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बुधवार, 22 मार्च 2017

अनिश्चित और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में करे दाल-मोठ की खेती

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

               भारत विश्व का एकमात्र ऐसा राष्ट्र है जहाँ पर एक दर्जन से अधिक दलहनी फसलों की खेती की जाती है .  रबी दलहनों में चना, मटर,मसूर और खेसारी की खेती प्रमुखता से की जाती है।  अरहर, मूंग, उर्द, मोठ और कुल्थी खरीफ ऋतु की प्रमुख दलहनी फसलें है।  मोठ (विगना एकोंटीफ़ोलिया) दलहनी  कुल की फसल है जिसे अंग्रेजी में मोथ बीन कहते है।  खरीफ की फसलों में मोठ सबसे ज्यादा सुखा सहन करने वाली फसल है।  इसकी खेती मुख्यतः दाल, जानवरों के लिए पौष्टिक चारा-दाना और हरी खाद के लिए की जाती है।   मोठ की खेती मुख्यत: बारानी क्षेत्रों में शुद्ध फसल अथवा जुआर, बाजरा, कपास, मक्का आदि फसलो के साथ मिश्रित या अन्तरावर्ती फसल के रूप में लगाया जाता है।  बलुई मृदा में इसकी खेती करने से मृदा अपरदन कम होता है।  

मोठ के दानों  पौष्टिक महत्त्व 

मोठ के दानों का दाल के रूप में  प्रयोग करने के अलावा  इसकी दाल से विविध प्रकार के अल्पाहार (चाट, पापड़, भजिया आदि) तैयार किये जाते है।    इसका   दालमोठ  बेहद लोकप्रिय नमकीन है।   मोठ की हरी फल्लियाँ का सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाता है।  पौष्टिकता के मान से मोठ के दानों में (प्रति 100 ग्राम भार) 330 किलो कैलोरी उर्जा, 24 ग्रा प्रोटीन, 1.5 ग्रा वसा, 61.9 ग्रा शर्करा , 9.6 मि.ग्रा. लोह तत्व और 202 मिग्रा.कैल्शियम के अलावा 0.4 मिग्रा  थायमिन, 0.09 मिग्रा राइबोफ्लेविन और1.5 मिग्रा  नियासिन पाया जाता है। 

मोठ की खेती की स्थिति  

भारत में मोठ की खेती 16.51लाख हेक्टेयर में की जा रही है  जिससे 486 किग्रा/हे. औसत उपज के मान से  8.02 लाख टन उत्पादन प्राप्त होता है।  मोठ फसल के क्षेत्र और उत्पादन में राजस्थान अग्रणीय राज्य है।  राजस्थान  के अलावा गुजरात, महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर में भी मोठ की खेती प्रचलन में है। भारत के अन्य वर्षा आश्रित क्षेत्रों और कम उपजाऊ जमीनों में भी मोठ की खेती आसानी से की   जा सकती है।  मोठ फसल की औसत उपज काफी कम है।  अग्र प्रस्तुत उन्नत शस्य तकनीक को व्यवहार में लाने से किसान भाई मोठ फसल से 6-8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से अधिक उपज प्राप्त कर सकते है।   

भूमि का चयन और खेत की तैयारी  

 मोठ  खरीफ ऋतु की दलहनी फसल है।  इसकी खेती  समस्या ग्रस्त भूमि को छोड़कर सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है  परन्तु  अच्छे जल निकास वाली  हल्की बलुई दोमट मिटटी मोठ की खेती के लिये सर्वोत्तम होती है।  मोठ के बीजों का आकार छोटा होने के कारण ढेलेरहित मृदा की जरूरत होती है।  वर्षा होने पर मोठ फसल हेतु भूमि को आवश्यकतानुसार एक-दो बार हैरो से  जूताई करने के बाद  पाटा लगाकर भूमि को समतल कर लेना चाहिए। 

उन्नत किस्मों के बीज का इस्तेमाल  

मोठ की अधिकतम उपज के लिए  अग्र प्रस्तुत किस्मों में उपलब्ध  किस्म के बीज की बुआई कर सही शस्य प्रबंधन से अधिकतम उपज ली  जा सकती है। 
1. आर.ऍम.ओ. 257 : यह किस्म दाना चारा दोनों के लिये उपयुक्त है।  यह किस्म 62 -65  दिन में पककर 5 – 6  क्विंटल प्रति हेक्टेयर औसतन उत्पादन देती है। 
2. आर.ऍम.ओ. 225 :  यह क़िस्म  65 -70  दिन में पक कर  औसतन 6-7.5 क्विंटल प्रति दाना उपज देती  है . यह किस्म पीत मोजेक विषाणु के लिये प्रतिरोधी है। 
3. एफ.एम.एम. 96 :  अति शीघ्र पकने वाली यह कम ऊंचाई वाली, सीधी बढ़ने वाली किस्म है जिसमे पकाव एक साथ आता है।  यह किस्म  58-60 दिन में पक जाती है और औसतन पैदावार 5-6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर आती  है। 
4. आर.एम.ओ. 40 :  कम अवधि ( 55 -60 दिन ) में पकने वाली यह किस्म सूखे से कम प्रभावित होती है।  यह  सीधी बढ़ने वाली तथा कम ऊंचाई की किस्म है जिसमें पकाव एक ही समय पर आता है।  इस किस्म में पीत मोजेक विषाणु के प्रति प्रतिरोधकता है द्य इस किस्म की औसतन पैदावार 6-9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। 
5. काजरी मोठ-2 : यह किस्म 70-75  दिन में पककर 8-9  क्विंटल प्रति हेक्टेयर औसत उपज देती है . इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 10 -12  क्विंटल सुखा चारा भी प्राप्त होता है। 
6. काजरी मोठ-3  : यह किस्म 65 -70  दिन में पककर 8-9  क्विंटल प्रति हेक्टेयर औसत उपज देती है।  इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 10 -11  क्विंटल सुखा चारा भी प्राप्त होता है। 

बुवाई का उचित  समय 

मोठ की बुवाई खरीफ में जून के अंतिम सप्ताह से लेकर  15 जुलाई तक की जा सकती है।  शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों की बुआई 30 जुलाई तक की जा सकती है।   देरी से बुवाई करने पर बीजों का अंकुरण कम होता है तथा पैदावार में गिरावट आती है।   

बीज दर एवं बुआई

मोठ की अच्छी उपज के लिए खेत में 2-3 लाख पौधे स्थापित होना चाहिए .खेत में वांछित पौधों की संख्या के लिये 30 -35   किलो बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है. बीज की बुआई पंक्तिओं में 45 सेमी. की दूरी पर करना चाहिए।  बीज बोने की गहराई  3-4 सेमी से ज्यादा न रखें।
बीजोपचार 
बीज और भूमि जनित रोगों से फसल की सुरक्षा हेतु मोठ के बीज को बुवाई से पूर्व 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम  प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें।  इसके बाद  मोठ के बीज को राइजोबियम और पी.एस.बी. कल्चर से भी उपचारित करने से उपज में वृद्धि होती है । 

