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रविवार, 4 दिसंबर 2022

सुख-शांति एवं शौभाग्य के लिए बेसकीमती वृक्ष -सफेद चन्दन: एक पेड़ से कमायें एक लाख

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्म में अपनी पैठ जमाये हुए चन्दन के वृक्ष  विश्व में  न केवल सबसे अधिक प्रसिद्ध है, बल्कि भारत के सफेद चन्दन के उत्पादों की मांग निरंतर बढती जा रही है रामायण एवं महाभारत काल से ही भारत में सफेद चन्दन का उपयोग धार्मिक कार्यो, सौन्दर्य प्रसाधन एवं विभिन्न चिकित्सा पद्धति में रोगों के उपचार में किया जा रहा है श्रीराम चरित मानस में भी तुलसी दास ने चन्दन का जिक्र करते हुए लिखा है: 

चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर. तुलसीदास चन्दन घिसे तिलक करे रघुवीर।। 

स्वेत चन्दन को श्रीगंध, चंदनम, भारतीय चन्दन अंग्रेजी में इंडियन सेंडलवुड तथा वनस्पति शास्त्र में सैंटलम एल्बम कहा जाता है जो सेंटेलेसी कुल का बहुवर्षीय 10 मीटर तक ऊंचा बढ़ने वाला सदाबहार पेड़ है इसके पत्ते अंडाकार होते है जिनका अग्र भाग नुकीला होता है वृक्ष की टहनियां सरल एवं नीचे की ओर झुकी हुई होती हैं। इसकी छाल लाल भूरी या काली भूरी होती है ।  इसमें छोटे-छोटे पीले-भूरे फूल लगते है जो बाद में  बैंगनी रंग के हो जाते है सफेद चन्दन के फल  हरे गोलाकार होते है, जो पकने पर जामुनी-काले रंग के हो जाते है फल गूदेदार होते है जिनमें एक गुठली (बीज) पाई जाती है. सामान्य रूप से इसके पेड़ में पुष्पन  दो बार मार्च-मई तथा सितम्बर-दिसम्बर  में होता है।

चन्दन  के गुणों के बारे में हमारे ग्रंथों में लिखा है ‘चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग’ इसका तात्पर्य ये बिलकुल नहीं कि चन्दन के पेड़ों से साप लिपटे रहते है  चन्दन वृक्ष की सुगंध एवं शीतलता के गुणों के कारण विषधारी सांप भी इसमें लिपटे रहे तो भी इसके वृक्षों पर सांप के विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है. चन्दन हमारे मन मस्तिक को शान्ति एवं स्थिरता प्रदान करने वाला वृक्ष है

चन्दन का प्रयोग सनातन परंपरा में माथे पर तिलक लगाने से लेकर पूजा-हवन  सामग्री, माला एवं घरेलू साज-सज्जा वाली वस्तुए तैयार करने में किया जाता है. चन्दन के सुगंधित तेल का उपयोग उच्च गुणवत्ता युक्त  इत्र (परफ्यूम) से लेकर अगरबत्ती, साबुन तथा  विभिन्न सौंदर्य प्रशाधन  सामग्री के निर्माण, विभिन्न खाद्य सामग्री को सुवासित करने  के अलावा आयुर्वेद, यूनानी, होम्योपैथी आधुनिक चिकित्सा पद्धति में इसकी लकड़ी का पाउडर एवं  तेल का प्रयोग बहुतायत में किया जाता है।

चन्दन का के तेल एवं पाउडर का इस्तेमाल श्वसन रोग (शर्दी, अस्थमा,गले कि खरास), लिवर रोग आदि के उपचार में किया जाता है। इसके तेल में  विद्यमान अल्फ़ा बीटा सैंटेलाल (α-Santalol,β-Santalol) का प्रयोग कैंसर के उपचार में किया जाता है।

सफेद चन्दन को रॉयल ट्री का दर्जा  

भारतीय चन्दन के महत्व एवं गुणवत्ता से प्रभावित मैसूर राज्य के मुग़ल शासक टीपू सुलतान ने  वर्ष 1792 में चंदन को रॉयल ट्री घोषित  किया था और इस फरमान को  भारत सरकार ने आज तक जारी रखते हुए देश में चन्दन के पेड़ों पर अपना आधिपत्य बनाये रखा है  चन्दन की बड़े पैमाने अवैध कटाई एवं तस्करी के कारण चन्दन वन नष्ट होते जा रहे है और इनका  रोपण नहीं के बराबर हो रहा है इसलिए चन्दन लकड़ी की देश में  भारी कमी हो गयी अब देश की  कुछ राज्य सरकारे चन्दन की खेती को  प्रोत्साहित करने लगी है, परन्तु चन्दन वृक्षों की कटाई एवं विक्रय  सरकार के वन विभाग की देखरेख में ही  किया जा रहा है

चन्दन की खेती: उभरता लाभकारी व्यवसाय  


बेसकीमती एवं बहुपयोगी भारतीय चन्दन के पेड़ों के अत्यधिक दोहन एवं तस्करी  के कारण  इसके पेड़ों की संख्या लगातार घटती जा रही है, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय तथा अंतरास्ट्रीय बाजार में  चन्दन की लकड़ी एवं इसके उत्पादों की कीमते भी बढती जा रही है। इसलिए आज चन्दन कि खेती सबसे लाभदायक कृषि व्यवसाय सिद्ध हो रही है विश्वसनीय संसथान अथवा भरोसेमंद स्त्रोत से सफेद चन्दन के बीज लेकर उचित स्थान पर फ़रवर-मार्च में  नर्सरी तैयार कर जून-जुलाई में  मुख्य खेत में पौध रोपण किया जा सकता है

