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शुक्रवार, 17 मार्च 2017

भारत में कुपोषण से मुक्ति दिलाएगी विदेशी फसल चिया

डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)


भारत में अब पारंपरिक खेती घाटे का सौदा होती जा रही है।  इसलिए किसानों का रुझान धीरे
धीरे गैर पारंपरिक खेती की तरफ बढ़ रहा है। इससे देश में फसल विविधिकरण को भी बढ़ावा मिल रहा है।   दूसरी तरफ देश में पौष्टिक खद्यान्न के अभाव की वजह से वच्चों और नव युवकों में कुपोषण की समस्या तेजी से बढ़ती जा रही है। दक्षिण अमेरिका से चलकर भारत पहुंची चिया (साल्विया हिस्पानिका एल.) ने अपने पौष्टिक एवं स्वास्थ्यवर्धक  गुणों के कारण विश्व समुदाय में  सुपर फ़ूड के  रूप  में अलग पहंचान बना ली है।अंतराष्ट्रीय  और भारतीय बाजार में इस सर्व गुण संपन्न फसल की मांग बढ़ने की  वजह से इसकी खेती मुनाफे का सौदा साबित हो रही है।   भारत के किसानों  के मध्य इसकी खेती को विस्तारित करने में  सेंट्रल फ़ूड टेक्नोलॉजिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट, मैसूर के वैज्ञानिको की महती भूमिका है।  

क्या है चिया बीज?

           चिया  (साल्विया हिस्पनिका एल.) को मेक्सिकन चिया तथा सल्बा के नाम से भी जाना जाता है। चिया  लेमियेसी यानि पौदीना परिवार का  एक वर्षीय पौधा है। खाद्य के रूप में चिया का उपयोग 3500 बी.सी. में किया जाता था परन्तु मध्य मेक्सिको में  1500 बीसी और 900 बीसी के दरम्यान फसल के रूप में चिया को महत्व मिला है।  आजकल चिया फसल की खेती मेक्सिको, बोलविया, अर्जेंटीना, इकुआडोर और ग्वाटेमाला  में प्रचलित है।  भारत में कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश  और राजस्थान के कुछ  हिस्सों में भी चिया की खेती प्रारम्भ हुई है।  इसका पौधा 70-100 सेमि. की ऊंचाई तक बढ़ता है। पौधों में बैंगनी-सफ़ेद रंग के फूल लगते है।  फसल जब यौवन अवस्था में होती है तो खेत में हरे और बैंगनी रंग की निराली छटा देखने को मिलती है।  इसके बीज छोटे (0.8-1.0 मिमी मोटे) काले व सफ़ेद रंग के होते है।  काले बीजों की अपेक्षा सफ़ेद बीज में तेल की  मात्रा अधिक पाई जाती है। 

चिया बीज में छुपा है पौष्टिकता का खजाना  

            चिया  बीज देखने में बहुत छोटे होते है परंतु स्वास्थ्य और पौष्टिकता का पूरा खजाना इनमें समाहित है। इसके बीज  में 30-35 % उच्च गुणवत्ता वाला तेल पाया जाता है जो की ओमेगा-3 और ओमेगा-6 फेटी एसिड का बेहतरीन (60 % से अधिक) स्त्रोत है . यह तेल सामान्य स्वास्थ्य और ह्रदय के लिए अति उत्तम पाया गया है . यही नहीं इसके बीज में अधिक मात्रा में प्रोटीन (20-22 %), खाने योग्य रेशा (लगभग 40%) तथा एंटी ओक्सिडेंट, खनिज लवण (कैल्शियम,फॉस्फोरस,पोटैशियम) और विटामिन्स (नियासिन,राइबोफ्लेविन और थायमिन) विद्यमान होते है।  चिया में नियासिन विटामिन की मात्रा मक्का, सोयाबीन और चावल से अधिक होती है।  चिया बीज में दूध की तुलना में छह गुना अधिक  कैल्शियम, ग्यारह गुना अधिक  फॉस्फोरस एंड चार गुना अधिक पोटैशियम पाया गया है।  चिया बीज में  अपने वजन से 12 गुना से  अधिक मात्रा में पानी सोखने की क्षमता होती है जिससे इसे  खाद्य उद्योग के लिए अधिक उपयोगी माना जा रहा है। चिया बीज से बने आहार और व्यंजन शक्ति  महत्वपूर्ण स्त्रोत माने जाते है। बीज का इस्तेमाल खाद्यान्न (रोटी, दलिया या हल्वा) या बीज अंकुरित कर सलाद के रूप में उपयोग किया जा सकता है।  दूध या छाछ के साथ इसका पाउडर मिलाकर पौष्टिक पेय के रूप में भी इसका सेवन स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। चिया के हरे ताजे या सूखे पत्तों से निर्मित चाय स्वास्थ्य के लिए लाभकारी बताई जाती है।  

चिया बीज का तुलनात्मक पोषक मान (प्रति 100 ग्रा.बीज)

बीज/दाने
चिया बीज
अलसी बीज
किन्वा बीज
सूर्यमुखी बीज
सरसों बीज
जई बीज  
गुआर फली बीज
ऊर्जा (कि केल)
486
534
368
584
508
374
332
प्रोटीन (ग्रा.)
16.54
18.29
14.12
20.78
26.08
13.6
4.60
वसा (ग्रा.)
30.74
42.16
6.07
51.46
36.24
7.6
0.50
कार्बोहायड्रेट (ग्रा.)
42.12
28.88
64.16
20.0
28.09
66.27
77.3
नमीं (ग्रा.)
5.80
6.96
13.28
4.73
5.27
8.22
15
स्त्रोत-सुखनीत सूरी एवं साथी (2016)

             इस प्रकार चिया के बीज में प्रोटीन और उच्च गुडवत्ता का वसा, महत्वपूर्ण विटामिन्स और खनिज लवण प्रचुर मात्रा में पाए जाते है।  भोजन के साथ साथ चिया बीज के सेवन से भारत के  नोनिहालों में तेजी से फ़ैल रही कुपोषण की समस्या से निजात मिल सकती है। इसके अलावा सभी वर्ग के लोगो के स्वास्थ्य के लिए इसका सेवन फायदेमंद रहता है। 

चिया के ओषधीय गुण 

1. चिया के बीज में प्रोटीन, वसा, खनिज लवण और विटामिन्स प्रचुर मात्रा में विद्यमान होती है जिसके कारण इसके सेवन से मांसपेशियां, मस्तिष्क कोशिकाएं और तंत्रिका तंत्र मजबूत होता है। 
2. चिया के बीजों में एंटी ऑक्सिडेंट्स पर्याप्त मात्रा में होते है, जो  शरीर से फ्री रैडिकल्स को बाहर निकलने में मदद करता है, जिससे ह्रदय रोग और कैंसर रोग से बचा जा सकता है। 
3. चिया के बीजों में ओमेगा-3 और ओमेगा-6 फैटी एसिड पाया जाता है, जो ह्रदय रोग और कोलेस्ट्रॉल की समस्याओं को दूर करने में मददगार साबित होता है। 
4. चिया के बीजों के नियमित सेवन करने से शरीर में सूजन की समस्या से निजात मिलती है। 
5. चिया के बीज भूख शांत करने और बजन घटाने में कारगर साबित हो रहे है। 
6. चिया के बीज का सेवन करने से शरीर में 18 % कैल्शियम की कमीं पूरी होती है जोकि  दांत और हड्डियों को मजबूती प्रदान करने में मददगार होती है।
7. शरीर की त्वचा को कांतिमय बनाने के लिए इसका नियमित सेवन अत्यंत लाभकारी बताया जा रहा है। 
8. पाचन तंत्र को सुधारने और मधुमेह रोगियों के लिए भी उपयोगी खाद्य है।  

कैसे करें चिया की सफल खेती

             चिया की खेती सभी प्रकार की उपजाऊ और कम उर्वर भूमिओं में सफलता पूर्वक की जा सकती है।  इस फसल से अधिकतम उपज और लाभ लेने की लिए अग्र प्रस्तुत वैज्ञानिक तरीके से खेती करना चाहिए। 