अधिक उपज के लिए उर्वरक का प्रयोग 

अधिकांश किसान मोठ की फसल में  खाद -उर्वरक का इस्तेमाल नहीं करते है, परन्तु अच्छी उपज के लिए बुआई के समय 10-15 किग्रा नत्रजन, 30-40 किग्रा फॉस्फोरस और 10 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से उपज बढती है और दानों की गुणवत्ता में भी सुधार होता है। फॉस्फोरस तत्व की पूर्ति सिंगल सुपर फॉस्फेट उर्वरक के माध्यम से करने से फसल के लिए आवश्यक सल्फर तत्व भी उपलब्ध हो जाता है। 

आवश्यक होने पर करें सिंचाई

वर्षा ऋतु की फसल होने के कारण मोठ की फसल में सिचाई की आवश्यकता नहीं होती है।  वर्षा के आभाव में  फूल आने से पहले तथा दाना बनते समय सिंचाई करने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है।   

खरपतवार नियंत्रण

वर्षा ऋतु की फसल होने के कारण फसल की  प्रारंभिक अवस्था में खरपतवार प्रकोप से मोठ की उपज में 25-30 % तक  गिरावट आ सकती  है।  खरपतवार नियंत्रण के लिए पेंडीमेथालीन (स्टोम्प) की 3.30 लीटर मात्र को 500 लीटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से अंकुरण पूर्व खेत में छिड़कना चाहिए। बुवाई के 20 -25   दिन बाद एक बार खेत में निराई-गुड़ाई  करने से खरपतवारों को नियंत्रित रखा जा सकता है।  निराई गुड़ाई नहीं हो सके तो इमेजीथाइपर (परसूट) नामक खरपतवार नाशी 750 मिली. पार्टी हेक्टेयर की दर से  500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करना चाहिए। 

समय पर फसल कटाई  

जब मोठ की फलियाँ पक कर भूरी हो जाये तथा पौधे पीले पड़ने लगे  तो फसल की कटाई कर लेना चाहिए।  ज्यादा पकने पर फलियाँ चटकने लगती है तथा दाने खेत में बिखर जाते जिससे उपज कम प्राप्त होती है।  अत: मोठ की फसल में लगभग 80 प्रतिशत फलियाँ  पकने पर तुरंत कटाई करनी चाहिए।  फसल को अच्छी प्रकार सुखाने के उपरांत हाथ से अथवा थ्रेशर द्वारा गहाई-मड़ाई कर लेना चाहिए। 

भरपूर उपज 

          अनुकूल मौसम और उचित शस्य  प्रबंधन से अपनाने पर  6-8 प्रति क्विंटल दाने की उपज प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त की जा सकती है। दानों के अलावा  पशुओं के लिए 8-10 क्विंटल  पौष्टिक भूषा भी प्राप्त होता है। 
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो लेखक और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

सोमवार, 20 मार्च 2017

सफल पशु पालन के लिए जरुरी है वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन

डाँ.गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक-सह-प्रमुख वैज्ञानिक
सस्यविज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)


                    भारत देश की कुल सकल आय का 15-16 प्रतिशत आय पशुधन से प्राप्त होती  है। पशु पालन एवं दुग्धोत्पादन की  सफलता मुख्य रूप से उत्तम नश्ल के दुधारू पशुओं  एवं पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक हरे  चारे की उपलब्धता पर निर्भर करती है । विश्व के कुल पशुधन का छठा भाग भारत में होने  के बावजूद दुग्ध उत्पादन  में हमारा बीसवां हिस्सा है । भारत में कृषि योग्य भूमि के मात्र 4 % क्षेत्र में चारा फसलों की खेती की जाती है। अधिकांश किसान देशी नश्ल के पशु (गाय, भैंस, बकरी आदि) का पालन करते है।  इन पशुओं का जीवन निर्वाह सूखे अपौष्टिक चारे (कड़वी, भूषा, धान का पुआल) आदि पर निर्भर करता है जिसके परिणामस्वरूप उनकी उत्पादकता निम्न स्तर पर बनी हुई है। पशुपालन व्यवसाय मुख्यतः संतुलित हरे चारे पर निर्भर करता है । हरा चारा पशुपालन के  लिए आवश्यक पोषक तत्वों का एक मात्र  सुलभ एवं सस्ता स्त्रोत  है । जनसंख्या एवं पशुसंख्या में निरन्तर वृध्दि को ध्यान में रखते हुए हरा चारा उत्पादन का महत्व और  भी बढ़ जाता है क्योंकि  मानव व पशुओं  के मध्य आवश्यक पोषक  तत्वों  की प्रतिस्पर्धा को  कम करने का एक मात्र  विकल्प चारा उत्पादन ही है। भारत में दुग्ध¨त्पादन व्यवसाय  की प्रमुख समस्या प्रचुर मात्रा में  दूध प्रदान करने वाले पशु धन को  पर्याप्त मात्रा  में पौष्टिक एवं स्वादिष्ट  हरा चारा उपलब्ध कराना है । अतः कम लागत पर अधिक दूध प्राप्त करने के लिए प्रचुर मात्रा में  हरा एवं पौष्टिक  चारे की महत्वपूर्ण भूमिका है। विश्व के अन्य देशों  की अपेक्षा हमारे देश में गाय और   भैसों  की संख्या सर्वाधिक है परन्तु ओसत  दुग्ध उत्पादन बहुत कम है। 
               छत्तीसगढ़ में गायों  की संख्या अधिक है परन्तु उनसे औसतन  500 ग्राम  से कम दुग्ध उत्पादन होता  है। हरा चारा, दाना की कमी के कारण इनकी  उत्पादन क्षमता कम रहती है। अनाज के उत्पादन के फलस्वरूप बचे हुए अवशेष  से भूसा तथा पुआल पर हमारे पशुओं  की जीविका निर्भर करती है। इन सूखे चारों  में  कार्बोहायड्रेट  को छोड़कर  अन्य  आवश्यक   पोषक   का नितान्त अभाव रहता है। पशु की दुग्ध उत्पादन की आनुवंशिक क्षमता के अनुरूप दूध का उत्पादन प्राप्त करने  के लिए उसके शरीर को  स्वस्थ रखने की आवश्यकता के साथ-साथ समुचित दूध उत्पादन के लिए पशु क¨ संतुलित आहार देने की आवश्यकता ह¨ती है । ल्¨किन ग्रामीण परिवेश में जो  चारा तथा दाना पशुओं को  दिया जाता है, उसमें प्रोटीन, खनिज लवण तथा विटामिन्स का नितांत अभाव पाया जाता है । वनस्पति जगत में इन तत्वों  का सबसे सस्ता एवं आसान स्त्रोत  हरा चारा ही है।  
                        भारत में बढ़ते हुए जनसंख्या दबाव के कारण अधिकांश कृषिय¨ग्य भूमि में खाद्यान्न, दलहन, तिलहनी फसलों तथा व्यावसायिक फसलों  यथा गन्ना, कपास आदि को  उगाने में प्राथमिकता दी जाती है। देश की कुल कृषिय¨ग्य भूमि का मात्र  4.4 प्रतिशत अंश ही चारे की खेती  में उपयोग होता  है। इस प्रकार लगभग 90 प्रतिशत पशुओं को  हरा चारा नसीब नहीं हो  पाता है। हरे चारे के विकल्प के रूप में जो पोषक  तत्व दाने, खली, चोकर  आदि से दिए जाते है, उससे दूध की उत्पादन लागत बढ़ जाती है । से पशुओं  के आहार में हरे चारे का नितान्त अभाव रहता है जिसके कारण औसत  दुग्ध उत्पादन बहुत कम प्राप्त ह¨ रहा है। भारत के योजना आयोग  के अनुसार वर्ष 2010 में देश में 1061 मिलियन टन हरे एवं 589 मिलियन टन सूखे चारे  की अनुमानित मांग थी जबकि 395.2 मिलियन टन हरा चारा और   451 मिलियन टन सूखे  चारे की आपूर्ति हो सकी थी  । इस प्रकार 63.5 प्रतिशत हरे व 23.56 प्रतिशत सूखे चारे की कमी महशूस की गई। आने वाले वर्षों  में चारा उपलब्धता में बढ़ोत्तरी  की संभावना कम ही नजर आती है। हरे चारे की ख्¨ती एवं चारागाहों  से आच्छादित कुल क्षेत्र  से वर्तमान में हमारे पशुओं को  45 से 60 प्रतिशत हरे  व सूखे  चारे की आवश्यकता की पूर्ति हो  पा रही है। सूखे  एवं हरे चारे की कमी को  पूरा करने के लिए इनके उत्पादन एवं उपलब्धता को  3-4 गुना बढ़ाना होगा । इस लक्ष्य को  प्राप्त करने के लिए दो  प्रमुख उपाय है:
1. देश में अकृषि और बंजर पड़ी जमीनों  में आवश्यक सुधार कर उनमें चारा फसलों की खेती प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है तभी इन फसलों  के अन्तर्गत  क्षेत्र बढ़ाया जा सकता है। 
2. चारा फसलों की उन्नत तरीके से खेती कर प्रति हेक्टर चारे की पैदावार में वृद्धि से भी कुल चारा उत्पादन में वृद्धि संभावित है। 
चारा फसलों  के अन्तर्गत वर्तमान में उपलब्ध   क्षेत्रों की प्रति इकाई उत्पादकता   और अन्य बेकार पड़ी जमीनों  में  इन फसलों के अंतर्गत क्षेत्र विस्तार से ही  चारे की कमी की कमीं को काफी हद  तक पूरा किया जा सकता है । चारा फसलों का प्रति इकाई  उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक है:
1. अधिक उत्पादन क्षमता के आधार पर चारा फसलों की उन्नत किस्मों के बीजों की उपलब्धता समय पर होना चाहिए  ।
2. चारा फसलों के उगाने के लिए उन्नत कृषि तकनीक का उपय¨ग किया जाय ।
3. चारा फसलों से प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन लेने के लिए  इनमे भी संतुलित पोषक तत्वों  का उपयोग किया जाना आवश्यक है  ।
4. इन फसलों में भी आवश्यक जल प्रबन्ध व पौध  संरक्षण उपाय भी अपनाना चाहिए ।
5 . सूखा सहन करने वाली चारा फसलों एवम उनकी उन्नत  किस्मों  की खेती को बढ़ावा देना चाहिए  ।

वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन के उपाय 

उपलब्ध सीमित संसाधनों  का कुशलतम उपयोग  करते हुए वर्ष पर्यन्त हरा एवं पौष्टिक  चारा उत्पादन के लिए निम्न  विधियों को व्यवहार में लाने की आवश्यकता है  ।
1.चारा उत्पादन की ओवरलैपिंग फसल पद्धति 
2. रिले  क्रापिंग पद्धति
3. पौष्टिक हरे  चारे की अधिक उपज के लिए मिश्रित/अंतराशस्य पद्धति 
4. अन्न वाली फसलों  के बीच रिक्त स्थानों  में चारा उत्पादन
5. खाद्यान्न फसलों  के बीच के खाली समय में चारा उत्पादन
चारा उत्पादन की ओवरलैपिंग फसल पद्धति  
               सघन डेयरी  के लिए चारा उत्पादन की आदर्श सस्य विधि वह है जिससे कि प्रति इकाई क्षेत्र  एवं समय में अधिकतम पौष्टिक  चारा उत्पादन किया जा सके । इस उद्देश्य को  ध्यान में रखते हुए वर्ष पर्यन्त हरा चारा उत्पादन की विधि विकसित की गई है जिसे परस्पर व्यापी (ओवरलैपिंग  क्रापिंग) फसल पद्दति कहते है । इस पद्धत्ति  की प्रमुख विशेषताएं  हैः
1. अक्टूबर के प्रथम पखवारे में खेत को अच्छी प्रकार से  तैयार कर बरसीम की वरदान या जवाहर बरसीम-2 किस्म की बुवाई करनी चाहिए । खेत  की तैयारी या बुवाई के समय ही बरसीम के लिए 20 किग्रा. नत्रजन और  80 किग्रा. फॉस्फोरस   प्रति हेक्टर की दर से देनी चाहिए।
2. प्रथम कटाई में अच्छी उपज के लिए बरसीम के बीज में दो किग्रा  प्रति हेक्टर की दर से जापानी सरसों  का बीज मिला कर बोना चाहिए ।
3. समतल क्यारियों  में पानी भर कर मचाकर (गंदला कर) बरसीम की बुवाई करना उत्तम पाया गया है ।
4. जब तक पौधे  में अच्छी प्रकार से स्थापित न हो  जाए तब तक 2-3 बार हल्की सिंचाई 4-5 दिन के अन्तर पर करना चाहिए। इसके बाद शरद में 15 दिन तथा बसंत में 15 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करना चाहिए ।
5. बरसीम की पहली कटाई 45-50 दिन  पर एवं बाद की कटाईयां 25-30 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए। फरवरी के प्रथम पखवारे तक बरसीम की तीन कटाईयां ल्¨ने के बाद संकर नैपियर घास के जड़दार कल्लों (कटिंग) को  1-1 मीटर के अन्तर पर कतारों  में लगाना चाहिए । कतारों में पौध से पौध के बीच  दूरी 30-35 सेमी. रखनी चाहिए।
6. मार्च के अन्त में बरसीम की अंतिम कटाई करने  के बाद नैपियर घास की दो कतारों  के मध्य की भूमि तैयार करके उसमें लोबिया  की दो कतारे बोना  चाहिए।
7. गर्मी में 10-12 दिन के अन्तर से सिंचाई करते रहना चाहिेए।
8. जून मध्य तक ल¨बिया की कटाई करने के बाद नैपियर की कतारों  के बीच की भूमि तैयार करके उसमें 50 किग्रा नत्रजन  100 किग्रा फॉस्फोरस एवं 40 किग्रा पोटाश  प्रति हैक्टर की दर से देना चाहिए।
9. नैपियर की कटाई 45-50 दिन पर करनी चाहिए एवं प्रत्येक कटाई के बाद भूमि की उर्वरा शक्ति के अनुसार 40 किल¨ नत्रजन  प्रति हेक्टर की दर से देना चाहिए।
10. नवम्बर के प्रथम सप्ताह में पुनः   पूर्व की भांति बरसीम की बुवाई करनी चाहिए एवं गर्मी में ल¨बिया की बुवाई करना चाहिए।
11. दूसरे वर्ष के आरम्भ में खाद देते समय फास्फ¨रस की मात्र्ाा आधी कर देना चाहिए ।
12. तीसरे वर्ष नवम्बर में बरसीम की बुवाई से पहल्¨ नैपियर की पुरानी जड़ो  की छटाई कर देनी चाहिए जिससे बरसीम बढ़वार के लिए पर्याप्त जगह मिल सकें। 
             इस प्रकार उपरोक्त  तकनीक से प्रथम वर्ष में 2800, द्वितिय वर्ष में 2300 एवं तृतीय वर्ष में 1700 क्विंटल प्रति हेक्टर चारा प्राप्त किया जा सकता है । इस प्रकार प्रतिदिन क्रमशः  ।7.6, 6.3 4.65 क्विंटल प्रति  हेक्टर औसत  पैदावार प्राप्त हो सकती  है जिसमें  8-10 लीटर दूध देने वाले  5-6 दुधारू पशु पाले  जा सकते है । अधिक हरा चारा उत्पादन होने पर अतरिक्त हरे चारे को  साइलेज  या हे के रूप में संरक्षित रखकर उसका उपयोग  चारा कमी के समय में किया जा सकता है। उपरोक्त सघन  फसल चक्र में आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी किया जा सकता है जैसे संकर हाथी घास(नैपियर) के स्थान पर गिनी घास लगाई जा सकती है। बरसीम की जगह रिजका (लूर्सन) लगाया जा सकता है। ल¨बिया के स्थान पर ग्वार लगा सकते है। फसलों  का चयन स्थान विशेष  की जलवायु व भूमि की किस्म के हिसाब से करना अच्छा रहता है। इसके अलावा नैपियर घास के मध्य कतारों  की दूरी भी बढ़ाई जा सकती है जिससे आधुनिक कृषि यंत्रों का प्रयोग  आसानी से किया जा सकें ।
ओवरलैपिंग पद्धति से लाभ 

