तरबूज की खेती:
महानदी के कछार में खुशियों की बहार
डॉ.गजेन्द्र
सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर
(सस्यविज्ञान)
इंदिरा
गाँधी कृषि विश्वविद्यालय,
कृषि
महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, महासमुंद (छत्तीसगढ़)
भारत सरकार ने देश के किसानों की आमदनी बढाने एवं कृषि को लाभकारी व्यवसाय बनाने के लिए विभिन्न प्रकार की कृषक हितैषी योजनायें संचालित कर रही है। खरीफ एवं रबी में खाद्यान्न-दलहन-तिलहन फसलों की खेती के उपरान्त लघु एवं सीमान्त किसान नदियों के कछार में ग्रीष्मकाल में कद्दूकुल की सब्जियों विशेषकर तरबूज, खरबूजा की खेती कर सीमित लागत में दो से तीन गुना आमदनी अर्जित कर सकते है। कूकरबिटेसी कुल में जन्मा तरबूज (सिटुलस वुलगेरिस) के सुन्दर फल केवल स्वाद में ही लाजवाब नहीं, बल्कि गर्मियों में तन और मन को तरोताजा रखने वाला बेहतरीन डेजर्ट फल है, जिसकी बाजार में अच्छी मांग रहती है और भाव भी बेहतर मिल जाता है । तरबूज यानि कलिन्दे के कच्चे फलों को सब्जी के रूप में पकाया जाता है एवं पके लाल गूदे वाले फलों को डेजर्ट फल के रूप में चाव से खाया जाता है।अपने स्वाद, रंग और पौष्टिक गुणों से भरपूर तरबूज को ग्रीष्म ऋतू में खाने से शरीर को तरावट और नवउर्जा मिलती है । तरबूज को काट कर, जूस बनाकर या मिल्क शेक बनाकर सेवन किया जा सकता है।छत्तीसगढ़ में महानदी एवं सहायक नदियों के मुहाने पर बसे
धमतरी,कांकेर, चारामा, नवापारा-राजिम, आरंग,सिरपुर, शिवरीनारायण, कसडोल, लवन सहित आस पास के नदी के तटिय गांवों के किसानों के लिए तरबूजे की खेती न केवल उनकी आजीविका का प्रमुख
स्त्रोत बन गई है बल्कि आस-पास के गावों के नौजवानों एवं महिलाओं के लिए रोजगार और
आमदनी अर्जित करने का साधन सिद्ध हो रही है। महानदी के तटीय गावों के किसान न केवल
लाखों की कमाई कर आर्थिक रूप से समृद्ध हो रहे है, बल्कि देश और प्रदेश वासियों को ग्रीष्म
की तपन से राहत दिलाने उन्हें मनभावन लाल-रसीले तरबूज उपलब्ध कराने का पुण्यकार्य
भी कर रहे है।
भीषण गर्मी और तपन से तन और मन को शीतलता प्रदान करने वाले तरबूज के फल पौष्टिकता में भी बेमिसाल है। तरबूज के 100 ग्राम खाने
योग्य हिस्से में 11.6 ग्राम कार्बोहाईड्रेट, 0.6 ग्राम रेशा, 0.2 ग्राम वसा, 0.9
ग्राम प्रोटीन,12.5 मिग्रा विटामिन सी, 10.8 मिग्रा कैल्शियम, 15.4 मिग्रा
मैग्नेशियम, १६.9 मिग्रा फॉस्फोरस, 173 मिग्रा पोटाशियम तथा 876 आईयु विटामिन ए
पाया जाता है. तरबूज में 90-92 प्रतिशत पानी और
ग्लूकोज होता है, जो शरीर में इलेक्ट्रोलाइट बैलेंस बनाए रखता है। तेज गर्मी में डीहाइड्रेशन और हीट स्ट्रोक की आशंका से बचाने में तरबूज बेहद कारगर
साबित होता है। तरबूज में लाइकोपिन पाया जाता है जो हृदय संबंधी विकारों को दूर रखता है । दरअसल ये कोलस्ट्रॉल के लेवल को नियंत्रित करता
है जिससे इन बीमारियों का खतरा कम हो जाता है। तरबूज
में मौजूद विटामिन सी और लाइकोपीन कैंसर कोशिकाओं को विकसित होने से रोकते है ।
पोटैशियम, कैल्शियम जैसे पोषक तत्वों से भरपूर तरबूज किडनी को स्वस्थ बनाए रखता
है। तरबूज में विटामिन ए पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है जो आंखों के लिए बहुत फायदेमंद साबित होता है। तरबूज के नियमित सेवन से कब्ज की समस्या दूर हो जाती है। शरीर में खून की कमीं होने पर इसका जूस फायदेमंद साबित होता है। यहीं नहीं तरबूज के बीजों में
