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शनिवार, 11 जनवरी 2020

अधिक लाभकारी है ग्रीष्म में तिल की खेती

                                                                       डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रमुख वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

तिलहनी फसलों में  तिल (सीसमम इंडिकम)  दुनियां की सबसे पुरानी और ख़ास फसल है । तेलशब्द की उत्पत्ति संभवतः तिलसे ही हुई मानी जाती है। भारत के प्रमुख पर्व मकर संक्रांति के मौके पर आमतौर पर घरों में क्रंची और मीठी  तिल की चिक्की और स्वादिष्ट लड्डू बनाने की परंपरा है । देश में अनेक धार्मिक अनुष्ठानों में तिल का उपयोग प्रमुखता से  किया जाता है।तिल में उत्तम गुणवत्ता वाला पौष्टिक तेल होता है जिसका उपयोग खाने में और   सौंदर्य प्रसाधन सामग्री तैयार करने में किया जाता है।  तिल के बीज से तैयार की जाने वाली लोकप्रिय मिठाइयों यथा  गजक, रेवड़ी, तिल पट्टी आदि का व्यवस्थित व्यवसाय है जो लाखों लोगों की जीविका एवं आमदनी का साधन बन गया है। गजक तिल और गुड या शक्कर से निर्मित एक प्रकार की खस्ता  मिठाई है। मध्यप्रदेश के मोरेना में विगत 100 वर्षो से गजक का कारोबार फल फूल  रहा है। यहाँ की विभिन्न प्रकार की गजक पूरे देश में लोकप्रिय है।
तिल से निर्मित मुरैना की लोकप्रिय गजक 
पोषक  तत्वों में समृद्ध तिल के बीज से प्राप्त तेल का उपयोग खाने के अलावा वैकल्पिक चिकित्सा एवं उपचार में भी किया जाता है । पोषण की दृष्टी से तिल का तेल शक्तिवर्धक आहार है। तिल के प्रति 100 ग्राम बीज में प्रोटीन-
18.3 ग्राम प्रोटीन, 43.3 ग्राम वसा, 25 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 1450 मि.ग्रा. कैल्शियम, 570 मि.ग्रा. फॉस्फोरस, 9.3 मि.ग्रा, आयरन विद्यमान रहता है। तिल के फेटी ऑयल में सीसमिन (163 मि.ग्रा. प्रति 100 ग्राम) तथा सीसमोलिन (101 मि.ग्रा. प्रति 100 ग्राम) पाए जाते है जो कि शरीर में कॉलिस्ट्रोल स्तर कम करने तथा उच्च रक्तचाप को कम करने में सहायक होते हैं। इसके बीज को उर्जा का भण्डार माना जाता है क्योंकि इसमें 640 कैलोरी प्रति 100 ग्राम विद्यमान होती है ।  इसमें दो अच्छे फीनोलिक एंटी ऑक्सीडेंट सीसमोल तथा सीसमिनोल पाये गये है जो कि इसे लम्बे समय तक सुरक्षित बनाये रखते हैं। तिल के तेल को तेलों की रानी कहा जाता है, क्योंकि इस में त्वचा निखारने और खूबसूरती बढ़ाने के गुण मौजूद होते हैं। तिल में मोनो-सैचुरेटेड फैटी एसिड होता है जो शरीर से कोलेस्ट्रोल को कम करता है। दिल से जुड़ी बीमारियों के लिए भी यह बेहद फायदेमंद है। तिल में सेसमीन नाम का एंटीऑक्सिडेंट पाया जाता है जो शरीर में कैंसर कोशिकाओं को बढ़ने से रोकता है। इसके अलावा तिल में कुछ ऐसे तत्व और विटामिन पाए जाते हैं जो तनाव और डिप्रेशन को कम करने में सहायक होते हैं। तिल में कई तरह के लवण जैसे कैल्शियम, आयरन, मैग्नीशियम, जिंक और सेलेनियम होते हैं जो हृदय की मांसपेशियों को सक्रिय रूप से काम करने में मदद करते हैं। तिल में डाइट्री प्रोटीन और एमिनो एसिड होता है जो हड्डियों के विकास में सहायक होता है।
तिल की लाभकारी खेती ऐसे करें
तिल की लहलहाती फसल फोटो साभार गूगल 
विश्व में तिल के क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का प्रथम स्थान है परन्तु प्रति हेक्टेयर उपज के मामले में मैक्सिको, चीन और अफगानिस्तान हमसे काफी आगे है। भारत में मुख्य रूप से गुजरात, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़,तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश तथा उड़ीसा में तिल की खेती प्रचलित हैं। तिल के  विविध उपयोग एवं व्यवसायिक महत्ता को देखते हुये यदि इसको मुख्य फसल के रूप में अपनाया जाय तो यह किसानों  की आर्थिकी का बेहतर विकल्प बन सकता है। ग्रीष्मकालीन तिल की खेती बहुत आसान एवं लाभदायक होती है तथा उत्पादन भी खरीफ की फसल से अच्छा होता है।
भूमि एवं खेत की तैयारी   
            तिल शुष्क और अर्ध शुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली उष्णकटिवंधीय फसल है।  पौधों की बधवार के लिए आदर्श इष्टतम तापमान 25-27 डिग्री सेल्सियस होता है। तिल  छोटे दिन का पौधा है। उच्च प्रकाश में पौधों की बढ़वार  एवं उपज अधिक होती है। भारत में सभी मौसमों में तिल लगाया जा सकता है। हल्की रेतीली, दोमट भूमि तिल की खेती हेतु उपयुक्त होती हैं। खेती हेतु भूमि का पी.एच. मान 5.5 से 7.5 होना चाहिए। भारी मिटटी में तिल को जल निकास की विशेष व्यवस्था के साथ उगाया जा सकताहै।तिल का बीज बहुत छोटा होने की वजह से इसका अंकुरण ठीक से हो इसके लिए खेत की भली भाँती जुताई कर मिट्टी को भुरभुरा किया जाना आवश्यक है।
उन्नत किस्मों से अधिक उपज
भूमि का प्रकार, मौसम एवं पकने की अवधि के आधार पर तिल की उन्नत प्रजातियों का चयन करना चाहिए । देशी प्रजातियों  की तुलना में तिल की उन्नत प्रजातियां 25 से 100 फीसदी अधिक उपज देती हैं। बहुउपयोग एवं बाजार में अधिक मांग होने के कारण सफेद बीज वाली उन्नत किस्मों के बीज खेती हेतु इस्तेमाल करना चाहिए । अधिक उत्पादन के लिए तिल की निम्न किस्मों के बीज का प्रयोग करना चाहिए। 
