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सोमवार, 5 अप्रैल 2021

बहुमूल्य वन संपदा-कुल्लू वृक्ष (स्टरकूलिया युरेन्स): कतीरा गोंद का स्त्रोत-विलुप्ति के कगार पर

                                                           डॉ.गजेन्द्रसिंह तोमर, प्रोफ़ेसर

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि

महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

चांदनी रात में चांदी जैसी आभा बिखेरते तथा जंगल में अलग से दिखाई देने वाले कुल्लू (Sterculia urens) की खुबसूरती देखकर अंग्रेजों ने इसे 'लेडी लेग' का नाम दिया था। तने के आकर्षक चमकीलेपन के चलते अंग्रेज इसकी तुलना गोरी मेम की टांगों से करते थे। चमकीले आकर्षक सफेद रंग के दिखने के कारण ये पेड़ रात में अलग से पहचाने जा सकते हैं। इस पेड़ की पत्तियां हथेली जैसी 25 सेमी. व्यास की होती है जो शाखाओं के अन्त में झुण्ड में लगती है। फरवरी-मार्च में  पतझड़ होने के उपरान्त इस पर हरापन लिए पीले रंग के छोटे आकार के फूल खिलते जिन पर रोयें पाए जाते हैं। इसके फल अंडाकार 7.5 सेमी लम्बे होते है जो पकने पर लाल रंग के हो जाते है। फलों का बाहरी आवरण लालिमायुक्त रोयें से ढका होता है। एक फल में 3-6  काले या कत्थई रंग के बीज होते है.  पत्तेविहीन होने के बाद चमकीले तने और डालियों के कारण  कुल्लू के पेड़ रात में अजीब दहशत महसूस होती हैं।  इसलिए  ग्रामीण क्षेत्रों में इसे  भूतहा या भूतिया पेड़ (घोस्ट ट्री) के नाम से भी जाना जाता है।  आदिवासी इसके बीज को भूनकर खाते है।


कुल्लू को कहीं-कहीं गुलू, कतीरा, कराया और अंग्रेजी में Indian tragacanth के नाम से जाना जाता हैकुल्लू एक मध्यम आकार (15-20 मीटर ऊंचाई) का वृक्ष है जिसका तना 60-100 सेमी. मोटा,सफेद एवं भूरे रंग का होता है इसकी छाल धूसर भूरे रंग की और  मुलायम होती है इसकी लकड़ी हल्के पीले या क्रीम रंग की होती है यह अत्यन्त सूखा सहन करने वाला  पेड़ है। भारत के 750 से 1200 मिमी. वार्षिक वर्षा वाले जंगलों में इसके पेड़ पहाड़ी, पथरीली चट्टानों में प्राकृतिक रूप से उगते है।

बहुमूल्य गोंद कतीरा देने वाला वृक्ष है कुल्लू

कुल्लू एक ओद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण  वृक्ष है, क्योंकि अंतराष्ट्रीय बाजार में सबसे अधिक मांग तथा सर्वाधिक निर्यात की जाने वालीं गोंदों में से एक  गम कराया (गोंद) है, जो गोंद कतीरा के नाम से विश्व विख्यात है. भारत में विगत 5000 वर्ष से परंपरागत औषधि के रूप में इसका प्रयोग हो रहा है  कुल्लू का गोंद शक्तिवर्धक और औषधीय गुणों वाला होता है। विदेशों में इसकी कीमत काफी होती है। औषधीय एवं खाध्य के रूप में बेहद उपयोगी गोंद कतीरा या कराया गोंद ‘कुल्लू वृक्ष’ से प्राप्त किया जाता है कुल्लू गोंद का प्रयोग खाध्य पदार्थों एवं औषधियां आदि तैयार करने में किया जाता है स्वादिष्ट मिठाई, आइसक्रीम, चुइगम, सॉस, दवाई के केप्सूल जोड़ने, टूथपेस्ट बनाने में एवं श्रृंगार सामग्री बनाने में इसका इस्तेमाल किया जाता है  

भारत के गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र के कोकड़ के जंगलों में कुल्लू के पेड़ पाए जाते है इस वृक्ष में ग्रीष्म ऋतू (अप्रैल-जून) में सर्वाधिक गोंद पैदा होता हैभारत में लगभग 4000 टन कराया गोंद का उत्पादन होता है असली कतीरा गोंद बाजार में  ट्रेड नम्बर E-416 से बेचा जा रहा है

गोंद के आलावा इसकी छाल से उपयोगी रेशा (fiber) प्राप्त होता है जिसे कपड़ा एवं रस्सी बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है कुल्लू की लकड़ी से फर्नीचर, शोभाकारी वस्तुएं, खेती के औजार आदि बनाये जा सकते है

कहीं लुप्त न हो जाएँ बहुपयोगी वृक्ष कुल्लू

वर्तमान में कुल्लू का विदोहन अधिक मात्रा में होने एवं इनसे गोंद प्राप्त करने के लिए अनियंत्रित आकार एवं अधिक गहराई के खांचे बनाने या शाखाओं के काटने के कारण इन पेड़ों को भारी क्षति हो रहीं है यहाँ तक कई जंगलों में कुल्लू के पेड़ नजर ही नहीं आते है अर्थात लुप्तप्राय होते जा रहे है कुल्लू के कुछ पेड़ अब भी बचे हैं और जल्दी ही इन्हें बचाने की कोशिश नहीं की गई तो भारत का यह  दुर्लभ औषधीय वृक्ष समाप्त हो सकते हैं। कराया गोंद भारत के जंगलों की प्रमुख वनोपज है और जंगल में बसने वाले आदिवासियों की रोजी-रोटी का सहारा है. बेतहासा जंगल कटाई एवं लगातार विदोहन के कारण नष्ट होते जा रहे कुल्लू के पेड़ों की अवैध कटाई पर तत्काल रोक लगाने के साथ-साथ जंगलों में इनके प्रतिरोपण की आव7 श्यकता है यही नहीं कृषि क्षेत्र में भी किसानों को कुल्लू वृक्षों के रोपण के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए खेतों की मेड़ों पर कुल्लू के वृक्ष लगाने से किसानों को गोंद उत्पादन के माध्यम से अतिरिक्त आमदनी प्राप्त हो सकती है। इसके बीज से पौध तैयार कर व्यवसायिक खेती की जा सकती है। रोपाई के बाद लगभग 6-7 वर्ष बाद पेड़ों से गोंद प्राप्त होने लगता है। वैज्ञानिक तरीके से गोंद निकालने पर इनसे 20-30 वर्ष तक अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है

मंगलवार, 23 मार्च 2021

नकदी फसल: हॉपशूट्स-खेती से धन वर्षा

                                                                    डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर(सस्यविज्ञान), इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय.

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कांपा,महासमुंद (छत्तीसगढ़)

      हॉपशूट्स (हुमुलस लुपूलस) मोरैसी कुल का एक बहुवर्षी आरोही पौधा है जिसे आमतौर पर हॉपशूट्स के नाम से जाना जाता है। इस पौधे की टहनियां कुछ हद तक शतावर (एस्पैरेगस) पौधे से मिलती जुलती है। उचित नमीं एवं सूर्य प्रकाश मिलने पर इसका पौधा तेजी से बढ़ता है. प्रारंभ में इसकी शाखाएं बैंगनी रंग की होती है, जो बाद में हरे रंग की हो जाती है. इसकी बैंगनी मुलायम टहनियों या तनों को सब्जी के रूप में पकाकर या सलाद के रूप में खाया जाता है। कुछ जगहों पर इसका अचार बनाकर भी खाया जाता है। स्वाद में इसकी कच्ची टहनियां हल्की तीखी होती है।इसके फूलों को कोन कहते है। हॉपशूट्स के तने व फल-फूल (कोंस)  का  इस्तेमाल विभिन्न प्रकार के उत्पाद तैयार करने में किया जाता है। हॉपशूट्स का प्रयोग मुख्यतः वियर व शराब को सुगंधित व स्वादिष्ट बनाने के लिये किया जाता है। इसलिए इसकी अंतराष्ट्रीय मांग अधिक होने के कारण इसकी खेती काफी लाभदायक होती है।

