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शनिवार, 10 अप्रैल 2021

डायबिटीज की रामबाण औषधि-इन्सुलिन प्लांट की करें व्यवसायिक खेती

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान),

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

मधुमेह रोग  के उपचार में केयोकंद के पौधे का इस्तेमाल कारगर सिद्ध होने के कारण  लोग इसे इंसुलिन के पौधे के नाम से जानते हैं। केयोकंद को जारूल, केऊ, संस्कृत में सुबन्धु, पदमपत्रमूलम व  केमुआ तथा अंग्रेजी में स्पाइरल फ्लैग के नाम से जाना जाता है।  वनस्पति शास्त्र में इसे कॉस्टस स्पेसियोसस व कॉसटस इग्नेउस के नाम से जाना जाता है यह पौधा भारत के असम, मेघालय, बिहार, उत्तरांचल, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के जंगलों में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है इसकी दो उप प्रजातियाँ -कास्ट्स स्पेसिओसस नेपालेसिस व कास्ट्स स्पेसिओसस आरजीरोफाइलस जो सम्पूर्ण भारत में पायी जाती है

 इन्सुलिन प्लांट अर्थात कियोकंद, कॉस्टेसी या जिन्जिबरेसी (अदरक) कुल का एक बहुवर्षीय पौधा है यह सीधा बढ़ने वाला 1.2 से 2.7 मीटर ऊंचा पौधा होता है इसके मूलकांड कंदीय, पनीला (फीका) होता है कियोकंद की पत्तियां 15-35 से.मी. लम्बी तथा 5-7 से.मी. चौड़ी आयताकार व नुकीली होती है जो तने में पेचदार या सर्पिल रूप से व्यवस्थित होती है पत्तियों की ऊपरी सतह चिकनी तथा निचली सतह रोमिल होती है इसमें जुलाई-अगस्त में सुन्दर और आकर्षक सफेद रंग के फूल आते है, जो एक घनी स्पाइक में लगते है फूल के सहपत्र 2-3 से.मी. लम्बे हल्के नोकदार चमकीले लाल रंग के होते है। इसके फल (केप्सूल) गोल लाल रंग तथा बीज काले सफेद बीज चोल बाले होते है  इसे  शोभाकारी पौधे के रूप में गार्डन या गमलों में भी उगाया जाता है शर्दियों के दौरान इसके पेड़ मुरझा जाते है। इसकी पत्तियां स्वाद में हल्की खट्टी, खारी एवं लसलसी होती है 

औषधीय तत्व, गुण एवं विशेषताएं

कियोकंद के राइजोम में स्टार्च अधिक मात्रा में पाया जाता है इनका उपयोग खाध्य पदार्थ बनाने एवं औषधीय तैयार करने में किया जाता है कंद का स्वाद कषाय या हल्का कडुवा होता है। आदिवासी और वनवासी इसके प्रकंदों को कच्चा या पकाकर सब्जी के रूप में खाते है इनमें 44.51 % कार्बोहाइड्रेट, 31.65 % स्टार्च, 14.44 % एमाइलोस, 19.2 % प्रोटीन, 3.25 % वसा   के साथ-साथ  विटामिन-ए, बीटा केरोटीन, विटामिन-सी, विटामिन-ई आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते है इनके से सेवन  कुपोषण एवं आखों की समस्या से निजात मिलती है  कियोकंद की पत्तियां, तना और प्रकंद का उपयोग मधुमेह, सर्दी-खाशी, नजला-जुकाम से उत्पन्न बुखार के उपचार हेतु किया जाता है यह ह्रदय के लिए लाभकारी तथा शीतल प्रभाव वाला माना जाता है केवकंद को ताकत और ऊर्जा के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है इसके कंद का चूर्ण को शक्कर के साथ सेवन करने से लू और गर्मी से राहत मिलती है। 

कियोकंद के राइजोम एवं तने में डायोस्जेनिन और टिशोजेनिन  नामक रसायन पाए जाते है इसके कंद, तना और पत्तियों में क्रमशः 396, 83 व 70 % डायोस्जेनिन पाया जाता है। डायोस्जेनिन द्रव्य का उपयोग स्टीयराइड हार्मोन तैयार करने में किया जाता है जलवायु, क्षेत्र, कंद  लगाने के समय एवं विधि के अनुसार डायोस्जेनिन की मात्रा में भिन्नता पायी जाती है उदहारण के लिए मध्यभारत में डायोस्जेनिन की मात्रा 2.5 %, गंगा के कछार में 1.7 %, दक्षिणी भागों में 0.8 %, पश्चिमी भारत में 1-1.5 % पायी जाती है, जबकि उत्तरी पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में यह 3.1 % तक पायी जाती है

मधुमेह रोग के लिए रामबाण औषधि है

इन्सुलिन प्लांट फोटो साभार गूगल 
इंसुलिन पौधा प्रकृति की ओर से मधुमेह के रोगियों को एक अनमोल उपहार है। इस पौधे की पत्तियां खाकर शरीर में शुगर के स्तर को नियंत्रित किया जा सकता है इसके सेवन से मधुमेह रोगियों को इन्सुलिन के इंजेक्शन लगवाने की आवश्यकता नहीं पडती मेडिकल साइंस के अनुसार टाइप-टू डाइबटीज के रोगी के शरीर में इंसुलिन की पर्याप्त मात्रा नहीं बनती है। इन रोगियों के ही शरीर में दवा या इंजेक्शन, के जरिए इंसुलिन पहुंचाया जाया है। विशेषज्ञों के अनुसार डाइबटीज-टू से पीड़ित रोगियों की संख्या करीब 80 प्रतिशत है और इनके लिए इंसुलिन प्लांटबहुत ही कारगर साबित हुआ है। इसके पत्तों का नियमित रूप से (एक पत्ती प्रति दिन) सेवन  करने से पैंक्रियाज में  बनाने वाली ग्रंथि के बीटा सेल्स मजबूत होते हैं। परिणामस्वरूप पैंक्रियाज ज्यादा मात्रा में इंसुलिन बनाता है, जिसके चलते खून में शुगर का स्तर  अर्थात मधुमेह (डायबिटीज) नियंत्रित रहती है।

अनेक आयुर्वेदिक कम्पनी इसकी पत्ती,तना और प्रकन्द का जूस और पाउडर बनाकर मधुमेह की कारगर औषधि के रूप में  बाजार में बेच रही है

