विश्व पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल 2017 पर विशेष आलेख
डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहनी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
प्रकृति
द्वारा प्रदान किये गए उपहारों में भूमि मनुष्य-जीवन तथा मानव सभ्यता के विकास के लिए
सर्वोपरि है। आज भी कृषि मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण व्यवसाय है और मृदा पर ही कृषि
की सफलता निर्भर करती है। भूमि पर संसार की
विभिन्न उत्पादन क्रियाएं निर्भर हैं। भूमि संसाधनों से उपलब्ध उत्पादों के आधार
पर ही किसी देश की अर्थव्यवस्था का विकास होता है। अतः किसी देश के आर्थिक विकास
में भूमि सम्पदा का महत्वपूर्ण स्थान है। मानव के अधिकांश कार्य भूमि पर तथा भूमि
के माध्यम से ही संचालित होते हैं। भूमि संसाधनों का उपयोग विविध प्रकार से मानव
की विभिन्न आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए किया जाता है। मनुष्य की आवास,
भोजन, आवागमन हेतु संचार साधनों,
ईंधन, फल, फूल,
सब्जी इत्यादि अनेक आवश्यकताओं की परिपूर्ति भूमिगत संसाधनों पर
ही निर्भर करती है। आंकड़ों पर गौर करें तो विश्व की कुल भूमि का 2.5 हिस्सा भारत के पास है। दुनिया
की 17 प्रतिशत
जनसंख्या का भार भारत वहन कर रहा है।
सिकुड़ते भूमि संसाधन आज भारत जैसे विकासशील देश के लिए सबसे बड़ी समस्या है। देश
में मनुष्य भूमि अनुपात मुश्किल से 0.48 हेक्टेयर
प्रति व्यक्ति है जो दुनिया के न्यूनतम् अनुपातों में से एक है। वर्तमान में प्रति
व्यक्ति कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता मात्र 0.15 हेक्टेयर है और ऐसी संभावना
व्यक्त की जा रही है की वर्ष 2075 में एक व्यक्ति के हिस्से में कृषि योग्य भूमि मात्र 0.09 हेक्टेयर रह जायेगी जिसमें रोटी,कपडा और मकान की व्यवस्था करना एक प्रकार से दिवास्वप्न ही साबित होगा।
प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी हम सब मिलकर 22 अप्रैल 2017 को विश्व पृथ्वी दिवस मनाने की रस्म अदायगी कर लेंगे। इस वर्ष विश्व पृथ्वी दिवस का मुख्य विषय "पर्यावरण और जलवायु साक्षरता" रखा गया है। इस गंभीर विषय पर हम सब को एक दिन नहीं अपितु रोजाना चिंतन करने की आवश्यकता है और देश के अन्य नागरिकों को भी इस विषय में शिक्षित कर धरती माता की बगड़ती सेहत को सुधारने के लिए जन आंदोलन प्रारम्भ करने के साथ स्वयं धरती को सुन्दर और हरा-भरा बनाने का संकल्प लेना होगा। सैकड़ों वर्ष पूर्व महाकवि कबीरदास जी ने कहा था-'माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय। एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय'।। अर्थात मिट्टी कुम्हार से कहती है की आज तो तू मुझे पैरों के नीचे रोंद रहा है, पर एक दिन ऐसा आएगा जब तू में रे नीचे होगा और मई तेरे ऊपर होउंगी। इसमें कोई दो मत नहीं की जीवन की उत्पति मिट्टी से ही हुई है और एक दिन हमें मिट्टी में ही मिल जाना है परन्तु अपने वर्तमान और भावी पीढ़ी के सुखमय भविष्य के लिए पृथ्वी को सुन्दर, स्वच्छ और हरा भरा बनाने की आज पुरजोर आवश्यकता है।यह निर्विवाद रूप से सत्य है की धरती माता की रक्षा से ही हम खाद्यान्न, पोषण और पर्यावरण सुरक्षा की मजबूत नींव स्थापित कर सकते हैं। इस लेख में हम भूमि क्षरण के विभिन्न कारण और उसके निराकरण पर सारगर्भित चर्चा करते है।
उपजाऊ माटी-कही ढूंढते न रह जाएं
मिट्टी
खेती की जान है, हमारी आन-बान और शान है लेकिन कृषि प्रधान भारत की आधी से ज्यादा मिट्टी बेजान हो चुकी है। लगभग 170 लाख हेक्टेयर मिट्टी किसी न किसी समस्या से पीड़ित है। कहीं पानी के ऊपर
आने से लवण भी ऊपर आ गए है जिसके परिणाम स्वरूप मिट्टी नोनिया और रेहीली हो गई है। इस तरह कहीं मिट्टी में क्षारीयता बढ़ी है, तो कहीं अम्लीयता अपने पाँव पसार रही है। कृषि भूमि का एक बड़ा हिस्सा जल भराव से ग्रस्त है तो दूसरी तरफ 60 फीसदी से अधिक कृषि भूमि सूखा ग्रस्त है। सघन खेती के माध्यम से हमने मिट्टी
से जितने पोषक तत्व और जल खींचा, उतना उसे कभी लौटाया नहीं गया। इस कारण मिट्टी में मुख्य पोषक तत्वों
के साथ साथ द्वितीयक तत्व और सूक्ष्म मात्रिक पोषक तत्वों खासतौर से गंधक
(सल्फर),जस्ता (जिंक), बोरान, तांबा (कॉपर), मॉलिब्डेनम की भी कमीं महसूस होने लगी
है। भारत के कुल भोगोलिक क्षेत्र 328.7 मिलियन हेक्टेयर में से 264.5 मिलियन
हेक्टेयर कृषि, वन, चारागाह और अन्य बायोमास उत्पादन के अन्तर्गत आता है। हर जगह
की मिट्टी की अपनी कुछ खूबियां होती है। आपने कभी सोचा है की नागपुरी संतरे,
इलाहाबादी अमरुद, मलीहाबाद के दशहरी आम, मुज्जफरपुर की लीचिया, नगरी (छत्तीसगढ़) का
दुबराज चावल, बीना-खुरई (मध्य प्रदेश) का शरबती गेंहू आदि क्यों मशहूर है ? इन
स्थानों की मिट्टी की वजह से और ये मिट्टियाँ कोई आज या कल में नहीं बनी है। इनके
बनने की प्रक्रिया हजारों-लाखो साल से
चलती आ रही है। मिट्टी की कोई ढाई सेमी. मोटी ऊपरी परत बनने में 500 से 1000 साल
लग जाते है और जब हरियाली नहीं होती, तो
तेज मूसलाधार वर्षा की धारा इस बेशकीमती उपजाऊ परत को आनन-फानन में बहा ले जाती है और उपजाऊ कृषि भूमि को बंजर भूमि में तब्दील कर देती है। इसी गति से भू-क्षरण होता रहा तो एक दिन हम सब के लिए भोजन और पानी के लाले पड़ने वाले है।
आखिर क्यों होता है भूमि क्षरण
भारत
में भूमि क्षरण की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया जाना एक दिन बहुत भारी पड़ने वाला है। नेशनल ब्यूरो ऑफ़ साइल
सर्वे एंड लैंड यूज़ प्लानिंग के अनुसार भारत में लगभग 146.8 मिलियन हेक्टेयर भूमि
क्षरित हो चुकी है। देश में जल अपरदन सबसे गंभीर समस्या है जिसके चलते हमारी
भुमिओं की ऊपरी उर्वरा और उपजाऊ परत नष्ट होती जा रही है जिससे भविष्य में फसलोत्पादन
के लिए बड़ा संकट खड़ा हो सकता है। एक विश्लेषण के अनुसार औसतन 16.4 टन प्रति
हेक्टेयर प्रति वर्ष मृदा अपरदन हुआ जिससे देश भर में 5.3 बिलियन टन मृदा का ह्रास
हुआ. कुल अपरदित मृदा का 29 फीसदी मृदा स्थाई रूप से समुन्द्र की भेंट चढ़ गई, 61 % एक स्थान से दुसरे स्थान स्थानांतरित हो
चुकी थी तथा शेष 10 % जलाशयों में समाहित हो चुकी थी. भारत के सिंचित और असिंचित
दोनों ही क्षेत्रों में मृदा क्षरण की समस्या गंभीर होती जा रही है . मृदा क्षरण
के चलते भारत की फसल उत्पादकता में कमीं, फसल पद्धति में बदलाव और आदानों के बड़ते
इस्तेमाल से भारी आर्थिक क्षति हो रही है। एक अनुमान के अनुसार अकेले जल अपरदन के कारण प्रति वर्ष 13.4 मिलियन
टन अनाज, दलहन और तिलहन उत्पादन की हांनि हो जाती है।
1.जंगलों
की कटाई, अति चराई और अकुशल वन प्रबंधन: जंगलो की अंधाधुंध कटाई और जानवरों द्वारा बेखौफ चराई की वजह से अनेक राज्यों
में भू-क्षरण होने के कारण वहां की 20% से अधिक
भूमि बंजर हो चुकी है। पशुओं के लिए चारे, जलाऊ और इमारती लकड़ी के लिए
वनों का अत्यंत शोषण, कृषि कार्यो के लिए जंगलों पर अतिक्रमण, आग और अवैध चराई के
कारण दिन प्रति दिन भू-क्षरण की समस्या गंभीर होती जा रही है। भूमि क्षरण को
रोकने में चारागाहों की महत्वपूर्ण भूमिका
है, परन्तु चारागाहो में उसकी क्षमता से अधिक पशुओं को चराने से वनस्पतियाँ नष्ट
होती जा रही है। चरागाहों की आदर्श चराई
क्षमता 5 पशु/हेक्टेयर मानी जाती है परन्तु हमारे यहा 11 मिलियन हेक्टेयर चारागाहों पर 467 मिलियन पशु
अर्थात 42 पशु/हेक्टेयर चराई करते है। मरुस्थलीय और सूखा ग्रस्त क्षेत्रों
में पशु संख्या अधिक होने से चारागाहों और
घांस भूमि में अतिशय चराई होती है जिसके
फलस्वरूप वहां की मिट्टी में जल सोखने की
क्षमता कम हो जाती है जिससे पानी तेजी के साथ खली भूमि पर बहने लगता है जिस कारण
भू-क्षरण अधिक होता है। वनों और चरागाहों के अति दोहन से ही जल और वायु अपरदन की
समस्या बढती जा रही है। भारत में प्रति व्यक्ति वन भूमि की उपलब्धता मात्र 0.08
हेक्टेयर है जबकि मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए 0.47 हेक्टेयर/व्यक्ति वन
होना चाहिए और यही वजह है हमारे वनों का शोषण तेजी से किया जा रहा है।
2.शहरीकरण,
ओद्योगिकरण और खनन के कारण भू क्षरण : भारत
में तेजी से बढ़ते शहरीकरण, ओद्योगिकरण और
ढांचागत विकास के चलते कृषि, वन और
चारागाह वाली जमीनों का क्षेत्रफल निरंतर
घटते जा रहा है। विकास की अंधी दौड़ में मिट्टी, बालू, खनिज आदि का बेतरतीब दोहन
किया जा रहा है जिससे उपजाऊ मिट्टी और
वनस्पतियों का तेजी से ह्रास हो रहा है जिसके फलस्वरूप भूमिगत जल का स्तर
गिरता जा रहा है और पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता जा रहा है।
3.भू
क्षरण के प्राकृतिक और सामाजिक कारण : भू क्षरण के प्राकृतिक कारणों में से
ज्वालामुखी, सुनामी, सूखा,बाढ़,भूस्खलन, जंगल में आग आदि प्रमुख है। जमीन की कमीं और प्रति व्यक्ति कम भूमि उपलब्धता होने के कारण भूमि पर सामाजिक और आर्थिक दबाव
बढ़ने से लगातार भू क्षरण हो रहा है।
4.भूमि
की कमीं, विखंडित जोत और कमजोर अर्थव्यवस्था: भारतीय कृषि में 80 % किसानों के
पास छोटी जोत (2 हे से कम) है जो 50 %
कृषि उत्पाद पैदा करते है। प्रति व्यक्ति औसत कृषि भूमि की उपलब्धता 0.32 हेक्टेयर
से भी कम होने के कारण कृषि योग्य भूमि पर जनसँख्या दबाव बढ़ रहा है . कम जोत होने
के कारण किसान खेती किसानी के आधुनिक तौर तरीके तथा भूमि और जल प्रबंधन के आवश्यक
उपायों को नहीं अपना पा रहे है जिसकी वजह से उपलब्ध कृषि भूमि भी भूक्षरण की चपेट
में आती जा रही है।
5.जनसँख्या
का दबाव: भारत में विश्व का 2.5% क्षेत्र है जिस पर विश्व की 17 % जनसँख्या और 20% पशु संख्या के भरण
पोषण का उत्तर दायित्व है. विस्फोटक गति से बढती मानव और पशु संख्या के कारण सीमित
प्राकृतिक संसाधनों यथा भूमि और जल पर
दबाव बढ़ता जा रहा है क्योंकि जनसँख्या के अनुरूप मकान, बाजार, सड़क, शिक्षा के लिए तमाम साधन जुटाने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का
दोहन और शोषण होना सुनिश्चित है .
6.कृषिगत
कार्यो से भू क्षरण : भारत में कृषि योग्य भूमि पर शादियों से खेती की जा रही है.
हरित क्रांति की सफलता के लिए अधिक उपज देने वाली फसलों और प्रजातियों से अधिकतम
उत्पादन लेने की होड़ में हमने भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरक, पौध सरंक्षण दवाओं
और सिंचाई जल का भरपूर प्रयोग किया जिसके चलते प्रकृति प्रदत्त भूमि और जल
संसाधनों का क्षरण होता गया. देश के अनेक क्षेत्रों में अब फसल उत्पादन या तो कम
होने लगा है या फिर उत्पादकता में एक ठहराव की स्थिति उत्पन्न हो गई है। तमाम
कृषि क्रियाए जैसे ढलानू जमीनों पर खेती, जल एवं वायु अपरदन, जल भराव, मृदा
प्रदुषण, वायु प्रदुषण अत्यधिक जुताई, सिंचाई के लिए भूमिगत जल के अतिशय दोहन आदि से भू
क्षरण को बढ़ावा मिल रहा है। प्रमुख कृषिगत कार्यो से होने वाले भूमि क्षरण से सम्बंधित चर्चा करते है।
(i) असंतुलित
उर्वरक उपयोग : गेंहू, धान, गन्ना, मक्का आदि फसलों की सघन खेती के कारण कृषि भूमि की उर्वरता और
उत्पादकता में लगातार ह्रास हो रहा है क्योंकि ये फसलें उपलब्ध पोषक तत्वों और
नमीं का अत्यधिक मात्रा में अवशोषण करती है। संतुलित उर्वरक प्रयोग में
नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश का अनुपात 4:2:1 होना चाहिए परन्तु वर्तमान में
5:2:1 के अनुपात में इनका उपयोग किया जा रहा है। खाद्यान्न उत्पादन बढ़ने के साथ
साथ भूमि में जहाँ 1950 में एक पोषक तत्व (नाइट्रोजन) की कमी हुआ करती थी जो अब बढ़
कर नौ पोषक तत्वों यथा नाइट्रोजन, फॉस्फोरस,पोटाश, सल्फर,बोरोन,कॉपर, आयरन,मेगनीज
और जिंक की कमीं के लक्षण दिखने लगे है। यधपि उर्वकों की कृषि में खपत बढ़ी है परन्तु औसत
उर्वरक उपयोग अभी भी कम और असंतुलित है। प्रति वर्ष फसलों द्वारा लगभग 20 मिलियन
टन मुख्य पोषक तत्व (नाइट्रोजन,फॉस्फोरस और पोटाश) भूमि से अवशोषित कर लिए जाते है
परन्तु खाद और उर्वरकों के माध्यम से इन पोषक तत्वों की पूर्ति इससे कम मात्रा में
हो रही है। एक अध्ययन के अनुसार पिछले 50 वर्षो में पोषक तत्वों के निष्काशन
और प्रदाय में 8-10 मिलियन टन नत्रजन,फॉस्फोरस और पोटाश प्रति वर्ष का अंतर
बना हुआ है। इसके अलावा भू-क्षरण के
माध्यम से पोषक तत्वों की हानि से भी मृदा उर्वरता और उत्पादकता में गिरावट आती जा
रही है। प्रति वर्ष 5.3 मिलियन टन मिट्टी के साथ 8 मिलियन टन पोषक तत्व नष्ट हो
रहे है जिसके फलस्वरूप मृदा की सेहत खराब होने से फसलोत्पादन में गिरावट/स्थिरता परिलक्षित हो रही है।
(ii)अतिशय
भूमि कर्षण और भरी मशीनों का प्रयोग: कृषि भूमि की अधिक जुताई के साथ साथ फसलों की
बुआई और कटाई में भारी-भरकम मशीनों के प्रयोग से मृदा की भौतिक और जैविक गुणों में तेजी से ह्रास होता जा रहा है। भूमि
की ऊपरी परत शख्त हो जाने से उसकी जल धारण क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है साथ ही भूमि पर जल भराव की समस्या भी उत्पन्न
हो जाती है .धान-गेंहू की सघन खेती में जल और उर्वरकों के अधिक प्रयोग से पर्यावरण
प्रदुषण होने के अलावा भूमि गत जल का स्तर नीचे चला जा रहा है।
(iii)फसल
अवशेष जलाना और अपर्याप्त जीवांश पदार्थ : भारत की भूमियों में मिट्टियो की
जान-जीवांश पदार्थ की निरंतर कमीं होती जा रही है. देश की लगभग 3.7 मिलियन
हेक्टेयर कृषि भूमि में जीवांश पदार्थ और पोषक तत्वों की भारी कमीं परिलक्षित हो
रही है। भारत में प्रति वर्ष लगभग 500 मिलियन टन फसल अवशेष पैदा होता है जिसमे से
125 मिलियन टन फसल अवशेषों को बेरहमी से जला दिया जाता है. भारत में सबसे अधिक फसल
अवशेष उत्तर प्रदेश, पंजाब और महाराष्ट्र में उत्पन्न होते है। विभिन्न फसलों में अन्न
वाली फसलों से सर्वाधिक फसल अवशेष ( 352 मिलियन टन) पैदा होते है। इसके बाद रेशेदार
फसलें, तिलहन, दलहन और गन्ना का क्रम आता है। भारत की प्रमुख फसलों में धान (34%) और गेंहू (22%) से
सर्वाधिक मात्रा में फसल अवशेष पैदा किये जाते है जिसका कुछ हिस्सा जानवरों के चारे के रूप में प्रयुक्त होता है और शेष को खेतों में ही जला
दिया जाता है।
(iv)घटिया
जल प्रबंधन: भारत में दोषपूर्ण सिंचाई प्रणाली और गलत जल प्रबंधन के कारण कई
प्रदेशो के नहरी क्षेत्रों में भू-जल स्तर ऊपर आने से मृदा की सेहत बिगडती जा रही
है। यहाँ की जमीनों में जल भराव और क्षारीयता की समस्या उत्पन्न हो गई है जिससे बहुत सी भूमि बंजर होने के कगार पर है। भारत के अनेक राज्यों में भूजल के अतिशय दोहन से भूजल स्तर नीचे चले जाने से सूखा-अकाल की
स्थिति निर्मित हो रही है।
(v)दोषपूर्ण
फसल चक्र: अनियोजित फसल चक्र और मृदा तथा जल सरंक्षण के सामयिक उपाय ना अपनाने के
कारण भू क्षरण की समस्या विकराल होती जा रही है। धान-गेंहू, गन्ना, कपास आदि फसल
चक्रों में दलहनी-तिलहनी फसलों और मृदा आवरण को ढकने वाली फसलों के अभाव से मृदा
अपरदन बढ़ता है और मृदा की उपजाऊ शक्ति कम होती है।
धरती हमारी धरोहर: इसे बचाना है
उपजाऊ
मिट्टी हमारी सबसे कीमती धरोहर है। इसे हमें हर हाल में बचाना और पोषित करना होगा। हर साल कोई 600 करोड़ टन उपजाऊ मिट्टी बाढ़ के साथ बहकर समुद्र की भेंट चढ़ जाती है। लगभग 15 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में मिट्टी का कटाव जारी है। भूमि क्षरण का यही क्रम जारी रहा तो एक दिन हम कृषि के लिए उपजाऊ मिट्टी ढूंढते ही रह जाएंगे। अगर हमने मिट्टी के
ऊपर हवा-पानी की मार से बचाने वाली हरियाली की चादर फिर से नहीं डाली, तो कहीं ऐसी
नौबत ना आ जाए की हमें अपनी फसलें उगाने के लिए चंद्रलोक की मिट्टी लानी पड़े। यह
महज एक दिवास्वप्न है जिसके फलीभूत होने की कोई सम्भावना नहीं दिखती है। हमारे
लिए तो यही अच्छा होगा की चंद्र-धुल की प्रतीक्षा न करके अपने देश की माटी का मोल
समझें और इसे ज्यादा ख़राब होने से बचाएं और ख़राब हो चुकी मिट्टियों की सेहत को
ठीक करने के जतन करें। भूमि पर्यावरण सरंक्षण और हमारे जीवन तथा मानव विकास की आधारशिला है। हमें ही धरती माता की हरियाली और मानव की खुशहाली के लिए यथोचित उपाय करने होंगे। इस सदर्भ में महाकवि सुमित्रानंदन पंत की प्रसिद्ध रचना 'आ: धरती किता देती है' की चंद पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-
रत्न प्रसविनि है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
रत्न प्रसविनि है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है।
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने है।
इसमें मानव ममता के दाने बोने है।
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें,
मानवता की जीवन क्षम्य से हँसे दिशाएं।
हम जैसे बोएँगे वैसा ही पाएंगे।।
कविवर की इसी भावना के साथ हम सब को मिलकर जीवन दायिनी धरती की रक्षा करने का संकल्प लेना होगा और भू-क्षरण के बढ़ते खतरे से भावी खाद्यान्न सुरक्षा एवं देश की समृद्धता पर पड़ने वाले दूरगामी प्रभाव को पहचानते हुए भूमि सरंक्षण हेतु आवश्यक उपाय करने के लिए स्वयं पहल करनी होगी तथा जन समुदाय में भी जन जागरूकता पैदा करने अहम भूमिका ऐडा करना होगी।
भूमि क्षरण के प्रकार और भूमि क्षरण रोकने के संभावित उपाय पर चर्चा इस ब्लॉग के अगले लेख में प्रस्तुत कर रहे है।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।
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