सही समय पर करें बुआई

           प्रकाश सवेंदी फसल  होने के कारण ग्रीष्म ऋतू में  चिया के पौधों में  पुष्पन और बीज निर्माण बहुत कम होता है।  पौधो की बेहतर बढ़वार और अधिक उपज के लिए चिया फसल की बुआई वर्षा ऋतु-खरीफ में जून-जुलाई के पश्चात और शरद ऋतू-रबी में अक्टूबर-नवम्बर में करना श्रेष्ठतम पाया गया है।  

तैयार करें पौधशाला

             अच्छी प्रकार से तैयार खेत में वांक्षित आकर की उठी हुई क्यारी बना लें।   चिया के बीज आकर में छोटे होते है अतः क्यारी की मिट्टी भुरभरी और समतल कर लेना चाहिए।  चिया के 100 ग्राम बीज को इतनी ही मात्रा में रेत या राख के साथ मिलकर तैयार क्यारी में एकसार बोने के उपरांत बारीक़ वर्मी-कम्पोस्ट या मिट्टी से ढक कर हल्की सिचाई करना चाहिए।  क्यारी में नियमित रूप से झारे की मदद से हल्की सिचाई करते रही जिससे क्यारी की मिट्टी नम बनी रहें। 

मुख्य खेत की तैयारी और पौधरोपण

                 पौध रोपण हेतु खेत की भली भांति साफ़ सफाई करने के पश्चात जुताई कर भुरभुरा और समतल कर लेना चाहिए. खेत की अंतिम जुताई के समय 4-5 टन अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट के साथ ही 100 किग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट और 16 किग्रा. मिउरेट ऑफ़ पोटाश प्रति एकड़ की दर से एकसार खेत में फैलाकर मिट्टी में अच्छी प्रकार मिला देना चाहिए।  अब खेत में 60 सेमी. की दूरी पर कतारें बनाकर पौध से पौध 30 सेमी. का फांसला रखते हुए पौधे रोपना चाहिए . शीत ऋतू-रबी में कतार से कतार 45 सेमी और पौधे से पौधे के मध्य 30 सेमी की दूरी रखना उचित पाया गया है क्योंकि ठण्ड के मौसम में पौध बढ़वार कम होती है।  पौध रोपण के तुरंत बाद खेत में हल्की सिचाई करना अनिवार्य होता है ताकि पौधे सुगमता से स्थापित हो सकें।  पौध स्थापित होने के पश्चात 50 किग्रा प्रति एकड़ की दर से यूरिया खाद कतारों में देना चाहिए। भूमि में नमीं के स्तर और मौसम  के अनुसार 8-10 दिन के अन्तराल पर हल्की सिचाई करते रहे। 

निंदाई-गुड़ाई

                फसल को खरपतवार प्रकोप से बचाने के लिए खेत में 2-3 बार हैण्ड हो या कुदाली से निराई-गुड़ाई करना चाहिए।  खेत में खाली स्थानों में पौध रोपण का कार्य भी रोपण के 10-15 दिन के अन्दर संपन्न कर लेना चाहिए। 

फसल कटाई

                 फसल तैयार होने में 90 से 120 दिन लगते हैं।  पौध रोपण के 40-50 दिन के अन्दर फसल में पुष्पन प्रारंभ हो जाता है . पुष्पन के 25-30 दिन में बीज पककर तैयार हो जाते है।  फसल पकते  समय पौधे और बालिया पीली पड़ने लगती है।  पकने पर फसल की कटाई-गहाई कर दानों की साफ़-सफाई कर उन्हें सुखाकर बाजार में बेच दिया जाता है अथवा बेहतर बाजार भाव की प्रत्याशा में उपज को भंडारित कर लिया जाता है। 

फसल उपज और लाभ 

             मौसम और शस्य प्रबंधन के आधार पर चिया फसल से  प्रति एकड़ 350-400 किग्रा. दाना उपज प्राप्त हो जाती है।  चिया की खेती करने में 8 -9  हज़ार रुपये प्रति एकड़ का ख़र्चा संभावित है। 
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो लेखक और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

गुरुवार, 16 मार्च 2017

मृदा सुर्यीकरण : प्रभावी पौध सरंक्षण की प्राकृतिक पद्धति


  डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर
प्रधान वैज्ञानिक (शस्य विज्ञान)
इंन्दिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 
                   आज कल खेती में खरपतवारों, कीड़े और बीमारियों की रोकथाम के लिए खतरनाक रासायनिकों का अंधाधुंध प्रयोग किया जा रहा है जिससे ना केवल हमारे  पर्यावरण को भारी क्षति हो रही है बल्कि इनके प्रयोग से मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पद रहा है।   प्राकृतिक एवं जैविक खेती में मृदा जनित कीट रोग और खरपतवारों के प्रकोप की अधिक संभावना रहती है .इनकी रोकथाम के लिए मृदा सुर्यीकरण तकनीक अधिक कारगर सिद्ध हो सकती है . शोध परिणामों से ज्ञात होता है की मिट्टी की सतह पर सामान्य दशा की अपेक्षा सुर्यिकृत दशा में मृदा का तापमान 8-10 डिग्री सेग्रे. बढ़ जाता है जो की बिभिन्न प्रकार के खरपतवारों और मृदा जनित रोग कारकों  (सुक्ष्मजिवाणुओं) को नष्ट करने के लिए पर्याप्त होता है. हल्के रंग की मिट्टियो की अपेक्षा काली मिट्टी सौर ऊष्मा का अधिक मात्रा में अवशोषण करती है। 
                   सोलराइजेशन या सौरीकरण तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए सर्व प्रथम  जमीन की अच्छी तरह जुताई के बाद हल्की सिचाई की  जाती है। इसके बाद पारदर्शी पॉलीएथलीन  फिल्म को मिट्टी पर बिछा दिया जाता है। फिल्म के किनारे मिट्टी में दबा दिए जाते हैं, ताकि अंदर की गर्मी बाहर न आ सके।  यह काम अप्रैल से जून के बीच इसलिए किया जाता है कि तब सूर्य की किरणों में काफी तेजी होती है। इस कारण पॉलीएथलीन  फिल्म के अंदर खासी गर्मी   पैदा (तापमान में 8-12 डिग्री सेग्रे की वृद्धि ) हो जाती है। इससे खरपतवार की कई प्रजातियों के बीज और फसलों में रोग फैलाने वाले जीवाणु दम तोड़ देते हैं। आमतौर पर मिट्टी का सौरीकरण तीन से छह हफ्ते तक किया जाता है, लेकिन इसकी अवधि अधिक होने पर गहराई तक खरपतवारों का सफाया करना आसान हो जाता है। मृदा  सौरीकरण से जमीन में नाइट्रोजन का स्तर बढ़ जाता है क्योकि  मिट्टी के ढके रहने से घुलनशील पोषक तत्व उसमें अच्छी तरह मिल जाते हैं। सौरीकरण से किसान को स्वस्थ पौध तो मिलती ही है, कीटनाशकों, फफूंदनाशकों और खरपतवारनाशकों पर होने वाले खर्च से भी मुक्ति मिल जाती है। साथ ही खरपतवार नियंत्रण  पर लगने वाले समय की बचत होती है । पीटीई फिल्म का सावधानी पूर्वक इस्तेमाल करने तथा उत्तम  रख रखाव से इसका कई बार इस्तेमाल किया जा सकता है। 

