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सोमवार, 9 जनवरी 2023

फसलों का दुश्मन-जड़ परिजीवी खरपतवार-मरगोजा (ओरोबेंकी) का नियंत्रण

 

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर (सस्यविज्ञान)

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

मरगोजा को आग्या, भुंईफोड़ अंग्रेजी में ओरोबंकी एवं ब्रूमरेप कहते है. ओरोबेंकेसी कुल के इस खरपतवार की दो प्रजातियां मसलन ओरोबेंकी रोमोसा व ओरोबेंकी इजिप्टियाका आर्थिक रूप से अधिक हानिकारक होती है. 

मरगोजा खरपतवार की दो प्रजातियां 
यह एक जड़ परिजीवी (रूट पैरासाइट) खरपतवार है जो बहुधा सरसों  कुल (क्रूसीफेरी) एवं सोलोनेसी  कुल जैसे बैंगन, टमाटर, आलू, तम्बाकू आदि फसलों के खेत में उग कर फसल  उत्पादन को कम करता है. सरसों, तोरिया, राया आदि फसलों में ओरोबेंकी इजिप्टियाका का आक्रमण अधिक देखा गया है. मूली, गाजर आदि फसलों के साथ भी यह खरपतवार उगता है. मरगोजा द्विबीज पटरी एक वर्षीय पौधा है जो केवल बीजों द्वारा प्रसारित होता है. यह एक सीधा, पीला-भूरे पुष्पक्रम युक्त पूर्ण रूप से जड़-परिजीवी  पौधा है. इसके पौधे एवं शल्क क्लोरोफिल रहित होते है. इसके बीज बहुत ही सूक्ष्म, अंडाकार, गहरे भूरे-काले रंग के होते है. इस पेड़ की बीज उत्पादन क्षमता अत्यधिक (1-2 लाख बीज प्रति पौधा) होती है और 10-12 वर्ष तक बीज भूमि में  जीवनक्षम बने रहते है. इसमें फरवरी-मार्च में फूल आते है और एक सप्ताह बाद बीज बनने लगते है. इसके बीज उपयुक्त परपोषी पौधों से प्रदत्त रासायनिक उत्तेजक की उपस्थिति में अंकुरित होते है. मरगोजा के  पौधों में क्लोरोफिल नहीं होने के कारण, इसमें पाए जाने वाले अद्वितीय चूषकांग (हॉस्टोरिया) मेजबान पौधों की जड़ से भौतिक संबंध स्थापित (जड़ों के अंदर प्रवेश) कर उनसे ही पोषण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करते है. ये  मेजबान (होस्ट) पौधों की जड़ों से जुड़कर पोषक तत्व, पानी  अवशोषित कर फसल को कमजोर कर देते है.  बड़ी मात्रा में बीज उत्पादन,  बीजों की लंबे समय तक मृदा में  जीवन क्षम बने रहने की क्षमता, मृदा की बजाय केवल फसल पर पोषण के लिए निर्भरता तथा मेजबान के साथ अनुलग्न परिजीवी के रूप में ओरोबेंकी  का उन्मूलन बेहद मुश्किल एवं चुनौतीपूर्ण  होता है.
मरगोजा खरपतवार का ऐसे करें उन्मूलन 

गाजर की जड़ (कंद) से लिपटा मरगोजा 
फसल चक्र (फसलों को हेर फेर कर) बोना, गर्मियों में गहरी जुताई, सौरकरण (सोलेराइजेशन) आदि मरगोजा नियंत्रण के प्रभावी उपाय है. रासायनिक विधि से इस हानिकारक खरपतवार के नियंत्रण हेतु खेती की तैयारी करने के बाद नम भूमि में  मृदा प्रधूमक जैसे मिथाइल ब्रोमाइड का प्रयोग करने के बाद प्लास्टिक पलवार विछाना कारगर होता है. इसके अलावा ग्लाईफोसेट (41 % एस एल) खरपतवारनाशक का दो बार छिडकाव प्रथम 25 ग्राम प्रति हेक्टेयर फसल बुआई के 25 दिन बाद  तथा दूसरा  50 ग्राम प्रति हेक्टेयर (400 लीटर पानी में घोल बनाकर) फसल बुवाई के 55-60 फसल की कतारों में  छिडकाव करने से मरगोजा का 60-80 प्रतिशत नियंत्रण हो जाता है. ध्यान रहे कि छिडकाव के समय एवं बाद में खेत में पर्याप्त नमीं का होना आवश्यक है. इसके लिए उक्त दवा छिडकाव से 2-3 दिन पूर्व या बाद में खेत में सिंचाई अवश्य कर देवें. छिडकाव सुबह के समय फसल की पत्तियों पर ओस या नमीं रहने कि स्थिति एवं फसल में फूल आते समय दवा का छिडकाव फूलों पर न गिरे अन्यथा उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है.