टी.के.जी. 308: तिल की यह किस्म 80-85 दिनों में तैयार होकर  600-700 किग्रा प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन देती है. यह किस्म तना एवं जड सड़न रोग के लिये सहनशील है । इसके दानों में तेल की मात्रा 48-50 % होती है ।
जे.टी-11(पी.के.डी.एस.-11): यह 82-85 दिनों में तैयार हो जाती है. औसतन  650-700 किग्रा प्रति हेक्टर तक उत्पादन क्षमता होती है। इस किस्म के बीज गहरे भूरे रंग के होते है जिनमें 46-50 प्रतिशत तेल पाया जाता है ।
जे.टी-12(पी.के.डी.एस.-12): तिल की यह किस्म 82-85 दिन में पककर तैयार हो जाती है. इसकी उपज क्षमता  650-700 किग्रा प्रति हेक्टेयर होती है। इस किस्म के बीज सफेद रंग के होते है जिनमें तेल की मात्रा 50-53  प्रतिशत होती है ।
जवाहर तिल 306:  यह किस्म 85-90 दिनों में तैयार होकर 700-900 किग्रा प्रति हेक्टेयर तक उपज देती है. यह किस्म पौध गलन, सरकोस्पोरा पत्ती घब्बा, भभूतिया एवं फाइलोड़ी रोग के लिए सहनशील पाई गई है  । इसके बीजों में 50-52  प्रतिशत तक तेल पाया जाता है ।
जे.टी.एस. 8: यह किस्म 80-86 दिनों में तैयार होकर औसतन 600-700 किग्रा प्रति हेक्टेयर उपज देती है।इसके दाने का रंग सफेद होता जिनमे 50-52 % तेल पाया जाता  है। यह किस्म फाइटोफ्थोरा अंगमारी, आल्टरनेरिया पत्ती धब्बा तथा जीवाणु अंगमारी रोगों  के प्रति सहनशील पाई गई है ।
टी.के.जी. 55: तिल की यह सफेद बीज वाली उन्नत किस्म है  जो 76-78 दिनों में तैयार होकर 630 किग्रा प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इसके दानों में तेल की मात्रा 50 -53 प्रतिशत होती है । यह किस्म  फाइटोफ्थोरा अंगमारी, मेक्रोफोमिना तना एवं जड़ सड़न रोगों  के लिये सहनशील होती है ।
उपरोक्त किस्मों के अलावा टीकेजी-22, रमा सलेक्शन-5  भी तिल की उन्नत किस्में है  जो ग्रीष्मकालीन खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है। ये किस्में 80-90 दिन में तैयार होकर 700-800 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर उत्पादन देने में सक्षम है।
बुवाई का समय: वर्षा आश्रित क्षेत्रों में तिल की बुवाई खरीफ ऋतु में की जाती है परन्तु सिंचाई की सुविधा होने पर ग्रीष्मकाल में तिल की खेती से अधिक उत्पादन लिया जा सकता है । ग्रीष्मकालीन तिल की बुवाई  जनवरी माह के दूसरे पखवाडे से लेकर फरवरी माह के दूसरे पखवाडे तक करना चाहिए ।
बीज दर एवं बीजोपचार: उत्तम उपज के लिए उन्नत किस्म के 3-4 किलोग्राम  स्वस्थ बीज प्रति हेक्टेयर  की दर से आवश्यकता होती है । बीज जनित बीमारियां जैसे पौध अंगमारी, तना एवं जड़ सड़न को रोकने के लिए बीज को 2 ग्राम थायरम+1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम , 2:1 में मिलाकर 3 ग्राम/कि.ग्रा. फफूंदनाशी के मिश्रण से बीजोपचार करें।
बुवाई की विधि
तिल की बुवाई कतारों में करनी चाहिए जिससे खेत में खरपतवारों की निंदाई, गुड़ाई आसानी से हो सके। छिटकवां विधि की तुलना में  25 से 30 प्रतिशत अधिक उपज प्राप्त होती है। तिल की बुवाई  कतार से कतार की दूरी 30-45 से.मी. तथा कतारों में पौधो से पौधों की दूरी 15 से.मी. रखते हुये 2-3 से.मी. की गहराई पर करें । बीज का आकार छोटा होने के कारण इसके बीजों  को छनी हुई गोबर की खाद, रेत,राख या सूखी हल्की बलुई मिट्टी के साथ मिलाकर बोया जाना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
पौध पोषण के लिए 5-6 टन सड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर खेत की अंतिम जुताई के समय डालकर  मिट्टी में अच्छी तरह मिलाना चाहिए। इसके अतिरिक्त 60 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस  एवं 20 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से दिया जाना चाहिए.  स्फुर एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा बोनी करते समय आधार रूप में दें तथा शेष नत्रजन की मात्रा खड़ी फसल में बुवाई  के 30-35 दिनों  बाद निंदाई करने के  उपरान्त खेत में पर्याप्त नमी हाने पर देवें । स्फुर तत्व को सिंगल सुपर फास्फेट के माध्यम से देना लाभकारी होता है क्योंकि इससे फसल की लिए आवश्यक  गंधक तत्व की पूर्ति  भी हो जाती है।
सिंचाई एवं जल प्रबंधन
तिल की किस्मों की अवधि के आधार पर तिल को 350-४५० मिमी जल की आवश्यकता होती है. मिट्टी के प्रकार, मौसम की स्थिति और फसल अवधि के आधार पर तिल फसल में 12-15 दिनों में एक बार सिंचाई देना चाहिए।  इष्टतम अंकुरण एवं पौध स्थापना हेतु बुवाई के बाद एक सिंचाई आवश्यक होती है । फसल से अच्छी उपज प्राप्त करने के लिये सिंचाई हेतु क्रान्तिक अवस्थाओं यथा फूल आते समय एवं फल्लियों (कैप्सूल) में दाना भरने के समय सिंचाई करना लाभप्रद होता है । फसल की किसी अवस्था में खेत में जल भराव की स्थिति नहीं रहना चाहिए। 
निंदाई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
