डाँ. गजेन्द्र सिंह तोमर  
प्राध्यापक, सस्य विज्ञान विभाग
कृषि महाविद्यालय, इं.गां.कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर
संसार में अमूमन 160 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र  में धान की खेती प्रचलित  है जिससे 685 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त होता  है । भारत वर्ष की खाद्यान्न फसलों में धान एक प्रमुख फसल है जिसका देश की खाद्यान्न सुरक्षा में महत्वपूर्ण य¨गदान है । विश्व में सर्वाधिक क्षेत्रफल  (44 मिलियन हैक्टर) में धान की खेती  भारत में होती  है परन्तु उत्पादन (96 मिलियन टन-वर्ष 2010) में हम विश्व में दूसरे पायदान पर बने हुए है । हमारे देश में चावल की औसत उपज 2.1 टन प्रति हैक्टर के करीब है जो  कि विश्व औसत उपज  (2.9 टन प्रति है.) से भी कम है । भारत में धान की खेती  मुख्यतः मानसून पर निर्भर करती है तथा किसान खेती  किसानी परंपरागत तरीके से करते है । इसके अलावा उन्नत किस्मों  व संकर धान का फैलाव हमारे देश में काफी कम  क्षेत्र में है । वर्तमान उन्नत किस्मों तथा  संकर धान में विद्यमान क्षमता का 75 % भी दोहन कर लेने से हम अपनी उपज को  काफी हद तक बढ़ा सकते है । छत्तीसगढ़ राज्य के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक ताने बाने में धान की प्रमुख भूमिका है । अतः धान-चावल को  राज्य की जनता की जीवन रेखा कहा जा सकता है । धान उत्पादन के मामले  में राज्य के किसानों  ने उल्लेखनीय  सफलता अर्जित की है जिसके लिए राज्य को दो बार राष्ट्रिय  कृषि कर्मण्य  पुरूष्कार  नवाजा जा चूका है । परन्तु राज्य में धान की औसत  उपज भारत के प्रमुख धान उत्पादक   राज्यों   से काफी कम है । भारत विश्¨षकर छत्तीसगढ़ में धान की कम उत्पादकता के प्रमुख कारण निम्न है-
 क्षेत्र विशेष  की परिस्थितियों  के अनुसार संसतुतित किस्मों  का इस्तेमाल नहीं किया जाता है  ।
 उच्च गुणवत्ता वाले , खाद एवं कृषि रसायनों  की सही समय पर पूर्ति नहीं ।
 धान की बुआई का समय पूर्णतः मानसून पर निर्भर करता है, वर्षा की अनियमतता के कारण  समय पर बुआई, बियासी तथा  अन्य कृषि कार्य संपन्न नहीं हो  पाते है ।
 धान की नर्सरी की बुवाई एवं  रोपाई विलम्ब से की जाती है तथा धान की प्रति इकाई  उचित पौध  संख्या में कमी होना ।
 अपर्याप्त एवं असंतुलित उर्वरकों  का प्रयोग  तथा खरपतवार प्रबंधन पर अपर्याप्त ध्यान।
 समय पर पानी की अनिश्चितता तथा समय पर कीट-रोग सरंक्षण के उपाय नहीं अपनाना  ।
 उन्नत कृषि तकनीक के ज्ञान का अभाव तथा कृषकों को आवश्यक प्रशिक्षण की सुविधा का अभाव ।
 खंडित एवं छोटी कृषि जोत  के कारण आधुनिक कृषि यंत्रों के उपयोग में बाधाएं ।