हॉपशूट्स लता के शंकु (कोंस) फोटो साभार गूगल 

हॉपशूट्स के विविध उपयोग

हॉप-शूट के इस्तेमाल की शुरुआत 11वीं शताब्दी में बियर में कडवाहट लाने के लिए की गई थी। इसके बाद भोजन में फ्लेवर के तौर पर इसका प्रचलन बढ़ा और फिर हर्बल दवा तैयार करने में इस्तेमाल किया जाने लगा बाद में इसकी व्यवसायिक खेती होने पर इसके मुलायम तनों का सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। व्यवसायिक रूप से हॉपशूट्स की खेती इसके परिपक्व फूलों (हॉप कोंस) के लिए की जाती है। इसके फूल को हॉप-शंकु या स्ट्रोबाइल कहा जाता है, जिसका उपयोग बीयर बनाने में स्थिरता एजेंट के रूप में किया जाता है।  यह न सिर्फ बियर का स्वाद बढ़ाता है, बल्कि विशेष प्रकार का रंग व महक भी देता है। इससे बियर काफी समय तक खराब भी नहीं होती। बाकी मुलायम टहनियों का उपयोग सब्जी, सलाद और अचार के अलावा तना,फूल और फलों का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार की औषधीय निर्माण में किया जाता है। जड़ी-बूटी के रूप में हॉप-शूट का उपयोग यूरोपीय देशों में भी लोकप्रिय है, जहां इसका उपयोग त्वचा को चमकदार और युवा रखने के लिए किया जाता है क्योंकि सब्जी भी एंटीऑक्सिडेंट का एक समृद्ध स्रोत है। ह्यूमलोन और ल्यूपुलोन नामक एसिड पाए जाते है जो मानव शरीर में कैंसर कोशिकाओं को मारने में प्रभावी समझे जाते है। इससे निर्मित सब्जी पाचन तंत्र में सुधार करती है, अवसाद, चिंता ग्रस्त लोगों को लाभकारी होती है। टीबी रोग के उपचार के साथ ही यह कैंसर रोग के निदान में भी उपयोगी पाई गई है। कैंसर की कोशिकाओं को फैलने से रोकने में हॉप शूट्स मदद करती है। हॉप्स  प्रमुख हर्बल एंटीबायोटिक और सीडेटिव औषधि होने के अलावा, मीनोपॉज़ से जुड़ी समस्याओं, इनसॉम्निया यानी नींद न आने की शिकायतें दूर करने में भी यह मददगार है । हॉप के मादा पुष्पक्रम में अनेक रसायन जैसे मुलायम रेजिन (अल्फ़ा और बीटा अम्ल), सुगंध तेल तथा जैनिन पाए जाते है जिन्हें समस्त संसार में आधारभूत अंश के रूप में बियर निर्माण में उपयोग किया जाता है।

इन देशों में की जाती है हॉप की खेती

सबसे पहले हॉप्स की खेती उत्तरी जर्मनी में शुरू हुई. इसके बाद इसकी खूबियों को देखकर विश्व के अनेक देशों में इसकी व्यवसायिक खेती की जाने लगी इंग्लैण्ड में तो बियर तैयार करने में हॉप्स के इस्तेमाल को अनिवार्य कर दिया गया जिससे उसका स्वाद बढ़ जाए वर्तमान में व्यापारिक रूप से हॉप्स की खेती लगभग 20 देशों जैसे अर्जेंटीना,आस्ट्रेलिया,बैल्जियम, कनाडा, इंग्लैण्ड,फ़्रांस, जर्मनी, जापान,कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन,सयुंक्त राज्य अमेरिका आदि में की जा रही है। ये देश हॉप्स का विभिन्न देशों को निर्यात भी करते है। एशिया में भारत के अलावा केवल चीन और जापान में ही हॉप की खेती की जा रही है कुल अंतराष्ट्रीय मांग का 70 फीसदी हिस्सा केवल जर्मनी तथा अमेरिका ही पूरा करते है। भारत के कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश में सीमित क्षेत्र में हॉप्स की खेती की जा रही है

भारत में हॉप्स की खेती की संभावनाएं

भारत में हॉप्स की आवश्यकता निरंतर बढती जा रही है क्योंकि यहां मदिरा (शराब) उद्योग का विकास तेजी से हो रहा है। विदेशों से हॉप्स आयात करने पर शराब उत्पादन की लागत बढ़ जाती है। इसलिए हॉप्स की खेती की भारत में व्यापक संभानाएं प्रतीत होती है। भारत के कश्मीर में महाराजा रणवीर सिंह (1858-85) के समय लगाया गया तथा हिमाचल प्रदेश के चंबा में भी  उगाया गया। इसके बाद 19वी शताब्दी में श्रीनगर में हॉप्स की व्यापारिक खेती की गई। इसके बाद यूरोप और अमेरिका से उत्तम गुणों वाली हॉप्स काफी सस्ती और आसानी से मिलने के कारण इसकी खेती बंद हो गई। इसके बाद 1960 में इसकी खेती हिमाचल प्रदेश में पुनः प्रारंभ की गई। भारतीय बियर उद्योग की हॉप्स की कुल वार्षिक खपत 500 टन के करीब है भारत सरकार यदि हॉप्स के आयात शुल्क को बढ़ा देवें तो निश्चित ही  भारत में इसकी खेती को बढ़ावा मिल सकता है देश में हॉप्स की खेती को प्रोत्साहित करने से  भारतीय मदिरा उद्योग को सस्ते दर पर हॉप्स उपलब्ध होगी और देश के किसानों की आमदनी में आशातीत बढ़ोत्तरी भी होगी

सब्जी के लिए उपयुक्त हॉपशूट्स की टहनियां फोटो साभार गूगल 

खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

हॉप्स का पौधा प्रकाश संवेदनशील होता है और इसकी व्यापारिक खेती केवल उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की शर्द-गर्म जलवायु में सफलता पूर्वक की जा सकती है हॉपशूट्स की उचित बढ़वार एवं पुष्पन  के लिए  गर्मियों में औसतन तापमान 16  से 20  डिग्री सेल्सियस उपयुक्त पाया गया है पानी की समुचित व्यवस्था होने पर अधिक तापमान से पौधे की बढ़ौतरी पर कम असर पड़ता हैइसके शंकु विकसित होते समय अधिक वर्षा हानिकारक होती है सामान्यतौर पर भारत के कश्मीर और हिमाचल प्रदेश की जलवायु हॉप्स की खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है परन्तु नियंत्रित वातावरण में इसकी खेती अमूमन सभी स्थानों में की जा सकती है। सही बाजार भाव एवं उपयुक्त जलवायु देखकर ही हॉप्स की व्यवसायिक खेती करने की सलाह दी जाती है 

भूमि का चुनाव 

हॉप्स की खेती के लिए उपजाऊ भुरभुरी दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है मृदा का पी एच मान 6 से 8 के मध्य होना चाहिए.इसकी खेती नदियों के किनारे जहां पौधे की जड़े जल स्तर तक पहुँच सकें सफलता से की जा सकती है, परन्तु मिट्टी में पानी खड़ा नहीं होना चाहिए

उन्नत किस्में

हॉप्स की व्यवसायिक खेती की लिए मुख्यतया लेट क्लस्टर प्रजाति सबसे उपयुक्त मानी जाती है इसके अलावा  गोल्डन क्लस्टर, हाइब्रिड-2 व हरमुख नामक प्रजातियाँ भी उपयुक्त रहती है

रोपण का समय

हॉप्स के पौधों की रोपाई हिमपात से पूर्व दिसंबर और फिर मार्च-अप्रैल में की जानी चाहिए आम तौर पौध तैयार करने हेतु  फरबरी-मार्च में इसकी कलमों को पॉलिथीन बैग या उचित क्यारियों में लगाया जाता है

पौधे तैयार करना (प्रवर्धन)

        हॉप्स के पौधों का प्रसारण बीज तथा वानस्पतिक दोनों विधियों से किया जा सकता है परन्तु बीज से तैयार होने वाले पौधों में पुष्पन देरी से होता है तथा फूल कम गुणकारी होते है अतः व्यवसायिक खेती के लिए इसे वानस्पतिक विधि (कलम और अंत: भू-स्तरी-राइजोम) से पौध तैयार कर अथवा सीधे तैयार खेत में रोपण किया जा सकता है कलम या राइजोम  कीट-रोग मुक्त तथा 15-20 से.मी. लम्बे होना चाहिए जिन पर 2-3 आँखे (बड) होना आवश्यक है 

रोपण विधि

हॉप्स की पौध या कलमों को 1.5 x .5 मीटर (कतार एवं पौध) की दूरी पर 10-15 से.मी. की गहराई पर लगाना चाहिए कलम लगाते समय ध्यान रखें कि कलमों की आँखे (बड) भूमि में ऊपर की तरफ रहें. प्रत्येक पौधे से 4 लताएं निकलती हैहॉप्स की  स्वस्थ और मजबूत बेलों को शीघ्र प्रशिक्षित करना चाहिए नहीं तो इसकी बेलें झुक जाती है बेल वाली फसलों की भांति हॉप्स की बेलों को भी छतरी (अम्ब्रेला) विधि से प्रशिक्षित करना चाहिए. इसकी बेले 5-6 मीटर लम्बी बढती है जो ऊपर जाकर छाते की तरह फ़ैल जाती है

खाद और उर्वरक

हॉप्स की सफल खेती  के लिए खाद और उर्वरक की संतुलित मात्रा देना आवश्यक है, ताकि पौधों का विकास भली भांति हो सकें. इसके लिए गोबर की खाद 10-12 टन, नाईट्रोजन 100 किलोग्राम, फॉस्फोरस 100  किलोग्राम तथा 70 किलोग्राम पोटाश  प्रति हेक्टेयर देनी चाहिएगोबर की खाद व अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा पौध रोपण के समय मिट्टी में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए नाईट्रोजन उर्वरक को दो बार में देना लाभकारी होता है नाइट्रोजन की आधी मात्रा को पौधों के चारों तरफ 90 सेंटीमीटर के घेरे में मार्च के अन्त या अप्रैल के शुरू में देना चाहिए और शेष आधी मात्रा को जून माह में प्रयोग करना चाहिए