नोट :कृपया  लेखक/ब्लोगर की अनुमति के बिना इस आलेख को अन्य पत्र-पत्रिकाओं अथवा इंटरनेट पर प्रकाशित न किया जाए. यदि इसे प्रकाशित करना ही है तो आलेख के साथ लेखक का नाम, पता तथा ब्लॉग का नाम अवश्य प्रेषित करें

रविवार, 8 जनवरी 2023

स्वाद, सुगंध एवं सेहत के लिए सर्वोत्तम फल अनानास: समृद्धि के लिए करें खेती

 

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कंपा,महासमुंद (छत्तीसगढ़)

खट्टे-मीठे स्वादिष्ट अनन्नास को संस्कृत में आपनस  अंग्रेजी में पाइनएप्पल तथा वनस्पति शास्त्र में ब्रोमेलिया कोमोसा कहते है, जो ब्रोमेलियेसी कुल का  बहुवर्षीय पौधा है। इसके छोटे तने पर 60-90 सेमी लंबे पत्तों का घेरा होता है। पत्तों के किनारे कांटेदार और सिरे पर पैने नुकीले होते है.  इसके पत्ते हरे अथवा हलके पीले-गुलाबी रंग के (प्रजाति के अनुसार) होते है। इसमें फल पत्तियों के रोसेट के केंद्र में एक डंठल पर आते है. वास्तव में अनानास एक बहुफल अर्थात इसके अनेक फलों का समूह विलय होकर एक बड़ा फल उत्पन्न होता है । इसके फल आकार में अंडाकार से बेलनाकार हो सकते है,  जिनके सिरे पर छोटी-छोटी पत्तियों का मुकुट होता है।  पके फलों का आवरण सुनहरे पीले रंग का होता है, जिनपर अनेक शल्क पाए जाते है. अनानास में जनवरी से मार्च तक फूल आते है। अनन्नास के फल में खाने योग्य भाग 66 % होता है तथा 19-20 % रस होता है।  इसके पके फल का गूदा पीले से हल्के नारंगी रंग का तथा रसीला होता है। इसके फलों में बीज नहीं बनते है।


अनानास के ताजे फलों को काटकर खाया जाता है एवं इनसे जूस, डिब्बाबंद मोरब्बा, जैम, शरबत तैयार कर सेवन किया जाता है। इसके रस में 8-15 % शर्करा तथा 0.3-0.9% अम्ल होता है। अनन्नास के फल में 86.5 % जल, 0.1 % वसा, 12 % कार्बोहाइड्रेट, 0.6 % प्रोटीन, 0.02% कैल्शियम, 0.01 % फॉस्फोरस, 0.9% आयरन के अलावा विटामिन सी एवं विटामिन ए प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। अनानास  के फल एवं रस में एक अद्भुत एन्जाईम-ब्रोमेलैन पाया जाता है, जो पाचन क्रिया में सहायक होता  है । अनानास  चोंट, खरोंच, मोच, मांसपेशी तनाव, संधिवात और गठिया  रोगियों के लिए लाभकारी  माना जाता हैं।  शल्य क्रिया के बाद की सूजन ठीक करने में भी इसका व्यवहार उपयोगी है।

अनन्नास की व्यवसायिक खेती

अनानास की सफल खेती के लिए नम एवं गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है. खेती के लिए 15.5 डिग्री सेल्सियस से लेकर 34 डिग्री सेल्सियस तापक्रम उपयुक्त रहता है।  खेती के लिए उचित जल निकास वाली उपजाऊ भूमि उपयुक्त होती है। इसकी उन्नत किस्मों में रानी (प्रति फल औसत वजन 600 से 800 ग्राम) एवं केव (प्रति फल औसत वजन 1.5 से 3 किग्रा अधिक उपयुक्त होती है। उत्तर भारत में जून-जुलाई में इसका रोपण किया जा सकता है. अनन्नास को कल्लों, प्ररोह और मुकुटों (फल के ऊपरी भाग) से उगाया जा सकता है। सामान्य तौर पर अनानास के पौधों के  बगल से निकलने वाले सकर्स या कल्लों का उपयोग रोपण हेतु किया जाता है।  पौधों की रोपाई मेड़ो पर 60 सेमी ( पौधों के मध्य 30 सेमी) की दूरी पर करना चाहिए। एक हेक्टेयर में 44, 444 पौधे स्थापित होना चाहिए। पौध रोपण से एक माह पूर्व खेती कि अंतिम जुताई के समय  8-10 टन गोबर खाद अथवा कम्पोस्ट खेत में मिलाना चाहिए। इसके अलावा 16 ग्राम नाइट्रोजन, 4 ग्राम फॉस्फोरस एवं 12 ग्राम पोटैशियम प्रति हेक्टेयर को दो बराबर भागों में बांटकर रोपाई के 6 एवं 12 माह में पौधों के निकट डालकर गुड़ाई करना चाहिए। इसकी फसल में सिंचाई की आवश्यकता कम होती है। गीष्म ऋतु में आवश्यकतानुसार  1-2 सिंचाई देना जरुरी है। अनन्नास के पौधों में शीघ्र एवं समान पुष्पन के लिए इथ्रेल (0.04 %) एवं 2% यूरिया के घोल का छिड़काव करना लाभकारी पाया गया है। इस छिडकाव के 40 दिन बाद पौधों में पुष्पन आना प्रारंभ हो जाता है। इन रसायनों का छिडकाव नवम्बर-दिसबर में करना चाहिए।

सामान्यतौर पर इसके पौधों में फरबरी-अप्रैल में पुष्पन होता है एवं  जुलाई से अगस्त तक फल कटाई के लिए तैयार हो जाते है। पौध रोपण के 18-22 माह में फल परिपक्व होने लगते है। उत्तम प्रबंधन से प्रति हेक्टेयर 45-50 टन फल प्राप्त किये जा सकते है। एक बार रोपित फसल से तीन बार फल प्राप्त किये जा सकते है। अनन्नास के फल बाजार में 50 रूपये प्रति किलो से अधिक दर पर बिकते है।

