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शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

रबी फसलों की अधिक उपज के लिए आवश्यक है उर्वरकों का संतुलित प्रयोग


डॉ.जी.एस.तोमर, प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                        अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
               कृषि में बीज के बाद उर्वरक ही सबसे महंगा तथा महत्वपूर्ण निवेश है जो उत्पादन बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।  हरित क्रांति की सफलता में उन्नत किस्मों के साथ साथ उत्पादन बढाने में उर्वरक एवं सिंचाई का महत्वपूर्ण स्थान है।  बढती जनसँख्या की खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रति इकाई अधिकतम उपज लेने के लिए हमने रासायनिक उर्वरकों का असंतुलित और अंधाधुंध प्रयोग किया है जिसके कारण मिट्टी की सेहत और हमारा पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है।  असंतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरकों के इस्तेमाल से किसान भाइयों को  एक तरफ तो फसल एवं किस्म की क्षमता के अनुरूप बांक्षित उपज नहीं मिल पा रही  है तो दूसरी ओर उनके खेत की मिट्टी  का स्वास्थ्य भी ख़राब होने लगा है।  स्वस्थ मृदा एवं बेहतर फसलोत्पादन के लिए मिट्टी परिक्षण के आधार पर ही संतुलित मात्रा में रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ जैविक खाद जैसे गोबर की खाद, हरी खाद, वर्मी कम्पोस्ट एवं जैव उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए।  मुख्य पोषक तत्वों यथा नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा  पोटाश के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्वों को सही अनुपात में सही समय पर सही विधि द्वारा मिट्टी, फसल और जलवायु की आवश्यकता के अनुसार प्रयोग करना ही संतुलित उर्वरक प्रयोग माना जाता है।  असंतुलित मात्रा,  गुणवत्ताविहीन उर्वरक तथा गलत प्रयोग विधि के कारण उर्वरकों के प्रयोग से फसल बढ़वार और उपज कम होती है।  इसलिए आवश्यक है कि गुणवत्तायुक्त उर्वरक प्रतिष्ठित दूकान से ही ख़रीदे तथा उर्वरक क्रय की रसीद अवश्य प्राप्त करें।  उर्वरकों के ख़राब या गुन्वात्ताविहीन होने पर जिला कृषि अधिकारी से शिकायत अवश्य करना चाहिए. छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश की प्रमुख रबी फसलों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों यथा नत्रजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूर्ति के लिए विभिन्न उर्वरको (समूह) की मात्रा (किग्रा.प्रति एकड़) अग्र सारिणी में प्रस्तुत है :
 
सारिणी-1:रबी फसलों के लिए उर्वरकों की संस्तुत मात्रा (किग्रा.प्रति एकड़)

प्रमुख रबी फसलें
समूह ‘क’
समूह ‘ख’
यूरिया (46% नत्रजन)
सिंगल सुपर फॉस्फेट
(16 % फॉस्फोरस)
म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (60%  पोटाश)
डाय अमोनियम फॉस्फेट-डी.ए.पी.
(18:46:00)
यूरिया
(46% नत्रजन)
म्यूरेट ऑफ़ पोटाश (60%  पोटाश)
गेंहू (लम्बी किस्में)
52
75
13
26
43
13
गेंहू (बोनी किस्मे)
87
150
27
52
67
27
जौ सिंचित
52
75
13
35
39
13
चना
17
150
13
52
00
13
मटर
17
150
20
52
00
13
सरसों
52
100
13
35
39
13
अलसी
52
75
13
35
39
13
सूरजमुखी
70
150
27
52
50
27
गन्ना
260
213
53
74
234
53
आलू
87
189
27
70
60
67