तिल की फसल बुवाई से 15-25 दिनों तक खरपतवार प्रतिस्पर्धा के प्रति सवेदनशील होती है । बोनी के 15-20 दिन पश्चात् पहली निंदाई करें तथा इसी समय आवश्यकता से अधिक पौधों को निकालना चाहिये । खरपतवारों के प्रभावी नियंत्रण हेतु बुआई के तुरन्त बाद किन्तु अंकुरण के पहले पेन्डीमिथिलीन 500-700 मि.ली. या थायोबेनकार्ब 2 कि.ग्रा.  प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर  पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए । खरपतवार नियंत्रित न होने पर बुआई के 15 से 20 दिन बाद क्यूजोलोफाप इथाईल 800 मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर सी 600 लीटर  पानी में मिलाकर छिड़काव करे।
कीट नियंत्रण
तिल पत्ती मोड़क एवं फल्ली बेधक कीट: फसल के प्रारंभिक अवस्था में इल्लीयां पत्तियों  के अंदर रहकर खाती हैं। प्रोफ़ेनोफॉस  50 ईसी 1 लीटर प्रति हेक्टेयर दवा को 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें ।
कली मक्खी: इस कीट की इल्लियां फूल के अन्दर घुसकर क्षति पहुंचाती है कलियां सिकुड़ जाती है. इसके नियंत्रण हेतु क्विनॉलफॉस  25 ईसी (1.5 मि.ली./ली. ) या ट्रायजफॉस 40 ईसी (1 मि.ली./ली. ) दवा को 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर फसल पर छिड़काव करें ।
रोग नियंत्रण
फाइटोफ्थोरा अंगमारी: प्रारंभ में पत्तियों व तनों पर भूरे रंग के धब्बे दिखते है जो बाद में काले रंग के हो जाते हैं। इस रोग से फसल की सुरक्षा हेतु बुवाई पूर्व बीजों को थायरम (3 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा./कि.ग्रा. बीज) द्वारा उपचारित करें। खड़ी फसल पर रोग दिखने पर रिडोमिल एम जेड (2.5 ग्रा. प्रति लीटर पानी)  या कापर अक्सीक्लोराइड की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 दिन के अंतर से छिड़काव करें।
भभूतिया रोग: इस रोग में फसल की पत्तियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता हैं। रोग के लक्षण प्रकट होने पर घुलनशील गंधक (2 ग्राम/ लीटर) का खडी फसल में 10 दिन के अंतर पर 2-3 बार छिड़काव करें।
तना एवं जड़ सड़न रोग: इस रोग से प्रभावित पौधे की जड़ों का छिलका हटाने पर नीचे का रंग कोयले के समान घूसर काला दिखता हैं. इस रोग से बचने  हेतु थायरम + कार्बेन्डाजिम (2:1 ग्राम) अथवा ट्राइकोडर्मा विरिडी (5 ग्रा. प्रति कि.ग्रा. बीज ) द्वारा बीजोपचार करने के बाद  बुवाई करें । खड़ी फसल पर रोग के लक्षण दिखने पर थायरम 2 ग्राम+ कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम. इस तरह कुल 3 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर पौधो की जड़ों को तर करें। एक सप्ताह पश्चात् पुनः छिडकाव दोहराएं।
पर्णताभ रोग (फायलोडी): फसल में फूल आने के समय इस रोग का प्रकोप होता है जिससे  फूल के सभी भाग हरे पत्तियों समान हो जाते हैं।  रोग से प्रभावित पौधे में पत्तियाँ गुच्छों में छोटी -छोटी दिखाई देती हैं। फुदका कीट द्वारा फैलने वाले इस रोग के नियंत्रण हेतु  सबसे पहले रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट करें तथा खेत में पर्याप्त नमी होने पर फोरेट 10 जी  10 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से मिलाएं । खडी फसल में डायमेथोयेट (3 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर  बुवाई के  30,40 और 60 दिनों पर छिड़काव करने से रोग पर काबू पाया जा सकता है।
कटाई गहाई एवं भण्डारण 
आम तौर पर तिल की फसल 80-120 दिन में तैयार हो जाती है। पौधो की पत्तियां पीली पड़कर झड़ने लगे और कैप्सूल पीले-भूरे रंग के होने लगे तब कटाई करे। कटाई करने उपरान्त फसल के गट्ठे बाधकर खेत में अथवा खालिहान में खडे रखे। 8 से 10 दिन तक सुखाने के बाद लकड़ी के ड़न्डो से पीटकर तिरपाल पर झड़ाई करने के उपरान्त बीज को साफ कर धूप में अच्छी तरह सूखा लेवें । बीजों में जब 8 प्रतिशत नमीं  होने पर भंडार पात्रों में /भंडारगृहों में भंडारित करें अथवा बाजार में बेचने की व्यवस्था करें ।
संभावित उपज एवं आमदनी  
उपरोक्तानुसार बताई गई उन्नत तकनीक अपनाते हुऐ 7 से 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर  तक उपज प्राप्त होती है जिसपर 8-9 हजार प्रति हेक्टेयर रूपये उत्पादन लागत आ सकती है। बाजार में उत्तम किस्म का सफेद तिल 70-80 रूपये प्रति किलो के भाव से आसानी से बिक जाता है। इस प्रकार ग्रीष्म में तिल की उन्नत खेती से 40,000 प्रति हेक्टेयर की शुद्व आमदनी प्राप्त कर दुगुना लाभ कमाया जा सकता है । इसके अलावा  तिल के साथ मूंग,उर्द या सोयाबीन की  अन्तवर्तीय फसल लेकर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा सकता है।
कृपया ध्यान रखें:  कृपया इस लेख के लेखक ब्लॉगर  की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्यंत्र कहीं पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पते का उल्लेख  करना अनिवार्य  रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।  लेख प्रकाशित करने की सूचना  लेखक के मेल  profgstomar@gmail .com  पर देने का कष्ट करेंगे। 