अनन्नास की फसल से फलों के अलावा इसके पत्तों से 25 से 30 किग्रा प्रति टन सफेद चमकीला रेशा प्राप्त किया जा सकता है। इसका रेशा टिकाऊ होता है और पानी में खराब नहीं होता है। इसके रेशे (धागे) अलसी के धागों से अधिक बारीक़, मजबूत एवं चमकीले होते है। इन्हें रेशम के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। फिलिपीन्स में इसके धागों से  पीना ब्रांड के महंगे कपड़े तैयार किया जाते है। पत्तियों से रेशा निकालने के बाद बचे पदार्थ से कागज़ बनाया जा सकता है।

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बुधवार, 4 जनवरी 2023

सेहत और समुद्धि के लिए अनार उपयोगी फल

डॉ गजेन्द सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान)

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र,

काँपा, महासमुंद 

 अनार को संस्कृत में रक्तपुष्पक, दाड़िम,  अंग्रेजी में पोमग्रेनेट एवं वनस्पति शास्त्र में  प्यूनिका ग्रैनेटम्  कहते है, जो प्यूनिकैसी कुल का अनेक तनों वाला झाड़ीनुमा पेड़ है. इसके पेड़ 15-20 फीट ऊंचे होते है.


 
अनार पौष्टिक गुणों से परिपूर्ण, स्वादिष्ट, रसीला एवं मीठा फल है जिसके बारे में विश्व के तीन धर्म अर्थात हिन्दू, इस्लाम एवं ईसाई धर्म के पवित्र ग्रंथों में विवरण मिलता है. हमारे हिन्दू धर्म ग्रन्थों में अनार के पौधे में विष्णु-लक्ष्मी का वास तथा इसे उर्वरता और समृद्धि का प्रतीक माना गया है. आनर के लाल रंग के सुन्दर फूल तथा आकर्षक फल गृह वाटिका को सुशोभित करते है. एक अनार सौ बीमार कहावत से ही सिद्ध होता है, कि अनार स्वास्थ्य के लिए विशेष लाभकारी है.
खनिज एवं विटामिन की प्रचुर मात्रा होने से अनार के फल रोगियों के आहार के लिए सर्वश्रेष्ठ माने जाते है. अनार के प्रति 100 ग्राम फल में 6 ग्राम प्रोटीन, 0.1 ग्राम खनिज, 5.1 ग्राम रेशा, 14.5 मिग्रा कैल्शियम, 70 मिग्रा फॉस्फोरस, 0.3 मिग्रा आयरन, 0.1 मिग्रा राइबोफ्लेविन, 0.3 मिग्रा नियासिन, 16 मिग्रा विटामिन सी पाया जाता है. अनार के पके फल का रस मधुर तथा स्वास्थ्यवर्धक होता है. ग्रीष्मऋतू में अनार के रस का शर्बत स्फूर्तिदायक होता है.  इसके फल या जूस शरीर में खून की  कमीं को पूरा कर कमजोरी को दूर करता है. आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली में दीर्ध जीवन एवं उत्तम स्वास्थ्य के लिए अनार को औषधि माना गया है. अनार के फल सेवन करने से उदर के रोग व विकार दूर होते है तथा शरीर में रक्त शोधन कार्य अच्छी प्रकार से होता है.  अनार ह्रदय को स्वस्थ बनाये रखने एवं ब्लड सर्कुलेशन को बेहतर बनाने में सहायक होता है. यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करता है. होम्योपैथी तथा यूनानी चिकित्सा पद्धतियां भी रोग मुक्ति के लिए अनार के फल को प्रकृति का बहुमूल्य उपहार मानती है. रोगियों, बच्चो तथा वृद्धजनों के लिए इसका फल एक समुचित आहार है. फल के छिलके चूसने से खांसी में लाभ मिलता है. इसके छिलकों को पानी में उबाल कर निकाला गया रस बच्चो के उदर कृमियों को नष्ट करने में सहायक होता है. दांतों से रक्त स्त्राव होने पर सूखे फूलों का मंजन करना लाभदायक होता है. अनार के फलों से स्वादिष्ट पेय तथा जैली भी बनाई जाती है.
अनार की खेती असिंचित एवं सिंचित दशा में आसानी से की जा सकती है. इसकी व्यवसायिक खेती बहुत ही लाभदायक सिद्ध हो रही है.

