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गुरुवार, 24 मई 2018

अंतरवर्ती फसलोत्पादन का वायदा, उत्पादन और आमदनी ज्यादा


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर, इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 

हमारे देश की तमाम समस्याओं में से  द्रुत गति से बढती जन संख्या और सिकुड़ती कृषि भूमि सबसे बड़ी समस्या है।  इसके अलावा खेती योग्य जमीनों का जिस प्रकार से लगातार दोहन हो रहा है उससे खेतों की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जा रही है जिसके फलस्वरूप प्रति इकाई फसल उत्पादन घटता जा रहा है।  दूसरी तरफ  खेती में दिन प्रति दिन बढती लागत और घटती आमदनी से किसान परेशान है। यदि किसानों के पास उपलब्ध ससाधनों में अन्तर्वर्ती फसल उत्पादन पद्धति अपनाई जाये तो एकल फसल पद्धति की अपेक्षा प्रति इकाई क्षेत्रफल में अधिकाधिक लाभ अर्जित किया जा सकता है।         
किसी फसल के बीच में दूसरी फसल को उगाने की विधि को सहफसली शस्यन अथवा अंतर्वर्ती फसल पद्धति कहते हैं। जब दो या दो  से अधिक फसलों को समान अनुपात में उगाया जाता है, तो इसे अंत:फसल कहते हैं या अलग अलग फसलों को एक ही खेत में, एक ही साथ कतारों में उगाना ही अंत:फसल कहलाता है. इस विधि से प्रथम फसल के बीच खाली स्थान का उपयोग दूसरी फसल उगाकर किया जाता है। इस प्रकार पहले उगाई जाने वाली फसल को मुख्य फसल तथा बाद में उगाई गई फसल को गौड़ फसल कहते हैं।

अंतर्वर्ती फसल पद्धति  यानि सह फसली खेती में मुख्य रूप से दूर-दूर कतारों में बोई गई फसलों के मध्य स्थित रिक्त स्थान, प्रकाश के स्थानीय वितरण, पोषक तत्व, मृदा जल  आदि संसाधनों के कुशल उपयोग की अवधारणा निहित होती है। एक शस्य प्रणाली  मूलतः फसल, समय तथा स्थान के उपयोग का मिश्रित स्वरूप होती है जिसका मूल उद्देश्य कृषक को उसके कार्यों का स्थाई प्रतिफल प्रदान कराना होता है। वास्तव में यह कृषि पद्धति पौधों की वृद्धि हेतु वांछनीय सीमा कारको के कुशल उपयोग का अवसर प्रदान करती है। 

सहफसली खेती के प्रकार  

1. समानान्तर शस्यन:- इस विधि में ऐसी दो फसलों को एक खेत में साथ-साथ उगाया जाता है जिसकी वृद्धि अलग‘-अलग प्रकार से होती है। इनमें एक फसल सीधे ऊपर बढ़ने वाली तथा दूसरी फैलकर बढ़ने वाली होती है। इन फसलोें के बीच में वृद्धि के लिए आपसी प्रतिस्पर्धा नहीं होती हैं। इन्हें अलग-अलग कतारों में इस प्रकार उगाया जाता है कि एक फसल से दूसरे की वृद्धि प्रभावित न होने पाए। उदाहण स्वरूप मक्का+अरहर, मक्का+उर्द या मूंग, कपास+मूंग या सोयाबीन।
2. सहचर शस्यन:- इन फसलों को एक साथ इस प्रकार उगाया जाता है कि दोनों फसलों से शुद्ध फसल के समान उत्पादन मिल जाता है। अर्थात् इस प्रकार के फसलोत्पादन में प्रयोग की जाने वाली दोनों ही फसलें शुद्ध फसल के समान उपज देती हैं। दोनों पौधों की खेत में पौधों की संख्या शुद्ध फसल के समान रखी जाती है। उदाहरण स्वरूप गन्न +सरसो, गन्ना+चना, गन्ना+मटर, अरहरमूंगफली आदि।
3. बहुखण्डी शस्यन:- अलग अलग उंचाईयों पर बढ़ने वाली विभिन्न फसलों को एक साथ एक खेत में उगाने को बहुखण्डी शस्यन कहते हैं। विभिन्न ऊँचाईयों पर बढ़ने वाली फसलों के एक साथ उगाने पर फसलों में स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं होने पाती है। बहुखण्डी फसलों के चचुनाव करते समय भूमि की किस्म और फसलों के प्रसार दोनों बातों पर ध्यान रखा जाता है। उदाहरण – पपीता+बरसीम, सूबबूल+ लुसर्न आदि। 
4. सिनरजेटिक शस्यन:- सिनरजेटिक शस्यन बहुफसली शस्यन का एक रूप है जिस में दो फसलों को साथ-साथ इस प्रकार उगाया जाता है जिससे मुख्य और गौड़ फसलों का उत्पादन शुद्ध फसल की अपेक्षा बढ़ जाता है। जैसे आलू+गन्ना

अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन के लाभ

  • एकल फसल की अपेक्षा अन्तर्वर्ती  खेती से अधिक उत्पादन प्राप्त होता है। इसे अपनाने से एक साथ एक ही खेत में, एक ही मौसम में एवं एक ही समय में दो या दो से अधिक फसलों का एक साथ उत्पादन किया जा सकता है। 
  • दो फसलों को साथ-साथ उगाने से शुद्ध फसल के रूप में उगाने की अपेक्षा उत्पादन लागत   कम आती है अर्थात कम लागत में प्रति इकाई अधिक उत्पादन से आमदनी को बढाया जा सकता है।   
  • सहफसली खेती से विभिन्न प्रकार के मौसम में उपज की निश्चितता अधिक रहती है। प्रायः एक फसल के कमजोर होने की स्थिति में उत्पादन की क्षतिपूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है।
  • धान्य फसलो के साथ दलहनी फसलों के उगाये जाने से  भूमि उर्वरता  और मृदा स्वास्थ्य को बनाये रखा जा सकता है।
  • कई प्रकार की जड़ वृद्धि स्वभाव फसलें भूमि के विभिन्न स्तरों से पोषक तत्व ग्रहण करती है।   इससे मृदा में निहित पोषक तत्वों  का कुशल  उपयोग होता है।
  • सहफसली शस्यन से मृदातल के उपरी वातावरण में प्रकाश, कार्बन डाई आक्साइड   तथा वर्षा जल का अवशोषण अधिक होता है।
  • किसान को कृषि आय एक बार न मिलकर कई बार में मिलती है।
  • अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन अपनाने से  श्रमिकों तथा फसलोत्पादन में प्रयुक्त उत्पादन के विभिन्न साधनों जैसे पूँजी, पानी, उर्वरक आदि  का समुचित  उपयोग    होता है।
  • इनको  अपरदन संरक्षीफसल, पट्टिका फसल तथा अपरदनकारी फसल के रूप में उगाकर मृदा क्षरण  होने से बचाया जा सकता है।
  • .विषमतल  भूमियों, तथा ढालू क्षेत्रों के चारागाहों में सहफसल के रूप में उपयुक्त दलहनी     फसलें उगाई जाती हैं। इससे चारे की गुणवत्ता बढ़ने के साथ साथ सीमान्त उर्वर भूमियों  की उर्वरता में वृद्धि हो जाती है।
  • इससे फसलों को कीट और रोगों से भी बचाया जा सकता है . अदाहरण के लिए चने की फसल में धनियाँ को अन्तर्वर्ती फसल के रूप में उगने से चने में कीटों का प्रकोप कम होता है.
  • इसमें एक सीधी  तो दूसरी फैलने वाली फसल लगाने के कारण खरपतवारों का नियंत्रण स्वतः हो जाता है। 
  • इनसे पशुओं के लिए सन्तुलित पोषक चारा उत्पादित करने में सहायता मिलती है।
  • तेज हवा, तेज वर्षा, एनी प्राकृतिक प्रकोप एवं जंगली जानवरों से फसल की सुरक्षा करना आसन होता है, क्योंकि कुछ फसलों को सुरक्षा फसल के रूप में भी उगाया जा सकता है। 