प्रभावी मृदा सुर्यीकरण के महत्वपूर्ण कारक

१.सौर उर्जा का अधिक मात्रा में  अवशोषण एवं संचयन के लिए पतली और पारदर्शी पोलीथिन सीट (20-25 माइक्रोमीटर ), मोटी-काली पोलीथिन सीट की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती है। 
२. पोलीथिन को जमीन से चिपकाकर बिछाना चाहिए, जिससे उसके नीचे कम से कम हवा रहे ताकि  सौर ऊष्मा का  अवशोषण और मृदा तापमान में अधिकतम अभिवृद्धि हो सके . इसके लिए खेतो का समतल होना आवश्यक होता है। 
३. इस तकनीक की सफलता में मिट्टी में नमी की मात्रा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है . इसलिए पोलीथिन बिछाने से पूर्व खेत की हल्की सिचाई (50 मिमी.) करना अति आवश्यक होता है .इससे ना केवल मृदा में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं पर सोर्य ऊष्मा का प्रभाव बढ़ जाता है वरन मृदा में ऊष्मा का संचालन अधिक गहराई तक होता है। 
४.अधिक गर्मी वाले महीनों (अप्रैल से जून) में, जब खेत में कोई फसल न हो, अधिक से अधिक समय तक पारदर्शी पॉलीएथलीन बिछा कर मृदा  सुर्यीकरण करने से  बेहतर परिणाम मिलते है . परीक्षणों से ज्ञात हुआ है की देश के उत्तरी  भाग में मई से जून तथा दक्षिणी भाग में अप्रेल से मई के दौरान मृदा सुर्यीकरण करना अति उत्तम होता है क्योकि उन महीनो में वायुमंडलीय तापमान अधिक और आसमान साफ़ रहता है। 
5. मृदा सुर्यीकरण का प्रभाव अमूमन भूमि के ऊपरी सतह (0-10 सेमी) तक रहता है . इसके प्रभाव को और अधिक गहराई तक पहुचाने के लिए सुर्यीकरण की अवधी 8-10  सप्ताह की होना चाहिए ताकि जड़  और गांठों से उगने वाले खरपतवार भी नष्ट हो जाए.
6. मृदा सुर्यीकरण के पश्चात खेत में जुताई कार्य वर्जित है अन्यथा इसका असर कम हो जाता है।  अतः बुवाई में डिबलर या अन्य यंत्र का प्रयोग करना चाहिए जो केवल कूंड बनाने का कार्य करे . सीधे सीड ड्रिल से बुवाई करना फायदेमंद पाया गया है। 

मृदा सुर्यीकरण का प्रभाव 

१. खरपतवार विज्ञान अनुसंधान निदेशालय जबलपुर एवं देश के विभिन्न शोध संस्थानों में किये गए अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि 4-6  सप्ताह के मृदा सुर्यीकरण से अधिकांश खरपतवारों का नियंत्रण हो जाता है परन्तु कंद अथवा तनो की गांठो से उगने वाले खरपतवारो पर इस तकनीक का कम प्रभाव पड़ता है क्योकि इस प्रकार के खरपतवार जमीन में अधिक गहराई पर होते है।  इसके अलावा सख्त बीज आवरण वाले खरपतवार जैसे सेंजी (मेलिलोटस अल्वा), हिरन खुरी (केन्वाल्वुलास अर्वेंसिस) आदि पर मृदा सुर्यीकरण का कम असर पड़ता है। 

२. मृदा सुर्यीकरण से मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं  और खरपतवार बीजों  पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने से फसल बढ़वार और उत्पादन अच्छा होता  है . इसके अलावा  लाभकारी सूक्ष्मजीवों की सक्रियता और मृदा में उपस्थित पोषक तत्वों की घुलनशीलता तथा उनकी उपलब्धता में से  फसलोत्पादन में आशातीत बढोत्तरी होती है . देश के विभिन्न भागों में किये गए शोध परिणामों से ज्ञात होता है  कि मृदा सुर्यीकरण के माध्यम से  प्रभावी खरपतवार नियंत्रण की वजह से  प्याज की पैदावार में 100 से 125 %, मूंगफली में 52 % एवं तिल में 72 % की बढ़त दर्ज की गई .मृदा सुर्यीकरण तकनीक की उपयोगिता

                              मृदा सुर्यीकरण एक पर्यावरण हितैषी तकनीक है जो की  प्रयोगकर्त्ता के लिए पुर्णतः सुरक्षित है। इस तकनीक के  प्रयोग से विभिन्न प्रकार के खरपतवारों, रोग फ़ैलाने वाले तमाम जीवाणुओं,कवकों तथा सूत्रकृमिओं को नष्ट किया जा सकता है।  तम्बाखू और अन्य फसलो के साथ  उगने वाले ओरोबेंकी नामक परिजीवी खरपतवार नियंत्रण के लिए यह एक कारगर तकनीक है। इसके अलावा इसे अपनाने से  खेत की जुताई में आने वाली लागत भी कम हो जाती है। 

  मृदा सुर्यीकरण तकनीक के सीमायें

1.   मृदा सुर्यीकरण हेतु उपयोग में लाई जाने वाली पॉलिथीन सीट की लागत अधिक आने से यह तकनीक थोड़ी खर्चीली है, परन्तु इसका  प्रयोग नगदी फसलों, पुष्पोत्पादन, पौध तैयार करने में अधिक लाभदायक पाया गया है . पॉलिथीन सीट का दुबारा प्रयोग करने से आर्थिक लागत को कम किया जा सकता है . सही मायने में भूमि की तैयारी, खरपतवार और विभिन्न मृदा जनित रोगों के नियंत्रण में आने वाले खर्च  में वचत तथा पोषक तत्वों की उपलब्धतता और उत्पादकता में  वृद्धि  को ध्यान में रखते हुए खेती का आर्थिक आंकलन किया जाए तो यह तकनीक सस्ती एवं लाभकारी सिद्ध होगी .
2.   इस तकनीक का इस्तेमाल उन्ही क्षेत्रों में लाभकारी होगा, जहां पर कम से कम 50-60 दिनों तक आसमान साफ़ और  वातावरण का तापमान 40 डिग्री से.ग्रे. से अधिक रहता है . जलभराव वाली भुमिओं के लिए यह तकनीक उपयुक्त नहीं रहती है .



कृषि में प्लास्टिक उपयोग से भारत में दूसरी हरित क्रांति


डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्रमुख वैज्ञानिक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

               भारत में बसने वाली दुनिया की 17.84 प्रतिशत आबादी की आवश्यकता 2.4 प्रतिशत जमीन और 4 प्रतिशत जल संसाधनों से पूरी होती है।  भारत की अमूमन 65 % आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि पर निर्भर करती है जिससे देश के 58% लोगो को रोजगार प्राप्त है. आने वाले समय में  सिकुड़ते प्राकृतिक संसाधनों (जमीन और जल) में बढती जनसँख्या को भरपूर खाद्यान्न और कृषि आधारित उद्योगों को निरंतर  कच्चा माल मुहैया कराना देश के सामने सबसे बड़ी चिनौती है।  
प्रकृति प्रदत्त जल का अमूमन 80 % भाग कृषि क्षेत्र में उपयोग होता है।  वर्षा जल की अनिश्चितता के कारण जल संसाधनों में वर्ष दर वर्ष कमी देखने को मिल रही है जिसका सीधा असर कृषि उत्पादन पर पड़ना लाजमी है. अतः समय रहते हमें प्राप्त वर्षा जल और उपलब्ध जल संसाधनों के कुशल सरंक्षण पर ध्यान देना होगा।  कृषि आदान के रूप में प्लास्टिक के प्रयोग से भारत के जागरूक किसान अब प्रति इकाई अधिकतम गुणवत्तायुक्त  फसल उत्पादन ले कर  कीर्तमान स्थापित कर रहे है।  इससे देश में  द्वितीय हरित क्रांति का मार्ग प्रशस्त हो गया है।  प्राकृतिक संसाधनों विशेषकर जल सरंक्षण, जल के कुशल प्रबंधन तथा वैज्ञानिक फसल प्रबंधन  से ही  भारतीय कृषि को टिकाऊ बनाया जा सकता है।  इस दिशा में  प्लास्टीकल्चर उपयोग और विकास  की महती भूमिका हो सकती है।   प्लास्टीकल्चर जैसे सूक्ष्म सिचाई तथा नियंत्रित वातावरण में खेती से हम प्राकृतिक संसाधनों यथा भूमि, जल और प्रकाश का बेहतरीन उपयोग कर सकते है और प्रतिकूल मौसम में भी भरपूर फसलोत्पादन प्राप्त कर सकते है।  हवा, पानी की तरह अब धीरे धीरे प्लास्टिक भी हमारे जीवन का जरूरी हिस्सा बन गया है। खेती की बात करें तो खेती किसानी भी अब प्लास्टिक के बिना अधूरी भी न कहें तो इस की कामयाबी जरूर अधूरी हो जाती है।

भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याएं

  • भारतीय किसान अभी विश्व  औसत फसल  उपज की सिर्फ  40-60 प्रतिशत उपज ले पा रहे है। 
  • देश की कुल कृषि योग्य भूमि  के 40 % भाग में ही  सिचाई सुविधा है और अधिकांश किसान परंपरागत विधि (बाढ़ विधि) से सिचाई करते  है  जिससे सिचाई जल की हानि होती है साथ ही कही कही जल भराव से फसल उत्पादन में गिरावट होती है। 
  • फसल कटाई पूर्व और  कटाई पश्चात उचित भण्डारण और विपड़न के आभाव में 10-20 % खाद्यान्न और 30-35 % फल एवं सब्जियों  का नुकसान  हो जाता है। 
  • कृषि योग्य भूमि  तेजी से अकृषि भूमि जैसे जल भराव और क्षारीय-लवणीय  बंजर  भूमियों  में तब्दील होती जा रही है। 

भारत के कृषि क्षेत्रों में व्याप्त इन समस्याओ  से निपटने के लिए प्लास्टीकल्चर का इस्तेमाल जैसे फव्वारा और बूंद-बूंद सिचाई के मध्यम से कुशल जल प्रबंधन, तालाबों और जलासयो में प्लास्टिक लाइनिंग   से जल सरंक्षण, सरंक्षित खेती, पौध शाला प्रबंधन वरदान सिद्ध हो सकता है। खेती,  बागबानीजल प्रबंधनखाद्यान्न भंडारण और संबंधित क्षेत्रों में प्लास्टिक के उपयोग से भारत में द्वितीय हरित क्रांति का पदार्पण हो सकता है जिससे आने वाले वर्षो में हमारी कृषि समोन्नत और किसान खुशहाल हो सकते है . प्लास्टिकल्चर कई फायदे देता है और देखा जाए तो खेती में निवेश का एक खास घटक है जिसके अनुप्रयोग से  नमी की बचत, पानी की बचत, उर्वरक और पोषक तत्वों का सही इस्तेमाल करने में सहायता मिल रही  है। एक आकलन के अनुसार माइक्रो इरिगेशन तकनीक के सही प्रयोग से 50-70प्रतिशत तक पानी की बचत के साथ-साथ  उर्वरक उपयोग क्षमता में भी आशातीत बढ़त होतीहै जिसके फलस्वरूप फसलोत्पादन में  30 से 100 प्रतिशत का इजाफा हो सकता है ।  भारत में पानी की कमीनिम्न उत्पादकता और उर्वरकों के असंतुलित  इस्तेमाल से होने वाले कार्बन उत्सर्जन के ऊंचे स्तर को प्लास्टिकल्चर के कुशल प्रयोग से कम किया जा सकता है।

कृषि के व्यवसायिकरण में प्लास्टिकल्चर की महती भूमिका है।  प्लास्टिकल्चर का प्रमुख उद्देश्य कृषि, बागवानी,जल प्रबन्धन तथा सम्बन्धित क्षेत्रों में प्लास्टिक का उपयोग करके कृषि एवं बागवानी फसलों की उत्पादकता एवं कृषि उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ाना  है। आधुनिक और नवोंन्वेशी कृषि में प्लास्टिकल्चर अप्रत्यक्ष कृषि निवेश का अति महत्वपूर्ण घटक साबित हो रहा  है।  मृदा में  नमी संरक्षण, पानी की बचत, उर्वरक खपत की कमी, जल और पोषक तत्वों के न्यूनतम उपयोग, नियंत्रित वातावरण में वर्ष पर्यन्त खेती, पादप संरक्षण तथा नवीन्मेषी पैकेजिंग समाधान  में प्लास्टिकल्चर का उपयोग वरदान सिद्ध हो रहा  है। जिससे फलों और सब्जियों के संग्रहण भण्डारण तथा आवागमन के दौरान स्व-जीवन बढ़ाने में मदद मिलती है। 

प्लास्टिकल्चर का कृषि एवं बागवानी क्षेत्र में उपयोग

           कृषि और संबधित क्षेत्रों में प्लास्टिकल्चर का उपयोग बखूबी से  किया जा रहा है  जिनमे नर्सरी बैग, प्लास्टिक के गमले, ट्रे, तालाब और जलाशयों में जल रिशाव रोकने हेतु प्लास्टिक के अस्तर, टपक सिचाई, फव्वारा सिचाई प्रणाली, प्लास्टिक मल्च, हरित गृह, छायादार जाल, पक्षियों के जाल, कीट रोधी जाल, वर्मीकल्चर बैग, कैरेट आदि प्लास्टिक के उत्पाद प्रमुख है। 

नर्सरी में प्लास्टिकल्चर

                बागवानी के क्षेत्र में गुणवक्ता युक्त कलमों, पौधों को उगाने के लिए आधुनिक नर्सरी, प्लास्टिक बैग, गमलों, बीज ट्रे, लटकने वाली टोकरी, स्प्रेयर आदि   का इस्तेमाल का बखूबी से  किया जा रहा  है। इन से पौधों के  रखरखाव तथा एक स्थान से दुसरे स्थान लाने-ले जाने  में सुगम्यता होती है। आज कल धान की पौध भी प्लास्टिक ट्रे और चटाइयों पर तैयार की जाने लगी है। 

तालाब जलाशय में जलरिशाव रोकने हेतु अस्तर 

                प्रकृति प्रदत्त वर्षा जल को सरंक्षित कर उसके पुनः उपयोग के लिए  तालाब तथा जलाशय का उपयोग सदियों से किया जा रहा है. नहरों का प्रयोग फसलों की सिचाई के लिए किया जाता है . तालाब, जलाशयो और नहरों से  जल रिसाव से  जल  की हानि होने के अलावा नजदीकी खेतो में जल भराव की समस्या का सामना भी किसानो को करना पड़ता है . जल  संसाधनों से  पानी के रिसाव को  रोकने के लिए प्लास्टिक शीट  का  अस्तर  प्रभावशाली सिद्ध हो रहा है।  वर्षा जल संग्रहण और  सिंचाई, मछली पालन, पशुपालन के अलावा  घरेलू प्रयोजन हेतु यह एक प्रभावशाली तकनीक है। इसमें 200 से 250 माइक्रोन फिल्म का उपयोग किया जाता है।  प्लास्टिक अस्तर के प्रयोग से जल रिसाव में कमी आती है, जिससे तालाबो और जलाशयों में लम्बे समय तक पानी उपलब्ध रहता है । इसके अलावा जल  भराव, मृदा कटाव  जल लवणता जैसी समस्याओं से निजात मिलती है। 

पलवार बिछाना

              मृदा नमी को संरक्षित करने तथा खरपतवार की रोकथाम के लिए प्लास्टिक फिल्म के पौधे के आसपास की मिट्टी को ढ़क देने तथा मृदा तापमान संशोधित करने को पलवार (मल्चिंग) बिछाना कहते है। सब्जियों के लिए 15 से 25 माइक्रोन की फिल्म का पलवार के लिए उपयोग किया जाता है तथा बागवानी वृक्षों के लिए 50 माइक्रोन की फिल्म का उपयोग किया जाता है।  इससे  वाष्पोत्सर्जन में कमी आती है जिससे पैौधे की वृद्धि के लिए अनुकूल मृदा आर्द्रता तथा तापमान कायम रहता है।बार-बार सिचंई करने के कार्यों में कमी आती है। खरपतवार की वृद्धि में रोकथाम होती है तथा फलों एवं सब्जियों की गुणवत्ता बढ़ती है मृदा अपरदन तथा मृदा के पानी में बह जाने से रोकथाम होती है। भारी बारिश के कारण होने वाली मृदा ठोसपन में कमी आती है।