  छत्तीसगढ़ राज्य में धान की अधिकांश खेती आमतौर पर  खरीफ यानि वर्षा ऋतु  में ही की जाती है परन्तु नहरी सिंचाई की उपलब्धता होने  पर किसान धान की रबी अर्थात ग्रीष्मकालीन फसल भी परंपागत रूप से लगाते आ रहे है । वर्ष 2001-02 में  जहां महज 44.4 हजार हैक्टर में ग्रीष्मकालीन धान लगाया  जाता था जो कि अब बढ़कर 179.39 हजार हैक्टर क्षेत्र में  विस्तारित हो चुका है । औसत उपज (2614 किग्रा. प्रति हैक्टर) में भी खासा इजाफा (3725 किग्रा. प्रति हैक्टर) हुआ है । खरीफ मौसम  में 3653.73 हजार हैक्टर के आस पास धान बोया  जाता है जिससे 1800 किग्रा. प्रति हैक्टर औसत  उपज प्राप्त होती है । जाहिर है ग्रीष्मकालीन धान की औसत  उपज खरीफ में बोये  जाने वाले  धान से दुगने  से भी अधिक है और  संभवतः यही वह बजह जिसके कारण नहरी क्षेत्रों या फिर साधन संपन्न किसान साल में धान की दो फसलें  (धान-धान)  लेना चाहते  है । छत्तीसगढ़ के धमतरी, रायपुर, महासमुंद, दुर्ग रायगढ़ बिलासपुर और  जांजगीर जिलों में ग्रीष्मकालीन (रबी) धान की खेती व्यापक रूप से की जाती है । स्वच्छ मौसम, पर्याप्त धूप और  सुनिश्चित सिंचाई के कारण रबी-ग्रीष्मकालीन धान से अधिकतम उपज प्राप्त होती है परन्तु घटते जल संसाधन, गिरता भू-जल और पानी की बढ़ती मांग को  देखते हुए ग्रीष्मकालीन अर्थात रबी धान की खेती  करना यथोचित नहीं है ।राज्योदय  के बाद से 1-2 वर्षों को   छोड़कर  ग्रीष्मकालीन धान की सिचाई के लिए  फसल की आवश्यकतानुसार पानी की व्यवस्था राज्य सरकार कर रही  है । यद्यपि उतने ही पानी में मक्का, सोयाबीन, तिल आदि फसलों  की खेती अधिक क्षेत्रफल में  की जा सकती है जिससे राज्य में फसल सघनता आसानी से बढ़ाई जा सकती है । ग्रीष्मकालीन-रबी धान  से अधिकतम उत्पादन के लिए आधुनिक सस्य विधियाँ प्रस्तुत है ।  
भूमि का चुनाव 
समान्यतौर  पर धान की खेती  सभी प्रकार की भूमियों  में की जा रही है । परन्तु  उचित जल धारण क्षमता वाली भारी दोमट  भूमि  इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम पाई गई है। इसकी खेती हल्की अम्लीय मृदा से लेकर क्षारीय (पी.एच. 5.5 से 8.0 तक) मृदा में की जा सकती है। छत्तीसगढ़ में धान की सफल खेती  मटासी, डोरसा, एंव कन्हार भूमियों  में की जा रही है। डोरसा भूमि की जलधारणा क्षमता  मटासी भूमि की तुलना में काफी अधिक होती है। यह धान की खेती  के लिए सर्वथा उपयुक्त होती है। कन्हार भूमि भारी, गहरी व काली होती है। इसकी जल धारण क्षमता अन्य भूमियों  की अपेक्षा ज्यादा होती है । अतः यह रबी व ग्रीश्मकालीन फसल के लिए अधिक उपयुक्त पायी गई है। 
खेत की तैयारी   
अच्छी प्रकार से  तैयार किये गये खेत में बीज बोने से खेत  में फसल अच्छी प्रकार से स्थापित होती है जिससे भरपूर उत्पादन प्राप्त होता  है । फसल उगाने से पहले विभिन्न यंत्रों की सहायता से खेत की अच्छी तरह से तैयारी की जाती है जिससे खेत  समतल और  खरपतवार रहित हो जाएँ। धान के खेत की तैयारी प्रमुखतया बोने की विधि पर निर्भर करती है। संभव  होने पर गोबर की खाद, कम्पोस्ट या हरी खाद बोआई से पहले प्रारम्भिक जुताई के समय खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए।
उन्नत किस्मों  के बीज का प्रयोग 