गुरुवार, 9 जनवरी 2020

अब काले टमाटर और लाल भिन्डी की खेती से धन वर्षा

स्वाद और सेहत के लिए उम्दा काले टमाटर और
लाल भिन्डी की खेती से धन वर्षा
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रमुख वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)
भारत में उगाई जाने वाली पौष्टिक सब्जियों में टमाटर एवं भिन्डी का महत्वपूर्ण स्थान है। टमाटर में कार्बोहाईड्रेट,प्रोटीन, वसा, खनिज पदार्थ कैल्शियम, फॉस्फोरस, लोहा, रेशा तथा विटामिन्स प्रचुर मात्रा में पाए जाते है।  बगैर टमाटर के सब्जी और सलाद का जायका नहीं बन सकता है।  टमाटर और भिन्डी की खेती देश में वर्ष भर की जाती है।  किसानों के खेतों पर  अब लाल टमाटर और हरी भिन्डी के अलावा विदेशों में धूम मचाने वाले काले टमाटर और लाल भिन्डी की उम्दा फसल लहलहाएगी पिछले वर्ष से देश के कुछ चुनिन्दा किसान इनकी खेती करने लगे है आकर्षक रंग, लाजवाब स्वाद एवं स्वास्थवर्धक होने के कारण काले टमाटर और लाल भिन्डी को बाजार में उच्च कीमत मिलने के कारण इन नवोदित किस्मों की खेती कर किसान भाई ख़ासा मुनाफा कमा सकते है 
काले टमाटर
अभी तक हमने हरे एवं लाल टमाटर फल देखे है परन्तु अब किसानों के खेत, बाजार और रसोई में काले टमाटर देखने को मिल जायेंगे।
काले टमाटर की फसल  फोटो साभार गूगल 
काले टमाटर यानि इंडिगोरोज टोमेटो की पहली नर्सरी यूरोप में तैयार की गई थी।  इंडिगो रोज रेड और बैगनी टमाटर के बीजों को आपस में मिलाकर एक नया  बीज तैयार किया गया जिससे काला टमाटर विकसित हुआ यह बाहर से काला और अन्दर से लाल होता है। एन्थोसायनिन (बैगनी पिगमेंट) की अधिकता के कारण इस टमाटर के छिलके का रंग काला होता है। प्रारम्भ में इसका फल हरा होते है जो पकने पर नीला-काला हो जाता है। कच्चा खाने में यह न ज्यादा खट्टा और न ज्यादा मीठा, बल्कि इसका स्वाद नमकीन जैसा होता है एक अध्ययन के मुताबिक इस किस्म के फल अनेक प्रकार की बीमारियों से लड़ने में कारगर पाई गए है जैसे कैंसर, मधुमेह, कोलेस्ट्राल आदि।  इसके अलावा यह आँखों की रौशनी बढ़ाने, ह्रदय रोगों से रक्षा करने,मोटापा कम करने में, रक्तचाप के स्तर को कम करने में भी इस किस्म को उपयोगी समझा जाता है काले टमाटर में मैग्नेशियम, पोटैशियम जैसे खनिज तत्व पाए जाते है जो रक्तचाप को नियंत्रित रखते है। शरीर में फ्रीरेडिकल्स सेल्स से लड़ने की क्षमता काले टमाटर में अधिक होती है इसके रस से हार्ट ब्लाकेज को दूर किया जा सकता है। इस किस्म के टमाटर की खेती के लिए गर्म जलवायु उपयुक्त होती है ठन्डे स्थानों पर पौधे ठीक से विकसित नहीं होते है इस किस्म के टमाटर की बुवाई जनवरी माह में की जाती है और मार्च-अप्रैल में काले टमाटर प्राप्त होने लगते है।  लाल टमाटर की तुलना में काले टमाटर में सिंचाई की कम आवश्यकता होती है। इस किस्म के बीज ऑनलाइन उपलब्ध है
लाल भिन्डी
               