टपक सिंचन प्रणाली

          इस सिचाई पद्धति के अन्तर्गत , परिवहन नलिकाओं द्वारा नोजल और ड्रिपर की सहायता से जल पौधों के जड़ क्षेत्रों में भूमि की सतह या उसके नीचे बूंद-बूंद कर दिया जाता है . कम पानी में अधिकतम क्षेत्रफल में सिचाई करने के लिए टपक (ड्रिप) सिचाई कारगर साबित हुई है . टपक सिंचन प्रणाली से कम दबाव तथा नियंत्रित अन्तराल में पौधो को संतुलित मात्रा  में  पोषक तत्व और आवश्यकतानुसार  पानी  उपलब्ध होता है। इस विधि से घुलनशील उर्वरक, कीट-रोग नाशक दवाओं का भी इस्तेमाल किया जा सकता है . इससे पोषक तत्वों और पानी का किफायती उपयोग होता है  तथा फसल उत्पादकता एवं फलों /सब्जियों की गुणवत्ता बढ़ाने में  भी मदद मिलती है। टपक सिचाई से 40-70 % सिचाई जल की बचत होती है.टपक सिचाई से मृदा कटाव में कमी के साथ-साथ खरपतवार-कीट रोग प्रकोप कम होता है। 

बौछारी सिचाई विधि 

             बौछारी या फव्वारा सिंचाई वह विधि है जिसमें सिंचाई जल को पम्प करके प्लास्टिक के  पाइप की सहायता से छिड़कने के स्थल तक ले जाया जाता है तथा दबाव द्वारा फुहारों या वर्षा की बूदों के समान सीधे फसल पर छिड़का जाता है। इसमें खेतों में पाइप लाइन लगाकर फौव्वारे लगा दिये जाते हैं जिनसे छिड़काव द्वारा पानी खेतों में चारों तरफ  फैलता है इस प्रणाली से जल सामान रूप से वितरित होता है. पम्प सेट या नहर से सिंचाई करने पर खेत तक पहुंचने में क्रमश: 15-20 फीसदी  से 30-50 फीसदी  पानी बेकार हो जाता है, जबकि बौछारी सिंचाई से इतने ही बहुमूल्य जल की बचत होती है। इस सूक्ष्म सिंचन प्रणाली से  पौधों के आसपास का सूक्ष्म वातावरण अच्छा रहने से उत्पाद की गुणवत्ता और मात्रा में वृद्धि होती है। इस पद्धति से सिचाई करने के लिए भूमि को समतल करने की आवश्यकता नहीं होती है. यह विधि सभी प्रकार की फसलों की सिंचाई के लिए उपयुक्त है। कपास, मूंगफली तम्बाकू, कॉफी, चाय, इलायची, गेहूँ व चना आदि फसलों के लिए यह विधि अधिक लाभदायक हैं। 

हरित गृह  और छायामय जाल (शेड नेट)

                हरित गृह (ग्रीन हाउस) तैयार या फुलाए गए ढांचे जिन्हें पारदर्शी सामग्री से ढका जाता है। जिनमें एक नियंत्रित या आंशिक नियंत्रित पर्यावरण के तहत फसलों को उगाया जाता है। ये पौधों द्वारा बेहतर पोषक तत्व ग्रहण करने के लिए प्रकाश संश्लेषण कार्यकलापों की वृद्धि के लिए अनुकूल स्थितियां प्रदान करता है। इनमे उगाई गई फसलों में कीट और रोग  का प्रकोप काम होता है तथा पौध सरंक्षण आसान होता  है। उच्च गुणवत्ता वाली कलमों, पौधों की नर्सरी तैयार करने में मदद मिलती है। फलों एवं सब्जियों की उपज में एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती है। फसलों की उत्पादकता में बढ़ोतरी होती है। यह फसलों को ठण्ड, पाला और हवा से बचाती है।
पौधों और फसलों को नाशीजीव, पशु-पक्षियों तथा  मौसम की विषम परिस्थितियों से सुरक्षा देने एवं गर्मी से बचाव करने के लिए विशिष्ट शेड नेट का उपयोग किया जाता है। शेड नेट में भिन्न प्रकार छायामय (शेड) घटक होते है जिनकी सघनता 35 प्रतिशत से 90 प्रतिशत के बीच होती  है। वर्तमान समय में सफेद, हरे, लाल तथा काले रंग में शेड नेट उपलब्ध हैं। टमाटर, शिमलामिर्च, ब्रोकली, खीरा की पैदावार लेने के लिए 35 प्रतिशत के शेड नेट अच्छा माना जाता  है।  बे-मौसमी सब्जियां और फूल उगाने के लिए इनका उपयोग किया जाता है। इनका इस्तेमाल फल वाले पौधों, औषधीय पौधों, सब्जी तथा मसाला फसलों के पौधों को उगाने के लिए किया जाता है।

निम्न सुरंगक (लो टनल )

         निम्न सुरंगक, हरित गृह की भांति प्रभाव देने वाला लघु ढांचा है। पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रियाओं को बढ़ाते हुए इन सुरंगों में कार्बन डाई आक्साईड को समाहित करने में मदद मिलती है। इन ढांचों से पौधों को तेज हवा, सर्द हवा, अधिक वर्षा अथवा बर्फ से सुरक्षा मिलती है। सर्द ऋतु में इसके अन्दर का तापमान बढ़ जाता है, इस कारण पौधों का पाले से बचाव हो जाता है। 

पैकेजिंग में प्लास्टिक 

प्लास्टिक में मौजूद विशिष्ट गुणधर्म जैसे लचीलापन, हल्का वजन, लागत प्रभावी, स्वच्छता सुरक्षित और पारदर्शिता के कारण प्लास्टिक ने उत्पादों के प्रसंस्करण भण्डारण, परिक्षण तथा परिवहन में अमूल्य योगदान दिया है।

पादप संरक्षण नेट

       पादप  संरक्षण नेट का इस्तेमाल शाकीय तथा फलवाली फसलों को सौर विकिरण,नाशीकीट,पक्षियों, ओलावृष्टि, तेज हवाओं, बर्फ या भारी वर्षा से बचने के लिए वर्ष भर  किया जा सकता  है।

नोट: इस लेख को अन्य पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित करने से पहले लेखक की अनुमति लेना अनिवार्य है। प्रकाशित करने के पश्चात पत्रिका की एक प्रति लेखक को भी भेजने की व्यवस्था करने का कष्ट करेंगे। 

