डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्रमुख वैज्ञानिक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
भारत में बसने वाली दुनिया की 17.84 प्रतिशत आबादी की
आवश्यकता 2.4 प्रतिशत जमीन
और 4 प्रतिशत जल
संसाधनों से पूरी होती है। भारत की अमूमन 65 % आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से
कृषि पर निर्भर करती है जिससे देश के 58% लोगो को रोजगार प्राप्त है. आने वाले समय
में सिकुड़ते प्राकृतिक संसाधनों (जमीन और
जल) में बढती जनसँख्या को भरपूर खाद्यान्न और कृषि आधारित उद्योगों को निरंतर कच्चा माल मुहैया कराना देश के सामने सबसे बड़ी
चिनौती है।
प्रकृति प्रदत्त जल का अमूमन 80 % भाग कृषि क्षेत्र में उपयोग होता है। वर्षा जल की अनिश्चितता के कारण जल संसाधनों में वर्ष दर वर्ष कमी देखने को मिल रही है जिसका सीधा असर कृषि उत्पादन पर पड़ना लाजमी है. अतः समय रहते हमें प्राप्त वर्षा जल और उपलब्ध जल संसाधनों के कुशल सरंक्षण पर ध्यान देना होगा। कृषि आदान के रूप में प्लास्टिक के प्रयोग से भारत के जागरूक किसान अब प्रति इकाई अधिकतम गुणवत्तायुक्त फसल उत्पादन ले कर कीर्तमान स्थापित कर रहे है। इससे देश में द्वितीय हरित क्रांति का मार्ग प्रशस्त हो गया है। प्राकृतिक संसाधनों विशेषकर जल सरंक्षण, जल के कुशल प्रबंधन तथा वैज्ञानिक फसल प्रबंधन से ही भारतीय कृषि को टिकाऊ बनाया जा सकता है। इस दिशा में प्लास्टीकल्चर उपयोग और विकास की महती भूमिका हो सकती है। प्लास्टीकल्चर जैसे सूक्ष्म सिचाई तथा नियंत्रित वातावरण में खेती से हम प्राकृतिक संसाधनों यथा भूमि, जल और प्रकाश का बेहतरीन उपयोग कर सकते है और प्रतिकूल मौसम में भी भरपूर फसलोत्पादन प्राप्त कर सकते है। हवा, पानी की तरह अब धीरे धीरे प्लास्टिक भी हमारे जीवन का जरूरी हिस्सा बन गया है। खेती की बात करें तो खेती किसानी भी अब प्लास्टिक के बिना अधूरी भी न कहें तो इस की कामयाबी जरूर अधूरी हो जाती है।
प्रकृति प्रदत्त जल का अमूमन 80 % भाग कृषि क्षेत्र में उपयोग होता है। वर्षा जल की अनिश्चितता के कारण जल संसाधनों में वर्ष दर वर्ष कमी देखने को मिल रही है जिसका सीधा असर कृषि उत्पादन पर पड़ना लाजमी है. अतः समय रहते हमें प्राप्त वर्षा जल और उपलब्ध जल संसाधनों के कुशल सरंक्षण पर ध्यान देना होगा। कृषि आदान के रूप में प्लास्टिक के प्रयोग से भारत के जागरूक किसान अब प्रति इकाई अधिकतम गुणवत्तायुक्त फसल उत्पादन ले कर कीर्तमान स्थापित कर रहे है। इससे देश में द्वितीय हरित क्रांति का मार्ग प्रशस्त हो गया है। प्राकृतिक संसाधनों विशेषकर जल सरंक्षण, जल के कुशल प्रबंधन तथा वैज्ञानिक फसल प्रबंधन से ही भारतीय कृषि को टिकाऊ बनाया जा सकता है। इस दिशा में प्लास्टीकल्चर उपयोग और विकास की महती भूमिका हो सकती है। प्लास्टीकल्चर जैसे सूक्ष्म सिचाई तथा नियंत्रित वातावरण में खेती से हम प्राकृतिक संसाधनों यथा भूमि, जल और प्रकाश का बेहतरीन उपयोग कर सकते है और प्रतिकूल मौसम में भी भरपूर फसलोत्पादन प्राप्त कर सकते है। हवा, पानी की तरह अब धीरे धीरे प्लास्टिक भी हमारे जीवन का जरूरी हिस्सा बन गया है। खेती की बात करें तो खेती किसानी भी अब प्लास्टिक के बिना अधूरी भी न कहें तो इस की कामयाबी जरूर अधूरी हो जाती है।
भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याएं