            उर्वरकों की उपलब्धता के अनुसार सारिणी-1 में बताये अनुसार किसी भी एक समूह के अनुसार फसल में  उर्वरकों का इस्तेमाल करें।  गेंहू, जौ, सरसों, सूरजमुखी, अलसी, गन्ना एवं आलू  में नत्रजन उर्वरक  की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा फसल बुवाई के समय आधार खाद के रूप में कूंड में डालें।  नत्रजन की शेष मात्रा को दो बराबर-बराबर भागों में बांटकर खड़ी फसल में  30 और 60 दिन बाद शाम के समय डालें।  उर्वरकों का प्रयोग आड़ी एवं खड़ीं दोनों दशाओं में करने से सभी पौधों को पोषक तत्व प्राप्त हो जाते है, उर्वरक उपयोग क्षमता बढती है तथा उपज भी अधिक मिलती है।  उर्वरक प्रयोग करते समय भूमि में पर्याप्त नमीं होना चाहिए। दलहनी फसलों में सभी उर्वरकों की पूर्ण मात्रा बुवाई के समय ही देना चाहिए।  प्रत्येक दो वर्ष के अंतराल से 8 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से जिंक सल्फेट देने से फलोत्पादन बढ़ता है।  दलहनी फसलों के बीज को राईजोबियम कल्चर (10-15 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से) उपचारित कर बुवाई करने से नत्रजन उर्वरक की बचत होती है और उपज भी अधिक मिलती है।  अन्न वाली फसलों एवं गन्ना आदि  में एज़ोटोबैक्टर, अजोस्पैरिलम एवं फॉस्फेट विलेयकरी जैव उर्वक का उपयोग करना चाहिए.जैव उर्वरकों से उपचारित बीज को छाया में ही रखना चाहिए. उपचार पश्चात छाया में सुखाकर शीघ्र बुवाई करना चाहिए। 
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मंगलवार, 6 नवंबर 2018

भूली बिसरी बहुपयोगी फसल सोया की वैज्ञानिक खेती

भूली बिसरी बहुपयोगी फसल सोया की वैज्ञानिक खेती
डॉ.जी.एस.तोमर, प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
सोया (अनेथम ग्रेविओलेन्स) अम्बेलिफेरी कुल का सदस्य है। इसे  दिल, सोवा  और सुवा के नाम से भी जाना जाता है। सोया के पत्तियों, टहनियों और बीज में तीक्ष्ण मनभावन खशबू होती है।   सब्जी एवं अन्य खाध्य पदार्थ तैयार करने में  इसके बीज का इस्तेमाल किया जाता है। सोया के पत्ते एवं बीज सौफ से मिलते जुलते होते है।  इसके बीज को कई जगह बन सॉफ भी कहा जाता है।  इसके हर्ब तेल का उपयोग वेज और नॉन वेज खाध्य सामग्री, अचार, सिरका आदि को स्वादिष्ट बनाने में किया जाता है।  इसके बीजों में बेसुमार औषधीय गुण विद्यमान है।  इसके बीज तीखे, भूख बढ़ाने वाले, उष्ण, मूत्र रोधक, बुद्धिवर्धक, काफ एवं वायुनाशक माने जाते है। सोया के बीजो से निकाले गये वाष्पशील तेल का प्रयोग कई प्रकार कई दवाओं के निर्माण में किया जाता है. सोया के तेल में पानी मिलाकर दिल वाटर बनाया जाता है जो छोटे बच्चो को अफरा, पेट दर्द तथा हिचकी जैसी तकलीफ होने पर दिया जाता है।  सोया के बीजो से निकाले गये वाष्पशील तेल को ग्राइप वाटर बनाने में भी प्रयोग किया जाता है।  इसके बीज को पीसकर घाव या जख्म पर लगाने से आराम मिलता है।   इसके साबुत या पीसे हुए बीज सूप, सलाद, सॉस, व् अचार में डाले जाते है।  सोया  के हरे एवं मुलायम तने, पत्तिया तथा  पुष्पक्रम को भी सब्जी एवं सूप को सुवासित करने में प्रयोग होता है। भारत के अनेक क्षेत्रों में सोया भाजी के रूप में भी इस्तेमाल होती है।   सोया की भाजी के सेवन से पाचन तंत्र की गड़बड़ी, गैस एवं अजीर्ण में आराम मिलता है।   सोया के हर्ब तेल में प्रमुख रूप से फैलान्डोन 35 % एवं 3,9-एपोक्सी-पी-मेंथ-1-एने 25 % पाया जाता है।  इसके  बीज तेल में लिमोनेने 70 % तक एवं कारवोन  60 % तक पाया जाता है। 
सोया की फसल-पुष्पावस्था फोटो साभार गूगल
पोषकमान की दृष्टि से सोया की 100 ग्राम खाने योग्य सूखी हर्ब में 7 ग्राम पानी, 20 ग्राम प्रोटीन, 4 ग्राम वसा,44 ग्राम कार्बोहाइड्रेट्स, 12 ग्राम रेशा,60 मिग्रा एस्कोर्बिक एसिड पाया जाता है. इसका ऊर्जा मान 1060 कि कैलोरी होता है।  इसके सूखे 100 ग्राम खाने योग्य बीज में 8 ग्राम पानी, 16 ग्राम प्रोटीन, 14 ग्राम वसा, 34 ग्राम कार्बोहाइड्रेट्स, 21 ग्राम रेशा एवं 7 ग्राम राख पाया जाता है।  इसका ऊर्जा मान 1275 कि कैलोरी होता है।
विश्व में अमेरिका, चीन और ऑस्ट्रेलिआ में सोया की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है तथा सबसे अधिक खपत अमेरिका, जापान और जर्मनी में होती है।  भारत में सोया की खेती बहुत छोटे स्तर पर सब्जी-मसाला फसल के रूप में गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश में प्रचलित  है।  भारत के अनेक क्षेत्रों में रबी फसलों के साथ सोया खरपतवार के रूप में भी उगता है। सोया के हर्ब और बीज में विद्यमान आवश्यक तेल के विविध औषधीय महत्त्व को देखते हुए सोया की व्यवसायिक खेती बहुत ही फायदेमंद सिद्ध हो सकती है। परन्तु सुनिश्चित बाजार होने पर ही सोया की व्यवसायिक खेती करेंगे तभी आशातीत लाभ प्राप्त हो सकेगा ।  सोया की खेती से अधिकतम उपज और आमदनी लेने की लिए इसकी वैज्ञानिक खेती अग्र प्रस्तुत है।