भी मैग्नीशियम, पोटैशियम, फास्फोरस
और तांबे जैसे कई पौष्टिक तत्व पाए जाने के कारण बीज भी स्वास्थ्य के लिए
लाभकारी होते हैं। बीजों को अच्छी तरह पका कर खाने से शरीर को फायदा होता
है ।
तरबूज की लाभकारी खेती ऐसे करें
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| तरबूज की फलदार बेल फोटो साभार गूगल |
खेती के लिए उपयुक्त जलवायू
तरबूज की सफल खेती के लिए गर्म
शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती हैं।इसके पौधों को ठंडी व पाले वाली जलवायु
उपयुक्त नहीं होती है ।बीज के अंकुरण व पौधों की प्रारंभिक बढ़वार के लिए 25 से 30 डिग्री सेल्शियस तथा पादप वृद्धि एवं उपज के लिए
30-35 डिग्री सेल्शियस तापक्रम उपयुक्त पाया गया है
। इसके पौधे 40 डिग्री तापमान को भी सहन कर लेते है। तरबूज के पौधों की समुचित बढ़वार एवं फलों के विकास के लिए गर्म दिनों व लम्बी रातों
वाले मौसम की आवश्यकता होती है।
भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी
तरबूज की खेती उचित जलनिकासी वाली सभी प्रकार की भूमियों में की जासकती
है। लेकिन बलुई मिट्टी इसकी खेती के लिए उपयुक्त होती है इसकी खेती के लिए भूमि का
पी एच मान 5.5 से 7 तक होना चाहिए। खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद की
जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करना चाहिए । जुताई पश्चात खेत को समतल कर लेना चाहिए ताकि जलनिकास अच्छा हो सकें
। नदियों के किनारे बलुई मिट्टी
में पानी की उपलब्धता के आधार पर नालियां या थाले बनाए जाते है और नालियों या
थालों को सड़ी हुई गोबर की खाद और मिट्टी के मिश्रण से भर देते हैं। खेत की अंतिम जुताई के समय 10
से 12 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की
सड़ी खाद या कम्पोस्ट को भूमि में अच्छी तरह से मिला देने से भूमि की उर्वरा शक्ति एवं जल धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है जिसके फलस्वरूप पौधों का विकास एवं फल उत्पादन अच्छा होता है ।
उन्नत किस्मों से ही भरपूर उपज
फसल से अच्छी उपज प्राप्त करने की लिए किसानों को तरबूज की स्थानीय
किस्मों की अपेक्षा उन्नत किस्मों एवं संकर तरबूज के बीजों का इस्तेमाल करना चाहिए । आज कल बाजार में तरबूज के छोटे फलों की अधिक मांग रहती है। अतः किसान भाइयों को कम वजन वाले फल पैदा करने वाली किस्मों की खेती को प्रमुखता देना चाहिए। क्षेत्र के लिए उपयुक्त उन्नत किस्मों के बीज किसी विश्वसनीय प्रतिष्ठान या कृषि सेवा
केन्द्रों से क्रय करना चाहिए । किसान भाई तरबूज की व्यवसायिक खेती के लिए निम्न उन्नत किस्मों के बीज का चयन कर सकते है:
पूसा बेदाना: यह किस्म बुवाई के 85-90 दिन बाद फल देना शुरू कर देती है । यह एक बीज रहित किस्म है जिसे भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली
द्वारा विकसित किया गया है । इससे औसतन 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपजू प्राप्त होती है।
दुर्गापुर केसर: इस किस्म के फल का वजन 6-8 किलो होता है।इसके
छिलके का रंग हरा होता है जिसपर गहरे हरे रंग की धारियां पाई जाती है।
अर्का ज्योति: इस किस्म में खाने योग्य गूदा अधिक मात्रा में होता है। इसके फल गोल, छिलके हल्के हरे रंग जिस पर गहरे रंग की पट्टी होती है। इसके एक तरबूज का वजन 6-7 किलो होता है । प्रति हेक्टेयर 350 क्विंटल उपज प्राप्त होती है। इसके फलों को अधिक