- भारतीय किसान अभी विश्व औसत फसल उपज की सिर्फ 40-60 प्रतिशत उपज ले पा रहे है।
- देश की कुल कृषि योग्य भूमि के 40 %
भाग में ही सिचाई सुविधा है और अधिकांश किसान परंपरागत विधि (बाढ़ विधि) से सिचाई करते है जिससे सिचाई जल की हानि होती है साथ ही कही कही जल भराव से फसल उत्पादन में गिरावट होती है।
- फसल कटाई पूर्व और कटाई पश्चात उचित भण्डारण और विपड़न के आभाव में 10-20 % खाद्यान्न और 30-35 % फल एवं सब्जियों का नुकसान हो जाता है।
- कृषि योग्य भूमि तेजी से अकृषि भूमि जैसे जल भराव और क्षारीय-लवणीय बंजर भूमियों में
तब्दील होती जा रही है।
भारत के कृषि क्षेत्रों में व्याप्त इन समस्याओ से निपटने के लिए प्लास्टीकल्चर का इस्तेमाल जैसे फव्वारा और बूंद-बूंद सिचाई के मध्यम से कुशल जल प्रबंधन, तालाबों और जलासयो में प्लास्टिक लाइनिंग से जल सरंक्षण, सरंक्षित खेती, पौध शाला प्रबंधन वरदान सिद्ध हो सकता है। खेती, बागबानी, जल प्रबंधन, खाद्यान्न भंडारण और संबंधित क्षेत्रों में प्लास्टिक के उपयोग से भारत में द्वितीय हरित क्रांति का पदार्पण हो सकता है जिससे आने वाले वर्षो में हमारी कृषि समोन्नत और किसान खुशहाल हो सकते है . प्लास्टिकल्चर कई फायदे देता है और देखा जाए तो खेती में निवेश का एक खास घटक है जिसके अनुप्रयोग से नमी की बचत, पानी की बचत, उर्वरक और पोषक तत्वों का सही इस्तेमाल करने में सहायता मिल रही है। एक आकलन के अनुसार माइक्रो इरिगेशन तकनीक के सही प्रयोग से 50-70प्रतिशत तक पानी की बचत के साथ-साथ उर्वरक उपयोग क्षमता में भी आशातीत बढ़त होतीहै जिसके फलस्वरूप फसलोत्पादन में 30 से 100 प्रतिशत का इजाफा हो सकता है । भारत में पानी की कमी, निम्न उत्पादकता और उर्वरकों के असंतुलित इस्तेमाल से होने वाले कार्बन उत्सर्जन के ऊंचे स्तर को प्लास्टिकल्चर के कुशल प्रयोग से कम किया जा सकता है।
कृषि के व्यवसायिकरण में प्लास्टिकल्चर की महती भूमिका है। प्लास्टिकल्चर का प्रमुख उद्देश्य कृषि, बागवानी,जल प्रबन्धन तथा सम्बन्धित क्षेत्रों में प्लास्टिक का उपयोग करके कृषि एवं बागवानी फसलों की उत्पादकता एवं कृषि उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ाना है। आधुनिक और नवोंन्वेशी कृषि में प्लास्टिकल्चर अप्रत्यक्ष कृषि निवेश का अति महत्वपूर्ण घटक साबित हो रहा है। मृदा में नमी संरक्षण, पानी की बचत, उर्वरक खपत की कमी, जल और पोषक तत्वों के न्यूनतम उपयोग, नियंत्रित वातावरण में वर्ष पर्यन्त खेती, पादप संरक्षण तथा नवीन्मेषी पैकेजिंग समाधान में प्लास्टिकल्चर का उपयोग वरदान सिद्ध हो रहा है। जिससे फलों और सब्जियों के संग्रहण भण्डारण तथा आवागमन के दौरान स्व-जीवन बढ़ाने में मदद मिलती है।
प्लास्टिकल्चर का कृषि एवं बागवानी क्षेत्र में उपयोग
कृषि और संबधित क्षेत्रों में प्लास्टिकल्चर का उपयोग बखूबी से
किया जा रहा है जिनमे नर्सरी बैग,
प्लास्टिक के गमले, ट्रे, तालाब और जलाशयों में जल रिशाव रोकने हेतु प्लास्टिक के
अस्तर, टपक सिचाई, फव्वारा सिचाई प्रणाली, प्लास्टिक मल्च, हरित गृह, छायादार जाल,
पक्षियों के जाल, कीट रोधी जाल, वर्मीकल्चर बैग, कैरेट आदि प्लास्टिक के उत्पाद
प्रमुख है।
नर्सरी में प्लास्टिकल्चर