चंदन के 30 सेमी ऊंचे पौधों को 50 वर्ग सेमी के गड्डे में कतार से कतार 3.5 मीटर एवं पौधे से पौधे 3.5  मीटर की दूरी पर  लगाया जाना चाहिए। चन्दन का पेड़  अर्द्ध परिजीवी प्रकृति के होते है अर्थात इसके पौधे दूसरे पौधों की जड़ों से पोषक तत्व ग्रहण कर बढ़ते है। इसलिए  आश्रित पौधों (Host) के रूप में अरहर, मीठी नीम, पपीता, अनार, अमरुद,सहजन आदि की  अंतरवर्ती  फसलों की खेती से चन्दन के वृक्षों की वृद्धि एवं विकास के साथ-साथ अतिरिक्त मुनाफा भी अर्जित  किया जा सकताहै। प्रारंभिक अवस्था आर्थात पौधशाला  में  चंदन के बीजों के साथ छुई-मुई (Mimosa pudica) के बीज मिलाकर बोने से पौध वृद्धि अच्छी होती है। एक एकड़ (0.4 हेक्टेयर)  के खेत में  326 चन्दन के स्वस्थ पौधों के साथ 200 आश्रित पौधे  अंतरवर्ती फसल के रूप में लगाए जा सकते है।

 पौध रोपण के 7-8 वर्ष बाद चन्दन के पेड़ में 1 किग्रा प्रति वर्ष की दर से हार्ट वुड विकसित होने लगती है। चन्दन के पेड़ को परिपक्व होने में 14-15 वर्ष का समय लगता है। सामान्य परिस्थिति एवं उत्तम प्रबंधन से   एक पेड़ से 15 वर्ष में 10-12 किग्रा हार्टवुड प्राप्त की जा सकती है। इसकी लकड़ी का बाजार भाव 10,000 से 12,000 रूपये प्रति किलो के आस पास रहता है, जिसकी अंतराष्ट्रीय बाजार में 25-30 हजार रूपये कीमत होती है जबकि चन्दन के तेल की कीमत 150,000 रूपये प्रति लीटर से अधिक होती है. व्यवसायिक सस्तर पर चन्दन की खेती की सूचना राज्य के वन विभाग को सूचित कर पेड़ों का पंजीयन करा लेना चाहिए। वन विभाग के मार्गदर्शन में चन्दन के पेड़ों  की कटाई एवं विक्रय किया जा सकता है।

नोट :कृपया  लेखक/ब्लोगर की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्य पत्र-पत्रिकाओं अथवा इंटरनेट पर प्रकाशित न किया जाए. यदि इसे प्रकाशित करना ही है तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पता तथा ब्लॉग का नाम अवश्य प्रेषित करें

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

काँटों में छुपा है सेहत का राज-नाशपाती कैक्टस-21वी सदी का पौष्टिक आहार

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

यह जानकार बहुत से लोगों को हैरानी हो सकती है कि कांटों से भरा कैक्टस भी खाया जा सकता है प्रकृति में विद्यमान ऐसे तमाम पेड़-पौधे है जिनके गुणों से अनभिज्ञ होने की वजह से हम उनका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे है नागफनी की एक प्रजाति  नाशपाती कैक्टस दुनियां की सबसे महत्वपूर्ण एवं आर्थिक रूप से उपयोगी प्रजाति है। 

अमेरिकी मूल के नाशपाती कैक्टस  को  नागफनी, कांटेदार नाशपाती, कैक्टस नाशपातीनोपल फ्रूट,  भारतीय अंजीर  आदि, अंग्रेजी में प्रिकली पियर केक्टस, इंडियन फिग ओपुन्टिया  तथा वनस्पति विज्ञान में ओपंटिया फिकस इंडिका  के नाम से जाना जाता है रेगिस्तान जैसी अत्यंत गर्म जलवायु में जब सब फसलें सूख जाती है, उस समय यदि कोई फसल बचती है, तो वह नागफनी ही है इसके पौधे 3-5 मीटर ऊंचे बहुशाखित नुकीले कांटेयुक्त होते है। इसके कांटो में एंटीसेप्टिक गुण पाए जाने के कारण पहले लोग बच्चो के कान छेदने के लिए इसके कांटे का इस्तेमाल किया करते थे।


कैक्टस की ज्यादातर प्रजातियों में पत्ते नहीं होते है नाग के फन  अथवा अंडाकार आकृति  की हरे रंग  की रचना होती है, जो  एक प्रकार का परिवर्तित तना (स्टेम) है, जिसे हत्था (पैड) कहते हैइनमें  छोटे-छोटे पैने कांटे पाए जाते है नाशपाती कैक्टस में पीले-लाल रंग के फूल आते है  इसके फल  लाल, बैंगनी, पीले, नारंगी एवं हरे रंग वाले  तथा  बारीक कांटे युक्त होते है, जो  आकार में नाशपाती समान होते है, इसलिए इस पौधे को  प्रिकली पियर कहा जाता है   जलवायु एवं प्रजाति के अनुसार कैक्टस नाशपाती में पुष्पन एवं फलन बसंत एवं ग्रीष्मकाल  में होता है