दिनों तक भण्डारण करके रखा जा सकता है।
अर्का मणिक : यह किस्म के फल 110-115 दिनों में तोड़ने योग्य हो जाते है। इस किस्म से 600 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार ली जा सकती है। इसके फल गोल एवं अंडाकार होते है। एक
फल का औसत भार 6 किलो होता है।
डव्ल्यु-19: यह किस्म अधिक तापमान वाले क्षेत्रों के लिए सर्वोत्तम है। यह किस्म बुवाई 85-90 दिन बाद तैयार हो जाती है। इसके फलों पर गहरे हरे रंग की धारियां पाई जाती है। एक हेक्टेयर से 500 क्विंटल तल उपज प्राप्त हो जाती है।
आसाही-यामातो:
यह जापानी किस्म है जिसके फल मध्यम आकार के,
छिलका हल्का हरा एवं धारीदार होता है । गूदा लाल, मीठा तथा फल के बीज छोटे होते है । यह किस्म 90-100 दिनों में तैयार हो जाती है तथा फल का वजन 6-8 कि.ग्रा. होता हैं ।
शुगर बेबी:
यह किस्म 85-90
दिनों मे तैयार होकर 200-250 क्विंटल प्रति
हेक्टेयर तक उपज देती है.इसका छिलका नीले-काले रंग का तथा गूदा गहरा लाल-मीठा होता है । इस किस्म के फलों
का वजन औसतन 3-5 किलो तक होता हैं । इसके
फलों में बीज छोटे एवं कम मात्रा में पाए जाते है ।
हायब्रिड एमएच-27:
पंजाब कृषि विश्व विद्यालय द्वारा विकसित तरबूज की नवीन संकर किस्म
है । इसके फल स्वाद और सेहत के लिए आवश्यक पौष्टिक
तत्वों व् विटामिन से भरपूर है । प्रति हेक्टेयर 170-180 क्विंटल उपज प्राप्त
होती है । इस किस्म को साधारण तापमान पर
5-6 दिनों तक भंडारित कर रखा जा सकता है ।
अर्का मुत्तु: भारतीय बागवानी संसथान द्वारा विकसित यह तरबूज की बौनी (बेल की लम्बाई 1. 3 मीटर) एवं शीघ्र तैयार होने वाली (बुवाई से 75 दिन और पौधों की रोपाई से 60 दिन) नवीन उन्नत किस्म है। इसके फल छोटे और गोल होते है तथा फल का वजन 2.5 से 3.0 किग्रा होता है। इसका छिलका पतला होता है और रंग हरी पेन्सिल रेखा सहित गहरा हरा होता है. इसके फल 28-30 दिनों तक रखे जा सकते है। इसके बीज छोटे और भूरे होते है. इस किस्म की औसत उपज 700-800 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
अर्का आकाश : यह उच्च उपज क्षमता (900 -1000 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) वाला एफ-1 संकर है। इसके फल अंडाकार होते है।
अर्का मधुरा : यह बीज रहित 100-120 दिनों में तैयार होने वाला तरबूज का संकर प्रभेद है। इसके फल गोल और छिलका हल्की हरी, चौड़ी धारियां सहित गहरा हरा होता है। फलों का गूदा गहरा लाल, उत्तम खुशबू वाला होता है। फल का औसत वजन 6 किग्रा एवं उपज 500 -600 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
अर्का मुत्तु: भारतीय बागवानी संसथान द्वारा विकसित यह तरबूज की बौनी (बेल की लम्बाई 1. 3 मीटर) एवं शीघ्र तैयार होने वाली (बुवाई से 75 दिन और पौधों की रोपाई से 60 दिन) नवीन उन्नत किस्म है। इसके फल छोटे और गोल होते है तथा फल का वजन 2.5 से 3.0 किग्रा होता है। इसका छिलका पतला होता है और रंग हरी पेन्सिल रेखा सहित गहरा हरा होता है. इसके फल 28-30 दिनों तक रखे जा सकते है। इसके बीज छोटे और भूरे होते है. इस किस्म की औसत उपज 700-800 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