1. इस पद्धति से वर्ष  पर्यन्त  पौष्टिक  हरा चारा प्राप्त होता रहता है ।
2. दलहनी फसलों  से खेत  की उर्वरा शक्ति में बढ़त होती है ।
3. नैपियर (हाथी घास) आसानी से खेत में स्थापित हो कर लंबे समय तक हरा चारा देती है ।

वर्ष भर हरा चारा प्राप्त करने का चारा कैलेंडर  

माह                               उपलब्ध हरे चारे
जनवरी                  बरसीम, रिजका, जई, मटर, तिवउ़ा,सरसों
फरवरी                 बरसीम, रिजका, जई, मटर, नैपियर, पैरा घास
मार्च                      गिनीघास, रिजका, बरसीम, नैपियर घास ,सेंजी
अप्रैल                    नैपियर घास, ज्वार, दीनानाथ घास, बाजरा, मक्का,लोबिया, ग्वार
मई                      मक्का, ज्वार, बाजरा, दीनानाथ घास, नैपियर, गिनी घास, ल¨बिया
जून                      मक्का, ज्वार, बाजरा, नैपियर, गिनी घास, ग्वार
जुलाई                   ज्वार, मक्का, बाजरा, ल¨बिया, ग्वार, नैपियर, गिनी घास
अगस्त                  मक्का, ज्वार, बाजरा, दीनानाथ घास, नैपियर, गिनी घास, लोबिया
सितम्बर              सुडान घास, मक्का, ज्वार, बाजरा,  नैपियर, गिनी घास, लोबिया
अक्टूबर              सुडान घास, नैपियर, गिनी घास, पैरा घास, मक्का, ज्वार, लोबिया
नवम्बर                नैपियर घास, सुडान घास, मक्का, ज्वार, सोयाबीन
दिसम्बर              बरसीम , रिजका, जई, नैपियर, सरसों, शलजम

वर्ष भर हरा चारा ब¨ने एवं चारा उपलब्धता की समय सारिणी 

चारा फसलें      बोने का समय चारे की उपलब्धता कटाई संख्या चारा उपज (क्विंटल/हेक्टेयर)
लोबिया                 मार्च से जुलाई           मई से सितम्बर             1                175-200
ज्वार(बहु-कटाई)  अप्रैल से जुलाई          जून से अक्टूबर          2-3                500-600
म्क्का                     मार्च से जुलाई           मई से सितम्बर            1                200-250
बाजरा                    मई से अगस्त            जून से अक्टूबर           1                200-250
मकचरी                 मार्च से जुलाई            मई से अक्टूबर           2-3                500-600
बरसीम                 अक्टूबर से नवम्बर      दिसम्बर से अप्रैल       4-5                700-1000
जई                       अक्टूबर से दिसम्बर     जनवरी से मार्च           1-2                200-250
रिजका                 अक्टूबर से नवम्बर        दिसम्बर से अप्रैल       5-6                500-600
नैपियर घास          फरवरी से सितम्बर     जाड़े के अलावा पूरे वर्ष  7-8             1500-2000
गिनी घास             मार्च से सितम्बर          जाडे के अलावा पूरे वर्ष   6-7             1200-1500

रिले  क्रापिंग पद्धति से हरा चारा उत्पादन      

         रिले  फसल पद्धति  के अन्तर्गत एक वर्ष में 3-4 फसलों को  एक के बाद दूसरी  चरण वद्ध रूप से उगाया जाता है । इस विधि में सिंचाई, खाद-उर्वरक  की अधिक आवश्यकता एवं कृषि कार्यों  की अधिकता होती है परंतु पशुओं के लिए वर्ष भर पौष्टिक हरा चारा भरपूर मात्रा में उपलब्ध होता है। 
रिले  क्रापिंग के प्रमुख फसल चक्र
मक्का + लोबिया-मक्का + गुआर -बरसीम +सरसों 
सुडान घास + लोबिया-बरसीम + जई
संकर नैपियर + रिजका
मक्का + लोबिया-ज्वार + लोबिया-बरसीम- लोबिया
ज्वार + लोबिया-बरसीम + जई