नाशपाती कैक्टस के नए  पैड  को नोपल एवं फलों को टुना कहा जाता है.इसके  पैड (परिवर्तित तने)को सब्जी, सलाद एवं अचार के रूप में खाया जाता हैइसके तने अर्थात पैड एवं फलों का खाने के लिए उपयोग करने से पहले इनमें उपस्थित छोटे-छोटे काँटों (हाथों में दस्ताने पहनकर) को सावधानी पूर्वक निकालकर अथवा चाकू से छीलकर अलग कर देना चाहिए

कैक्टस नाशपाती के फल में 43-57 % गुदा (पल्प) होता है जिसमें 84-90 % जल, 0.2-1.6 % प्रोटीन, 0.09-0.7 % वसा,0.02-3.1 % फाइबर, 10-17% शक्कर एवं 1-41 मिग्रा विटामिन सी के अलावा  खनिज

लवण (कैल्शियम, मैग्नेशियम, आयरन, सोडियम, पोटैशियम एवं फॉस्फोरस) तथा  विभिन्न प्रकार के अमीनो अम्ल प्रचुर मात्रा में पाए जाते है इसके अलावा इसके फल में बीटालेन रंजक पाया जाता है, जो खाध्य पदार्थ को प्राकृतिक रंग प्रदान करने में इस्तेमाल किया जाता है इसके हत्थे (पैड) में पेक्टिन, म्युसिलेज, खनिज एवं विटामिन्स भरपूर मात्रा में पाए जाते है

इसके फल अथवा जूस के सेवन से थैलेसीमिया, मधुमेह  जैसे रोगों को नियंत्रित करने में मदद मिलती है।  इसके सेवन पाचन तंत्र मजबूत होता है। इसके फल  मोटापा और कोलेस्ट्रॉल कम करने में सहायक माने जाते है।  इसके अलावा इसे एनीमिया और रक्त संबंधी बीमारियों के उपचार में भी काफी कारगर माना जाता है। कैक्टस नाशपाती की आजकल काँटा रहित किस्में भी विकसित हो गयी है जिन्हें  फल, सब्जी एवं पशुओं के चारे के लिए व्यवसायिक रूप से आसानी से उगाया जा सकता है।

    जंगली रूप से उगने  वाले नागफनी अर्थात कैक्टस  300 प्रजातियां  पहचानी गई है, जिनमें से 10-12 प्रजातियों का इस्तेमाल फल, सब्जी, औषधि एवं चारे के रूप में किया जा रहा है नागफनी को शोभाकारी झाडी अथवा बाग़ बगीचों में घेरेबंदी के लिए लगाया जाता है। लेकिन तमाम विकसित एवं विकासशील देशों में कैक्टस पियर का उपयोग पौष्टिक वनस्पति एवं फल के रूप में किया जा रहा है इसके अलावा इससे जूस, पाउडर, वाइन, एथेनोल आदि उत्पाद तैयार किये जा रहे है, जिनकी अन्तराष्ट्रीय बाजार में काफी मांग है  कैक्टस नाशपाती की खेती विकसित एवं विकासशील देशों में सफलता पूर्वक कि जा रही है। भारत के गर्म क्षेत्रों में कैक्टस नाशपाती की देशी किस्में नैसर्गिक रूप से उगती है परन्तु इसकी व्यवसायिक खेती अभी-अभी शुरू हुई है। नाशपाती कैक्टस को विषम परिस्थियों जैसे अत्यंत गर्म, ठंड, वर्षा, सूखा के साथ-साथ गैर उपजाऊ कंकरीली-पथरीली जमीनों में सुगमता से उगाया जा सकता है। इस पौधे को इसके वानस्पतिक भागों से उगाया जा सकता है। व्यवसायिक रूप से  कैक्टस नाशपाती की  आधुनिक किस्मों की खेती से 10-12 मेट्रिक टन फल एवं 50-100 मेट्रिक टन चारा प्रति हेक्टेयरप्रति वर्ष उत्पादित किया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के दौर में खाद्य एवं पोषण सुरक्षा के लिए कृषि प्रणाली में विविधता लाना आवश्यक है. इसके लिए प्रकृति में विद्यमान उपयोगी पेड़ पौधों को पहचान कर उनकी खेती एवं कटाई उपरान्त तकनीक अर्थात प्रसंस्करण पर ध्यान देने से हम कृषि प्रणाली एवं पौष्टिक आहार श्रंखला को मजबूती प्रदान कर सकते है। कैक्टस नाशपाती भविष्य के लिए एक उपयोगी खाद्य सामग्री साबित हो सकती है।
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गुरुवार, 24 नवंबर 2022

सेहत के लिए महागुणकारी अलसी: आयुर्वेद में इसे देव खाद्य एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने माना सुपरफ़ूड

                  अलसी: खेती, प्रसंस्करण एवं मूल्य संवर्धन- भविष्य का एक अभिनव और लाभप्रद कृषि स्टार्टअप 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर, प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)

इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, कृषि महाविद्यालय, महासमुंद(छत्तीसगढ़)

 

कभी जिस अलसी तेल का उपयोग गरीबों के खाने एवं झोपड़ियों में उजाले के लिए किया जाता था, उस अलसी के दानों को स्वास्थ के लिए चमत्कारी माना जा रहा है।