अपने क्षेत्र के लिए अनुशंसित किस्मों के प्रमाणित बीज  बुआई हेतु इस्तेमाल करें  । यदि किसान पिछली फसल  का बीज का  उपयोग  करना चाहते है तब  बीज का चुनाव ऐसे खेत  से करें जिसमे फसल कीट-रोग से प्रभावित न रहे  और उसमे  किसी दूसरी किस्म का मिश्रण न हो  । इसके अलावा 2-3 वर्ष बाद नये बीज का प्रयोग  करना चाहिए । संकर प्रजातियों  का बीज अधिकृत संस्थान या विक्रेता से ही खरीदे तथा हमेशा नया बीज ही इस्तेमाल करें । छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश में ग्रीष्मकालीन धान के लिए प्रमुख उन्नत किस्मों  की  विशेषताएं अग्र सारणी में प्रस्तुत  है: 
ग्रीष्मकालीन धान की खेती  हेतु उपयुक्त प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएं 
किस्म का नाम        अवधि (दिन)        उपज  (क्विं/हे.)                       अन्य विशेषताएं
आई.आर.-36        115-120               45-50           लंबा पतला दाना, गंगई, ब्लास्ट, ब्लाईट सहनशील ।
आई.आर.-64        115-120               45-50           बोनी , लंबा पतला दाना, झुलसा र¨ग सहनशील 
एम.टी.यू.-1010     112-115               45-50           बोनी , भूरा माहू सहनशील ।
चन्द्रहासिनी           120-125              40-45           अर्द्ध बोनी , लंबा पतला दाना, गंगई निरोधक,  निर्यात हेतु ।
महामाया               125-128              45-55           बोनी, दाना मोटा, पोहा  व मुरमुरा हेतु, सूखा व गंगई रोधी 
कर्मा मासुरी           125-130              45-50          अर्द्ध बोनी , मध्यम पतला दाना, खाने योग्य  गंगई निरोधक ।
एम.टी.यू.-1001      130-135             40-45           बोनी, भूरा माहू सहनशील ।
उ.पूसा बासमती      130-135            40-45            सुगंधित, पतला दाना ।
स्वर्णा                      140-150            45-55            बोनी, मध्यम पतला दाना ।
स्वर्णा सब-1            140-145            45-55            स्वर्णा जैसी, जल मग्न सहनशील ।
बम्लेश्वरी                 130-135            50-60           अर्द्ध बोनी, लंबा  मोटा  दाना, जीवाणुजनित झुलसा निरोधक 
सम्पदा                   135-140            45-50           अर्द्ध बोनी, मध्यम पतला दाना, झुलसा रोग निरोधक  ।
उन्नत सांबा मासुरी   135-140            45-50           अर्द्ध बोनी, मध्यम पतला दाना, झुलसन रोग निरोधक  ।
जलदुबी                  135-140            40-45          ऊँची,गंगई कीट व झुलसा रोग निरोधक, लंबा पतला दाना ।
राजेश्वरी                  120-125            50-55           बोनी , लंबा म¨टा दाना, प¨हा व मुरमुरा हेतु ।
दुर्गेश्वरी                   130-135             50-55           बोनी, चावल लंबा पतला, पर्ण झुलसा  रोग निरोधक  ।
महेश्वरी                   130-135             50-55           लंबा पतला दाना, शीथ ब्लाईट व गंगई रोधक, खाने योग्य 