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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

स्वाद,सुगंध एवं सेहत के लिए उपयोगी फल स्ट्राबेरी की व्यवसायिक खेती से मालामाल

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

 

फ़्रांस से चलकर भारत पहुंची स्ट्राबेरी को वनस्पति शास्त्र में फ्रागरिया x अनानास के नाम से जाना जाता है जो रोजेसी कुल का पौधा है इसके खट्टे-मीठे फल स्वास्थ्य एवं आय दोनों ही दृष्टिकोण से लाभदायक है.पोषण मान के लिहाज से 100 ग्राम खाने योग्य स्ट्राबेरी में 89.9 ग्राम पानी, 0.7 ग्राम प्रोटीन, 0.5 ग्राम वसा, 8.4 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 164 मिग्रा पोटैशियम,21 मिग्रा कैल्शियम, 21 मिग्रा फॉस्फोरस, 1 मिग्रा आयरन, 1 मिग्रा सोडियम, 59 मिग्रा विटामिन सी के अलावा विटामिन ए, विटामिन बी, नियासिन भी प्रचुर मात्रा में पाए जाते है इसे ताजे फल के रूप में खाने के अतिरिक्त स्ट्राबेरी से विशेष संसाधित पदार्थ जैसे जैम, जेली, डिब्बाबंद स्ट्राबेरी, कैंडी आदि  तैयार किये जा रहे है स्ट्राबेरी का उपयोग आइसक्रीम एवं अन्य पेय पदार्थ तैयार करने में भी किया जाता है स्ट्रॉबेरी में पाए जाने वाले पौष्टिक तत्व पाचन क्रिया में सहायक, त्वचा में नव जीवन एवं चेहरे कि चमक बढ़ाने, रक्त चाप को नियंत्रित करने में सहायक होती है प्राकृतिक एंटीऑक्सीडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण  विद्यमान होने के कारण यह दिमाग को तनाव मुक्त रखने में  उपयोगी हैं। विटामिन सी की अधिकता होने के कारण यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मदद करती है


स्ट्राबेरी की खेती ऐसे करे

स्ट्राबेरी का बाजार में बहुत मांग होने के कारण इसकी व्यवसायिक खेती बहुत लाभदायक सिद्ध हो रही है स्ट्राबेरी शीत ऋतु की फसल है जिसके पौधों की उचित बढ़वार एवं फलन के लिए 20-30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है अधिक तामपान पर उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है भारत के मैदानी क्षेत्रों के लिए कैलीफोर्निया में विकसित कैमारोजा, ओसो ग्रैन्ड व चैंडलर के अलावा शीघ्र तैयार होने वाली ओफरा एवं स्वीट चार्ली उपयुक्त पाई गई है। भारत में विकसित पूसा अर्ली ड्वार्फ उत्तरी भारत के लिए अच्छी किस्म है. इसकी खेती के लिए 5.5 पी एच मान से लेकर 6.5 पी एच मान वाली बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त रहती है

मेड-नाली (रिज एंड फरो) पद्धति से  स्ट्राबेरी का रोपण करने पर पौधों का विकास अच्छा होने के साथ-साथ उत्तम गुणवत्ता  वाले अधिक फल प्राप्त होते है इसके लिए तैयार खेत में 1 मीटर चौड़ी एवं 25 सेमी. ऊंची मेंडे तैयार की जानी चाहिए दो मेंड़ों के बीच 50 सेमी का फासला रखना चाहिए इन मेंड़ों पर ड्रिप (सिंचाई हेतु) एवं मल्च (प्लास्टिक चादर) बिछाने के उपरान्त 25-30 सेमी की दूरी पर मल्च में छेद कर स्ट्राबेरी के स्वस्थ  पौधों अथवा रनर (स्ट्राबेरी के पौधों के बगल से निकलने वाले नए पौधे) का रोपण करना चाहिए इससे पौधों को संतुलित मात्रा में पानी एवं पोषक तत्व उपलब्ध होने के साथ-साथ खरपतवार प्रकोप भी नहीं होता है। एक एकड़ में लगभग 27 हजार पौधे/रनर की आवश्यकता होती है। पौध रोपण के बाद ड्रिप से सिंचाई करे एवं आवश्यकतानुसार तरल उर्वरकों का प्रयोग करें आमतौर पर जनवरी-फरवरी में फल पकने लगते है फलों की तुड़ाई सावधानी से करना चाहिए ताकि फलों को क्षति न पहुंचे. सामान्यतौर पर स्ट्राबेरी के फल फरवरी-अप्रैल तक तुड़ाई हेतु पक कर  तैयार हो जाते है. स्ट्राबेरी के 70 % फलों का रंग जब  लाल-पीला होने लगे, तुड़ाई प्रारंभ करें एक पौधे से औसतन 200-200 ग्राम फल प्राप्त किये जा सकते है तोड़ने के पश्चात फलों की शीघ्र पैकिंग कर बाजार में बेचने कि व्यवस्था कर लेना चाहिए फलों के भण्डारण के लिए कमरे का तापमान 5 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए अन्यथा फल खराब होने लगते है फलों के साथ-साथ पौध सामग्री के रूप में स्ट्राबेरी के रनर (नवीन विकसित पौधे) बेचकर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा सकता हैस्ट्राबेरी की खेती के लिए राज्य के उद्यानिकी विभाग से अनुदान भी प्राप्त किया जा सकता है


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शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

सेहत और समृद्धि का आधार बन सकता है छिंद (जंगली खजूर): संरक्षण एवं संवर्धन जरुरी

 