अलसी को तीसी, अंग्रेजी में लिनसीड तथा वनस्पति विज्ञान में  लाइनम यूसीटेटीसिमम कहते है, जो लिनेसी परिवार का एक वर्षिय सदस्य है यह देश की सबसे महत्वपूर्ण औद्योगिक तिलहन फसल है जिसकी खेती शीतकाल में होती है प्रजाति के अनुसार  इसके पौधों में नीले, सफेद एवं बैंगनी रंग के पुष्प खेत में मनोहारी छटा बिखेरते है इसके फल (संपुट) गोल होते है इसके बीज तिल के समान  छोटे कत्थई-सुनहरे रंग के एवं चिकने होते है।  अलसी से न केवल तेल बल्कि इसके तनों से उच्च गुणवत्ता के रेशे (फाइबर) प्राप्त होते हैइसके बीज में 30-45 % तेल पाया जाता है, जिसका इस्तेमाल पेंट, वार्निश, लिनोलियम, प्रिंटर की इंक, चमड़े के उत्पाद  आदि के निर्माण में किया जाता है  अलसी के रेशों से गर्मी में पहनने के लिए सबसे उपयुक्त  लिनेन कपड़े बनाये जाते है आज कपड़ों में लिनेन ब्रांड सबसे मंहगा बिक रहा है यहीं नहीं, इसके रेशे सिगरेट के लिए रोलिंग पेपर और मुद्रा नोट बनाने में इस्तेमाल किये जाते है

व्यवसायिक उपयोग  ही नहीं सेहत के लिए भी जरुरी है अलसी  

पौष्टिकता के लिहाज से अलसी के प्रति 100 ग्राम दानों में 37.1 % वसा (लगभग 18-20 % ओमेगा-3 फैटी एसिड व अल्फा-लिनोलेनिक एसिड -ए.एल.ए.), 20.3 % प्रोटीन, 4.8 % फाइबर, 530 किलो कैलोरी ऊर्जा के अलावा खनिज लवण (कैल्शियम, लोहा, पोटैशियम, जिंक और मैग्नेशियम तथा विटामिन (थाइमिन, विटामिन-बी-5, नियासिन, राइबोफ्लेविन व विटामिन सी) के साथ-साथ एंटीऑक्सीडेंट (लाइकोपेन, लिग्नेन व लिउटीन) प्रचुर मात्रा में पाए जाते है।  इसलिए अलसी को सेहत के लिए चमत्कारिक खाद्य कहा जाता है। दरअसल,ओमेगा-3 फैटी एसिड व अल्फा-लिनोलेनिक एसिड को मनुष्य की सेहत के लिए जरुरी माना गया है। हमारे शरीर में ओमेगा-3 फैटी एसिड का  संश्लेषण नहीं होता है। इसी वजह से इसकी आपूर्ति बाहरी स्त्रोत से की जानी चाहिए. इसकी आपूर्ति खाध्य तेल एवं मांस-मछली से ही की जा सकती है। अलसी ओमेगा-3 का सबसे बड़ा  एवं सस्ता स्त्रोत है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी अलसी को सुपर फ़ूड का दर्जा देता है। महात्मा गांधी ने भी अपनी पुस्तक में अलसी को सेहत के लिए महत्वपूर्ण खाध्य पदार्थ बताया था। दरअसल हम अपने दैनिक भोजन में ओमेगा-6 की मात्रा अधिक होती है और ओमेगा-3 की मात्रा न्यूनतम होती है, इसलिए आवश्यक फैटी एसिड का असंतुलन पैदा होने से शारीरिक विकार पैदा होने लगते है। अलसी के सेवन से शरीर में फैटी एसिड का संतुलन बना रहता है। आयुर्वेद में अलसी को दैविक भोजन माना गया है।

 अनेक शोधों से यह ज्ञात हुआ है कि हमारे भोजन में ओमेगा-3 की कमी और ओमेगा-6 की प्रचुरता से शरीर में उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, दमा, अवसाद, कैंसर आदि रोग बढ़ने लगते हैं। शरीर के स्वस्थ संचालन के लिये ओमेगा-3 तथा ओमेगा-6 दोनो 1:1 अर्थात बराबर के अनुपात में होने चाहिए। इसलिए हमें प्रति दिन 30 से 60 ग्राम अलसी का सेवन करना चाहिए। अलसी के सेवन से शरीर में अच्छे कोलेस्ट्राल  की मात्रा बढती है और खराब कोलेस्ट्राल कम होता है. अलसी के नियमित सेवन से ह्रदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, कैंसर, कब्ज, टी.बी. आदि रोगों से मुक्ति मिल सकती है। अलसी का तेल भी काफी गुणकारी होता है। अलसी तेल की मालिश करने पर त्वचा के दाग-धब्बे व झुर्रियां दूर हो जाती है। त्वचा जलने के दर्द व जलन में अलसी के तेल से  राहत मिलती है।

अलसी को हल्का भूनकर भोजन के बाद सौंफ कि तरह नियमित रूप से खाया जा सकता है। इसके लड्डू भी स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होते है। सेहत के लिए उपयोगी अलसी आज कल मेडिकल स्टोर तथा अनेक ऑनलाइन साइट पर मंहगे दामों में बेचीं जा रही है। आप इसे पास के बाजार से खरीद कर विभिन्न रूपों में  इसका खाने में इस्तेमाल कर सकते है।