अन्तवर्ती फसलोत्पादन के सिद्धांत
Ø  अंतः फसलोत्पादन में मुख्य फसल के पौधों की संख्या इष्टतम होनी चाहिए, जबकि सहायक फसल के पौधों की संख्या आवश्यकतानुसार होनी चाहिए.
Ø  इस पद्धति में उगाई जाने वाली फसलों का एक दुसरे की पूरक हो तथा आपस में कोई प्रतियोगिता नही होना चाहिए.
Ø  मुख्य फसल के वृद्धिकाल तक सहायक फसल पककर तैयार हो जनि चाहिए.
Ø  मुख्य फसल की अपेक्षा सहायक फसल कम अवधी में  तेजी से वृद्धि करने वाली होनी चाहिए जिससे मुख्य फसल की प्रारंभिक धीमी वृद्धि कल का उपयोग किया जा सके.
Ø  इस प्रणाली में एक फसल सीधी बढ़ने वाली, जबकि दूसरी फसल फैलकर वृद्धि करने वाली होनी चाहिए. जैसे मक्का के साथ उरीद, मुंग, सौबेँ, लोबिया, मूंगफली आदि फसलो को लगाया जा सकता है जिससे मृदा क्षरण रोकने के साथ साथ मृदा की सतह से नमीं का वाष्पीकरण भी रोका जा सके .
Ø  अंतः फसलोत्पादन में मुख्य फसल और सहायक फसलो में पोषक तत्वों को ग्रहण करने की क्षमता अलग अलग होना चाहिए.
Ø  इस फसल पद्धति में उगाई जाने वाली फसलों में से एक फसल की जड़ें कम गहराई तथा दूसरी फसल की जड़ें अधिक गहराई तक जाने वाली हो जिससे  दोनों फसलें अलग अलग गहराई से पोषक तत्व और नमीं ग्रहण कर सकें.
Ø  सहायक फसल की कृषि क्रियाएं मुख्य फसल के समान होनी चाहिए.
खरीफ ऋतु में अन्तर्वर्ती फसलें
खरीफ यानि वर्षा ऋतु मुख्यतः मक्का, जुआर, बाजरा,सोयाबीन, अरहर, उर्द, मुंग, तिल, रामतिल, रागी, कोदों आदि फसलो को उगाया जाता है परन्तु अधिकांशतः किसान इन फसलो को एकल फसल पद्धति में लगाते है जिससे उन्हें शुद्ध लाभ कम प्राप्त होता है और लागत अधिक लगानी पड़ती है. अतः अधिk लाभ अर्जित करने के लिए किसानो को इन फसलों को निम्नानुसार लगाना चाहिए :
अरहर + मक्का   (1:2 ): इस पद्धति में एक कतार अरहर फिर दो  कतार मक्का   की , फिर एक कतार अरहर उसके बाद दो  कतार मक्का की लगनी चाहिए.
अरहर+ सोयाबीन (1:1): इस पद्धति में एक कतार अरहर की लगाने के बाद दूसरी कतार सोयाबीन की लगाये .उसके बाद एक कतार अरहर फिर दूसरी कतार सोयाबीन की लगाने से अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है.
अरहर + मूंगफली (1:6): इस पद्धति में पहले एक कतार अरहर की लगाने के बाद छः कतार मूंगफली की फिर एक कतार अरहर उसके बाद छः कतार मूंगफली की लगनी चाहिए.
अरहर + तिल (1:2):  इसमें एक कतार अरहर उसके बाद दो कतार तिल फिर एक कतार अरहर उसके बाद दो कतार तिल की लगाना चाहिए.
इसी प्रकार मूंगफली + बाजरा (4:1), मूंगफली + तिल (4:1), मूंग + तिल (1:1) लगाना चाहिए
रबी में अन्तर्वर्ती फसलें
रबी अर्थात शरद ऋतु में सरसों, चना, गेंहू,अलसी, कुसुम,आलू, गन्ना आदि फसलो को प्रमुखता से उगाया जाता है . इन फसलो में  सरसों + गेंहू (1:9), सरसों + चना (1:3 /1:4), सरसों +आलू (1:3), अलसी + चना (1:3 /1:4) की अन्तर्वर्ती खेती की जाती है.
    
अन्तर्वर्ती  खेती की सीमायें
                सहफसली शस्य-प्रबन्ध में कभी-कभी व्यावहारिक समस्याएं भी  उत्पन्न होती है जिससे किसान के समक्ष अनेक उलझने खड़ी हो जाती हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है:-
v  कृषि कार्यों के यंत्रीकरण में कठिनाई होती है। यह कठिनाई बीजों की बुआई, निराई, गुड़ाई, कटाई तथा संसाधन इत्यादि सभी क्रियाओं में उपस्थित होती है।
v  उर्वरकों की मात्रा तथा प्रयोग में कठिनाई होती है।
v  शाकनाशी, कीटनाशी तथा कवकनाशी दवाओं के प्रयोग में असुविधा होती है।
v  फसलों की गुणवत्ता घट जाती है।
अन्तर्वर्ती खेती की उपरोक्त समस्याओं को दृष्टि में रखते हुए कृषि वैज्ञानिको ने उन्नत तकनीके विकसित कर ली है।  अब अधिकांश फसलो की ऐसी किस्मे विकसित कर ली गई है जिनमे कीट रोग का प्रकोप नहीं होता है।  बुआई, निंदाई-गुड़ाई और कटाई हेतु नाना प्रकार के छोटे बढे यंत्र/मशीने विकसित कर ली गई है जिनकी सहायता से अन्तर्वर्ती फसलों की खेती आसानी से की जा सकती है।  कीट, रोग और खरपतवार नियंत्रण अब सुगमता से किया जा सकता है. उर्वरक और सिंचाई में फसलों की आवश्यकतानुसार दिया जा सकता है. इस प्रकार से हम कह सकते है की खेती में बढती लागत और मृदा स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए अन्तर्वर्ती फसलोत्पादन किसानो की आमदनी दौगुना करने में मील का पत्थर सिद्ध हो सकती है। 

मंगलवार, 30 मई 2017

सामयिक उद्यानिकी : श्रावण-भाद्रपद (अगस्त) माह के प्रमुख कृषि कार्य

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 

वर्षा ऋतु के अगस्त अर्थान सावन के  महिने में प्यासी धरती और पेड़ पौधों को नया जीवन मिलता है और प्रकृति की मनोहारी छटा देखकर हम सब को भी बड़ा शुकून मिलता है ।  इस महीने पेड़ों की डालियों पर रस्सी से बने  झुला झूलने  का आनंद ही कुछ और है.अपनी बगिया को नया रूप रंग देने का यह उपयुक्त  समय है।  सावन की भींगी हवा चमेली, मेहँदी,रात की रानी, गंधराज आदि के सुन्दर सुगन्धित फूलों से महकने लगती है।  इसी माह भाई-बहिन के प्यार का पवित्र त्यौहार रक्षाबंधन तथा हमारे देश की आजादी का महापर्व 15 अगस्त भी हम मनाते है। एक तरफ हरियाली से मन प्रफुल्लित रहता है तो दूसरी तरफ मच्छरों के प्रकोप से मलेरिया और डेंगू जैसे रोग फैलने की भी आशंका रहती है अतः हमें स्वास्थ्य के प्रति भी सचेत रहना है।  फसलों में भी कीट-रोग और खरपतवारों का प्रकोप भी बढ़ जाता है।  निरंतर वारिश होने से वातावरण में पर्याप्त आद्रता रहती है।  अधिकतम और न्यूनतम तापक्रम क्रमशः 30 और 24 डिग्री सेग्रे के आस पास रहता है। जलवायु के सभी घटक समभाव में रहते है।  पिछले माह यानि जुलाई की भांति यह माह भी वृक्षारोपण और पौध प्रवर्धन का माह माना जाता है।  इस माह उद्यानिकी-बागवानी में संपन्न किये जाने वाले महत्वपूर्ण कृषि कार्यो का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है। 