प्राकृतिक रूप से जंगलों में पाए जाने वाले बहुपयोगी कियो के पौधों के अति दोहन से इनके पौधों की संख्या निरंतर घटती जा रही है इसलिए वन विभाग एवं अन्य संएवं गठनों ने  इस पौधे को संकटाग्रस्त प्रजाति की श्रेणी में रखते हुए इसके संरक्षण एवं संवर्धन हेतु परामर्श दिए है औषधिय क्षेत्र में उपयोग के कारण  बाजार में इसकी मांग अधिक होने के चलते कियोकंद की खेती आर्थिक रूप से लाभकारी सिद्ध हो रही है शहरी क्षेत्रों में इसे शोभाकारी और औषधीय पौधे के रूप में गमलों में भी लगाकर इस्तेमाल में लिया जा सकता है किसान अपने खेत में इसका उत्पादन कर उपज के रूप में इसकी पत्तियां एवं प्रकंदों को बेचकर अच्चा खाशा मुनाफा अर्जित कर सकते है

                                 इन्सुलिन प्लांट (कियोकंद) की खेती ऐसे करें  

उपयुक्त जलवायु  एवं भूमि 

इन्सुलिन या कियोकंद के पौधों की वानस्पतिक बढ़वार एवं कंद विकास के लिए उष्ण से समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त रहती हैइसकी पौधे नमीं युक्त आर्द्र जलवायु में अच्छे पनपते है पौध वृद्धि एवं विकास के लिए औसत तापक्रम 200 से 400 सेग्रे.उचित पाया गया है शर्दियों में 40 सेग्रे से कम तापक्रम हानिकारक होता है इसकी खेती 1200 से 1400 मिमी वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है कियोकंद को धूपदार जमीनों के अलावा  पेड़ों की छाया में  भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है

सफल खेती के लिए बलुई दोमट से चिकनी दोमट मिट्टी जिसका पी एच मान 6 से 7.5 तक हो, उपयुक्त रहती है गहरी और उपजाऊ भूमियों में केयोकंद का उत्पादन अधिक होता है वर्षा प्रारंभ होने से पहले खेत की गहरी जुताई करके 2-3 बार कल्टीवेटर चलाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा कर पाटा से खेत समतल कर लेना चाहिए  खेत में जल निकास की उपयुक्त व्यवस्था करना आवश्यक है

रोपाई का समय

कियोंकंद की बुवाई मानसून आगमन के पश्चात जून-जुलाई में की जाती है  सिंचाई की सुविधा होने पर अप्रैल-मई में कंदों को लगाने से लगभग 80 प्रतिशत कंद अंकुरित हो जाते है और उपज भी अधिक प्राप्त होती है जून-जुलाई में रोपाई करने से उपज कम आती है इसकी रोपण हेतु लगभग 18-20 क्विंटल स्वस्थ कंदों की आवश्यकता होती है

बुवाई की विधियां  


कियोकंद के प्रकन्द (राइजोम) फोटो साभार गूगल 
कियोकंद का प्रवर्धन बीज, तना कलम और कंद से किया जा सकता है कंद रोपण सर्वश्रेष्ठ पाया गया है बीज से प्रवर्धन हेतु बीजों को बीज शैय्या पर बोया जाता है तथा बीज अंकुरण पश्चात पौधों में 3-4 पत्तिया विकसित होने पर उन्हें तैयार खेत में रोप दिया जाता है

कंद से बुवाई हेतु इसके कंदों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है जिनमें कम से कम दो कलियां हो और प्रत्येक का वजन 30-40 ग्राम हो इन टुकड़ों को खेत में लगभग 10 सेमी. की गहराई पर रोपा जाना चाहिए ध्यान रखें कंद लगाते समय इनकी कलियाँ भूमि में ऊपर की तरफ रहें

तना कलम से लगाने के लिए तने को टुकड़ों में जिनमें 2 गांठे (कली) हो, काट लिए जाता है इन टुकड़ों को दिसंबर से अप्रैल तक नम रेत (बालू) में रखा जाता है अंकुरण होने पर इन्हें नर्सरी  या पोलीथिन बैग में लगाया जाता है इससे प्राप्त कंदों का वजन कम  होता है

कियोकंद की पौध या कंदों को हमेशा कतारों में लगाना चाहिए कतार से कतार और पौध से पौध 40-50 से.मी. की दूरी रखना चाहिए इस प्रकार एक हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 40-45 हजार पौधे स्थापित होने से भरपूर उत्पादन प्राप्त होता है। वर्षा न होने पर कंद या पौध लगाने के उपरान्त खेत में हल्की सिंचाई अवश्य करना चाहिए

खाद एवं उर्वरक

कियोकंद के बेहतर उत्पादन के लिए खेत में खाद एवं उर्वरक देना आवश्यक है इसके लिए खेत की अंतिम जुताई के समय 10-12 टन गोबर की सड़ी हुई खाद या कम्पोस्ट को मिट्टी में मिला देना चाहिए इसके अलावा 60 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा फॉस्फोरस तथा 40 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए नत्रजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस एवं पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई/रोपाई के समय देना चाहिए नत्रजन की शेष आधी मात्रा बुवाई/रोपाई के 40-50 दिन बाद (पौधों पर मिट्टी चढाते समय) कतारों में देना चाहिए। कियोक्न्द की जैविक खेती करने के लिए रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं करना है। गोबर की खाद की मात्रा बढाकर अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है।

सिंचाई  एवं जल निकास

कियोकंद की बुवाई या रोपाई के बाद खेत में नमीं बनाये रखने के लिए हल्की सिंचाई करना आवश्यक है वर्षा ऋतु में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है परन्तु सूखे या अवर्षा की स्थिति में सिंचाई करें वर्षा ऋतु समाप्त होने पर 15-20 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहे अधिक वर्षा होने पर खेत से जलनिकास की व्यवस्था करना चाहिए

निंदाई गुड़ाई

वर्षा ऋतु में खरपतवार प्रकोप अधिक होता है अतः आवश्यकतानुसार एक-दो निंदाई गुड़ाई कर पौधों पर पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए

खुदाई एवं प्रसंस्करण

सामान्यतौर पर कियोकंद की फसल 170 से 180 दिनों में तैयार हो जाती है। जून में लगाई गई फसल नवम्बर के अंतिम सप्ताह में खोदने के लिए तैयार हो जाती है फसल पकने के पूर्व इसके पत्तों को तने सहित काट लेना चाहिए पत्तों को साफकर हवा में सुखाकर जूट को बोरों में भरकर नमीं रहित स्थान पर भंडारित करें अथवा इनका पाउडर बनाकर बेचा जा सकता है। सामान्यतौर पर इसके कंद फरवरी-मार्च में खुदाई के लिए तैयार हो जाते है कंदों की खुदाई करने के पूर्व खेत में हल्की सिंचाई करने से कंदों की खुदाई आसानी से हो जाती है खुदाई के उपरान्त प्राप्त कंदों को पानी में अच्छी प्रकार धोकर सुखाया जाता है सूखे हुए कंदों को बोरियों में नमीं रहित स्थान पर भंडारित करना चाहिए बीज के लिए ताजा कंदों (गीली अवस्था में) को छायादार स्थान में रेत बिछाकर रखा जाता है