अलसी के  आकर्षक उत्पाद- युवाओं के रोजगार हेतु  एक  अभिनव स्टार्टअप

बहुगुणी एवं बहुपयोगी अलसी रोजगार एवं आकर्षक आमदनी का एक बेहतरीन जरिया हो सकती है. आज खाद्य  बाजार में पौष्टिक एवं स्मार्ट उत्पादों की बहुत मांग है और हाथो-हाथ बिकते है. थोड़ी से लागत से आप अलसी से आप  विभिन्न प्रकार की खुशबू (फ्लेवर) जैसे नीबू, संतरा, तुलसी, पौदीना प्रकार के  छोटे-छोटे पाउच तैयार कर बाजार में पेश कर सकते है. अलसी के ओमेगा-3  लड्डू, ओमेगा-3 दूध, ओमेगा-3 पापड व चिप्स, ओमेगा-3 बिस्कुट, ओमेगा-3 चाँकलेट आदि उत्पाद तैयार कर बाजार में प्रस्तुत कर सकते है. निश्चित ही इस उभरते व्यवसाय को अच्चा प्रतिसाद मिल सकता है।   यही नहीं, पौल्ट्री व्यवसायी भी ओमेगा-3  अंडे का उत्पादन कर बेहतरीन लाभ अर्जित कर सकते है।  अलसी के दानों से तेल निकालने के पश्चात बची खली का उपयोग दुधारू पशुओं के लिए पौष्टिक खली के रूप में अथवा खेती में बेहतरीन खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। अलसी के तनों से रेशे निकालकर उससे अनेकों प्रकार के उत्पाद तैयार करने का भी व्यवसाय किया जा सकता है। इस प्रकार अलसी की खेती से लेकर इसके प्रसंस्करण एवं मूल्यवर्धन  की इकाई एक सुनहरे व्यवसाय का माध्यम बन सकती है।

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शनिवार, 19 नवंबर 2022

जंगली धान खरपतवार नहीं स्वास्थ्य के लिए शक्तिमान है पसहर चावल

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

सृष्टि के सृजन के शुरूआती वर्षों में हमारे पूर्वज प्रकृति में स्वमेय उगने वाले पेड़-पौधों एवं उनके फल एवं बीजों से ही अपना और परिवार का उदर पोषण किया करते थे. खाद्यान्न में मोटे अनाज मसलन सावां, कोदो, कुटकी, लाल या पसर चावल खाकर हृष्ट पुष्ट बने रहकर लम्बा जीवन जी लेते थे युग परिवर्तन के साथ-साथ आधुनिक जीवन शैली के अनुरूप कृषि क्षेत्र में भी उन्नत तकनीकों  का इजाफा होने लगा  इसके चलते हम प्राचीन परम्पराएँ एवं फसलों को भी तिलाजंली देते जा रहे है मोटे अनाज एवं उनके प्रसंसकरण के तौर-तरीके से उपजे अन्न स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी हुआ करते थे उदाहरण के लिए  जिस चावल का सेवन हमारे पूर्वज करते थे, वह अब हमें  व्रत एवं उपवास के समय ही खाने को मिल पाता है बाकी समय  हम सब आधुनिक खेती से उपजे एवं  मॉडर्न राइस मिलों से प्रसंस्कृत निम्न  पोषक तत्वों वाला चावल खाकर ही गुजारा कर रहे है  देशी पद्धति अर्थात हलर अथवा धनकुट्टी (ढेकी) का चावल देखने में जरुर आकर्षक नहीं लगता है परन्तु स्वाद और सेहत के लिए बेहद लाभकारी होता है  इसकी पैदावार कम होने के कारण  यह  सिर्फ  उपवास के समय ही मंहगी दर पर मिलता है  प्रकृति प्रदत्त  लाल चावल या पसहर चावल को एकत्रित करने एवं इसके प्रसंस्करण के लिए ग्रामीण समुदाय को प्रेरित करने कि आवश्यकता है और किसानों को भी इस बहुमूल्य चावल की खेती के लिए  उन्हें शिक्षित प्रशिक्षित करने का प्रयास करना जरुरी है तभी बेरोजगार  ग्रामीणों एवं  साधन विहीन किसानों की आमदनी में इजाफा  के साथ-साथ लोगों को वर्ष भर  पौष्टिक एवं स्वास्थ्यवर्धक चावल खाने के लिए उपलब्ध हो सकते है   


पसहर चावल को  कहीं-कहीं पसई चावल, तिन्नी के चावल, लाल चावल, करगा धान  अंग्रेजी में वाइल्ड राइस, रेड राइस  तथा वनस्पति विज्ञान में  ओराइजा रफीपोगाँन कहा जाता है, जो घास (पोयेसी) कुल की  स्वतः उगने वाली वार्षिक फसल है