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

प्रकृति ने हमें नाना प्रकार के बहुपयोगी पेड़-पौधे की सौगात दी है, जिनसे प्राप्त होने वाले फल, फूल, सब्जी, लकड़ी एवं औषधियों का उपयोग मनुष्य  प्राचीन काल से  करता आ रहा है. आधुनिक युग में विकास और अधिक धन कमाने के लालच में आकर मनुष्य ने प्राकृतिक पेड़-पौधों का बेहिसाब दौहन तो प्रारंभ कर दिया लेकिन उनका संरक्षण एवं संवर्धन करना भूल गया जिसके कारण न केवल हमारे वन-उपवन उपयोगी पेड़-पौधों को खोते जा रहे है, बल्कि धरती की हरियाली एवं पर्यावरण को भी भारी क्षति होती जा रही है सूखी एवं बंजर धरती पर बिना खाद पानी एवं देखरेख के उगने वाले छिंद (जंगली खजूर) के  पेड़ ग्रामीण भारत के आदिवासी-वनवासी तथा गाँव की भूमिहीन एवं बेरोजगारी आबादी की आजीविका का एक साधन बन सकते है. परन्तु प्राकृतिक रूप से उग रहे  छिंद वृक्षों का गलत तरीके से अथवा अत्यंत दोहन से इनके पेड़ों का  अस्तित्व आज खतरे में नजर आ रहा है छिंद पेड़ के अत्यधिक दोहन एवं उनके कटने पर सरकार एवं वन विभाग को तो आवश्यक कदम उठाने ही चाहिए, लेकिन हम सब को  भी  सामुदायिक रूप से अपने क्षेत्र की जैव विविधता के सरंक्षण एवं  संवर्धन में सक्रिय योगदान देना चाहिए  

भारतीय मूल के छींद पेड़ को जंगली खजूर, संस्कृत में खर्जूर, अंग्रेजी में सिल्वर डेट पाम, इंडियन डेट, शुगर डेट पाम, इंडियन वाइन पाम तथा वनस्पति शास्त्र में  फीनिक्स सिल्वेस्ट्रिस  के नाम से जाना जाता जो  अरेकेसी परिवार का  बहुवर्षीय  वृक्ष है। प्राचीन काल से ही छिंद के पेड़ प्राकृतिक रूप से  समस्त भारत में  बहुतायत में पाये जाते है। राजस्थान, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल  मै नैसर्गिक रूप से उग्त्ते है. छत्तीसगढ़ के बस्तर, सरगुजा एवं मैदानी क्षेत्रों में छिंद के वृक्ष बड़ी संख्या में देखे जा सकते है और इनकी बहुलता के कारण छिन्दगड़, छिंदपुर जैसे गाँव भी बसे है  मध्यप्रदेश के छिंदवाडा शहर का नाम भी छिंद कि बहुलता के कारण पड़ा. छिंद बाहुल्य वाले क्षेत्रों में स्थानीय गरीब  लोगों की आजीविका प्रमुख साधन है आदिवासी-वनवासी समाज में छिंद के पेड़ बहुत ही पवित्र एवं पूज्यनीय माने जाते है. परंपरागत रूप से छिंद की पत्तियों से मुकुट (मोर) बनाकर शादी विवाह में पहना जाता है इस पेड़ की पूजा करने के उपरान्त ही आदिवासी इसके फल एवं रस का सेवन करते है

छिंद के पेड़ प्रायः जंगल, सडक किनारे, नहर, नाले, तालाब, नदी के किनारे तथा खेतों की मेंड़ों पर स्वमेव उगते है छिंद के धारीदार तने और उस पर हरे धूसर रंग की विराट पत्तियों का ताज धारण किये हुए इसके पेड़ बेहद ख़ूबसूरत लगते है और इसलिए आजकल इसके पेड़ बाग़-बगीचों एवं सडकों पर भी लगाये जाने लगे है छिंद ही आज के खजूर का पूर्वज है  छिंद खजूर शुष्क एवं मरुस्थलीय क्षेत्रों के आदिवासी एवं वनवासियों के लिए प्रकृति प्रदत्त वरदान है  छिंद के वृक्ष 10 से 16 मीटर ऊंचे तथा खुरदुरे तने  वाले होते है इसके वयस्क पेड़ पर 80-100 पत्तियां हो सकती है जो हरे-धूसर रंग की, 3-4.5 मीटर लंबी, थोड़ी मुड़ी हुई एवं कांटे युक्त आधार वाली  तने के चारों ओर एकांतर क्रम में लगी रहती है। इसका पुष्पक्रम पीले रंग का लगभग 1 मीटर लम्बा बहुशाखित होता है जिसमें छोटे-छोटे सुगंधित  सफेद पुष्प घने गुच्छो में लगते है। इसके फल (ड्रुप) गुच्छो में आते है। खजूर कि अपेक्षा छिंद के फल आकार में छोटे (2.5 से 3.2 सेमी लम्बे)  एवं कम गूदेदार होते है इसके फल पीले एवं नारंगी  रंग के होते है जो जो पकने पर लाल-गुलाबी रंग के हो जाते है फलों के अन्दर एक सख्त बीज होता है सामान्य तौर पर छिंद में  जनवरी से अप्रैल तक फूल आते है तथा अक्टूबर- दिसम्बर तक फल पकते है एक पेड़ से औसतन 7-8 किग्रा फल प्राप्त किये जा सकते है फलों का रंग पीला-नारंगी होने पर फल गुच्छो को काटकर धान के पुआल अथवा गेंहू के भूसे में दबाकर  रख देने से  2-3 दिन में फल पक जाते है

अमृत है छिंद रस : मूल्य संवर्धन की पहल जरुरी 

शीत ऋतू में छिंद के पेड़ उपहार स्वरूप छिंद रस प्राप्त होता है । प्रति वर्ष नवम्बर की शुरुआत में  ग्रामीण एवं वनवासी रात्रि के समय छिंद के वयस्क  पेड़ों के ऊपरी हिस्से के नर्म तने में धार वाले औजार से चीरा लगाकर मिट्टी का घड़ा (हांडी) अथवा एल्युमिनियम का बर्तन टांग देते है रात्रि भर में बूँद-बूँद कर रस टपकता रहता है और सुबह तक बर्तन पूरा भर जाता हैएक पेड़ से प्रतिदिन 3-4 लीटर शुद्ध रस प्राप्त हो जाता है शर्दी भर यह रस प्राप्त होता रहता है। छिंद का ताजा  रस स्वाद में खट्टा- मीठा एवं जो दूसरे दिन से  हल्का नशीला होने  लगता है। छत्तीसगढ़ के बस्तर एवं सरगुजा क्षेत्र में सडक किनारे छिंद रस का बाजार सजा रहता है। यहां से गुजरने वाले राहगीर एवं पर्यटक छिंद रस का स्वाद एवं आनंद लेते देखे जा सकते है। एक गिलास रस आज भी 10-15 रूपये में उपलब्ध हो जाता है। कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान छिंद बाहुल्य क्षेत्र के नशेड़ियों के लिए छिंद रस ही एक सहारा था।

पौष्टिकता के लिहाज से 100 ग्राम ताजे  छिंद रस में 358 kcal ऊर्जा, 85.83 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 3.95 ग्राम शर्करा, 1.08 ग्राम प्रोटीन, 1.15 ग्राम वसा,0.18 ग्राम फाइबर, खनिज लवण (180.9 मिग्रा फॉस्फोरस, 80 मिग्रा पोटैशियम, 4.76 मिग्रा कैल्शियम, 2.23 मिग्रा मैग्नीशियम, 18.23 मिग्रा सोडियम, 15.8 मिग्रा आयरन, 7.13 मिग्रा जिंक, 2.13 मिग्रा कॉपर)  के अलावा विटामिन ए, विटामिन बी 1 (थियामिन), विटामिन बी 2 (रिबोफ्लेविन), विटामिन बी 3 (नियासिन), विटामिन बी 5, विटामिन बी 6 एवं विटामिन सी प्रचुर मात्रा में पाए गए है (सल्वी एवं कटेवा, 2012). इस प्रकार से छिंद का ताजा रस स्वास्थ्यवर्धक एवं पौष्टिक पेय माना जा सकता है। लेकिन 12 घंटे से अधिक समय तक रखने पर इमसे किण्वन (Fermentation)  प्रारंभ होने से यह मादक एवं उत्तेजक हो जाता है

छिंद रस को गर्म करके गुड़ भी तैयार कर खाया एवं बेचा जाता  है पौष्टिक एवं औषधीय गुणों से भरपूर छिंद के गुड़ का बाजार में काफी मांग रहती है। शर्दी एवं गर्मी में  छिंद गुड़ 200-250 रुपये प्रति किलो के भाव से मिलता है। गुड़ का उपयोग मिठाइयां और खीर बनाने में किया जाता है। छिंद रस से बने रसगुल्ले एवं कलाकंद स्वादिष्ट होने की वजह से बेहद पसंद किये जाते है शहरवाशी एवं पर्यटक छिंद रस की मिठाई खाते भी है और अपने घर भी ले जाते है प्रकृति प्रदत्त छिंद रस का  वैज्ञानिक तरीके से प्रसंस्करण  एवं  मूल्य संवर्धन कर  कुछ नवीन  उत्पादों को बाजार में अच्छा प्रतिसाद मिल सकता है। अतः छिंद रस के विभिन्न उत्पादों से संबंधित लघु एवं कुटीर उद्योग स्थापित करने से  ग्रामीण समुदाय को रोजगार एवं आय अर्जन के नयें अवसर प्राप्त हो सकते है  

ग्रामीणों एवं वनवासियों का मेवा है छिंद फल 

छिंद के फल खाने में मीठे एवं पौष्टिक होते है. इसके ताजे पके  फल सीधे  एवं सुखाकर छुहारे की भांति खाए जाते है इनसे जैम, जेली एवं मुरब्बा  तैयार कर खाने में इस्तेमाल किया जा सकता है छिंद के फल अर्थात जंगली खजूर  को आयुर्वेद में  शीतल गुणों वाला मधुर, पौष्टिक एवं बलवर्धक माना गया है इसमें  कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, विटामिन, रेशे, शर्करा,खनिज एवं  विटामिन भरपूर मात्रा में पाये जाते है शरीर में शक्ति बढ़ाने, पाचन विकार, गठिया रोग  एवं खून की कमी (एनीमिया) को दूर करने के लिए इनका सेवन लाभप्रद होता है एंटीऑक्सीडेंटस की  बहुलता होने के कारण इसके सेवन से शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता बढती है और अनेक जानलेवा बिमारियों से सुरक्षा होती है पौष्टिक गुणों से भरपूर खजूर फल प्रकृति का बेमिसाल उपहार है, जो मानव शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है।  स्वाद और पोषक तत्वों से परिपूर्ण छिंद फल अभी भी अल्प उपयोगी फल है.  ग्रामीण क्षेत्रों में ही इस फल को थोडा-बहुत खाने में प्रयोग किया जाता है, बाकी फल बेकार हो जाते है जिन ग्रामीण क्षेत्रों में छिंद के वृक्ष बहुतायत में उगते है, वहां फलों के एकत्रीकरण, प्रसंस्करण एवं मूल्य संवर्धन से स्थानीय लोगो को रोजगार के नए अवसर मिल सकते है.इन फलों से जैम, जेली अथवा सुखाकर पाउडर बनाया जा सकता है इन प्रसंस्कृति उत्पादों को गाँव की आँगन बाड़ी एवं स्कूलों के मध्यान्ह भोजन में सम्मलित किया जा सकता है इससे ग्रामीण बच्चो में व्याप्त कुपोषण कि समस्या से निजात मिल सकती है