बागवानी के क्षेत्र में गुणवक्ता युक्त कलमों, पौधों को उगाने के लिए आधुनिक नर्सरी, प्लास्टिक बैग, गमलों, बीज ट्रे, लटकने वाली टोकरी, स्प्रेयर आदि का इस्तेमाल का बखूबी से किया जा रहा है। इन से पौधों के रखरखाव तथा एक स्थान से दुसरे स्थान लाने-ले जाने में सुगम्यता होती है। आज कल धान की पौध भी प्लास्टिक ट्रे और चटाइयों पर तैयार की जाने लगी है।
तालाब जलाशय में जलरिशाव रोकने हेतु अस्तर
प्रकृति
प्रदत्त वर्षा जल को सरंक्षित कर उसके पुनः उपयोग के लिए तालाब तथा जलाशय का उपयोग सदियों से किया जा रहा
है. नहरों का प्रयोग फसलों की सिचाई के लिए किया जाता है . तालाब, जलाशयो और नहरों
से जल रिसाव से जल की
हानि होने के अलावा नजदीकी खेतो में जल भराव की समस्या का सामना भी किसानो को करना
पड़ता है . जल संसाधनों से पानी के रिसाव को रोकने के लिए प्लास्टिक शीट का अस्तर प्रभावशाली सिद्ध हो रहा है। वर्षा जल संग्रहण और सिंचाई, मछली पालन,
पशुपालन के अलावा घरेलू
प्रयोजन हेतु यह एक प्रभावशाली तकनीक है। इसमें 200 से 250
माइक्रोन फिल्म का उपयोग किया जाता है।
प्लास्टिक अस्तर के प्रयोग से जल रिसाव
में कमी आती है, जिससे तालाबो और जलाशयों में लम्बे समय तक पानी उपलब्ध रहता है ।
इसके अलावा जल भराव,
मृदा कटाव जल लवणता जैसी समस्याओं से
निजात मिलती है।
पलवार बिछाना
मृदा
नमी को संरक्षित करने तथा खरपतवार की रोकथाम के लिए प्लास्टिक फिल्म के पौधे के
आसपास की मिट्टी को ढ़क देने तथा मृदा तापमान संशोधित करने को पलवार (मल्चिंग)
बिछाना कहते है। सब्जियों के लिए 15 से 25
माइक्रोन की फिल्म का पलवार के लिए उपयोग किया जाता है तथा बागवानी
वृक्षों के लिए 50 माइक्रोन की फिल्म का उपयोग किया जाता है। इससे वाष्पोत्सर्जन में कमी आती है जिससे पैौधे की वृद्धि के लिए अनुकूल मृदा आर्द्रता
तथा तापमान कायम रहता है।बार-बार
सिचंई करने के कार्यों में कमी आती है। खरपतवार की वृद्धि में रोकथाम होती
है तथा फलों एवं सब्जियों की गुणवत्ता बढ़ती है मृदा अपरदन तथा मृदा के पानी में
बह जाने से रोकथाम होती है। भारी बारिश के कारण होने वाली मृदा ठोसपन में कमी आती
है।
टपक सिंचन प्रणाली
इस
सिचाई पद्धति के अन्तर्गत , परिवहन नलिकाओं द्वारा नोजल और ड्रिपर की सहायता से जल
पौधों के जड़ क्षेत्रों में भूमि की सतह या उसके नीचे बूंद-बूंद कर दिया जाता है . कम
पानी में अधिकतम क्षेत्रफल में सिचाई करने के लिए टपक (ड्रिप) सिचाई कारगर साबित
हुई है . टपक सिंचन प्रणाली से कम दबाव तथा नियंत्रित अन्तराल में पौधो को
संतुलित मात्रा में पोषक तत्व और आवश्यकतानुसार पानी
उपलब्ध होता है। इस विधि से घुलनशील उर्वरक, कीट-रोग नाशक दवाओं का भी
इस्तेमाल किया जा सकता है . इससे पोषक तत्वों और पानी का किफायती उपयोग होता है तथा फसल उत्पादकता एवं फलों /सब्जियों की
गुणवत्ता बढ़ाने में भी मदद मिलती है। टपक
सिचाई से 40-70 % सिचाई जल की बचत होती है.टपक सिचाई से मृदा कटाव में कमी के
साथ-साथ खरपतवार-कीट रोग प्रकोप कम होता है।
बौछारी सिचाई विधि
बौछारी या फव्वारा सिंचाई वह विधि है जिसमें
सिंचाई जल को पम्प करके प्लास्टिक के पाइप
की सहायता से छिड़कने के स्थल तक ले जाया जाता है तथा दबाव द्वारा फुहारों या
वर्षा की बूदों के समान सीधे फसल पर छिड़का जाता है।
इसमें खेतों में
पाइप लाइन लगाकर फौव्वारे लगा दिये जाते हैं जिनसे छिड़काव द्वारा पानी खेतों में
चारों तरफ फैलता है
इस प्रणाली से जल सामान रूप से वितरित होता है. पम्प सेट या नहर से सिंचाई करने पर खेत तक