सब्जियों में इस माह



  • भिन्डी: फसल में फूल आने के एक सप्ताह बाद फल तौड लेवें अन्यथा फल रेशेदार/कड़े होने से बाजार में कम कीमत मिलती है।  खेत में पर्याप्त नमीं बनाये रखें तथा 50 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से यूरिया कतारों में देकर गुड़ाई और सिंचाई करें।  फली छेदक कीट की रोकथाम के लिए फसल में फूल आने से पूर्व 1200 मिली मैलाथिआन 50 ई.सी. का छिडकाव करें परन्तु दवा छिडकाव के 7 दिन तक इसके फल ना तोड़ें। 
  • बैगन, टमाटर व मिर्च : इनकी पौध यदि गत माह नहीं लगाई है तो इस माह रोपाई कर देवें। खेत से जल निकासी का इंतजाम करें।  इन फसलों  में 50 किलो यूरिया कतारों में देकर गुड़ाई करें। 
  • गोभी वर्गीय सब्जियां : इस वर्ग की अगेती फसल के लिए नर्सरी तैयार करें। पिछले माह लगाई गई फसलों में रोपाई के 30-40 दिन में 50-60 किग्रा नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से देवें। 
  • कद्दू वर्ग की सब्जियां: इन फसलों की सतत निगरानी रखें। अधिक वर्षा होने पर खेत से तुरंत जल निकासी की व्यवस्था करें।  खरपतवार नियंत्रण के आवश्यक उपाय करें। इन फसलों में फूल आते समय 25-30 किग्रा नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से थालों में देकर गुड़ाई करें। 
  • खीरा वर्गीय फसलें: फसलों में आवश्यकतानुसार निराई,गुड़ाई और सिंचाई करें।  तैयार फलों को तोड़कर बाजार भेजने की व्यवस्था करें। फसल की कीड़ों से सुरक्षा करें। 
  • गाजर व मूली: इनकी अगेती फसल के लिए इस माह बुआई करें।  इनकी उन्नत किस्मों को 5-6 किग्रा बीज को 30-35 सेमी की दूरी पर कतारों में लगाये।  बीज की बुआई 2 सेमी की गहराई पर करें. वर्षा न होने की स्थिति में सिंचाई करते रहे। 
  • लोबिया व ग्वार फली: तैयार मुलायम फलियों को तोड़कर बाजार भेजें. फलियों की तुड़ाई दो दिन के अंतराल से करते रहें।  कीटों के बचाव हेतु पौध सरंक्षण उपाय करें। 
  • अदरक/हल्दी/अरबी : इन फसलों में आवश्यकतानुसार निराई,गुड़ाई और सिंचाई करें।  रोगों से सुरक्षा हेतु 0.2% इंडोफिल-45 नामक दवा का घोल बनाकर एक छिडकाव करें।  खड़ी फसल में 40-50 किग्रा यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से कतारों में देवें। 
  • शकरकंद: पूर्व में रोपी गई फसल में निराई-गुड़ाई और मिट्टी चढाने का कार्य करें। पौध सरंक्षण के उपाय अपनावें।  इस माह भी शकरकंद की कलमें रोपी जा सकती है।   

फलोद्यान में इस माह



  • आम: पछेती किस्म के फलों को तोड़कर बाजार भेजें। आम के नये बगीचे  हेतु उन्नत किस्म के स्वस्थ पौधे रोपने का कार्य करें । देशी आम की गुठलियों की इस माह बुआई करें ताकि मूलवृन्त हेतु पौधे तैयार हो सकें।  एक वर्ष पुराने मूलवृन्तों पर विनियर कलम बाँधने का कार्य करें। 
  • केला: नए बाग़ की रोपाई का कार्य संपन्न करें एवं बाग़ में जल निकासी की व्यवस्था करें. पौधों के बगल से निकलने वाली अवांक्षित पुत्तियों (सकर्स) को निकाल देवें. केले की फसल से परिपक्व घारों की तुड़ाई कर बाजार भेजें। 
  • अमरुद: वर्षाकालीन फसल के तैयार फलों की तुड़ाई कर बाजार भेजें. पेड़ों में गूटी बाँधने का कार्य इस माह संपन्न कर लेवें। बगीचे में इंडोफिल-45 (0.2%) के घोल का छिडकाव करें। 
  • नीबू वर्गीय फल : फल वृक्षों में केंकर रोग की रोकथाम हेतु ब्लाइटाक्स-50 (0.25%) के घोल का छिडकाव करें।  पौधों की कीट पतंगों से सुरक्षा करें।  नए बाग़ लगाने का कार्य करें।
  • पपीता: पौधशाला में उन्नत किस्म के पपीता बीजों की बुआई करें। तने पर बोर्डो लेप लगावें।  बगीचे में जल निकास की उचित व्यवस्था करें। 
  • अन्य फल: आंवला के वृक्षों पर बोरेक्स का छिडकाव करें।  कटहल के फलों को तोड़कर बाजार भेजें।  बेर के पेड़ों में पत्ती खाने वाले कीटों को नियंत्रित करने के उपाय करें। 

पुष्पोत्पादन में इस माह

  • शोभाकारी पौधे: इन हरे भरे पौधों को बाहर निकाल कर  वर्षा ऋतु की बौछारों से स्नान कराने से पौधे तरोताजा और आकर्षक हो जाते है। परन्तु ध्यान रखें की वर्षा ऋतु का पानी पौधों की जड़ों के आस-पास भरा न रहें।  यह कलम लगाने का उत्तम समय है। इनमे जड़े शीघ्र विकसित होती है. अतः मन पसंद बेलें, हेज या झाड़ियाँ लगाने का कार्य संपन्न करें। 
  • गुलदावदी: इसके पौधे कुछ बड़े होने लगते है जिन्हें सीधा रखने के लिए लकड़ी का सहारा देना चाहिए। इन पौधों को ऊपर से 2-2.5 सेमी काट देने से शाखाएं और पुष्प  अधिक संख्या में  बनते  है. इनके पौधों को वर्षा जल भराव से हानि होती है। 
  • केक्टस और सकुलेंट की वर्षा के पानी से सुरक्षा करें अन्यथा ये पौधे अधिक जल में सड़ जाते है। 
  • शर्दियो के मौसमी पुष्पों जैसे कारनेसन, पिटुनिया, डहलिया, होलिहाक्स, सालविया, एस्टर  आदि के बीजों की गमलों में बुआई कर देना चाहिए।  ग्लेडियोलाई भी क्यारिओं में लगाई जा सकती है। 
  • लान में घास यदि नहीं लगाई है तो इस माह घास लगाने का कार्य संपन्न कर लेवें. पूर्व में लगाये गए लान से घास-फूस निकालने का कार्य करें।
नोट: कृपया इस लेख को लेखक की अनुमति के बिना अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं या इंटरनेट पर  प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि आपको यह लेख प्रकाशित करना ही है तो  ब्लॉगर को सूचित करते हुए लेखक का नाम और संस्था का नाम अवश्य दें एवं प्रकाशित पत्र-पत्रिका की एक प्रति लेखक को जरूर भेजें।