लाल भिंडी फसल फोटो साभार गूगल 
अभी तक हमने हरे रंग की भिंडी देखी और खाने में इस्तेमाल की थी परन्तु अब किसान भाई लाल रंग की भिंडी की  खेती कर हमारी रसोई  तक पहुँचाने वाले है। पहले लाल रंग की भिन्डी पश्चिमी देशों में मिला करती थी परन्तु अब भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी के वैज्ञानिकों ने भिंडी की नई प्रजाति
काशी लालिमाविकसित करने में सफलता पा ली है। अब लाल रंग की भिन्डी भारत के खेतों और बाजार में भी देखने को मिलने लगेगी। इस भिंडी का रंग बैगनी और लाल रंग का होता है. हरी भिंडी में पाए जाने वाले क्लोरोफिल की जगह लाल भिन्डी में एंथोसाइनिन की मात्रा होती है, जो इसके लाल रंग का कारक है । इस भिंडी की लंबाई 11-14 सेमी और व्यास 1.5 और 1.6 सेमी होता है लाल रंग की यह भिंडी एंटी ऑक्सीडेंट, आयरन, कैल्शियम, पोटेशियम और जिंक सहित अन्य पोषक तत्वों से भरपूर होने के कारण यह अधिक स्वास्थवर्धक है। लाल रंग की भिंडी अब तक पश्चिमी देशों में प्रचलन में रही है और भारत में आयात होती रही है। इसकी खेती हरी भिन्डी की भांति उतनी ही लागत में की जा सकती है। इस भिन्डी को पकाकर खाने की अपेक्षा सलाद के रूप में खाना अधिक फायदेमंद होता है। लाल और हरी भिन्डी पकाए जाने के बाद स्वाद में एक जैसी लगती है। काशी लालिमा की उपज 130-150 क्विंटल तक ली जा सकती है परन्तु इसका बाजार भाव हरी भिन्डी से अधिक मिल जाता है। बाजार में लाल भिन्डी 100 से 200 रुपये प्रति किलो तक बिक रही है। इस किस्म के बीज भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी अथवा अन्य लाल भिंडी किस्मों के बीज ऑनलाइन अमेजॉन या अन्य कंपनियों से क्रय किये जा सकते है। 
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मंगलवार, 7 जनवरी 2020

ग्रीष्म ऋतु में खरबूजा की बुवाई से भरपूर कमाई

ग्रीष्म ऋतु में खरबूजा की बुवाई से भरपूर कमाई   
  
 डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रमुख वैज्ञानिक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

खरबूजा फल फोटो साभार गूगल 
रबी फसलों की कटाई के बाद ग्रीष्मकाल में नदियों के कछार में तथा खाली पड़े खेतों में किसान भाई खरबूजा, तरबूजा,ककड़ी आदि फसलों की खेती कर अपनी आमदनी में बढ़ोत्तरी कर सकते है। कम समय और सीमित संसाधनों में लघु एवं सीमान्त किसानों के लिए खरबूजे की खेती वरदान सिद्ध हो सकती है. स्वाद और सुगंध में बेमिसाल खरबूजा  (कुकुमिस मेलो) ग्रीष्म ऋतू का लाजवाब फल  है। खरबूजे के कच्चे फलों का उपयोग सब्जी तथा पके फलों को  सभी वर्ग के लोग बड़े चाव से खाते हैं। इसके पके हुऐ फल अत्यंत लोकप्रि‍यमीठे, शीतल, मृदुल वि‍‍‍‍‍‍रेचक एवं प्यास को शांत करने वाले होते हैं। खरबूजे को  गर्मियों का हेल्थी फ़ूड माना जाता है क्योंकि खरबूजे में 90 प्रतिशत से अधिक पानी के  साथ-साथ शर्करा, प्रोटीन,रेशा, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन ए, विटामिन बी, कैल्शियम, फास्फोरस और लौह तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। खरबूजे का फल गर्मियों में तन और मन को तरावट देने के साथ-साथ सेहत के लिए भी उपयोगी है । इसके बीज भी खाने योग्य स्वादिष्ट और पोषक होते हैं । इसके बीज की गिरी (मगज) को मेवे के रूप में विशेषकर मिठाइयों को स्वादिष्ट बनाने में किया जाता है  इसके बीज की गिरियों को पीसकर ग्रीष्मकाल में जायकेदार पेय भी बनाया जाता है इसके बीज में ओमेगा-3 फैटी एसिड होता है, जो दिल से जुडी बीमारियों को दूर रखने में मदद करता है ।
भारत के मैदानी क्षेत्रों से लेकर नदियों के कछारों में ग्रीष्काल में  खरबूजे की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। अब उन्नत किस्मों के इस्तेमाल एवं आधुनिक तकनीक को अपनाकर खरबूजे को वर्ष भर उगाकर आकर्षक मुनाफा कमाया जा सकता है। यह कम समय एवं सीमित संसाधनों में उगाई जा सकने वाली एक  नकदी फसल है इसकी खेती मुख्यतः उत्तरप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़, बिहार, आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडू आदि राज्यों के गर्म एवं शुष्क क्षेत्रों में की जाती है। अग्र प्रस्तुत उत्पादन तकनीक के माध्यम से किसान भाई तरबूज की खेती से अधिकतम उत्पादन एवं आमदनी अर्जित कर सकते है