इं.सुगंधित धान-1     125-130            40-45           मध्यम पतला सुगन्धित,  गंगई निरोधक , सूखा सहनशील ।
अधिकतम उत्पादन के लिए संकर किस्म के धान की खेती करना चाहिए। संकर धान की विनर-एनपीएच-567, चैंपियन-एनपीएच-207 मयूर-एनपीेच-4113, सबीज सुगंधा-एसबीएच-999, राजा एनपीएच-369, बायप-6129, बायर-158, प्रोएग्रो-6201, पीएचबी-71, लोकनाथ, इंडोअमेरिकन-100011, पीआरएच-10, केआरएच-2 आदि किस्में भी मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के लिए उपयोगी  है ।
बोआई का समय  
हमारे देश में चावल की खेती तीनों  मौसम अर्थात बसंत तथा खरीफ में शीतकाल और ग्रीश्मकाल या रबी में होती है। अधिकतर चावल का उत्पादन (लगभग 56 प्रतिशत) बसंत के मौसम में होता है। इसके लिये बिजाई मार्च तथा अगस्त के बीच और कटाई जून एवं दिसंबर के बीच होती है। शीतकालीन फसल की बिजाई जून से अक्टूबर के बीच तथा कटाई नवम्बर तथा अप्रैल के बीच होती है। इससे चावल की कुल फसल में लगभग 33 प्रतिषत हिस्सा प्राप्त होता है। शेष  11 % की बिजाई गर्मी के मौसम में होती है। ग्रीश्मकालीन धान की बोआई-रोपाई  जनवरी-फरवरी में संपन्न कर लेना  चाहिए । देर से ब¨आई करने से खरीफ फसलों  के कार्य पिछड़ जाते है साथ ही मानसून के समय धान  फसल को  क्षति भी हो  सकती है । अतः बोआई-रोपाई  का समय इस प्रकार सुनिश्चित करें जिससे फसल की कटाई-गहाई मानसून पूर्व संपन्न की जा सकें ।
सही मात्रा में बीज प्रयोग और बीजोपचार   
अच्छी उपज के लिए चयनित किस्मों का प्रमाणित बीज  किसी विश्वसनीय संस्था से प्राप्त करें। बीज की मात्रा बीज आकार और बोने  की विधि पर निर्भर करती है । बीज का अंकुरण 80-90 प्रतिशत होना चाहिये और वह रोग रहित हो। इस तरह से छाँटा हुआ बीज रोपा पद्धति में 30-40 तथा कतार बोनी में 80-90 तथा लेही पद्धति में 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती  है। चावल सघनीकरण विधि (श्री पद्वति) से धान की खेती में  6-8 किग्रा. तथा संकर धान का 15 किग्रा. बीज प्रति हैक्टर ब¨आई हेतु पर्याप्त होता  है । खेत में बोआई पूर्व बीज शोधन  अति आवश्यक है। सबसे पहले बीज को नमक के घोल (17 प्रतिशत) में डुबोएं  . पानी के ऊपर तैरते हुए  हल्के बीज निकालकर अलग कर देें तथा नीचे बैठे भारी बीजों को निकालकर साफ पानी से दो-तीन बार धोएँ व छाया में सुखाने के उपरान्त  कवकनाशी दवाओं  से उपचारित कर बोना चाहिए। बीजों को 2.5  ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोआई करें। 
ग्रीष्म में धान लगाने की पद्धतियां 
जलवायु, क्षेत्र विशेष की  परिस्थितियाँ, उपलब्ध संसाधन आदि के अनुसार देश के विभिन्न भागों  में धान की बुवाई विभिन्न प्रकार से की जाती है । ग्रीष्म  ऋतु में धान की  बोआई  कतार पद्वति से अथवा रूप  विधि से करना चाहिए ।