पहुंचने में क्रमश: 15-20 फीसदी से 30-50 फीसदी पानी बेकार
हो जाता है, जबकि बौछारी सिंचाई से इतने ही बहुमूल्य जल की
बचत होती है। इस सूक्ष्म सिंचन प्रणाली से पौधों के आसपास का सूक्ष्म वातावरण अच्छा रहने
से उत्पाद की गुणवत्ता और मात्रा में वृद्धि होती है। इस पद्धति से सिचाई करने के
लिए भूमि को समतल करने की आवश्यकता नहीं होती है. यह विधि सभी प्रकार की फसलों की सिंचाई के लिए
उपयुक्त है। कपास, मूंगफली तम्बाकू, कॉफी, चाय, इलायची, गेहूँ
व चना आदि फसलों के लिए यह विधि अधिक लाभदायक हैं।
हरित गृह और छायामय जाल (शेड नेट)
हरित
गृह (ग्रीन हाउस) तैयार या फुलाए गए ढांचे जिन्हें पारदर्शी सामग्री से ढका जाता
है। जिनमें एक नियंत्रित या आंशिक नियंत्रित पर्यावरण के तहत फसलों को उगाया जाता
है। ये पौधों द्वारा बेहतर पोषक तत्व ग्रहण करने के लिए प्रकाश संश्लेषण
कार्यकलापों की वृद्धि के लिए अनुकूल स्थितियां प्रदान करता है। इनमे उगाई गई फसलों में कीट और रोग का प्रकोप काम होता है तथा पौध सरंक्षण आसान होता है। उच्च गुणवत्ता वाली कलमों, पौधों की नर्सरी तैयार करने में मदद मिलती है। फलों एवं सब्जियों की उपज
में एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती है। फसलों की उत्पादकता में बढ़ोतरी होती है। यह
फसलों को ठण्ड, पाला और हवा से बचाती है।
पौधों
और फसलों को नाशीजीव, पशु-पक्षियों तथा मौसम की विषम परिस्थितियों से सुरक्षा देने एवं
गर्मी से बचाव करने के लिए विशिष्ट शेड नेट का उपयोग किया जाता है। शेड नेट में
भिन्न प्रकार छायामय (शेड) घटक होते है जिनकी सघनता 35 प्रतिशत
से 90 प्रतिशत के बीच होती है। वर्तमान समय में सफेद, हरे, लाल तथा काले रंग में शेड नेट उपलब्ध हैं।
टमाटर, शिमलामिर्च, ब्रोकली, खीरा की पैदावार लेने के लिए 35 प्रतिशत के शेड नेट
अच्छा माना जाता है। बे-मौसमी सब्जियां और फूल उगाने के लिए
इनका उपयोग किया जाता है। इनका इस्तेमाल फल वाले पौधों,
औषधीय पौधों, सब्जी तथा मसाला फसलों के पौधों
को उगाने के लिए किया जाता है।
निम्न सुरंगक (लो टनल )
निम्न
सुरंगक, हरित गृह की भांति प्रभाव देने वाला लघु ढांचा है।
पौधों की प्रकाश संश्लेषण क्रियाओं को बढ़ाते हुए इन सुरंगों में कार्बन डाई
आक्साईड को समाहित करने में मदद मिलती है। इन ढांचों से पौधों को तेज हवा, सर्द हवा, अधिक वर्षा अथवा बर्फ से सुरक्षा मिलती
है। सर्द ऋतु में इसके अन्दर का तापमान बढ़ जाता है, इस कारण
पौधों का पाले से बचाव हो जाता है।
पैकेजिंग में प्लास्टिक
प्लास्टिक
में मौजूद विशिष्ट गुणधर्म जैसे लचीलापन, हल्का
वजन, लागत प्रभावी, स्वच्छता सुरक्षित
और पारदर्शिता के कारण प्लास्टिक ने उत्पादों के प्रसंस्करण भण्डारण, परिक्षण तथा परिवहन में अमूल्य योगदान दिया है।
पादप संरक्षण नेट
पादप संरक्षण नेट का इस्तेमाल शाकीय तथा फलवाली फसलों को सौर विकिरण,नाशीकीट,पक्षियों, ओलावृष्टि,
तेज हवाओं, बर्फ या भारी वर्षा से बचने के लिए वर्ष भर किया जा सकता है।
नोट: इस लेख को अन्य पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित करने से पहले लेखक की अनुमति लेना अनिवार्य है। प्रकाशित करने के पश्चात पत्रिका की एक प्रति लेखक को भी भेजने की व्यवस्था करने का कष्ट करेंगे।
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