उपज एवं आमदनी

                उचित सस्य प्रबंधन तथा जलवायु के अनुसार कियोकंद से 200 से 250 क्विंटल ताजे कंद प्राप्त किये जा  सकते है। इन कंदों को सुखाने  पर 30 से 40 क्विंटल कंद का वजन रहता है एक पौधे से 20-25 प्रकन्द प्राप्त होते है इसके ताजे कंदों को 20 से 30 रूपये प्रति किलो की दर से बेचा जा सकता है सूखे कंदों को 80 से 100 रूपये के भाव में  बेचा जा सकता है आजकल बाजार में इसके पौधे 25 से 500 रूपये में इन्सुलिन प्लांट के नाम से नर्सरी में बेचे जा रहे है किसान भाई भी इनके कंदों या तैयार पौधों को नर्सरी या सीधे उपभोक्ताओं को बेच कर लाभ कमाया जा सकता है  
एक पौधे में पूरे जीवनकाल में 150-200 पत्तियां विकसित होती है पत्तियों को तने सहित काटकर छाया में सुखाकर नमीं रहित स्थान पर भंडारित कर लेना चाहिए इनकी पत्तियों या पाउडर को बेचकर अतिरिक्त लाभ अर्जित किया जा सकता है
इन्सुलिन प्लांट की खेती में औसतन 70 हजार से 85 हजार रूपये प्रति एकड़ लागत आती है प्रति एकड़ 80 क्विंटल प्रकन्द प्राप्त होने पर तथा इन्हें 30 रूपये प्रति किलो की दर से बेचने पर 2.4 लाख रूपये प्राप्त हो सकते है. इसके अलावा इसकी पत्तियां एकत्रित कर बेचने से अतिरिक्त लाभ प्राप्त होता है। इस पौधे की पत्तियों का पाउडर 500 से 800 रूपये प्रति किलो के भाव से ऑनलाइन बेचा जा रहा है इसकी हरी पत्ती एवं तने का जूस भी बाजार में बिकता है इस प्रकार इसकी खेती के साथ-साथ यदि इस पौधे का पाउडर, जूस, कंद का पाउडर तैयार करने का कार्य किया जाए तो  निश्चित ही इस व्यवसाय से आकर्षक लाभ कमाया जा सकता है  एक एकड़ जमीन में इसकी खेती तथा उपज के विधिवत प्रसंस्करण  एवं मार्केटिंग कर  10-15 लाख रूपये  प्रति वर्ष  लाभार्जन किया जा सकता है
इन्सुलिन प्लांट की खेती से सम्बंधित अधिक जानकारी एवं उचित दर पर इसकी पौध सामग्री प्राप्त करने  के लिए लेखक से ई-मेल profgstomar@gmail.com के माध्यम से संपर्क किया जा सकता है

नोट: 1. कृपया ध्यान रखिये लेखक द्वारा  इन्सुलिन पौधे के उपयोग एवं खेती की तकनीकी जानकारी दी गई है. किसी भी रोग की दवा के रूप में हम इस पौधे के सेवन की सलाह नहीं दे रहे है किसी योग्य चिकित्सक या आयुर्वेदाचार्य के पारमर्ष के उपरान्त ही इस पौधे या उत्पादों के सेवन की सलाह दी जाती है

2. इन्सुलिन पौधे की खेती की लागत एवं लाभ के आंकड़े जलवायु, सस्य प्रबंधन तथा बाजार की स्थिति  के अनुसार परिवर्तनीय रहते है लेखक ने इसकी खेती एक मार्गदर्शिका के रूप में प्रस्तुत की है

कृपया ध्यान देवें: इस आलेख के लेखक-ब्लॉगर की बगैर अनुमति के आलेख को अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर प्रकाशित न करें यदि आवश्यक हो तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पद एवं संस्था का नाम देना न भूलें

गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

चावल प्रसंस्करण की पुरानी पद्धति-ढेंकी के दिन फिर लौटे

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,

प्रोफेसर, कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीशगढ़(

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ढेंकी से धान कूटने की पुरातन पद्धति से तैयार पौष्टिक एवं स्वादिष्ट चावल

पुरानी पद्धति ढेंकी से चावल प्रसंस्करण फोटो साभार गूगल 

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छत्तीशगढ़ सहित पड़ौसी राज्य ओडिशा, झारखंड, मध्यप्रदेश के गांवों में ढेंकी (धान को कूटकर चावल निकालने का लकड़ी का यंत्र) से धान कुटने की पुरानी परंपरा रही हैं. पहले गांव के प्रत्येक घरों में ढेंकी हुआ करती थी. गांव में सुबह तीन बजे से ही गांव के घरों में ढंके की ढक-ढक आवाज सुनने को मिलती थी. इसकी आवाज सुनकर ही लोग उठ जाते थे और अपनी दैनिक काम काज में लग जाते थे. वहीं आधुनिकता व मशीनीकरण ने ढेंकी से धान कूटने कर परंपरा पर अंकुश लगा दिया था। अब प्रत्येक गांव में मात्र दो-चार ही ढेंकी रह गयी हैं. इस तरह ढेंकी आज प्रायः विलुप्त होने की कगार पर पहुंचने वाली ढेंकी पद्धति के दिन फिर गए है और बाजार में हाथ से कूटे चावल की मांग बढ़ने से अब अनेक ग्रामों में महिलाएं समूह बनाकर ढेंकी से केधान का प्रसंस्करण कर खाशा मुनाफा कमाने लगी हैं.