छिंद के पत्ते भी रोजगार एवं आय का साधन 

फल और रस के अलावा छिंद की लंबी संयुक्त पत्तियों से उम्दा किस्म की झाड़ू, टोकरी, चटाई, टोपी, रहने के लिए झोपड़ी, रस्सी और  पशुओं के लिए अस्तबल (कोठा) तैयार किये जाते है इसकी पत्तियों से निर्मित झाड़ू मजबूत एवं टिकाऊ होने के कारण ग्रामीण  क्षेत्रों में  बहुतायत में इस्तेमाल की जाती है। इसके फलों के मजबूत डंठलों के झुंड  भी खेत खलियान की साफ़- सफाई के लिए झाड़ू  की भांति उपयोग किये जाते  है। ग्रामीण एवं जनजातीय महिलाओं के लिए छिंद की पत्तियां रोजगार एवं आमदनी का सस्ता एवं सुलभ साधन है। छिंद के पेड़ से सिर्फ नीचे की 50 % पातियाँ ही काटी जानी चाहिए ताकि ऊपर की हरी पत्तियों से पेड़ों को पर्याप्त पोषण मिलता रहे और वे सूखे नहीं. इसके लिए  ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागरूकता अभियान चलाने की जरुरत है इसके अलावा इसके पत्तों से विभिन्न प्रकार के घरेलू सामान जैसे झाडू, उन्नत झाड़ू, रस्सी, टोकनी, चटाई, झोला, टोपी आदि तैयार करने की तकनीक से सम्बंधित ग्रामीण महिलाओं एवं नौजवानों को उचित प्रशिक्षण एवं रोजगार स्थापित करने के लिए आर्थिक सहायता एवं तकनीकी मार्गदर्शन दिया जाना चाहिए  ग्रामीण क्षेत्र में छिंद वृक्ष के विभिन्न उत्पाद तैयार करने के लिए लघु एवं कुटीर उद्योग स्थापित करने की अच्छी संभावना है

छिंद के वृक्षों के अतिसय दोहन पर रोक जरुरी 

छिंद वृक्ष न केवल आदिवासियों के लिए बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों के बेरोजगार एवं भूमिहीन किसानों के लिए रोजगार एवं आमदनी का सुलभ साधन है, बल्कि इन क्षेत्रों में व्याप्त कुपोषण उन्मूलन में भी वरदान सिद्ध हो सकता है  दुर्भाग्य से व्यापारियों एवं शहरियों की छिंद के पेड़ों पर नजर पड़ने से विभिन्न प्रयोजनों जैसे फल एवं रस के लिए इनके पेड़ों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है इनसे रस निकालने के लिए अनुचित तरीके से इनमें चीरा लगाया जाता है इसके  कारण हरे-भरे पेड़ सूखने लगते है.इसके  लिए स्थानीय निकायों एवं ग्राम पंचायतो को सतत निगरानी रखना चाहिए  तथा पेड़ों से रस निकालने की वैज्ञानिक पद्धति के बारे में ग्रामीणों को शिक्षित प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।  झाडू एवं अन्य सामग्री तैयार करने के लिए छिंद पेड़ की अधिकांश हरी पत्तियों को भी काट लिया जाता है इससे इनके पेड़ों की वृद्धि एवं विकास पर प्रतिकूल प्रभाव  पड़ने के साथ-साथ बहुत से पेड़ असमय ही सूखकर दम तोड़ते नजर आ रहे है  इसके लिए ग्राम पंचायतो को नियम बनाकर सिर्फ नीचे के सूखे एवं अर्द्ध सूखे पत्तों को काटने की सूचना ग्रामवासियों को प्रदान करना चाहिए।  समय रहते  प्रकृति की अनमोल धरोहर  के अतिसय दोहन को सीमित करते हुए बंजर एवं खाली भूमियों पर इनका रोपण करना भी जरुरी है, तभी हम इन बहुपयोगी वृक्षों को सुरक्षित कर सकते है।

