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मंगलवार, 11 जून 2019

खरपतवार मुक्त खेत से ही संभव है धान का अधिकतम उत्पादन


          खरपतवार मुक्त खेत से ही संभव है धान का अधिकतम उत्पादन
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय.
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,
                           अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
देश की जनसंख्या वृद्धि के साथ खाद्यानों की मांग को पूरा करना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। धान हमारे देश की प्रमुख खाद्यान फसल है। इसकी खेती विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में लगभग 43.50 मिलियन हेक्टेयर जिससे 110.15 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ है। राष्ट्रीय स्तर पर धान की औसत पैदावार 25 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है, जो कि बहुत कम है । परम्परागत विधि से  धान की  बुवाई और फसल में खरपतवारों के प्रकोप से धान का उत्पादन कम मिल पाता है.   हमारे देश में धान की खेती असिंचित/वर्षा आधारित (40 % क्षेत्र) एवं सिंचित (60 % क्षेत्र) परिस्थितियों में की जाती है।  ऊची भूमि में वर्षा आधारित खेती में खरपतवार नियन्त्रण एक बड़ी समस्या है, यदि इसका समय से प्रबंधन न किया जाये तो फसल पूरी तरह नष्ट हो जाती है।  खरपतवार प्रायः फसल से पोषक तत्व, नमी, सूर्य का प्रकाश तथा स्थान के लिये प्रतिस्पर्धा करते हैं जिससे मुख्य फसल के उत्पादन में कमी आ जाती है। धान की फसल में खरपत्वारों से होने वाले नुकसान को 15-85 प्रतिशत तक आंका गया है। कभी - कभी यह नुकसान 100 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। सीधे बोये गये धान (35-45 प्रतिशत) में रोपाई किये गये धान (10-15 प्रतिशत), की तुलना में अधिक नुकसान होता है। पैदावार में कमी के साथ-साथ खरपतवार धान में लगने वाले रोगों के जीवाणुओं एवं कीट व्याधियों को भी आश्रय देते हैं। कुछ खरपतवार के बीज धान के बीज के साथ मिलकर उसकी गुणवत्ता को खराब कर देते हैं। इसके अतिरिक्त खरपतवार भूमि से भारी मात्रा में पोषक तत्वों का अवशोषण कर लेते हैं तथा धान की फसल को पोषक तत्वों से वंचित कर देते हैं।
धान में खरपतवार नियंत्रण फोटो साभार  कृषक जगत (गूगल)

खरपतवार प्रबंधन कब करें ?

धान की फसल में खरपतवारों से होने वाला नुकसान खरपतवारों की संख्या, किस्म एवं फसल से प्रतिस्पर्धा के समय पर निर्भर करता है। फसल की प्रारम्भिक अवस्था में घास कुल के खरपतवार जैसे सावां, कोदों आदि एवं बाद की अवस्था में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार सर्वाधिक  नुकसान पहुंचाते हैं। सीधे बोये गये धान में बुवाई के 15-45 दिन तथा रोपाई वाले धान में रोपाई के 35-45 दिन बाद का समय खरपतवार प्रतिस्पर्धा की दृष्टि से क्रान्तिक (संवेदनशील) होता है। इस अवधि में फसल को खरपतवारों से मुक्त रखने से उत्पादन अधिक प्रभावित नहीं होता है।

1.शुष्क परिस्थिति में सीधे बोये गए धान (वर्षाश्रित ऊपरी तथा निचली भूमि

खेत की भली भांति जुताई करने के पश्चात खरपतवार अवशेष हटा कर खेत को समतल कर लेना चाहिए।  सीड ड्रिल अथवा हल के पीछे 20 सेमी की दूरी पर कतारों में 70 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर की दर पर बुवाई करें।  खरपतवारों की बढ़वार रोकने के लिए धान फसल में नत्रजन का आधारी प्रयोग नहीं करना चाहिए बल्कि सिफारिस की गई नत्रजन को तीन समान भागों में बांटकर बुवाई के 20,40 एवं 60 दिनों बाद प्रयोग करना चाहिए।  बुवाई करने के 15-20 दिनों बाद कतारों के बीच खरपतवारों को नष्ट करने के लिए वीडर का प्रयोग करना चाहिए।  कम खर्च में खरपतवारों के नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि का प्रयोग करना सर्वोत्तम पाया गया है।  घास जैसे खरपतवारों के नियंत्रण के लिए बुवाई करने के 10-12 दिनों बाद गीली मिट्टी की सतह पर बाइस्पाइरिबेक सोडियम (नोमिनो गोल्ड) 35 ग्राम प्रति हेक्टेयर या क्वीनक्लोराक (फासेट) 375 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।  निचली भूमियों में देर से उगने वाले घास कुल के खरपतवारों के नियंत्रण के लिए बुवाई करने के 25 दिनों बाद फेनोक्साप्रोप-पी-इथाइल (राइस स्टार) 70 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए।