अर्का आकाश : यह उच्च उपज क्षमता (900 -1000 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) वाला एफ-1 संकर है। इसके फल अंडाकार होते है।
अर्का मधुरा : यह बीज रहित 100-120 दिनों में तैयार होने वाला तरबूज का संकर प्रभेद है। इसके फल गोल और छिलका हल्की हरी, चौड़ी धारियां सहित गहरा हरा होता है। फलों का गूदा गहरा लाल, उत्तम खुशबू वाला होता है। फल का औसत वजन 6 किग्रा एवं उपज 500 -600 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
निजी संस्थानों द्वारा विकसित तरबूज की उन्नत
किस्में व् संकर
नुनहेम्स सीड्स: माधुरी 64, मधुबाला 80, रोजा, रेडस्टार, आयशा, पाकीजा
नामधारी सीड्स: एनएस-295, 246, 450, 1004, 296, तेजस्व
सेमिनिस वेजीटेबल्स: अपूर्वा, ब्लेक मेजिक, शुगर पेक, ब्लेक बॉय
सिंजेन्टा : सुगरकिंग, सुपर ड्रेगॉन, अगस्टा, बादशाह
सनग्रो: चैम्पियन, सितारा, 555 व 316
महिको सीड्स: सुचित्रा, संतृप्ति, अमृत, अमल
जे के एग्री जेनेटिक्स : जेके
लेखा, जेके 9, डब्लू-07
उचित समय पर करें बुवाई
तरबूज ग्रीष्म ऋतु की फसल है । समुचित पौध वृद्धि एवं बेहतर उत्पादन के लिए तरबूज की बुवाई उचित समय पर संपन्न करना निहायत जरुरी होता है । सामान्यतौर पर तरबूज की बुवाई नवम्बर से फरवरी तक की जा सकती है
। नदियों के कछार में तरबूज की बुवाई नवम्बर-दिसम्बर में की जा सकती है। मैदानी
क्षेत्रों में जनवरी-फरवरी में इसकी बुवाई की जा सकती है । अधिक ठंडी के समय पौधों
को पाले से बचाने की व्यवस्था करना आवश्यक होता है।
सही बीज दर एवं बीजोपचार
तरबूज के बीज की मात्रा बोई जाने वाली किस्म, बुवाई विधि एवं बुवाई
के समय पर निर्भर करती है। सामान्यतौर पर छोटे बीज वाली किस्मों के लिए 3 कि.ग्रा. तथा बड़े बीज
वाली किस्मों के लिए 4 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता है।अधिक
उपज देने वाले संकर प्रभेदों के लिए 0.75-1.0 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त
होता है । बीज को बुवाई
से पहले हल्के गर्म पानी में 12 घंटे भिगोने के बाद इन्हें जूट के गीले बोरे या
कपड़े में रात भर रखा जाते है । इससे अंकुरण शीघ्र होता है। बुवाई पूर्व बीज को
कार्बेन्डाजिम या थिरम 2 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित कर बुवाई करना चाहिए।
उपयुक्त विधि से करें बुआई
तरबूज की बुवाई
दो विधियों यथा नाली-मेंड़ विधि एवं थाला
बनाकर की जाती है। वर्तमान समय में नर्सरी तैयार करने की प्रोट्रे विधि या पॉलीबैग विधि द्वारा सुगमता से अधिक मात्रा में स्वस्थ पौधे प्राप्त कर पूर्व निर्मित नालियों अथवा थालों में रोपाई करके बेहतर उत्पादन लिया जा सकता है। मैदानी
क्षेत्रों में तरबूज की बुआई मेड़ों पर 2.5 से 3.0 मीटर की दूरी पर 40
से 50 सेंटीमीटर चौड़ी नाली बनाकर करते हैं
। इन नालियों के दोनों किनारों पर 0.75-1.0 मीटर की दूरी पर 2 से
3 बीज बोते हैं ।
नदियों के किनारे पर 2-3 मीटर x 0.6-1.2 मीटर अंतरण पर 60 X 60 X 60 सेंटीमीटर
आकार वाले गड्डे तैयार करने के एक सप्ताह
पश्चात उनमें 1:1:1 के अनुपात में मिट्टी, गोबर की खाद तथा बालू का मिश्रण से
उक्त थालों को भर देना चाहिए. तत्पश्चात् प्रत्येक थालें में 4 से.मी. की गहराई पर
चार बीज की बुवाई करने के बाद हल्की सिंचाई कर देना चाहिए
। अंकुरण के 10 से 12 दिन बाद एक थाले में 2-3 स्वस्थ पौधों को स्थापित कर लेना चाहिए ।
शीघ्र फसल लेने करें पौध रोपण
