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शनिवार, 1 अप्रैल 2017

फसल विविधिकरण और आमदनी बढ़ाने पौदीना एक आदर्श फसल

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 

           पौदीना (मेंथा आरवेन्सिस) लैबिएटी कुल का सुगन्धित पौध समूह है जिसमें मेंथा की अनेक प्रजातियां आती हैं। इनमें से जापानी पोदीनी (मेंथा आरवेन्सिस), पिपरमिन्ट (मेंथा पिपरिटा), बर्गामाट पोदीना (मेंथा सिट्रेटा) और स्पियर मिन्ट (मेंथा स्पिकाटा) प्रजातियाँ प्रमुख हैं। मेंथा के तेल में काफी मात्रा में  (60-90 प्रतिशत) तक मेंथाल होने के कारण इसका महत्व सुगन्ध तेल उद्योग में बढ़ गया है। विश्व में मेंथा तेल की खुशबू एवं घटकों के उपयोग की दृष्टि से भारत का  तीसरा स्थान है। अनेक औषधियों, सुगंधिकारकों (पान मसाला, कन्फैकनरी आदि में) तथा इत्र उद्योग में इसका उपयोग आवश्यक रूप से किया जाता है। विगत कुछ सालों से इसके तेल की बाजार में अच्छी माँग है। मेंथा की विभिन्न प्रजातियों के आसवनन से प्राप्त सुगन्धित तेल का उपयोग विभिन्न उद्योगों जैसे-पान मसाला, सर्दी खासी की दवाइयों, कन्फैक्शनरी, सुवास एवं फार्मास्युटिकल्स आदि में बड़े पैमाने पर होता है। मेंथा तेल से उच्च मूल्य का मेन्था फ्लेक्स तथा मेंथा क्रिस्टल बनाए जाते हैं। भारत में मेंथा का सर्वाधिक उत्पादन उत्तर प्रदेश में होता है। यद्यपि मेंथा की खेती में सिंचाई और अन्य लागतें अधिक लगती है।  इसके वावजूद भी  व्यावसायिक क्षेत्रों और खाद्य उद्योग में मेंथा तेल के बढ़ते प्रयोग के कारण देश में मेंथा की खेती में सुनहरे अवसर है। सिंचित क्षेत्रों के किसानों को  अपनी खेती-किसानी  में विविधिता लाने और प्रति इकाई ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए  पौदीना यानि  मेंथा की खेती  अत्यंत  लाभदायक होती जा रही है और यही वजह है  कि देश के अन्य राज्यों जैसे - पंजाब, हरियाणा, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि  में मेंथा की खेती करने किसानों में उत्साह देखने को मिल रहा हैं।अग्र प्रस्तुत शस्य तकनीक  को व्यवहार में लाते हुए  मेंथा की खेती अधिकतम उत्पादन और आमदनी अर्जित की जा सकती है।  

खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

      मेंथा की खेती उष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु जहाँ पर अपेक्षाकृत हल्के जाड़े एवं ग्रीष्म ऋतु गर्म हो, आसानी से की जा सकती है। अत्यधिक ठंडे स्थान  मेंथा की खेती के लिए उपयुक्त नहीं रहते हैं क्योंकि कम तापमान पर मेंथा के पौधों की पत्तियों में तेल एवं मेन्थाल का संश्लेषण तथा पौध वृद्धि कम होती है। मेंथा  की खेती औसत तापमन 20 से 40 डिग्री. से. तापमान तापमान तथा 95-105 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों  में सरलता से की जा सकती है।


भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी 

            उचित जल निकास एवं पर्याप्त कार्बनिक पदार्थ वाली बलुई दोमट से चिकनी दोमट मिट्टी जिनका पी.एच. 6.5 से 7.5 तक हो, मेंथा की खेती के लिए उपयुक्त रहती है। हल्की ढीली मिट्टी जो जल्दी सूख जाती है तथा भारी मिट्टी (जड़ों का समुचित विकास नहीं हो पाता है) इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती। यह फसल खेत में जल भराव सहन नहीं करती है। सर्वप्रथम मिट्टी पलटने वो हल से गहरी जुताई करनी चाहिए जिससे मिट्टी ढीली हो जाए। इसके बाद देशी हल या कल्टीवेटर से आडी-तिरक्षी (क्रास) जुताई करें जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाए। अंतिम जुताई के समय खेत में 5ः क्लोरपायरीफास 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देने से फस में दीमक व अन्य कीटों का प्रकोप नहीं होता है। खेत को पाटा चलाकर समतल कर लेना चाहिए।

उन्नत किस्मों का इस्तेमाल 

1. एम.ए.एस.1: यह शीघ्र तैयार होने वाी तथा मेन्थाल की अधिक मात्रा युक्त किस्म है जिससे 200 क्विण्टल/हेक्टेयर  शाक उपज तथा 125 किग्रा. प्रति हेक्टेयर एसेन्सियल आयल प्राप्त होता है। इसके तेल में 82 प्रतिशत मेंथाल पाया जाता है।
2. कालका: इस किस्म के तेल में 81 प्रतिशत मेंथाल पाया जाता है। औसतन 250 क्विण्टल/हेक्टेयर  शाक उपज जिससे 150 किग्रा. एसेन्सियल आयल प्राप्त होता है। यह किस्म लीफ स्पाट व रस्ट रोग प्रतिरोधी है।
3. शिवालिक: यह चीन का पौधा है। देर से तैयार होने वाली इस किस्म से 300क्विण्टल/हेक्टेयर  शाक उपज और 180 किग्रा. एसेन्सियल आयल प्राप्त होता है। तेल में 75 प्रतिशत मेंथाल पाया जाता है।
4. गोमती: यह भी देर से तैयार होने वाली किस्म है जिससे 400 क्विण्टल/हेक्टेयर उपज और 140 किग्रा. एसेन्सियल आयल प्राप्त होता है। इसके तेल में 75 प्रतिशत मेंथाल पाया जाता है।
5. हिमालय: यह मेंथाल पोदीने की नवीन किस्म है। इसके पौधे लम्बे, तने हरे तथा पत्तियाँ हल्की हरे रंग की मोटी और मुलायम होती हैं। इसकी फसल की दो कटाइयों में प्रति हेक्टेयर 350 - 450 क्विण्टल/हेक्टेयर  शाक (हर्ब) प्राप्त होता है जिससे 200-250 किग्रा. तेल प्राप्त होता है। अन्य किस्मों की अपेक्षा इसमें 28-35 प्रतिशत अधिक तेल उत्पादन की क्षमता होती है। इसके तेल में 78 प्रतिशत मेंथाल पाया जाता है।
6. कोसी: शीघ्र तैयार होने वाली इस किस्म से औसतन 450-500 क्विण्टल/हेक्टेयर  हर्ब तथा 260-300 किग्रा. तेल प्राप्त होता है। इसके तेल में 80-85 प्रतिशत मेंथाल होता है।
7. हाईब्रिड: यह तेज बढ़ने वाला पौधा है। इससे 262 क्विण्टल/हेक्टेयर  पत्तों की उपज तथा 468 किग्रा. प्रति हेक्टेयर तेल प्राप्त होता है जिसमें 81.5 प्रतिशत मेंथाल होता है।

बुआई-रोपाई का समय

            मेंथा की बुआई का सवोत्तम समय जनवरी-फरवरी का होता है। रबी फसल की कटाई के बाद भी मेंथा का रोपण किया जा सकता है। जल्दी बुआई करने पर तापमान कम होने से भूस्तारियों का अंकुरण नहीं हो पाता है और अधिक  देर में बोई गई फसल की वृद्धि रूक जाती है, क्योंकि  इसके पौधे दीर्घ-प्रकाशपेक्षी होने के कारण बुआई तथा फूल आने के बीच का समय कम हो जाता है।  किसी कारणवश देरी से बुआई (मार्च-अप्रैल) करने हेतु मेंथा की रोपणी तैयार कर बुआई करना श्रेयस्कर होता है।

बीज की तयारी और रोपाई 

            मेंथा में कायिक प्रवर्धन भूस्तारियों द्वारा होता है। भूस्तारी सर्दी के दिनों में उपलब्ध  रहते हैं। सही किस्म के चुनाव के बाद अच्छी गुणवत्ता वाली पौध सामग्री का ही प्रयोग प्रसारण हेतु करना चाहिए। भूमिगत भूस्तारी स्वस्थ पौधों से चुनना चाहिए जो गेरूई रोग से पूर्णतः मुक्त हो। स्वस्थ एवं रोग रहित भूस्तारी प्रायः सफेद रंग के और अधिक रसीले होते है। भूस्तरी को छोटे-छोटे टुकड़ों में 8-10 सेमी. नाप के काट लेना चाहिए। बुआई से पूर्व भूस्तरी को 0.1 प्रतिशत कवकनाशी घोल में 5-10 मनिट तक डुबो लेना चाहिए जिससे फफूँदी रोग से फसल की रक्षा हो सकें। मेंथा फसल का रोपण  सीधे सकर्स एवं पौध द्वारा की जाती है।
1. सीधे सकर्स से बोआई: जहाँ मेंथा की खेती पहली बार की जा रही है, वहाँ यह विधि उपयोगी रहती है। इसके लिए मेंथा के सर्कस (एक प्रकार का तना) उन स्थानों से प्राप्त करें जहाँ पहले से इसकी खेती होती हो। इसके बाद इस सकर्स को सीधे खेत में 60 - 75 सेमी की दूरी पर लगा दें। जनवरी - फरवरी में लगाईं जाने वाली फसल में पौधों के मध्य की दूरी 75 सेमी. रखें . देर से  बुआई करने पर पौधों के मध्य का फासला कम रखना चाहिए। सकर्स भूमि में 5 - 8 सेमी. की गहराई पर बोनी चाहिए। इस विधि में प्रति हेक्टेयर लगभग 3 - 4 क्विंटल  सकर्स की आवश्यकता पड़ती है। जनवरी - फरवरी में लगाये गये सकर्स का जमाव 2 - 3 सप्ताह में होना शुरू हो जाता है। पहले साल 0.5 हेक्टेयर क्षेत्र में लगाई गई फसल से अगले वर्ष 10 हेक्टेयर क्षेत्र में पौधे रोपे जा सकते है।
2. पौध रोपण विधि: रबी फसल के बाद मेंथा की खेती रोपण विधि से करना चाहिए। इसमें सबसे पहले पौधों की नर्सरी तैयार की जाती है। एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 1250 वर्गफीट क्षेत्र की नर्सरी पर्याप्त होती है। इसके लिए 250 किग्रा. मेन्था सकर्स को छोटे - छोटे टुकड़ों (प्रत्येक टुकड़े में कम से कम एक आँख हो) में काटाकर पानी से भरी नर्सरी में बिखेर दिया जाता है। इसके बाद नर्सरी में झाडु चलाकर पानी को मटमैला कर दिया जाता है। पानी सूखने पर इसके ऊपर गोबर की सड़ी हुई खाद अथवा पलवार बिछा दी जाती है। लगभग 30 - 40 दिन में पौध तैयार हो जाती हैै। मार्च - अपैल में नर्सरी के इन पौधें का मुख्य खेत में रोपण किया जा सकता है।

सकर्स तैयार करने की विधि

            भूस्तारी (सकर्स या रनर्स) के उत्पादन हेतु पौधों या जड़ों की रोपाई का उचित समय 15 अगस्त से लेकर 30 अगस्त होता है। पौध  तैयार करने के लिए ऐसे खेत का चयन करें जहाँ पानी न भरता हो और मेंथ की फसल न ली गई हो। एक वर्ग मीटर क्षेत्र से 2 - 4 किग्रा. सकर्स या रनस तैयार हो सकते है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए सीधी बुआई करने के लिए 100 - 200 वर्गमीटर क्षेत्रफल एवं पौध द्वारा रोपाई करने के लिए 25 - 50 वर्गमीटर जगह की आवयकता पड़ती है। इसके बाद 1 किग्रा. वर्मीकम्पोस्ट या 2 किग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद डालकर खेत की 2 - 3 बार जुताई करना चाहिए। अन्तिम जुताई के समय प्रति वर्गमहटर के हिसाब से 11 - 15 ग्राम डी. ए. पी. एवं 10 ग्राम म्यूरेट ऑफ़  पोटाश मिलाना चाहिए। इसके बाद पुरानी फसल छोटे - छोटे जड़दार पौधे या सकस की कटिंग को 50 सेमी. की दूरी पर कतार में लगाएँ तथा दो पौधों का एक चैथाई भाग पीला पड़ जाय तब सिंचाई बंद कर देनी चाहिए। अगस्त में रोपी गई  पौध में यह अवस्था दिसम्बर के प्रथम सप्ताह में आ जाती है। इसके बाद सकर्स की खुदाई तक खेत में पानी नहीं देना चाहिए। आवश्यकतानुसार निराई - गुड़ाई करते रहना चाहिए। सकर्स की खुदाई से पूर्व ऊपरी पौधों को काटकर अलग कर देना चाहिए। इसके बाद भूमि की ऊपरी सतह (3 - 5 सेमी.) को मिट्टी सहित खोदकर सकर्स अलग कर लेना चाहिए। नये एवं सफेद रंग के सकर्स जो मोड़ने पर टूट जाय एवं जिनमें फाइबर कम हो, रोपण के लिए सर्वोत्तम रहते है।

संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन

            मेंथा का वानस्पतिक भाग (तने और पत्तियां) ही इसकी आर्थिक उपज है।  अतः मेंथा की उत्तम वानस्पतिक बढ़वार के लिए संतुलित मात्रा में पोषक तत्वों का इस्तेमाल आवश्यक है।   मिट्टी परीक्षण के पश्चात ही पोषक तत्वों की सही मात्रा का आंकलन कर खाद एवं उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए।  खेत में अंतिम जुताई के समय 10 - 15 टन सड़ी गोबर की खाद अच्छी तरह से मिला देना चाहिए। सामान्यतौर पर 120 - 150 कि. नत्रजन, 60 - 80 कि.ग्रा. स्फुर एवं 40 - 60 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर उर्वरकों के रूप में देना चाहिए। फाॅस्फोरस व पोटाश की पूर्ण मात्रा उर्वरकों के रूप में बुआई के समय दी जाती है। नत्रजन की कुल मात्रा का एक तिहाई भाग बुआई के समय एवं शेष दो तिहाई भाग का प्रयोग 2 - 3 बार में खड़ी फसल में किया जाता है। खड़ी फसल में नत्रजन पहल निराई के पहले जब पौधे 15 सेमी. के हो जाए, तब देनी चाहिए। शेष नत्रजन, खड़ी फसल में पत्येक कटाई के बाद देना अच्छा रहता है। मेंथा की पत्तियों पर 2.5 से 3 प्रतिशत यूरिया का घोल टारड्रेसिंग के लिए प्रयोग करना लाभप्रद पाया गया है। नाइट्रोजन तत्व की पूर्ति यूरिया या डी. ए. पी. के द्वारा तथा फॉस्फोरस  व पोटाश की पूर्ति सिंगल सुपर फास्फेट और म्यूरेट ऑफ़  पोटाश द्वारा की जाती है। जस्ते की कमी वाली मिट्टियों में 20 किग्रा. जिंक सल्फेट/हेक्टेयर बुआई के समय खेत में डालना चाहिए।

भरपूर सिचाई से ही अधिकतम उपज

            मेंथा अधिक पानी चाहने वाली फसल है अतः  इसकी फसल सूखा सहन नहीं कर पाती है। घनी पत्तियों से युक्त एवं रसीली होने के कारण यह भूमि से अधिक मात्रा में जल एवं पोषक तत्वों का अवशोषण करती है। भूमि की संरचना के आधार पर सभी प्रजातियों को गर्मी में अधिक सिंचाई (10 - 15 दिन के अंतराल) की आवश्यकता पड़ती है। खड़ी फसल मे मृदा की नमी का स्तर 50 प्रतिशत आने पर शीघ्र सिंचाई् करना चाहिए। सामान्यतौर पर ग्रीष्म काल में 12 - 15 तथा शीत ऋतु में 5 - 6 सिंचाइयाँ देना आवश्यक होता है। मेंथा की एक कटाई की औसत जलमाँग 400 मिमी. के आसपास होती है। प्रथम कटाई के बाद ऊतकों के पुनरूद्भवन के लिए पर्याप्त नमी का होना अति आवश्यक है। खेत में नमी की कमी होने पर फसल की वृद्धि प्रभावित होती है। हल्की भूमि में अधिक तथा भारी भूमि में कम सिंचाइयों क आवश्यकता पड़ती है। जलाक्रांत अवस्था का फसल बढ़वार व पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तथा मूल विगलन रोग होने की संभावना रहती हैैै। अतः खेत में जल निकासी का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

            फसल को खरपतवारों से मुक्त रखना आवश्यक है। इन पर नियंत्रण न पाने की दशा में 60 - 70 प्रतिशत उपज में हानि संभावित है। पहली निंदाई पौध लगाने के 5 - 6 सप्ताह बाद करना चाहिए इसके बाद एक - दो निंदाइयों की आवश्यकता पड़ती है। खरपवार नियंत्रण के लिए आॅक्सी फ्लोरफैन (गोल) 0.5 कि.ग्रा/हेक्टेयर अथवा पेंडीमिथिलीन 1 कि.ग्रा./हेक्टेयर का घोल बनाकर बुआई या रोपाई के 2 - 3 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए।

फसल की कटाई

            मेंथा की सही समय पर कटाई नहीं करने से इसकी उपज व गुणवत्ता पर बुरा  प्रभाव पड़ता है। यदि जल्दी कटाई कर ली जाए तो मेंथाल की मात्रा घट जाती हैं और देर से कटाई की जाए तो भी पत्तियों के सूखने पर तेल की मात्रा घट जाती है। पौधों की आयु के साथ - साथ मेंथा में तेल एवं मेंथाल की मात्रा बढ़ती रहती है तथ फूल आते समय यह सर्वाधिक होती है। फूल आने के बाद इनकी मात्रा घटने लगती है। अतः फूल आने की अवस्था कटाई के लिए उपयुक्त रहती है। देर से काटन पर पत्तियां झड़ने लगती है जिससे उत्पादन भी कम हो जाता है। सामान्यतौर पर मेंथा की पहली कटाई बुआई के 100 - 120 दिन बाद तथा दूसरी कटाई पहली कटाई के 60 - 70 दिन बाद करना चाहिए। कटाई के समय आसमान खुला हो तथा चमकती धूप हो। कटाई हँसिया द्वारा भूमि की सतह से 8 - 10 सेमी. की ऊँचाई से करना चाहिए। कटाई के बाद फसल को 2 - 4 घंटे के लिए खेत मे छोड़ देते है। तत्पश्चात् पौधें के छोटे - छोटे गट्ठर बनाकर उन्हे छाया में सुखाया जाता  है। सुखाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि पत्तियाँ गिरने न पाएँ। जब गट्ठर का वजन तिहाई - चैथाई रह जाए, तो सुखाना बन्द कर देना चाहिए। धूप में सुखाने पर तेल की मात्रा घट जाती है।

मेंथा उपज का आसवन

            मेंथा का आसवन हरी तथा सूखी, दोनों ही अवस्थाओं में किया जा सकता है। हरी फसल के आसवन में समय और व्यय अधिक लगता है, क्योंकि हरी फसल के आसवन में सूखी फसल के आसवन से 7 गुनी  अधिक वाष्प लगती है। मेंथा से तेल निकालने के लिए वाष्प आसवन विधि उत्तम रहती है। इसके लिए एक बड़े  बर्तन में पौधें भर दिए जाते है। फिर नीचे से उसमें वाष्प (भाप) गुजारी जाती है। भाप के पौधो के संपर्क में आने पर पौधों में उपस्थित तेल भी वाष्प में बदल जाता है। इस तेलयुक्त भाप को संघनित्र से गुजारते हैं जहाँ पर भाप संघनित होकर पानी में और तेल वाष्प में बदल जाता है। इसे एक पात्र में इकट्ठा कर लेते हैं। हल्का होने के कारण तेल पानी की सतह पर तैरता रहता है। तेल को अलग करके छाल लेते हैं। इस तेल का रंग सुनहरा-पीला होता है। उसका स्वाद कडुवा होता है। त्वचा पर लगाने पर यह शीतलता प्रदान करता है। इस तेल को काँच की रंगीन बोतलों में या गैल्वानाइज्ड साफ ड्रम में अपेक्षाकृत कम तापमान वाले कमरे में सूर्य के प्रकाश से दूर रखते हैं। आजकल जल वाष्प आसवन विधि से भी मेथा से तेल निकाला जाता है। जल वाष्प आसवन विधि सस्ती एवं सरल है।

आर्थिक उपज 


            मेंथा की पत्तियों से 0.6 प्रतिशत तेल प्राप्त होता है। कुल का 85 प्रतिशत भाग पत्तियों में पाया जाता है व तने में इसकी कम मात्रा होती है। सस्य क्रियाओं, मृदा एवं जलवायु में विभिन्नता के कारण पोदीना शाक की उपज भिन्न-भिन्न होती है। इसकी खेती से अनुकूल परिस्थितियों में मेंथा मिन्ट से 200-250 किग्रा. तेल प्रति हेक्टेयर, पिपरमिन्ट से 150 किग्रा. एवं अन्य प्रजातियों से 200-250 किग्रा. तेल प्रति हेक्टेयर प्राप्त किया जा सकता है।

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