2.आद्र परिस्थिति में सीधे बोये गए धान (वर्षाश्रित उथली निचली भूमि तथा सिंचित)

आद्र परिस्स्थिति में बुवाई करने से पूर्व एक माह तक खेत को सूखा रखने के बाद एक सप्ताह के अंतराल में दो बार खेत की मचाई कर समतल कर लेना चाहिए।  पहली मचाई के बाद खेत में पानी भरा रहने से खरपतवार एवं फसल अवशेष साद जाते है।  इसके बाद पूर्व अंकुरित बीजों को गीली मिटटी में 20 x 15 सेमी की दूरी पर 60 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई करें अथवा कतारों में 20 सेमी की दूरी पर हाथ से या ड्रम सीडर द्वारा बुवाई की जा सकती है।  बुवाई के समय नत्रजन उर्वरक का प्रयोग न करें क्योंकि नत्रजन के प्रयोग से शीघ उगने वाले खरपतवारों की बढ़वार अधिक होती है।  अतः सिफारिस की गई नत्रजन को चार समान भागों में बांटकर बुवाई के 15,30,45 तथा 60 दिनों बाद देना चाहिए।  बुवाई करने के 15-20 दिनों बाद गीली मिटटी में हैण्ड हो या वीडर चलाकर खरपतवार नियंत्रित किये जा सकते है।  यह एक श्रमसाध्य एवं महँगी विधि है।  कम खर्च में रासायनिक विधि से घास कुल के खरपतवारों के नियंत्रण के लिए बाइस्पाइरिबेक सोडियम (नोमिनो गोल्ड) 35 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें।  चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिए बुवाई के 8  दिनों बाद बेनसल्फ्यूरान  मिथाइल 70 ग्राम तथा प्रेटीलाक्लोर 700 ग्राम प्रति हेक्टेयर (लोडाक्स पॉवर) की दर से अथवा बुवाई करने के 15 दिनों बाद एजिमसल्फ्यूरान (सेगमेंट) 70 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें।

3.प्रतिरोपित धान (वर्षाश्रित उथली निचली भूमि तथा सिंचित)

रोपाई विधि से धान लगाने के लिए आद्र सीधी-बुवाई वाले धान के समान भूमि की तैयारी करें. अच्छी प्रकार से तैयार खेत में 25-30 दिनों की उम्र वाले पौधों को 20 x 15 अथवा 15 x 15 सेमी की दूरी पर एक स्थान पर 2-3 पौध की रोपाई करें।  रोपाई करने के 15 दिनों बाद नत्रजन की पहली मात्रा प्रयोग करे तथा शेष मात्रा 15-20 दिनों के अंतराल में 2-3 समान भागों में बांटकर प्रयोग करना चाहिए।  उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण मृदा उर्वरता एवं धान की किस्म के आधार पर करना चाहिए।  यांत्रिक विधि से खरपतवार नियंत्रण हेतु रोपाई के 25-30 दिनों बाद खेत में 8-10 सेमी पानी स्तर होने पर कतारों के बीच कोनोवीडर चलाना चाहिए।  पौधों के पास के खरपतवार हाथों से निकाले जा सकते है।  शीघ्र खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि सरल एवं किफायती होती है।  धान की पौधशाला में  बुवाई करने के 2-3 दिनों के अन्दर पाइराजोसल्फ्यूरान इथाइल (साथी) 20 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से खरपतवार नियंत्रण में रहते है।  मुख्य खेत में, आद्र सीधी-बुवाई वाले धान के लिए सिफारिस किये गए खरपतवारनाशियों का प्रयोग करें।  इसके अलावा शुष्क मौसम के दौरान धान की रोपाई के 15 दिनों बाद अलमिक्स 4 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करने से चौड़ी पत्ते वाले एवं नरकुल खरपतवार नियंत्रित हो जाते है।
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शुक्रवार, 7 जून 2019

