जलवायु परिवर्तन से भारतीय कृषि को बचाने के उपाय
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि
विश्वविद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि
महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
भारत का सम्पूर्ण क्षेत्रफल
लगभग ३२.४४ करोड़ हेक्टेयर है जिसमें से १४.२६ करोड़ हेक्टेयर यानि सम्पूर्ण क्षेत्र
के ४७ % हिस्से में में खेती होती है. आज भी देश की ७० फीसदी आबादी गांवों में
निवास करती है जिसमें से ८० % की जीविका खेती-किसानी पर आश्रित है. इस प्रकार देश
की बहुसंख्यक आबादी की रोजी रोटी कृषि पर
ही निर्भर करती है. अतः कृषि में जरा सा
उतार-चढ़ाव हमारे ताने बाने को बिगाड़ सकता है. आने वाले ३५-४० वर्षों में ४० %
हिमालय ग्लेशियर पिघल कर समाप्त हो सकते है. समुद्र का जल स्तर बढ़ने से ७५०० किमी
तटीय क्षेत्र व् ५० करोड़ लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है. तटीय शहर एवं द्वीप
जलमग्न हो सकते है. जल का स्तर घटेगा एवं पानी का संकट बढेगा.बाढ़ एवं सूखे की
प्रवृति बढ़ेगी.भूमि की उर्वरा शक्ति में गिरावट होगी.कृषि की उत्पादकता घटेगी
जिसके फलस्वरूप भूख एवं खाद्ध्य असुरक्षा बढ़ेगी. बहुत सी पादप वनस्पतियाँ एवं
जंगली जानवर विलुप्त हो सकते है. ऐसा अनुमान है कि सूखे के कारण खरीफ की मुख्य
फसलें यथा चावल, दलहन तथा तिलहन में 20 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। देश
में खाद्य उत्पादन में 5 प्रतिशत कमी की संभावना है ।जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि के विभिन्न विधाएं निम्न प्रकार से
प्रभावित हो सकती हैं:
1. जलवायु परिवर्तन का फसलों पर
प्रभाव: एक अध्ययन अनुसार यदि तापमान में 1 से 4 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो खाद्य पदार्थों के उत्पादन में 24 से 30 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है । भारत
में चावल के उत्पादन में तापमान बढ़ने से 2020 तक धान उत्पादन में 6 से 7 प्रतिशत एवं गेहूँ के
उत्पादन में 5से 6 प्रतिशत, आलु के उत्पादन में तीन प्रतिशत तथा सोयाबीन के उत्पादन में 3 से 4 प्रतिशत की कमी होने का अनुमान है । अध्ययनों से ज्ञात हुआ है की यदि तापमान में 2
डिग्री सेल्सियस की बढोत्तरी होती है तो अधिकांश स्थानों पर गेंहूँ की उत्पादकता
में कमीं आयेगी. प्रत्येक 1 सेंटीग्रेट
तापमान बदने पर गेंहूँ का उत्पादन ४-५ करोड़ टन कम हो सकता है. तापमान वृद्धि के
साथ-साथ धान के उत्पादन में भी गिरावट आने लगेगी. जलवायु परिवर्तन से न केवल फसलों की उत्पादकता
प्रभावित होगी बल्कि उनकी पोष्टिकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । फल एवं
सब्जियों वाली फसलों में फूल तो खिलेंगे लेकिन उनसे फल या तो बहुत कम बनेंगे या
उनकी पोष्टिकता प्रभावित होगी ।अनाज में पोषक तत्वों और प्रोटिन की कमी पाई जाएगी
जिसके कारण संतुलित भोजन लेने पर भी मनुष्यों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा ।
2. जलवायु परिवर्तन का मृदा पर
प्रभाव: भारत जैसे कृषि प्रदान देश के लिए मिट्टी की संरचना व उसकी
उत्पादकता अहम स्थान रखती है। कृषि के एनी घटकों की भाँती मिट्टी भी जलवायु
परिवर्तन से प्रभावित होती है. तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी और कार्यक्षमता
प्रभावित होगी । मिट्टी में लवणता बढ़ेगी और जैव विविधता घटती जाएगी । बाढ़ जैसी
प्राकृतिक आपदाओं से जहाँ एक और मिट्टी का क्षरण अधिक होगा वहीं दूसरी ओर सूखे की
वजह से बंजरता बढ़ जाएगी । भूमिगत जल के स्तर में गिरावट के कारण भूमि की उर्वरता
प्रभावित होगी जिससे फसलों का उत्पादन घटेगा.