जिस प्रकृति प्रदत्त पौधे से  विश्व की बहुसंख्यक आबादी के भरण-पोषण के लिए चावल की किस्मों का विकास किया गया और किया जा रहा है, उसे हम यूँ ही जंगली धान और खरपतवार कह कर तिरस्कृत ही नहीं कर रहे है, बल्कि नाना प्रकार की खरपतवारनाशक दवाओं का उपयोग कर उसे जड़-मूल से नष्ट करने पर भी  तुले है यह मानव हित में नहीं कहा जा सकता है क्योंकि  सामान्य उगाये जा रहे चावल की अपेक्षा प्रकृति से उपहार स्वरूप मिले पसहर चावल में मानव के लिए जरुरी पौष्टिक तत्वों का भंडार छुपा हुआ है, तभी तो हमारे पूर्वज शदियों से इस चावल का सेवन कर स्वस्थ और दीर्धायु बने रहते थे अतः अत्यधिक आनुवंशिक विविधताओं से परिपूर्ण और विषम जलवायु एवं परिस्थितयों में भी उगने और पनपने के अद्भुत गुणों से ओतप्रोत नैसर्गिक चावल को भविष्य का पौष्टिक खाद्यान्न मानक़र और चावल की नित-नई किस्में ईजाद करने  के लिए इसकी प्रजातियों का संरक्षण, संवर्धन एवं खेती करना नितांत आवश्यक है

सम्पूर्ण विश्व में बहुतायत में उगाये जाने वाले और खाए जाने वाले सामान्य चावल की उत्पत्ति आज से 6000  वर्ष (BC) जंगली धान की ओराइजा रफ़ीपोगोन  एवं  ओराइजा निवारा नामक प्रजातियों से हुई है  जंगली धान की  ये प्रजातियाँ  अर्द्ध जलिय स्वभाव की है और भारत की विभिन्न  जलवायुविक परिस्थितयों में दलदली, नम भूमि, सडक किनारे  एवं धान के खेतों में  खरपतवार की भाँती उगती है  सामान्य धान के खेत में अथवा खेत के पास करगा या जंगली धान उगकर धान की उन्नत जातियों के साथ संकरण कर अलग प्रकार की जंगली धान भी प्राकृतिक रूप से  पैदा हो रही है यही वजह है कि विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाने वाले जंगली धान/लाल चावल के रूप और रंग में विबिधता देखने को मिलती है

पसहर चावल का पौधा/फसल  

पसहर चावल (जंगली धान) के पौधे  उगाये जाने वाले धान के पौधों से अधिक लम्बे एवं ज्यादा कंशे (टिलर्स) वाले होते है.  इसका तना 80 सेमी लम्बा एवं अन्दर से खोखला होता है. तने की निचली  गांठो से जड़े निकलती है इसकी पत्तियां 15-35 सेमी लम्बी होती है  पसहर चावल यानी जंगली धान में बालियाँ पहले निकलती है और परिपक्वता भी शीघ्र होती है, परन्तु परिपक्वता असीमित होती है अर्थात सभी बालियाँ एक साथ नहीं पकती है  पकने के बाद इनके दाने शीघ्र झड़ने लगते है. जंगली धान कि बालियाँ 12-25 सेमी लम्बी  जिनमें 5-10 मिमी लम्बी सुक (awn) होती है इसके दाने लाल-भूरे रंग के  5-7 मिमी लम्बे होते है

पसहर चावल तैयार करने की जटिल प्रक्रिया

बिना हल के जोते और बिना बोये खेतों एवं अन्य पानी भरी जमीनों में स्वतः उगने वाले घास कुल के खरपतवार से चावल तैयार करने की प्रक्रिया अत्यंत जटिल है. चूँकि इसके दाने पकने पर शीघ्र झड़ जाते है, इसलिए स्थानीय लोग और वनवासी इनके पौधों को आपस में बांधकर इसकी बालियों को पॉलिथीन की थैलियों अथवा कपड़े से बाँध देते है पूर्ण पक जाने पर इनकी कटाई एवं मड़ाई की जाती है कठिन परिश्रम के बाद प्राप्त को मंहगे दामों में बेचना ग्रामीणों एवं वनवासियों कि मजबूरी है। त्यौहार अथवा उपवास के दिनों  में ही यह बहुमूल्य अनाज  बाजार में  देखा जाता है। इसकी खेती को बढ़ावा देने से ग्रामीणों को रोजगार और आमदनी के अवसर प्राप्त हो सकते है।

व्रत-उपवास में खाने की प्राचीन प्रथा

व्रत एवं उपवास के समय पसहर चावल खाने शदियों पुरानी परंपरा  के पीछे सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक कारण भी है पसहर चावल का सेवन  हलषष्ठी यानी कमरछठ  व्रत में किया जाता है संतान की प्राप्ति एवं उनके सुखमय जीवन के लिए महिलाएं यह व्रत रखती है भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की षष्ठी के दिन श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम का जन्म हुआ था और श्री बलराम का मुख्य अस्त्र हल है इसलिए इसे हलषष्ठी कहते है. इस दिन हल  की पूजा करने का विधान है और इसलिए हल से जुते खेत से उपजे अन्न का सेवन इस दिन नहीं किया जाता है

हलषष्ठी के  अलावा देश के विभिन्न भागों में उपवास के समय विशेषकर एकादशी, नव रात्रि, ऋषि पंचमी, छठ पूजा आदि अवसरों में  भी पसहर चावल या उससे तैयार पकवान खाए जाते है व्रत या उपवास में खेती वाले अनाज  को नहीं खाया जाता बल्कि बिना हल चलाये अर्थात बिना बोये उगे चावल को  खाने की पुरानी परंपरा है जो आज भी जीवंत है पौष्टिक गुणों से युक्त इस चावल को प्रकृति का वरदान माना जाता है दरअसल सामान्य उगाये जाने वाले चावल की  तुलना में पसहर चावल अधिक पौष्टिक एवं स्वास्थवर्धक होते है  प्राकृतिक रूप से उगे ये चावल रासायनिक खाद-उर्वरक एवं कीटनाशकों से मुक्त होते है अर्थात यह जैविक उत्पाद है

