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शुक्रवार, 25 मई 2018

प्लास्टिक-पॉलिथीन का प्रयोग बंद करो, प्रथ्वी को प्रदुषण मुक्त करों


डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर (सस्य विज्ञान), इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

प्रकृति एवं मानव ईश्वर की अनमोल एवं अनुपम कृति हैं। प्रकृति अनादि काल से मानव की सहचरी रही है। बगैर पर्यावण के मानव जीवन की हम कल्पना भी नहीं कर सकते है लेकिन आधुनिक युग में सुविधाओं के विस्तार के चलते मानव ने सबसे अधिक पर्यावरण को ही चोट पहुंचायी है। स्वार्थी एवं उपभोक्तावादी मानव ने पॉलीथीन के अंधाधुंध प्रयोग से जिस तरह पर्यावरण को प्रदूषित किया और करता जा रहा है उससे सम्पूर्ण वातावरण पूरी तरह आहत हो चुका है। आज के भौतिक युग में पॉलीथीन के दूरगामी दुष्परिणाम एवं विषैलेपन से बेखबर हमारा समाज इसके उपयोग में इस कदर आगे बढ़ गया है मानो इसके बिना उनकी जिंदगी अधूरी है। मानव की सुविधा के लिए ईजाद किया गया पॉलिथीन आज मानव जाति के लिए सबसे बड़ा नासूर बनता जा रहा  है। वर्तमान में प्लास्टिक प्रदूषण एक विश्वव्यापी त्रासदी बन गया है।

विश्व पर्यावरण दिवस 2018 का विषय, “प्लास्टिक प्रदूषण की समाप्ति (बीट प्लॉस्टिक पॉल्युशन)’’ वर्तमान समय की एक बड़ी पर्यावरणीय चुनौती का मुकाबला करने का विश्व आह्वान है। सौभाग्य से  विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून,2018 की वैश्विक मेजबानी भारत को मिली है।  प्लास्टिक को एक गंभीर खतरा मानते हुए केन्द्रीय पर्यावरण, वन व जलवायु परिवर्तन मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने जोर देकर कहा कि विश्व पर्यावरण दिवस 2018 मात्र एक प्रतीकात्मक समारोह नहीं बल्कि एक मिशन है। यह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आंदोलन है। समूचे विश्व में प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या की गंभीरता का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है, कि  इस वर्ष के अंतरराष्ट्रीय प्रथ्वी दिवस (22 अप्रैल,2018) का विषय भी  पृथ्वी पर प्लास्टिक प्रदूषण का खात्मा’ रखा गया यानि विश्व स्तर पर यह माना गया है कि प्लास्टिक पृथ्वी के लिए घातक है।  इस दिवस का भी मकसद आम इंसान को यह समझाना है कि वो पॉलिथीन और कागज का इस्तेमाल ना करे, पौधे लगाये क्योंकि धरा है तो जीवन है। विश्व प्रथ्वी दिवस और पर्यावरण दिवस-2018 का विषय हम सभी को इस बात पर  गहन विमर्श करने के लिए मजबूर  करता है कि हम अपने दैनिक जीवन में किस तरह बदलाव करें जिससे  हमारे प्राकृतिक स्थानों, वन्य जीवन और हमारे निजी स्वास्थ्य पर प्लास्टिक प्रदूषण का मंडराता खतरा कम हो सकें।
          जमीन या पानी में प्लास्टिक उत्पादों के ढेर को 'प्लास्टिक प्रदूषण' कहा जाता है जिससे मनुष्य, पक्षी और जानवरों के जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। यह निर्विवाद सत्य है कि प्लास्टिक प्रदूषण का वन्यजीव और मनुष्य पर खतरनाक प्रभाव पड़ रहा है। प्लास्टिक प्रदूषण भूमि, वायु, जलमार्ग और महासागरों को भी प्रभावित करता है। वास्तव में जब हम सड़क, नदी, समुन्द्र किनारे प्लास्टिक के कचरे के ढेर देखते है तो लगता है की हम प्लास्टिक की एक कृत्रिम दुनिया में रह रहे हैं।  अपनी विविध विशेषताओं के कारण प्लास्टिक आधुनिक युग का अत्यंत महत्वपूर्ण पदार्थ बन गया है, जिसे पुर्णतः छोड़ पाना एक मुश्किल कार्य प्रतीत होता है । सस्ता, टिकाऊ, मनभावन रंगों में उपलब्धता और विविध आकार-प्रकारों में मिलने के कारण प्लास्टिक का प्रयोग आज जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है। गृहोपयोगी वस्तुओं से लेकर कृषि, चिकित्सा, भवन-निर्माण, सुरक्षा, शिक्षा, मनोरंजन, अंतरिक्ष, अंतरिक्ष कार्यक्रमों और सूचना प्रौद्योगिकी आदि में प्लास्टिक बस्तुओं का उपयोग हो रहा है। बाजार में खरीदारी के लिए रंग-बिरंगें कैरी बैग से लेकर, पेकिंग सामग्री, रसोईघर के बर्तन, कृषि उपकरण, यातायात के साधन, खिलौने आदि प्लास्टिक से ही बनाये जा रहे है।

प्लास्टिक प्रदुषण के कारण  
        प्लास्टिक सस्ता और सर्व सुलभ होने के कारण  प्लास्टिक निर्मित सामग्री का  दैनिक जीवन में  अधिक उपयोग किया जा रहा है। आज प्लास्टिक ने हमारी भूमि और पर्यावरण पर बेजा  कब्ज़ा कर लिया है, जब इसको समाप्त किया जाता है, तो यह आसानी से विघटित नहीं होता है, और इसलिए वह उस क्षेत्र की  भूमि और वातावरण को प्रदूषित करता है। पोलीथिन बैग, प्लास्टिक की बोतलें, बेकार या त्याग दिए गए  इलेक्ट्रॉनिक उपकरण, खिलौने आदि, विशेषकर शहरी और ग्रामीण इलाकों में नालिओं, नहरों, नदियों और झीलों के जल निकास को अवरुद्ध कर रहे है। विडंबना यह है कि प्लास्टिक के दुष्परिणामों से परिचित होने के बाद भी हम इससे बच नहीं पा रहे हैं। इस समय  हम पिछले 50 साल की तुलना में 20 गुणा अधिक प्लास्टिक का उत्पादन कर रहे हैं और आगामी  20 साल में इसके दोगुना होने की संभावना है। वर्तमान समय में सम्पूर्ण पृथ्वी पर लगभग 1500 लाख टन प्लास्टिक एकत्रित हो चुका है जो पर्यावरण को लगातार क्षति पहुंचा रहा है .आज वैश्विक स्तर पर प्रतिव्यक्ति प्लास्टिक का उपयोग जहां 18 किलोग्राम है वहीं इसका रिसायक्लिंग मात्र 15.2 प्रतिशत ही है. इसके अलावा प्लास्टिक रीसाइक्लिंग इतना सुरक्षित नहीं माना जाता है क्योंकि प्लास्टिक के रीसाइक्लिंग के माध्यम से अधिक प्रदूषण फैलता है। दुनिया भर में 10 लाख प्लास्टिक की बोतलें प्रति मिनट खरीदी जाती हैं। प्रत्येक वर्ष पूरी दुनिया में 500 अरब प्लास्टिक बैगों का उपयोग किया जाता है।
दुनिया भर में लगभग 70,000 टन प्लास्टिक समुन्द्र में फैंक दिए जाते हैं। मछली पकड़ने के जाल और अन्य प्लास्टिक सामग्री को स्थलीय और जलीय जानवरों द्वारा भोजन समझकर खा लिया जाता है, जिससे उनके शरीर के अंदर प्लास्टिक के जैव- कण संचय हो जाने से उनके श्वसन मार्ग में अवरोध होता है जिससे प्रति वर्ष बड़ी तायदाद में नदी और समुन्द्र की मछलियों और कछुओं की असमय मौत हो जाती हैं। वर्ष 2013 में एक अमेरिकन औसतन 109 किलोग्राम प्लास्टिक का उपभोग कर रहा था, चीन में उपभोग की दर 45 किलोग्राम थी। भारत इस मामले में थोड़ा बेहतर था। यहां प्रति व्यक्ति 9.7 किलोग्राम प्लास्टिक का उपभोग किया जा रहा था। लेकिन इसमें सालाना 10 प्रतिशत का इजाफा भी हो रहा है।