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

प्रो.तोमर कृषि मोऊली पुरुस्कार से सम्मानित

भारतीय कृषि और किसानो को आर्थिक रूप से समोन्नत करने के उद्देश्य से श्री स्वामी समर्थ कृषी विकास व संशोधन चॅरीटेबल ट्रस्ट द्वारा नासिक, महाराष्ट्र  में  “जागतिक कृषी महोत्सव २०१७” का आयोजन किया गया जिसमे उन्नत कृषि तकनीक प्रदर्शन के साथ ही प्रमाणित कृषि आदानो का रोचक तरीके से जीवंत प्रदर्शन किया गया . इस अनूठे आयोजन में देश विदेश के ५० हजार से अधिक किसानो, कृषि अधिकारिओ, कृषि व्यापारियो, वैज्ञानिको और ग्रामीणों ने भाग लिया. इस मेले में किसानो के लिए प्रशिक्षण और कार्यशाला का भी आयोजन किया गया. इस अवसर पर संस्था प्रमुख   गुरुमाऊलीजी कहते है, विश्व के लिए अन्ननिर्मिती करनेवाला किसान ब्राह्मण के समान सम्माननीय है। अत: उसे आदर और कृषी को प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। ऐसा होने पर ही देश संपन्न हो सकेगा। संपन्न कृषी के लिए प. पू. गुरुमाऊलीजी जैविक तथा आधुनिक कृषी संबंधी मार्गदर्शन करते हुए कहते है कि अच्छी उपज के लिए किसान बीजों पर आध्यात्मिक संस्कार करें, सुमुहूर्तोपर बोआई करें तथा खेती में सामुदायिक पर्जन्यसूक्त का पठन करें। भारत में  कृषि क्षेत्र में शोध, शिक्षा और तकनीक प्रसार  के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने के लिए इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय रायपुर के प्राध्यापक डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर को “कृषि मौली पुरुस्कार-२०१७”  से सम्मानित किया  गया. यह पुरुस्कार गुरुमाऊली प. पू. श्री. आण्णासाहेब मोरे ने प्रदान किया .
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वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर श्री दिनेश भाई पंड्या एवम् श्री नवल किशोर राठी के साथ

कृषि मोउली स्मृति चिन्ह 

ज्ञात हो कृषि क्षेत्र में सर्वोत्क्रष्ट उपलब्धि हाशिल करने हेतु  बीते वर्ष भी  विज्ञान एवं तकनीकी समिति द्वारा वारंगल तेलंघाना में आयोजित राष्ट्रीय कृषि सम्मेलन में डॉ तोमर को “लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड” प्रदान किया गया . इसके पूर्व कृषक वंदना समूह द्वारा जबलपुर में आयोजित वार्षिक कृषि कार्यशाला में डॉ तोमर को ‘उत्कृष्ट कृषि सेवक’ की उपाधि से विभूषित किया गया. उनके द्वारा रचित एवं सम्पादित तथा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित  अभिनव कृषि पंचांग की एक लाख प्रतिया छत्तीसगढ़ सहित अनेक राज्यों  के किसानो  और कृषि विस्तार कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन कर रहा  है .  भारत के राज्य कृषि विश्व विद्यालयों  के छात्रों के लिए सात किताबे, ६०  पुस्तिकाए प्रकाशित करने के अलावा राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में  ४५  शोध पत्र, ११० तकनीक आलेख प्रकाशित हुए है जो देश प्रदेश के  किसानो और विस्तार अधिकारिओ का मार्गदर्शन कर रहे है . इसके अलावा आप “कृषिका” और “कृषि विमर्श” नामक ब्लॉग भी इन्टरनेट पर चलाते है जिन पर १३९ लोकप्रिय पोस्ट प्रकाशित कर चुके है .  डॉ तोमर के सतत मार्गदर्शन में ६० छात्र-छात्राओं  ने स्नातकोत्तर और आठ छात्र-छात्राओं ने  पी एच  की  उपाधि हाशिल की है .
वारंगल में लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड ग्रहण करते हुए 
लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड प्रमाण पत्र 


उत्कृष्ट कृषि सेवक प्रमाण पत्र 
कृषि रत्न पुरुस्कार ग्रहण करते हुए 
ज.ने.कृषि विश्व विद्यालय के कुलपति डॉ वही. एस.तोमर द्वारा उत्कृष्ट कृषि सेवक अवार्ड ग्रहण करते हुए

                                           ।।श्री स्वामी समर्थ।।

सोमवार, 21 मार्च 2016

घातक है फसलोत्पादन में उर्वरकों का असंतुलित उपयोग

डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (सस्य विज्ञानं विभाग)
इंदिरा गांधी  कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगह)
                      माता भूमिः पुत्र¨ अहं पृथिव्याः अर्थात भूमि सबकी उत्पादक होने के  कारण मेरी माता है और  मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ।  प्राचीन समय में प्रचलित भूमि प्रबन्ध की सर्वाधिक प्रमुख बात भूमि के  साथ मातृवत व्यवहार तथा  प्रकृति तथा प्राकृतिक संघटकों  के साथ साहचर्य एवं  सहकार की भावना रही है । आज  मानव ने अपने स्वार्थ को  साकार करने मैं भूमि का अनवरत दोहन-शोषण करते हुए भूमि और  प्रकृति के  साथ स्थापित तारतम्य एवं साहचर्य को  लगभग समाप्त कर दिया है जिसके  परिणामस्वरूप जीवनदायिनी भूमि मृतपाय स्थिति में है। विगत कुछ वर्षों  से बहु-फसली सघन खेती में हमने भूमि के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों  पर प्रहार किया है। आज उच्च विश्लेषण उर्वरकों  यथा यूरिया, डाइअमोनियम फाॅस्फेट और  म्यूरेट आॅफ पोटाश का प्रचलन बढ गया है जिनसे क¢वल नत्रजन, फाॅस्फ¨रस एवं पोटाश तत्व ही फसल क¨ प्राप्त ह¨ते हैं। जबकि निम्न विश्लेषण उर्वरकों के प्रयोग से फसलों  को गौण  तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व प्राप्त होते रहते है।  दरअसल उच्च विश्लेषण उर्वरकों के लगातार प्रयोग से मिट्टी में गौण तथा अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों  की कमी आ रही है । भारत में अमूमन 47 प्रतिशत मृदाओं  में जस्ता, 12 प्रतिशत में लोहा, 5 प्रतिशत में तांबा तथा 4 प्रतिशत मृदाओं  में मैंगनीज की कमीं है जिसका दुष्प्रभाव फसलों  की उपज एवं गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है। दलहन, तिलहन तथा अधिक उपज देने वाली फसलों  में गन्धक का प्रयोग आवश्यक होता है। यहीं नहीं भारतीय मृदाओं  में कार्बनिक कार्बन की सर्वत्र कमी (0.17 प्रतिशत) परिलक्षित हो रही हैं जिसकी वजह से हमारी अधिकांश मिट्टियाँ बीमार अर्थात अनुपजाऊ होती जा रही है। दरअसल जैविक खादें जैसे गो बर की खाद, कम्प¨स्ट, हरी खाद आदि मृदा उर्वरता बनाए रखने, उत्पादन क¨ स्थिर रखने एवं पोषक तत्वों  से सही परिणाण प्राप्त करने के  लिए आवश्यक हैं। यहीं नहीं जैविक खादें वर्तमान फसल को  लाभ पहुँचाने के  साथ-साथ आगामी फसल क¨ भी अवश¨षित प्रभाव द्वारा लाभ पहुँचाती हैं।
उर्वरकों  का समुचित एवं संतुलित प्रयोग से तात्पर्य है कि फसल की आवश्यकतानुसार सभी आवश्यक पोषक तत्व समुचित मात्रा, सही अनुपात एवं उचित समय में मृदा में उपलब्ध होना चाहिए। परन्तु रासायनिक उर्वरकों के अनुचित और  असंतुलित प्रयोग न हरित क्रांति की सफलता पर सवालिया निशान लगा दिया है। कभी हरित क्रांति आवश्यक थी परन्तु रासायनिक उर्वरकों  का अंधाधुन्ध एवं असंतुलित उपयोग के दुष्परिणाम अब स्पष्ट दिख रहे है। देश के  अनेक कृषि क्षेत्रों  में पौधों के  लिए तीन मुख्य पोषक तत्वों  यथा नाइट्रोजन, फाॅस्फ़ोरस व पोटाश का प्रयोग एक अनिश्चित अनुपात में किया जा रहा है। किसी-किसी क्षेत्र में तो  यह अनुपात 9:3:1 है । जबकि अनाज वाली फसलों  में नाइट्रोजन, फास्फेट एवं पोटाश का आदर्श अनुपात 4:2:1, दाल वाली फसलों  में 1:2:1 तथा सब्जी वाली फसलों  में यह  अनुपात 2:1:1  होना चाहिए। स्वस्थ जीवन के  लिए हम सब क¨ स्वच्छ वायु, शुद्द जल, पौष्टिक भोजन, पशुओं के लिए चारा, ईधन, आवास और  प्रदूषण मुक्त पार्यवरण की आवश्यकता होती है। ये आवश्यकताएं कहीं न कहीं आधुनिक खेती से ताल्लुक रखती है। विकास मूलक कार्यो के  लिए कृषि भूमि को  गैर कृषि भूमि में तबदील किया जा रहा है। बढ़ते शहरीकरण, आधुनिकीकरण, ओद्योगिकीकरण और  रासायनिक उर्वरकों के अन्धाधुन्ध व असंतुलित प्रयोग से उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में परिवर्तित हो  रही है जिसके  परिणामस्वरूप पारिस्थितिक असंतुलन की स्थिति पैदा हो  गई है।
रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग के दुष्परिणाम
  • बीते  कुछ दशक से देश के  अनेक राज्यों  में फसल उत्पादन बढ़ाने हेतु रासायनिक उर्वरकों  के बढ़ते प्रयोग से वायु, जल और  मृदा प्रदूषण में लगातार इजाफा हो  रहा है जिसके  फलस्वरूप मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है ।
  • रासायनिक उर्वरकों के  लगातार असंतुलित प्रयोग से कृषि भूमि का उपजाऊपन और  उत्पादकता दोनों ही  घटती जा रही है।
  •  मिट्टी में उपस्थित केंचुए और अनेक अन्य सूक्ष्मजीव वास्तव में किसानों  लिए प्रकृति प्रदत्त निःशुल्क उपहार है । ये जीव अपनी जैव क्रियाओं  से भूमि को  पोषक तत्व तो  प्रदान करते ही है, साथ ही मिट्टी क¨ भुरभुरा बनाकर उसमें धूप और  हवा के  आवागमन को  सुगम बनाते है। परन्तु रासायनिक उर्वरकों  एवं कीटनाशकों के प्रयोग से केँचुए एवं अन्य लाभ कारी जीव विलुप्त होते जा रहे है।
  • असंतुलित उर्वरक उपय¨ग में मुख्यतः नाइट्र¨जन प्रदान करने वाले अकार्बनिक उर्वरको  का प्रयोग अधिक करने से मृदा में कुछ द्वितीयक व सूक्ष्म पोषक तत्वों  की कमी होती जा रही है जिसके  परिणामस्वरूप फसलों  की गुणवत्ता और  पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
  • दलहनी फसलों  में अत्यधिक नाइट्रोजनधारी उर्वरक   प्रयोग करने या फिर अधिक उर्वरता वाली भूमि में उगाने के  फलस्वरूप जड़ों की ग्रन्थि निर्माण और  वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
  • देश के  अनेक राज्यों  जैसे पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि के  कृषि क्षेत्रों  में लगातार एक ही किस्म के  रासायनिक उर्वरकों के  अन्धाधुन्ध प्रयोग  के  परिणामस्वरूप उपजाऊ भूमि का बड़ा भू भाग तेजी से लवणीय, क्षारीय और  अम्लीय भूमि मेें तबदील ह¨ता जा रहा है।
  • रासायनिक उर्वरकों  एवं कीटनाशकों के  अनुचित एवं बेखौफ  इस्तेमाल  से भूमिगत जल, नदियाँ और सरोवरों  का जल प्रदूषित होता जा रहा है, साथ ही फसल  उत्पादों में इन रसायनिकों की विषाक्तता भी बढ़ती जा  रही है। 
  •  रसायनिक उर्वरकों के अवशेष जैसे नाइट्रेट आदि  भोज्य पदार्थों के माध्यम से शरीर में पहुंच जाते है जिससे खतरनाक बीमारियां होने का अंदेशा बना रहता है। 
  • उर्वरकों से निकलने वाली ग्रीन  हाउस गैस (नाइट्रस ऑक्साइड ) वायुमंडल में उपस्थित ओजोन परत को नष्ट करती है। ओजोन परत सूर्य से निकलने वाली खतरनाक उलटरता वॉयलेट किरणों को रोकने में मदद करती है।  अल्ट्रा वॉयलेट किरणों की वजह से मनुष्यो में त्वचा कैंसर हो जाता है।  