तरबूज की शीघ्र फसल लेने के लिए बीजों को सीधे खेत में न बोकर
प्रो-ट्रे में बोया जा सकता है। प्रोट्रे को वर्मीक्युलाइट, परलेट व् कोकोपिट के
1:1 के मिश्रण से भरा जाता है । इन प्रोट्रे को 1/3 भाग चिकनी मिट्टी, 1/3 भाग रेत
व् 1/3 भाग वर्मी कम्पोस्ट खाद मिलाकर भी भरा जा सकता है. इन प्रोट्रे में 1-2
बीजों की बुवाई करें । पौधों में 2-3 पत्तियां विकसित होने पर पौध की रोपाई पहले से तैयार नाली-मेंड़
अथवा थालों में करें
।
फसल को दे सही खुराक
सफल फसल उत्पादन के लिए संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन आवश्यक है। फसल के लिए पोषक तत्वों की सही मात्रा का निर्धारण मृदा परिक्षण के अनुसार करना चाहिए। सामान्य मृदाओं में तरबूज की उत्तम फसल के लिए बुवाई के समय 10-12 टन
सड़ी गोबर की खाद, 25 किग्रा नत्रजन (55 किलो
यूरिया), 50 किग्रा फास्फोरस (312
किलो सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 50 किग्रा पोटाश (83 किलो म्यूरेट ऑफ़ पोटाश) प्रति हेक्टेयर की दर से दिया
जाना चाहिए । इसके अलावा लता विकसित होने के 10-15 दिन बाद 25 किग्रा नत्रजन (55 किलो यूरिया) खड़ी फसल में गुड़ाई के
समय थालों में देना चाहिए । फसल में फूल आने के पश्चात नत्रजनधारी उर्वरकों का इस्तेमाल नहीं
करना चाहिए ।
सिंचाई प्रबंधन
यदि तरबूज की खेती नदियों के कछारों में की जाती है, तब
सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि पौधों की जड़ें बालू के नीचे उपलब्ध पानी
को शोषित करती रहती हैं. पौध अवस्था में जल निकास की समुचित व्यवस्था करना आवश्यक
होता है । मैदानी भागों में 7 से 10 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते हैं
। फसल में फूल आने से पूर्व, फूल व फल बनते समय खेत में पर्याप्त नमीं
बनाये रखना आवश्यक है परन्तु फलों के परिपक्व होने की अवस्था में सिंचाई बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि
फल पकते समय खेत में पानी अधिक होने से फल में मिठास कम हो जाती है और फल फटने
लगते हैं । ध्यान रहे कि पौधों के आधार एवं जड़ क्षेत्र तक ही पानी सीमित रहे । सिंचाई जल से तरबूज की लताएँ व अन्य वानस्पतिक भाग नहीं भीगना चाहिए
अन्यथा पौधे रोगग्रस्त हो सकते है । फलों के समुचित विकास एवं अधिक उपज हेतु टपक
सिंचाई में 1-2 लीटर प्रति दिन प्रति पौधे के हिसाब से और परम्परागत सिंचाई के लिए 3- 6 लीटर प्रति दिन प्रति पौधे हिसाब से
पानी देने की आवश्यकता होती है । परम्परागत सिंचाई की अपेक्षा
मल्चिंग के साथ बूंद - बूंद सिंचाई से 18%
तक उत्पादन वृद्धि तथा 40%
तक पानी की बचत की जा सकती है ।
खरपतवार नियंत्रण
सीधे बोये गए तरबूज के बीज अंकुरण से लेकर प्रथम 25 दिनों तक खरपतवार फसल को ज्यादा
नुकसान पहुंचाते हैं । बीज अंकुरण के 10
-12 दिनो के बाद एक निराई गुड़ाई तथा फूल आने से पहले
निराई गुडाई कर पौधों पर मिट्टी चढाने से पौधों का विकास तेजी से होता है और
खरपतवार भी नियंत्रित रहते है । बुवाई
के तुरंत बाद ब्यूटाक्लोर या पेंडीमेथालिन 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर
से 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करने से खरपतवार प्रकोप कम होता हैं ।
पादप वृद्धि नियंत्रकों का इस्तेमाल
तरबूज की फसल में मादा फूलों की संख्या बढ़ाने के लिए पादप नियंत्रक