1.कतार बोनी : धान की रोपण खेती  में बढ़ते खर्चे, पानी एवं मजदूरों  की समय पर अनुपलब्धता एवं मृदा स्वास्थ्य में ह्रास की समस्या के समाधान हेतु धान की सीधी बुवाई ही रोपण विधि का एक अच्छा विकल्प है । सीधी बुवाई में खेत में लेह  (पडलिंग) नहीं की जाती और  लगातार खेत में  खड़ा पानी रखने की आवश्यकता नहीं होती है । सीधी बुवाई में  पानी, श्रम व ऊर्जा कम लगती है अतः यह आर्थिक रूप से अधिक लाभकारी है । इसके अलावा मृदा  की भौतिक  दशा अच्छी बनी रहती है तथा फसल जल्दी तैयार होने से अगली फसल   बुआई समय पर की जा सकती  है । धान की बुवाई से एक सप्ताह पूर्व सिंचाई करें जिससे खरपतवार निकल आये । अब जुताई कर खेत  तैयार करने के उपरान्त  देशी हल के पीछे बनी कतारों में  अथवा सीड-ड्रिल  के माध्यम से बुआई की जाती है ।  बुआई 20-22 सेमी. की दूरी पर कतारों में करें  तथा बीज बोने की गहराई 4-5 सेमी. रखना चाहिए । 
2. लेवकर्षित खेत (पडल्ड)  खेत  में सीधी बुआई  (लेही विधि): धान की बुवाई में विलम्ब होने से बतर बोनी एंव रोपणी(नर्सरी) की तैयारी करने का समय न मिल सके तो लेही विधि अपनाई जा सकती है।इसमें रोपा विधि की तरह ही खेत की मचाई की जाती है तथा अंकुरित बीज खेत में छिड़क देते है। लेही बोनी के लिए प्रस्तावित समय से 3-4 दिन पूर्व से ही बीज अंकुरित करने का कार्य शुरू कर दें। निर्धारित बीज मात्रा को रात्रि में 8-10 घन्टे भिगोना चाहिए। फिर इन भीगे हुये बीजों का पानी निथार का इन बीजों को पक्के फर्श पर रखकर बोरे से ठीक से ढँक देना चाहिये।लगभग 24-30 घंटे में बीज अंकुरित हो जायेगें। अब बोरों को हटाकर बीज को छाया में फैलाकर सुखाएँ। इन अंकुरित बीजों की बुआई  4-5 दिन तक  सम्पन्न कर सकते हैं।
3.  रोपण पद्धति : अधिक उपज तथा जल के अधिकतम उपय¨ग के लिए आवश्यक है कि धान की प©ध समय पर तैयार कर ल्¨ना चाहिए ।  इस विधि में धान की रोपाई वाले कुल क्षेत्र के लगभग 1/10 भाग में नर्सरी तैयार की जाती है। 
रोपाई हेतु पौध तैयार करना :- धान की पौधशाला  उपजाऊ तथा जलनिकास युक्त ऐसे खेत में तैयार करना चाहिए जो कि सिंचाई स्त्रोतों  के पास  हो  । एक हैक्टेयर एक हेक्टेयर क्षेत्र में रोपाई  करने के लिए धान की बारीक चावल वाली किस्मों  का 30 किग्रा., मध्यम दाने वाली किस्मों का  40 किग्रा. और मोटे  दाने वाली किस्मों का 50 किग्रा. बीज की पौध  तैयार करने की आवश्यकता होती  है । प्रति हैक्टेयर में रोपाई  करने के लिए लगभग 500 से 600 वर्ग मीटर में  पौधशाला  डालनी चाहिए । पौधशाला  में 100 किग्रा. नत्रजन, 50 किग्रा. फॉस्फोरस  व 25 किग्रा. पोटाश  प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग  करना चाहिए । पौध की खैरा रोग से सुरक्षा  के लिए 5 किग्रा. जिंक सल्फेट को  20 किग्रा. यूरिया या 2.5 किग्रा. बुझे हुए चूने के साथ 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के 10-15 दिन बादनर्सरी में छिड़काव करना चाहिए । 