देशी पद्धति से चावल प्रसंस्करण  के काम में  प्रदेश में अनेक महिला स्वसहायता समूह  ढेंकी से धान कुटाई कर चावल निकाल रहे हैं. एक दिन में एक महिला 15 से 18 किलो धान का प्रसंस्करण कर लेती है। ढेंकी चलाने वाली महिलाओं को 10-12 रुपये प्रति किलो चावल के हिसाब से मेहताना मिल जाता है। महिलाए 30 रुपए से 35 रुपए किलो तक धान खरीदकर ढेंकी से तैयार चावल को 60 से 90 रुपये प्रति किलो के भाव से बेच रही है. इस कार्य में प्राप्त लाभार्जन सदस्यों में वितरित कर दिया जाता है। ग्रामीण महिला समूह के लिए ढेंकी पद्दति से धान प्रसंस्करण इकाई जीविकोपार्जन का सर्वोत्तम साधन सिध्द हो रही है।

छत्तीशगढ़ के लोकप्रिय मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल ने ग्रामीण क्षेत्रों में अपने भ्रमण के दौरान ढेंकी चावल का स्वाद लिया तथा प्रसंशा करते हुए अपने संबोधन में ढेंकी पद्दति से चावल के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिये गांव के हर घर में इस परंपरागत पद्धति को अपनाने पर जोर दिया, जिससे घर बैठे रोजगार के साथ-साथ लोगों को पोषक तत्वों से परिपूर्ण विशुद्ध चावल भी मिलेगा। ज्ञात हो कि आधुनिक मिलों द्वारा प्रसंस्कृत चावल की अपेक्षा देशी पद्दति से प्रसंस्कृत चावल पौष्टिक होने के साथ साथ स्वाद में भी उम्दा होता है। विटामिन ए के साथ ही अन्य पोषक तत्व भी  रहते है।

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

छत्तीसगढ़ के जंगलों में चिरोंजी-चार की बहार कहीं फींकी न पड़ जाये

                                                 डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

छत्तीसगढ़ के अंचल के जंगलों में इन दिनों महुआ और चिरोंजी की बहार देखने को मिल रही है. मौसम का मिजाज़ अच्छा होने के कारण चिरोंजी के वृक्ष फलों से लदे हुए है भोर के समय जंगल की सैर करते समय in पेड़ों के नीचे ग्रामीणों/वनवासी महुआ के फूल और चिरोंजी के फल एकत्रित करते रहते है. पता चला की महासमुंद जिले के ग्राम गोपालपुर की सरहद के जंगल में चार का बागान है उत्सुकताबस मै भ्रमण पर गया तो रायपुर-सरायपाली राष्ट्रिय राजमार्ग पर स्थित गोपालपुर गाँव में घुसते ही अद्भुत नजारा देखने को मिला. मैंने कभी चिरोंजी के पेड़ नही देखे थे सडक के किनारे जंगल के कुछ पेड़ो पर गाँव के छोटे-छोटे बच्चे पेड़ों पर चढ़कर कुछ तोड़ रहे थे मै गाडी रोककर नीचे उतरने लगा तो बच्चे भागने लगे एक  राहगीर से मैंने पूंछा कि ये कौनसा पेड़ है जिसके फल बच्चे तोड़ रहे है और खा भी रहे है राहगीर ने बताया साहब ये चार का पेड़ है, इसके फल गाँव के बच्चे-बड़े तोड़कर एकत्रित करते है खुद भी खाते है और बेच कर जेब खर्च के लिए कुछ पैसा भी कमा  लेते है फिर मैंने एक बच्चे से आग्रह किया की मेरे लिए भी कुछ फल तोड़ दो, मै खरीद लूँगा. उस बच्चे ने मुझे लगभग 250 ग्राम चार के सुन्दर ताजे फल दिए पहली बार देशी बेर के आकार के जामुनी रंग के चार के खट-मीठे स्वादिष्ट फल खाकर आनंद आ गया मैंने उस बच्चे को फलों के एवज में 60 रूपये दिए  तो वह बच्चा बेहद प्रशन्न हो गया ये यादगार लम्हे थे

चार-चिरोंजी वृक्ष परिचय

चिरौंजी (बुकानानिया लेन्जान) को चार, अचार, पियार, प्रियाल चारोली आदि नामों से जाना जाता है अंग्रेजी में इसे अल्मन्डेटे कहते है। यह एनाकार्डिएसी कुल का सदस्य है

चिरोंजी के पेड़ आमतौर पर शुष्क पर्णपाती जंगलों में पनपते है यह मध्यम आकार (10-25 मीटर ऊंचाई) का गोलाकार छत्र वाला वृक्ष है. इसके पत्ते लम्बे महुआ पेड़ के पत्तो से मिलते जुलते है. इसके पेड़ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र के जंगलों में पाए जाते है. छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में सैकड़ों एकड़ में चिरोंजी-चार के जंगल पाए जाते है. सरगुजा संभाग और महासमुंद जिले में भी चिरोंजी के पेड़ बहुतायत में पाए जाते है। चार के पेड़ पर गोल और काले कत्थई रंग का एक अंगूर से भी छोटा फल लगता है। यह फल पकने पर मीठा और स्वादिष्ट होता है ।  इसके फल के अन्दर गुठली को तोड़कर उसकी मींगी (चिरौंजी) निकाली जाती है, जिसे काजू, बादाम की भांति सूखे मेवे की तरह इस्तेमाल किया जाता है। चिरोंजी का उपयोग मिष्ठान, लस्सी अथवा अन्य खाद्य पदार्थो को स्वादिष्ट एवं लिज्जतदार बनाने के लिए किया जाता है।

चिरौंजी बीज से प्राप्त तेल का प्रयोग कॉस्मेटिक और चिकित्सीय उद्देश्य से किया जाता है. चिरौंजी के अतिरिक्त, इस पेड़ की जड़ों , फल , पत्तियां और गोंद का भारत में विभिन्न औषधीय प्रयोजनों के लिए उपयोग किया जाता है। चिरौंजी का उपयोग कई भारतीय मिठाई बनाने में एक सामग्री की तरह इस्तेमाल किया जाता है। पौष्टिक मेवा (चिरोंजी) के अलावा इसके पेड़ के तनों से गोंद प्राप्त होता है जिसका उपयोग वस्त्र उद्योग तथा औषधि आदि बनाने में किया जाता है इसके पत्तो से दौना-पत्तल तैयार किये जाते है

छत्तीसगढ़ की चिरोंजी की सर्वाधिक मांग

छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में सैकड़ों एकड़ में चिरोंजी-चार के जंगल पाए जाते है। सरगुजा संभाग और महासमुंद जिले में भी चिरोंजी के पेड़ बहुतायत में पाए जाते है। यहां के जंगलों की प्रमुख वनोपज-चिरोंजी अंचल के  आदिवासी-वनवासियों के जीवकोपार्जन का प्रमुख जरिया है। छत्तीसगढ़ के ग्रामवासी व ग्रामवासी पीढ़ी दर पीढ़ी चार-फल-बीज संग्रहण कर औने-पौने दामो में बिचौलियो अथवा स्थानीय व्यापारियों को विक्रय कर अपनी जीवीकोपार्जन करते आ रहे है। एक समय ऐसा था कि बस्तर में आदिवासी पहले नमक के बदले चिरौंजी देते थे। नमक के भाव में चिरौंजी का मोल था। अब स्थिति बदल गयी है।