पौष्टिक हरे  चारे की अधिक उपज के लिए अपनाएँ  मिश्रित खेती  

             आमतौर  पर किसान भाई ज्वार, मीठी सुडान, मक्का, बाजरा आदि एक दलीय चारा फसलें कुछ क्षेत्र  उगाते है जिससे उन्हें पशुओं के लिए  हरा एवं सूखा चारा पर्याप्त मात्रा  में मिलता है । परन्तु इन चारों  में प्रोटीन  काम मात्रा में पाया जाता है। । इन एक दलीय चारा फसलों  की तुलना में  द्वि -दलीय चारा फसलों  यथा लोबिया,  ग्वार, बरसीम  आदि में  प्रोटीन और अन्य पोषक तत्त्व प्रचुर  मात्रा में पाए जाते है परन्तु इनसे अपेक्षाकृत  चारा उत्पादन कम होता है। अनुसंधान से ज्ञात होता  है कि एक दलीय एवं द्वि- दलीय चारा फसलों को मिश्रित अथवा  अन्तः फसल के  (2:2 कतार अनुपात)  रूप में बोने  से अधिक मात्रा में पौष्टिक हरा  चारा  प्राप्त किया जा सकता है।   अंतः फसली खेती की तुलना में  मिश्रित खेती  में चारा उत्पादन कम होता  है । शोध परीक्षणों से  ज्ञात हुआ है कि खाद्यान्न  के लिए उगाई जाने वाली ज्वार, मक्का या बाजरा की दो  कतारों  के मध्य रिक्त स्थान में लोबिया की एक कतार लगायी जाए और  40-45 दिन पर उसकी कटाई कर ली जाए तो ज्वार की पैदावार की पैदावार बढ़ने के साथ - साथ  लगभग 100 क्विण्टल  प्रति हेक्टर लोबिया से हरा चारा प्राप्त हो जाता है । इसके अलावा भमि की उर्वरा शक्ति में भी सुधार होता है। 
खाद्यान्न फसलों  के बीच के खाली समय में चारा उत्पादन की तकनीक 
                प्रायः उत्तर भारत में बरसात के पूर्व मई-जून में तथा बरसात के बाद अक्टूबर-नवम्बर में चारे की उपलब्धता में बहुत कमी होती है । चारे की इस कमी के समय को  लीयन पीरियड कहते है । इस  समय चारे की कमी को  पूरा करने के लिए निम्न उपाय किये जा सकते है। 
1. रबी की फसल की कटाई के बाद (मई-जून) एवं खरीफ की फसल ब¨ने के पहल्¨ शीघ्र तैयार होने वाली चारे की फसलें  उगाई जानी चाहिए ।
2. इस मौसम  में चारे के लिए मक्क + लोबिया , चरी + लोबिया , बाजरा + लोबिया  की मिलवां खेती  से 250-300 क्विंटल हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है ।
3. इसी प्रकार शीघ्र तैयार ह¨ने वाली ज्वार, बाजरा या भुट्टे के लिए उगायी गयी मक्का के काटने के बाद एवं गेहूं की बुवाई के बीच भी काफी समय बचता है । इस समय शीघ्र तैयार ह¨ने वाली फसलों  जैसे जापानी सरसों  शलजम आदि लगाकर हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है ।
भारत में कुल दुग्ध उत्पादन का 50 फीसदी से ज्यादा हिस्सा ऐसे दुधारू पशुओं  से आता है जिन्हे या  तो भरपेट चारा नही मिलता या फिर जिनके भोजन  में आवश्यक पौष्टिक तत्वों  का अभाव रहता है ।
पशुधन विकास के लिए छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा चारा विकास के लिए योजनाएं 
             छत्तीसगढ़ सहित देश के सभी राज्यों में पशुधन विकास के लिए राज्य सरकारों  द्वारा पशुनश्ल सुधार कार्यक्रम संचालिच किया जा रहा है जिसके अच्छे परिणाम आ रहे है । पशुओं को वर्ष भर पौष्टिक हरा चारा उपलब्ध  कराने के उद्देश्य से राज्य सरकारों  द्वारा चारा विकास कार्यक्रम संचालित किये जा रहे है जिसके तहत पशुधन विभाग द्वारा पशुपालकों को मौसम  के अनुसार चारा फसलों  के बीज जैसे ज्वार, मक्का, स्वीट सुडान, लोबिया , ग्वार, बरसीम, रिजका आदि के बीजों  की मिनीकिट निःशुल्क पदान किये जा रहे है । इसके अलावा विभाग द्वारा पंचायत स्तर पर सामूहिक रूप से चारागाह विकसित करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित  करने आर्थिक मदद एवं तकनीकी मार्गदर्शन भी  दिया जा रहा है । 
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो लेखक और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

शुक्रवार, 17 मार्च 2017

पोषण सुरक्षा के लिए मूँग-उर्द का उत्पादन बढ़ाएँ

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)  




भारत विश्व का सर्वाधिक दलहन उत्पादक राष्ट्र है, फिर भी देश में दालों की घरेलु पूर्ति के लिए प्रति वर्ष 10-12 लाख टन दलहन आयात  करना पड़ता है।  ऐसी स्थिति में हमें दलहनी फसलों के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार के अलावा प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने की  दिशा में कारगर रणनीत अपनाना पड़ेगी।  धान-गेंहू फसलों की लगातार गहन खेती करने के कारण भारत के अनेक क्षेत्रों में  भूमि की उर्वरा शक्ति और भूमिगत जल स्तर में निरंतर गिरावट दर्ज की जा रही है। इसके अलावा इन प्रमुख खाद्यान्न फसलों की उत्पादकता में ठहराव भी आता जा रहा है।  धान-गेंहू और मक्का-गेंहू तथा अन्य फसल चक्रों में दलहनी फसलों का समावेश आवश्यक हो गया है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति को पुनर्जीवित  सके।  फसल विविधिकरण में दलहनी फसलों का महत्वपूर्ण योगदान है। मुंग एवं उर्द की फसलें अल्पावधि की होने के कारन विभिन्न फसल प्रणालियों में इन्हें आसानी से सम्मिलित हो जाती है। दलहनी फसलें शाकाहारी भोजन का अबिन्न अंग है। दालों में सर्वाधिक मात्रा में प्रोटीन, विटामिन्स और खनिज लवण पाए जाते है। दलहनों के अपर्याप्त उत्पादन  और बढ़ती मंहगाई  के   कारण दालें आज आम आदमी की थाली से दूर  होती जा रही है जिसके फलस्वरूप देश के बच्चो और नवयुवको में कुपोषण की समस्या बढ़ती जा रही है।  ऐसे में दलहनी  फसलों के क्षेत्राच्छादन और उत्पादकता बढ़ाना नितांत आवश्यक है, तभी हम भारत के सभी नागरिकों को पोषण सुरक्षा मुहैया करा सकते है।   मुंग एवं उर्द भारत के कुल दलहनी फसलों के क्षेत्रफल के लगभग 28 प्रतिशत भाग पर उगाई जाती है।  भारत वर्ष  में पैदा की जाने वाली दलहनी फसलों में मूँग और उर्द का एक  प्रमुख स्थान है। वर्ष 2013-14  दौरान इन फसलों की खेती 64. 46 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में प्रचलित है जिससे 33. 06 लाख टन उत्पादन प्राप्त हुआ। इन फसलों की उत्पादकता बहुत ही कम है जिसे बढ़ाने के लिए किसान भाइयों को उन्नत तरीके से इनकी खेती करना होगा. ग्रीष्म और वर्षा ऋतू में इन फसलों से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए अग्र प्रस्तुत शस्य क्रियाएं अपनाना चाहिए। 
उपयुक्त जलवायु             
          मूँग एवं उर्द की खेती खरीफ एवं जायद दोनों मौसम में की जाती है। फसल पकते समय शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है।  जायद में इन फसलों  की खेती में अधिक सिंचाई करने की आवश्यकता होती है।
भूमि का चुनाव एवं तैयारी
             मूँग  एवं उर्द की खेती हेतु समुचित जल निकास वाली बलुई-दोमट मिटटी से लेकर लाल एवं काली मिटटी में भली भांति की जा सकती है।  भूमि में प्रचुर मात्रा में स्फुर का होना लाभप्रद होता है। खेत की पहली जुताई हैरो या मिट्टी पलटने वाले रिजऱ हल से करनी चाहिए. तत्पश्चात दो-तीन जुताई कल्टीवेटर से करके खेत को अच्छी तरह भुरभरा बना लेना चहिये। अंत में पाटा चलाकर खेत समतल करना  अति आवश्यक है, जिससे की खेत में नमी अधिक समय तक सुरक्षित  रह सके। गेंहू की कटाई के पश्चात शून्य जुताई विधि से बुआई करते वक्त गेंहू कटाई उपरांत खेत में हलकी सिंचाई करके जीरो टिल मशीन से सीधे बुआई करने से खेत तैयारी में लगने वाले समय की वचत होती है और उपज भी अपेक्षाकृत अधिक मिलती है.  वर्षा ऋतु में खेत से जल निकासी की उचित व्यस्था होनी चाहिए। 