सिंचाई एवं जल निकास

हॉप्स के पौधों को आवश्यकतानुसार ड्रिप विधि से सिंचाई करते रहना चाहिए वर्षा होने पर खेत से जल निकासी की व्यवस्था करना आवश्यक होता है खेत में पानी भरा नहीं रहना चाहिए. हॉप्स कोन पकते समय सिंचाई बंद कर देना चाहिए

निराई-गुड़ाई एवं छंटाई

हॉप्स में वर्ष भर 4-5 बार निराई-गुड़ाई की जाती है निराई गुड़ाई के बाद पौधों पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए। पौधों पर मिट्टी चढ़ाने एवं उन्हें सहारा देने से तेज हवा पानी में पौधे गिरने से बाख जाते है। पौधों की उचित वृद्धि तथा फूलों के विकास के लिए कटाई-छंटाई करना आवश्यक रहता है यह कार्य बसंत ऋतू के आरम्भ में किया जाता है तेज धार वाले चाकू या शिकेटियर से अगल-बगल की अनचाही शाखाओं को काट देना चाहिए वर्ष में 2-3 बार छ्टाई करना चाहिए इनकी कटी हुई  मुलायम शाखाओं को सब्जी के उद्देश्य में बाजार में बेचने से अच्छी कीमत मिल जाती है। इसके अलावा in टहनियों से नई पौध भी तैयार की जा सकती है

शंकुओं की तुड़ाई

हॉप्स में फूल जून में आते है और मध्य जुलाई में मादा फूल (बर) बनते हैं.परागण के बाद बर शीघ्र बढ़ता है जिससे  शंकु (हॉप कोंस) तैयार होते हैंहॉप्स की तुड़ाई अगस्त के अन्त से सितम्बर के अन्त तक समाप्त की जाती है हॉप्स के शंकुओं का रंग हल्का पीला होने लगे तथा ये आसानी से टूटने लगे (लुपुलिन कोशिकाओं में पूर्ण रूप से रेजिन भर जाए तथा सुंगध आने लगे) तब इनकी तुड़ाई कर लेना चाहिएकश्मीर में फूल अगस्त के अंतिम सप्ताह से लेकर सितम्बर अन्त तक तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैगर्म स्थानों पर इसके फूल (कोंस) अगस्त में भी कटाई के लिए तैयार हो जाते है

हॉप्स की पैदावार

उचित जलवायु तथा सही सस्य प्रबंधन करने पर तीन वर्ष के हॉप्स की फसल से 3 से 4 टन प्रति हेक्टेयर शंकुओं (कोंस) की उपज प्राप्त हो जाती है कटाई के समय प्राप्त ताजे और सूखे शंकुओं के बीच 4:1 का अनुपात होता है। सब्जी के लिए हॉप्स की मुलायम टहनियों को तोड़कर बाजार में बेचकर अच्चा मुनाफा अर्जित किया जा सकता है

हॉप्स शंकुओं को सुखाना जरुरी

हॉप्स शंकुओं की तुड़ाई के बाद इन्हें सुखाना जरुरी होता है क्योंकि अधिक नमीं युक्त कोंस शीघ्र खराब होने लगते है कोंस को तोड़ते समय इनमें 75  से 85 प्रतिशत तक नमीं रहती है इन्हें 6 प्रतिशत नमीं स्तर तक सुखाया जाता है सामान्य तौर पर हॉप्स शंकुओं को सुखाने के लिए 42 से 45 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान 10 घण्टों के लिए आवश्यक होता है ध्यान यह रखना चाहिए कि कोई भी शंकु न टूटे सूखने के बाद कोंस को पॉलिथीन के थैलों में पैक कर उचित स्थान पर भंडारित कर लिए जाता है अथवा बाजार में बेच दिया जाता है

नोट: कृपया ध्यान देवें- उपयुक्त  जलवायु होने तथा हॉप्स की खेती की तकनीकी जानकारी होने, उत्पाद की बाजार में सुनिश्चित मांग  तथा  निवेश की क्षमता अनुसार ही खेती प्रारंभ करें. इस आलेख के लेखक-ब्लॉगर की बगैर अनुमति के अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर यह आलेख प्रकाशित न करें. यदि आवश्यक हो तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पद एवं संस्था का नाम देना न भूलें

सोमवार, 22 मार्च 2021

पानी है अनमोल-समझों इसका मोल-अभी नहीं समझोगे तो फिर पानी को तरसोगे

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,

                          कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,कांपा, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

राजा भगीरथ स्वर्ग  से गंगा को उतार कर लाये थे जिससे प्रतीत होता है  कि भारत भूमि पर जल कितनी मुश्किल से आया भगीरथ ब्रह्म देव और महादेव शिव को वचन देते है कि वह गंगा की शुद्धता बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे साथ ही इसके जल का अनुचित दोहन नहीं होने देंगे उन्होंने ही गंगा को देवी की प्रतिष्ठा देकर पूजनीय बनाया. भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा कि व्यर्थ में जल की एक बूँद बहाना भी जल का अपमान है. इस प्रकार से भारतीय  संस्कृति तो सदियों से भारत समेत विश्व को पानी बचाने के लिए जागरूक कर रही है विडंबना है कि न तो  भारत में ही और न ही विश्व में इस बात को अब तक समझा गया है कि पानी की बर्बादी नहीं करना है लेकिन वेद-पुराणों से ना सही अभियानों से ही यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए उतना बेहतर होगा क्योंकि यह तो निश्चित है की जल है  तो कल है जल ही जीवन है. ये कोई मुहावरे या कोटेशन मात्र नहीं बल्कि अंतिम सच है आज 22 मार्च 2021 को विश्व जल दिवस है यानी पानी को बचाने के संकल्प का दिन पानी के महत्त्व को जानने और मानने का दिन पानी के सरंक्षण के विषय में लोगों को जागृत करने का दिन  विश्वभर के लोगों को जल की महत्ता समझाने और लोगों को स्वच्छ जल उपलब्ध कराने के लिए सयुंक्त राष्ट्र संघ के आवाहन पर 1993 से प्रति वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है।  इस वर्ष के विश्व जल दिवस (World Water Day-2021) की थीम वेल्यूइंग वाटर अर्थात ‘पानी को महत्त्व देना’ है, जिसका लक्ष्य जलवायु परिवर्तन और बढती जनसंख्या के दौर में जन-जन को पानी का महत्व समझाना है,जल संरक्षण के महत्त्व को जन-जन तक पहुंचाना है ताकि भविष्य में हर किसी को पीने और जीने के लिए स्वच्छ जल  उपलब्ध होता रहे। पानी को सहेजने और पानी को बर्बाद करने से रोकने के लिए सिर्फ एक दिवस मनाने से काम नहीं चलने वाला है इसके लिए तो हम सब को वर्ष भर 24 घंटे सचेत रहना पड़ेगा क्योंकि पानी का उपयोग तो हम सुबह से लेकर देर रात तक करते रहते है और कृषि क्षेत्र में to रात को ही खेतों की सिंचाई करते है नहर का पानी खोलकर या सिंचाई पम्प चालू कर सो भी जाते है और पानी व्यर्थ बहता रहता है इस प्रकार जाने अनजाने में  हम  प्रकृति के अनमोल रत्न को व्यर्थ ही बर्बाद करते रहते है


दुनियां में गहराते जल संकट को देखते हुए करीब चार दशक पहले ही अनेक विद्वानों ने ये भविष्यवाणी कर दी थी कि यदि समय रहते इंसानों ने जल की महत्ता को नहीं समझा तो अगला विश्वयुद्ध (World War) जल को लेकर होगा। 1995 में वर्ल्ड बैंक के इस्माइल सेराग्लेडिन ने भी विश्व में पानी के संकट की भयावहता को देखते हुए कहा था कि इस शताब्दी में तेल के लिए युद्ध हुआ लेकिन अगली शताब्दी की लड़ाई पानी के लिए होगी। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी लोगों को चेताते हुए कहा था कि ध्यान रहे कि आग पानी में भी लगती है और कहीं ऐसा न हो कि अगला विश्वयुद्ध पानी के मसले पर हो। बढ़ते जल संकट को लेकर पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा ने भी माना है अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर लड़ा जायेगा। ये सब कथन भविष्य में पानी के भयावह संकट की चेतावनी दे रहे है। उजड़ते वन और कटते पेड़ों के कारण उत्पन्न जलवायु परिवर्तन के कारण एक तरफ वार्षिक वर्षा की मात्रा निरंतर कम होती जा रही है तो  दूसरी तरफ वातावरण के बढ़ते तापक्रम की वजह से हमारे बर्फ के पहाड़, ग्लेशियर पिघल कर बाढ़ और तबाही मचा रहे है आज से 10 वर्ष पूर्व हमारे देश में लगभग 15 हजार नदियाँ थी, जिनमें से 4500 नदियाँ सूखकर अब सिर्फ बरसाती नदियाँ बनकर रह गई है हमारे अन्य जल स्त्रोत यथा झरने, तालाब भी सूखते जा रहे है गाँव और शहरों के तालाब-नालों को  पाट कर कंक्रीट के जंगल खड़े किये जा रहे है। एक तरफ तो गर्मियों में पानी की भारी किल्लत तो दूसरी तरफ प्रकृति प्रदत्त वर्षा जल को हम व्यर्थ ही बह जाने देते है जो नदियों में मिलकर बाढ़ से तबाही का कारण बनता है