पौष्टिकता में सुपरफ़ूड-स्वास्थ्य के लिए सर्वोत्तम खाद्यान्न  

पोषण मान कि दृष्टि से सामान्य चावल की अपेक्षा लाल/पसहर चावल में सभी मानव के लिए आवश्यक लगभग सभी  पोषक तत्व अधिक मात्रा में पाए जाते है एक कप पकाए हुए लाल चावल में औसतन 9 ग्राम  प्रोटीन, 0.8 ग्राम वसा, 4 ग्राम फाइबर, 11 मिग्रा कैल्शियम, 8.4 मिग्रा मैग्नीशियम, 3.8 मिग्रा आयरन, 2.8 मिग्रा जिंक, 2 मिग्रा मैंगनीज, 0.3 ग्राम पोटैशियम,  6 मिग्रा नियासिन, 5 मिग्रा थायमिन, 0.3 मिग्रा विटामिन बी-6 एवं 0.2 मिग्रा कॉपर पाया जाता है इसमें इस चावल में लाल रंग एंथोसायनिन के कारण होता है जो इसे एंटीकैंसर खाध्य बनाता है लाल चावल में फाइबर की अधिकता से पाचन तंत्र स्वस्थ रहता हैइसमें  आयरन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, जो शरीर को खून की कमीं  यानी एनेमिया रोग से मुक्त रखने में सहायक है  इसमें कैल्शियम एवं कॉपर की  उपस्थिति से हड्डियाँ मजबूत होती है और दिमाग को तरोताजा बनाये रखने में सहायक होता है।  इसमें विद्यमान जिंक क्षय रोग और मलेरिया से बचाव करता है इसमें उपस्थित मैंगनीज मधुमेह से रक्षा करती है एवं रक्त में शर्करा स्तर कम करने में सहायक होती   है इसमें पोटैशियम की मौजूदगी उच्च रक्त चाप एवं ह्रदय रोग के खतरों से बचाने में मदद करती है लाल चावल में थायमिन, विटामिन बी-1, बी-6, नियासिन  पाए जाते है जो तंत्रिका प्रणाली को मजबूती प्रदान करते है इसके दानों में टोकोक्रॉमनल तत्व की प्रचुरता होने के कारण इसे दाने अधिक पौष्टिक हो जाते है। पसहर चावल में विद्यमान एंटीओक्सिडेंट गुणों के कारण  पसहर चावल के सेवन से शरीर को इंस्टेंट एनर्जी मिलती है और  रोग प्रतिरोधक क्षमता बढती है

लाल चावल का प्रसंस्करण देशी पद्धति (हाथ कुटाई) से प्राप्त किया जाता है, जिसमें चावल का कदा छिलका हटाया जाता है. दाने के ऊपर पोषक तत्वों से परिपूर्ण परत इस चावल में बनी रहती है सफेद चावल अर्थात मिल से प्रसंस्कृत चावल में इस परत को हटा ली जाती है, जिससे राइस ब्रान तेल निकाला जाता है इसलिए पोषण मान कि दृष्टि से सफेद चावल (मिल में तैयार) में पोषक तत्व न्यूनतम मात्रा में रह जाते है. यही वजह कि सफेद चावल का सेवन करने वाली बहुसंख्यक आबादी मधुमेह, ह्रदय रोग, रतौधी, किडनी रोग, उच्च रक्तचाप जैसे खतरनाक रोगों कि गिरफ्त में आती जा रही है एक आंकलन के हिसाब से आगामी  वर्ष 2035  तक मधुमेह पीड़ित व्यक्तियों की संख्या में 55 फीसदी का इजाफा हो सकता है इसके पीछे खानपान कि बदलती शैली एवं गुणवत्ता (आवश्यक पोषक तत्व) विहीन सफेद चावल का सेवन माना जा रहा है इसलिए अब हमें अपनी जड़ों की  तरफ (बैक टू बेसिक) लौटना  होगा  अर्थात खान पान के पुराने तौर तरीको जैसे प्राकृतिक ढंग से उग रहे अथवा जैविक तरीके से उगाये जाने वाले खाद्यान्न के साथ-साथ खाध्य प्रसंस्करण की प्राचीन विधियों से तैयार खाद्यान्न का उपयोग/उपभोग करना होगा  तथा  लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करना होगा। इससे रोजगार के नए अवसर सृजित हो सकते है तथा स्वस्थ भारत की कल्पना साकार हो सकती है

पसहर चावल का संरक्षण एवं संवर्धन जरुरी  

प्रकृति की धरोहर लाल चावल में  सूखा सहने, कीट-रोग प्रतिरोधकता, शीघ्र तैयार होने के साथ-साथ  दानों में  पौष्टिक तत्वों कि प्रचुरता जैसे तमाम अनुवांशिक  विशेषताओं के कारण भविष्य में चावल की गुणवत्ता युक्त एवं अधिक उपज देने वाली किस्मों  के विकास के लिए इनका संरक्षण एवं संवर्धन  निहायत जरुरी है यही नहीं  यह चावल विपरीत मौसम एवं असामान्य परिस्थियों में भी  किसानों के लिए रोजगार  के अवसर तथा देश की खाद्यान्न और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने में अहम योगदान दे सकता है  

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शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