प्लास्टिक प्रदूषण एक गंभीर समस्या 

अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि प्लास्टिक की बोतलों और कंटेनरों का उपयोग मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। एक प्लास्टिक के पाउच  में गर्म भोजन या पानी ग्रहण करने  से कैंसर हो सकता है। जब अत्यधिक सूरज की रोशनी या तापमान के कारण प्लास्टिक गर्म हो जाता है तो उसमें हानिकारक रासायनिक डाईऑक्सीजन का रिसाव शरीर को भारी नुकसान पहुंचाता है . प्लास्टिक मुख्यतः पैट्रोलियम पदार्थों से निकलने वाले कृत्रिम रेजिन से बनाया जाता है। रेजिन में अमोनिया एवं बेंजीन को मिलाकर प्लास्टिक के मोनोमर बनाए जाते हैं। इसमें क्लोरीन, फ्लुओरिन, कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन एवं सल्फर के अणु होते हैं। लंबे समय तक अपघटित न होने के अलावा भी प्लास्टिक अनेक अन्य प्रभाव छोड़ता है, जो मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। उदाहरणस्वरूप पाइपों, खिड़कियों और दरवाजों के निर्माण में प्रयुक्त पी.वी.सी. प्लास्टिक विनाइल क्लोराइड के बहुलकीकरण सें बनाया जाता है। रसायन मस्तिष्क एवं यकृत में कैंसर पैदा कर सकता है। मशीनों की पैकिंग बनाने के लिए अत्यंत कठोर पॉलीकार्बोंनेट प्लास्टिक फॉस्जीन बिसफीनॉल यौगिकों के बहुलीकरण से प्राप्त किए जाते हैं। इनमें एक अवयव फॉस्जीन अत्यंत विषैली व दमघोटू गैस है। फार्मेल्डीहाइड अनेक प्रकार के प्लास्टिक के निर्माण में प्रयुक्त होता है। यह रसायन त्वचा पर दाने उत्पन्न कर सकता है। कई दिनों तक इसके संपर्क में बने रहने से दमा तथा सांस संबंधी बीमारियां हो सकती हैं।

  • प्लास्टिक का कचरा जिसे कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है. वह पर्यावरण के लिए कई जहरीले प्रभाव छोड़ सकता है। प्लास्टिक कैरी बैग ने आधुनिक सभ्यता में एक बड़ी समस्या पैदा की है। एक छोटे से शहर में पांच से सात क्विंटल बैग बेचे जाते हैं। प्रदूषण की प्रक्रिया तब शुरू होती है जब उपयोग के बाद कचरे में ले जाने वाले सामान को कूड़े के रूप में फेंक दिया जाता है। बायोडिग्रेडेबल न होने के कारण प्लास्टिक के बैग कभी भी सड़ते नहीं हैं और पर्यावरण के लिए खतरा बन जाते हैं। कैरी बैग कृषि क्षेत्रों में फसलों के प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में बाधा डालते हैं।
  • प्लास्टिक की पैकिंग में लिपटे हुए खाद्य और ड्रग्स रासायनिक प्रक्रिया को शुरू कर इसे दूषित और ख़राब करते हैं। ऐसे भोजन की खपत मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है क्योंकि इससे भयानक रोग होते हैं।
  • हमारे द्वारा फेंके गये गंदे कचरे में प्लास्टिक की थैली और बोतलों को कई पालतू और आवारा जानवरों द्वारा खा लिया जाता है जिससे प्रति वर्ष लाखो पशु पक्षीओ की अकाल म्रत्यु हो जाती है।
  • बरसात के मौसम में, सड़क पर पड़ा हुआ प्लास्टिक का कचरा जो कि पास के जलाशय और नहरों और नालियों में वह जाता है,इस कचरे को मछलियों खाकर मर जाती है । इसके अलावा, प्लास्टिक सामग्री से पानी की गुणवत्ता में भी कमी आ जाती है।
  • समुद्री जल निकायों में प्लास्टिक प्रदूषण के कारण जलीय जानवरों की असंख्य मृत्यु हो रही है, और इससे यह जलीय पौधे भी काफी हद तक प्रभावित हो रहे है।
  • प्लास्टिक संचय के कारण गंदगी बढ़ती है जो मच्छरों और अन्य हानिकारक कीड़े-मकोड़ों के लिए प्रजनन का  आधार बन जाता है, जो कि मनुष्यों में कई बीमारियों का कारण हो सकता है।
  • प्लास्टिक सामग्री से भूमि  की उपजाऊ शक्ति कम हो जाती है और बीज अंकुरण प्रभावित होने से फसल उत्पादन कम होता है । दुनिया भर में अरबों प्लास्टिक के बैग हर साल फेंके जाते हैं। ये प्लास्टिक बैग नालियों के जल प्रवाह को रोकते हैं और आगे बढ़ते हुए नदियों और महासागरों तक पहुंचते हैं। चूंकि प्लास्टिक स्वाभाविक रूप से विघटित नहीं होता है इसलिए यह प्रतिकूल तरीके से नदियों, महासागरों आदि के जीवन और पर्यावरण को प्रभावित करता है। प्लास्टिक प्रदूषण के कारण लाखों पशु और पक्षी वैश्विक स्तर पर मारे जाते हैं जो पर्यावरण संतुलन के मामले में एक अत्यंत चिंताजनक पहलू है। हम बचे खाद्य पदार्थों को पॉलीथीन में लपेट कर फेंकते हैं तो पशु उन्हें ऐसे ही खा लेते हैं जिससे जानवरों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है यहां तक की पॉलिथीन खाकर हजारों की संख्या में पालतू और आवारा पशुओं की मौत हो जाती है ।

प्लास्टिक को जलाना ज्यादा घातक 
         प्लास्टिक को फेंकने और जलाने दोनों से ही पर्यावरण को समान रूप से हानि पहुँचती है। चाहे प्लास्टिक को जमीन में डाल दें या पानी में फेंक दें इसके हानिकारक प्रभाव कम नहीं होते हैं। प्लास्टिक सामग्री/अपशिष्ट जलाने से आमतौर पर कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड गैसों का उत्सर्जन होता है जो श्वसन नालिका या त्वचा की बीमारियों का कारण बन सकता है। इसके अलावा पॉलीस्टाइन प्लास्टिक के जलने से क्लोरो-फ्लोरो कार्बन का उत्पादन होता है जो वायुमंडल के ओजोन परत के लिए हानिकारक होता है। इसी तरह पोलिविनाइल क्लोराइड के जलने से क्लोरीन और नायलॉन का उत्पादन होता है और पॉलीयोरेथन नाइट्रिक ऑक्साइड जैसे विषाक्त गैसें निकलती हैं।
प्लास्टिक कचरे का निस्तारण
प्लास्टिक कचरे को ठिकाने लगाने के लिए अब तक तीन उपाय अपनाए जाते रहे हैं। आमतौर पर प्लास्टिक के न सड़ने की प्रवृति को देखते हुए इसे गड्ढों में भर दिया जाता है। दूसरे उपाय के रूप में इसे जलाया जाता है, लेकिन यह तरीका बहुत प्रदूषणकारी है। प्लास्टिक जलाने से आमतौर पर कार्बन डाइऑक्साइड गैस नकलती है। उदाहरणस्वरूप, पॉलिस्टीरीन प्लास्टिक को जलाने पर कलोरो-फ्लोरो कार्बन निकलते हैं, जो वायमुंडल की ओजोन परत के लिए नुकसानदायक हैं। इसी प्रकार पॉलिविनायल क्लोराइड को जलाने पर क्लोरीन, नायलान और पॉलियूरेथीन को जलाने पर नाइट्रिक ऑक्साइड जैसी विषाक्त गैसें निकलती हैं। प्लास्टिक के निपटान का तीसरा और सर्वाधिक चर्चित तरीका प्लास्टिक का पुनःचक्रण है। पुनःचक्रण का मतलब प्लास्टिक अपशिष्ट से पुनः प्लास्टिक प्राप्त करके प्लास्टिक की नई चीजें बनाना।