उपयुक्त जलवायु

सोया समशीतोष्ण जलवायु की फसल है जिसके लिए शुष्क एवं ठंडा मौसम अनुकूल होता है| भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में इसे खरीफ ऋतु में उगाया जाता है परन्तु उत्तर भारत में इसे  रबी (शरद ऋतु) फसल के रूप में सफलता पूर्वक उगाया जाता है। बुवाई के समय वातावरण का तापमान 22-28 डिग्री से.ग्रे. उपयुक्त होता है. फसल बधवार के लिए 22-35 डिग्री से.ग्रे. तापमान अच्छा रहता है।   

भूमि एवं इसकी तैयारी

सोया की खेती हल्की बलुई मिटटी को छोड़कर उत्तम जल निकास वाली चिकनी मिट्टी से लेकर लाल-पीली मिट्टियों में सफलता पूर्वक की जा सकती है।  भूमि का पी एच मान 5-7 तक उपयुक्त रहता है।  खेत की तैयारी के लिए एक गहरी जुताई के साथ दो-तीन बार हैरो चलाने के उपरान्त खेत में पाटा लगा कर मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए।  बुआई से पूर्व खेत को  छोटी छोटी क्यारियों में बाँट लेना चाहिए ताकि सिंचाई एवं जल निकासी में सुविधा हो सके। मिट्टी में  दीमक की समस्या होने पर  मिथाइल पैराथीओन 2.0  प्रतिशत दवा  25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में अंतिम जुताई के समय सामान रूप से बिखेर कर मिट्टी में  मिला देना चाहिए।

बुआई का समय

असिचित क्षेत्रों  में सोया की बुआई वर्षा ऋतु समाप्त होते ही अर्थात मध्य सितम्बर से मध्य अक्टूबर माह में की जा सकती है, जबकि सिचित क्षेत्रों में इसकी बुवाई  मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक संपन्न कर लेना चाहिए।

बीज दर एवं बुवाई


सिचित क्षेत्रो में सोया का 4 किलोग्राम बीज एवं असिचित क्षेत्रों  में 5.0 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से  प्रयोग करना चाहिए।  बीज को थाइरम या बाविस्टिन 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करने का पश्चात बुवाई करना चाहिए।  अधिक उत्पादन लेने के लिए सोया की बुवाई कतार विधि से करना फायदेमंद रहता है ।  इस विधि में  कतार से कतार की दूरी  सिंचित अवस्था में 40 सेमी. एवं असिंचित अवस्था में  30 सेमी. रखना  चाहिए ।   दोनों ही परिस्थितियों में पौधे से पौधे की दुरी 20-30 सेमी. रखनी चाहिए। यदि सिर्फ हर्ब के लिए सोया की खेती की जानी है तब कतार से कतार के बीच 15 सेमी. तथा पौध से पौध के बीच 10 सेमी की दूरी रखना चाहिए। इसका बीज बहुत छोटा एवं हल्का होता है, अतः बुआई  2.0 सेमी. से ज्यादा गहराई पर नहीं करें।सोया को चना, गेंहू, सरसों या मटर के साथ अंतरवर्ती फसल के रूप में भी उगाया जा सकता है। 
सुवा की उन्नत किस्में 