सामयिक कृषि: श्रावण-भाद्रपद (अगस्त) माह के प्रमुख कृषि कार्य

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 

कृषि और किसानों के आर्थिक तथा सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक है की कृषि विज्ञान की तमाम उपलब्धियो एवं समसामयिक कृषि सूचनाओं को खेत-खलिहान तक उनकी अपनी भाषा में पहुचाया जाएं। जब हम खेत खलिहान की बात करते है तो हमें खेत की तैयारी से लेकर फसल की कटाई-गहाई और उपज भण्डारण तक की तमाम सस्य क्रियाओं  से किसानों को रूबरू कराना चाहिए।  कृषि को लाभकारी बनाने के लिए आवश्यक है की समयबद्ध कार्यक्रम तथा नियोजित योजना के तहत खेती किसानी के कार्य संपन्न किए जाए। उपलब्ध  भूमि एवं जलवायु तथा संसाधनों के  अनुसार फसलों एवं उनकी प्रमाणित किस्मों का चयन, सही  समय पर उपयुक्त बिधि से बुवाई, मृदा परीक्षण के आधार पर संतुलित पोषक तत्त्व प्रबंधन, फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई, पौध  संरक्षण के आवश्यक उपाय के अलावा समय पर कटाई, गहाई और उपज का सुरक्षित भण्डारण तथा विपणन बेहद जरूरी है।
श्रावण-भाद्रपद यानि अगस्त माह में बरसात की झड़ी लगी रहती है तथा प्रकृति हरियाली से सराबोर रहती है।  इसी माह भाई-बहिन के प्यार का पवित्र त्यौहार रक्षाबंधन तथा हमारे देश की आजादी का महापर्व 15 अगस्त भी हम मनाते है. एक तरफ हरियाली से मन प्रफुल्लित रहता है तो दूसरी तरफ मच्छरों के प्रकोप से मलेरिया और डेंगू जैसे रोग फैलने की भी आशंका रहती है. फसलों में भी कीट-रोग और खरपतवारों का प्रकोप भी बढ़ जाता है। 

माह के मूलमंत्र

कीट नियंत्रण: इस माह फसलों की बढ़वार चरम पर होती है. वातावरण में नमीं और तापमान अनुकूल होने से कीटों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो जाती है।  ये कीट फसलों की पत्तियों, कलियों, पुष्पों और फलों का खाकर उपज का क्षति पहुचाते है. सही समय पर फसल लगाकर, फसल चक्र अपनाकर तथा पौध सरंक्षण के उपाय अपनाकर हानिकारक कीट पतंगों पर काबू पाया जा सकता है। 
रोग नियंत्रण: इस माह फसलों में भांति-भांति के रोगों का प्रकोप भी होता है जिससे उपज में कमीं के साथ-साथ फसलोत्पादन की गुणवत्ता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।  इसके लिए रोग प्रतिरोधक किस्मों का चयन करते हुए बीज उपचार कर फसल की बुआई करे तथा आवश्यकतानुसार रोगनाशक दवाईयों का इस्तेमाल कर रोगों से होने वाली क्षति से बचा जा सकता है। 
खरपतवार नियंत्रण: खरीफ फसलों में खरपतवार प्रकोप से उपज में  भारी नुकसान होने की संभावना रहती है. अतः खेतों और मेंड़ो पर खरपतवार विल्कुल ना पनपने दें।  सही समय और उचित विधि से खरपतवार नियंत्रण करें।  फसल बुआई से लेकर 35-40 दिन तक खेत खरपतवार मुक्त रखने का प्रयास करना चाहिए ताकि भरपूर उत्पादन प्राप्त हो सकें।
          श्रावण-भाद्रपद अर्थात अगस्त माह में किसान भाइयों को सतत चौकन्ना रहना है क्योंकि वातावरण में अधिक नमी होने के कारण फसलों के कीट-रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है साथ ही घास-पात भी फसल के साथ बढ़वार करने पर्तिस्पर्धा करने लगते है।  इस माह फसलोत्पादन में   संपन्न किये जाने वाले महत्वपूर्ण कृषि कार्यों की फसल्वर संक्षिप्त जानकारी अग्र प्रस्तुत है। 
धान: फसल में नत्रजन की  प्रथम ¼ मात्रा कल्ले फूटे समय एवं दूसरी ¼ मात्रा बालिओं में गोभ निकलते समय यूरिया के रूप में देवें।  खाद देते समय खेत में पानी भरा न रहें।  खैरा रोग के नियंत्रण हेतु जिंक सल्फेट 5 किग्रा तथा 2.5  किग्रा  चूना को 700  लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें। फसल में झुलसा रोग के लक्षण दिखने पर नाटीवो 75 डब्लू. जी. 4 ग्राम प्रति लीटर या ट्राईसायक्लाजोल कवकनाशी 6 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में घोलकर 12-15 अंतराल पर छिड़काव करें।  को आवश्यक पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करें। सीधे बोये गए धान के खेत में पर्याप्त पानी होने पर  बियासी-चलाई का कार्य संपन्न कर प्रति इकाई ईष्टतम पौध संख्या स्थापित कर लेवें। धान में कटुआ इल्ली का प्रकोप दिखने पर डाइक्लोरोवास 80 ई.सी. 600 मिली प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। 
सोयाबीन: फसल को खरपतवार मुक्त रखने के लिए निदाई-गुड़ाई करें। फसल में फूल आते समय ब्रेसिनोस्टयराइड्स 0.25 ग्राम व सायटोकायनीन 2.5 ग्राम को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव करने से सभी फूल नहीं झड़ते है जिससे फलियाँ अधिक बनती है। फसल की कीड़ों से सुरक्षा हेतु क्विनालफॉस 25 ई.सी. 1250 मिली अथवा ट्रायजोफॉस 40 ई.सी. 1 लीटर या क्लोरपायरोफॉस   20 ई.सी. 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। 
मूंगफली:समय पर बोई गई फसल फलियों में दाना भरने की दूधिया अवस्था में होगी।  इस समय कोई सस्य क्रिया नहीं की जानी है।  देर से बोई गई फसल में सुइयां (पेग्स) भूमि में प्रवेश करने की अवस्था में होंगी।  इस अवस्था में भी भूमि में कोई सस्य कार्य नहीं करना है परन्तु जिन क्षेत्रों में फसल सुइयां बनने की पूर्व की अवस्था में हो, वहां पर फसल में निराई-गुड़ाई कर मिट्टी को पौधों के चारों ओर चढाने का कार्य संपन्न किया जाना चाहिए।  यदि मूंगफली की पत्तियाँ पीली पड़ रही है तो फेरस सल्फेट 0.5% का घोल (500 ग्राम फेरस सल्फेट का 100 लीटर पानी में घोल)  अथवा व्यापारिक श्रेणी का गंधक अम्ल 0.1% (100 मिली अम्ल 100 लीटर पानी में घोल) का फसल पर छिडकाव करें। 
गन्ना:  वर्षा और तेज हवाएं चलने के कारण पौधे गिर सकते है जिससे पैदावार और गुणवत्ता में भारी गिरावट आती है।  पौधों को गिरने से बचाने के लिए गन्ने की दो कतारों के पौधों की पत्तियों को चोटी की तरह आपस में बाँध देना चाहिए। इससे पौधे सीधे खड़े रहेंगे तथा दो-दो कतारों के बीच खुला स्थान हो जाने के कारण वायु संचार अच्छा होगा। कीट रोग से फसल की सुरक्षा हेतु पौध सरंक्षण के  आवश्यक उपाय करें। 
मक्का: खेत से वर्षा जल के निकास हेतु उचित व्यवस्था करना आवश्यक है।  देर से बोई गई मक्का फसल में पौधे घुटनों की ऊंचाई पर आ जाने पर नत्रजन की दूसरी क़िस्त कतारों में देवें।  जहाँ मक्का फसल झंडे आने की अवस्था में है, वहां नत्रजन उर्वरक की अंतिम क़िस्त पौधों के आस-पास देवें। मक्का में तनभेदक कीट की रोकथाम हेतु कार्बोफ्यूरॉन 3 जी 20 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के 20-25 दिन बाद प्रयोग करें । हरे भुट्टों के लिए लगाई गई मक्का/स्वीट कॉर्न  के मुलायम भुट्टों की तुड़ाई कर विक्रय हेतु  बाजार भेजें। 
ज्वार/बाजरा: खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था रखें। फसल में  निराई-गुड़ाई कर नत्रजन की शेष  क़िस्त को कतारों में देवें।  फूल और दाना विकास की अवस्था में खेत में पर्याप्त नमीं बनाये रखें. कीट-रोग नियंत्रण के आवश्यक उपाय  मक्का की भांति करें। 
दलहन एवं तिलहन: अरहर, मूंग, उर्द आदि  के खेत में जल निकासी की व्यवस्था करें।  इन फसलों में फूल आने की अवस्था पर खेत में हल्की नमीं बनाए रखने से उपज में इजाफा होता है। फसल को सफ़ेद मक्खी के प्रकोप से बचाने के लिए मैटासिस्टाक्स (1 मिली प्रति लीटर पानी) या नुवान (1 मिली प्रति ३ लीटर पानी) का छिड़काव करें।  सफ़ेद मक्खी के नियंत्रण से फसल में पीत शिरा रोग फैलने की सम्भावना कम हो जाती है। 
मूंगफली: फसल में फूल और फल विकसित होने की अवस्था के समय वर्षा न होने की स्थिति में हल्की सिंचाई करें।  फूल आने के पूर्व फसल में निंदाई-गुड़ाई और पौधों पर मिट्टी चढाने का कार्य संपन्न कर लेवें। 
तिल: जुलाई में बोई गई फसल में निराई-गुड़ाई करें तथा अधिक उत्पादन हेतु फसल पर 0.5% जिंक सल्फेट तथा 0.25% चूने के पानी को मिलकर छिडकाव करे।  वर्षा थमने पर इस माह भी तिल की बुआई की जा सकती है। फसल में झुलसन रोग के लक्षण दिखने पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 3 ग्राम या मेटलेक्जिल 2 ग्राम दवा प्रति पानी में घोलकर खड़ी फसल पर छिड़काव करें।  
कपास: फसल में निराई-गुड़ाई कार्य करें। नत्रजन की शेष एक तिहाई मात्रा जुलाई के अंत में तथा शेष बची एक तिहाई मात्रा फूल आते समय कतार में देवें।  फसल में फूल और बाल (टिन्डे) बनते समय हस्त चलित स्प्रयेर से यूरिया 2.5% घोल का पर्णीय छिडकाव करें। कपास में फूल आते समय एन.ए.ए. का छिडकाव (125 मिली/हे.) लाभप्रद पाया गया है।

