डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
भारत में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में अरहर (कैजेनस कजान) का चने के बाद दूसरा स्थान है।
खरीफ दलहनी फसलों में अरहर का विशेष स्थान है। दलहनों में यह एक विलक्षण गुण
संपन्न फसल है क्योंकि अन्य दालों की अपेक्षा राहर दाल का इस्तेमाल लगभग हर घर में
रोजाना किया जाता है। मांस की तुलना में इसमें प्रोटीन भी अधिक मात्रा में (21-26 प्रतिशत) पाई जाती है। प्रोटीन के अतरिक्त इसके दानों में वसा,
कार्बोहाड्रेट आदि पौष्टिक तत्व पाये जाते हैं। यही नहीं
इसमें लोहा तथा आयोडीन के अलावा लायसीन,
टाइरोसीन, सिसटिन व आरजिनिन नामक अमीनो अम्ल भी पाये जाते हैं। इस
प्रकार स्वास्थ्य की दृष्टि से अरहर सबसे लाभदायक दाल मानी जाती है। इसकी हरी फलियाँ सब्जी
के लिए, भूसी एंव चुनी पशुओं के लिए सर्वोत्तम रातब तथा हरी पत्तियाँ चारे के लिए
इस्तेमाल की जाती है। अरहर के तने (लकड़ी) टोकरी, छप्पर बनाने और ईधन के रूप में भी प्रयोग किये जाते है।लाख के कीट पालन में भी अरहर की फसल का उपयोग
किया जाता है। अरहर एक गहरी जड़ वाली फसल होने के कारण यह अधोभूमि को तोड़कर वायु
संचार के मध्यम से मिट्टी की भौतिक दशा सुधारती है और जमींन की गहराई से नमीं अवशोषित करती
है जिससे असिंचित क्षेत्रों में खेती के लिए अरहर एक आदर्श फसल है। दलहनी फसल होने के कारण इसकी जड़ों से भूमि में
वायुमंडलीय नत्रजन संस्थापित होने के साथ साथ सूखी पत्तियाँ झड़ने से भूमि में
जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ती है, जिससे भूमि की उर्वरा
शक्ति बढ़ती है।
अरहर फसल के अन्तर्गत क्षेत्रफल और उत्पादन के मामले में विश्व में भारत अग्रणी राष्ट्र है परंतु अरहर की औसत
उपज (650 किग्रा. प्रति हे.) की दॄष्टि से हम अन्य अरहर उत्पादक देशों से काफी पीछे है। दलहनी फसलों विशेषकर अरहर के लगभग स्थिर उत्पादन तथा लगातार तेजी से बढ़ रही जनसंख्या के कारण दालों की प्रति व्यक्ति प्रति दिन उपलब्धता 60.7 ग्राम (1951) वर्तमान में 41.9 ग्राम रह गई है। दालों की मांग व् आपूर्ति में भारी अंतर को कम करने हेतु भारत सरकार प्रति वर्ष बड़ी मात्रा में दालों का विदेशों से आयात करती है। दलहनों के घटते उत्पादन और दिनोदिन बढ़ती मंहगाई की वजह से दालें आम आदमी की थाली से बाहर होती जा रही है जिसके कारण देश में कुपोषण की समस्या भी गहराती जा रही है। दलहनी फसलो के अन्तर्गत क्षेत्रफल बढ़ाने के साथ ही हमें प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने की दिशा में कार्य करना होगा तभी देश दलहन उत्पादन के मामले में आत्म निर्भर हो सकता है।
अरहर की शीघ्र तैयार होने वाली किस्मों की खेती करने से सिंचित क्षेत्रों में दो फसलें लेना संभव है। अरहर के बाद गेहूँ, आलू, मसूर, चना आदि की खेती की जा सकती है। अरहर के पौधे आरम्भ में धीरे-धीरे बढ़ते हैं, अतः अरहर की पंक्तियों के बीच में प्रारम्भिक 2-3 माह तक खाली पडे़ स्थान पर अन्य फसलें सह -फसल के रूप में ली जा सकती हैं। अरहर टाइप -21 की दो पंक्तियों के बीच में शीघ्र पकने वाली उर्द की एक पंक्ति लगानी चाहिए। मूँगफली, तिल, अण्ड़ी तथा मक्का की खेती भी अरहर की सह-फसल के रूप में की जाती है। सोयाबीन की चार कतारों के बाद अरहर की दो कतारें बोने से असिंचित क्षेत्रों में दो फसलें ली जा सकती हैं। धान के खेतों की मेड़ों पर अरहर की अच्छी पैदावार होती है। इस लेख में हम लोकप्रिय दलहन अरहर की उत्पादकता बढ़ाने हेतु आधुनिक उत्पादन तकनीक पर विमर्श प्रस्तुत कर रहे है।
खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
अरहर की फसल शुष्क तथा आद्र व गर्म जलवायु, दोनों ही परिस्थितियों में उगाई जाती है। वानस्पतिक वृद्धि
के समय वायुमंडल में पर्याप्त नमी आवश्यक है। फसल की प्रारंभिक अवस्था में पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए गर्म-नम जलवायु तथा पौधों पर फूल पौधों पर फूल आने से लेकर
फल्ली और दाने बनते समय तक शुष्क मौसम और तेज धूप की आवश्यकता होती हैं। अरहर की
खेती उन सभी क्षेत्रों में की जा सकती है जहाँ खरीफ में 20-30 डिग्री सेग्रे. तापक्रम तथा रबी में 17-22 डिग्री सेग्रे. तापमान उचित रहता है। फसल पकने के
समय उच्च तापमान आवश्यक है। अरहर की खेती 75-100 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा
सकती है। इसके पौधे सूखा सहन कर सकते हैं किन्तु जल भराव व पाला बिल्कुल सहन नहीं
कर सकते हैं।
भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी
समुचित जल निकास वाली हल्की से लेकर भारी सभी प्रकार की मिट्टियाँ जिनमें चूने
का अभाव न हो, अरहर की खेती के लिये उपयुक्त है। गंगा-यमुना की मैदानी जलोढ़ मिट्टि तथा
मध्यप्रदेश व विर्दभ की कपास वाली भारी काली मिट्टि में अरहर अच्छी प्रकार से उगाई जाती है। भूमि का पीएच
मान उदासीन अच्छा रहता है। इन फसल की खेती उच्चहन एंव भर्री भूमियों के अलावा धान
खेतों की मेड़ों में भी जाती है।
अरहर की जडे़ भूमि में गहराई तक जाती हैं। अतः इसके लिए 15 से. मी. तक एक गहरी जुताई आवश्यक है। खेत की पहली जुताई
मिट्टि पलटने वाले हल करके मानसून प्रांरभ होते ही देशी हल ट्रैक्टर से दो-तीन बार
खेत की जुताई देशी हल से करनी चाहिए। जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल करना
आवश्यक है। खेत की अन्तिम जुताई के समय क्लोरपायरीपास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करने से दीमक आदि
कीटों का प्रकोप नहीं होता है। बोआई से पहले जल निकास हेतु खेत में नालियाँ बना
लेनी चाहिए।
उन्नत किस्म के बीज का प्रयोग
अरहर की किस्मों को दो वर्गों में बांटा गया है। देर से पकने वाली किस्में अरहर वर्ग में आती है जिनके पौधे ऊंचे बढ़ने वाले होते है। इनमे दिसम्बर से फरवरी तक फूल आते है। शीघ्र पकने वाली किस्में तुअर वर्ग में आती है जिनके पौधे छोटे होते है। इनमे सितम्बर से नवंबर तक फूल आते है। भूमि का प्रकार, बोआई का समय तथा साधनों की उपलब्धता को ध्यान में रखकर
उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज, प्रतिष्ठित संस्थानों से खरीदना चाहिए तथा अंकुरण परीक्षण
कर बोआई करनी चाहिए। भारत के विभिन्न राज्यों के लिए उपयुक्त अरहर की उन्नत किस्मों की
सिफारिश निम्नानुसार की गई है-
- उत्तरप्रदेश एंव उत्तरांचल : प्रभात, उपास-120, पंत ए-3, मानक, आईसीपीएल-87, एएल-15, आईसीपीएल-84032, पारस, पूसा अगेती, टी -21, मुक्ता, पूसा-74, पूसा-84, पूसा-85, टी-7, टी-17, एनपी (डब्लूआर)-15, पूसा -33 व पूसा-55
- बिहार एंव झारखंड: प्रभात, उपास-120, आईसीपीएल-87, एएल-151, टी-21, मुक्ता, पूसा-74, पूसा-84, बीआर-183, पूसा अगेती , टी-7, टी-17, आईसीपीएच-8, जेए-3
- मध्य प्रदेश : प्रभात, उपास-120, आईसीपीएल-87119, एएल-151, पूसा-74, पूसा-33, टी-21, सागर, मानक, पूसा अगेती, टी-7,टी-17, आईसीपीएच -8, जेए -3
- छत्तीसगढ़: टाइप-21, प्रभात, उपास-120, प्रगति, आशा, सी-11, नम्बर-148, बीडीएन.-2, बीएसएमआर-736, लक्ष्मी, के एम -7, बहार, राजीव लोचन
- राजस्थान : प्रभात, उपास-120, टी-21, शारदा, पारस, पूसा अगेती, टी-17, पूसा-33, पूसा-55
- हरियाणा: प्रभात, उपास-120, आईसीपीएल-84031, एएल-15, एच-73-20, एच-73-14, पूसा-74, मानक, पारस, टी-7, टी-17, पूसा-33, पूसा-74
किस्मों के नाम अवधि (दिनों में) उपज(क्विंटल/हे.) प्रमुख
विशेषताएँ
प्रगति 116-125 11-19 फैलने वाली, 100 दाने 8.6 ग्रा.
आई.सी.पी.एल.-151 120-125
08-09 दाने गोल बड़े, धूसर सफ़ेद रंग
आई.सी.पी.एल.-87 125-125 08-09 दाने हल्के लाल रंग, माध्यम गोल
उपास- 120 130-135 16-20 100 दानों का भार 7.5 ग्राम।
टाइप - 21 160-170 16-20 बीज छोटा, हल्का कत्थई रंग।
नम्बर - 148 160-170 10-12 100 दानों का भार 10 ग्राम।
सी - 11 180-200 15-20 उठका निरोधक ।
जवाहर अरहर - 4 180-200 16-18 उठका व फली बेधक निरोधक।
जे. के. एम. - 7 173-180 18-20 उठका निरोधक, 100 दाने 3 ग्रा.।
आशा 160-170 16-18 उठका व बाँझपन निरोधक।
प्रभात 135-150 12-15 उठका रोग शहनशील, सघन पौध।
पूसा-33 145-155 18-20 अर्द्ध फैलाव, 100 दाने 7.2 ग्राम।
जाग्रति 140-150 18-20 अर्द्ध फैलाव, 100 दाने 10.2 ग्रा.।
आईसीपीएच-8 125-130 20-24 संकर, 100 दाने 7.7 ग्रा.।
एकेपीएच - 4101 130-140 20-24 संकर, 100 दाने 8.7 ग्रा.।
आईसीपीएल-87119 170-180 25-30 स्टैरिलिटी मौजेक निरोधक।
बहार 200-250 18-20 बन्ध्यता रोग निरोधक।
राजीव लोचन 180-190 18-20 उकठा व बाँझपन निरोधक।
आवश्यक है समय पर बुआई
अरहर की बुआई वर्षारम्भ होने के साथ ही जून के अन्तिम सप्ताह या जुलाई के
प्रथम सप्ताह में करना सर्वोत्तम है।
सिंचित क्षेत्रों में 15 जून से 5 जुलाई तक बो देना चाहिए। देरी से बोआई करने से उपज में
भारी कमी होने की सम्भावना रहती है क्योंकि पकने के समय तापमान कम होने के कारण
फल्लियों का विकास ठीक से नहीं हो पाता है। भारी मानसून की दशा में कभी-कभार
जून-जुलाई में अरहर की बोआई संभव नहीं हो पाती। इन परिस्थितियों में सिंचाई सुविधा
होने पर अरहर की बोआई सिंतबर माह में की जाती है। इस समय बोने के लिए अरहर की पूसा-33,
टी-21, आशा, सी-11 आदि किस्में उपयुक्त पाई गई है। गन्ना,
सरसों, आलू अथवा गेहूँ फसल के बाद भी अरहर की बुआई फरवरी से
अप्रैल(बसंत) तक की जाती है। प्रयोगों द्वारा पता चलता है कि जून-जुलाई में बोई गई
अरहर की अपेक्षा बसंत में बोई गई फसल से 25 प्रतिशत अधिक उपज प्राप्त होती है।
बीज दर एवं बीजोपचार
अच्छी उपज के लिए सदैव उत्तम गुणवत्ता वाला प्रमाणित बीज ही प्रयोग में लाना
चाहिए। सामान्य तौर पर 12-15 किलो बीज (शुद्ध फसल) तथा 5-6 कि.ग्रा. बीज (मिश्रित फसल) प्रति हेक्टेयर के हिसाब से
बोना चाहिऐ। बुआई के पूर्व बीज को कवकनाशी दवा बाविस्टीन या थायरम 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर लेना चाहिए।
इसके पश्चात् बीज को अरहर के विशिष्ट राइजोबियम
कल्चर से उपचारित करना भी आवश्यक है । एक पैकेट कल्चर 10 किग्रा. बीज के लिए पर्याप्त होता है। इस कल्चर को बीज में
मिलाने के लिए आधा लीटर पानी को गरम करके इसमें 50 ग्राम गुड़ घोल लेते है। पूर्णतः ठंडा हो जाने के पश्चात्
इस घोल में 250 ग्राम के राइजोबियम कल्चर का पूरा पैकेट मिला देते हैं। इस मिश्रण को 10 कि.ग्रा. बीज के ऊपर छिड़ककर हल्के हाथ से मिलाया जाता है
जिससे बीज के ऊपर एक हल्की परत बन जाय। इस बीज को छाया में 2-3 घन्टे सुखाने के बाद प्रायः सांय को बोआई करनी चाहिए।
जिस खेत में अरहर पहली बार ली जा रही है वहाँ कल्चर से उपचारित कर बीज बोना आवश्यक रहता है ।
बोआई की विधि
अरहर की मिश्रित फसल ज्वार, बाजरा के साथ लेने पर बोआई छिटकवाँ विधि से की जाती है। यह
दोषपूर्ण विधि है। जहाँ तक संभव हो अरहर की बोआई कतार विधि से करनी चाहिए। इसके
लिए शीघ्र पकने वाली जातियों को 50 सेमी. कतार से कतार एंव 20 सेमी. पौध से पौध
की दूरी पर बोना चाहिऐ। असिंचित या बारानी अवस्था में लम्बी अवधि वाली फैलने वाली
किस्मों के लिए दो कतारों के मध्य दूरी 90 सेमी. तथा पौधों के बीच 30 सेमी. की दूरी रखना चाहिए। बुआई हल के पीछे पँक्तियों में
या सीडड्रिल से करते हैं। बतर में खेत होने पर ट्रेक्टर अथवा बैल जोड़ी द्वारा माँदा-कूँड़ बनाकर बीज की
बुवाई माँदा पर करें तथा जल की निकासी कूँड़ द्वारा करें। अरहर के बीज कतारों में 4 से 6 सेमी. गहराई पर बोना चाहिये।
खाद एंव उर्वरक
उर्वरकों की उचित मात्रा का निर्धारण मिट्टी परीक्षण के आधार पर करना लाभदायक
होता है। अरहर से अधिकतम उपज लेने हेतु अरहर को भी संतुलित मात्रा में उर्वरकों की आवश्यकता होती
है। गोबर की खाद या कम्पोस्ट 5-8 टन प्रति हे. की दर से खेत की तैयारी के समय मिट्टी में मिलाना चाहिए ।
फल्लीदार फसल होने के कारण इसे नत्रजन की अधिक आवश्यकता नहीं पड़ती है। परंतु
प्रारम्भिक अवस्था में थोड़ा नत्रजन देना आवश्यक है। अरहर की भरपूर पैदावार लेने के
लिए साधारणतः प्रतिहे. 20-30 किलो ग्राम नत्रजन, 40-60 किलो ग्राम स्फुर एंव 20-30 किलो ग्राम पोटाॅश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। इनकी सम्पूर्ण मात्रा बोने के समय कूँड़ों में डालना चाहिये। उर्वरक बीज के
संपर्क में नहीं आना चाहिए। अतः उर्वरकों को बीज की कतार से 5 सेमी. दूर तथा बीज की सतह से 5 से.मी. की गहराई पर देना लाभप्रद रहता है। जिंक की कमी
वाले क्षेत्रों में जिंक सल्फेट 20 किग्रा. प्रति हे. बुवाई से पूर्व खेत में देना लाभदायक
पाया गया है। उर्वरकों को छिड़कवाँ पद्धति से नहीं देना चाहिये।
खरपतवार नियंत्रण
खरीफ की फसल में खरपतवारों की बढ़वार लगभग तीन सप्ताह में काफी हो जाती है
जिससे अरहर की वानस्पतिक वृद्धि बुरी तरह से प्रभावित होती है। अरहर की 20-60 दिन की अवस्था बहुत क्रान्तिक है जब फसल को खरपतवार मुक्त
रखना चाहिए। अरहर के उत्पादन में 20-40 प्रतिशत तक कमी खरपतवारों द्वारा होती है। अरहर में दो बार
निंदाई-गुड़ाई 25-30 दिन पर व 45-60 दिन की अवस्था पर करना चाहिए। प्रारंभिक खरपतवार नियंत्रण के लिये रासायनिक
नींदानाशक जैसे - फ्लूक्लोरिन(बासालिन) 0.75-1.0 किलो सक्रिय तत्व प्रति हे. को 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बोआई से पहले मिट्टि में छिडक कर
मिट्टि में अच्छी तरह मिला देना चाहिए अथवा पेन्डीमिथेलिन(स्टाम्प) 0.75-1.0 किलो सक्रिय तत्व प्रति हे. या एलाक्लोर (लासो) 1.0-1.5 किलो सक्रिय तत्व प्रति हे. का घोल बनाकर अंकुरण पूर्व
छिड़काव करें। स्प्रेयर नहीं होने पर दवा को रेत में मिलाकर (70-80 किलो रेत प्रति हे.) खेत में सीधा और आड़ा समान रूप
से बिखेरना चाहिऐ।
सिंचाई एवं जल निकास
अरहर वर्षा ऋतु की फसल है इसलिये सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। परन्तु देर से
पकने वाली जातियों जैसे-सी-11, आशा आदि में नमी के अभाव में एक सिंचाई करने से पैदावार बढ़
जाती है। अरहर की फसल को पूरे जीवन काल में लगभग 30-40 सेमी. जल की
आवश्यकता होती है । अरहर की फसल में शाखा
बनने (बोआई से 30 दिन बाद), पुष्पावस्थ (70 दिन बाद) तथा फल्ली बनते समय (110 दिन बाद) खेत में नमी की कमी नहीं होना चाहिए। देर से पकने
वाली किस्मों की पाले से सुरक्षा हेतु दिसम्बर या जनवरी माह में सिंचाई करना
लाभप्रद पाया गया है। अधिक वर्षा होने की स्थिति में खेतों से जल निकासी का उत्तम
प्रबंध रखें।
समय पर फसल कटाई - गहाई
अरहर की फसल किस्मों के अनुसार 4 से 8 माह तक तैयार हो जाती है। जून में बोई गई अगेती किस्में
नवम्बर-दिसम्बर तथा देर से पकने वाली किस्में मार्च-अप्रैल में काटी जाती हैं। अरहर की कई किस्मों में फल्लियाँ एक साथ नहीं पकती है। ऐसी स्थिति में फलिओं की तुड़ाई अलग अलग समय में भी की जा सकती है। वैसे लगभग 75 प्रतिशत फल्लियाँ पक जाने पर कटाई कर लेनी चाहिए। अधिक सूखने
पर फलिओं से दाने झड़ने लगते हैं। पौधों को गडासे से भूमि की सतह से काट लिया जाता है। कटाई कर फसल के बण्डल बना लिये जाते हैं और उन्हें खलियान
में लाकर सुखाया जाता है। सूखने के पश्चात् डंडो से पीटकर या जमीन पर पटकर
फल्लियाँ डंठल से अलग कर लेते हैं। पुलमैन थ्रेशर से भी अरहर की गहाई की जाती है।
सफाई के बाद दानों को एक सप्ताह तक धूप में सुखाना आवश्यक है जिससे उनमें नमी की मात्रा
घटकर 8-10 प्रतिशत रह जाये।
उपज एंव भण्डारण
सिंचित क्षेत्रों में अरहर की शुद्ध फसल से औसत 20-25 क्विंटल /हे. दाना, लगभग इतना ही भूसा तथा 50-60 क्विंटल /हे. सूखा डठंल प्राप्त होता है। इसकी मिश्रित
असिंचित फसल से औसत उपज 2-8 क्विंटल /हे. प्राप्त हो जाती है। भण्डारण के लिए दाने में
8-10 प्रतिशत नमी होना चाहिए। सामान्यतौर पर अरहर के दानों से लगभग 70 प्रतिशत तक दाल प्राप्त की जाती है।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।
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