कृषि में संतुलित उर्वक उपयोग से टिकाऊ खेती संभव


             कृषि में संतुलित उर्वक उपयोग से टिकाऊ खेती संभव
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय.
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

हमारे देश की जनसँख्या 125 करोड़ का आंकड़ा बहुत समय पहले ही पार कर चुकी है. तेजी से बढ़ती हुई आबादी के लिए भरपूर भोजन की व्यवस्था करने के लिए सतत कृषि उत्पादन बढ़ाना आवश्यक ही नहीं मजबूरी हो गया है कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी के लिए हमारे सामने दो महत्वपूर्ण विकल्प हैं, पहला तो यह कि हम पैदावार बढाने के लिए कृषि योग्य भूमि में वृद्धि करें जो कि लगभग नामुमकिन है दूसरा महत्वपूर्ण विकल्प बचता है कि हम कम से कम क्षेत्रफल से अधिक से अधिक पैदावार लें  फसलों से अधिक उपज प्राप्त करना कई कारकों पर निर्भर करता है, मसलन उन्नत किस्में, सिंचाई, उर्वरक, पौध सरंक्षण आदि. उन्नत किस्मों से अधिकतम पैदावार लेने के लिए सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है जलवायु परिवर्तन के कारण सिंचाई जल की उपलब्धतता में निरंतर कमीं होती जा रही है।  अतः फसल उत्पादन बढाने में पानी के बाद उर्वरक एक महत्वपूर्ण कृषि आदान है सघन कृषि में लगातार अंधाधुंध तरीके से रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति में गिरावट आने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण में भी इजाफा हो रहा है।  अतः खद्यान्न उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उर्वरक का समुचित एवं संतुलित प्रयोग करना नितांत आवश्यक है. उर्वरक का समुचित एवं संतुलित इस्तेमाल से तात्पर्य है की फसल की आवश्यकतानुसार सभी आवश्यक पोषक तत्व समुचित मात्रा एवं उचित अनुपात में उचित समय पर मृदा में उपलब्ध करना है. पौधों के सम्पूर्ण विकास के लिए 18 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है. पौधों के लिए आवश्यक मुख्य पोषक तत्वों में  नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश का उपयोग अधिक मात्रा में तथा अन्य तत्व का उपयोग अल्प मात्रा में किया जाता है. अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने की लालसा में किसान अंधाधुंध तरीके से रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहे है जिससे प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति निर्मित हो रही है. किसान खेती में अनुमान से ही उर्वरकों का उपयोग कर रहे है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है और पर्यावरण को भी क्षति पहुँच रही है बहुतेरे कृषक खेती में उर्वरक का उपयोग तो करते है किन्तु एक या दो तत्व से संबंधित उर्वक को भूमि में मिलकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है इस प्रकार से उर्वरक देने से फसल को उस तत्व विशेष की तो प्रचुर मात्रा उपलब्ध हो जाती है परन्तु अन्य तत्वों की कमीं से मृदा के पोषक तत्वों का संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाता है उदहारण के लिए यदि हम मृदा में सिर्फ यूरिया का इस्तेमाल लम्बे समय तक करें तो मृदा में नत्रजन तो पर्याप्त मात्रा उपस्थित रहेगा किन्तु फॉस्फोरस, पोटेशियम, सल्फर आदि की कमीं हो जाती है जिससे फसल उत्पादन बढ़ने की बजे घटने लगता है. जागरूक किसान भूमि में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश से युक्त उर्वरक का उपयोग तो पर्याप्त मात्रा में करते है परन्तु फसल के लिए अन्य आवश्यक पोषक तत्वों जैसे कैल्शियम, सल्फर, मैग्नेशियम आदि की पूर्ति पर ध्यान नहीं देते है जिससे इन तत्वों की कमीं के कारण उन्हें भरपूर उत्पादन नहीं मिल पाता है खरीफ में जिन क्षेत्रों में सोयाबीन अथवा मूंगफली की खेती प्रचलन में है, वहां की मिट्टियों में सल्फर तत्व की कमीं देखी जा रही है चूँकि सोयाबीन एवं मूंगफली तिलहनी फसलें है जो मृदा से अधिक मात्रा में सल्फर तत्व का अवशोषण करती है, क्योंकि तेल निर्माण में सल्फर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है वर्तमान परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि कम लागत में अधिकतम उपज लेने के लिए क्षेत्र के अनुकूल फसल चक्र अपनाते हुए उर्वरकों का समुचित एवं संतुलित उपयोग किया जाए जिससे उर्वरक उपयोग क्षमता में बढोत्तरी हो सके।  फसलों से अधिकतम उत्पादन लेने तथा उर्वरक उपयोग क्षमता में वृद्धी के लिए अग्र प्रस्तुत विन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है:
1.उर्वरकों का चयन: किसान भाइयों को फसल की किस्म, मृदा गुण एवं उर्वरक में तत्व के मूल्य के आधार पर उर्वरकों का चयन करना चाहिए
(i)फसल की किस्म: बोई जाने वाली फसल की किस्म के आधार पर उर्वरक का चयन करना चाहिए, क्योंकि फसल विशेष किसी तत्व विशेष की उपलब्धतता से अधिक उपज देती है।  उदहारण के लिए गेंहू, धान, मक्का, गन्ना आदि फसलों को नाइट्रोजन तत्व की अधिक आवश्यकता होती है।  दलहनी फसलों को फॉस्फोरस एवं कैल्शियम, तिलहनी फसलों को पोटाश, फॉस्फोरस एवं गंधक तत्व की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है इसी प्रकार से लम्बी अवधी वाली फसलों (गन्ना,कपास आदि) को ऐसे उर्वरक देने चाहिए, जो अधिक समय तक फसल को धीरे-धीरे पोषक तत्व प्रदान करते रहे. कम अवधि वाली फसलों को शीघ्र प्राप्त होने वाले उर्वरक देना लाभकारी होता है।
(ii)मृदा गुण: हमारे देश में अनेकों प्रकार की मृदाएँ पाई जाती है जिनमे अलग-अलग तत्वों की कमीं या अधिकता पाई जाती है।  अतः मृदा का रासायनिक परीक्षण करवाकर जिस तत्व की कमीं हो, उसकी पूर्ती करना चाहिए।  अम्लीय मृदा में क्षारीय प्रभाव डालने वाले उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए जैसे अमोनियम सल्फेट. इस प्रकार से क्षारीय मृदा में अम्लीय प्रभाव वाले उर्वरकों जैसे अमोनियम नाइट्रेट आदि का प्रयोग करना चाहिए।  सल्फर की कमीं वाली मृदाओं में सुपर फॉस्फेट या सल्फर युक्त उर्वरक का इस्तेमाल करना चाहिए।
(iii)उर्वरक में तत्व इकाई मूल्य: किसी पोषक तत्व विशेष के उर्वरक के रूप में अनेक विकल्प हो सकते है।  आर्थिक दृष्टि से उस उर्वरक का उपयोग करना चाहिए जिसका इकाई मूल्य कम हो अर्थात उर्वरक में पोषक तत्व की प्रतिशत मात्रा अधिक होना चाहिए.
2.उर्वरक प्रयोग का सही समय: उर्वरक की उपयोग दक्षता बढ़ाने के लिए आवश्यक है की उर्वरक का परिस्थितयों के अनुसार सही समय पर प्रयोग किया जाए. सही समय वह होता है जब उस तत्व की पौधों को अधिक आवश्यकता होती है फॉस्फोरस एवं पोटाश की आवश्यकता पौधों को अपने प्रारंभिक काल में जड़ वृद्धि के लिए अधिक होती है अतः इन उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई के समय आधार के रूप में देना चाहिए इसके अलावा नत्रजन एक गतिशील तत्व है भूमि में निक्षालन द्वारा इस तत्व की हानि अधिक होती है। इसलिए सम्पूर्ण आवश्यक मात्रा को खड़ी  फसल में 2-4 बार में देना लाभकारी होता है सूक्ष्म पोषक तत्वों का छिडकाव खड़ी फसल में लक्षण दिखाई देने पर करना चाहिए
3. उर्वरक की सही मात्रा: विभिन्न फसलों की उर्वरक आवश्यकता भिन्न-भिन्न होती है अतः उर्वरक की मात्रा निर्धारित करते समय फसल की किस्म, फसल चक्र, मृदा उर्वरता आदि बातें ध्यान में रखना चाहिए. मृदा परिक्षण के बाद ही उर्वरकों की मात्रा का निर्धारण करना चाहिए उर्वरक का निर्धारण एक फसल पर न कर सम्पूर्ण फसल चक्र के आधार पर करना चाहिए जिससे यह स्पष्ट हो कि किस फसल को कौन से उर्वरक की कितनी मात्रा देना है।  उदहारण के लिए दलहनी फसलों के उपरान्त मृदा में नत्रजन देने की आवश्यकता कम होती है रबी फसल के बाद जब ग्रीष्म ऋतु में दलहनी फसल बोयें तो फॉस्फोरस एवं पोटाश का उपयोग न करें सिंचित धान-गेंहूँ फसल में दोनों फसलों में नत्रजन धारी उर्वरक देवें और फॉस्फोरस केवल गेंहूँ तथा पोटाश केवल धान में देना उचित होता है
4.उर्वरक प्रयोग की सही विधि: उर्वरक के उपयोग की उत्तम विधि वह है जिसमे कम खाद से अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके, साथ ही समय की बचत हो उर्वरक में उपस्थित तत्व की पानी में घुलनशीलता के आधार पर उर्वरक देने की विधि का चुनाव करना चाहिए. अचल तत्वों जैसे फॉस्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम को बुवाई के समय भूमि में मिलाना चाहिए, जिससे इन तत्वों को जड़ आसानी से ग्रहण कर सके नाइट्रोजन जैसे चल तत्वों की कुछ मात्रा बुवाई के समय कूंडों में देकर बाकी का उपयोग खड़ी फसल में करना चाहिए खड़ी फसल में उर्वरक को भूमि में न मिलाते हुए घोल के रूप में छिडकना अधिक फायदेमंद होता है. फसल में सूक्ष्म पोषक तत्वों का इस्तेमाल भी घोल के रूप में करना चाहिए सिंचाई के समय नालियों में घुलनशील उर्वरक देने से समय की बचत होती है
कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लॉग की अनुमति के बिना इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे। 