मुख्य खेत में पौध रोपण :  इस पद्धति में  भूमि की अच्छी तरह से जुताई उसमें 3-5 सेमी. पानी भर के लेह (पडलिंग) की जाती है । पडलिंग का कार्य हल या ट्रेक्टर में केज व्हील के माध्यम से किया जाता है । धान की पौध रोपने के पूर्व  खेत  को अच्छी प्रकार से  मचाने  से  उससे  पानी का रिसाव कम हो जाता है जिससे पानी की बचत होती है साथ ही खेत  में खरपतवार व कीड़े-मकोड़े भी  नष्ट हो जाते है । इस क्रिया से पौधों  में कल्ले   अधिक संख्या में बनते है । 
 सामान्य तौर पर 25-30 दिन उम्र की पौध रोपण  के लिए उपयुक्त रहती है । रबी-ग्रीष्म में पौध  तैयार होने  में 30-40 दिनों  का समय लग सकता है । खेत मचाई के दूसरे दिन रोपाई करना ठीक रहता है। रोपा लगाते समय एक स्थान (हिल)पर 1-2 पौधों की रोपाई करें। पौधे सदैव सीधे एंव 3-4 सेमी. गहराई पर ही लगाए। अधिक गहराई पर पौध  लगाने से कंशे   कम संख्या में  बनते है । कतारों व पौधों के बीच की दूरी 20 x 15 सेमी. (देर से तैयार होने  वाली किस्मों ) और 20 x 10 सेमी. (शीघ्र व मध्यम समय में तैयार होने  वाली किस्मों) रखना चाहिए।  यदि रोपाई कतारों  में करना सम्भव नहीं होने पर   प्रति वर्ग मीटर  क्षेत्र में कम से कम 50  स्थानों पर पौध की रोपाई  की जानी चाहिए अन्यथा पौधों  की संख्या कम रह जायेगी । पौध रोपण  के बाद किसी कारणवश  कुछ पौधे मर जाएँ तो उनके स्थान पर  नए पौधे शीघ्र रोपना चाहिए जिससे खेत में  प्रति  इकाई क्षेत्रफल में  बांक्षित  संख्या में पौधे स्थापित हो  सकें । अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र  में धान के 500 बालीयुक्त पौधे  स्थापित होना आवश्यक पाया गया है ।  
संतुलित पोषण प्रबंधन  
 धान फसल में खाद एंव उर्वरकों की सही मात्रा का निर्धारण करने के लिए खेत  की मिट्टी का परीक्षण  कराना आवश्यक है। पोषक तत्वों का प्रबंधन इस प्रकार से करना चाहिए जिससे फसल  की प्रमुख अवस्थाओं  पर भूमि में पोषक तत्वों की  कमी न हो। अतः बोआई व रोपाई के अतिरिक्त दौजी निकलने तथा पुष्प गुच्छ प्रर्वतन की अवस्थाओं में भी आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति करना चाहिए। धान की एक अच्छी फसल एक हेक्टेयर भूमि से 150-175 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20-30 किलोग्राम फाॅस्फोरस, 200-250 किलोग्राम पोटाश तथा अन्य पोषक तत्वों को ग्रहण करती है। मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरको, हरी खाद एवं जैविक खाद का समय से एवं संस्तुत मात्रा में इस्तेमाल  करना चाहिए।  
धान की फसल में अंतिम जुताई के समय 5-10 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी प्रकार से सड़ी गोबर खाद या कम्पोस्ट का उपयोग करने से महँगे रासायनिक उर्वरकों की मात्रा में 50-60 किलो प्रति हेक्टेयर तक की कटौती की जा सकती है।