पानी है अनमोल समझों इसका मोल

पानी है अनमोल, समझो इसका मोल-जो अभी नहीं समझोगे, तो फिर पानी के लिए तरसोगे ज्ञात हो कि धरती का करीब तीन चौथाई भाग पानी से भरा हुआ है लेकिन इसमें से 97 फीसदी पानी खारा है और सिर्फ तीन फीसदी हिस्सा ही पीने योग्य है। इसमें से दो प्रतिशत बर्फ और ग्लेशियर के रूप में है ऐसे में सिर्फ एक फीसदी पानी ही मानव उपभोग के लिए बचता है।  हम अपने पास उपलब्ध पानी का 70 फ़ीसदी खेती-बाड़ी में इस्तेमाल करते हैं और तेजी से बढती जनसँख्या के भरण पोषण के लिए कृषि क्षेत्र में निरंतर पानी की मांग बढती ही जा रही है प्रकृति हमें जल एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और हम भी इस चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है इस चक्र को गतिमान रखना हम सब की नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है इस चक्र के थमने का अर्थ है, हमारे जीवन के पहिये का थम जाना प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते है, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है हम स्वयं पानी का निर्माण तो नहीं कर सकते, परन्तु अपने प्राकृतिक संसाधनों को सरंक्षित तो कर ही सकते है, उन्हें दूषित होने से भी बचाया जा सकता है

हमारे पास 1869 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध है जिसमें से बड़ा हिस्सा भौगोलिक कारणों से उपयोग में नहीं आ पाता। हम भारतीय हर साल लगभग 1061 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी इस्तेमाल कर रहे है.उपलब्ध जल संसाधनों का 92 फीसद हिस्सा कृषि कार्यों में, 5% उद्योगिक तथा 3 % घरेलू कार्यों में इस्तेमाल करते है अन्तराष्ट्रीय मानक के अनुसार प्रति व्यक्ति पानी की 1700 क्यूबिक मीटर से कम उपलब्धता वाले देश पानी की कमीं (वाटर स्ट्रेस्ड) वाले देश की श्रेणी में आते है अग्र प्रस्तुत सारणी के आंकणों से स्पष्ट है हमारे देश में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता निरंतर घटती जा रही है जो एक गहन चिंता का विषय है

प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धतता: कल,आज और कल

वर्ष

प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धतता

2001

1820 क्यूबिक मीटर

2011

1545 क्यूबिक मीटर

2021

1486 क्यूबिक मीटर

2025

1340 क्यूबिक मीटर

2030

1140 क्यूबिक मीटर

जल संकट की प्रमुख वजह

आज विश्व में मानव को तीन सबसे बड़ी समस्यायों से जूझना पड़ रहा है यथा  जल संकट, वायु प्रदुषण और धरती का बढ़ता तापमान जल संकट के तमाम कारणों में से एक तो जनसंख्या में बढोत्तरी और जीवन का स्तर ऊँचा करने की लालच में मानव ने प्रकृति के साथ द्वन्द मचा रखा है अर्थात प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और शोषण किया जा रहा ह । दूसरा कारण है पानी को इस्तेमाल करने के तरीक़े के बारे में हमारी अक्षमता। कृषि में सिँचाई के परंपरागत तौर-तरीक़ों (जैसे बाढ़ विधि से सिंचाई) में फ़सलों तक पानी पहुंचने से पहले ही काफी पानी बर्बाद हो जाता है। उजड़ते जंगल और नष्ट होते पेड़-वनस्पतियों की वजह से पर्यावरण में ऑक्सीजन की कमीं तथा कार्बन डाई ऑक्साइड की बढ़ोत्तरी हो रही है इसके कारण तापक्रम में वृद्धि, वर्षा जल में कमीं होने से भूमि का जल स्तर नीचे खिसकता जा रहा है यदि अभी भी लोग पानी के संचय, संरक्षण और सुरक्षा के प्रति जागरुक नहीं हुए तो आने वाले हालात बहुत भयंकर होंगे

जरुरी है जल संरक्षण एवं जल का मितव्ययी उपयोग  

विश्व के समक्ष आसन्न जल संकट की समस्या से निपटने के लिए हमें अपने नगर के परंपरागत जल स्त्रोतों यानी तालब, कुएं, नदी,नालों को सहेजन होगा, सरंक्षित करते हुए उपलब्ध जल संसाधनों का मितव्ययी उपयोग करने पर ध्यान देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. पानी के स्त्रोतों की सुरक्षा की जिम्मेदारी नगर निगम, ग्राम पंचायतों अथवा सरकार की ही नहीं बल्कि समाज में रह रहे प्रत्येक नागरिक की भी है. इन्हें गन्दा न करें, प्रदूषित होने से बचाए. जल संरक्षण का दूसरा उपाय अधिक से अधिक वृक्षारोपण करना है. पेड़ों के कारण जमीन की नमीं बरकरार रहती है, वातावरण का तापमान नियंत्रित रहता है और वर्षा अधिक होती है. इसके अलावा हम सब को अपने गाँव व शहर में वाटर हार्वेस्टिंग (यथास्थाने जल एकत्रित करने) पर विशेष ध्यान देना होगा खेत का पानी खेत और गाँव का पानी गाँव में सहेजने के सिद्धांत पर अमल करना होगा। प्रति बूँद अधिक फसल की तर्ज पर ड्रिप और फव्वारा विधि से सिंचाई को बढ़ावा देना होगा जिससे हमारा कृषि उत्पादन भी बढेगा और कम पानी में अधिक क्षेत्र में सिंचाई भी की जा सकती हैअपने घर की छत या परिसर में वर्षा जल को रोककर जमीन के भीतर उतारने का कार्य करना होगा जिससे भूमिगत जल का भरण हो सकें और हमें वर्ष पर्यंत पीने के लिए शुद्ध पानी प्राप्त हो सकें इसमें कोई दो मत नहीं है कि जहाँ पर्याप्त मात्रा में पानी व उसका सहीं प्रबंधन है, वे इलाके व देश संमृद्धि होते है. दुनियां में हर 4 में से एक रोजगार पानी से जुड़ा है. सयुंक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियां की 78 प्रतिशत वर्कफ़ोर्स पानी पर निर्भर है विश्व की समस्त कृषि पानी की उपलब्धतता पर टिकी है जब पानी नहीं होगा तो  कृषि नहीं होगी तो हम क्या पियेंगे और क्या खायेंगे ? पूरी समस्या का बस और बस एक ही समाधान सघन वृक्षारोपण और पेड़-पौधों का संरक्षण इससे वातावरण का तापक्रम संतुलित रहेगा और जल वर्षा अधिक होगी. उपलब्ध जल संसाधनों के पुनर्भरण का कार्य तेजी से करना होगा वर्षा जल को संरक्षित करके उसका कृषि कार्यों में उपयोग करना होगा ताकि भूजल का दोहन कम हो सदानीरा नदियों के संरक्षण संवर्धन पर भी उचित ध्यान देना होगा उन्हें दूषित-प्रदूषित होने से बचाना होंगा, तभी भविष्य में आसन्न जल संकट की विभीषिका से बचा जा सकता है  

ऋग्वेद में जल देवता से प्रार्थना करते हुए लिखा है: या आपो दिव्या उत वा स्त्रवन्ति रवनित्रिमा उत वा याः स्वयञ्जाः।। समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु।। अर्थात जो दिव्य जल आकाश से (वृष्टि के द्वारा) प्राप्त होते हैं, जो नदियों में सदा गमनशील हैं, खोदकर जो कुएँ आदि से निकाले जाते हैं, और जो स्वयं स्त्रोतों के द्वारा प्रवाहित होकर पवित्रता बिखेरते हुए समुद्र की ओर जाते हैं, वे दिव्यतायुक्त पवित्र जल हमारी रक्षा करें।

रविवार, 21 मार्च 2021

जीवन के लिए जरुरी है वन और वृक्षों का पुनर्रोपण एवं संरक्षण

 डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफेसर, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, जिला महासमुंद (छत्तीशगढ़)

भारत की सभ्यता एवं संस्कृति का विकास वनों की छत्रछाया में ही हुआ है।लोक संस्कृति व लोक कथाएं वनों से जुड़ी है। देश के इतिहास को भी अरण्य संस्कृति से जोड़ कर देखा जाता है। प्राकृतिक संसाधनों में वनों का महत्त्व जगजाहिर है। वनों से हमें जीवनदायी प्राणवायु, वर्षा जल के अलावा सैकड़ों प्रकार की लकड़ी, बहुमूल्य बन उपजे जैसे बीडी पत्ता, औषधियां, नाना प्रकार के फल फूल प्राप्त होते है जिस पर देश के करोड़ों लोगों की जीविका निर्भर है। इनसे देश के 60 से अधिक कुटीर उद्योगों को कच्चा माल प्राप्त होता है. यही नहीं वन हमारी जैव विविधिता के महत्वपूर्ण स्त्रोत है. बीते कुछ वर्षों से वनों के बड़ी मात्रा में दोहन के फलस्वरूप इनके क्षेत्रफल में भारी कमीं आई है। कटते और उजड़ते वनों के कारण ही जलवायु परिवर्तन-बढ़ते तापक्रम और घटती वर्षा जैसे दुष्परिणाम देखने को मिल रहे है। आज   21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस (World Forest Day) मनाया जा रहा है । वानिकी दिवस मनाने का उद्देश्य है कि दुनियां के तमाम देश अपनी मातृभूमि की मिट्टी और वनसंपदा का महत्व समझें और जंगलों की कटाई  रोकने तथा इनके संरक्षण पर ध्यान दें ।