                                    ऐसे करें खरबूजे की लाभदायक खेती 

उपयुक्त जलवायु
खरबूजा की बेहतरीन फसल फोटो साभार गूगल 
खरबूजे के सफल उत्पादन हेतु गर्म एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है । बीज के अंकुरण एवं पौध वृद्धि के लिए 27  से 30  डिग्री सेल्सियस तापक्रम अच्छा होता है। फल पकते समय मौसम शुष्क तथा पछुआ हवाएं चलने से फलों में मिठास बढ़ जाती है खरबूजे की फसल को पाले से अधिक हानी होती है फल पकने के समय यदि भूमि में अधिक नमी रहेगी तो फलों की मिठास कम हो जाती है फसल पकने के दौरान धुप वाला शुष्क मौसम होने पर फल मीठा स्वाद होता है तथा व्यापार के लिए भारी मात्रा में फल उत्पादन होता है।
भूमि का चुनाव  तथा खेती की  तैयारी
खरबूजे को विभिन्न प्रकार की मृदाओं में उगाया जाता है परन्तु 6-7 पी एच मान तथा उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट भूमि सर्वोत्तम होती है। नदियों के किनारे कछारी भूमि में खरबूजे की खेती बहुतायत में की जाती है फसल की उचित वानस्पतिक वृद्धि एवं अधिकतम उपज के लिए खेत में पर्याप्त जीवांश मात्रा का होना बहुत ही जरूरी है खेत की पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करें। इसके बाद 2-3 बार हैरो या कल्टीवेटर चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिये।  खेत की आखिरी जुताई के समय ही खेत में 10 से 12 टन  सड़ी गोबर की खाद को अच्छी प्रकार मिला देना चाहिये।
उन्नत किस्मों का चयन
खरबूजे की उन्नत एवं संकर किस्मों की खेती से गुणवत्तायुक्त अधिक उत्पादन एवं मुनाफा अर्जित किया जा सकता है. अतः किसान भाइयों को अग्रवर्णित किस्मों के बीज किसी विश्वसनीय प्रतिष्ठान से क्रय कर बुवाई हेतु इस्तेमाल करना चाहिए
पूसा शरबती
इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली द्वारा किया गया है इसका छिलका, जालीदार, धारीदार व धूसर रंग का होता है और गूदा मोटा व गहरे नारंगी रंग का होता है। कुल धुलनशील शर्करा की मात्रा 10 से 12 प्रतिशत तक होती है। इसकी औसत पैदावार 150 से 170 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है।
पूसा मधुरस
इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली द्वारा विकसित यह किस्म 90-95 दिनों में तैयार हो जाती है. इसके फल चपटे और चमकीले पीले रंग के 10 धारियों वाले होते हैं। गूदा गहरे नारंगी रंग का और बहुत रसदार होता है। कुल घुलनशील शर्करा की मात्रा 11-13 % तक होती है। फल का भार लगभग 1 किग्रा तथा औसत उपज 180 से 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है ।
पूसा रसराज
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली से विकसित खरबूजे की यह  संकर किस्म है इसका गूदा हल्का हरे रंग का होता है। यह क़िस्म 75 से 80 दिन में पक जाती है । इसकी पैदावार 200 से 250 कुंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
हरा मधु
पंजाब कृषि वि.वि. लुधियाना  द्वारा विकसित इस किस्म के फल 100-110 दिन में पककर तैयार हो जाते है फल गोलाकार होते हैं, जिन पर हरी धारियां पाई जाती है।फल का गूदा भी हल्का हरा एवं रसीला होता है, जिसमें 12  प्रतिशत तक मिठास होती है। फलों का औसतन भार  1 किग्रा तथा उपज 150 से 170 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
पंजाब सुनहरी
इस किस्म का विकास पंजाब कृषि वि.वि. लुधियाना द्वारा किया गया है इस किस्म के फल बोने के 80 दिन बाद तैयार हो जाते है।  फल का भार 700 -800 ग्राम होता है फल पकने पर हलके पीले रंग के, गूदा नारंगी रंग का रसदार एवं  स्वादिष्ट होता है भण्डारण एवं परिवहन के लिए उपयुक्त है।  फलों की औसत उपज 175-200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
दुर्गापुर मधु
इस किस्म का विकास उदयपुर वि.वि. के सब्जी अनुसन्धान केंद्र दुर्गापुर राजस्थान द्वारा किया गया है इसके फल गोलाकार होते है छिलका हरे रंग का होता है जिस पर हरे रंग की धारियां होती है।  फल का गूदा हलके हरे रंग का होता है जो खाने में अत्यंत मीठा एवं स्वादिष्ट होता है। इस किस्म से 180-200  क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन प्राप्त होता है ।