जशपुर एवं बस्तर की चिरौंजी को उच्च गुणवत्ता की चिरोंजी माना जाता है, जिसकी राष्ट्रिय और अन्तराष्ट्रीय बाजार में अधिक मांग है। स्थानीय व्यापारी ग्रामीणों से 700 से 800 रूपये प्रति किलो की दर से खरीद कर ऊंचे दामों में बेचते है।

चिरौंजी के पेड़ों में जनवरी-फरवरी में फूल आते है तथा अप्रैल-मई में इसके फल पक जाते है. प्रारंभ में इसके फल हरे रंग के होते है जो पकने पर बैंगनी-नीले रंग में बदल जाते है । जैसे ही इसके फल हरे से बैंगनी-नीले  रंग के होने लगते है, तब इसकी फलों से लदी शाखाओं को एक लम्बे बांस में  हसियां बांधकर सावधानी से काटा जाता है. चिरौंजी निकालने के लिए इस फल को रात भर पानी में डालकर रखा जाता है इसके बाद हथेली व  जूट के बोरे की सहायता  फलों को रगड़कर बीज अलग कर लिया जाता है। इसके बाद इसे पानी से अच्छी तरह से धोकर 2-3 दिन धूप में सुखाया जाता है। अब सूखी हुई गुठिलियों को सावधानी से फोड़कर चिरोंजी के दाने निकाल लिए जाते है । चार की गुठली से चिरोंजी निकालने के प्लांट लग जाने से अब व्यापारी  ग्रामीणों से चार की गुठली ही खरीद लेते है, जिससे ग्रामीणों/वनवासियों को गुठली से दाना निकालने के झंझट से छुटकारा मिल गया है। अब  चार की गुठली 150-170 रूपये प्रति किलो के भाव से बिक जाती है।

चिरोंजी पेड़ों का संरक्षण एवं संवर्धन जरुरी

चिरोंजी के फल प्राप्त करने के लिए स्थानीय जन जाति के लोगों द्वारा पेड़ों की टहनियों को तोडने या पेड़ों को ही काट देने  तथा नवीन पौध रोपण के अभाव की वजह से इन बहुपयोगी बहुमूल्य पेड़ों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। पिछले कुछ दशकों से चिरौंजी की मांग शहरी बाजारों में बढ़ने की वजह से जंगलों से इसका बड़ी मात्रा में संग्रहण  और पेड़ों की गलत तरीके से छंटाई की वजह से जंगलों में चिरौंजी के पेड़ तेजी से कम होते जा रहे हैं। यही कारण है कि इंटरनेशनल यूनियन फ़ॉर कॉन्सर्वेशन ऑफ नेचर एंड नैचरल रिसोर्सेस (आईयूसीएन) ने इस बहुमूल्य पेड़ को  रेड लिस्ट में रखा है। अतः आज जरुरत है की प्रकृति की बहुमूल्य धरोहर चार के पेड़ों का अंधाधुंध दोहन रोका जाये तथा उचित तरीके से इनके फलों को तोड़ने/एकत्रित करने ग्रामवासी और वनवासियों को शिक्षित/प्रशिक्षित किया जाए। इसके अलावा नये क्षेत्रों तथा खेतों की मेड़ों पर चार के वृक्षों के रोपण को बढाया जाए। इससे ग्रामीणों और वनवासियों की आमदनी में इजाफा होगा तथा चार के वृक्षों के विस्तार से प्रकृति में हरियाली और प्रदेश में खुशहाली का वातावरण कायम रह सकता है।

सोमवार, 5 अप्रैल 2021

बहुमूल्य वन संपदा-कुल्लू वृक्ष (स्टरकूलिया युरेन्स): कतीरा गोंद का स्त्रोत-विलुप्ति के कगार पर

                                                           डॉ.गजेन्द्रसिंह तोमर, प्रोफ़ेसर

इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि

महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

चांदनी रात में चांदी जैसी आभा बिखेरते तथा जंगल में अलग से दिखाई देने वाले कुल्लू (Sterculia urens) की खुबसूरती देखकर अंग्रेजों ने इसे 'लेडी लेग' का नाम दिया था। तने के आकर्षक चमकीलेपन के चलते अंग्रेज इसकी तुलना गोरी मेम की टांगों से करते थे। चमकीले आकर्षक सफेद रंग के दिखने के कारण ये पेड़ रात में अलग से पहचाने जा सकते हैं। इस पेड़ की पत्तियां हथेली जैसी 25 सेमी. व्यास की होती है जो शाखाओं के अन्त में झुण्ड में लगती है। फरवरी-मार्च में  पतझड़ होने के उपरान्त इस पर हरापन लिए पीले रंग के छोटे आकार के फूल खिलते जिन पर रोयें पाए जाते हैं। इसके फल अंडाकार 7.5 सेमी लम्बे होते है जो पकने पर लाल रंग के हो जाते है। फलों का बाहरी आवरण लालिमायुक्त रोयें से ढका होता है। एक फल में 3-6  काले या कत्थई रंग के बीज होते है.  पत्तेविहीन होने के बाद चमकीले तने और डालियों के कारण  कुल्लू के पेड़ रात में अजीब दहशत महसूस होती हैं।  इसलिए  ग्रामीण क्षेत्रों में इसे  भूतहा या भूतिया पेड़ (घोस्ट ट्री) के नाम से भी जाना जाता है।  आदिवासी इसके बीज को भूनकर खाते है।


कुल्लू को कहीं-कहीं गुलू, कतीरा, कराया और अंग्रेजी में Indian tragacanth के नाम से जाना जाता हैकुल्लू एक मध्यम आकार (15-20 मीटर ऊंचाई) का वृक्ष है जिसका तना 60-100 सेमी. मोटा,सफेद एवं भूरे रंग का होता है इसकी छाल धूसर भूरे रंग की और  मुलायम होती है इसकी लकड़ी हल्के पीले या क्रीम रंग की होती है यह अत्यन्त सूखा सहन करने वाला  पेड़ है। भारत के 750 से 1200 मिमी. वार्षिक वर्षा वाले जंगलों में इसके पेड़ पहाड़ी, पथरीली चट्टानों में प्राकृतिक रूप से उगते है।