उन्नत किस्में 
               फसल बुआई के समय, फसल पद्धति और क्षेत्र विशेष के लिए उपयुक्त  उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए।  खरीफ ऋतु की किस्मों के विपरीत ग्रीष्मकालीन फसल की किस्मों के चयन में ध्यान रखे कि वे काम अवधी में तैयार हो जावें। मूँग की उपयुक्त उन्नत किस्में ग्रीष्मकालीन उर्द और मूंग की खेती गन्ना, सूरजमुखी आदि फसलों के साथ अंतः फसली पद्धति में भी की जाती है। छत्तीसगढ़ राज्य के लिए उपयुक्त मूंग और उर्द की किस्मों के नाम यहाँ दिए जा रहे है :
मूँग की उन्नत किस्में 
पी.डी.एम.-11,पूसा-105,बी.एम.-4,मालवीय ज्योतिपूसा-9531, पूसा विशालमालवीय जनचेतनापी.के.व्ही.ए.के.एम.-4 आदि उन्नत किसमे है जो की 60-65 दिन में पाक कर तैयार होकर 8-10 क्विण्टल प्रति हेक्टेयर उपज देने की क्षमता रखती है।     
उर्द की उपयुक्त उन्नत किस्में 
पी.डी.यू.-1 (बसन्त बहार), टी.पी.यू.-4, टी.ए.यू.-2,टी.यू.-94-2, आर.बी.यू.-38 (बरखा), के.यू.-96-3, पन्त यू.-31, एन.यू.एल.-7   आदि उन्नत किस्में 70-75 दिन में तैयार होकर 10-12 क्विण्टल प्रति हेक्टेयर उपज देने में सक्षम होती है।    
बीज की मात्रा एवं बीजोपचार
              खरीफ फसल के लिए मूँग व उर्द के लिये, बीज दर  15-18  किलोग्राम प्रति हेक्टेयर  उपयुक्त होती  है। जायद में बीज की मात्रा 20-25  किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखना चाहिये। रोगों से बचाव तथा बेहतर उपज प्राप्त करने के लिए बीजों को सर्प्रथम सर्वांगी कवकनाशी रसायन से और इसके बाद राइज़ोबियम कल्चर से उपचारित करना चाइये।  इसके लिए प्रति किलोग्राम बीज को  1 ग्राम कार्बेन्डाजिम और 2 ग्राम थायरम या 3 ग्राम थायरम  से उपचारित करना चाहिए । इसके बाद बीज को उचित  रायजोबियम कल्चर  5 ग्राम  प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें और छाया में सुखाकर शीघ्र ही बुवाई करना चाहिये। इसी प्रकार फॉस्फेट घुलनशील बेक्टीरिया (पी.एस.बी.) से बीज शोधन करने से भी लाभ होता है।  कल्चर हमेशा विश्वशनीय स्थान से ही खरीदना चाहिए। 
बुआई  का समय एवं बोन की विधि
           ग्रीष्म अथवा वसंतऋतु की फसल की बुआई 15  मार्च से 15  अप्रैल तक बुवाई करनी चाहिए।  खरीफ में इन फसलों की बुआई मध्य जुलाई से अगस्त के प्रथम सप्ताह  संपन्न कर लेना चाहिए।   बीज की बुआई कूड़ों में   से पंक्तियों  करना चाहिए।  कतारों के मध्य  की दूरी  25 से 30 सेंटी मीटर तथा पौधों के बीच की दूरी 8-10 सेमी।रखना चाहिए। बीज की बुवाई 4 से 5 सेंटी मीटर गहराई में करनी चाहिए । ग्रीष्म में पंक्तियों के मध्य 25 सेमी का फांसला रखना उचित रहता है। 
खाद एवं उर्वरक की मात्रा 
          दलहनी फसलों में अक्सर किसान भाई खाद एवं उर्वरक का इस्तेमाल नहीं करते है परंतु अच्छी एवं गुणवत्ता युक्त दलहन उत्पादन के लिए इन फसलों को भी संतुलित मात्रा में खाद-उर्वरकों की आवश्यकता होती है।  उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के बाद मिट्टी की उर्वरा शक्ति के अनुसार ही करना चाहिए। सामान्य तौर पर  10 से 15 किलोग्राम नत्रजन, 40-45  किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश और 20 किलोग्राम सल्फर   प्रति हेक्टेयर बुआई के समय  प्रयोग करना चाहिए। इन सभी उर्वरकों की पूर्ण मात्रा बुवाई के समय कूड़ों में बीज से 2 से 3 सेंटीमीटर नीचे देना चाहिए। 