                  कुछ कृषक खेती में उर्वरक का उपयोग तो  करते है किंतु एक या दो  तत्व से संबंधित उर्वरक को  भूमि में मिलाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है। इस प्रकार से उर्वरक देने से उस तत्व विशेष की तो  भूमि में प्रचुर मात्रा उपलब्ध हो  जाती है परन्तु अन्य तत्वों  की कमीं से मृदा में पोषक तत्वों  का संतुलन अस्त-व्यस्त हो  जाता हैं । उदाहरण के  लिए यदि हम मृदा में सिर्फ यूरिया का उपयोग लम्बे समय तक करते रहें तो  मृदा में नत्रजन तो  पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहेगी किंतु फाॅस्फोरस, पोटाश, गंधक आदि तत्वों  की कमी हो  जाती हैं जिससे मृदा का स्वास्थ बिगड़ता है एवं फसल का उत्पादन निसन्देह घट जाएगा। चंद जागरूक किसान भूमि में नाइट्रोजन, स्फुर एवं पोटाश युक्त उर्वरक का प्रयोग भरपूर मात्रा में करते हैं परन्तु अन्य गौड़  एवं सूक्ष्म तत्वों  जैसे कैल्शियम, सल्फर, मैग्नीशियम, जिंक आदि की मृदा में उपलब्धता पर ध्यान ही नहीं देते है जिससे इन तत्वों  की कमी के  लक्षण फसल पर दिखते हैं। ऐसे में भरपूर मात्रा में उर्वरक देने पर भी फसल उत्पादन के  परिणाम निराशाजनक आते  हैं। इसी प्रकार से तिलहनी फसलों के  लिए सल्फर आवश्यक पोषक तत्व है जिसकी तेल निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका  होती होती  हैं। मूंगफली फसल में पुष्ट फल्लियों  एवं दानों के  विकास में सल्फर के  अलावा कैल्शियम तत्व की आवश्यकता होती है। धान-गेंहू फसल चक्र वाली भूमियों  में मुख्य पोषक तत्वों के  अलावा कुछ सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जिंक की कमीं देखी जा रही हैं। अतः खेत में उर्वरता का संतुलन इस प्रकार किया जाए कि फसल मांग एवं आवश्यकता के  अनुसार  पौधों को  जरूरी पोषक तत्व उपलब्ध होते रहें, जिससे अधिक से अधिक उपज प्राप्त हो सके और  मृदा स्वस्थ एवं सुरक्षित बनी रहें। वास्तव में स्वस्थ्य  मृदा उसे कहते है जिसमें जल धारण एवं निष्कासन, पोषक तत्वों  की समुचित उपलब्धता, पौधों  की बढवार एवं विकास की क्षमता, लाभकारी जीव-जन्तुओं  युक्त भूमि है जो  विभिन्न सस्य क्रियाओं के  प्रति अनुक्रियाशील हो ।

नोट: कृपया इस लेख को लेखकों की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो लेखक और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

गुरुवार, 17 मार्च 2016

स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए वर्षात में कुल्थी लगायें

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (सस्य विज्ञानं विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