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सोमवार, 29 मई 2017

सामयिक उद्यानिकी :फाल्गुन-चैत्र (मार्च) में बागवानी के प्रमुख कार्य

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 

कृषि प्रधान देश होते हुए भी भारत में फल एवं सब्जिओं की खपत प्रति व्यक्ति प्रति दिन मात्र 80 ग्राम है,जबकि अन्य विकासशील देशों में 191 ग्राम, विकसित देशों में 362 ग्राम और  संसार में औसतन 227  ग्राम है।  संतुलित आहार में फल एवं सब्जिओं की मात्रा 268 ग्राम होना चाहिए। भारत में फल एवं सब्जिओं की खेती सीमित क्षेत्र में की जाती है जिससे उत्पादन में कम प्राप्त होता है। स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण फल और सब्जिओं के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार के साथ-साथ प्रति इकाई उत्पादन बढाने की आवश्यकता है ।  इन फसलों से अधिकतम उत्पादन और लाभ अर्जित करने के लिए किसान भाइयों को सम सामयिक कृषि कार्यो पर विशेष ध्यान देना होगा तभी इनकी खेती लाभ का सौदा साबित हो सकती है।  समय की गति के साथ कृषि की सभी क्रियाए चलती रहती है  अतः समय पर कृषि कार्य संपन्न करने से ही आशातीत सफलता प्राप्त होती है। प्रकृति के समस्त कार्यो का नियमन समय द्वारा होता है।  उद्यान के कार्य भी समयबद्ध होते हैं। अतः उद्यान के कार्य भी समयानुसार संपन्न होना चाहिए।   उद्यान फसलों (सब्जी, फल और पुष्प) के सामयिक कार्यों को समझना और नियत समय पर उन्हें व्यवहार में लाना अति आवश्यक है।  आइये हम बागवानी में कौन से कार्य कब संपन्न करना आवश्यक है, इस पर माह वार चर्चा करते है। 
फाल्गुन-चैत्र  अर्थात मार्च  माह में खेतों में सरसों के पीले फूलों की न्यारी छटा निहारते ही बनती है। होली आती है तो लगने लगता है की शर्दी की विदाई का समय आ गया है।  वास्तव में यह प्रकृति की जाती हुई बहार और ग्रीष्म ऋतु के स्वागत का महिना है। कद्दू वर्गीय सब्जिओं जैसे लौकी, खीरा, करेला, तोरई आदि की खेती मचान बनाकर करने से परम्परागत विधि (समतल खेत एवं मेड़ें बनाकर) से उगाई गई फसल की अपेक्षा प्रति इकाई क्षेत्र से 3-4 गुना अधिक आमदनी प्राप्त होती है।  मचान विधि द्वारा उगाई गई बेल वाली सब्जी के पौधों को अधिक प्रकाश और हवा मिलने से उनमें पर्याप्त बढ़वार होती है। पौधों में अधिकतर फल लटके होने की वजह से अधिक लम्बे होते है, उनका आकर और रंग अधिक समरूप और आकर्षक होने से बाजार में बेहतर मूल्य प्राप्त होता है।  इस माह  बागवानी में संपन्न किये जाने वाले प्रमुख  समसामयिक  कृषि कार्यो पर विमर्श करते  है। 