बहुमूल्य गोंद कतीरा देने वाला वृक्ष है कुल्लू

कुल्लू एक ओद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण  वृक्ष है, क्योंकि अंतराष्ट्रीय बाजार में सबसे अधिक मांग तथा सर्वाधिक निर्यात की जाने वालीं गोंदों में से एक  गम कराया (गोंद) है, जो गोंद कतीरा के नाम से विश्व विख्यात है. भारत में विगत 5000 वर्ष से परंपरागत औषधि के रूप में इसका प्रयोग हो रहा है  कुल्लू का गोंद शक्तिवर्धक और औषधीय गुणों वाला होता है। विदेशों में इसकी कीमत काफी होती है। औषधीय एवं खाध्य के रूप में बेहद उपयोगी गोंद कतीरा या कराया गोंद ‘कुल्लू वृक्ष’ से प्राप्त किया जाता है कुल्लू गोंद का प्रयोग खाध्य पदार्थों एवं औषधियां आदि तैयार करने में किया जाता है स्वादिष्ट मिठाई, आइसक्रीम, चुइगम, सॉस, दवाई के केप्सूल जोड़ने, टूथपेस्ट बनाने में एवं श्रृंगार सामग्री बनाने में इसका इस्तेमाल किया जाता है  

भारत के गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र के कोकड़ के जंगलों में कुल्लू के पेड़ पाए जाते है इस वृक्ष में ग्रीष्म ऋतू (अप्रैल-जून) में सर्वाधिक गोंद पैदा होता हैभारत में लगभग 4000 टन कराया गोंद का उत्पादन होता है असली कतीरा गोंद बाजार में  ट्रेड नम्बर E-416 से बेचा जा रहा है

गोंद के आलावा इसकी छाल से उपयोगी रेशा (fiber) प्राप्त होता है जिसे कपड़ा एवं रस्सी बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है कुल्लू की लकड़ी से फर्नीचर, शोभाकारी वस्तुएं, खेती के औजार आदि बनाये जा सकते है

कहीं लुप्त न हो जाएँ बहुपयोगी वृक्ष कुल्लू

वर्तमान में कुल्लू का विदोहन अधिक मात्रा में होने एवं इनसे गोंद प्राप्त करने के लिए अनियंत्रित आकार एवं अधिक गहराई के खांचे बनाने या शाखाओं के काटने के कारण इन पेड़ों को भारी क्षति हो रहीं है यहाँ तक कई जंगलों में कुल्लू के पेड़ नजर ही नहीं आते है अर्थात लुप्तप्राय होते जा रहे है कुल्लू के कुछ पेड़ अब भी बचे हैं और जल्दी ही इन्हें बचाने की कोशिश नहीं की गई तो भारत का यह  दुर्लभ औषधीय वृक्ष समाप्त हो सकते हैं। कराया गोंद भारत के जंगलों की प्रमुख वनोपज है और जंगल में बसने वाले आदिवासियों की रोजी-रोटी का सहारा है. बेतहासा जंगल कटाई एवं लगातार विदोहन के कारण नष्ट होते जा रहे कुल्लू के पेड़ों की अवैध कटाई पर तत्काल रोक लगाने के साथ-साथ जंगलों में इनके प्रतिरोपण की आव7 श्यकता है यही नहीं कृषि क्षेत्र में भी किसानों को कुल्लू वृक्षों के रोपण के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए खेतों की मेड़ों पर कुल्लू के वृक्ष लगाने से किसानों को गोंद उत्पादन के माध्यम से अतिरिक्त आमदनी प्राप्त हो सकती है। इसके बीज से पौध तैयार कर व्यवसायिक खेती की जा सकती है। रोपाई के बाद लगभग 6-7 वर्ष बाद पेड़ों से गोंद प्राप्त होने लगता है। वैज्ञानिक तरीके से गोंद निकालने पर इनसे 20-30 वर्ष तक अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है

मंगलवार, 23 मार्च 2021

नकदी फसल: हॉपशूट्स-खेती से धन वर्षा

                                                                    डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर(सस्यविज्ञान), इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय.

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कांपा,महासमुंद (छत्तीसगढ़)

      हॉपशूट्स (हुमुलस लुपूलस) मोरैसी कुल का एक बहुवर्षी आरोही पौधा है जिसे आमतौर पर हॉपशूट्स के नाम से जाना जाता है। इस पौधे की टहनियां कुछ हद तक शतावर (एस्पैरेगस) पौधे से मिलती जुलती है। उचित नमीं एवं सूर्य प्रकाश मिलने पर इसका पौधा तेजी से बढ़ता है. प्रारंभ में इसकी शाखाएं बैंगनी रंग की होती है, जो बाद में हरे रंग की हो जाती है. इसकी बैंगनी मुलायम टहनियों या तनों को सब्जी के रूप में पकाकर या सलाद के रूप में खाया जाता है। कुछ जगहों पर इसका अचार बनाकर भी खाया जाता है। स्वाद में इसकी कच्ची टहनियां हल्की तीखी होती है।इसके फूलों को कोन कहते है। हॉपशूट्स के तने व फल-फूल (कोंस)  का  इस्तेमाल विभिन्न प्रकार के उत्पाद तैयार करने में किया जाता है। हॉपशूट्स का प्रयोग मुख्यतः वियर व शराब को सुगंधित व स्वादिष्ट बनाने के लिये किया जाता है। इसलिए इसकी अंतराष्ट्रीय मांग अधिक होने के कारण इसकी खेती काफी लाभदायक होती है।