स्वच्छ धरा तो सबका भला

       इस वर्ष का  अन्तराष्ट्रीय प्रथ्वी दिवस और विश्व पर्यावरण दिवस हम सभी के लिए स्पष्ट सन्देश दे रहा है कि हम उन विभिन्न तरीकों को अपनाएं जिससे पूरी दुनिया से  प्लास्टिक प्रदूषण का  खात्मा किया जा सके । जरूरी नहीं है कि इसके लिए आप हर बार  प्रथ्वी दिवस और पर्यावरण दिवस का इंतजार करें। देश के नागरिकों को एकजुट होकर भारत सरकार के स्वच्छता मिशन कार्यक्रम   में बढ़ चढ़ कर भागीदारी निभानी चाहिए और अपने आस-पास के गली मुहल्लों, सड़क, नदी नालों, तालाबों, सार्वजानिक स्थलों को साफ़ सुथरा रखने अपना योगदान देना चाहिए . पोलिथीन का प्रयोग बंद करो, प्रथ्वी को प्रदुषण मुक्त करों की मुहीम में हम सभी को जुटना होगा और हर एक व्यक्ति प्लास्टिक से होने वाले नुकसान और पर्यावरण प्रदूषण के प्रति अपने आस पास के १० लोगों को भी जागरूक करे तो रोजमर्रा में इस्तेमाल हो रहे प्लास्टिक से  बढ़ते  प्रदुषण के खतरे से जन जीवन को बचाया जा सकता है। 
प्लास्टिक के उत्पादन और वितरण पर नियंत्रण रखने के लिए सरकार को सख्त  कदम उठाना चाहिए। प्लास्टिक थैलियों के विकल्प के रूप में जूट और कपड़े से बनी थैलियों और कागज की थैलियों को लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए।  सिंगल-यूज प्लास्टिक बैग की जगह प्लास्टिक के ऐसे प्रकार के बैग बनाए जाएं, जो दोबारा उपयोग करने लायक हों। उन्हें रिसाइकल किया जा सके।अपने क्षेत्रीय प्राधिकरण जैसे नगर निगम, नगर समिति, ग्राम पंचयत पर शहर और गावों  के कूड़े के प्रबंधन में सुधार लाने का दबाव बनाएं। इसके अलावा जन सामान्य को भी अन्य विशेष उपाय अपनाना चाहिए :
  • शॉपिंग के लिए बाज़ार में खुद का बैग लेकर जाएं. दुकानदार/ सब्जी विक्रेताओं को भी  पॉलिथीन बैग प्रयोग न करने की सलाह देना चाहिए। 
  • खाने-पीने की वस्तुएं आपूर्ति करने वालों पर प्लास्टिक रहित पैकेजिंग का उपयोग करने का दबाव बनाएं
  • प्लास्टिक से बनी प्लेटों, ग्लास, चम्मचों आदि का इस्तेमाल करने से मना करें. इनके स्थान पर दोना-पत्तल और मिटटी के वर्तनो के प्रयोग करें। 
  • बाग़-बगीचों, मंदिरों, सार्वजानिक स्थलों,नदी किनारे, समुद्र तट पर टहलते हुए अगर आपको प्लास्टिक सामग्री  दिखे तो उसे उठा कर डस्ट बिन में डालना चाहिए। 
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

गुरुवार, 24 मई 2018

अंतरवर्ती फसलोत्पादन का वायदा, उत्पादन और आमदनी ज्यादा


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 

हमारे देश की तमाम समस्याओं में से  द्रुत गति से बढती जन संख्या और सिकुड़ती कृषि भूमि सबसे बड़ी समस्या है।  इसके अलावा खेती योग्य जमीनों का जिस प्रकार से लगातार दोहन हो रहा है उससे खेतों की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जा रही है जिसके फलस्वरूप प्रति इकाई फसल उत्पादन घटता जा रहा है।  दूसरी तरफ  खेती में दिन प्रति दिन बढती लागत और घटती आमदनी से किसान परेशान है। यदि किसानों के पास उपलब्ध ससाधनों में अन्तर्वर्ती फसल उत्पादन पद्धति अपनाई जाये तो एकल फसल पद्धति की अपेक्षा प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिकाधिक लाभ अर्जित किया जा सकता है।         
किसी फसल के बीच में दूसरी फसल को उगाने की विधि को सहफसली शस्यन अथवा अंतर्वर्ती फसल पद्धति कहते हैं। जब दो या दो  से अधिक फसलों को समान अनुपात में उगाया जाता है, तो इसे अंत:फसल कहते हैं या अलग अलग फसलों को एक ही खेत में, एक ही साथ कतारों में उगाना ही अंत:फसल कहलाता है. इस विधि से प्रथम फसल के बीच खाली स्थान का उपयोग दूसरी फसल उगाकर किया जाता है। इस प्रकार पहले उगाई जाने वाली फसल को मुख्य फसल तथा बाद में उगाई गई फसल को गौड़ फसल कहते हैं।

अंतर्वर्ती फसल पद्धति  यानि सह फसली खेती में मुख्य रूप से दूर-दूर कतारों में बोई गई फसलों के मध्य स्थित रिक्त स्थान, प्रकाश के स्थानीय वितरण, पोषक तत्व, मृदा जल  आदि संसाधनों के कुशल उपयोग की अवधारणा निहित होती है। एक शस्य प्रणाली  मूलतः फसल, समय तथा स्थान के उपयोग का मिश्रित स्वरूप होती है जिसका मूल उद्देश्य कृषक को उसके कार्यों का स्थाई प्रतिफल प्रदान कराना होता है। वास्तव में यह कृषि पद्धति पौधों की वृद्धि हेतु वांछनीय सीमा कारको के कुशल उपयोग का अवसर प्रदान करती है। 

सहफसली खेती के प्रकार  

1. समानान्तर शस्यन:- इस विधि में ऐसी दो फसलों को एक खेत में साथ-साथ उगाया जाता है जिसकी वृद्धि अलग‘-अलग प्रकार से होती है। इनमें एक फसल सीधे ऊपर बढ़ने वाली तथा दूसरी फैलकर बढ़ने वाली होती है। इन फसलोें के बीच में वृद्धि के लिए आपसी प्रतिस्पर्धा नहीं होती हैं। इन्हें अलग-अलग कतारों में इस प्रकार उगाया जाता है कि एक फसल से दूसरे की वृद्धि प्रभावित न होने पाए। उदाहण स्वरूप मक्का+अरहर, मक्का+उर्द या मूंग, कपास+मूंग या सोयाबीन।
2. सहचर शस्यन:- इन फसलों को एक साथ इस प्रकार उगाया जाता है कि दोनों फसलों से शुद्ध फसल के समान उत्पादन मिल जाता है। अर्थात् इस प्रकार के फसलोत्पादन में प्रयोग की जाने वाली दोनों ही फसलें शुद्ध फसल के समान उपज देती हैं। दोनों पौधों की खेत में पौधों की संख्या शुद्ध फसल के समान रखी जाती है। उदाहरण स्वरूप गन्न +सरसो, गन्ना+चना, गन्ना+मटर, अरहरमूंगफली आदि।
3. बहुखण्डी शस्यन:- अलग अलग उंचाईयों पर बढ़ने वाली विभिन्न फसलों को एक साथ एक खेत में उगाने को बहुखण्डी शस्यन कहते हैं। विभिन्न ऊँचाईयों पर बढ़ने वाली फसलों के एक साथ उगाने पर फसलों में स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं होने पाती है। बहुखण्डी फसलों के चचुनाव करते समय भूमि की किस्म और फसलों के प्रसार दोनों बातों पर ध्यान रखा जाता है। उदाहरण – पपीता+बरसीम, सूबबूल+ लुसर्न आदि। 
4. सिनरजेटिक शस्यन:- सिनरजेटिक शस्यन बहुफसली शस्यन का एक रूप है जिस में दो फसलों को साथ-साथ इस प्रकार उगाया जाता है जिससे मुख्य और गौड़ फसलों का उत्पादन शुद्ध फसल की अपेक्षा बढ़ जाता है। जैसे आलू+गन्ना

अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन के लाभ

  • एकल फसल की अपेक्षा अन्तर्वर्ती  खेती से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है। इसे अपनाने से एक साथ एक ही खेत में, एक ही मौसम में एवं एक ही समय में दो या दो से अधिक फसलों का एक साथ उत्पादन किया जा सकता है। 
  • दो फसलों को साथ-साथ उगाने से शुद्ध फसल के रूप में उगाने की अपेक्षा उत्पादन लागत   कम आती है अर्थात कम लागत में प्रति इकाई अधिक उत्पादन से आमदनी को बढाया जा सकता है।   
  • सहफसली खेती से विभिन्न प्रकार के मौसम में उपज की निश्चितता अधिक रहती है। प्रायः एक फसल के कमजोर होने की स्थिति में उत्पादन की क्षतिपूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है।
  • धान्य फसलो के साथ दलहनी फसलों के उगाये जाने से  भूमि उर्वरता  और मृदा स्वास्थ्य को बनाये रखा जा सकता है।
  • कई प्रकार की जड़ वृद्धि स्वभाव फसलें भूमि के विभिन्न स्तरों से पोषक तत्व ग्रहण करती है।   इससे मृदा में निहित पोषक तत्वों  का कुशल  उपयोग होता है।
  • सहफसली शस्यन से मृदातल के उपरी वातावरण में प्रकाश, कार्बन डाई आक्साइड   तथा वर्षा जल का अवशोषण अधिक होता है।
  • किसान को कृषि आय एक बार न मिलकर कई बार में मिलती है।
  • अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन अपनाने से  श्रमिकों तथा फसलोत्पादन में प्रयुक्त उत्पादन के विभिन्न साधनों जैसे पूँजी, पानी, उर्वरक आदि  का समुचित  उपयोग    होता है।
  • इनको  अपरदन संरक्षीफसल, पट्टिका फसल तथा अपरदनकारी फसल के रूप में उगाकर मृदा क्षरण  होने से बचाया जा सकता है।
  • .विषमतल  भूमियों, तथा ढालू क्षेत्रों के चारागाहों में सहफसल के रूप में उपयुक्त दलहनी     फसलें उगाई जाती हैं। इससे चारे की गुणवत्ता बढ़ने के साथ साथ सीमान्त उर्वर भूमियों  की उर्वरता में वृद्धि हो जाती है।
  • इससे फसलों को कीट और रोगों से भी बचाया जा सकता है . अदाहरण के लिए चने की फसल में धनियाँ को अन्तर्वर्ती फसल के रूप में उगने से चने में कीटों का प्रकोप कम होता है.
  • इसमें एक सीधी  तो दूसरी फैलने वाली फसल लगाने के कारण खरपतवारों का नियंत्रण स्वतः हो जाता है। 
  • इनसे पशुओं के लिए सन्तुलित पोषक चारा उत्पादित करने में सहायता मिलती है।
  • तेज हवा, तेज वर्षा, एनी प्राकृतिक प्रकोप एवं जंगली जानवरों से फसल की सुरक्षा करना आसन होता है, क्योंकि कुछ फसलों को सुरक्षा फसल के रूप में भी उगाया जा सकता है। 

अन्तवर्ती फसलोत्पादन के सिद्धांत
Ø  अंतः फसलोत्पादन में मुख्य फसल के पौधों की संख्या इष्टतम होनी चाहिए, जबकि सहायक फसल के पौधों की संख्या आवश्यकतानुसार होनी चाहिए.
Ø  इस पद्धति में उगाई जाने वाली फसलों का एक दुसरे की पूरक हो तथा आपस में कोई प्रतियोगिता नही होना चाहिए.
Ø  मुख्य फसल के वृद्धिकाल तक सहायक फसल पककर तैयार हो जनि चाहिए.
Ø  मुख्य फसल की अपेक्षा सहायक फसल कम अवधी में  तेजी से वृद्धि करने वाली होनी चाहिए जिससे मुख्य फसल की प्रारंभिक धीमी वृद्धि कल का उपयोग किया जा सके.
Ø  इस प्रणाली में एक फसल सीधी बढ़ने वाली, जबकि दूसरी फसल फैलकर वृद्धि करने वाली होनी चाहिए. जैसे मक्का के साथ उरीद, मुंग, सौबेँ, लोबिया, मूंगफली आदि फसलो को लगाया जा सकता है जिससे मृदा क्षरण रोकने के साथ साथ मृदा की सतह से नमीं का वाष्पीकरण भी रोका जा सके .
Ø  अंतः फसलोत्पादन में मुख्य फसल और सहायक फसलो में पोषक तत्वों को ग्रहण करने की क्षमता अलग अलग होना चाहिए.
Ø  इस फसल पद्धति में उगाई जाने वाली फसलों में से एक फसल की जड़ें कम गहराई तथा दूसरी फसल की जड़ें अधिक गहराई तक जाने वाली हो जिससे  दोनों फसलें अलग अलग गहराई से पोषक तत्व और नमीं ग्रहण कर सकें.
Ø  सहायक फसल की कृषि क्रियाएं मुख्य फसल के समान होनी चाहिए.
खरीफ ऋतु में अन्तर्वर्ती फसलें
खरीफ यानि वर्षा ऋतु मुख्यतः मक्का, जुआर, बाजरा,सोयाबीन, अरहर, उर्द, मुंग, तिल, रामतिल, रागी, कोदों आदि फसलो को उगाया जाता है परन्तु अधिकांशतः किसान इन फसलो को एकल फसल पद्धति में लगाते है जिससे उन्हें शुद्ध लाभ कम प्राप्त होता है और लागत अधिक लगानी पड़ती है. अतः अधिk लाभ अर्जित करने के लिए किसानो को इन फसलों को निम्नानुसार लगाना चाहिए :
अरहर + मक्का   (1:2 ): इस पद्धति में एक कतार अरहर फिर दो  कतार मक्का   की , फिर एक कतार अरहर उसके बाद दो  कतार मक्का की लगनी चाहिए.
अरहर+ सोयाबीन (1:1): इस पद्धति में एक कतार अरहर की लगाने के बाद दूसरी कतार सोयाबीन की लगाये .उसके बाद एक कतार अरहर फिर दूसरी कतार सोयाबीन की लगाने से अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है.
अरहर + मूंगफली (1:6): इस पद्धति में पहले एक कतार अरहर की लगाने के बाद छः कतार मूंगफली की फिर एक कतार अरहर उसके बाद छः कतार मूंगफली की लगनी चाहिए.
अरहर + तिल (1:2):  इसमें एक कतार अरहर उसके बाद दो कतार तिल फिर एक कतार अरहर उसके बाद दो कतार तिल की लगाना चाहिए.
इसी प्रकार मूंगफली + बाजरा (4:1), मूंगफली + तिल (4:1), मूंग + तिल (1:1) लगाना चाहिए
रबी में अन्तर्वर्ती फसलें
रबी अर्थात शरद ऋतु में सरसों, चना, गेंहू,अलसी, कुसुम,आलू, गन्ना आदि फसलो को प्रमुखता से उगाया जाता है . इन फसलो में  सरसों + गेंहू (1:9), सरसों + चना (1:3 /1:4), सरसों +आलू (1:3), अलसी + चना (1:3 /1:4) की अन्तर्वर्ती खेती की जाती है.
    
अन्तर्वर्ती  खेती की सीमायें
                सहफसली शस्य-प्रबन्ध में कभी-कभी व्यावहारिक समस्याएं भी  उत्पन्न होती है जिससे किसान के समक्ष अनेक उलझने खड़ी हो जाती हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है:-
v  कृषि कार्यों के यंत्रीकरण में कठिनाई होती है। यह कठिनाई बीजों की बुआई, निराई, गुड़ाई, कटाई तथा संसाधन इत्यादि सभी क्रियाओं में उपस्थित होती है।
v  उर्वरकों की मात्रा तथा प्रयोग में कठिनाई होती है।
v  शाकनाशी, कीटनाशी तथा कवकनाशी दवाओं के प्रयोग में असुविधा होती है।
v  फसलों की गुणवत्ता घट जाती है।
अन्तर्वर्ती खेती की उपरोक्त समस्याओं को दृष्टि में रखते हुए कृषि वैज्ञानिको ने उन्नत तकनीके विकसित कर ली है।  अब अधिकांश फसलो की ऐसी किस्मे विकसित कर ली गई है जिनमे कीट रोग का प्रकोप नहीं होता है।  बुआई, निंदाई-गुड़ाई और कटाई हेतु नाना प्रकार के छोटे बढे यंत्र/मशीने विकसित कर ली गई है जिनकी सहायता से अन्तर्वर्ती फसलों की खेती आसानी से की जा सकती है।  कीट, रोग और खरपतवार नियंत्रण अब सुगमता से किया जा सकता है. उर्वरक और सिंचाई में फसलों की आवश्यकतानुसार दिया जा सकता है. इस प्रकार से हम कह सकते है की खेती में बढती लागत और मृदा स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन किसानो की आमदनी दौगुना करने में मील का पत्थर सिद्ध हो सकती है। 