सब्जियों में इस माह

v इस माह तैयार सब्जियां जैसे पछेती गोभी, मटर, शिमला मिर्च,टमाटर,बैगन, मिर्च, सूरन, मूली,गाजर, शलजम  आदि की तुड़ाई/खुदाई कर बिक्री हेतु बाजार भेजें। प्याज और लहसुन की फसल में आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई और सिचाई करते रहें। इन फसलों की  रोगों से सुरक्षा हेतु 0.2 % इंडोफिल-45 नामक दवा का घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करें। 
v भिन्डी: ग्रीष्मकालीन फसल की बुआई इस माह भी की जा सकती है.  पीत  शिरा रोग प्रतिरोधी किस्में किसी प्रतिष्ठित संस्थान से खरीदे।  भिन्डी की उन्नत किस्मों का बीज 18-20 किलो तथा संकर किस्मों का बीज 15 किलो प्रति हेक्टेयर बुआई हेतु पर्याप्त होता है. बीज बोने से पहले 24 घंटे पानी में डुबोकर रखने के बाद बुआई करने से अंकुरण अच्छा होता है। 
v टमाटर: पूर्व में लगाई गई फसल/पौध में निंदाई-गुड़ाई-सिंचाई समय पर करते रहें। पौध लगाने के 30 और 50 दिन बाद उन्नत किस्मों में 25-25 किलो नत्रजन तथा संकर किस्मों में 35-35 किलों नत्रजन कतारों में देकर सिंचाई करें। 
v बैगन: वर्षाकालीन फसल के लिए तैयार नर्सरी में पानी देकर सावधानी से पौध निकालकर तैयार खेत में रोपाई करें। रोपाई से पूर्व खेत की अंतिम जुताई के समय 8-10 टन गोबर की खाद के अलावा 40-50 किलो नत्रजन, 60-70 किलो फॉस्फोरस और 30-40 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें. पौधों की रोपाई शाम के समय कतारों में 60-70 से.मी. तथा पौधों के मध्य 50-60 से.मी. की दूरी पर करने के पश्चात हल्की सिंचाई करें. पौध रोपाई के 20 दिन बाद तथा पुष्पन अवस्था के समय 20-20 किलो नत्रजन कतार में देकर गुड़ाई और सिंचाई करे। 
v मिर्च: ग्रीष्मकालीन फसल हेतु यदि पिछले माह नर्सरी तैयार नहीं की है तो इस माह नर्सरी लगाई जा सकती है।  एक हेक्टेयर के लिए 1-1.5 किलों बीज की नर्सरी पर्याप्त होती है. नर्सरी में 8-10 ग्राम कार्बोफ्यूरान 3 जी प्रति वर्ग मीटर की दर से मिट्टी में मिलाने के उपरांत बुआई कर हल्की सिंचाई करें।    
v कुष्मांड कुल की सब्जियां: इस माह के प्रथम सप्ताह तक तोरई, कद्दू,करेला, टिंडा, लौकी  आदि की बुआई करें। बुआई पूर्व बीज को 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें।  खेत की अंतिम जुताई के समय 10-12 टन गोबर की खाद तथा बुआई के पहले 25 किलो नत्रजन, 30 किलो फॉस्फोरस तथा 20 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से थालों  में देवें। बुआई के एक माह बाद 30 किलो नत्रजन फसल में फूल आते समय देकर सिंचाई करें।  गत माह लगाई गई सब्जिओं में आवश्यकतानुसार उर्वरक और प्रति सप्ताह सिंचाई देते रहें। 
v ग्रीष्मकालीन सब्जिओं की पत्तियों पर सफ़ेद पाउडर (मिलड्यू रोग) दिखने पर 500 ग्राम वेविस्टिन को 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।  पत्तों की निचली सतह पर बैंगनी-भूरे रंग के धब्बे नज़र आने पर 1000 ग्राम डाईथेन एम-45 को 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें। खीरा वर्गीय फसलों में आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई और सिंचाई करते रहें। ककड़ी के तैयार मुलायम फलों को तोड़कर बाजार भेजें। कददू का लाल गिडार कीट की रोकथाम हेतु एसीफेट 75 एस.पी. के 0.1 % घोल का छिड़काव करें। माहू और फल वेधक मक्खी की रोकथाम के लिए डाइमेथोएट 30 ई.सी. के 0.1 % घोल का फल तोड़ने के पश्चात  छिड़काव करें। प्रति थाला 10-15 ग्राम यूरिया डालकर सिंचाई करें। 
v गत माह लगाई गई बैंगन और टमाटर की फसलों में आवश्यकतानुसार गुड़ाई और सिंचाई करें।  फल छेदक कीट के नियंत्रण हेतु 500 मिली मैलाथियान 500 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।  दवाई छिडकने से पहले तैयार फलों को तोड़ कर बिक्री हेतु बाजार भेजें। 
v हल्दी/अदरक: इन फसलों में समय-समय पर सिंचाई करते रहे।  तैयार फसल की खुदाई-सफाई कर  विक्रय हेतु बाजार भेजें।  अदरक और हल्दी  की नई फसल  लगाने का यह उपयुक्त समय है। खेत की अंतिम जुताई के समय 100 किग्रा नत्रजन, 80 किग्रा फॉस्फोरस तथा 60 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से कतारों में देवें।  इनके स्वस्थ कंदो को 45  x 15  से.मी. की दूरी पर मेंड़ों पर लगाना चाहिए। बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमीं होना चाहिए।     
v आलू: फसल में सिंचाई देना बंद कर देना चाहिए और इसकी पत्तिया सूखने पर खुदाई आरम्भ कर देना चाहिए। देर से खुदाई करने  आलू सड़ना शुरू हो जाता है। हरे,छोटे और कटे-फटे आलुओं को अलग कर शेष मात्रा को या  विक्रय हेतु बाजार भेजें अथवा  शीत गृह भेजने की व्यवस्था करें। 

फलोत्पादन में इस माह

v बाग-बगीचों में अधिकतर पेड़ लगाने, काट-छांट तथा खाद-पानी देने का कार्य संपन्न कर लेवें।बगीचे में आवश्यकतानुसार पानी देते रहें। 
v आम: आम के वृक्षों में फूल आने के बाद फल बनने तक सिंचाई नहीं करें।   जिन पौधों में फूल/फल नहीं आ रहे है, उनमें थालों की निंदाई-गुड़ाई कर समय-समय पर सिंचाई करते रहें। इस माह  आम के वृक्षों में भुनगा (मेंगो हॉपर) कीट का प्रकोप हो सकता है। कीड़े दिखने पर क्यूनालफॉस 0.05 % (2 मिली. दवा प्रति लीटर पानी में मिलाकर) छिड़काव करें। कीड़ो का प्रकोप कम नहीं होता है तो दूसरा छिड़काव मिथाइल डिमेटॉन 0.04 % (1.5  मिली. दवा प्रति लीटर पानी में मिलाकर) का करने से कीड़े समाप्त हो जाते है।  पत्तों पर सफ़ेद चूर्ण रोग के लक्षण दिखते ही फल बनने के तुरंत बाद डाइनोकेप 0.05  % (0.5  मिली. दवा प्रति लीटर पानी) का  छिड़काव 20  दिन के अंतराल से दो बार  करें।
v सिंचाई की सुविधा होने तथा गर्म हवा/धूप  से पौधों की सुरक्षा कर सकें तो इस माह अमरुद, आंवला, अनार, नीबू आदि के पौधे लगाये जा सकते है।  इन पौधों की कटिंग्स लगाने से पहले आई.बी.ए. के 1000  पी.पी.एम. घोल (एक ग्राम प्रति लीटर पानी) में डुबोकर लगाये. पौधे लगाने के लिए गड्ढे निर्धारित आकार के खोदें।  नीबू के लिए 90 x 90 x 90 से.मी., अनार व आंवला के लिए 60 x 60 x 60 से.मी.तथा बेर के लिए 1 x 1 x 1 मीटर के गड्ढे खोदकर 10-15 दिन तक धूप में तपायें जिससे मिट्टी में उपस्थित कीड़े-मकोड़े नष्ट हो जावें।  इसके बाद 15-20 किलो सड़ी हुई गोबर की खाद तथा 1 किलो सुपर फॉस्फेट के अलावा क्युनालफ़ॉस 1.5% डस्ट  मिट्टी में मिलाकर  गड्ढों में भरने के पश्चात इनमें  पौधे लगाकर हल्की सिंचाई करें। इसके पश्चात 7-8 दिन के अंतराल से बून्द-बून्द विधि से सिंचाई की व्यवस्था करें। 
v अमरुद: अमरुद के पौधों से वर्षा ऋतु के फल लेना है तो 1-3 वर्षीय पौधों में 100 ग्राम, 4-6 वर्षीय में 150-200 ग्राम, 7-10 वर्षीय में 250-300 ग्राम यूरिया  खाद  प्रति पौधा देकर सिंचाई करें।   फल नहीं लेना है तो खाद और सिंचाई की आवश्यकता नहीं है। तना भेदक कीट की रोकथाम के उपाय करें।   
vलीची: इस माह लीची में फूल आने के 15  दिन पूर्व 3 ग्राम जिंक सल्फेट और 3 ग्राम यूरिया को प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से फूल अधिक आते है। फूल आने के दो सप्ताह पहले एक सिंचाई करें। 
v  नीबू वर्गीय फल: केंकर रोग से रोगथाम हेतु ब्लाइटॉक्स-50 (0.25%) का छिड़काव करें।  पीले-पके फलों को तोड़कर बाजार भेजें। पेड़ों के टनों को चूने से पॉट देवें। पौधों में गूटी बांधने का कार्य करें।  पौधशाला में मूलवृंत तैयार करने के वास्ते बीजों की बुआई करें।  
v फल परिरक्षण: संतरा और नींबू  का शरबत  तैयार करें। केला,पपीता, सेब तथा आंवला का जैम तैयार करें। अनार का रस तैयार किया जा सकता है।  आंवला और सेब का मुरब्बा तैयार किया जा सकता है।  आलू के चिप्स तैयार किये जा सकते है। 