गुरुवार, 6 जून 2019

फसलों की औसत उपज के मामले में भारत फिसड्डी क्यों है ?


विकसित देशों की कृषि उत्पादकता अधिक है, तो हम क्यों नहीं ले सकते ?

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर(एग्रोनोमी)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,  
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
कृषि प्रधान देश होने के बावजूद आज भी अनेक फसलों के मामले में चीन, ब्राजील और अमेरिका जैसे बड़े कृषि उत्पादक देशों की तुलना में भारत की कृषि उपज बहुत कम है। निःसन्देश इस प्रश्न के समाधान में छिपी है हमारे कृषि प्रधान देश की प्रगति, हमारे किसानों की उन्नति और देश की विशाल आबादी को खाद्य और पोषण सुरक्षा प्रदान करने का लक्ष्य. आज दुनिया में सीमित लागत में अधिक से अधिक उपज लेने की एक होड़ से लगी है या यूँ कहें कि घटती कृषि योग्य भूमि और बढती आबादी के मद्देनजर हर राष्ट्र चिंतित है और प्रति इकाई क्षेत्रफल में सर्वाधिक कृषि उत्पादन लेने पर ध्यान दे रहा है।  ऐसे में अहम् सवाल यह उठता है की चाहे गेंहूँ हो, धान, मक्का, गन्ना, दलहन हो या फिर तिलहन, सब्जी अथवा फल, विश्व के तमाम कृषि उत्पादकों की सूची में हम अपने को नीचे के पायदानों में ही क्यों पाते है ? प्रति हेक्टेयर उत्पादन में अभी भी हम विश्व की औसत उत्पादकता से कोसों दूर क्यों है ?
दुनिया में बहुत से विकसित देश हमारी तुलना में प्रति हेक्टेयर कई गुना अधिक उपज ले रहे है, चाहे वह खाद्यान्न का क्षेत्र हो, दलहन,तिलहन, सब्जियों या फल उत्पादन का क्षेत्र हो।  हमसे सटी धरती हम से ज्यादा उपजाती है।  उदहारण के तौर पर इजिप्ट में धान की उत्पादकता 10 टन, अमेरका में 8 टन, जापान में 6.54  टन और चीन में 6.49 टन प्रति हेक्टेयर है जबकि भारत में धान की औसत उपज महज 3.38 टन प्रति हेक्टेयर ले पा रहे है।  मक्का की औसत उपज अमेरिका में 7.8 टन, ब्राजील में 5.1 टन, चीन में 6.1 टन प्रति हेक्टेयर है जबकि भारत में यह 3.04 टन प्रति हेक्टेयर ही है.  गेंहू की औसत उपज फ़्रांस में 8 टन, चीन में 5 टन है तो भारत में 3.2 टन प्रति हेक्टेयर है।  प्रशन वहीँ, अन्य देशों की उपज की तुलना में  हमारा देश और हमारे किसान क्यों फिसड्डी बने हुए है ? दरअसल हम केवल अनुसरण की बात करते है।  हमारी सोच केवल अनुसरण तक ही सीमित है. शायद इसलिए हम पिछड़े हुए है।  अमेरिका के नार्मन बोरलाग की हरित क्रांति का हम आज तक अनुसरण ही करते आये है. इसके आगे हमने सोचा ही नहीं है।  