हॉपशूट्स लता के शंकु (कोंस) फोटो साभार गूगल 

हॉपशूट्स के विविध उपयोग

हॉप-शूट के इस्तेमाल की शुरुआत 11वीं शताब्दी में बियर में कडवाहट लाने के लिए की गई थी। इसके बाद भोजन में फ्लेवर के तौर पर इसका प्रचलन बढ़ा और फिर हर्बल दवा तैयार करने में इस्तेमाल किया जाने लगा बाद में इसकी व्यवसायिक खेती होने पर इसके मुलायम तनों का सब्जी के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। व्यवसायिक रूप से हॉपशूट्स की खेती इसके परिपक्व फूलों (हॉप कोंस) के लिए की जाती है। इसके फूल को हॉप-शंकु या स्ट्रोबाइल कहा जाता है, जिसका उपयोग बीयर बनाने में स्थिरता एजेंट के रूप में किया जाता है।  यह न सिर्फ बियर का स्वाद बढ़ाता है, बल्कि विशेष प्रकार का रंग व महक भी देता है। इससे बियर काफी समय तक खराब भी नहीं होती। बाकी मुलायम टहनियों का उपयोग सब्जी, सलाद और अचार के अलावा तना,फूल और फलों का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार की औषधीय निर्माण में किया जाता है। जड़ी-बूटी के रूप में हॉप-शूट का उपयोग यूरोपीय देशों में भी लोकप्रिय है, जहां इसका उपयोग त्वचा को चमकदार और युवा रखने के लिए किया जाता है क्योंकि सब्जी भी एंटीऑक्सिडेंट का एक समृद्ध स्रोत है। ह्यूमलोन और ल्यूपुलोन नामक एसिड पाए जाते है जो मानव शरीर में कैंसर कोशिकाओं को मारने में प्रभावी समझे जाते है। इससे निर्मित सब्जी पाचन तंत्र में सुधार करती है, अवसाद, चिंता ग्रस्त लोगों को लाभकारी होती है। टीबी रोग के उपचार के साथ ही यह कैंसर रोग के निदान में भी उपयोगी पाई गई है। कैंसर की कोशिकाओं को फैलने से रोकने में हॉप शूट्स मदद करती है। हॉप्स  प्रमुख हर्बल एंटीबायोटिक और सीडेटिव औषधि होने के अलावा, मीनोपॉज़ से जुड़ी समस्याओं, इनसॉम्निया यानी नींद न आने की शिकायतें दूर करने में भी यह मददगार है । हॉप के मादा पुष्पक्रम में अनेक रसायन जैसे मुलायम रेजिन (अल्फ़ा और बीटा अम्ल), सुगंध तेल तथा जैनिन पाए जाते है जिन्हें समस्त संसार में आधारभूत अंश के रूप में बियर निर्माण में उपयोग किया जाता है।

इन देशों में की जाती है हॉप की खेती

सबसे पहले हॉप्स की खेती उत्तरी जर्मनी में शुरू हुई. इसके बाद इसकी खूबियों को देखकर विश्व के अनेक देशों में इसकी व्यवसायिक खेती की जाने लगी इंग्लैण्ड में तो बियर तैयार करने में हॉप्स के इस्तेमाल को अनिवार्य कर दिया गया जिससे उसका स्वाद बढ़ जाए वर्तमान में व्यापारिक रूप से हॉप्स की खेती लगभग 20 देशों जैसे अर्जेंटीना,आस्ट्रेलिया,बैल्जियम, कनाडा, इंग्लैण्ड,फ़्रांस, जर्मनी, जापान,कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन,सयुंक्त राज्य अमेरिका आदि में की जा रही है। ये देश हॉप्स का विभिन्न देशों को निर्यात भी करते है। एशिया में भारत के अलावा केवल चीन और जापान में ही हॉप की खेती की जा रही है कुल अंतराष्ट्रीय मांग का 70 फीसदी हिस्सा केवल जर्मनी तथा अमेरिका ही पूरा करते है। भारत के कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश में सीमित क्षेत्र में हॉप्स की खेती की जा रही है

भारत में हॉप्स की खेती की संभावनाएं

भारत में हॉप्स की आवश्यकता निरंतर बढती जा रही है क्योंकि यहां मदिरा (शराब) उद्योग का विकास तेजी से हो रहा है। विदेशों से हॉप्स आयात करने पर शराब उत्पादन की लागत बढ़ जाती है। इसलिए हॉप्स की खेती की भारत में व्यापक संभानाएं प्रतीत होती है। भारत के कश्मीर में महाराजा रणवीर सिंह (1858-85) के समय लगाया गया तथा हिमाचल प्रदेश के चंबा में भी  उगाया गया। इसके बाद 19वी शताब्दी में श्रीनगर में हॉप्स की व्यापारिक खेती की गई। इसके बाद यूरोप और अमेरिका से उत्तम गुणों वाली हॉप्स काफी सस्ती और आसानी से मिलने के कारण इसकी खेती बंद हो गई। इसके बाद 1960 में इसकी खेती हिमाचल प्रदेश में पुनः प्रारंभ की गई। भारतीय बियर उद्योग की हॉप्स की कुल वार्षिक खपत 500 टन के करीब है भारत सरकार यदि हॉप्स के आयात शुल्क को बढ़ा देवें तो निश्चित ही  भारत में इसकी खेती को बढ़ावा मिल सकता है देश में हॉप्स की खेती को प्रोत्साहित करने से  भारतीय मदिरा उद्योग को सस्ते दर पर हॉप्स उपलब्ध होगी और देश के किसानों की आमदनी में आशातीत बढ़ोत्तरी भी होगी

सब्जी के लिए उपयुक्त हॉपशूट्स की टहनियां फोटो साभार गूगल 

खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

हॉप्स का पौधा प्रकाश संवेदनशील होता है और इसकी व्यापारिक खेती केवल उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की शर्द-गर्म जलवायु में सफलता पूर्वक की जा सकती है हॉपशूट्स की उचित बढ़वार एवं पुष्पन  के लिए  गर्मियों में औसतन तापमान 16  से 20  डिग्री सेल्सियस उपयुक्त पाया गया है पानी की समुचित व्यवस्था होने पर अधिक तापमान से पौधे की बढ़ौतरी पर कम असर पड़ता हैइसके शंकु विकसित होते समय अधिक वर्षा हानिकारक होती है सामान्यतौर पर भारत के कश्मीर और हिमाचल प्रदेश की जलवायु हॉप्स की खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है परन्तु नियंत्रित वातावरण में इसकी खेती अमूमन सभी स्थानों में की जा सकती है। सही बाजार भाव एवं उपयुक्त जलवायु देखकर ही हॉप्स की व्यवसायिक खेती करने की सलाह दी जाती है 

भूमि का चुनाव 

हॉप्स की खेती के लिए उपजाऊ भुरभुरी दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है मृदा का पी एच मान 6 से 8 के मध्य होना चाहिए.इसकी खेती नदियों के किनारे जहां पौधे की जड़े जल स्तर तक पहुँच सकें सफलता से की जा सकती है, परन्तु मिट्टी में पानी खड़ा नहीं होना चाहिए

उन्नत किस्में

हॉप्स की व्यवसायिक खेती की लिए मुख्यतया लेट क्लस्टर प्रजाति सबसे उपयुक्त मानी जाती है इसके अलावा  गोल्डन क्लस्टर, हाइब्रिड-2 व हरमुख नामक प्रजातियाँ भी उपयुक्त रहती है

रोपण का समय

हॉप्स के पौधों की रोपाई हिमपात से पूर्व दिसंबर और फिर मार्च-अप्रैल में की जानी चाहिए आम तौर पौध तैयार करने हेतु  फरबरी-मार्च में इसकी कलमों को पॉलिथीन बैग या उचित क्यारियों में लगाया जाता है

पौधे तैयार करना (प्रवर्धन)