पुष्पोत्पादन में इस माह

v गर्मी वाले फूलों जैसे बालसम,फ्रेंच गेंदा, पिटूनिया, पोर्चुलाका, साल्विया, सूरजमुखी, जिनिया, वर्विना आदि की बुआई करें।  बुआई के बाद नियमित रूप से नर्सरी की सिंचाई तथा निराई-गुडाई करते रहें। 
v सर्दियों में जो फूल खिल चुके है उनके बीज एकत्रित करना प्रारंभ करें। 
v गुलाब के पौधों की सूखी डालें और फूलों को बराबर काटकर निकालते रहें. गमलों में प्रतिदिन पानी देना चाहिए तथा क्यारिओं में 4-5 दिन में पानी देवें. पौधों में बडिंग कर नए पौधे तैयार करें। 
v गमलों में लगे हुए कन्दीय पुष्प जैसे डह्लिया, लिलियम आदि में पानी देना बंद कर देवें। इनकी पत्तिय सूखने पर गमलों को छायादार स्थान में रख देवें। 
v गमलों में लगाये गए गुलदावदी के पौधों की निराई और सिंचाई करते रहे तथा तेज धुप से इनकी सुरक्षा करें। 
v इस माह नई हेज़ जैसे लेंटाना, टिकोमा, हेमेलिया,केशिया आदि  लगाने के लिए क्यारिओं में बीज बोये जा सकते है।  यह माह प्रसारण एवं कलम लगाने के लिए बहुत उपयुक्त है. हाईविस्क्स, हेमेलिया, एकलिफा, बोगेनविलिया, डूरेंटा, इरेंथियम आदि का प्रसारण भलीभांति किया जा सकता है। 
v इस माह लॉन की घास शीघ्रता से बढती है, अतः इसमें सिंचाई, मशीन से कटाई  और रोलर चलाने का कार्य करते रहे।  नए लॉन  में घास लगाने के लिए भूमि की तैयारी करें। 

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सामयिक कृषि : फाल्गुन-चैत्र (मार्च) माह के प्रमुख कृषि कार्य

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़) 

कृषि और किसानों के आर्थिक तथा सामाजिक उत्थान के लिए आवश्यक है की कृषि विज्ञान की तमाम उपलब्धियो एवं समसामयिक कृषि सूचनाओं को खेत-खलिहान तक उनकी अपनी भाषा में पहुचाया जाएं। जब हम खेत खलिहान की बात करते है तो हमें खेत की तैयारी से लेकर फसल की कटाई-गहाई और उपज भण्डारण तक की तमाम सस्य क्रियाओं  से किसानों को रूबरू कराना चाहिए।  कृषि को लाभकारी बनाने के लिए आवश्यक है की समयबद्ध कार्यक्रम तथा नियोजित योजना के तहत खेती किसानी के कार्य संपन्न किए जाए। उपलब्ध  भूमि एवं जलवायु तथा संसाधनों के  अनुसार फसलों एवं उनकी प्रमाणित किस्मों का चयन, सही  समय पर उपयुक्त बिधि से बुवाई, मृदा परीक्षण के आधार पर संतुलित पोषक तत्त्व प्रबंधन, फसल की क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई, पौध  संरक्षण के आवश्यक उपाय के अलावा समय पर कटाई, गहाई और उपज का सुरक्षित भण्डारण तथा विपणन बेहद जरूरी है।

मार्च यानि फाल्गुन-चैत्र बसंत ऋतु आगमन का माह है।  इस माह पौधों में वृद्धि, पुष्पन तथा फलन की सक्रियता प्रारंभ हो जाती है।  वातावरण का तापमान बढ़ने से गर्मी का आभास होने लगता है। तापमान बढ़ने से फसलों की जलमांग बढ़ जाती है।  इस माह वातावरण का अधिकतम और न्यूनतम तापक्रम क्रमशः 35.0 और 21. डिग्री  से.ग्रे. के आस पास रहता है। इस समय  सापेक्ष आद्रता कम हो जाती है तथा वायु की गति तेज होने लगती है। कभी-कभी तेज आंधी आने से आम की फसल को हांनि होती है। इस महीने हम महाशिवरात्रि और भाई चारे का त्यौहार  होली उमंग और उत्साह से मनाते  है।  बसंत ऋतु आगमन पर चारों तरफ फूलों की बहार  से  जीवन में खुशहाली छा जाती है । इस माह किसान  भाइयों को गर्मी से पौधों की सुरक्षा तथा सिंचाई नालियों की मरम्मत कर लेना चाहिए।  कृषि के लिए पानी की उपलब्धता निरंतर  घटती जा रही है. अतः दिन प्रति दिन घटते जल संसाधनों  से अधिकतम फसलों में सिंचाई कर भरपूर पैदावार लेने के लिए किसान भाइयों को फसलों में सिंचाई के लिए निम्न तीन विधियां अमल में लाना चाहिए।  
माह के तीन सूत्र
ü बूंद-बूंद सिंचाई: इस टपक सिंचाई भी कहते है जो की उथली मिट्टी, दोमट मिट्टी तथा ऊंची-नीची जमीनों के लिए सर्वश्रेठ तथा सब्जिओं, फल-फूलों में सिंचाई के लिए उपयुक्त विधि है।  इसमें पानी बूंद-बूंद कर गिरता है जो कि आवश्यकतानुसार  पौधों की जड़ो तक पहुँचता है।  इस विधि में जल रिसाव और वाष्पन से पानी की हांनि कम होती है जिससे 50-75 % पानी की वचत होती है और उपज में बढ़ोत्तरी होती है। 
ü फब्बारा विधि: सिंचाई की यह विधि कम पानी वाले क्षेत्रों की बलुई मिट्टी, ऊंची-नीची जमीनों के लिए सर्वथा उपयुक्त पाई गई है।  यह  गेंहू, गन्ना,कपास, मूंगफली, सब्जिओं तथा फूलों की खेती के लिए बेहद उपयोगी है।  इस विधि में पानी वर्षा की बौछारों की भांति गिरता है जिससे फसल में कीट-रोग कम लगते है तथा पैदावार में इजाफा होता है। 
ü सिंचाई की एकांतर कूंड विधि: सिंचाई की इस विधि में गन्ना, मक्का और कपास जैसी फसलों में प्रत्येक दुसरे कूंड में पानी दिया जाता है जिससे 20-30 % पानी की वचत होती है. फसलों की उपज और  उर्वरक दक्षता भी बढती है। 
फसलोत्पादन में फाल्गुन-चैत्र अर्थात मार्च महीने में संपन्न किये जाने वाले कृषि कार्यों की फसल वार चर्चा करते है .