सेहत और ताकत का खजाना है-समा का चावल-उपवास में खाने की परंपरा

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

समा के चावल को भारत के विभिन्न स्थानों पर सांवा, मोरधन,  समा, झंगोरा, झुंगरु, वरई, कोदरी, श्यामा चावल, उपवास के चावल आदि नाम से जाना जाता है इसे अंग्रेजी में इंडियन  बार्नयार्ड मिलेट  और बिलियन डॉलर ग्रास  तथा वनस्पति विज्ञान में इकनिक्लोवा फ्रूमेन्टेंसी के नाम से जाना जाता है, जो घास (पोएसी) कुल का वार्षिक खरपतवार है यह घास नमीं वाले स्थानों, दलदली खेतों में  स्वमेय उगता है इसके पौधे 60-120 सेमी  ऊंचे एवं कंशेयुक्त होते है। भारत के पहाड़ी राज्यों में समा की खेती भी की जाती है और वहां इसे चाव से खाया जाता है।

समा कि फसल एवं दानें 

समा के दाने छोटे, गोल तथा रंग में भूरे पीले होते है
। अक्टूबर से नवंबर माह  में समा के चावल की फसल में दाने तैयार हो जाती है । प्रकृति प्रदत्त मुफ्त की समा फसल की कटाई-मिजाई एवं दानों को सुखाने के उपरान्त  समा चावल का उपयोग अथवा बाजार में बेच कर लाभ अर्जित किया जा सकता है। भूमिहीन किसानों एवं बेरोजगार युवकों के लिए मुफ्त की फसल आमदनी का अच्छा साधन बन सकती है। बाजार में इसका चावल बहुत महंगे (150-200 रूपये प्रति किलो)  दामों पर बिकता है।

समा का चावल सेहत और शरीर को उर्जावान बनाये रखने का खजाना है. पोषण कि दृष्टि से इसके 100 ग्राम दानों में 65.5 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 10  ग्राम फाइबर, 6.2 ग्राम प्रोटीन, 2.20 ग्राम वसा, 307 Kcal ऊर्जा, 20 मिग्रा कैल्शियम, 5 मिग्रा आयरन, 82 मिग्रा मैगनीशियम, 3 मिग्रा जिंक  तथा 280 मिग्रा फास्फोरस के अलावा विटामिन ए, सी, ई प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। शरीर में  प्रोटीन एवं फाइबर की आपूर्ति, पाचन तंत्र सुधारना. वजन कम करना, ताकत और स्फूर्ति बढ़ाने के साथ-साथ शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता  बढाने में कारगर सिद्ध हुआ है। यह शुगर के मरीजों, ह्रदय रोगियों, उच्च रक्तचाप से पीड़ित व्यक्तियों के लिए उपयोगी अन्न है। इसमें मौजूद हाई डाईटरी फाइबर शरीर में ग्लूकोज के स्तर एवं कोलेस्ट्रोल  को संतुलित रखते हैं। समा के चावल के उत्पादन एवं भोजन में इसके उपयोग को बढाने से देश में व्याप्त भुखमरी एवं कुपोषण की समस्या से निजात मिल सकती है।  

आध्यात्मिक और आयुर्वेदिक दोनों ही दृष्टि से समा के चावल को महत्वपूर्ण माना गया है. ऐसा माना जाता है कि व्रत के समय खेतों में बोया अनाज नही खाया जाता है समा का चावल बिना जुताई और बिना बुआई के अपने आप उगता है अर्थात यह  प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाला अन्न है। ये चावल  पाचन में सहज और सौम्य माने जाते है। दरअसल, व्रत एवं उपवास के दौरान भोजन नहीं करने से शरीर का पाचन तंत्र कमजोर हो जाता है इसलिए व्रत के दौरान फलाहार के रूप में आसानी से पचने वाले और पौष्टिक समा के चावल का सेवन किया जाता है एकादशी व्रत, हरतालिका तीज के दिन समा के चावल अथवा इससे तैयार पकवान खाने का रिवाज है आसानी से पचने, तुरंत ऊर्जा एवं स्फूर्ति प्रदान करने कि वजह से ही व्रत में इसके चावल खाए जाते है समा के चावल  का विवरण वेदों में भी मिलता है। इसे सृष्टि का प्रथम अन्न भी माना जाता है  प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार यदि समा के चावल का सेवन सिर्फ महीने में तीन बार  नियमित रूप से करने पर व्यक्ति 85 वर्ष तक स्वस्थ एवं   उर्जावान बना रह सकता है।  दरअसल सामान्य  चावल की तुलना में समा के चावल में 30 गुना अधिक एंटीऑक्सीडेट्स तत्व पाए जाते है जिससे इनमें एंटीएजिंग के गुण होते है। इसके नियमित सेवन से अपच, पेट फूलना, खून की कमीं, भूख ना लगना, वजन में गिरावट, हाथ-पैरों में झुनझुनी, बाल झड़ना, मुँह में छाले, त्वचा विकार, हड्डियों और माँसपेशियों जैसी तमाम  समस्याओं  का सामना नहीं करना पड़ता है। सुपाच्य  होने कि वजह से इसका सेवन बच्चे से लेकर बुजुर्ग भी कर सकते हैं। ध्यान रहे समा के चावल को हवामुक्त (एयर टाइट) पात्र में भंडारित कर रखना आवश्यक है, क्योंकि नमीं के संपर्क में आने से ये खराब हो जाते है।

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