         कुल्थी  को संस्कृत में कुलत्थ तथा अग्रेजी में हॉर्सग्राम कहते है।  दलहनी कुल की   सदस्य कुल्थी  वानस्पतिक  नाम मेक्रोटाइलोमा यूनिप्लोरम है। प्राचीनकाल से भारत के शुष्क  क्षेत्रों में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में कुल्थी  सबसे महत्वपूर्ण फसल है जिसे रबी और खरीफ में उगाया जाता है।  कुल्थी दलहनी वर्ग की कम अवधी की  फसल होने के कारण इसे फसल चक्र में आसानी से सम्मलित किया  जा सकता  है। इसकी खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है तथा भूमि कटाव रोकने में मदद करते है।  इसका पौधा 30 से 45 सेमी ऊँचा अनेक शाखाओ युक्त होता है।  इसके बीज देखने में उड़द के समान हल्के लाल,काले, चितकबरे, चपटे और चमकीले होते है। कुल्थी का बीज चपटे, लाल,भूरे, धूसर काले या चितकबरे रंग के हो सकते है। इसके बीजों को दक्षिण भारत सहित अनेक राज्यों में दाल और पशु आहार के रूप में प्रयोग किया जाता है। पोषणमान की दृष्टि से  इसके  100 ग्राम दानों में 12 ग्रा.  नमी के साथ-साथ 22  ग्रा.  प्रोटीन, 57 ग्रा.  कार्बोहाइड्रेट,  5 ग्रा. रेशा, 3 ग्रा. खनिज, 287 मिग्रा.  कैल्सियम, 311 मिग्रा. फॉस्फोरस, तथा 7 मिग्रा. आयरन  पाया जाता है।कुल्थी की दाल स्वादिष्ट  और पौष्टिक होने के साथ-साथ इसमें स्वास्थ्य का खजाना छुपा है 
अनेक रोगों की रामबाण दवा 
       कुलथी कटु रस वाली, कसैली, पित्त रक्त कारक, हलकी, दाहकारी, उष्णवीर्य और श्वास, कास, कफ और वात का शमन तथा कृमि को दूर करने वाली है। यह गर्म, मूत्रल, मोटापा नाशक और पथरी नाशक है। आयुर्वेद में इसे मूत्र सम्बन्धी विकारों और अश्मरी (पथरी) रोग को दूर करने के लिए  पथरीनाशक बताया गया है। गुर्दे की पथरी और गॉल पित्‍ताशय की पथरी के लिए यह फायदेमंद औषधि है। आयुर्वेद में गुणधर्म के अनुसार कुलथी में विटामिन ए पाया जाता। यह शरीर में विटामिन ए की पूर्ति कर पथरी को रोकने में मददगार है। शरीर से अतिरिक्त वसा और वजन कम करने में कारगर होती है। 

ऐसे करते है कुल्थी की खेती
            कुल्थी की खेती शुद्ध फसल के रूप में तथा मिश्रित या अंतर्वर्ती फसल के रूप में मक्का, ज्वार, बाजरा और अरहर के साथ भी की जाती है। इस बहुपयोगी दलहन की अधिकतम उपज लेने हेतु सस्य तकनीक का संक्षिप्त विवरण अग्र प्रस्तुत है। 

उत्तम जलवायु 
                कुल्थी उष्ण एवं उपोष्ण कटबंधी  जलवायु में की जाती है परन्तु   अच्छी उपज की दृष्टि से उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु  उत्तम मानी जाती है। फसल वृद्धि के लिए 20 से 30 डि सेग्रे तापमान अनुकूल होता है। कुल्थी की फसल में सूखा सहन करने की क्षमता होती है। सामान्य तौर पर 500 से 700 मिमी वार्षिक  वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है। इसकी खेती अधिक ठन्डे और  पाला प्रभावित क्षेत्रों  में नहीं होती है। 
मृदा का चयन एवं खेती की तैयारी 
        कुल्थी के खेती  उचित जल निकासी वाली और उदासीन पी एच मान वाली लगभग सभी प्रकार की भूमियों  में आसानी  से की जा सकती है। खेत की 2-3 बार जुताई करने के पश्चात पाटा चलकर उसे समतल कर लेना चाहिए।  
बुआई का समय 
           वर्षा आगमन पश्चात कुल्थी की बुआई जून के अंतिम सप्ताह से लेकर 15 जुलाई तक करना अच्छा रहता है। परन्तु इसे खरीफ में विलम्ब से यानि अगस्त में  भी बोया जा सकता है। दक्षिण भारत में इसकी खेती रबी मौसम में की जाती है। 
कुल्थी की उन्नत किस्मों 
         भारत के विभिन्न कुल्थी उत्पादक क्षेत्रों/राज्यों के लिए कुल्थी की एके-42 (राजस्थान,पश्चिम बंगाल,गुजरात, झारखण्ड हिमाचल प्रदेश) बीएलजी-10 (उत्तराखंड), बीएलजी-8 (उत्तराखंड एवं हिमाचल प्रदेश),बीएलजी-15 (देश के उत्तरी पहाड़ी व मध्य वर्ती क्षेत्रों के लिए), बीजेपीएल-1 (कर्नाटक,आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु) उन्नत किश्मे उपलब्ध है। इन किस्मो से 90 से 110 दिन में 10-12 क्विंटल उपज प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है। 
छत्तीसगढ़ राज्य के किसानों के लिए कुल्थी की सफ़ेद दानों वाली प्रमुख किस्में अग्र प्रस्तुत है :
बीके-1:- कुल्थी की यह किस्म 90 से 100 दिन में तैयार होकर 8 से 10 क्विंटल उपज प्रति हेक्टेयर देती है। 
एके-21 :- यह शीघ्र तैयार (80 -90 दिन) होने वाली उन्नत  किस्म है, जिससे 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।  
जेएनडी-2 :- मध्यम  अवधि में तैयार (95-110 दिन में ) होने वाली इस किस्म की उत्पादन क्षमता 10-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।  
इनके अलावा प्रदेश के लिए  इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय ने कुल्थी की एक नई छत्तीसगढ़ कुल्थी-2 के नाम से विकसित की है जिसमे पीला मोजेक रोग, एन्थ्रेक्नोज एवं सर्कोस्पोरा पत्ती धब्बा रोग का प्रकोप कम होता है।  
सही विधि से हो बीज की बुआई 
           सामान्यतौर पर किसान कुल्थी की बुआई छिटकवाँ पद्धति से करते आ रहे है परन्तु अधिक उपज के लिए कुल्थी की बुआई कतार पद्धत्ति से करना चाहिए। इसके लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से 45 सेमी तथा पौध से पौध के मध्य  7 से 10 सेमि. का अंतर रखते हुए बुआई करना उपयुक्त रहता है। ध्यान रखें की अन्य दलहनी फसलों की भांति  बुआई पूर्व कुल्थी के बीज का भी फफूंदनाशक दवा एवं राइजोबियम कल्चर से उपचार करें।
खाद एवं उर्वरक भी आवश्यक 
         कुल्थी की अधिकतम पैदावार के लिए खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी परीक्षण के आधार पर करना चाहिए।  सामान्य तौर पर बुआई के समय 20 किग्रा नत्रजन, 50-60 किग्रा फॉस्फोरस और 20 किग्रा  पोटाश  प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देने से बिना उर्वरक की तुलना में उपज में काफी बढ़ोत्तरी होती है। 
 फसल को रखें  खरपतवारो से मुक्त 
         खरीफ की फसल होने के कारण कुल्थी  में खरपतवार प्रकोप अधिक होता है। अतः बुवाई से 30-40 दिन तक फसल को खरपतवार मुक्त रखना चाहिए।  इसके लिए बुवाई के 20-25 दिन बाद निराई-गुड़ाई करें। रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण हेतु  पेंडीमेथालिन (30  ईसी ) 3.4 लीटर मात्रा को 600 से 700 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के तुरंत बाद (अंकुरण पूर्व ) छिड़कने से खरपतवार प्रकोप कम होता है। 
 फसल कटाई,गहाई और भंडारण 
फसल की 90 प्रतिशत फल्लियाँ पकने पर इसकी कटाई कर लेना चाहिए।  कटाई में देरी करने से फलियों से दानें झड़ने की आशंका रहती है।  कटाई पश्चात फसल को सुखाकर बैलों या ट्रेक्टर से गहाई कर बीज को भूषा से अलग कर लें। दानों को अच्छी प्रकार सुखाने के बाद (8 से 10 % नमीं पर) भंडारित करना चाहिए। उपयुक्त जलवायु एवं उचित फसल प्रबंधन से 10 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर दाना उपज प्राप्त हो सकती है।
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