2,4-5,ट्राई-आयोडो बैंजोइक अम्ल (टीबा) के 25-30 पीपीएम का छिडकाव 15-20 दिन की
फसल पर करना चाहिए. इसके बाद दूसरा छिडकाव पहले छिडकाव से 10-15 दिन बाद करना
चाहिए. इस उद्देश्य के लिए ज़िब्रेलिक एसिड 1.25 ग्राम को एल्कोहल में घोलने के
उपरान्त 50 लीटर पानी में मिलाकर पौधों की 2-4 पत्ती अवस्था पर छिडकाव करने से भी
उपज में आशातीत बढ़त होती है ।
तरबूज की लताओं की अधिक बढ़वार को रोकने के लिए और मादा फूलों की
संख्या बढ़ाने में कटाई-छटाई आवश्यक होती है ।
मुख्य लता की अग्रकली (एपिकल बड) को तोड़ देना चाहिए और बाजू की दो शाखाओं को बढ़ने
दिया जाना चाहिए । प्रत्येक लता पर 3-4 स्वस्थ फलों से अधिक फल नहीं रखना चाहिए जिससे
फलों का समुचित विकास होता है एवं उपज अधिक प्राप्त होती है
।
फसल सरंक्षण आवश्यक
तरबूज की फसल
में पौध अवस्था से लेकर फल पकने की अवस्था तक अनेक प्रकार के कीट-रोगों का प्रकोप
हो सकता है. बेहतर एवं गुणवत्तायुक्त उपज के लिए समय पर कीट-रोगों का नियंत्रण
आवश्यक होता है। तरबूज फसल पर आक्रमण करने वाले प्रमुख कीट एवं रोगों का नियंत्रण
अग्र प्रस्तुत है.
कद्दू का लाल कीट: यह लाल रंग का कीट होता है जो पौधों की पत्तियों को खाकर
क्षतिग्रस्त कर देता है.इस कीट के नियंत्रण हेतु क्यूनालफ़ॉस 2 मिली प्रति लीटर की
दर से 10 दिनों के अन्तराल पर पर्णीय छिड़काव करें. आवश्यकतानुसार 8-10 दिन
बाद छिडकाव को दोहरावें ।
फल मक्खी : यह मक्खी फलों में छेदकर उन्हें क्षति पहुंचाती है जिससे फल खाने
योग्य नहीं रहते है. इसके नियंत्रण हेतु मेलाथियान 50 ईसी या डाइमिथोयेट 30 ईसी 1 मिली
प्रति लीटर पानी की दर से छिडकाव करना
चाहिए ।
चूर्णी फफूंदी रोग: इस रोग से ग्रसित पौधों की
पत्तियों पर सफेद-भूरे रंग का चूर्ण दिखाई देता है, जिसके कारण पौधों की वृद्धि
अवरुद्ध हो जाती है । इस रोग के लक्षण दिखने पर 0.1 % कार्बेन्डाजिम या 0.05 प्रतिशत हेक्साकोनेज़ॉल का 15-20 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए ।
मोइजैक रोग: इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियां सिकुड़ कर पीली पड़ने लगती है
जिससे पुष्प एवं फल कम बनते है । यह रोग कीड़ों (एफिड) द्वारा फैलता है
। इसकी रोकथाम के लिए फॉस्फेमिडान 85 एसएल 0.3 मि.ली. प्रति लीटर अथवा
इमिडाक्लोप्रिड 1 मि.ली. प्रति 3 लीटर पानी में घोलकर 10-15 दिन के अंतराल पर
छिडकाव करना चाहिए ।
सहीं समय पर फलों की तुड़ाई
सामान्यतौर पर तरबूज फसल में फूल आने के 35-40 दिनों के बाद फल परिपक्व होने लगते है । हल्के हरे रंग के फल का भूमि से लगा हुआ भाग जब सफेद या पीले रंग का होने तथा फल को थपथपाने पर धातु
जैसी आवाज आने से फलों की परिपक्वता का पता चलता है। पकने पर फलों के पास वाला
डंठल सूखने लगता है । फलों को डंठल
से अलग करने के लिये तेज चाकू का प्रयोग करें अन्यथा शाखा टूटने का भय रहता है।
उपज एवं आमदनी
तरबूजे की उपज एवं आमदनी क्षेत्र विशेष की जलवायु, बोई गई किस्म एवं उत्पादन तकनीक के अनुसार अलग-अलग हो सकती है । साधारणत: तरबूजे की उन्नत खेती से 200-600 क्विंटल प्रति हेक्टर फल प्राप्त हो जाते हैं । बाजार
में तरबूज 15-20 रूपये किलो की दर से बिकते है । इस हिसाब से किसान भाई तरबूज
की एक हेक्टेयर खेती से एक बार में 4-5 लाख रूपये की कमाई कर सकते है ।
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