हमे अपनी माटी और आबोहवा के अनुकूल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएं बिना प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कृषि तकनीकियाँ विकसित करना चाहिए, तभी हम कदम-दर-कदम साल-दर-साल देश की बढती आबादी को भरपेट भोजन मुहैया करा सकते है।  जिन ससाधनों के बलबूते दूसरे देश अधिक उत्पादन ले रहे है, उसे न केवल पा लेना बल्कि उससे भी कही अधिक उपज लेने का हमारा ध्येय होना चाहिए।  हमारा वजूद कम नहीं है।  दुनिया के गिने- चुने देशों में हम जाने जाते है।  आज हम यह कदापि नहीं कह सकते कि हममें योग्यता और कौशल की कमीं है, हमारे पास संसाधनों का अभाव है।  हकीकत तो यह है की विविध प्रकार की उर्वरा भूमि, नाना प्रकार की फसलें, जैव विविधिता, अनुकूल जलवायु, विविध मौसम, पर्याप्त वर्षा जल के अतिरिक्त परिश्रमी मानव संसाधन के मामले में हम दुनिया में श्रेष्ठ है।  यही नहीं हमारे वैज्ञानिक आज दूसरे मुल्कों को उन्नति की राह दिखा रहे है।  
निःसन्देश संभव को संभव बनाना न तो मुश्किल है और न ही नामुमकिन।  देश के विभिन्न राज्यों और राज्यों के अन्दर विभिन्न जिलों में उगाई जाने वाली विभिन्न फसलों की औसत उपज में भारी अंतर  है।  इसी प्रकार से कृषि वैज्ञानिकों द्वारा शोध प्रेक्षेत्रों में ली जा रही उपज, किसानों के खेत पर वैज्ञानिकों द्वारा तकनिकी प्रदर्शनों की उपज तथा किसान द्वारा उपजाई गई फसलों की औसत उपज में जमीन आसमान का अंतर व्याप्त है।  इसमें कोई संदेह नहीं कि सिर्फ उपज के अंतर को कम करके हम अपना कृषि उत्पादन 50 से 100 प्रतिशत तक बढ़ा सकते है।  बेशक इसके लिए हमें अपनी पुरानी पड़ गई विभिन्न फसलों की उन्नत किस्मों और उत्पादन तकनीक के अलावा सरकारी नीतियों में सुधार तथा कृषि क्षेत्र में सार्वजानिक निवेश को बढ़ाना होगा।  इन सबसे जरुरी कृषि विस्तार सेवाओं को अति आधुनिक रूप देकर उन्हें देश के सुदूर अंचल के किसानों तक इमानदारी से पहुंचाना होगा।  इसके लिए चाहिए मजबूत इक्षाशक्ति और लगन, निष्ठा और नेक इरादा, जिन्हें हमें अपने अन्दर पैदा करना है, ताकि हम देश में व्याप्त उपज के अंतर की खाई को पाटकर टिकाऊ खाद्यान्न उत्पादन की सबसे बड़ी चुनौती, सबसे पहली और बुनियादी जरुरत और देश के सबसे अहम् लक्ष्य को पाने में सफल हो सकें।  परस्पर जनसहयोग के साथ-साथ कृषि और किसान हितैषी सरकारी योजनाओं को जमीन पर उतारने का दृण संकल्प, कृषि वैज्ञानिकों की कर्मठता और किसानों का कठोर परिश्रम ही हमें हमारे असली मुकाम तक पहुंचा सकता है।