मंगलवार, 30 मई 2017

सामयिक उद्यानिकी : श्रावण-भाद्रपद (अगस्त) माह के प्रमुख कृषि कार्य

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 

वर्षा ऋतु के अगस्त अर्थान सावन के  महिने में प्यासी धरती और पेड़ पौधों को नया जीवन मिलता है और प्रकृति की मनोहारी छटा देखकर हम सब को भी बड़ा शुकून मिलता है ।  इस महीने पेड़ों की डालियों पर रस्सी से बने  झुला झूलने  का आनंद ही कुछ और है.अपनी बगिया को नया रूप रंग देने का यह उपयुक्त  समय है।  सावन की भींगी हवा चमेली, मेहँदी,रात की रानी, गंधराज आदि के सुन्दर सुगन्धित फूलों से महकने लगती है।  इसी माह भाई-बहिन के प्यार का पवित्र त्यौहार रक्षाबंधन तथा हमारे देश की आजादी का महापर्व 15 अगस्त भी हम मनाते है। एक तरफ हरियाली से मन प्रफुल्लित रहता है तो दूसरी तरफ मच्छरों के प्रकोप से मलेरिया और डेंगू जैसे रोग फैलने की भी आशंका रहती है अतः हमें स्वास्थ्य के प्रति भी सचेत रहना है।  फसलों में भी कीट-रोग और खरपतवारों का प्रकोप भी बढ़ जाता है।  निरंतर वारिश होने से वातावरण में पर्याप्त आद्रता रहती है।  अधिकतम और न्यूनतम तापक्रम क्रमशः 30 और 24 डिग्री सेग्रे के आस पास रहता है। जलवायु के सभी घटक समभाव में रहते है।  पिछले माह यानि जुलाई की भांति यह माह भी वृक्षारोपण और पौध प्रवर्धन का माह माना जाता है।  इस माह उद्यानिकी-बागवानी में संपन्न किये जाने वाले महत्वपूर्ण कृषि कार्यो का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है। 

सब्जियों में इस माह



  • भिन्डी: फसल में फूल आने के एक सप्ताह बाद फल तौड लेवें अन्यथा फल रेशेदार/कड़े होने से बाजार में कम कीमत मिलती है।  खेत में पर्याप्त नमीं बनाये रखें तथा 50 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से यूरिया कतारों में देकर गुड़ाई और सिंचाई करें।  फली छेदक कीट की रोकथाम के लिए फसल में फूल आने से पूर्व 1200 मिली मैलाथिआन 50 ई.सी. का छिडकाव करें परन्तु दवा छिडकाव के 7 दिन तक इसके फल ना तोड़ें। 
  • बैगन, टमाटर व मिर्च : इनकी पौध यदि गत माह नहीं लगाई है तो इस माह रोपाई कर देवें। खेत से जल निकासी का इंतजाम करें।  इन फसलों  में 50 किलो यूरिया कतारों में देकर गुड़ाई करें। 
  • गोभी वर्गीय सब्जियां : इस वर्ग की अगेती फसल के लिए नर्सरी तैयार करें। पिछले माह लगाई गई फसलों में रोपाई के 30-40 दिन में 50-60 किग्रा नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से देवें। 
  • कद्दू वर्ग की सब्जियां: इन फसलों की सतत निगरानी रखें। अधिक वर्षा होने पर खेत से तुरंत जल निकासी की व्यवस्था करें।  खरपतवार नियंत्रण के आवश्यक उपाय करें। इन फसलों में फूल आते समय 25-30 किग्रा नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से थालों में देकर गुड़ाई करें। 
  • खीरा वर्गीय फसलें: फसलों में आवश्यकतानुसार निराई,गुड़ाई और सिंचाई करें।  तैयार फलों को तोड़कर बाजार भेजने की व्यवस्था करें। फसल की कीड़ों से सुरक्षा करें। 
  • गाजर व मूली: इनकी अगेती फसल के लिए इस माह बुआई करें।  इनकी उन्नत किस्मों को 5-6 किग्रा बीज को 30-35 सेमी की दूरी पर कतारों में लगाये।  बीज की बुआई 2 सेमी की गहराई पर करें. वर्षा न होने की स्थिति में सिंचाई करते रहे। 
  • लोबिया व ग्वार फली: तैयार मुलायम फलियों को तोड़कर बाजार भेजें. फलियों की तुड़ाई दो दिन के अंतराल से करते रहें।  कीटों के बचाव हेतु पौध सरंक्षण उपाय करें। 
  • अदरक/हल्दी/अरबी : इन फसलों में आवश्यकतानुसार निराई,गुड़ाई और सिंचाई करें।  रोगों से सुरक्षा हेतु 0.2% इंडोफिल-45 नामक दवा का घोल बनाकर एक छिडकाव करें।  खड़ी फसल में 40-50 किग्रा यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से कतारों में देवें। 
  • शकरकंद: पूर्व में रोपी गई फसल में निराई-गुड़ाई और मिट्टी चढाने का कार्य करें। पौध सरंक्षण के उपाय अपनावें।  इस माह भी शकरकंद की कलमें रोपी जा सकती है।   

फलोद्यान में इस माह



  • आम: पछेती किस्म के फलों को तोड़कर बाजार भेजें। आम के नये बगीचे  हेतु उन्नत किस्म के स्वस्थ पौधे रोपने का कार्य करें । देशी आम की गुठलियों की इस माह बुआई करें ताकि मूलवृन्त हेतु पौधे तैयार हो सकें।  एक वर्ष पुराने मूलवृन्तों पर विनियर कलम बाँधने का कार्य करें। 
  • केला: नए बाग़ की रोपाई का कार्य संपन्न करें एवं बाग़ में जल निकासी की व्यवस्था करें. पौधों के बगल से निकलने वाली अवांक्षित पुत्तियों (सकर्स) को निकाल देवें. केले की फसल से परिपक्व घारों की तुड़ाई कर बाजार भेजें। 
  • अमरुद: वर्षाकालीन फसल के तैयार फलों की तुड़ाई कर बाजार भेजें. पेड़ों में गूटी बाँधने का कार्य इस माह संपन्न कर लेवें। बगीचे में इंडोफिल-45 (0.2%) के घोल का छिडकाव करें। 
  • नीबू वर्गीय फल : फल वृक्षों में केंकर रोग की रोकथाम हेतु ब्लाइटाक्स-50 (0.25%) के घोल का छिडकाव करें।  पौधों की कीट पतंगों से सुरक्षा करें।  नए बाग़ लगाने का कार्य करें।
  • पपीता: पौधशाला में उन्नत किस्म के पपीता बीजों की बुआई करें। तने पर बोर्डो लेप लगावें।  बगीचे में जल निकास की उचित व्यवस्था करें। 
  • अन्य फल: आंवला के वृक्षों पर बोरेक्स का छिडकाव करें।  कटहल के फलों को तोड़कर बाजार भेजें।  बेर के पेड़ों में पत्ती खाने वाले कीटों को नियंत्रित करने के उपाय करें। 

पुष्पोत्पादन में इस माह

  • शोभाकारी पौधे: इन हरे भरे पौधों को बाहर निकाल कर  वर्षा ऋतु की बौछारों से स्नान कराने से पौधे तरोताजा और आकर्षक हो जाते है। परन्तु ध्यान रखें की वर्षा ऋतु का पानी पौधों की जड़ों के आस-पास भरा न रहें।  यह कलम लगाने का उत्तम समय है। इनमे जड़े शीघ्र विकसित होती है. अतः मन पसंद बेलें, हेज या झाड़ियाँ लगाने का कार्य संपन्न करें। 
  • गुलदावदी: इसके पौधे कुछ बड़े होने लगते है जिन्हें सीधा रखने के लिए लकड़ी का सहारा देना चाहिए। इन पौधों को ऊपर से 2-2.5 सेमी काट देने से शाखाएं और पुष्प  अधिक संख्या में  बनते  है. इनके पौधों को वर्षा जल भराव से हानि होती है। 
  • केक्टस और सकुलेंट की वर्षा के पानी से सुरक्षा करें अन्यथा ये पौधे अधिक जल में सड़ जाते है। 
  • शर्दियो के मौसमी पुष्पों जैसे कारनेसन, पिटुनिया, डहलिया, होलिहाक्स, सालविया, एस्टर  आदि के बीजों की गमलों में बुआई कर देना चाहिए।  ग्लेडियोलाई भी क्यारिओं में लगाई जा सकती है। 
  • लान में घास यदि नहीं लगाई है तो इस माह घास लगाने का कार्य संपन्न कर लेवें. पूर्व में लगाये गए लान से घास-फूस निकालने का कार्य करें।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