सिंचाई प्रबंधन 
            ग्रीष्मकालीन  फसल से बेहतर उत्पादन लेने के लिए उचित जल प्रबंधन आवश्यक है।  पलेवा करके बुआई करने के बाद  में पहली सिचाई बुवाई के 20  से 25  दिन बाद और बाद में हर 10 से 15 दिन के अंतराल पर सिचाई करते रहना चाहिए जिससे अच्छी पैदावार मिल सके। प्राय: खरीफ में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। परंतु पुष्पन अवस्था के समय वर्षा न होने की स्थिति में   की स्थिति में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोतरी होती है। फलियाँ बनते समय भी सिचाई करने की आवश्यकता पड़ती है। 
खरपतवार प्रबंधन 
          इन फसलों में खरपतवार प्रकोप से लगभग 30-50 % तक उपज में कमीं आ सकती है।  पहली सिचाई के बाद ओट आने पर निंदाई-गुड़ाई  करने से खरपतवार नष्ट होने के साथ साथ वायु का संचार होता है जो की मूल ग्रंथियों में क्रियाशील जीवाणु द्वारा वायुमंडलीय नत्रजन एकत्रित करने में सहायक होती है। खरपतवार  नियंत्रण जैसे की पेंडामिथालिन 30 ई सी की 3.3 लीटर अथवा एलाकोलोर 50 ई सी 3 लीटर मात्रा को 600 से 700 लीटर पानी में घोलकर बुवाई 2 से 3 दिन के अन्दर जमाव से पहले प्रति हेक्टर की दर से छिड़काव करने से प्रारंभिक खरपतवार नियंत्रित रहते है। 

कटाई व उपज 
           मूंग और उर्द की पकी हुई फल्लिओं को समय-समय पर तोड़कर चटकने से बचाना चाहिए। जब इन फसलों की पत्तियां पीली पड़ने लगे तो कटाई कर गहाई कर लेना चाहिए।  उन्नत फसल प्रबंधन और पौध सरंक्षण के उपाय अपनाने से मूंग और उर्द से 8-10 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। भण्डारण में रखने से पूर्व उपज को अच्छी तरह साफ़ करके सूखा लेना चाहिए। दानों में 10 % से अधिक नमीं नहीं होना चाहिए 
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भारत में कुपोषण से मुक्ति दिलाएगी विदेशी फसल चिया

डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)


भारत में अब पारंपरिक खेती घाटे का सौदा होती जा रही है।  इसलिए किसानों का रुझान धीरे
धीरे गैर पारंपरिक खेती की तरफ बढ़ रहा है। इससे देश में फसल विविधिकरण को भी बढ़ावा मिल रहा है।   दूसरी तरफ देश में पौष्टिक खद्यान्न के अभाव की वजह से वच्चों और नव युवकों में कुपोषण की समस्या तेजी से बढ़ती जा रही है। दक्षिण अमेरिका से चलकर भारत पहुंची चिया (साल्विया हिस्पानिका एल.) ने अपने पौष्टिक एवं स्वास्थ्यवर्धक  गुणों के कारण विश्व समुदाय में  सुपर फ़ूड के  रूप  में अलग पहंचान बना ली है।अंतराष्ट्रीय  और भारतीय बाजार में इस सर्व गुण संपन्न फसल की मांग बढ़ने की  वजह से इसकी खेती मुनाफे का सौदा साबित हो रही है।   भारत के किसानों  के मध्य इसकी खेती को विस्तारित करने में  सेंट्रल फ़ूड टेक्नोलॉजिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट, मैसूर के वैज्ञानिको की महती भूमिका है।  

क्या है चिया बीज?

           चिया  (साल्विया हिस्पनिका एल.) को मेक्सिकन चिया तथा सल्बा के नाम से भी जाना जाता है। चिया  लेमियेसी यानि पौदीना परिवार का  एक वर्षीय पौधा है। खाद्य के रूप में चिया का उपयोग 3500 बी.सी. में किया जाता था परन्तु मध्य मेक्सिको में  1500 बीसी और 900 बीसी के दरम्यान फसल के रूप में चिया को महत्व मिला है।  आजकल चिया फसल की खेती मेक्सिको, बोलविया, अर्जेंटीना, इकुआडोर और ग्वाटेमाला  में प्रचलित है।  भारत में कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश  और राजस्थान के कुछ  हिस्सों में भी चिया की खेती प्रारम्भ हुई है।  इसका पौधा 70-100 सेमि. की ऊंचाई तक बढ़ता है। पौधों में बैंगनी-सफ़ेद रंग के फूल लगते है।  फसल जब यौवन अवस्था में होती है तो खेत में हरे और बैंगनी रंग की निराली छटा देखने को मिलती है।  इसके बीज छोटे (0.8-1.0 मिमी मोटे) काले व सफ़ेद रंग के होते है।  काले बीजों की अपेक्षा सफ़ेद बीज में तेल की  मात्रा अधिक पाई जाती है। 

चिया बीज में छुपा है पौष्टिकता का खजाना  

            चिया  बीज देखने में बहुत छोटे होते है परंतु स्वास्थ्य और पौष्टिकता का पूरा खजाना इनमें समाहित है। इसके बीज  में 30-35 % उच्च गुणवत्ता वाला तेल पाया जाता है जो की ओमेगा-3 और ओमेगा-6 फेटी एसिड का बेहतरीन (60 % से अधिक) स्त्रोत है . यह तेल सामान्य स्वास्थ्य और ह्रदय के लिए अति उत्तम पाया गया है . यही नहीं इसके बीज में अधिक मात्रा में प्रोटीन (20-22 %), खाने योग्य रेशा (लगभग 40%) तथा एंटी ओक्सिडेंट, खनिज लवण (कैल्शियम,फॉस्फोरस,पोटैशियम) और विटामिन्स (नियासिन,राइबोफ्लेविन और थायमिन) विद्यमान होते है।  चिया में नियासिन विटामिन की मात्रा मक्का, सोयाबीन और चावल से अधिक होती है।  चिया बीज में दूध की तुलना में छह गुना अधिक  कैल्शियम, ग्यारह गुना अधिक  फॉस्फोरस एंड चार गुना अधिक पोटैशियम पाया गया है।  चिया बीज में  अपने वजन से 12 गुना से  अधिक मात्रा में पानी सोखने की क्षमता होती है जिससे इसे  खाद्य उद्योग के लिए अधिक उपयोगी माना जा रहा है। चिया बीज से बने आहार और व्यंजन शक्ति  महत्वपूर्ण स्त्रोत माने जाते है। बीज का इस्तेमाल खाद्यान्न (रोटी, दलिया या हल्वा) या बीज अंकुरित कर सलाद के रूप में उपयोग किया जा सकता है।  दूध या छाछ के साथ इसका पाउडर मिलाकर पौष्टिक पेय के रूप में भी इसका सेवन स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना जाता है। चिया के हरे ताजे या सूखे पत्तों से निर्मित चाय स्वास्थ्य के लिए लाभकारी बताई जाती है।  

चिया बीज का तुलनात्मक पोषक मान (प्रति 100 ग्रा.बीज)