अर्का राजहंस
भारतीय बागवानी अनुसन्धान संस्थान बंगलौर कर्नाटक द्वारा विकसित खरबूजे की यह एक अगेती व चूर्णी फफूंदी रोग प्रति रोधी  किस्म है । इसके फल माध्यम आकार के  गोल व थोडे अंडाकार होते हैं । फलों में 11-14 %तक मिठास होती है फलों का गूदा ठोस व सफ़ेद होता है। इसकी भण्डारण और यातायात क्षमता बहुत अच्छी है । एक फल का औसत भार 1.25-2.0 किलो तथा उपज 250-280 क्विंटल प्रति हेक्टेयर  तक प्राप्त होती है। निर्यात के लिए यह एक अति उत्तम किस्म है
अर्का जीत
भारतीय बागवानी अनुसन्धान संस्थान बंगलौर विकसित यह एक अगेती किस्म है जिसके फल छोटे नारंगी रंग के और देखने में अत्यंत आकर्षक लगते है गूदा सफ़ेद और मध्यम ठोस तथा मनमोहक सुगंध लिए होता है इस किस्म में टमाटर से अधिक विटामिन सी पाया जाता हैफल का औसत भार 300-500 ग्राम एवं उपज 150-160 क्विंटल प्रति हेक्टेयर  तक मिल जाती है
आर एम- 43
कृषि अनुसंधान केन्द्र दुर्गापुरा, जयपुर द्वारा विकसित खरबूजे की यह किस्म 80-85 दिनों बाद प्रथम तुड़ाई हेतु तैयार हो जाती है । फल हरी धारियों युक्त होते हैं । इसके एक फल का  औसतन वजन 550 ग्राम होता है। फलों का गूदा हरा एवं सुगंधित होता है जिसमें 12 से 14 प्रतिशत तक मिठास होती है । फलों में  लम्बे समय तक भण्डारण एवं परिवहन क्षमता होती है ।
एम एच वाई- 5
कृषि अनुसंधान केन्द्र दुर्गापुरा, जयपुर द्वारा विकसित इस किस्म के फल बुवाई के 95 दिन बाद पहली तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते है इसके  फल चपटे, गोल, चिकने तथा हल्के पीले रंग के होते है फलों का  गूदा हल्का हरा, मुलायम जिनमें 13 से 15  प्रतिशत  मिठास होती है फलों का औसतन भार 700 से 800 ग्राम तथा प्रति  हेक्टेयर 150 से 200 क्विंटल फल उत्पादन होता है
आर एन- 50
कृषि अनुसंधान केन्द्र दुर्गापुरा द्वारा विकसित इस किस्म के फल  बुवाई के 80 से 85 दिनों में पक कर तैयार हो जाते है इस किस्म के फल गोल, छिलका हरा पीला होता हैं गूदा हरा एवं मिठास 14 से 16 प्रतिशत तक होती है फलों का औसतन वजन 500 ग्राम तथा प्रति हेक्टेयर 150 से 200 क्विंटल उत्पादन होता है।   
निजी क्षेत्रों द्वारा विकसित खरबूजे के प्रभेद
             उपरोक्त किस्मों के अलावा पूना बेस्ड ताईवानी कंपनी नो योर सीड इंडिया प्राइवेट लिमिटेड कंपनी, यूनाइटेड जेनेटिक्स और सेमिनिस कंपनी द्वारा खरबूजे के अनेक बेहतरीन प्रभेद विकसित किये गये है।  ताईवानी कंपनी  के प्रभेद मुस्कान, बॉबी और त्रिशा की आधुनिक तरीके से खेती करके किसान भाई आकर्षक लाभ कमा रहे  है।  इनके बीज महंगे होते है परन्तु इनके फलों की बाजार में अच्छी कीमत मिल जाती है. इनकी खेती आधुनिक तरीके से करना अधिक फायदेमंद होता है. इन किस्मों को खुले खेत और पालीहाउस में उगाया जा सकता है। 
बीज बुवाई का उचित समय 
सामान्यतौर पर खरबूजे की बुवाई नवम्बर- मार्च तक की जा सकती है।  सुरक्षात्मक उपाय उपलब्ध होने पर नदियों के किनारों पर खरबूजे की बुवाई नवम्बर-दिसंबर में की जा सकती है। मैदानी क्षेत्रों में इसकी बुवाई फ़रवरी मार्च में की जाती है। अगेती फसल लेने के लिए नवम्बर-दिसंबर में खरबूजे के बीजों की बुवाई हेतु पोलीबैग में  पौध तैयार करना अच्छा रहता है।
बीजदर एवं उपचार
खरबूजा की खेती के लिए आमतौर पर सीधी बुवाई के लिए 3 से 4 किलो बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है। प्लास्टिक की थैलियों में बुवाई के लिए दो बीज प्रति थैली (लगभग 15 से 20 सेमी लंबा तथा 8 सेमि. चौड़ी थैली) के हिसाब से 500 से 550 ग्राम बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर हेतु पर्याप्त होती है। यह थैलिया नीचे से छेद की हुई होनी चाहिए। थैलियों में गोबर की खाद मिट्टी बराबर मात्रा में होनी चाहिए। बीजों को बोन से पहले थाइरम या  कार्बेन्डाजिम 2- 3 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करना चाहिए। बीज को 24- 36 घंटे तक पानी में भिगोकर रखने के बाद बुवाई करने से अच्छा अंकुरण होता है एवं फल  7-10 दिन पहले तैयार हो जाते है।
 बुवाई की विधि