3. जलवायु परिवर्तन का कीट व
रोगों पर प्रभाव : जलवायु परिवर्तन से कीट व रोगों की मात्रा बढ़ेगी ।
गर्म जलवायु कीट पतंगों की प्रजनन क्षमता की वृद्धि में सहायक है । कीटों में
वृद्धि के साथ ही उनके नियंत्रण हेतु अतधिक कीटनाशकों का प्रयोग किया जाएगा जो
जानवरो व मनुष्यों में अनेक प्रकार की बीमारियों को जन्म देगा ।
4. जलवायु परिवर्तन का जल
संसाधनों पर प्रभाव : जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव जल संसाधनों
पर पड़ेगा । पूरे विश्व में पानी की खपत प्रत्येक २० साल में दुगुनी हो जाती है,
जबकि धरती पर उपलब्ध पानी की मात्रा सीमित है. भारत में प्रति व्यक्ति जल का उपयोग
मात्र ६१० घन मीटर प्रति वर्ष है जबकि ऑस्ट्रेलिया, अर्जेटीना, अमेरिका और कनाडा
में यह १००० घन मीटर प्रतिव्यक्ति प्रति वर्ष से भी अधिक है. जलवायु परिवर्तन के
कारण जल आपूर्ति की भंयकर समस्या उत्पन्न होगी तथा सूखे व बाढ़ की बारम्बारता में
इजाफा होगा । अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में शुष्क मौसम अधिक लम्बा होगा जिससे फसलों
की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । वर्षा की अनिश्चितता भी फसलों के
उत्पादन को प्रभावित करेगी तथा जल स्रोतों के अधिक दोहन से जल स्रोतों पर संकट के
बादल मंडराने लगेंगे । अधिक तापमान व वर्षा की कमी से सिंचाई हेतु भू-जल संसाधनों
का अधिक दोहन किया जाएगा । जिससे धीरे-धीरे भू-जल इतना ज्यादा नीचे चला जाएगा कि
उसका दोहन करना आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी सिद्ध होगा जलवायु में होने वाला
परिवर्तन हमारी राष्ट्रीय आय को प्रभावित कर रहा है । राष्ट्रीय आय में कृषि का
हिस्सा कम होना चिंता का विषय है ।
5. जलवायु परिवर्तन का पशुओं पर प्रभाव : फसलों एवं
पेड़-पौधों के साथ-साथ पशुओं पर भी जलवायु परिवर्तन का असर पड़ेगा. तापमान में
बढ़ोत्तरी होने से पशुओं के दुग्ध उत्पादन एवं प्रजनन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव
पड़ेगा. अनुमान है की तापमान वृद्धि से दुग्ध उत्पादन में सन २०२० तक 1.६ करोड़ टन
तथा २०५० तक १५ करोड़ टन की गिरावट आ सकती है. संकर नश्ल की गाय एवं भैंस गर्मी के
प्रति कम सहनशील होती है अतः इनकी प्रजनन एवं दुग्ध उत्पादन क्षमता अदिक प्रभावित
होगी.