यदि मृदा परीक्षण नहीं किया गया है तो बोनी किस्मों  (110 से 125 दिन अवधि वाली) में  80-100 किग्रा. नाइट्रोजन,  40-50 किग्रा. स्फुर तथा 30-40 किग्रा. पोटाश  प्रति हैक्टर की दर से देना चाहिए । देरी से पकने वाली किस्मों में 100-120 किग्रा. नाइट्रोजन  50-60 किग्रा. स्फुर और  40-50 किग्रा. पोटाश  प्रति हेक्टर की दर से उपयोग करना लाभकारी रहता है । ऊँची किस्मों के  लिए नाइट्रोजन  40-60  किग्रा., स्फुर-20-30 किग्रा. और पोटाश 10-15  किग्रा. प्रति हैक्टर की दर से देना उचित पाया गया है । नाइट्रोजन धारी  उर्वरकों  को  तीन विभिन्न अवस्थाओं  अर्थात 30 प्रतिशत रोपण के समय, 40-50 प्रतिशत कंसे बनते समय तथा शेष मात्रा  प्रारंभिक गभोट  अवस्था के समय देना चाहिए ।  देश के  अधिकांश धान क्षेत्रों  की मिट्टियों  में आज कल जस्ते की कमी के लक्षण दिखते हैं। जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में  25 किलोग्राम/हेक्टेयर के हिसाब से जिंक सल्फेट खेत की अंतिम जुताई के समय देना लाभकारी पाया गया है। 
 धान की विभिन्न पद्धतियों में खरपतवार नियंत्रण
 धान फसल में  खरपतवार प्रकोप से उत्पादन में  काफी गिरावट  आ सकती है। खरपतवार मुक्त   वातावरण उत्पन्न करने धान की विभिन्न अवस्थाओं या बोने की विधि के अनुसार खरपतवार नियंत्रण किया जाना चाहिए।
कतार बोनी: खेत में सबसे पहले  अकरस जुताई करें। सिंचाई के 5-6 दिन बाद फिर जुताई करें तथा बतर (ओल) आने पर कतार में धान की बुवाई करें। बुवाई के 3-4 दिन के अंदर ब्यूटाक्लोर  1-1.5 किग्रा./हे. सक्रिय तत्व अथवा आक्साडायर्जिल 70-80 ग्राम का  छिड़काव करें। बुआई के 30-35 दिन बाद कतारों के बीच पतले हल द्वारा जुताई करें या हाथ से निदांई करें। धान का अंकुरण होने के 14-20 दिन में यदि सांवा तथा सकरी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रकोप अधिक हो तो फिनाक्सीप्राप 60 ग्राम या साहलोफाप 70-90 ग्राम/हे.  तथा चौड़ी  पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिये इथाॅक्सीसल्फयूरान 15 ग्राम/हे. का प्रयोग  करें अथवा सभी प्रकार के खरपतवारों  के लिए बिसपायरिबैक सोडियम 20-25 ग्राम  प्रति हैक्टर की दर से धान की ब¨आई के 20 दिन के अन्दर छिड़काव करना चाहिए ।
रोपण विधि: अच्छी मचाई तथा खेत में पानी रखना खरपतवार प्रकोप कम करने मेें सहायक होता है। रोपा लगाने के 6-7 दिन के अंदर एनीलोफाॅस 400-600 मि.ली. प्रति हेक्टेयर या ब्यूटाक्लोर या थायोबेनकार्प या पेण्डीमेथालीन 1-1.5 कि./हे. सक्रिय तत्व का प्रयोग करे या फिर प्रेटीलाक्लोर  और  मेट सल्फ्यूरान को  बराबार मात्रा  में 600 ग्राम अथवा बिसपायरीबैक के 20-25 ग्राम  का छिड़काव करें । धान अंकुरण होने के 20-25 दिन में यदि सांवा तथा सकरी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रकोप  अधिक होने पर  फिनाक्सीप्राप 60 ग्राम प्रति हैक्टर या चौड़ी  पत्ती वाले खरपतवारों  के नियंत्रण  हेतु इथाक्सीसल्फयूरान 15 ग्राम/हे. का छिड़काव करें।  पौध रोपण  के 25-30 दिन बाद पैडी वीडर धान की दो पंक्तियों  के मध्य चलाने से न केवल खरपतवार नियंत्रण में रहते है अपितु  भूमि में इस समय डाले गये उर्वरक मुख्यतः नत्रजन की उपलब्धता धान के पौधे को ज्यादा मात्रा में होती है। पैडी वीडर या तावची गुरमा उपलब्ध न होने पर हाथ से भी निंदाई की जा सकती है।
