कृषि में
संतुलित
उर्वक
उपयोग
से
टिकाऊ
खेती
संभव
डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर
(सस्य विज्ञान)
इंदिरा
गांधी कृषि विश्वविद्यालय.
राजमोहिनी
देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,
अंबिकापुर
(छत्तीसगढ़)
हमारे देश की
जनसँख्या
125 करोड़
का
आंकड़ा
बहुत
समय
पहले
ही
पार
कर
चुकी
है.
तेजी
से
बढ़ती
हुई
आबादी
के
लिए
भरपूर
भोजन
की
व्यवस्था
करने
के
लिए
सतत
कृषि
उत्पादन
बढ़ाना
आवश्यक
ही
नहीं
मजबूरी
हो
गया
है।
कृषि
उत्पादन
में
बढ़ोत्तरी
के
लिए
हमारे
सामने
दो
महत्वपूर्ण
विकल्प
हैं,
पहला
तो
यह
कि
हम
पैदावार
बढाने
के
लिए
कृषि
योग्य
भूमि
में
वृद्धि
करें
जो
कि
लगभग
नामुमकिन
है
दूसरा
महत्वपूर्ण
विकल्प
बचता
है
कि
हम
कम
से
कम
क्षेत्रफल
से
अधिक
से
अधिक
पैदावार
लें
फसलों से अधिक उपज प्राप्त
करना कई कारकों पर निर्भर करता है, मसलन उन्नत किस्में, सिंचाई, उर्वरक, पौध
सरंक्षण आदि. उन्नत किस्मों से अधिकतम पैदावार लेने के लिए सिंचाई की अधिक आवश्यकता
पड़ती है। जलवायु परिवर्तन के कारण सिंचाई जल की उपलब्धतता में निरंतर कमीं होती जा
रही है। अतः फसल उत्पादन बढाने में पानी के बाद उर्वरक एक महत्वपूर्ण कृषि आदान
है । सघन कृषि में लगातार अंधाधुंध तरीके से रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से भूमि
की उर्वरा शक्ति में गिरावट आने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण में भी इजाफा हो रहा
है। अतः खद्यान्न उत्पादन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उर्वरक का समुचित एवं
संतुलित प्रयोग करना नितांत आवश्यक है. उर्वरक का समुचित एवं संतुलित इस्तेमाल से
तात्पर्य है की फसल की आवश्यकतानुसार सभी आवश्यक पोषक तत्व समुचित मात्रा एवं उचित
अनुपात में उचित समय पर मृदा में उपलब्ध करना है. पौधों के सम्पूर्ण विकास के लिए
18 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है. पौधों के लिए आवश्यक मुख्य पोषक तत्वों में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश का उपयोग अधिक
मात्रा में तथा अन्य तत्व का उपयोग अल्प मात्रा में किया जाता है. अधिकतम उत्पादन
प्राप्त करने की लालसा में किसान अंधाधुंध तरीके से रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल
कर रहे है जिससे प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति निर्मित हो रही है. किसान खेती में
अनुमान से ही उर्वरकों का उपयोग कर रहे है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो
रही है और पर्यावरण को भी क्षति पहुँच रही है। बहुतेरे कृषक खेती में उर्वरक का
उपयोग तो करते है किन्तु एक या दो तत्व से संबंधित उर्वक को भूमि में मिलकर अपने
कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है। इस प्रकार से उर्वरक देने से फसल को उस तत्व विशेष
की तो प्रचुर मात्रा उपलब्ध हो जाती है परन्तु अन्य तत्वों की कमीं से मृदा के
पोषक तत्वों का संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाता है। उदहारण के लिए यदि हम मृदा में
सिर्फ यूरिया का इस्तेमाल लम्बे समय तक करें तो मृदा में नत्रजन तो पर्याप्त
मात्रा उपस्थित रहेगा किन्तु फॉस्फोरस, पोटेशियम, सल्फर आदि की कमीं हो जाती है
जिससे फसल उत्पादन बढ़ने की बजे घटने लगता है. जागरूक किसान भूमि में नाइट्रोजन,
फॉस्फोरस एवं पोटाश से युक्त उर्वरक का उपयोग तो पर्याप्त मात्रा में करते है
परन्तु फसल के लिए अन्य आवश्यक पोषक तत्वों जैसे कैल्शियम, सल्फर, मैग्नेशियम आदि
की पूर्ति पर ध्यान नहीं देते है जिससे इन तत्वों की कमीं के कारण उन्हें भरपूर
उत्पादन नहीं मिल पाता है। खरीफ में जिन क्षेत्रों में सोयाबीन अथवा मूंगफली की
खेती प्रचलन में है, वहां की मिट्टियों में सल्फर तत्व की कमीं देखी जा रही है।
चूँकि सोयाबीन एवं मूंगफली तिलहनी फसलें है जो मृदा से अधिक मात्रा में सल्फर तत्व
का अवशोषण करती है, क्योंकि तेल निर्माण में सल्फर की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
वर्तमान परिस्थितियों में यह आवश्यक है कि कम लागत में अधिकतम उपज लेने के लिए
क्षेत्र के अनुकूल फसल चक्र अपनाते हुए उर्वरकों का समुचित एवं संतुलित उपयोग किया
जाए जिससे उर्वरक उपयोग क्षमता में बढोत्तरी हो सके। फसलों से अधिकतम उत्पादन लेने
तथा उर्वरक उपयोग क्षमता में वृद्धी के लिए अग्र प्रस्तुत विन्दुओं पर ध्यान देना
आवश्यक है:
1.उर्वरकों
का चयन: किसान भाइयों को फसल की किस्म, मृदा गुण एवं उर्वरक में तत्व के मूल्य के