सामयिक कृषि: श्रावण-भाद्रपद (अगस्त) माह के प्रमुख कृषि कार्य

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 

कृषि और किसानों के आर्थिक तथा सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक है की कृषि विज्ञान की तमाम उपलब्धियो एवं समसामयिक कृषि सूचनाओं को खेत-खलिहान तक उनकी अपनी भाषा में पहुचाया जाएं। जब हम खेत खलिहान की बात करते है तो हमें खेत की तैयारी से लेकर फसल की कटाई-गहाई और उपज भण्डारण तक की तमाम सस्य क्रियाओं  से किसानों को रूबरू कराना चाहिए।  कृषि को लाभकारी बनाने के लिए आवश्यक है की समयबद्ध कार्यक्रम तथा नियोजित योजना के तहत खेती किसानी के कार्य संपन्न किए जाए। उपलब्ध  भूमि एवं जलवायु तथा संसाधनों के  अनुसार फसलों एवं उनकी प्रमाणित किस्मों का चयन, सही  समय पर उपयुक्त बिधि से बुवाई, मृदा परीक्षण के आधार पर संतुलित पोषक तत्त्व प्रबंधन, फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई, पौध  संरक्षण के आवश्यक उपाय के अलावा समय पर कटाई, गहाई और उपज का सुरक्षित भण्डारण तथा विपणन बेहद जरूरी है।
श्रावण-भाद्रपद यानि अगस्त माह में बरसात की झड़ी लगी रहती है तथा प्रकृति हरियाली से सराबोर रहती है।  इसी माह भाई-बहिन के प्यार का पवित्र त्यौहार रक्षाबंधन तथा हमारे देश की आजादी का महापर्व 15 अगस्त भी हम मनाते है. एक तरफ हरियाली से मन प्रफुल्लित रहता है तो दूसरी तरफ मच्छरों के प्रकोप से मलेरिया और डेंगू जैसे रोग फैलने की भी आशंका रहती है. फसलों में भी कीट-रोग और खरपतवारों का प्रकोप भी बढ़ जाता है। 

माह के मूलमंत्र

कीट नियंत्रण: इस माह फसलों की बढ़वार चरम पर होती है. वातावरण में नमीं और तापमान अनुकूल होने से कीटों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो जाती है।  ये कीट फसलों की पत्तियों, कलियों, पुष्पों और फलों का खाकर उपज का क्षति पहुचाते है. सही समय पर फसल लगाकर, फसल चक्र अपनाकर तथा पौध सरंक्षण के उपाय अपनाकर हानिकारक कीट पतंगों पर काबू पाया जा सकता है। 
रोग नियंत्रण: इस माह फसलों में भांति-भांति के रोगों का प्रकोप भी होता है जिससे उपज में कमीं के साथ-साथ फसलोत्पादन की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।  इसके लिए रोग प्रतिरोधक किस्मों का चयन करते हुए बीज उपचार कर फसल की बुआई करे तथा आवश्यकतानुसार रोगनाशक दवाईयों का इस्तेमाल कर रोगों से होने वाली क्षति से बचा जा सकता है। 
खरपतवार नियंत्रण: खरीफ फसलों में खरपतवार प्रकोप से उपज में  भारी नुकसान होने की संभावना रहती है. अतः खेतों और मेंड़ो पर खरपतवार विल्कुल ना पनपने दें।  सही समय और उचित विधि से खरपतवार नियंत्रण करें।  फसल बुआई से लेकर 35-40 दिन तक खेत खरपतवार मुक्त रखने का प्रयास करना चाहिए ताकि भरपूर उत्पादन प्राप्त हो सकें।
          श्रावण-भाद्रपद अर्थात अगस्त माह में किसान भाइयों को सतत चौकन्ना रहना है क्योंकि वातावरण में अधिक नमी होने के कारण फसलों के कीट-रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है साथ ही घास-पात भी फसल के साथ बढ़वार करने पर्तिस्पर्धा करने लगते है।  इस माह फसलोत्पादन में   संपन्न किये जाने वाले महत्वपूर्ण कृषि कार्यों की फसल्वर संक्षिप्त जानकारी अग्र प्रस्तुत है। 
धान: फसल में नत्रजन की  प्रथम ¼ मात्रा कल्ले फूटे समय एवं दूसरी ¼ मात्रा बालिओं में गोभ निकलते समय यूरिया के रूप में देवें।  खाद देते समय खेत में पानी भरा न रहें।  खैरा रोग के नियंत्रण हेतु जिंक सल्फेट 5 किग्रा तथा 2.5  किग्रा  चूना को 700  लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें। फसल में झुलसा रोग के लक्षण दिखने पर नाटीवो 75 डब्लू. जी. 4 ग्राम प्रति लीटर या ट्राईसायक्लाजोल कवकनाशी 6 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में घोलकर 12-15 अंतराल पर छिड़काव करें।  को आवश्यक पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें। सीधे बोये गए धान के खेत में पर्याप्त पानी होने पर  बियासी-चलाई का कार्य संपन्न कर प्रति इकाई ईष्टतम पौध संख्या स्थापित कर लेवें। धान में कटुआ इल्ली का प्रकोप दिखने पर डाइक्लोरोवास 80 ई.सी. 600 मिली प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। 
सोयाबीन: फसल को खरपतवार मुक्त रखने के लिए निदाई-गुड़ाई करें। फसल में फूल आते समय ब्रेसिनोस्टयराइड्स 0.25 ग्राम व सायटोकायनीन 2.5 ग्राम को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करने से सभी फूल नहीं झड़ते है जिससे फलियाँ अधिक बनती है। फसल की कीड़ों से सुरक्षा हेतु क्विनालफॉस 25 ई.सी. 1250 मिली अथवा ट्रायजोफॉस 40 ई.सी. 1 लीटर या क्लोरपायरोफॉस   20 ई.सी. 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। 
मूंगफली:समय पर बोई गई फसल फलियों में दाना भरने की दूधिया अवस्था में होगी।  इस समय कोई सस्य क्रिया नहीं की जानी है।  देर से बोई गई फसल में सुइयां (पेग्स) भूमि में प्रवेश करने की अवस्था में होंगी।  इस अवस्था में भी भूमि में कोई सस्य कार्य नहीं करना है परन्तु जिन क्षेत्रों में फसल सुइयां बनने की पूर्व की अवस्था में हो, वहां पर फसल में निराई-गुड़ाई कर मिट्टी को पौधों के चारों ओर चढाने का कार्य संपन्न किया जाना चाहिए।  यदि मूंगफली की पत्तियाँ पीली पड़ रही है तो फेरस सल्फेट 0.5% का घोल (500 ग्राम फेरस सल्फेट का 100 लीटर पानी में घोल)  अथवा व्यापारिक श्रेणी का गंधक अम्ल 0.1% (100 मिली अम्ल 100 लीटर पानी में घोल) का फसल पर छिडकाव करें। 
गन्ना:  वर्षा और तेज हवाएं चलने के कारण पौधे गिर सकते है जिससे पैदावार और गुणवत्ता में भारी गिरावट आती है।  पौधों को गिरने से बचाने के लिए गन्ने की दो कतारों के पौधों की पत्तियों को चोटी की तरह आपस में बाँध देना चाहिए। इससे पौधे सीधे खड़े रहेंगे तथा दो-दो कतारों के बीच खुला स्थान हो जाने के कारण वायु संचार अच्छा होगा। कीट रोग से फसल की सुरक्षा हेतु पौध सरंक्षण के  आवश्यक उपाय करें। 
मक्का: खेत से वर्षा जल के निकास हेतु उचित व्यवस्था करना आवश्यक है।  देर से बोई गई मक्का फसल में पौधे घुटनों की ऊंचाई पर आ जाने पर नत्रजन की दूसरी क़िस्त कतारों में देवें।  जहाँ मक्का फसल झंडे आने की अवस्था में है, वहां नत्रजन उर्वरक की अंतिम क़िस्त पौधों के आस-पास देवें। मक्का में तनभेदक कीट की रोकथाम हेतु कार्बोफ्यूरॉन 3 जी 20 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के 20-25 दिन बाद प्रयोग करें । हरे भुट्टों के लिए लगाई गई मक्का/स्वीट कॉर्न  के मुलायम भुट्टों की तुड़ाई कर विक्रय हेतु  बाजार भेजें। 
ज्वार/बाजरा: खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था रखें। फसल में  निराई-गुड़ाई कर नत्रजन की शेष  क़िस्त को कतारों में देवें।  फूल और दाना विकास की अवस्था में खेत में पर्याप्त नमीं बनाये रखें. कीट-रोग नियंत्रण के आवश्यक उपाय  मक्का की भांति करें। 
दलहन एवं तिलहन: अरहर, मूंग, उर्द आदि  के खेत में जल निकासी की व्यवस्था करें।  इन फसलों में फूल आने की अवस्था पर खेत में हल्की नमीं बनाए रखने से उपज में इजाफा होता है। फसल को सफ़ेद मक्खी के प्रकोप से बचाने के लिए मैटासिस्टाक्स (1 मिली प्रति लीटर पानी) या नुवान (1 मिली प्रति ३ लीटर पानी) का छिड़काव करें।  सफ़ेद मक्खी के नियंत्रण से फसल में पीत शिरा रोग फैलने की सम्भावना कम हो जाती है। 
मूंगफली: फसल में फूल और फल विकसित होने की अवस्था के समय वर्षा न होने की स्थिति में हल्की सिंचाई करें।  फूल आने के पूर्व फसल में निंदाई-गुड़ाई और पौधों पर मिट्टी चढाने का कार्य संपन्न कर लेवें। 
तिल: जुलाई में बोई गई फसल में निराई-गुड़ाई करें तथा अधिक उत्पादन हेतु फसल पर 0.5% जिंक सल्फेट तथा 0.25% चूने के पानी को मिलकर छिडकाव करे।  वर्षा थमने पर इस माह भी तिल की बुआई की जा सकती है। फसल में झुलसन रोग के लक्षण दिखने पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम या मेटलेक्जिल 2 ग्राम दवा प्रति पानी में घोलकर खड़ी फसल पर छिड़काव करें।  
कपास: फसल में निराई-गुड़ाई कार्य करें। नत्रजन की शेष एक तिहाई मात्रा जुलाई के अंत में तथा शेष बची एक तिहाई मात्रा फूल आते समय कतार में देवें।  फसल में फूल और बाल (टिन्डे) बनते समय हस्त चलित स्प्रयेर से यूरिया 2.5% घोल का पर्णीय छिडकाव करें। कपास में फूल आते समय एन.ए.ए. का छिडकाव (125 मिली/हे.) लाभप्रद पाया गया है।

नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

सोमवार, 29 मई 2017

सामयिक उद्यानिकी :फाल्गुन-चैत्र (मार्च) में बागवानी के प्रमुख कार्य

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 

कृषि प्रधान देश होते हुए भी भारत में फल एवं सब्जिओं की खपत प्रति व्यक्ति प्रति दिन मात्र 80 ग्राम है,जबकि अन्य विकासशील देशों में 191 ग्राम, विकसित देशों में 362 ग्राम और  संसार में औसतन 227  ग्राम है।  संतुलित आहार में फल एवं सब्जिओं की मात्रा 268 ग्राम होना चाहिए। भारत में फल एवं सब्जिओं की खेती सीमित क्षेत्र में की जाती है जिससे उत्पादन में कम प्राप्त होता है। स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण फल और सब्जिओं के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार के साथ-साथ प्रति इकाई उत्पादन बढाने की आवश्यकता है ।  इन फसलों से अधिकतम उत्पादन और लाभ अर्जित करने के लिए किसान भाइयों को सम सामयिक कृषि कार्यो पर विशेष ध्यान देना होगा तभी इनकी खेती लाभ का सौदा साबित हो सकती है।  समय की गति के साथ कृषि की सभी क्रियाए चलती रहती है  अतः समय पर कृषि कार्य संपन्न करने से ही आशातीत सफलता प्राप्त होती है। प्रकृति के समस्त कार्यो का नियमन समय द्वारा होता है।  उद्यान के कार्य भी समयबद्ध होते हैं। अतः उद्यान के कार्य भी समयानुसार संपन्न होना चाहिए।   उद्यान फसलों (सब्जी, फल और पुष्प) के सामयिक कार्यों को समझना और नियत समय पर उन्हें व्यवहार में लाना अति आवश्यक है।  आइये हम बागवानी में कौन से कार्य कब संपन्न करना आवश्यक है, इस पर माह वार चर्चा करते है। 
फाल्गुन-चैत्र  अर्थात मार्च  माह में खेतों में सरसों के पीले फूलों की न्यारी छटा निहारते ही बनती है। होली आती है तो लगने लगता है की शर्दी की विदाई का समय आ गया है।  वास्तव में यह प्रकृति की जाती हुई बहार और ग्रीष्म ऋतु के स्वागत का महिना है। कद्दू वर्गीय सब्जिओं जैसे लौकी, खीरा, करेला, तोरई आदि की खेती मचान बनाकर करने से परम्परागत विधि (समतल खेत एवं मेड़ें बनाकर) से उगाई गई फसल की अपेक्षा प्रति इकाई क्षेत्र से 3-4 गुना अधिक आमदनी प्राप्त होती है।  मचान विधि द्वारा उगाई गई बेल वाली सब्जी के पौधों को अधिक प्रकाश और हवा मिलने से उनमें पर्याप्त बढ़वार होती है। पौधों में अधिकतर फल लटके होने की वजह से अधिक लम्बे होते है, उनका आकर और रंग अधिक समरूप और आकर्षक होने से बाजार में बेहतर मूल्य प्राप्त होता है।  इस माह  बागवानी में संपन्न किये जाने वाले प्रमुख  समसामयिक  कृषि कार्यो पर विमर्श करते  है। 

सब्जियों में इस माह

v इस माह तैयार सब्जियां जैसे पछेती गोभी, मटर, शिमला मिर्च,टमाटर,बैगन, मिर्च, सूरन, मूली,गाजर, शलजम  आदि की तुड़ाई/खुदाई कर बिक्री हेतु बाजार भेजें। प्याज और लहसुन की फसल में आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई और सिचाई करते रहें। इन फसलों की  रोगों से सुरक्षा हेतु 0.2 % इंडोफिल-45 नामक दवा का घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करें। 
v भिन्डी: ग्रीष्मकालीन फसल की बुआई इस माह भी की जा सकती है.  पीत  शिरा रोग प्रतिरोधी किस्में किसी प्रतिष्ठित संस्थान से खरीदे।  भिन्डी की उन्नत किस्मों का बीज 18-20 किलो तथा संकर किस्मों का बीज 15 किलो प्रति हेक्टेयर बुआई हेतु पर्याप्त होता है. बीज बोने से पहले 24 घंटे पानी में डुबोकर रखने के बाद बुआई करने से अंकुरण अच्छा होता है। 
v टमाटर: पूर्व में लगाई गई फसल/पौध में निंदाई-गुड़ाई-सिंचाई समय पर करते रहें। पौध लगाने के 30 और 50 दिन बाद उन्नत किस्मों में 25-25 किलो नत्रजन तथा संकर किस्मों में 35-35 किलों नत्रजन कतारों में देकर सिंचाई करें। 
v बैगन: वर्षाकालीन फसल के लिए तैयार नर्सरी में पानी देकर सावधानी से पौध निकालकर तैयार खेत में रोपाई करें। रोपाई से पूर्व खेत की अंतिम जुताई के समय 8-10 टन गोबर की खाद के अलावा 40-50 किलो नत्रजन, 60-70 किलो फॉस्फोरस और 30-40 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें. पौधों की रोपाई शाम के समय कतारों में 60-70 से.मी. तथा पौधों के मध्य 50-60 से.मी. की दूरी पर करने के पश्चात हल्की सिंचाई करें. पौध रोपाई के 20 दिन बाद तथा पुष्पन अवस्था के समय 20-20 किलो नत्रजन कतार में देकर गुड़ाई और सिंचाई करे। 
v मिर्च: ग्रीष्मकालीन फसल हेतु यदि पिछले माह नर्सरी तैयार नहीं की है तो इस माह नर्सरी लगाई जा सकती है।  एक हेक्टेयर के लिए 1-1.5 किलों बीज की नर्सरी पर्याप्त होती है. नर्सरी में 8-10 ग्राम कार्बोफ्यूरान 3 जी प्रति वर्ग मीटर की दर से मिट्टी में मिलाने के उपरांत बुआई कर हल्की सिंचाई करें।    
v कुष्मांड कुल की सब्जियां: इस माह के प्रथम सप्ताह तक तोरई, कद्दू,करेला, टिंडा, लौकी  आदि की बुआई करें। बुआई पूर्व बीज को 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें।  खेत की अंतिम जुताई के समय 10-12 टन गोबर की खाद तथा बुआई के पहले 25 किलो नत्रजन, 30 किलो फॉस्फोरस तथा 20 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से थालों  में देवें। बुआई के एक माह बाद 30 किलो नत्रजन फसल में फूल आते समय देकर सिंचाई करें।  गत माह लगाई गई सब्जिओं में आवश्यकतानुसार उर्वरक और प्रति सप्ताह सिंचाई देते रहें। 
v ग्रीष्मकालीन सब्जिओं की पत्तियों पर सफ़ेद पाउडर (मिलड्यू रोग) दिखने पर 500 ग्राम वेविस्टिन को 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।  पत्तों की निचली सतह पर बैंगनी-भूरे रंग के धब्बे नज़र आने पर 1000 ग्राम डाईथेन एम-45 को 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें। खीरा वर्गीय फसलों में आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई और सिंचाई करते रहें। ककड़ी के तैयार मुलायम फलों को तोड़कर बाजार भेजें। कददू का लाल गिडार कीट की रोकथाम हेतु एसीफेट 75 एस.पी. के 0.1 % घोल का छिड़काव करें। माहू और फल वेधक मक्खी की रोकथाम के लिए डाइमेथोएट 30 ई.सी. के 0.1 % घोल का फल तोड़ने के पश्चात  छिड़काव करें। प्रति थाला 10-15 ग्राम यूरिया डालकर सिंचाई करें। 
v गत माह लगाई गई बैंगन और टमाटर की फसलों में आवश्यकतानुसार गुड़ाई और सिंचाई करें।  फल छेदक कीट के नियंत्रण हेतु 500 मिली मैलाथियान 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।  दवाई छिडकने से पहले तैयार फलों को तोड़ कर बिक्री हेतु बाजार भेजें। 
v हल्दी/अदरक: इन फसलों में समय-समय पर सिंचाई करते रहे।  तैयार फसल की खुदाई-सफाई कर  विक्रय हेतु बाजार भेजें।  अदरक और हल्दी  की नई फसल  लगाने का यह उपयुक्त समय है। खेत की अंतिम जुताई के समय 100 किग्रा नत्रजन, 80 किग्रा फॉस्फोरस तथा 60 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से कतारों में देवें।  इनके स्वस्थ कंदो को 45  x 15  से.मी. की दूरी पर मेंड़ों पर लगाना चाहिए। बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमीं होना चाहिए।     
v आलू: फसल में सिंचाई देना बंद कर देना चाहिए और इसकी पत्तिया सूखने पर खुदाई आरम्भ कर देना चाहिए। देर से खुदाई करने  आलू सड़ना शुरू हो जाता है। हरे,छोटे और कटे-फटे आलुओं को अलग कर शेष मात्रा को या  विक्रय हेतु बाजार भेजें अथवा  शीत गृह भेजने की व्यवस्था करें। 

फलोत्पादन में इस माह

v बाग-बगीचों में अधिकतर पेड़ लगाने, काट-छांट तथा खाद-पानी देने का कार्य संपन्न कर लेवें।बगीचे में आवश्यकतानुसार पानी देते रहें। 
v आम: आम के वृक्षों में फूल आने के बाद फल बनने तक सिंचाई नहीं करें।   जिन पौधों में फूल/फल नहीं आ रहे है, उनमें थालों की निंदाई-गुड़ाई कर समय-समय पर सिंचाई करते रहें। इस माह  आम के वृक्षों में भुनगा (मेंगो हॉपर) कीट का प्रकोप हो सकता है। कीड़े दिखने पर क्यूनालफॉस 0.05 % (2 मिली. दवा प्रति लीटर पानी में मिलाकर) छिड़काव करें। कीड़ो का प्रकोप कम नहीं होता है तो दूसरा छिड़काव मिथाइल डिमेटॉन 0.04 % (1.5  मिली. दवा प्रति लीटर पानी में मिलाकर) का करने से कीड़े समाप्त हो जाते है।  पत्तों पर सफ़ेद चूर्ण रोग के लक्षण दिखते ही फल बनने के तुरंत बाद डाइनोकेप 0.05  % (0.5  मिली. दवा प्रति लीटर पानी) का  छिड़काव 20  दिन के अंतराल से दो बार  करें।
v सिंचाई की सुविधा होने तथा गर्म हवा/धूप  से पौधों की सुरक्षा कर सकें तो इस माह अमरुद, आंवला, अनार, नीबू आदि के पौधे लगाये जा सकते है।  इन पौधों की कटिंग्स लगाने से पहले आई.बी.ए. के 1000  पी.पी.एम. घोल (एक ग्राम प्रति लीटर पानी) में डुबोकर लगाये. पौधे लगाने के लिए गड्ढे निर्धारित आकार के खोदें।  नीबू के लिए 90 x 90 x 90 से.मी., अनार व आंवला के लिए 60 x 60 x 60 से.मी.तथा बेर के लिए 1 x 1 x 1 मीटर के गड्ढे खोदकर 10-15 दिन तक धूप में तपायें जिससे मिट्टी में उपस्थित कीड़े-मकोड़े नष्ट हो जावें।  इसके बाद 15-20 किलो सड़ी हुई गोबर की खाद तथा 1 किलो सुपर फॉस्फेट के अलावा क्युनालफ़ॉस 1.5% डस्ट  मिट्टी में मिलाकर  गड्ढों में भरने के पश्चात इनमें  पौधे लगाकर हल्की सिंचाई करें। इसके पश्चात 7-8 दिन के अंतराल से बून्द-बून्द विधि से सिंचाई की व्यवस्था करें। 
v अमरुद: अमरुद के पौधों से वर्षा ऋतु के फल लेना है तो 1-3 वर्षीय पौधों में 100 ग्राम, 4-6 वर्षीय में 150-200 ग्राम, 7-10 वर्षीय में 250-300 ग्राम यूरिया  खाद  प्रति पौधा देकर सिंचाई करें।   फल नहीं लेना है तो खाद और सिंचाई की आवश्यकता नहीं है। तना भेदक कीट की रोकथाम के उपाय करें।   
vलीची: इस माह लीची में फूल आने के 15  दिन पूर्व 3 ग्राम जिंक सल्फेट और 3 ग्राम यूरिया को प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से फूल अधिक आते है। फूल आने के दो सप्ताह पहले एक सिंचाई करें। 
v  नीबू वर्गीय फल: केंकर रोग से रोगथाम हेतु ब्लाइटॉक्स-50 (0.25%) का छिड़काव करें।  पीले-पके फलों को तोड़कर बाजार भेजें। पेड़ों के टनों को चूने से पॉट देवें। पौधों में गूटी बांधने का कार्य करें।  पौधशाला में मूलवृंत तैयार करने के वास्ते बीजों की बुआई करें।  
v फल परिरक्षण: संतरा और नींबू  का शरबत  तैयार करें। केला,पपीता, सेब तथा आंवला का जैम तैयार करें। अनार का रस तैयार किया जा सकता है।  आंवला और सेब का मुरब्बा तैयार किया जा सकता है।  आलू के चिप्स तैयार किये जा सकते है। 

पुष्पोत्पादन में इस माह

v गर्मी वाले फूलों जैसे बालसम,फ्रेंच गेंदा, पिटूनिया, पोर्चुलाका, साल्विया, सूरजमुखी, जिनिया, वर्विना आदि की बुआई करें।  बुआई के बाद नियमित रूप से नर्सरी की सिंचाई तथा निराई-गुडाई करते रहें। 
v सर्दियों में जो फूल खिल चुके है उनके बीज एकत्रित करना प्रारंभ करें। 
v गुलाब के पौधों की सूखी डालें और फूलों को बराबर काटकर निकालते रहें. गमलों में प्रतिदिन पानी देना चाहिए तथा क्यारिओं में 4-5 दिन में पानी देवें. पौधों में बडिंग कर नए पौधे तैयार करें। 
v गमलों में लगे हुए कन्दीय पुष्प जैसे डह्लिया, लिलियम आदि में पानी देना बंद कर देवें। इनकी पत्तिय सूखने पर गमलों को छायादार स्थान में रख देवें। 
v गमलों में लगाये गए गुलदावदी के पौधों की निराई और सिंचाई करते रहे तथा तेज धुप से इनकी सुरक्षा करें। 
v इस माह नई हेज़ जैसे लेंटाना, टिकोमा, हेमेलिया,केशिया आदि  लगाने के लिए क्यारिओं में बीज बोये जा सकते है।  यह माह प्रसारण एवं कलम लगाने के लिए बहुत उपयुक्त है. हाईविस्क्स, हेमेलिया, एकलिफा, बोगेनविलिया, डूरेंटा, इरेंथियम आदि का प्रसारण भलीभांति किया जा सकता है। 
v इस माह लॉन की घास शीघ्रता से बढती है, अतः इसमें सिंचाई, मशीन से कटाई  और रोलर चलाने का कार्य करते रहे।  नए लॉन  में घास लगाने के लिए भूमि की तैयारी करें। 

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