मैदानी क्षेत्रों में खरबूजे की बुआई  से 1.5 से 2.5 मीटर की दूरी पर 30-40 से.मी. चौड़ी नालियाँ बनाई जाती है. इन नालियों के किनारों (मेड़) पर  बीज की बुवाई 50-60 से.मी. की दूरी तथा 1.5-2.0 से.मी. की गहराई पर करना चाहिए बुवाई पश्चात बीजों को   महीन मृदा या गोबर की खाद से ढक देते हैं। अंकुरण के बाद प्रति थाल दो स्वस्थ पौधे छोड़कर शेष उखाड़ देना चाहिए ।

         नदी के कछार में खरबूजा की बुवाई गड्ढे बनाकर की जाती है । इसमें 60 x 60 x 60 से.मी. आकार  के गड्ढे  1.5 से 2.5 मीटर की दूरी पर बनाए जाते हैं। इन गड्ढों में 1:1:1 के अनुपात में गोबर की सड़ी खाद, मिट्टी एवं बालू मिलाकर भर दिया जाता है। इसके बाद प्रत्येक गड्ढे में 3-3 बीज की बुवाई कर हल्का पानी देना चाहिए ।

आधुनिक तरीके से खरबूजा की खेती

          मल्चिंग विधि से खरबूजे की खेती करने पर अधिक उपज के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण फल प्राप्त होते है. इस विधि में खेतों में बड़ी-बड़ी नालियाँ बनाकर उन पर पोलिथीन बिछाई जाती है।  फल पोलिथीन के ऊपर ही रहता है, जिससे फल स्वस्थ रहते है।  इसके अलावा इसमें पानी की खपत कम होती है, खरपतवार प्रकोप नहीं होता है।  पानी के साथ (बूँद-बूँद सिंचाई-ड्रिप) उर्वरक और पौध सरंक्षण दवाइयों का आवश्यकतानुसार प्रयोग  किया जा सकता है।  
 जरुरी है खाद एवं उर्वरक का  प्रयोग 
खेत की अंतिम जुताई के बाद नालियों या थालों  में 10  से 12 टन  अच्छी प्रकार सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिट्टी में अछि प्रकार मिलाना चाहिये इसके अतिरिक्त उर्वरक के रूप में 80 किलोग्राम नत्रजन, 75 किलोग्राम फास्फोरस और 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से नालियों/थालों  में डालना चाहियेनत्रजन की आधी मात्रा, फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत में नालियां या थाले बनाते समय देना चाहिये नत्रजन की शेष  मात्रा दो बराबर भागों में बांटकर  खड़ी फसल में जड़ों  के पास बुआई के 20 एवं 40 दिनों  बाद देनी चाहिये। इसके अलावा बोरान, कैल्शियम तथा मोलिब्डेनम का 3 मिग्रा प्रति लीटर पानी में घोलकर पर्णीय छिडकाव करने से फलों की संख्या एवं उपज में बढ़ोत्तरी होती है ।
फसल की मांग के अनुरूप सिंचाई  करें
खरबूजे की पौध वृद्धि एवं  भरपूर उत्पादन के लिए खेत में पर्याप्त नमी का होना अत्यन्त आवश्यक है। थालों में लगाये गये पौधों को नालियों से सिंचाई करना चाहिए। शुरुआत में हर सप्ताह पानी देने की आवश्यकता पड़ती है पौधों की बढ़वार, फूल आने से पहले  एवं फल विकास के समय खेत में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए । फल पकते समय सिंचाई बंद कर देना चाहिए, जिससे फलों में मिठास बढ़ जाती है ।
सिंचाई जल की उपलब्धता होने पर बूंद-बूंद तकनीकी अपनाकर खरबूजा उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है, साथ ही इस विधि में सिंचाई जल की बचत भी होती है। शुष्क क्षेत्रीय जलवायु में खरबूजे की खेती के लिए सिंचाई की बूंद-बूंद तकनीक सर्वोत्तम रहती है| इस प्रणाली में 4 लीटर प्रति घण्टे के ड्रिपर से 3 से 4 दिन के अन्तराल पर 2 से 3 घण्टे सिंचाई करनी चाहिए।
निराई एवं गुड़ाई 
पौध वृद्धि एवं खरपतवारों के नियंत्रण हेतु सिंचाई करने के बाद बाद निराई-गुड़ाई कर पौधों की जड़ों पर हल्की मिट्टी चढ़ा देनी चाहिये बुवाई के तुरंत बाद एलाक्लोर 50 ई.सी. या ब्युटाक्लोर 50 ई.सी.  2  कि.ग्रा। प्रति हेक्टेयर की दर से 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करने से खरपतवार नियंत्रित रहते है ।

कीट रोगों से फसल की सुरक्षा

कद्दू का लाल कीट
खरबूजे के बीज पत्र एवं 4-5 पत्ति अवस्था पर इस कीट का अधिक आक्रमण होता है अधिक प्रकोप होने पर पौधे पत्ती रहित हो जाते है।  इस कीट की रोकथाम के लिये 2 ग्राम कार्बारिल या 3 मि. ली. प्रति लीटर या डाईक्लोरोवास 76 ईसी 1.25 मिली प्रति लीटर  पानी में घोल बनाकर 10 दिनों के अंतराल पर पर्णीय छिडकाव करें ।  दवाई छिड़कने के बाद 15 दिन तक फल न तोड़े और न  ही खाने में इस्तेमाल करें
फल  मक्खी
इस कीट से ग्रसित फल सड़ कर नीचे गिर जाते है।   इस कीट की रोकथाम के लिए कार्बेरिल 50 डव्ल्यु पी 2 ग्राम प्रति लीटर या मैलाथियान 50 ईसी 2 मिली प्रति लीटर पानी में 10 % गुड़ मिलाकर  250 जगहों पर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से रखना चाहिए। इसके अलावा डाईक्लोरोवास 76 ईसी 1.25 मिली प्रति लीटर की दर से छिडकाव करने से भी कीट नियंतरण हो जाता हैइसके साथ समय पर रोगग्रस्त फलों को निकाल कर नष्ट करें । दवाई छिड़कने के बाद 15 दिन तक फल न तोड़े और न  ही खाने में इस्तेमाल करें
चूर्णित आसिता (पाउडरी मिल्डयू) :  इस रोग के प्रकोप से बेलों, पत्तियों और तनों पर सफेद चूर्ण जमा हो जाता है जिससे पौधे सफेद या धुंधले धूसर दिखाई देने लगते है । इस रोग की रोकथाम के लिए 2 ग्राम बाविस्टीन प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल कर छिडकाव करना चाहिए।
मृदुरोमिल आसिता (डाउनी मिल्ड्यू ) : इस रोग के प्रभाव से पत्तियों की निचली सतह पर भूरे रंग के घब्बे पड़ जाते हैं।  बदली एवं नम मौसम में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है रोग  की रोकथाम के लिए प्रति लीटर पानी में 2 ग्राम मैन्कोजेब  घोलकर छिडकाव करना चाहिए।
फलों की तुड़ाई
खरबूजे  की किस्मों के अनुसार बुवाई के लगभग 80-100 दिनों के बाद फल पककर तैयार हो जाते है। फलों का रंग बदलने (पीला पड़ने) तथा खरबूजे जैसी खुशबू आने पर फलों की तुड़ाई कर लेना चाहिए फल पकने पर पुष्प वृंत के आधार का रंग हरे से मोम के रंग जैसा होने लगता है पके हुए फल डंठल से आसानी से अलग हो जाते हैं। फलों की तुड़ाई के लिए सुबह का समय उपयुक्त होता है।
पैदावार और मुनाफा 
खरबूजे की उपज जलवायु, किस्म एवं सस्य प्रबंधन पर निर्भर करती है। वैज्ञानिक तकनीक से खेती करने पर सामान्यतौर पर खरबूजे की औसत पैदावार 150 से 250 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक प्राप्त की जा सकती है। उन्नत तरीके से खरबूजा की खेती करने पर अमूमन 80-90 हजार रूपये की लागत आती है।  बाजार में खरबूजा 20 रूपये प्रति किलो की दर से बिकते है तो खरबूजे की एक फसल से (लगभग तीन माह में) 200 क्विंटल पैदावार आने पर 3 लाख रूपये का शुद्ध मुनाफा अर्जित किया जा सकता है। खरबूजे का बीज उत्पादन कर किसान भाई अतिरिक्त आमदनी अर्जित कर सकते है। 
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