बीज/दाने
चिया बीज
अलसी बीज
किन्वा बीज
सूर्यमुखी बीज
सरसों बीज
जई बीज  
गुआर फली बीज
ऊर्जा (कि केल)
486
534
368
584
508
374
332
प्रोटीन (ग्रा.)
16.54
18.29
14.12
20.78
26.08
13.6
4.60
वसा (ग्रा.)
30.74
42.16
6.07
51.46
36.24
7.6
0.50
कार्बोहायड्रेट (ग्रा.)
42.12
28.88
64.16
20.0
28.09
66.27
77.3
नमीं (ग्रा.)
5.80
6.96
13.28
4.73
5.27
8.22
15
स्त्रोत-सुखनीत सूरी एवं साथी (2016)

             इस प्रकार चिया के बीज में प्रोटीन और उच्च गुडवत्ता का वसा, महत्वपूर्ण विटामिन्स और खनिज लवण प्रचुर मात्रा में पाए जाते है।  भोजन के साथ साथ चिया बीज के सेवन से भारत के  नोनिहालों में तेजी से फ़ैल रही कुपोषण की समस्या से निजात मिल सकती है। इसके अलावा सभी वर्ग के लोगो के स्वास्थ्य के लिए इसका सेवन फायदेमंद रहता है। 

चिया के ओषधीय गुण 

1. चिया के बीज में प्रोटीन, वसा, खनिज लवण और विटामिन्स प्रचुर मात्रा में विद्यमान होती है जिसके कारण इसके सेवन से मांसपेशियां, मस्तिष्क कोशिकाएं और तंत्रिका तंत्र मजबूत होता है। 
2. चिया के बीजों में एंटी ऑक्सिडेंट्स पर्याप्त मात्रा में होते है, जो  शरीर से फ्री रैडिकल्स को बाहर निकलने में मदद करता है, जिससे ह्रदय रोग और कैंसर रोग से बचा जा सकता है। 
3. चिया के बीजों में ओमेगा-3 और ओमेगा-6 फैटी एसिड पाया जाता है, जो ह्रदय रोग और कोलेस्ट्रॉल की समस्याओं को दूर करने में मददगार साबित होता है। 
4. चिया के बीजों के नियमित सेवन करने से शरीर में सूजन की समस्या से निजात मिलती है। 
5. चिया के बीज भूख शांत करने और बजन घटाने में कारगर साबित हो रहे है। 
6. चिया के बीज का सेवन करने से शरीर में 18 % कैल्शियम की कमीं पूरी होती है जोकि  दांत और हड्डियों को मजबूती प्रदान करने में मददगार होती है।
7. शरीर की त्वचा को कांतिमय बनाने के लिए इसका नियमित सेवन अत्यंत लाभकारी बताया जा रहा है। 
8. पाचन तंत्र को सुधारने और मधुमेह रोगियों के लिए भी उपयोगी खाद्य है।  

कैसे करें चिया की सफल खेती

             चिया की खेती सभी प्रकार की उपजाऊ और कम उर्वर भूमिओं में सफलता पूर्वक की जा सकती है।  इस फसल से अधिकतम उपज और लाभ लेने की लिए अग्र प्रस्तुत वैज्ञानिक तरीके से खेती करना चाहिए। 

सही समय पर करें बुआई

           प्रकाश सवेंदी फसल  होने के कारण ग्रीष्म ऋतू में  चिया के पौधों में  पुष्पन और बीज निर्माण बहुत कम होता है।  पौधो की बेहतर बढ़वार और अधिक उपज के लिए चिया फसल की बुआई वर्षा ऋतु-खरीफ में जून-जुलाई के पश्चात और शरद ऋतू-रबी में अक्टूबर-नवम्बर में करना श्रेष्ठतम पाया गया है।  

तैयार करें पौधशाला

             अच्छी प्रकार से तैयार खेत में वांक्षित आकर की उठी हुई क्यारी बना लें।   चिया के बीज आकर में छोटे होते है अतः क्यारी की मिट्टी भुरभरी और समतल कर लेना चाहिए।  चिया के 100 ग्राम बीज को इतनी ही मात्रा में रेत या राख के साथ मिलकर तैयार क्यारी में एकसार बोने के उपरांत बारीक़ वर्मी-कम्पोस्ट या मिट्टी से ढक कर हल्की सिचाई करना चाहिए।  क्यारी में नियमित रूप से झारे की मदद से हल्की सिचाई करते रही जिससे क्यारी की मिट्टी नम बनी रहें। 

मुख्य खेत की तैयारी और पौधरोपण

                 पौध रोपण हेतु खेत की भली भांति साफ़ सफाई करने के पश्चात जुताई कर भुरभुरा और समतल कर लेना चाहिए. खेत की अंतिम जुताई के समय 4-5 टन अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मी कम्पोस्ट के साथ ही 100 किग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट और 16 किग्रा. मिउरेट ऑफ़ पोटाश प्रति एकड़ की दर से एकसार खेत में फैलाकर मिट्टी में अच्छी प्रकार मिला देना चाहिए।  अब खेत में 60 सेमी. की दूरी पर कतारें बनाकर पौध से पौध 30 सेमी. का फांसला रखते हुए पौधे रोपना चाहिए . शीत ऋतू-रबी में कतार से कतार 45 सेमी और पौधे से पौधे के मध्य 30 सेमी की दूरी रखना उचित पाया गया है क्योंकि ठण्ड के मौसम में पौध बढ़वार कम होती है।  पौध रोपण के तुरंत बाद खेत में हल्की सिचाई करना अनिवार्य होता है ताकि पौधे सुगमता से स्थापित हो सकें।  पौध स्थापित होने के पश्चात 50 किग्रा प्रति एकड़ की दर से यूरिया खाद कतारों में देना चाहिए। भूमि में नमीं के स्तर और मौसम  के अनुसार 8-10 दिन के अन्तराल पर हल्की सिचाई करते रहे। 

निंदाई-गुड़ाई

                फसल को खरपतवार प्रकोप से बचाने के लिए खेत में 2-3 बार हैण्ड हो या कुदाली से निराई-गुड़ाई करना चाहिए।  खेत में खाली स्थानों में पौध रोपण का कार्य भी रोपण के 10-15 दिन के अन्दर संपन्न कर लेना चाहिए। 

फसल कटाई

                 फसल तैयार होने में 90 से 120 दिन लगते हैं।  पौध रोपण के 40-50 दिन के अन्दर फसल में पुष्पन प्रारंभ हो जाता है . पुष्पन के 25-30 दिन में बीज पककर तैयार हो जाते है।  फसल पकते  समय पौधे और बालिया पीली पड़ने लगती है।  पकने पर फसल की कटाई-गहाई कर दानों की साफ़-सफाई कर उन्हें सुखाकर बाजार में बेच दिया जाता है अथवा बेहतर बाजार भाव की प्रत्याशा में उपज को भंडारित कर लिया जाता है। 

फसल उपज और लाभ 

             मौसम और शस्य प्रबंधन के आधार पर चिया फसल से  प्रति एकड़ 350-400 किग्रा. दाना उपज प्राप्त हो जाती है।  चिया की खेती करने में 8 -9  हज़ार रुपये प्रति एकड़ का ख़र्चा संभावित है। 
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