आमतौर पर किसान भाई सोया की स्थानीय किस्मों की खेती करते है जिनसे उन्हें कम उत्पादन प्राप्त होता है।  अच्छी उपज एवं मुनाफे के लिए सोया की उन्नत किस्मों की खेती करना चाहिए।
1.एन. आर. सी. एस.एस. -ए.डी.-1 : यह सोया की  युरोपियन किस्म है जो 140-150 दिन  में पक कर तैयार होकर औसतन  उपज 14-15  क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।  इसके बीजों  में 3.5 प्रतिशत वाष्पशील तेल पाया जाता है. यह सिचित क्षेत्रो में खेती करने के लिए उपयुक्त है।
2.एन. आर. सी. एस.एस. -ए.डी.-2 :  सोया की यह भारतीय उन्नत किस्म है जो लगभग  135-140  दिनों में पक कर तैयार होकर  औसतन 14-15  क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।  इसके बीजों  में 3.2 प्रतिशत वाष्पशील तेल पाया जाता है.  यह किस्म असिंचित अथवा सीमित सिंचाई की उपलब्धता वाले क्षेत्रो में खेती के लिए उपयुक्त है।

खाद एवं उर्वरक


उत्तम उपज एवं अधिक तेल उत्पादन के लिए सोया फसल में मृदा परिक्षण के आधार पर संतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरक का प्रयोग आवश्यक रहता है।  खेत की अंतिम जुताई के समय 8-10 टन गोबर की खाद मिट्टी में मिलाना चाहिए।  सामान्य उर्वरा शक्ति वाली मृदाओं में  बुवाई के समय 40 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा. फॉस्फोरस एवं 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।  इसके अलावा बुवाई के 40-45 दिन बाद फसल में फूल आते समय सिंचाई के बाद नत्रजन 30 किग्रा.प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।    

सिंचाई प्रबंधन

सोया की फसल से अधिकतम उत्पादन लेने के लिए समय पर सिंचाई करना आवश्यक रहता है।  इसकी फसल को 3-4 सिंचाई की आवश्यकता होती है।  प्रथम सिंचाई बुवाई के 20 दिन बाद, दूसरी सिंचाई फूल आते समय एवं तीसरी सिंचाई दानों की दूधिया अवस्था में करना चाहिए।

निंदाई-गुड़ाई एवं फसल सुरक्षा


सोया की फसल के साथ बहुत से खरपतवार उग आते है जो फसल वृद्धि और उत्पादन को कम कर देते है।  इनके नियंत्रण के लिए बुआई के 20-25 दिन बाद खेत में निदाई-गुड़ाई कर खरपतवार निकाल देना चाहिए।  आवश्यकता पड़ने पर फूल आते समय निंदाई-गुड़ाई कर खरपतवार नियंत्रण करना चाहिए।  सोया फसल में भभूतिया रोग का प्रकोप लगने की संभावना होने पर घुलनशील सल्फर 0 2 % का साप्ताहित अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए।  फसल की कीड़ों से भी सुरक्षा करें।  

फसल की कटाई एवं उपज


सोया हर्ब तेल निकलने के लिए फसल की कटाई फूल आने से पहले अर्थात बुवाई के 40-50 दिन बाद कर लेना चाहिए।  इस अवस्था में हर्ब में तेल की मात्रा 1.5-1.7 % पाई जाती है।  कटाई के बाद हर्ब को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर 1-2 दिन तक छाया में सुखाने के उपरान्त तेल निकलना चाहिए।  बीजों के लिए लगाई गई फसल में  बीजों के पीले पड़ने से पूर्व हरी अवस्था में ही कटाई कर लेना चाहिये अन्यथा बीज में तेल की मात्रा में गिरावट हो जाती है।  देर से कटाई करने पर बीज चटककर खेत में ही बिखरने की संभावना रहती है।  सोया के बीजों में 2.6  से 3.7  % तेल (समय पर कटाई करने पर) पाया जाता है।  सोया हर्ब एवं बीज का जल आसवन विधि से तेल निकाला जाता है।  उत्तम सस्य विधिया अपनाने पर सामान्य तौर पर  सोया की ताज़ी हर्ब का उत्पादन 3.0-10  टन प्रति हेक्टेयर तक  आ सकता है।  आसवन के बाद 40-50 किग्रा. तेल प्राप्त हो सकता है। सोया बीज का उत्पादन सिंचित अवस्था में 5-7 क्विंटल एवं असिंचित अवस्था में 2-3  क्विंटल होता है। 
नोट: कृपया  लेखक की अनुमति के बिना इस आलेख की कॉपी कर  अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है, तो  ब्लॉगर/लेखक  से अनुमति लेकर /सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य देंवे  एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें