डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
रायपुर (छत्तीसगढ़)
मोटे अनाज वाली फसलों में बाजरा (पेन्नीसेटम टाइफोइड्स) का महत्वपूर्ण स्थान
है। बाजरा कम लागत तथा शुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली ज्वार से भी लोकप्रिय
फसल है जिसे दाने व चारे के लिए उगाया जाता है। बाजरे के दाने में 12.4 प्रतिशत नमी, 11.6 प्रतिशत प्रोटीन, 5.0 प्रतिशत वसा, 67.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 0.05 प्रतिशत कैल्शियम, 0.35 प्रतिशत फास्फोरस तथा 8.8 प्रतिशत लोहा पाया जाता हैै। इस प्रकार बाजरे का दाना
ज्वार की अपेक्षा अधिक पौष्टिक होता है।बाजरे को खाने के काम में लाने से पूर्व
इसके दाने को कूटकर भूसी अलग कर लिया जाता है। दानों को पीसकर आटा तैयार करते हैं
और माल्टेड आटा के रूप में प्रयोग करते हैं। उत्तरी भारत में जाड़े के दिनों में
बाजरा रोटी (चपाती) चाव से खाई जाती है। कुछ स्थानों पर बाजरे के दानों को
चावल की तरह पकाया और खाया जाता है। बाजरे की हरी बालियाँ भूनकर खाई जाती हैं।
दाने को भूनकर लाई बनाते हैं। बाजरा दुधारू पशुओं को दलिया एंव मुर्गियों को दाने
के रूप में खिलाया जाता है। बाजरे का हरा चारा पशुओं के लिए उत्तम रहता है।
क्योंकि इसमें एल्यूमिनायड्स अधिक मात्रा में उपस्थित रहते हैं। बाजरा के पौधे
ज्वार से अधिक सूखा सहन करने की क्षमता रखते है। देश के अधिक वर्षा वाले राज्यों को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में बजारे की खेती
की जाती है। भारत में बजारे की खेती गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाडू , आन्ध्र प्रदेश, पंजाब और मध्यप्रदेश राज्यों में प्रमुखता से की जाती है। भारत में 9.57 मिलियन हेक्टेयर में बाजरे की खेती की गई जिससे 10.42 क्विंटल /हे. औसत मान से 9.97 मिलियन टन उत्पादन लिया गया। बाजरे की खेती से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए अग्र प्रस्तुत शस्य तकनीक व्यवहार में लाना चाहिए।
उपयुक्त जलवायु
बाजरा उष्ण जलवायु की फसल है। यह कम वर्षा वाले क्षेत्रों में उगाया जाता है।
इसमें ज्वार से अधिक सूखा सहन करने की क्षमता होती है। उत्तर भारत में खरीफ के
मौसम में ही बाजरे की खेती होती है। दक्षिणी राज्यों तथा पंजाब में सिंचित फसल को
गर्मी के मौसम में भी उगाया जाता है। बाजरे की फसल की वृद्धि के लिए उपयुक्त
तापक्रम 20-30 डिग्री सेग्रे के मध्य होना चाहिए। बोआई से लेकर कटाई तक फसल को उच्च
तापमान की आवश्यकता होती है। इसकी खेती 40 सेमी. से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में की सकती है। फसल
में फूल आते समय स्वच्छ आकाश और तेज धूप उत्तम रहती है। फूल आते समय वर्षा होने पर
बाली में दाने अच्छी प्रकार नहीं भरते हैं तथा समय वर्षा होने पर बालियों में
कंडुआ रोग लगने की संभावना रहती है। बाजरे की अधिकांश किस्मों में फूल तभी आते हैं
जबकि दिन की लम्बाई अपेक्षाकृत कम होती है परंतु कुछ किस्मों में दिन के छोटे या बड़े
होने का विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।
भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी
उत्तम जल निकास वाली सभी प्रकार की मृदाओं में बाजरे की खेती की जा सकती है
परंतु बलुई दोमट मृदा सर्वोत्तम रहती है। रेतीली दोमट मिट्टी में बाजरा की खेती
गुजरात,
राजस्थान व उत्तर प्रदेश में सफलतापूर्वक की जा रही है। हल्की
लाल और कपास अच्छा हो, जिसका पी-एच. मान 7 हो जीवांश की मात्रा अच्छी हो उपयुक्त पाई गई है।
बाजरा वर्षा आधारित फसल है। ऐसी फसल के लिये ग्रीष्मकालीन जुताई अच्छी पाई गयी
है। इससे खरपतवारों पर नियंत्रण करने में मदद मिलती है। वर्षा के शुरू होने पर हल
या बखर चलाकर खेत को भुराभुरा बनाकर खरपतवार रहित कर लेना चाहिए। साथ ही साथ अंतिम
जुताई के समय 5 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी गोबर या कम्पोस्ट की खाद खेत में डालें। खेत को पाटा
चलाकर यथासंभव समतल जल निकास की उचित व्यवस्था कर लें।
उन्नत किस्मों के प्रमाणित बीज
उन्नत एंव उत्तम किस्म का
बीज उपयोग करने से उत्पादन दो गुना किया जा सकता है।प्रमाणित बीज को विश्वसनीय
स्त्रोत से ही क्रय करें। जहाँ तक संभव हो संकर एंव मुक्त परागण वाली अनुशंसित
किस्म ही प्रयोग में लावें । बीज सदैव उपचारित किया हुआ ही प्रयोग करें।
बाजरे की प्रमुख संकर किस्में: इनका बीज
प्रतिवर्ष बदलना पड़ता है।
एम. एच. 143: यह संकर किस्म 83 दिन में पकने वाली है। इसकी अधिकतम पैदावार 52 कि./हेक्टेयर तथा चारे की पैदावार 54 क्विंटल /हे. पाई गई है।
एम. एच. 179: यह संकर किस्म 86 दिन में पकने वाली है। इसकी अधिकतम पैदावार 54 किंव/हेक्टेयर तथा चारे की पैदावार 54 क्विंटल /हेक्टेयर पाई गई है।
एम. बी. एच. 151: यह 90 दिन में तैयार
होने वाली किस्म है जिससे अधिकतम 50 क्विंटल /हे. दाना और 83 क्विंटल /हे. सूखा चारा प्राप्त होता है।
जे. बी. एच. 1: यह किस्म 80 से 85 दिनों में पककर तैयार हो जाता है। दाना मध्यम बड़ा तथा बाली
शूकी रहित होती है। इस किस्म की पैदावार 20-26 क्विंटल प्रतिहे. पाई गई है।
पी. एच. बी. 10: फसल अवधि 88-90 दिन, सिंचित व असिंचित दशा के लिए उपयुक्त,
उपज क्षमता 30-35 क्विंटल / हे. होती है। इसमें अरगट रोग का प्रकोप कम होता है।
बाजरे की मुक्त परागित एंव संकुल किस्में: इनका बीज प्रतिवर्ष
बदलने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
आई सी. एम. व्ही. 221: यह किस्म 75 से 80 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसकी औसत पैदावार 15 क्विंटल /हे. तथा चारे की पैदावार 35 क्विंटल./हे. पाई गई है। यह किस्म हरितबाली रोग प्रतिरोधक
है।
राज: 171: यह मुक्त परागित किस्म 80 से 85 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। दाने की उपज 20 क्विंटल /हे. तथा चारे की पैदावार 48 क्ंिव./हे. पाई गई है। यह किस्म हरितबाली रोग प्रतिरोधक
है।
जे. बी. व्ही. 2: यह किस्म 75 दिनों में पककर तैयार हो जाती हैं इसका दाना मध्यम धूसर
रंग का होता है। इसकी औसत पैदावार 20 क्विंटल./हे. पाई गई है। यह किस्म हरित बाल रोग के प्रति
निरोधक है।
आई. सी. एम. बी. 84400: फसल अवधि 80-100, दिन औसत उपज 21-22 क्विंटल तथा सूखे चारे की उपज 68 क्विंटल.प्रति हेक्टेयर हैं।
डब्लू. सी. सी. 75: यह संकुल किस्म देशी किस्मों से अच्छी है। यह किस्म 70-80 दिन में तैयार होकर प्रति हेक्टेयर 18-20 क्विंटल दाना तथा 85-90 क्विंटल कड़वी की उपज देती है।
बोआई का समय
बाजरा मुख्यतः खरीफ की फसल है। बालरे की बोआई जुलाई के प्रथम पखवाड़े तक करना
चाहिए। इससे पहले इसकी बोआई करने से फूल आते समय अधिक वर्षा होने के कारण पराग कण
बहने से बालियों में पूरी तरह से दाने न पड़ने की संभावना रहती है। वर्षा वाले
क्षेत्रों में बोआई में अधिक देर करना
उचित नहीं रहता है क्योकि वर्षा समाप्त हो जाने पर नमी की कमी से उपज पर विपरीत
प्रभाव पड़ सकता है। ग्रीष्मकालीन (जायद) बाजरे की बोनी,
सिंचित दशा में मार्च-अप्रैल में की जाती है।
बीज दर एंव बीजोपचार
बजारे की मिश्रित फसल के लिए 2-3 किग्रा. प्रति हे. तथा शु़द्ध फसल के लिये 5 से 6 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है। अच्छी
उपज के लिए प्रति हेक्टेयर 1.8 लाख से 2 लाख तक पौध संख्या वांछित रहती है। फसल में बीज जनित रोगों
की रोकथाम हेतु बोआई से पूर्व बीजों को कवकनाशी रसायनों जैसे थायरस (3 ग्रा प्रतिकिलो बीज ) आदि से उपचारित कर चहिए। प्रमाणित
अथवा संकर बाजरा का बीज पहले से ही उपचारित रहता है। अतः अलग से उपचारित करने की
आवश्यकता नहीं होती है।
कतारों में करे बुआई
आम तौर पर मूँग, उडद, तिल, अरहर आदि के साथ बाजरे की बुआई मिश्रण के रूप में छिटकवाँ विधि से की जाती है। परन्तु यह विधि लाभकारी
नहीं है। अच्छी
उपज की खेती के लिए बाजरे को पंक्तियों में हल के पीछे कूड़ों में बोते हैं या बोने
के यन्त्र द्वारा बोआई की जाती है। कतारों के मध्य 40 से 45 सेमी. तथा पौधों के मध्य की दूरी 12-15 सेमी. रखना उचित रहता है। बीज को 2-3 सेमी. से अधिक गहराई पर नहीं बोना चाहिए अन्यथा वर्षा होने
पर पपड़ी बन जाती है और अधिकतम गहराई पर बोये गये बीजों के अंकुरण में बाधा पहुँचती
है। जब दाने के लिए बाजरा मिश्रण के रूप में बोते हैं तो पंक्तियों के मध्य 90-120 सेमी. की दूरी रखते हैं और बाजरे की दो पंक्तियों के बीच
के स्थान में मिश्रण वाजी फसल (उड़द, मूँग) की 3-4 पंक्तियाँ बोई जाती है।
अंकुरण के पश्चात् रिक्त स्थानों पर शीघ्र ही नये बीज डाल देना चाहिए या पौधों की रोपाई की जा सकती है। बोआई से 3-4 सप्ताह बाद अतिरिक्त पौधे निकालकर पंक्ति में पौधे से पौधे
की दूरी 12-15 सेमी. स्थापित कर लेनी चाहिए ।
खाद एंव उर्वरक
बाजरे में खाद एंव उर्वरक की मात्रा मृदा के प्रकार तथा उगाई जाने वाली किस्म
पर निर्भर करती है। बाजरे की देशी किस्मों
में 40-50 किग्रा. नत्रजन, 30-40 कि.ग्रा. स्फुर तथा 20-30 कि.ग्रा. नत्रजन तथा 40-60 कि.ग्रा. स्फुर तथा 30-40 किग्रा. पोटाॅश/हेक्टेयर की आश्यकता पड़ती है। असिंचित खेती
के लिए उपरोक्त उर्वरकों की आधी मात्रा प्रयोग करनी चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा
तथा स्फुर एंव पोटाॅश की पूरी मात्रा बोवाई के समय कूड़ में देना चाहिए। शेष नत्रजन
की आधी मात्रा को खड़ी फसल में टाॅप ड्रेसिंग के रूप में दो बार प्रयोग करना चाहिए।
पहली टाॅपड्रसिंग थिनिंग (20-25 दिन) के समय तथा दूसरी बालियाँ निकलते समय देना लाभदायक
रहता है। असिंचित अवस्था में यूरिया 2-3 प्रतिशत घोल 1000 लीटर प्रति हेक्टेयर के हिसाब से (खड़ी फसल में -5 सप्ताह की फसल) छिड़काव करना लाभदायक रहता है। पौध से उगाई
गई बाजरे की फसल में स्फुर और पोटाॅश की पूरी मात्रा और नत्रजन की तीन-चैथाई
मात्रा मिलाकर रोपाई के समय कूड़ में डालनी चाहिए शेष नत्रजन रोपाई के 3-4 सप्ताह बाद फसल देनी चाहिए।
जरुरत के हिसाब से सिंचाई
बाजरा खरीफ की फसल है और सूखा सहन करने
की क्षमता रखती है। अवर्षा की स्थिति में बाजरे की उन्नत संकर किस्मों से
अच्छी उपज के लिए सिंचाई की उपयुक्त सुविधा होना आवश्यक है। अंकुरण के समय खेत में
पर्याप्त नमी रहना आवश्यक है। वर्षा न होने की स्थिति में पलेवा (सिंचाई) देकर
बोआई करनी चाहिए। पौधों की बढ़वार फूल आते समय भूमि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक
रहता है। सिंचाई की संख्या, मिट्टि का प्रकार, वर्षा की मात्रा व वितरण पर निर्भर करती है मृदा नमी 50 प्रतिशत उपलब्ध
रहने पर फसल की सिंचाई कर देनी चाहिए। ग्रीष्मकालीन फसल बोने से पूर्व
पलेवा करते हैं ताकि अंकुरण के लिए नमी का अभाव न हो। इसके बाद 15-20 दिन के अन्तराल पर सिंचाइयाँ फसल तैयार होने तक की जाती
हैं।बाजरे की फसल जलभराव की स्थिति को सहन नहीं कर पाती है। फसल के गिरने की आंशका
रहती है। अतः बोआई से पूर्व खेत को समतल कर लेना चाहिए और प्रत्येक 40-50 मीटर की दूरी पर जल निकास के लिए गहरी नालियाँ बना लेनी
चाहिए।
निंदाई-गुडा़ई एंव खरपतवार नियंत्रण
प्रारंभिक अवस्था में (बोआई से 3-6 सप्ताह) नींदा नियंत्रण अति आवश्यक है। बाजरे की पंक्तियों
के बीच हल्का कल्टीवेटर चलाकर या खुरपी द्वारा 1-2 बार निंदाई करके खरपतवारों को नष्ट करना आवश्यक रहता है।
म. प्र. के ग्वालियर व चंबल संभाग में बोआई के 20-30 दिन में बाजरे की खड़ी फसल में अन्र्तकर्षण क्रिया (गुर्र)
की जाती है। बाजरे के साथ उगने वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिएि एट्राजीन या
प्रोपाक्लोर 0.5 किग्रा./हे. को 800 लीटर पानी में घोलकर बीज जमाव के पूर्व छिड़काव करना चाहिए।
बाजरे की फसल को चिड़ियाँ व तोते बहुत पहुँचाते हैं।अतः इनसे फसल की सुरक्षा करनी
चाहिए।
फसल की कटाई एंव गहराई
सामान्य तौर पर यह फसल अक्टूबर में तैयार हो जाती है। जब बालियाँ अच्छी तरह पक
जाती है,
दाने कड़े हो जाते हैं और उनमें नमी की मात्रा घटकर 20 प्रतिशत रह जाए तब बालियों को दराँती द्वारा काट लिया जाता
है। बालियाँ काट लेने के बाद बाजरे के पौधों को काटकर हरे चारे या सुखाकर कड़वी के
रूप में प्रयोग किया जा सकता है। बालियों को लगभग एक सप्ताह तक खलिहान में सुखाया
जाता है। तत्पश्चात् बैलों की दाॅय चलाकर गहाई की जाती है। दाना-भूसा को अलग करने
हेतु ओसाई करते हैं अथवा मड़ाई-यन्त्र द्वारा दाने अलग कर लिये जाते हैं।
उपज एंव भंडारण
उन्नत विधियों द्वारा संकर बाजरे की खेती करने पर औसतन 30-35 क्विंटल प्रति हे. तक दाने की उपज मिल सकती है। वर्षा आश्रित फसल की उपज वर्षा की मात्रा व
उसके वितरण पर निर्भर करती है। बाजरे की कड़वी की उपज 80-100 क्विंटल प्रति हे. तक मिलती है। दानों को अच्छी तरह 3-4 दिनों तक धूम में सुखाया जाता है जब दोनों में नमी का अंश 13-14 प्रतिशत से कम हो जाये तब उन्हें बोरों में भरकर भंडार गृह
में रखना चाहिए।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।
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