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सोमवार, 5 दिसंबर 2022

मृदा स्वास्थ्य की रक्षा से ही संभव है भोजन सुरक्षा

विश्व मृदा दिवस-2022 पर विशेष 

                                                                    डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर

प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

     विश्व की आबादी के उदर पोषण  का मुख्य आधार  मृदा ही है और भविष्य में भी इसका अन्य कोई विकल्प नहीं हो सकता है। विज्ञान की मदद से हम सब कुछ बना सकते है, लेकिन मिट्टी, जल और वायु  बनाने में हम शायद कभी कामयाब  नहीं हो सकते है। मिट्टी,पानी और बयार-ये है जीवन के आधार वाले सूत्र में मिट्टी का स्थान सर्वोपर्य है। एक इंच मोटी मिट्टी की उपजाऊ परत के निर्माण में प्रकृति को करीब 700-800 वर्ष लगते है। यही एक इंच मिट्टी कृषि भूमि का अभिन्न अंग एवं जीवन का आसरा है। उस मिट्टी का तेजी से क्षरण (Degradation) और गैर उपजाऊ अर्थात बीमार होते जाना बेहद चिंता का विषय है। इसी चिंता को मद्देनजर रखते हुए संयुक्त राष्ट्रसंघ के खाद्य और कृषि संगठन ने मृदा के महत्व एवं मृदा प्रबंधन से संबंधित  वैश्विक जागरूकता के उद्देश्य से वर्ष 2014 से प्रति वर्ष 5 दिसंबर को विश्व मृदा दिवस मनाये जाने का निर्णय लिया. इस वर्ष विश्व मृदा दिवस-2022 का मुख्य विषय ‘मृदा-जहां भोजन की शुरुआत (Soils, Where Food Begins) रखा है.

हमारे  जीवन के लिए उपयोगी 95 प्रतिशत से अधिक भोज्य सामग्री मिट्टी  में ही उपजती है। खाद्य सामग्री पैदा करने वाले पेड़-पौधों का पोषण मृदा से ही होता है। गहन कृषि एवं पोषक तत्वों की कम अथवा असंतुलित आपूर्ति, मृदा प्रदूषण एवं मृदा क्षरण आदि कारकों के चलते अन्नपूर्ण धरती की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जा रही है, जिसका कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव देखा जा रहा है.  इतिहास साक्षी है कि जब-जब मानव ने मिट्टी को सजीव मानकर उसकी आवश्यकताओं  की पूर्ति की तो उसने धरती को अन्नपूर्णा के रूप में पाया । किन्तु जब मिट्टी की उपेक्षा की गयी तो कई सभ्यतायें नष्ट हो गयी।  संत कबीरदास ने ठीक ही कहा था
माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहे, एक दिन ऐसा आएगा मैं रौदूंगी तोय ।।  विकास की रफ़्तार और अधिक कमाने के लालच में मानव ने धरती का अत्यधिक दोहन तो किया लेकिन उसे उर्वरा बनाये रखने के लिए कोई उपाय नहीं किये और यही कारण है  कि हमारी  अन्नपूर्णा धरती भूख और कुपोषण (पोषक तत्वों एवं पानी की कमीं) की शिकार हो गई।  विभिन्न रूपों में हमारी थालियों को  सजाने वाली मिट्टी  अपनी उर्वरता एवं उत्पादकता खोती जा रही है । वैश्विक स्तर पर देखें तो 90% मिट्टी की गुणवत्ता यानी मृदा स्वास्थ  में कमी आ चुकी है। इसका तात्पर्य है कि मृदा में कार्बनिक पदार्थ सहित पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की कमीं  आती जा रही है, जो हमारी खाद्य सुरक्षा  के लिए गंभीर समस्या पैदा कर सकती है।

कृषि उत्पादकता को टिकाऊ बनाये रखने और पर्यावरणीय संसाधनों की रक्षा करने के लिए मृदा का स्वस्थ बने रहना जरुरी है स्वस्थ मृदा लाभदायक, उत्पादक और पर्यावरण अनुकूलित कृषि प्रणालियों की नींव है जलवायु परिवर्तन के कारण तापक्रम में बढ़ोत्तरी, भू-जल में कमीं, मृदा अपरदन, मृदा में कार्बनिक पदार्थ का ह्रास, उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग, गहन कृषि के कारन मृदा में पोषक तत्वों की कमीं आदि मृदा स्वास्थ्य में हो रही गिरावट के मुख्य कारण है अतः मृदा में हो रहे क्षरण को रोकने तथा मृदा स्वास्थ्य एवं गुणवत्ता में सुधार के उपायों से संबंधित सम्पूर्ण जानकारी किसानों को देना समय की मांग है स्वस्थ मृदा-स्वस्थ धरा की अवधारण के अंतर्गत मृदा में आवश्यक पोषक तत्वों एवं उपयोगी जीवों की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता के लिए  मिट्टी परिक्षण के आधार पर उर्वरकों के साथ-साथ जैविक खाद एवं हरी खाद का संतुलित उपयोग निहायत जरुरी है प्रत्येक किसान को अपने सभी खेतों का मृदा स्वास्थ्य कार्ड बनवाकर उसकी अनुसंषाओं के अनुरूप खाद एवं उर्वरकों की संतुलित मात्रा का  इस्तेमाल करना चाहिए

इसके अलावा फसल प्रणाली में दलहनी फसलों का समावेश, मृदा नमीं का संरक्षण, न्यूनतम जुताई, फसल अवशेष का उचित प्रबंधन भी आवश्यक है अतः प्राकृतिक संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना मिट्टी की गुणवत्ता बनाएं रखना अथवा मृदा के स्वास्थ्य में सुधार ही हमारे कृषि उत्पादन का समग्र लक्ष्य होना चाहिए तभी हम भविष्य की खाद्य एवं पोषण सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते है