डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व
विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
सनई अर्थात सनहेम्प सबसे
पुराणी ज्ञात रेशेवाली फसल है जिसके तने से उत्तम गुणवत्ता वाला शक्तिशाली रेशा
प्राप्त होता है जो की जूट रेशे से अधिक टिकाऊ होता है. सनई (क्रोटेलेरिया जंशिया) के पौधे लेग्यूमिनोसी परिवार में आते है .भारत में सनई
अर्थात् पटुआ की खेती रेशे,
हरी खाद और दाने के लिए की जाती है। रेशे वाली फसलों में
जूट के बाद सनई का स्थान आता है। परम्परागत रूप से इसके रेशे द्वारा रस्सियाँ, त्रिपाल, मछली पकड़ने के
जाल,
सुतली डोरी, झोले आदि बनाए जाते है। अब उच्च कोटि के टिस्यू पेपर, सिगरेट पेपर, नोट बनाने
के पेपर तैयार करने के लिए सबसे उपयुक्त कच्ची सामग्री के रूप में सनई को पहचाना
गया है . रेशा निकालने के पश्चात् इसकी
लकड़ी को जलाने,
छप्पर तथा टट्टर और कागज बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
सनई की खेती हरी खाद और चारे के लिए भी की
जाती है । इससे प्रति हेक्टेयर भूमि को लगभग 200-300 क्विंटल हरा जीवांश पदार्थ प्राप्त होता है जिसके सड़ने के पश्चात् लगभग 80-95 किग्रा./हे. नत्रजन उपलब्ध होती है। इस प्रकार से अगली फसल में
उर्वरक की मात्रा कम देनी पड़ती है। इसके अलावा जड़ों के माध्यम से सनई 60-100 किग्रा./हे. नत्रजन वायुमण्डल से संस्थापित कर लेती है। इसके
पौधे शीघ्र बढ़कर भूमि को आच्छादन प्रदान करते है जिससे खरपतवार नियंत्रित रहने के
साथ साथ भूमि कटाव नहीं होता है।
जलवायु एवं भूमि की तैयारी
सनई खरीफ ऋतु की फसल है जिसकी खेती 50-75 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले स्थानों पर की जाती है। पौधों की
वृद्धि के लिए उच्च तापमान एवं आर्द्रता आवश्यक है। पौध वृद्धि और अच्छी उपज के
लिए औसतन 380 से 470 तापक्रम लाभप्रद पाया गया है। सनई की खेती उचित जलनिकास वाली सभीप्रकार की भूमियों में की जा सकती है।अच्छी
फसल के लिए जलोढ़,
दोमट, लाल दोमट तथा
हल्की से मध्यम श्रेणी की काली मिट्टी उत्म रहती है।परंतु जल भराव वाली भूमि मे सनई फसल नहीं होती है। साधारण ऊसर
भूमि में भी सनई अच्छी प्रकार से उगाई जा सकती है।बीज तथा रेशे के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करने के पश्चात्
कल्टीवेटर या हैरो चलाकर अथवा देशी हल से 2-3 जुताईयाँ आर-पार करनी चाहिए। खेत तैयार कर लिया जाता है। अन्तिम जुताई के बाद
खेत को समतल एवं भुरभुरा बनाने के लिए पाटा चलाया जाता है। हरी खाद के लिए एक
जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करके, एक बार हैरो चलाकर बोआई कर देना चाहिए ।
बोआई का समय
हरी खाद के लिए बोआई सिंचाई सुविधाओं के अनुसार अप्रैल से जुलाई तक की जा सकती
है। रेशे व दाने के लिए बोने का सर्वाेत्तम समय 15 जून से 15 जुलाई तक है। वर्षा प्रारम्भ होने पर बोआई आरम्भ कर जुलाई के अन्तिम सप्ताह तक समाप्त कर लेना चाहिए ।
उन्नत किस्में
सनई से अच्छी उपज और आय प्राप्त करने के लिए अग्र प्रस्तुत उन्नत किस्म के बीज का इस्तेमाल करना चाहिए।
1.एम. 35: इसका रेशा
अच्छी किस्म का होता है। इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 10-12 क्विंटल रेशा प्राप्त होता है।
2.के. 12: इस किस्म से पीले रंग का रेशा और काले रंग के बीज प्राप्त होता है। औसतन 8-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर रेशा प्राप्त होता है।
3.एम. 19: कम समय
में तैयार होने वाली यह किस्म हल्की भूमि में उगाने के लिए उपयुक्त है। रेशा अच्छे
गुणों वाला होता है।
बीज एवं बोआई
बीज की मात्रा फसल उगाने के उद्देश्य पर निर्भर करती है। हरी खाद के लिए प्रति
इकाई क्षेत्र पौधों की संख्या अधिक रखते हैं जिससे कि भूमि में जीवांश पदार्थ अधिक
मात्रा मे पहुँच सके। अतः हरी खाद के लिए 75-100 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर बोया जाता है। रेशे के लिए 60-80 तथा बीज उत्पादन के लिये 25-35 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है। हरी खाद के लिए बोआई छिटकवाँ विधि से करना चाहिए परन्तु दाने और
रेशे के लिए फसल की बोआई पंक्तियों में की जानी चाहिए । कतार बोनी के लिए दो
पंक्तियों के बीच 30 सेमी. तथा पौधों की आपसी दूरी 5-7 सेमी. रखी जाती है। रेशे के लिए पंक्तियों के बीच की दूरी
थोड़ी कम रखना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
आमतौर पर सनई को कोई खाद नहीं दी जाती है। दलहनी फसल होने के कारण अधक नत्रजन
की आवश्यकता नहीं पड़ती है। फॉस्फोरस देना आवश्यक है इससे जड़ों की वृद्धि एवं जड़ों
में पाये जाने वाले जीवाणुओं की वृद्धि अच्छी होती है। अच्छी फसल के लिए 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हेक्टेयर सिंगल सुपर फॉस्फेट के माध्यम से बोआई के समय देना चाहिए जिससे फसल
को फॉस्फोरस के अतरिक्त सल्फर और कैल्सियम तत्व भी उपलध हो जाते है।
ग्रीष्कालीन फसल में सिंचाई आवश्यक
ग्रीष्मकाल (अप्रेल-मई) में बोई गई फसल में 1-2 सिंचाई देना होता है,
इसके बाद वर्षा प्रारम्भ होने पर फसल को सिंचाई की आवश्यकता
नहीं पड़ती है। वर्षा शीघ्र समाप्त हो जाने पर दाने व रेशे वाली फसल में 1-2 सिंचाई देना लाभप्रद रहता है। खेत में जल निकास का
प्रावधान आवश्यक है।
निकाई-गुड़ाई
प्रायः तेजी से बढ़ती हुई फसल भूमि को ढंक लेती है जिससे खरपतवार नियंत्रित
रहते हैं। अतः निकाई-गुड़ाई की आवश्यकता नहीं होती है। रेशे व बीज के लिए बोई गई
फसल के लिए आरम्भ में एक निकाई-गुड़ाई करने से वायु संचार में वृद्धि होती है और
नत्रजन संस्थापन की क्रिया को प्रोत्साहन मिलता है।
फसल पद्धति
सनई की फसल को विभिन्न फसल पद्धति में उगाया जाता है। इसके प्रमुख चक्रों में सनई-गेहूँ-कपास-गन्ना, सनई-गेहूँ-मक्का-अरहर,सनई(ग्रीष्म)-धान-चना, सनई-धान-गेहूँ,
सनई-गन्ना-मूँग-गेहूँ आदि हैं।
फसल की कटाई
सनई की फसल की कटाई इसकी खेती के प्रयोजन के अनुसार की जाती है। रेशे के उद्देश्य से बोई
गई फसल 80-100 दिन में तैयार हो जाती है। जब फसल में छोटी-छोटी फलियाँ
बनना प्रारम्भ हो जाये,
तब रेशे के लिए कटाई करने पर रेशा अच्छे गुणों वाला प्राप्त
नहीं होता । साधारण तौर पर सितम्बर में फसल काटने योग्य हो जाती है। बीज के लिए
फसल उस समय काटते हैं जब फलियाँ पक जाती है और बीज कड़े तथा काले हो जाते हैं। कटाई
हँसिये द्वारा जमीन की सतह से की जाती है इसके बाद फसल को सुखाकर डंडे की सहायता
से बीज अलग कर लेते हैं।
हरी खाद के लिए बोई गई फसल बुआई के 50-60 दिन पश्चात् खेत में पलट दी जाती है। फसल की पलटाई फूल आने
की अवस्था में करने से भूमि को अधिक मात्रा में जीवांश पदार्थ व नत्रजन प्राप्त
होती है। पहले फसल को पाटा चलाकर खेत में गिरा दिया जाता है। इसके बाद डिस्क हैरो
को चलाकर फसल को मिट्टी में मिला दिया जाता है। सूखा मौसम होने पर खेत में हल्की
सिंचाई कर देनी चाहिए जिससे मिट्टी में दबा हुआ हरा पदार्थ शीघ्रता से सड़ जाता है।
पौधों से रेशे निकालना
सनई के पौधों से रेशा प्राप्त करने के लिए इसे जूट के समान सड़ाते है। सनई के पौधे कम समय (एक सप्ताह) में ही सड़
जाते हैं। सड़े पौधो को पानी में पीटकर साफ कर लेते हैं और फिर रेशे अलग किए जाते
हैं। रेशों को अच्छी तरह से सुखाकर और ऐंठ कर लपेट कर बंडल बना लेना चाहिए ।
फसल से उपज
सनई की अच्छी फसल से 8-12 क्विंटल/हेक्टेयर रेशा प्राप्त होता है। दानेवाली फसल से 8-10 क्विंटल/हेक्टेयर बीज प्राप्त होता है। हरी खाद के प्रयोजन
से इसकी खेती करने पर भूमि को 250-300 क्विं./हे. जीवांश पदार्थ प्राप्त होता है जिससे फॉस्फोरस तथा पोटाश के अलावा 60-100 कि.ग्रा. नत्रजन भी भूमि को मिलता है। रेशा और डंठल का
अनुपात 1:8 का होता है।
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