विश्व वानिकी दिवस पहली बार वर्ष 1971 ईस्वी में मनाया गया । भारत में इसकी शुरुआत 1950 में की गई । संयुक्त राष्ट्र संघ ने 28 नवंबर 2012 में एक संकल्प पत्र पारित किया इसके जरिए 21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाने की घोषणा की गई ।21 मार्च को दक्षि‍णी गोलार्ध में रात और दि‍न बराबर होते हैं। यह दि‍न वनों और वानि‍की के महत्त्व और समाज में उनके योगदान  को प्रतिस्थापित करने तथा अधिक से अधिक वृक्षारोपण करने के लिए जन जागृति पैदा करने के उद्देश्य से मनाया जाता है।

इस साल विश्व वानिकी दिवस की थीम ‘Forest restoration: a path to recovery and well-being अर्थात *वन बहाली: पुनःप्राप्ति और कल्याण का मार्ग* रखा गया है, जो वनों के संरक्षण एवं संवर्धन से जुड़ा है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार इस साल की थीम UN Decade on Ecosystem Restoration (2021-2030) पर आधारित है, जिसका उद्देश्य दुनियाभर के ecosystem का बचाव करना है। इससे स्पष्ट है कि प्राकृतिक वनों के विस्तार व उनकी बहाली के लिए विश्व के देशों को गंभीरता से कार्य करना होगा तभी हमारे वन बचेंगे। वास्तव में प्राकृतिक वनों का सरंक्षण एवं संवर्धन  आज सबसे बड़ी चिंता और चिंतन का विषय है क्योंकि विश्व में तेजी से वनों का क्षेत्रफल घटता ही जा रहा है. प्रति वर्ष 100 लाख हेक्टेयर वन समाप्त होते जा रहे है और प्रति व्यक्ति वनों का क्षेत्र घट रहा है। वनों की बर्वादी का यह सिलसिला यूँ ही जारी रहा तो आने वाले समय में वन विहीनता, हमें जीवन विहीन कर देगा। वन भारतीय संस्कृति और सभ्यता के द्योतक माने जाते है परन्तु देश में आज महज 21.6 फीसदी वन ही बचे है जबकि 1980 में लागू हमारी वन नीति के अनुसार किसी भी राज्य और देश में 33 फीसदी वनभूमि होनी चाहिए। देश में 2-4 राज्यों को छोड़कर अन्य राज्यों में वनों की स्थिति चिंताजनक है। प्रगति और विकास की अंधी दौड़ के चलते हमारे वन उजड़ते जा रहे है एवं वृक्षों की निर्मम हत्या कर दी जा रहीं है जिसके परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन, वातावरण का तापमान बढ़ता जा रहा है, बर्सफ के पहाड़ एवं ग्लेशियर पिघल रहे है जो हर वर्ष भूस्खलन और बाढ़ के रूप में तबाही का सबब बनता जा रहा है। यही नहीं जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियर के पिघलने की वजह से हमारे समुद्र का  जल-स्तर बढ़ता जा रहा है जिससे समुद्र किनारे के इलाकों के जलमग्न होने का खतरा मंडरा रहा है। वनों के समाप्त होने से उन पर आश्रित जंगली जानवर भोजन-पानी की तलाश में शहरों की और पलायन कर जन-धन को को भारी क्षति पहुँचाने लगे है। इन  सब प्राकृतिक और मानव जनित घटनाओं और दुर्घटनाओं के लिए मनुष्य ही जिम्मेदार है जो अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी चला रहा है। अतः पृथ्वी पर प्राणवायु ऑक्सीजन का निरंतर प्रवाह तथा पीने और जीने के लिए शुद्ध जल की सतत उपलब्धतता बनाये रखने के लिए, मानवता की रक्षा के लिए वन और वृक्षों का पुनर्रोपण एवं संरक्षण के लिए पूरी निष्ठा और ईमानदारी से  मजबूत कार्यनीति को धरातल पर उतारना ही होगा, तभी हम सबका और आने वाली पीढ़ियों का जीवन सुरक्षित और खुशहाल रह सकता है।

जीवन में पेड़ो का महत्त्व फोटो साभार गूगल 

वन ऋतुचक्र  एवं प्रकृति में संतुलन बनाये रखने में सक्षम होते है। वन अधिक वर्षा के समय मिट्टी  के कटाव को रोकते है तथा उसकी उर्वरा शक्ति को बनाए रखने में सहयोग करते है। यही नहीं पेड़-पौधे अपनी जड़ों के माध्यम से भूमि के जल को अवशोषित करते है जो पुनः वाष्पित होकर वायुमंडल में बादल का रूप ले लेते है, जिसके परिणामस्वरूप वर्षा होती है और यह चक्र निरंतर चलता रहता है। एकअध्ययन से ज्ञात हुआ है कि दुनियां के तीन चौथाई इलाकों में बेहतर पानी का कारण वहां के बेहतर वन ही रहे। दुनियां में जो बड़े 230 जलागम है, उनमें 40 फीसदी जलागमों में 50 % तक वनों की क्षति हुई है और यदि ऐसा ही होता रहा तो भविष्य में हमें भीषण जल संकट का सामना करना पड़ेगा जिसकी आहट सुनाई पड़ने लगी है। वन न केवल हमें जीवन दायिनी ऑक्सीजन देते है और बहुमूल्य वर्षा जल प्रदाता है बल्कि मनुष्य के लिए रोजी-रोटी, कपड़ा और मकान के लिए आवश्यक वस्तुएं भी प्रदान करते है। मानव को निरोगी बने रहने के लिए बहुमूल्य औषधियां हमें वनों से ही मिलती है। वनों की सुरक्षा, वृक्षारोपण तथा पेड़-पौधों की रक्षा सिर्फ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि देश के हर नागरिक का भी नैतिक दायित्व और पुनीत कर्तव्य है।

हम सब को अपने पर्यावरण को सुरक्षित बनाये रखने के लिए  प्राकृतिक वनों के संरक्षण एवं संवर्धन में सहयोग करने के अलावा अपने निवास, कार्यालय परिसर, सार्खेवजनिक स्थानों, खलिहान और मार्गो पर अधिक से अधिक वृक्षों का रोपण करना चाहिए और उन पेड़ों का लालन पालन भी करना चाहिए। वृक्षों पर ही मानव जीवन आश्रित है। वृक्ष हमारी संस्कृति, सामाजिक और आर्थिक उन्नति का अहम हिस्सा है। आइए आज हम संकल्प लें कि इस वर्ष कम से कम 5 बहुपयोगी वृक्ष रोपित करेंगे, उनमें पानी और खाद देते हुए बड़ा करेंगे तथा कटने से उन्हें बचाएंगे। तभी हमें वायु प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभवों,भीषण गर्मी से मुक्ति मिल सकती है। वृक्षारोपण जैसा और कोई पूण्य कार्य नहीं है।हमारे ऋषि-मुनि जानते थे कि प्रकृति जीवन का स्रोत है और पर्यावरण के समृद्ध और स्वस्थ होने से ही हमारा जीवन भी समृद्ध, सुरक्षित और सुखी होता है।

पर्यावरण के संतुलन में वृक्षों के महान् योगदान एवं भूमिका को स्वीकार करते हुए हमारे ऋषि मुनियों ने बृहत् चिंतन किया है। हमारे शास्त्रों में वर्णित है कि एक वृक्ष सौ पुत्र समाना, मतलब 100 पुत्र उतनी सेवा नहीं करते जितना कि मात्र एक वृक्ष करता है और यह सही भी है. एक वृक्ष एक किमी. तक शुद्ध प्राणवायु फैला सकता है. पेड़ों के महत्व को स्वीकार करते हुए मत्स्यपुराण (154.511-512) में कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है-दशकूपसमावापी दशवापी समो ह्रदः।दशह्रदसमः पुत्रो दशपुत्रसमो द्रुमः।।

वृक्षारोपण ही नहीं दूसरों द्वारा रोपित पौधों के पालन पोषण और उनकी सुरक्षा करने में भी पूण्य मिलता है।विष्णुधर्मोत्तरपुराण (3.296.17) में वृक्षों के विषय में कहा गया है कि दूसरे द्वारा रोपित वृक्ष का सिंचन करने से भी महान् फलों की प्राप्ति होती है, इसमें विचार करने की आवश्यकता नही है: सेचनादपि वृक्षस्य रोपितस्य परेण तु।महत्फलमवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।। हमारे शास्त्रों के ये सूत्र इस वर्ष के विश्व वानिकी दिवस के विषय की सार्थकता को प्रतिपादित करते है।

इस प्रकार से हम सब को मिलकर वृक्षारोपण के माध्यम से धरती की हरियाली को बहाल करने का प्रयास करना चाहिए तथा हमारे आस-पास लगे हुए पेड़-वृक्षों को सिंचित करने और उन्हें सुरक्षा प्रदान करने का कार्य भी करना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था एवं संस्कृति में वनों के महत्त्व को देखते हुए यह बेहद जरुरी है की हम सब मिलकर वनों के दोहन को रोकने तथा नये वनों की स्थापना की दिशा में ईमानदारी, समर्पण एवं अंतर्भावना से कार्य करें। वनों के संरक्षण के अलावा हम सब सामूहिक रूप से अपने निवास, कार्यालय परिसर, अपनी कॉलोनी और गाँव की गलियों में भी अधिक से अधिक वृक्षारोपण करें तथा जीवन दायी पेड़ों को पाल पोष कर उन्हें फलने-फूलने का अवसर दें ताकि आने वाली पीढ़ी को सुरक्षित और खुशाल वातावरण में जीने का अवसर प्राप्त हो सकें। 


बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

स्वास्थ्य और समृद्धि के वाहक है पौष्टिक बीज:दाल-दलहन

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कांपा, जिला महासमुंद (छत्तीसगढ़)

दलहन यानी दालें प्रदान करने वाली फसलें सदियों से कृषि और  भारतीय खानपान का अभिन्न हिस्सा रही है। प्राचीन काल से ही दाल-भात (चावल) और दाल-रोटी हमारे देशवासियों का सबसे प्रचलित भोजन रहा है और आज भी है। दाल रोटी खाओ-प्रभु के गुन गाओ बहुत पुरानी कहावत है। वास्तव दाल-रोटी हो या दाल-भात, बिना दाल-तडके के हमारे भोजन का जायका नहीं बनता है. दरअसल  चावल या गेंहू के प्रोटीन में जो कमीं होती है, उसकी भरपाई दालों के प्रोटीन से हो जाती है और इसलिए चावल या रोटी के साथ दाल खाने से संतुलित भोजन का एहसास होता है। दालों में उपलब्ध प्रोटीन, आवश्यक अमीनो अम्ल,विटामिन तथा मिनरल्स के कारण इन्हें प्रोटीन टेबलेट्स और प्रकृति का अनमोल उपहार आदि विश्लेषणों से अलंकृत किया जाता है विश्व भर में दालें इंसानों के लिए शाकाहारी प्रोटीन एवं एमिनो एसिड के महत्वपूर्ण स्त्रोत है साथ ही जानवरों के लिए चारे के रूप में पादप आधारित प्रोटीन का स्त्रोत भी है दालें खाध्य सुरक्षा और पोषण  सुरक्षा के साथ-साथ  टिकाऊ फसल  उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है लेग्यूम या फलीदार फसलें जिनके सूखे दानों को उपयोग किया जाता है, दलहनी फसलें कहलाती है। दलहनी फसलें जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को भी सहन कर लेती है


विश्व भर में दालों के उत्पादन एवं उपभोग के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाने हेतु खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के सहयोग से संयुक्त राष्ट्र (यू.एन.) द्वारा वर्ष 2016 को ‘अंतर्राष्ट्रीय दलहन वर्ष’ के रूप में मनाया गया था। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 10 फरवरी को विश्व दाल दिवस के रूप में मनाने के लिए प्रस्ताव पारित किया था. तब से प्रति वर्ष 10 फरबरी को "विश्व दलहन दिवस" (वर्ल्ड पल्स डे) मनाया जा रहा है इस  वर्ष  के  विश्व दलहन दिवस की थीम 'एक सतत भविष्य के लिए पौष्टिक बीज' (Nutritious Seeds for a Sustainable Future) है।  आधुनिक युग में लोग दालों के महत्व को भूलते जा रहे हैं। आजकल लोग फास्ट फूड को अपने जीवन में महत्व दे रहे हैं। ऐसे में कुपोषण बढ़ने एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता घटने से बहुसंख्यक आबादी का स्वास्थ्य भी बिगड़ रहा है। इसलिए दालों का महत्व जानना और स्वास्थ्य में इनकी उपयोगिता के बारे में जनजागरुकता पैदा करना बेहद आवश्यक है। सेहत और समृद्धि के लिए दैनिक आहार में दालों को सम्मलित करना जरुरी ही नहीं है

दालें हमारे दैनिक आहार की प्रमुख खाद्य वस्तु है और मानव शरीर के लिए आवश्यक भी है क्योंकि इनमें प्रोटीन की मात्रा सबसे अधिक होती है। प्रोटीन प्राप्ति का दूसरा स्त्रोत मांस है जिसे शाकाहारी खा नहीं सकते हैं। इस प्रकार से भारतीयों  के लिए दाल प्रोटीन का सबसे प्रमुख स्त्रोत है । हमारे भोजन का मुख्य अंग कार्बोहाइड्रेट है, जो हमें चावल, गेहूँ इत्यादि अन्नों से स्टार्च के रूप में तथा फलों से शर्करा के रूप में प्राप्त होता है। कार्बोहाइड्रेट का पाचन सरलता से हो जाता है और इससे ऊर्जा प्राप्त होती है, किंतु मांसपेशी बनने, शरीर की वृद्धि तथा पुराने ऊतकों को नवजीवन प्रदान करने में कार्बोहाइड्रेट से कोई सहायता नहीं मिलती है। इन कार्यों के लिए प्रोटीन की आवश्यकता पड़ती है। मांसाहारी जीवों को मांस से तथा शाकाहारियों को वनस्पतियों से प्रोटीन प्राप्त होता है। दालें शाकाहारियों के लिए प्रोटीन का प्रमुख स्रोत हैं।प्रोटीन के किसी भी दूसरे माध्यम की तुलना में इसमें कम वसा (फैट) होता है. इसके साथ ही ये खनिज, विटामिन, एंटी-ऑक्सीडेंट और पाचन क्रिया में मददगार फाइबर्स से परिपूर्ण होती है.

विभिन्न दलहनों का पोषक मान (प्रति 100 ग्राम मात्रा में)

प्रमुख दालें

ऊर्जा (किलो कैलोरी)

प्रोटीन (ग्राम)

वसा (ग्राम)

खनिज (ग्राम)

कार्बोहाइड्रेट (ग्राम)

रेशा (ग्राम)

कैल्शियम (ग्राम)

फॉस्फोरस (ग्राम)

आयरन (ग्राम)

चना

360

17

5

3

61

4

202

312

चना दाल

372

21 

6

3

60

1

56

331

5

भुना चना  

369

22

5

2

58

1

58

340

9

अरहर दाल

335

22

2

3

58

1

73

304

2

साबुत मूंग

334

24

1

3

57

4

124

326

4

मूंग दाल

348

24

1

3

60

1

75

405

4

उड़द दाल

347

24

1

3

60

1

154

385

4

मसूर  

343

25

1

2

59

1

69

293

7

कुल्थी

321

22

0

3

57

5

287

311

7

मोठ दाल

330

24

1

3

56

4

202

230

9

हरी मटर

93

7

0

1

16

4

20

139

1

सूखी मटर

315

20

2

56

4

75

298

7

राजमा  

346

23

1

3

61

5

260

410

5

लोबिया

323

24

1

3

54

3

77

414

9

सोयाबीन  

432

43

20

5

21

4

240

690

10

 

भारत में दलहन उत्पादन की स्थिति

            भारत दुनिया का सबसे बड़ा दलहन उत्पादक देश होने के साथ दालों की खपत में भी पहले स्थान पर है। मांग के मुकाबले खपत कहीं अधिक होती है। खाद्यान्न के मामले में हमारा देश आत्मनिर्भर तो हो गया लेकिन अनाज वाली फसलों को जबर्दस्त प्रोत्साहन के चलते दलहन की खेती बुरी तरह नजरअंदाज हो गई जिसके फलस्वरूप दालों का उत्पादन 1.7 करोड़ टन के इर्द-गिर्द ही टिका हुआ है। जबकि बढती आबादी और सुधरते जीवन-स्तर के चलते दाल की मांग 2.5 करोड़ टन तक पहुँच गई है।  दरअसल हमारे देश में पिछले चार दशक से दलहनी फसलों के अंतर्गत न तो क्षेत्रफल और न ही उत्पादन के मामले में ज्यादा वृद्धि हुई है। इन फसलों की उत्पादकता में भी अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया है। वर्ष 1970 में दलहन की उत्पादकता 524 किलो प्रति हेक्टेयर थी जो वर्ष 2015 में मामूली बढ़त के साथ  744 किग्रा. प्रति हैक्टर हो पाई है जो विश्व के औसत से भी कम है। इसके विपरीत पड़ोसी देश चीन में दलहन फसलों की उत्पादकता 1596 किलो तक पहुँच गई है. बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों की उत्पादकता के मुकाबले में भी हम पीछे है।  संसार में दालों की खेती 7.06 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है जिससे 6.15 करोड़ टन उत्पादन होता है। दलहनों की विश्व औसत उपज 871 किग्रा.प्रति हेक्टेयर है जिसमे फ़्रांस सबसे अधिक दलहन (4219 किग्रा/हे.) उत्पादन करता है। उसके बाद क्रमशः कनाडा (1936 किग्रा/हे.),संयुक्त राष्ट्र अमेरिका (1882 किग्रा.) रूस (1643 किग्रा/हे.) एवं चीन (1596 किग्रा./हे.) का स्थान आता है।