उपलब्ध जल का कुशल प्रबंधन आवश्यक 
 ग्रीष्मकाल में पानी की सर्वथा कमी रहती है । अतः आवश्यक है कि उपलब्ध जल का किफायती उपयोग  किया जाना चाहिए । फसल की आवश्यकता के अनुरूप ही सिंचाई करें । धान फसल को अधिक पानी की आवश्यकता होती है। अच्छे जल प्रबन्धन के लिये खेत  का समतलीकरण लेजर लेंड लेवलर  से कराना आवश्यक है जिससे 25-30 प्रतिशत पानी की बचत सम्भव है । धान की फसल जब मृदा में नमी संतृप्त  अवस्था से कम होने लगे (मिट्टी में हल्की दरार पड़ने लगे) तो सिंचाई करना आवश्यक रहता है। फसल की जल माँग  भूमि के प्रकार, मौसम, भू-जल स्तर तथा किस्मों की अवधि पर निर्भर करती है। भारी से हल्की मिट्टी में लगभग 1000 मिमि. से 1500 मिमि. तक पानी लगता है।  धान की कुल जल आवश्यकता का लगभग 40 प्रतिशत भाग बीज अंकुरण से कंसा बनने की अवस्था तक, 50 प्रतिशत गर्भावस्था से दूध भरने तक तथा 10 प्रतिशत फसल के पक कर तैयार होने तक लगता है। 
रोपा लगाने के समय मचाये या लेव  किये गये खेत  में 1-2 सेमी.से अधिक पानी न रखें । रोपाई के बाद एक सप्ताह तक खेत में पानी का स्तर 1-2 सेमी. रखने से रोपित पौधे जल्दी स्थापित हो जाते है। पौधे स्थापित होने के बाद कंसे फूटने की अवस्था पूर्ण होने तक उथला जल स्तर 5-7 सेमी. तक बनाये रखें। बालियाँ निकलने के बाद खेत में उथला जल स्तर या खेत को पूर्ण रूप से गीली  या संतृप्त अवस्था में रखा जा सकता है। गभोट की अवस्था से दाना भरने की अवस्था तक भूमि में पानी की कमी नहीं होनी चाहिये। कमी होने पर सिंचाई करें।
कटाई एवं मड़ाई 
धान की विभिन्न किस्में लगभग 100-150 दिन में पक कर तैयार हो  जाती हैं।सामान्यतौर  पर बालियाँ  निकलने के एक माह पश्चात् धान पक जाता है। धान की कटाई का सही समय तब समझना चाहिए जब धान की बालिया पक जाये एवं दाना सख्त़े (दानों  में 20-24 प्रतिशत नमीं )  हो जायें एवं पौधों का कुछ भाग पीला पड़ जाये। दाने अधिक पक जाने पर झड़ने लगते है और उनकी गुणवत्ता में दोष आ जाता है। फसल काटने के 1-2 सप्ताह पूर्व खेत को सुखा लेना चाहिए जिससे पूर्ण फसल एक समान पक जाय। कटाई हँसिये या शक्तिचालित यंत्रों  द्वारा की जाती है। धान के बंडलों को खलियान में सूखने के लिए फैला देते हैं और बैलों द्वारा मडाई करते हैं। तत्पश्चात् पंखे की सहायता से ओसाई  की जाती है। पैर से चलाया जाने वाला जापानी पैडी थ्रेसर का प्रयोग भी किया जाता है। आज कल कंबाइन हारवेस्टर के माध्यम से कटाई व गहाई की जा रही है ।
उपज एंव भंडारण 
अनुकूल मौसम होने  पर एवं सही सस्य विधियों के अनुशरण से  धान की देशी किस्मों से 25-30 क्विण्टल /हे. तथा धान की बौनी उन्नत एवं संकर किस्मों से 50-80 क्विंटल/हे. उपज प्राप्त की जा सकती है। धान को अच्छी तरह धूप में सूखा लेते हैं तथा दानों में 12-13 प्रतिशत नमी स्तर पर बंद स्थानों   (पक्के बीन या बोर  में भरकर) पर भंडारण किया जाना चाहिए।
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