कृषि पर जलवायु परिवर्तन के
कुप्रभावों से निपटने के तरीके
भारतीय कृषि
पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के अनेक उपाय हैं जिनको
अपनाकर हम कुछ हद तक जलवायु परितर्वन के प्रभावों से अपनी कृषि को बचा सकते हैं। वर्तमान
कृषि प्रथाओं से हट कर वैकल्पिक प्रथाओं का उपयोग, बुवाई एवं कटाई के
समय / में
बदलाव, बीज की
विविधता का विस्तार, सिंचाई के वैकल्पिक साधन, वैकल्पिक
आजीविका का चुनाव, और फसल बाजारों का विनियमन कुछ
प्रावधान हैं जिनका पालन जलवायु परिवर्तनशीलता में बदलते रुझानों को अनुकूलित करने
के लिए किया जा
सकता है.प्रमुख उपाय इस
प्रकार हैं –
1.खेतों में कुशल जल प्रबंधन :- तापमान
वृद्धि के साथ फसलों में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है । ऐसे में जमीन में नमी
का संरक्षण व वर्षा जल को एकत्रित करके सिंचाई हेतु प्रयोग में लाना एक उपयोगी एवं
सहयोगी कदम हो सकता है । वाटरशैड प्रबंधन के माध्यम से हम वर्षा के पानी को संचित
कर सिंचाई के रूप में प्रयोग कर सकते हैं । इस से जहाँ एक ओर हमें सिंचाई की
सुविधा मिलेगी वहीं दूसरी ओर भूजल पूनर्भरण में भी मदद मिलेगी ।
2.जैविक एवं समन्वित खेती :- खेतों में
रासायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहाँ एक ओर मृदा की उत्पादकता घटती है
वहीं दूसरी और इनकी मात्रा भोजन श्रृंखला के माध्यम से मानव के शरीर में पहूँच
जाती है । जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती हैं । रासायनिक खेती से हरित गैसों
के उत्सर्जन में भी हिजाफा होता है । अत: हमें जैविक खेती करने की तकनीको पर अधिक
से अधिक जोर देना चाहिए । एकल कृषि की बजाय हमें समग्रित कृषि करनी चाहिए । एकल
कृषि में जहाँ जोखिम अधिक होता है वहीं समग्रित कृषि में जोखिम कम होता है ।
समग्रित खेती में अनेकों फसलों का उत्पादन किया जाता है जिससे यदि एक फसल किसी
प्रकोप से समाप्त् हो जाए तो दूसरी फसल से किसान की रोजी रोटी चल सकती है ।
3.नवीन का विकास :- जलवायु
परिवर्तन के गम्भीर दूरगामी प्रभावों को ध्यान में रखते हुए ऐसी किस्मों का विकास
करना पड़ेगा जो बदलते मौसम के अनुकूल हों । हमें ऐसी किस्मों का विकास करना होगा
जो अधिक तापमान, सूखे व बाढ़ की विभिषिकाओं को सहन करने
में सक्षम हों । हमें कीट-रोग प्रतिरोधी, लवणता एवं क्षारीयता को सहन करने वाली
किस्मों को भी ईजाद करना होगा ।
4.फसली संयोजन में परिवर्तन :- जलवायु
परिवर्तन के साथ-साथ हमें फसलों के प्रारूप एवं उनके बोने के समय में भी परिवर्तन
करना पड़ेगा । मिश्रित खेती व इंटरक्रापिंग करके जलवायु परिवर्तन के खतरों से
निपटा जा सकता है । कृषि वानिकी अपनाकर भी हम जलवायु परितर्वन के खतरों से निजात
पा सकते हैं ।
जलवायु परिवर्तन के
दुष्प्रभावों से भारतीय कृषि को बचाने के लिए हमें अपने संसाधनों का न्यायसंगत
इस्तेमाल करना होगा व भारतीय जीवन दर्शन को अपनाकर हमें अपने पारम्परिक ज्ञान को
अमल में लाना पड़ेगा । अब इस बात की सख्त जरूरत है कि हमें खेती में ऐसे पर्यावरण
मित्र तरीकों को अहमियत देनी होगी जिनसे हम अपनी मृदा की उत्पादकता को बरकरार रख
सकें व अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचा सकें।