भारत में दालों का उत्पादन मांग की तुलना में नहीं बढ़ रहा है। इससे बढ़ती जनसंख्या के कारण दलहनों की प्रति व्यक्ति खपत कम होती जा रही है। वर्ष 2015-16  में देश में दालों का उत्पादन 164 लाख टन हुआ था । एक अनुमान के अनुसार देश में दालों की वार्षिक खपत लगभग 225  लाख टन है । अपनी खपत को पूरा करने के लिए भारत ने 2015-16 के दौरान 57.90 लाख टन दालों का आयात किया गया । मांग और आपूर्ति में इसी अंतर की वजह से देश में दालों की कीमतें निरंतर बढती जा रही रही है । इससे देश में दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी कम होती जा रही है। वर्ष 1951 में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता 60 ग्राम थी जो वर्तमान में में घट कर 37 ग्राम के आसपास आ गई जबकि अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार यह मात्रा 80 ग्राम होनी चाहिए । विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा विश्व खाद्य और कृषि संगठन  के अनुसार प्रति व्यक्ति प्रति दिन 104 ग्राम दालों की सस्तुति की गई है। भारत में वर्ष 2013-14 के दौरान 252 लाख हेक्टेयर (खरीफ-101 तथा रबी 151 लाख हे.) में दालों की खेती की गई जिससे 193 लाख टन उत्पादन प्राप्त हुआ. कुल खाद्यान्न क्षेत्र एवं उत्पादन में दलहनों की भागीदारी क्रमशः 20 व 7.3 प्रतिशत बैठती है।  भारत में दलहनों का उत्पादन खरीफ की तुलना में रबी में अधिक होता है। औसत उपज की दृष्टि से भी खरीफ (578 किग्रा/हे.) की तुलना में रबी की उत्पादकता (790 किग्रा./हे.) अधिक आती है। भारत में सबसे ज्यादा (77 %) दलहन उत्पादन करने वाले राज्यों में मध्य प्रदेश (24 %), उत्तर प्रदेश(16%), महाराष्ट्र(14%), राजस्थान(6%), आन्ध्र प्रदेश (10%) और कर्नाटक (7 %) राज्य है । शेष 23 प्रतिशत उत्पादन में गुजरात, छत्तीसगढ़, बिहार, उड़ीसा और झारखण्ड राज्यों की हिस्सेदारी है । भारत में मुख्य रूप से उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में चना (41%),अरहर (15%),उड़द (10%),मूंग (9%),लोबिया (7%),मसूर एवं मटर (5 %) है इसके अलावा राजमा,कुल्थी,खेसारी,ग्वार आदि दलहनी फसलों की भी खेती की जाती है देश में प्रति व्यक्ति कम से कम दालों की न्यूनतम उपलब्धतता 50 ग्राम प्रति दिन तथा बीज आदि के लिए 10 % दलहनें उपलब्ध करने के उद्देश्य से वर्ष 2030 तक 3.2 करोड़ टन दलहन उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है जिसके लिए हमें वार्षिक उत्पादन में 4.2 प्रतिशत प्रतिवर्ष की बढ़ोत्तरी प्राप्त करनी होगी इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है की दलहनी फसलों की खेती भी अच्छी भूमि में बेहतर सस्य प्रबंधन के आधार पर करनी होगी

क्यों जरुरी दलहनों की खेती ?

भारतीय कृषि पद्धति में दालों की खेती का महत्वपूर्ण स्थान है। दालें हमारा ही नहीं मिट्टी का भी पोषण करती है। दलहनी फसलें भूमि को आच्छाद (Cover) प्रदान करती है जिससे भूमि का कटाव (Soil erosion) कम होता है। दलहनों में नत्रजन स्थिरिकरण (Nitrogen fixation) का नैसर्गिक गुण होने के कारण वायुमण्डलीय नत्रजन का अपनी जड़ो में सिथर करके मृदा उर्वरता को भी बढ़ाती है। इनकी जड़ प्रणाली मूसला (tap root system) होने के कारण कम वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में भी इनकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। इन फसलों के दानों के छिलकों में प्रोटीन के अलावा फॉस्फोरस अन्य खनिज लवण काफी मात्रा में पाये जाते है जिससे पशुओं और मुर्गियों के महत्वपूर्ण रातब (Concentrate) के रूप में इनका प्रयोग किया जाता है। दलहनी फसलें हरी खाद के रूप में प्रयोग की जाती है जिससे भूमि में जीवांश पदार्थ (Organic matter) तथा नत्रजन की मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है। दालों के अलावा इनका प्रयोग मिठाइयाँ, नमकीन आदि व्यंजन बनाने मे किया जाता है। इन फसलों की खेती सीमान्त और कम उपजाऊ भूमियों मे की जा सकती है। कम अवधि की फसलें होने के कारण बहुफसली प्रणाली (Multiple cropping)  मे इनका महत्वपूर्ण योगदान है जिससे अन्न उत्पादन बढ़ाने में दलहनी फसलें सहायक सिद्ध हो रही है।

 दलहन उत्पादन बढाने में मुख्य बाधाएं

भारत में दालों का उत्पादन बढ़ाने में मुख्य बाधाएं -प्रतिकूल मौसम, असामन्य भूमि, जैविक कारक, उन्नत किस्मों व प्रमाणित बीज का अभाव, सस्य क्रियाओं को न अपनाना आदि है. दलहन उत्पादन के प्रमुख कारकों या बाधाओं का विवरण यहां प्रस्तुत है:

1.जलवायु सम्बन्धी कारक ¼Climatic factors½

दलहनी फसलें जलवायु के प्रति अति संवेदनशील होती है। सूखा, पाला, निम्न और उच्च तापमान, जल मग्नता का दलहनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भारत में 87 प्रतिशत क्षेत्र में दहलनों की खेती वर्षा पर निर्भर करती है। उत्तरी भारत में पाले के प्रकोप से दहलनों विशेषकर अरहर, चना, मसूर, मटर आदि की उत्पादकता कम हो जाती है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में सूखे के प्रकोप से दलहन उत्पादन कम होता है।परम्परागत रूप से दलहनों की खेती वर्षा के भरोसे व कम उपजाऊ जमीनों में की जाती है जहां पर पानी का भी उचित प्रबंध नहीं होता है।

2. उच्च उपज वाली किस्मों ¼HYV½ का अभाव

दहलनें प्रचीन काल से ही सीमान्त क्षेत्रों में उगाई जाती रही है तथा आज भी व्यसायिक फसलों की श्रेणी में न आने के कारण, इन फसलों पर शोध कार्य सीमित हुआ है । खाद्यान्न फसलों की भांति अभी तक दलहनी फसलों की उन्नत फसलों का विकास नहीं हुआ है। खाद्यान्न की अपेक्षा दलहनी फसलों पर कीट-व्याधियों का अधिक प्रकोप होता है। कीट-रोग प्रतिरोधी उन्नत किस्में उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं। इसके अलावा सूखा एवं पाला अवरोधी किस्मों का भी अभाव होने के कारण विषम जलवायु में दलहनों की पैदावार कम प्राप्त होती है ।

3. अवैज्ञानिक सस्य प्रबन्ध¼Unscientfic agro-mangement½

दलहनों की खेती बहुधा किसान अवैज्ञानिक ढंग से करते है जिसके कारण वांछित उपज नहीं मिलती है। प्रमुख सस्य प्रबन्ध कारण निम्न हैं-

(अ) खराब प्रबन्ध स्तर: शुष्क और सीमान्त क्षेत्रों के किसानों की आर्थिक दशा अच्छी नहीं होती है जिससे वे उन्नत किस्म के बीज, उर्वरक आदि का प्रयोग नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा फसलो में जल प्रबन्ध, खरपतवारों, कीट - रोगो का  प्रबन्धन भी नहीं हो पाता है जिसके कारण उत्पादकता कम आती है।

(ब) राइजोबियम जीवाणुओं के संवर्ध  की अनुपलब्धता ¼Rhizobium culture½: दलहनी फसलों के लिए अलग-अलग जीवाणु संवर्ध की आवश्यकता होती है, परन्तु सभी दलहनों के जीवाणु संवर्ध अभी तक उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा राइजोबियम जीवाणुओं के लिए उचित तापक्रम नियंत्रक न होने के कारण, ज्यादातर संवर्धन (culture) प्रभावहीन हो जाते हैं जिससे वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हो पाते हैं।

(स) असमय बुआई ¼Untimely sowing½: सिंचाई सुविधा न होने के कारण प्रायः दलहनी फसलो की अगेती बोआई की जाती है जिसके कारण दलहनो की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है तथा उत्पादन कम हो पाता है।

(द) दोषयुक्त बुआई विधि ¼Faulty method of sowing½: आमतौर पर दलहनी फसलों की बुआई छिटकवाँ विधि से की जाती हैं जिसके कारण बीज अंकुरण एक सार नहीं हो पाता है और प्रति इकाई ईष्टतम पौध संख्या स्थापित नहीं हो पाती है। निंदाई-गुड़ाई और खरपतवार नियंत्रण भी ठीक से नहीं हो पाता हैं, जिससे फसल उत्पादन कम प्राप्त होता है।