  •     गेंहू एवं जौ : समय पर बोई गयी  गेंहू की फसल में दानों की दुधियावस्था एवं  दाना पकते समय सिंचाई आवश्यक है। देरी से बोये गए गेंहू में बालियां आने की अवस्था पर सिंचाई करें। फसल में फूल बनते और दाना विकसित होते समय मिट्टी में नमीं की कमीं से उपज में भारी गिरावट होती है।   असिंचित क्षेत्रों में गेंहू की कटाई व मड़ाई का कार्य करें। जौ की फसल में दानों की दुधिया अवस्था में सिचाई करने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है।   
  •     रबी दलहन : चना, मटर, तिवड़ा   और  मसूर की फसल में 75 % फलियाँ और पत्तियाँ पीली हो जाय  तथा पौधे सूखने लगें तो इन फसलों की सावधानीपूर्वक  कटाई संपन्न करें  और फसल के पूरी तरह सूखने पर  मड़ाई करें । देर से बोई गई इन फसलों में दाना भरने की अवस्था में सिंचाई करने से उपज में काफी बढ़ोत्तरी होती है। 
  •     राइ-सरसों: सरसों फसल की कटाई और गहाई का कार्य यथाशीघ्र संपन्न करें। फसल की 75 % फलियों के सुनहरा पीला पड़ने पर कटाई करना उचित रहता है।  कटाई सुबह करने से फलिओं के चटकने का अंदेशा नहीं रहता है।  अधिक पकने पर दाने झड़ने लगते है. काटी हुई फसल को खलिहान में अधिक समय तक ना रखे अन्यथा पेन्टेड बग नमक कीट  दानों को क्षति पहुंचा सकता है।  यदि शीघ्र गहाई संभव नहीं है तो खलिहान की भूमि (फर्श) को गोबर से लीप कर उसमे मिथाइल पैराथियान 2% पाउडर का भुरकाव कर फसल ढेर बनाकर रखें।
  •     अलसी एवं सूरजमुखी : फसल की समय पर कटाई एवं मड़ाई संपन्न करें। देर से कटाई करने पर दाने छिटकने लगते है जिससे उपज में नुकसान होता है।  सूरजमुखी में बुआई के 15-20 दिन बाद विरलीकरण द्वारा पौधों से पौधों के मध्य 25-30 से. मी. की दूरी कायम कर लेवें। इसमें प्रथम सिंचाई 20-25 दिन में करें। इसके बाद 30 किलो नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से कतारों में देकर पौधों में मिटटी चढाने का कार्य करें। 
  •     धान : ग्रीष्मकालीन धान  में  बकाया नत्रजन कतारों में देवें।  खेत में उपयुक्त जल स्तर बनाये रखने के लिए   सिंचाई करते रहें। कीट रोग आक्रमण से फसल की सुरक्षा करें। 
  •    मक्का: पूर्व में बोई गई मक्का में झंडे आने पर बकाया नत्रजन पौधों के तने के पास डालकर मिट्टी चढाने का कार्य करें जिससे फसल का गिरने से बचाव हो सके. इस समय एक हल्की सिंचाई भी करें।  इसके बाद 15-20 दिन के अंतराल से सिंचाई तथा  आवश्यकतानुसार पौध सरंक्षण कार्य करे। 
  •       गन्ना: बसंतकालीन गन्ने की बुआई/रोपाई करने का यह उचित समय है। ध्यान रहे कि बीज हेतु उन्नत किस्म के स्वस्थ गन्ने के ऊपरी दो तिहाई भाग से 2-3 आँखों वाले टुकड़ों को ही बुआई के लिए इस्तेमाल करें।  गन्ने की तैयार फसल की कटाई कर शीघ्र ही विक्रय हेतु शक्कर कारखाना भेजने की व्यवस्था करें। 
  •          गन्ने के साथ सहफसली खेती: गन्ने में शुरू में बढ़वार धीमी होती है इसका लाभ उठाते हुए गन्ने की दो कतारों के बीच एक पंक्ति शीघ्र तैयार होने वाली मूंग, उर्द, गुआर फली, लोबिया, भिन्डी आदि की अन्तः फसली खेती की जा सकती है।  इससे गन्ने में खरपतवार प्रकोप कम होता है तथा अतरिक्त फसल भी मिल जाती है। 
  •      गन्ने में दीमक और जड़ वेधक कीट से सुरक्षा हेतु 2.5 लीटर क्लोरोपायरोफ़ॉस 20 ई सी का 800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव करें। शरदकालीन गन्ने में 1/3 नत्रजन की दूसरी किश्त इस माह के अंत तक देवें और सिंचाई करें ।
  •        अरहर: देरी से बोई गई अरहर की फसल में फलियों में दाना भरते समय सिंचाई करें तथा फली छेदक कीट से फसल की सुरक्षा हेतु आवश्यक उपाय करें। समय पर लगाईं गई फसल पकने पर सावधानीपूर्वक  कटाई और गहाई करें ।
  •     मूंग व् उर्द : सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में ग्रीष्मकालीन उर्द और  मूंग  की बुआई इस माह के प्रथम पखवाड़े तक संपन्न कर लेवें।  इनकी शीघ्र तैयार होने वाली किस्मे लगाये जिससे वर्षा आगमन से पहले फसल तैयार हो जावे।  प्रति हेक्टेयर मूंग का 25-30 तथा उर्द का 30-35   किग्रा बीज को  थिरम से उपचारित करने के बाद 25-30 सेमी की दूरी पर कतारों में बोया जाना चाहिए। इन फसलों में बुआई के समय 20 किग्रा नत्रजन, 40-50 किग्रा. फॉस्फोरस तथा 20 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। फसल बुआई पश्चात खेत में हल्की सिंचाई देवें। 
  •   चारा फसलें: बरसीम और लूसर्न की कटाई  आवश्यकतानुसार करते रहें  तथा प्रत्येक कटाई पश्चात सिंचाई  अवश्य करें। बीज बनाने हेतु बरसीम की कटाई इस माह रोक देवें। ग्रीष्काल हेतु हरे चारे के लिए  ज्वार व बाजरा की बुआई करें।  ज्वार का 30 किलो बीज प्रति हेक्टेयर 25 से.मी. की दूरी पर कतारों में बोये।  बाजरा की बुआई कतारों में 30 से.मी. की दूरी पर करें। इसके लिए 10 किग्रा प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त होता है।   इन फसलो के  साथ मिश्रित फसल के रूप में  लोबिया की बुआई करे।  चारे हेतु ज्वार की कटाई पुष्पावस्था के समय ही करें। छोटी अवस्था में ज्वार चारा जहरीला (एच.सी. एन.) होता है। 
  •    वर्ष भर हरा चारा उत्पादन हेतु संकर हांथी घास (नैपियर) लगायें। इसे जड़ो या टनों के टुकड़ों से उगाया जाता है. लगभग 50 सेमी लम्बे 2-3 गांठों वाले 30,000 टुकड़े प्रति हेक्टेयर लगते है. इसके लिए आधा टुकड़ा जमीन  में तथा आधा टुकड़ा ऊपर रखक कर कतार से कतार  75 से.मी. तथा पौध से पौध  60 से.मी. की दूरी रखते हुए तैयार खेत में इनका रोपण करने के बाद  सिंचाई करें।

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