्रेषित की।  उन्होने  बताया कि इस वर्ष से यह कार्यक्रम आगामी खरीफ ऋतु से प्रारंभ किया जाएगा जिससे छात्रो  को  प्रदेश की प्रमुख फसलो  के  बारे में  अधिक सीखने मिलेगा जिससे किसानो  को  भी बांक्षित लाभ हो गा । मुख्य अतिथि की आसंदी से बोलते हुए श्री चन्द्रशेखर साहूँ जी ने कहा कि छात्र-छात्राओ  द्वारा  इस तरह के आयोजन की बेहतरीन प्रस्तुति मै पहली बार देख रहा हूँ । छात्रो  द्वारा अलसी का मौर  अपने मस्तिश्क पर धारण करना इस बात का धोतक है कि हमारे छात्र परंपरागत फसलो और  समन्वति फसल प्रणाली के  ज्ञान को  प्रसारित करने में अग्रणीय भूमिका निभा रहे है । उन्होने छात्र-छात्राओ  द्वारा रो चक ढंग से सजाए गये कषि सूचना केन्द्र और  विभिन्न प्रदर्शनो  का बारीकी से अवलोकन किया तथा प्रत्येक छात्र-छात्रा से विषय की सम्पूर्ण जानकारी लेते हुए उनके  उज्जवल भविष्य की कामना की । मंत्री जी ने रावे के  छात्र-छात्राओ  के  इस वर्ष से कृषि विभाग की विभन्न योजनाओ  के  तहत विशेष स्कालरशिप प्रदान किये जाने की घोषणा की जिससे छात्रो  के  चेहरे खुशी से खिल गये । कार्यक्रम के  विशिष्ट अतिथि क्षेत्रीय विधायक श्री देवजी भाई पटैल, संचालक कृषि श्री पी.आर कृदत्त, अधिष्टाता कृषि डाँ ओ .पी.कष्यप और  निदेशक विस्तार डाँ. जे.एस.उरकुरकर ने भी छात्रो  द्वारा आयोजित कृषि विज्ञान प्रदर्शनी का अवलोकन और  छात्र-छात्राओ  एवं शिक्षको  की नवोन्वेषी प्रस्तुति एवं कृषि तकनिकी से संबधित प्रादर्शो   की सराहना की ।रावे कार्यक्रम के  तहत ग्राम बरोडा में छात्रों द्वारा किये गये कार्यो  का मंत्री जी ने कुलपतिजी, संचालक कृषि, निदेशक विस्तार सेवाए तथा अधिष्ठाता कृषि संकाय के  साथ अवलोकन किया तथा विद्यार्थियो  द्वारा स्थापित प्रादर्श एवं कृषि  कार्यो   एवं किसानो  के  साथ बेहतर तालमेल की सराहना की।  कृषक-छात्र-वैज्ञानिक परिचर्चा मे डां.एम.पी.ठाकुर, डाँ.एस.के टांक, डाँ.व्ही.के .गुप्ता, डाँ.एस.एन.दीक्षित, डाँ.के .पी.वर्मा, डाँ.नंदन मेहता, डाँ.लालजी सिंह, डाँ.जी.पी.पाली, डां.एम.एल.शर्मा, डाँ.पी.के .चन्द्राकर, डांएच.सी.नंदा, डाँ.रामा सावू, श्री गजेन्द्र चन्दकर, डाँ.आर.के .दांतरे, डां.केक़े. श्रीवास्तव,डाँ.अंबिका टंडन, डाँ.हुलास पाठक की प्रमुख भूमिका रही है । कृषको  की ओर  से श्री ईषकुमार साहू, श्री मनोहर पांडे तथा कस्तूरबा गांधी ट्रस्ट की  सभी कार्यकताओ  एवं बाल मण्डली  का सराहनीय योगदान रहा । तीनं गांवो  की पंचायत को  मृदा परीक्षण किट प्रदान की गई जिससे जरूरतमंद किसान अपने खेत की मृदा के स्वास्थ्य का परीक्षण कर सकते है । कार्यक्रम के  अंत में ग्राम जरोदा, सारागांव व बरोडा के  5-5 किसानो  को उनके  सहयोग एवं कृषि क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के  लिए प्रशस्ति पत्र व समृति चिन्ह से सम्मानित किय गया । इसके  अलावा कस्तूरबा गांधी ट्रस्ट की बाल मंडली एवं समाज सेवा में अग्रणीय भूमिका अदा करने वाली महिला मंडल क¨ भी सम्मानित किया गया । सभी छात्र-छात्राओ एवं रावे शिक्षको  को  भी प्रशस्ति पत्र प्रदान किये गये ।  ग्राम्य कृषि कार्य अनुभव कार्यक्रम के तहत   छात्र-छात्राओ के साथ अनुलग्न सभी कृषको को  फलदार वृक्षों  की पौध  एवं कृषि तकनीकी पुस्तिकाएं निःशुल्क वितरित की गई । सम्पूर्ण आयोजन में सभी छात्र-छात्राओ  विशेषकर प्रकाश रायचंदानी, कु.पूजा यादव, हेमकांत चन्द्रवंशी कु. वेनी कष्यप, वीरेन्द्र तिग्गा, कु.प्रतिभा चन्द्राकर, अर्चित नायक, गिरीष देवांगन, कु.अनुसुइया पंडा, कु. शुरूभि श्रीवास्तव, गिरजाशंकर राना, कु.रूचिका मिश्रा, गजेन्द्र मीना, कु.शोम्या पांडे,  अलोक कुमार,हर्ष मिश्रा, कु.विदिशा राय,तुषार सोलंकी, कु.अपूर्वा केसरवानी, कु.र¨शनी राय, कु.किरन वर्मा, डायमन्ड साहूँ , कु. आंकाक्षा शर्मा व कु.ममता देवांगन का उल्लेखनीय योगदान रहा । रावे शिक्षको  में प्रमुख रूप से आयोजन सचिव डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर, सलाहकार शिक्षक  श्री गजेन्द्र चन्द्राकर, डाँ.अमित दीक्षित, डाँ.अकरम खान, डाँ.गोरव शर्मा, डाँ.संजय द्विवेदी, डाँ.अंबिका टंडन एवं डाँ.घनश्याम साहू , डाँ.ज्योति भट्ट, डाँ.नीता खरे का सक्रिय योगदान रहा । कृषि विभाग से उपसंचालक श्री रोशन धुरंधर, सहायक संचालक श्री नायक ने कृषि विभाग की कृषि व कृषक हितैषी योजनाओ  से संबंधित सूचनाएं प्रदर्शित की तथा किसान¨को ¨ जानकारी और  विभिन्न योजनाओ  से संबंधित लाभांश वितरित किये। मंच का संचालन छात्रा कु.रूचिका मिश्रा द्वारा किया गया एवं धन्यवाद प्रस्ताव छात्र श्री हर्ष मिश्रा द्वारा किया गया ।