(इ) अक्षम कीट व रोग नियंत्रण (Plant protection): दलहनी फसल में प्रोटीन पदार्थ अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक होने से वे सरस होते हैं जिसके कारण कीट रोग अधिक लगता है। सीमान्त क्षेत्रों के किसान आर्थिक तंगी और अज्ञानता के कारण पौध संरक्षण उपायों को नहीं अपनाते हैं, जिससे उपज में भारी कमी आती है।

4. जैविक कारण ¼Biological factors½

(अ) दलहनी पौधों की प्रकृति असीमित वृद्धि (Inditerminate growth habit) वाली होती है जिसके कारण पौधे के अग्र भाग की वृद्धि सतत् रूप से चलती है तथा पत्तियों के कक्ष में फूल और फलियों का निर्माण भी होता रहता है। इससे नीचे वाली फलियों के पकने के समय ऊपर वाली फलियाँ अपरिपक्व रहती हैं तथा ऊपर वाली फलियों के पकने तक नीचे वाली फलियों के दाने झड़ने लगते हैं। इस प्रकार से उपज में भारी कमी आती है।

(ब) दलहनी फसलें प्रकाश व ताप के प्रति अति संवेदनशील (photo-thermo sensitive) होती हैं अर्थात् इनमें पुष्पन की क्रिया मौसम एवं जलवायु पर आधारित होती है। वर्षा पोषित क्षेत्रों (rainfed area) में संचित नमी का उपयोग करने प्रायः बोआई जल्दी कर दी जाती है, जिससे फसल की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है। पौधे प्रकाश संवेदी  ¼Photosensitive½ होने के कारण उनमें पुष्पन ¼Flowering½ तभी होता है जब उन्हें उचित प्रकाश व ताप उपलब्ध होता है। इसके विपरीत देर से बोआई करने पर फसल की वानस्पतिक वृद्धि काफी कम हो पाती है, क्योंकि जैसे ही पौधों को उपयुक्त मौसम प्राप्त होता है, उनमें पुष्पन  हो जाता है। इस प्रकार से दोनों ही परिस्थितियों में उपज प्रभावित होती हैं।

(स) धान्य फसलें स्टार्च की पूर्ति के लिए उगाई जाती है, जबकि दलहनी फसलें प्रोटीन से भरपूर बीजों के लिए उगाई जाती है। प्रोटीन के निर्माण में फसल को ज्यादा ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है और फोटोसिंथेट की अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है, जबकि स्टार्च उत्पादन में इसकी कम आवश्यकता पड़ती है इसलिए दलहनी फसलों की उत्पादकता तथा कटाई सूचकांक (harvest index) धान्य फसलों की अपेक्षा कम होता है।

(द) दलहनी फसलों में फूलों का झड़ना ¼Flower shading½ एवं फलियों के चटकने ¼Pod shattering½ जैसी पैतृक बाधांये विद्यमान होती हैं, जो निश्चय ही इनकी उत्पादकता कम करती हैं। दलहनी फसलो में कीट-व्याधियों का प्रकोप भी अधिक होता है।

5. संस्थागत कारण: दहलनों की क्षेत्रवार उत्पादन तकनीक तथा उपलब्ध तकनीक का प्रसार न होने के काररण किसान परंपरागत विधि से ही इनकी खेती करते आ रहे है। उन्नत किस्म के कृषि यत्रो (बोआई एवं गहाई यंत्र) का अभाव है। भंडारण की उचित व्यवस्था का अभाव बना हुआ है। दलहनों मे प्रोटीन की अधिकता होने के कारण भंडारण के समय भी इनमे कीट - रोग का प्रकोप अधिक होता है। भंडारण की उचित व्यवस्था न होने तथा दाल मिलों की कमीं  होने के कारण कटाई के बाद भी दलहनो को कीट - व्याधियो से क्षति पहुँचती है जिससे दालो की उपलब्धता घटती है।

6. सामाजिक बाधायें: सीमान्त क्षेत्रो के किसानों मे यह आम धारणा रहती है कि दलहनों की खेती लाभकारी नहीं है। इसलिए इनकी खेती अनुपजाऊ भूमियो में बगैर खाद - उर्वरक के की जाती है। इसके अलावा दलहनों को ज्यादातर क्षेत्रों में मिश्रित फसल के रूप में उगाया जाता है। इससे इनकी उपज कम प्राप्त होती है।

                        दलहन उत्पादन बढ़ाने के आवश्यक उपाय

            खाद्यान्न उत्पादन के मामले में भारत ने न केवल आत्मनिर्भरता हासिल कर ली है, अपितु खाद्यान्न के सुरक्षित भण्डार की व्यवस्था भी कर ली है । दलहन व तिलहनी फसलों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने के उद्देश्य से अब फसल विविधीकरण पर किसानो का ध्यान आकर्षित किया जा रहा है। राज्योदय के बाद से छत्तीगढ़ में भी फसल विविधीकरण योजना के तहत उच्चहन भूमि पर दलहन तिहलन फसलें लगाने किसानों कोे प्रेरित किया जा रहा है, जिसके उत्साहजनक परिणाम सामने आ रहे है। उपलब्ध नवीन तकनीक के माध्यम से छोटे किसान भी शत - प्रतिशत उत्पादन बढ़ा सकते है। दलहन उत्पादन बढ़ाने की दिशा में निम्न उपाय सार्थक हो सकते हैं -

1.प्राचीन काल से ही उन्नत बीज कृषि का महत्वपूर्ण अंग रहा है।  उर्वरा भूमि के बाद कृषि के लिए ऋषि ने उन्नत बीज को ही महत्व दिया है। उन्नत बीज केवल शुद्ध किस्मो से प्राप्त होता है और स्वस्थ बीज से ही उत्तम फसल मिलसकती है। देशी किस्मों की तुलना मे उन्नत किस्मों से उपज को दोगुना किया जा सकता है।  वर्तमान में नये बीजों द्वारा पुराने बीजों का विस्थापन अनुपात  (Seed replacement ratio) 7 प्रतिशत ही है, जो कम से कम 15 - 20 प्रतिशत होना चाहिए। अतः दलहनों का उत्पादन बढ़ाने के लिए उन्नत बीजों की समय पर उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक है।

2. प्रकाश एवं ताप असंवेदी किस्मो (photo-thermo insensitive varieties) के विकास की आवश्यकता है जिनमें फसल की परिपक्वता एक साथ हो सके ।

3. किसानों को सही  समय पर आवश्यक गुणवत्तायुक्त आदान  जैसे उर्वरक, राइजोबियम कल्चर, बीज, उपकरण आदि उचित दर पर उपलब्ध कराने से दलहनों के क्षेत्र विस्तार की सम्भावना है ।

4.दलहनी फसलों की बोआई छिंटकवाँ विधि से न करके कतारो में की जानी चाहिए तथा आवश्यकतानुसार खरपतवार, कीट और रोग नियंत्रण के उपाय अपनाये जाने चाहिए।

5. वर्तमान मे प्रति इकाई दलहनों की पैदावार काफी कम है। उन्नत विधि से खेती करके उपज में प्रति हेक्टेयर 2 से 4 क्विंटल की बढ़त की जा सकती है जिससे राष्ट्रीय उपज व प्रति व्यक्ति उपलब्धता में बढ़ोत्तरी हो सकती है। क्योंकि अनुसंधानों में ही नहीं बल्कि किसानों के खेतों पर डाले गये प्रदर्शनों में अरहर में  58 व मूंग की उपज में 55 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है।

6. धान्य फसलो के साथ दलहनों की बहुफसली पद्धति व अंतः फसली खेती करके अतिरिक्त लाभ कमाया जा सकता है।

7.धान के खेतों की मेड़ पर 2 से 4 कतारे अरहर (तुअर) की लगाकर बोनस उपज का लाभ लिया जा सकता है।

8. खरीफ और रबी फसलों के बीच सिंचित क्षेत्रों में मूंग, उड़द, लोबिया आदि की खेती करने से दलहन उत्पादन  बढ़ने के साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति में भी सुधार हो सकता है ।

9. दलहनी फसलों में 1-2 सिंचाई देने से अधिक उत्पादन एवं लाभ प्राप्त किया जा सकता है ।

10.खरीफ ऋतु में लगाई जाने वाली दलहनी फसलों के लिए खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था करने से पौध वृद्धि एवं विकास अच्छा होने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है । अधिक वर्षा या जल भरावसे दलहनी  फसले क्षतिग्रस्त हो जाती है. कीट रोग का प्रकोप भी अधिक होता है ।

11. दलहनी फसलें कीट-रोग प्रकोप के प्रति अधिक संवेदनशील होती है। इनके प्रकोप से उपज में भारी गिरावट होती है । अतः समय पर पौध संरक्षण के आवश्यक उपाय अपनाने से उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है ।

12.दलहनों की समर्थन मूल्य पर खरीदी करने की व्यापक व्यवस्था करने तथा दलहनों के प्रसंस्करण की सुविधा एवं भंडारण की उचित व्यवस्था करने से दलहनों की खेती को बढ़ावा मिल सकता है।

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