आधार पर उर्वरकों का चयन करना चाहिए।
(i)फसल
की किस्म: बोई जाने वाली फसल की किस्म के आधार पर उर्वरक का चयन करना चाहिए, क्योंकि
फसल विशेष किसी तत्व विशेष की उपलब्धतता से अधिक उपज देती है। उदहारण के लिए
गेंहू, धान, मक्का, गन्ना आदि फसलों को नाइट्रोजन तत्व की अधिक आवश्यकता होती है।
दलहनी फसलों को फॉस्फोरस एवं कैल्शियम, तिलहनी फसलों को पोटाश, फॉस्फोरस एवं गंधक
तत्व की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है। इसी प्रकार से लम्बी अवधी वाली फसलों
(गन्ना,कपास आदि) को ऐसे उर्वरक देने चाहिए, जो अधिक समय तक फसल को धीरे-धीरे पोषक
तत्व प्रदान करते रहे. कम अवधि वाली फसलों को शीघ्र प्राप्त होने वाले उर्वरक देना
लाभकारी होता है।
(ii)मृदा
गुण: हमारे देश में अनेकों प्रकार की मृदाएँ पाई जाती है जिनमे अलग-अलग तत्वों
की कमीं या अधिकता पाई जाती है। अतः मृदा का रासायनिक परीक्षण करवाकर जिस तत्व की
कमीं हो, उसकी पूर्ती करना चाहिए। अम्लीय मृदा में क्षारीय प्रभाव डालने वाले
उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए जैसे अमोनियम सल्फेट. इस प्रकार से क्षारीय मृदा में अम्लीय
प्रभाव वाले उर्वरकों जैसे अमोनियम नाइट्रेट आदि का प्रयोग करना चाहिए। सल्फर की
कमीं वाली मृदाओं में सुपर फॉस्फेट या सल्फर युक्त उर्वरक का इस्तेमाल करना चाहिए।
(iii)उर्वरक में तत्व इकाई
मूल्य: किसी पोषक तत्व विशेष के उर्वरक के रूप में अनेक विकल्प हो सकते है।
आर्थिक दृष्टि से उस उर्वरक का उपयोग करना चाहिए जिसका इकाई मूल्य कम हो अर्थात उर्वरक
में पोषक तत्व की प्रतिशत मात्रा अधिक होना चाहिए.
2.उर्वरक
प्रयोग का सही समय: उर्वरक की उपयोग दक्षता बढ़ाने के लिए आवश्यक है की उर्वरक का परिस्थितयों
के अनुसार सही समय पर प्रयोग किया जाए. सही समय वह होता है जब उस तत्व की पौधों को
अधिक आवश्यकता होती है। फॉस्फोरस एवं पोटाश की आवश्यकता पौधों को अपने प्रारंभिक
काल में जड़ वृद्धि के लिए अधिक होती है। अतः इन उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा बुवाई
के समय आधार के रूप में देना चाहिए। इसके अलावा नत्रजन एक गतिशील तत्व है। भूमि
में निक्षालन द्वारा इस तत्व की हानि अधिक होती है। इसलिए सम्पूर्ण आवश्यक मात्रा को खड़ी फसल में 2-4 बार में देना लाभकारी होता है।
सूक्ष्म पोषक तत्वों का छिडकाव खड़ी फसल में लक्षण दिखाई देने पर करना चाहिए।
3.
उर्वरक की सही मात्रा: विभिन्न फसलों की उर्वरक आवश्यकता भिन्न-भिन्न होती
है। अतः उर्वरक की मात्रा निर्धारित करते समय फसल की किस्म, फसल चक्र, मृदा
उर्वरता आदि बातें ध्यान में रखना चाहिए. मृदा परिक्षण के बाद ही उर्वरकों की
मात्रा का निर्धारण करना चाहिए। उर्वरक का निर्धारण एक फसल पर न कर सम्पूर्ण फसल
चक्र के आधार पर करना चाहिए जिससे यह स्पष्ट हो कि किस फसल को कौन से उर्वरक की
कितनी मात्रा देना है। उदहारण के लिए दलहनी फसलों के उपरान्त मृदा में नत्रजन देने
की आवश्यकता कम होती है। रबी फसल के बाद जब ग्रीष्म ऋतु में दलहनी फसल बोयें तो
फॉस्फोरस एवं पोटाश का उपयोग न करें। सिंचित धान-गेंहूँ फसल में दोनों फसलों में
नत्रजन धारी उर्वरक देवें और फॉस्फोरस केवल गेंहूँ तथा पोटाश केवल धान में देना
उचित होता है।
4.उर्वरक प्रयोग की सही विधि: उर्वरक के उपयोग की
उत्तम विधि वह है जिसमे कम खाद से अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके, साथ ही समय की बचत
हो। उर्वरक में उपस्थित तत्व की पानी में घुलनशीलता के आधार पर उर्वरक देने की
विधि का चुनाव करना चाहिए. अचल तत्वों जैसे फॉस्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम को बुवाई
के समय भूमि में मिलाना चाहिए, जिससे इन तत्वों को जड़ आसानी से ग्रहण कर सके।
नाइट्रोजन जैसे चल तत्वों की कुछ मात्रा बुवाई के समय कूंडों में देकर बाकी का
उपयोग खड़ी फसल में करना चाहिए। खड़ी फसल में उर्वरक को भूमि में न मिलाते हुए घोल
के रूप में छिडकना अधिक फायदेमंद होता है. फसल में सूक्ष्म पोषक तत्वों का
इस्तेमाल भी घोल के रूप में करना चाहिए। सिंचाई के समय नालियों में घुलनशील उर्वरक
देने से समय की बचत होती है।
कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लॉग की अनुमति के बिना इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करने की चेष्टा न करें । यदि आपको यह आलेख अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना ही है, तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।
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