        हॉप्स के पौधों का प्रसारण बीज तथा वानस्पतिक दोनों विधियों से किया जा सकता है परन्तु बीज से तैयार होने वाले पौधों में पुष्पन देरी से होता है तथा फूल कम गुणकारी होते है अतः व्यवसायिक खेती के लिए इसे वानस्पतिक विधि (कलम और अंत: भू-स्तरी-राइजोम) से पौध तैयार कर अथवा सीधे तैयार खेत में रोपण किया जा सकता है कलम या राइजोम  कीट-रोग मुक्त तथा 15-20 से.मी. लम्बे होना चाहिए जिन पर 2-3 आँखे (बड) होना आवश्यक है 

रोपण विधि

हॉप्स की पौध या कलमों को 1.5 x .5 मीटर (कतार एवं पौध) की दूरी पर 10-15 से.मी. की गहराई पर लगाना चाहिए कलम लगाते समय ध्यान रखें कि कलमों की आँखे (बड) भूमि में ऊपर की तरफ रहें. प्रत्येक पौधे से 4 लताएं निकलती हैहॉप्स की  स्वस्थ और मजबूत बेलों को शीघ्र प्रशिक्षित करना चाहिए नहीं तो इसकी बेलें झुक जाती है बेल वाली फसलों की भांति हॉप्स की बेलों को भी छतरी (अम्ब्रेला) विधि से प्रशिक्षित करना चाहिए. इसकी बेले 5-6 मीटर लम्बी बढती है जो ऊपर जाकर छाते की तरह फ़ैल जाती है

खाद और उर्वरक

हॉप्स की सफल खेती  के लिए खाद और उर्वरक की संतुलित मात्रा देना आवश्यक है, ताकि पौधों का विकास भली भांति हो सकें. इसके लिए गोबर की खाद 10-12 टन, नाईट्रोजन 100 किलोग्राम, फॉस्फोरस 100  किलोग्राम तथा 70 किलोग्राम पोटाश  प्रति हेक्टेयर देनी चाहिएगोबर की खाद व अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा पौध रोपण के समय मिट्टी में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए नाईट्रोजन उर्वरक को दो बार में देना लाभकारी होता है नाइट्रोजन की आधी मात्रा को पौधों के चारों तरफ 90 सेंटीमीटर के घेरे में मार्च के अन्त या अप्रैल के शुरू में देना चाहिए और शेष आधी मात्रा को जून माह में प्रयोग करना चाहिए

सिंचाई एवं जल निकास

हॉप्स के पौधों को आवश्यकतानुसार ड्रिप विधि से सिंचाई करते रहना चाहिए वर्षा होने पर खेत से जल निकासी की व्यवस्था करना आवश्यक होता है खेत में पानी भरा नहीं रहना चाहिए. हॉप्स कोन पकते समय सिंचाई बंद कर देना चाहिए

निराई-गुड़ाई एवं छंटाई

हॉप्स में वर्ष भर 4-5 बार निराई-गुड़ाई की जाती है निराई गुड़ाई के बाद पौधों पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए। पौधों पर मिट्टी चढ़ाने एवं उन्हें सहारा देने से तेज हवा पानी में पौधे गिरने से बाख जाते है। पौधों की उचित वृद्धि तथा फूलों के विकास के लिए कटाई-छंटाई करना आवश्यक रहता है यह कार्य बसंत ऋतू के आरम्भ में किया जाता है तेज धार वाले चाकू या शिकेटियर से अगल-बगल की अनचाही शाखाओं को काट देना चाहिए वर्ष में 2-3 बार छ्टाई करना चाहिए इनकी कटी हुई  मुलायम शाखाओं को सब्जी के उद्देश्य में बाजार में बेचने से अच्छी कीमत मिल जाती है। इसके अलावा in टहनियों से नई पौध भी तैयार की जा सकती है

शंकुओं की तुड़ाई

हॉप्स में फूल जून में आते है और मध्य जुलाई में मादा फूल (बर) बनते हैं.परागण के बाद बर शीघ्र बढ़ता है जिससे  शंकु (हॉप कोंस) तैयार होते हैंहॉप्स की तुड़ाई अगस्त के अन्त से सितम्बर के अन्त तक समाप्त की जाती है हॉप्स के शंकुओं का रंग हल्का पीला होने लगे तथा ये आसानी से टूटने लगे (लुपुलिन कोशिकाओं में पूर्ण रूप से रेजिन भर जाए तथा सुंगध आने लगे) तब इनकी तुड़ाई कर लेना चाहिएकश्मीर में फूल अगस्त के अंतिम सप्ताह से लेकर सितम्बर अन्त तक तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैगर्म स्थानों पर इसके फूल (कोंस) अगस्त में भी कटाई के लिए तैयार हो जाते है

हॉप्स की पैदावार

उचित जलवायु तथा सही सस्य प्रबंधन करने पर तीन वर्ष के हॉप्स की फसल से 3 से 4 टन प्रति हेक्टेयर शंकुओं (कोंस) की उपज प्राप्त हो जाती है कटाई के समय प्राप्त ताजे और सूखे शंकुओं के बीच 4:1 का अनुपात होता है। सब्जी के लिए हॉप्स की मुलायम टहनियों को तोड़कर बाजार में बेचकर अच्चा मुनाफा अर्जित किया जा सकता है

हॉप्स शंकुओं को सुखाना जरुरी

हॉप्स शंकुओं की तुड़ाई के बाद इन्हें सुखाना जरुरी होता है क्योंकि अधिक नमीं युक्त कोंस शीघ्र खराब होने लगते है कोंस को तोड़ते समय इनमें 75  से 85 प्रतिशत तक नमीं रहती है इन्हें 6 प्रतिशत नमीं स्तर तक सुखाया जाता है सामान्य तौर पर हॉप्स शंकुओं को सुखाने के लिए 42 से 45 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान 10 घण्टों के लिए आवश्यक होता है ध्यान यह रखना चाहिए कि कोई भी शंकु न टूटे सूखने के बाद कोंस को पॉलिथीन के थैलों में पैक कर उचित स्थान पर भंडारित कर लिए जाता है अथवा बाजार में बेच दिया जाता है

नोट: कृपया ध्यान देवें- उपयुक्त  जलवायु होने तथा हॉप्स की खेती की तकनीकी जानकारी होने, उत्पाद की बाजार में सुनिश्चित मांग  तथा  निवेश की क्षमता अनुसार ही खेती प्रारंभ करें. इस आलेख के लेखक-ब्लॉगर की बगैर अनुमति के अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इन्टरनेट पर यह आलेख प्रकाशित न करें. यदि आवश्यक हो तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पद एवं संस्था का नाम देना न भूलें